मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 57 – आपसुक…! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #57 ☆ 

☆ आपसुक…! ☆ 

तुझ्या माझ्यातला पाऊस

आता पहिल्यासारखा

राहिला नाही… . .

तुझ्या सोबत जसा

पावसात भिजायचो ना

तसं पावसात भिजणं

होत नाही

आता फक्त

मी पाऊस

नजरेत साठवतो…

आणि तो ही ;

तुझी आठवण आली की

आपसुकच गालावर ओघळतो.

तुझं ही काहीसं

असंच होत असेल

खात्री आहे मला . . .

तुझ्याही गालावर

नकळत का होईना

पाऊस ओघळत असेल…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 65 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 65 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… अहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’…अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा- स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर, सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग- दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर, नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को  रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 17 ☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य)

☆ किसलय की कलम से # 17 ☆

☆ हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति रुकना अनिवार्य ☆

अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बने।  विश्व के समस्त धर्मों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है। किसी अन्य धर्म की आलोचना करना अथवा किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा। लोग अपने-अपने धर्मानुसार जीवन यापन व धर्मसम्मत पूजा,भक्ति, प्रार्थना और ध्यान कर आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं। विश्व के अलग-अलग देशों में किसी न किसी धर्म की बहुतायत होती ही है। उस देश के लोग वर्ष भर अपने धर्मानुसार पर्व, उत्सव, जन्मदिवस, मोक्ष दिवस आदि मनाते हुए सामाजिक जीवन खुशी-खुशी जीते हैं। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उस देश के अन्य धर्मावलंबी अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जीते। अन्य धर्मों के कार्यक्रम अथवा पर्वों में जनाधिक्य का अभाव व यदा-कदा असहजता प्रकट होना अलग बात है, लेकिन विश्व के अधिकांश देशों में किसी को भी अपने धर्म सम्मत जीवन यापन करने की कोई रोक-टोक नहीं है। हर देश में वहाँ की परिस्थितियों, मान्यताओं, ग्रंथों एवं संस्कृति का महत्त्व होता है। प्राचीन प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के अनुरूप धर्म का अनुकरण भी उस धर्म के अनुयायी करते हैं। पूरे विश्व में परम्परायें एवं परिस्थितियाँ समय, दूरी व मान्यताओं के चलते भिन्न भिन्न होती हैं।

अलग-अलग धर्मों के मतानुसार एक ही बात, एक ही वस्तु या एक ही कार्य पवित्र-अपवित्र अथवा उचित-अनुचित भी हो सकते हैं। आशय यह है कि हमारे लिए जो बातें सही हैं वे अन्य धर्म के लिए असंगत भी हो सकती हैं। यही बात उनके लिए भी लागू होती है परन्तु ऐसा नहीं है कि सर्वत्र मानवता, हिंसा, बुराई, अच्छाई, अथवा घृणा के भी अलग अलग मायने हैं।

विश्व के किसी भी देश का एक सच्चा इंसान ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास रखता है। अधिकांश महापुरुषों, धर्मगुरुओं एवं विशिष्ट लोगों के विचार भी किसी अन्य धर्म की आलोचना को अनुमति नहीं देते। हर देश में 5 से 10% लोग धर्मों के बँटवारे व धर्म की राजनीति करने वाले पाए ही जाते हैं। ये वही विघ्नसंतोषी लोग हैं, जो अपने स्वार्थ अथवा थोड़ी प्रसिद्धि हेतु अपने प्रभाव व समर्थकों के साथ अन्य धर्मों के विरुद्ध विष वमन करते हैं। कुछ दिग्भ्रम व अवसरवादी लोग भी इनसे जुड़कर सद्भाव के वातावरण को दूषित करते हैं। अनेक धर्मावलंबियों से लम्बी वार्ताएँ, अध्ययन एवं विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि 5 से 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर शेष सभी धर्मावलंबी आपसी सद्भाव और शांति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं।

समाज में सभी प्रेम-भाईचारे के साथ खुश रहते हैं। इन विघ्न संतोषियों के उन्माद के कारण फिजा में जरूर अल्प समय के लिए जहर घुल जाता है, लेकिन अब तक भुगत चुका आदमी इनके बहकावे में नहीं आता। वैसे भी अपवाद तो हर जगह, हर काल में रहे हैं। कभी कभी जरा सी चूक या नासमझी से ही ऐसी कुछ असहज परिस्थितियाँ कुछ दिनों के लिए निर्मित होती हैं लेकिन पुनः सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है। कुल मिलाकर विश्व में चार-छह दशक पूर्व वाली धर्म विरोधी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना अब नामुमकिन है।

धर्मों के प्रति घृणा और कम-ज्यादा महत्त्व की बातें अब ज्यादा दिखाई व सुनाई नहीं देती, लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक ऐसे वर्ग में निरंतर वृद्धि हो रही है जो हिंदू धर्म का माखौल उड़ाने से पीछे नहीं हटता। लोक-परलोक, पाप-पुण्य और आस्थाभाव से परे ये लोग लगातार अपने कुकृत्यों और कुतर्कों से हिंदू धर्म की मर्यादा को कलंकित करने पर तुले हुए हैं।

माना कि हर आदमी गलत नहीं होता परन्तु हर वर्ग में कुछ ऐसे अप्रिय लोग जरूर पाए जाते हैं। चित्रकारों एवं कार्टूनिस्टों में ऐसे बहुत से लोग पाए जाते हैं जो अपनी तूलिका से हिन्दु देवी-देवताओं के अमर्यादित व अभद्र चित्रों को उकेरकर हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करते रहते हैं। कुछ कलाकारों द्वारा विभिन्न पर्वों पर दुर्गा, गणेश, होलिका की मूर्तियों सहित विभिन्न झाँकियों में भी धार्मिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर धर्मविरुद्ध मूर्तियाँ एवं आकृतियाँ दर्शन हेतु तैयार करते हैं, जबकि धर्म के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ अथवा असंगत दखल कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। समाज के प्रबुद्ध जनों को ऐसे अनुचित कृत्यों पर हस्तक्षेप हेतु आगे आना चाहिए। माना ऐसे चित्रों से सामान्य लोगों में कौतूहल उत्पन्न तो होता है लेकिन ऐसी कुछ परिपाटियाँ भी जन्म लेती हैं जो धर्मपरायण नहीं हैं।

वर्ष भर हिन्दुओं के धार्मिक पर्वों के चलते प्रमुख रूप से दशहरा एवं गणेश उत्सव के संदर्भ में देखा गया है कि ये दोनों पर्व दस-ग्यारह दिन लगातार चलते हैं। अखबारों में इन्हीं देवी-देवताओं के सुसज्जित चित्रों का प्रकाशन होता है। खास तौर पर अनंत चतुर्दशी, दुर्गाष्टमी नवमी एवं विजयादशमी पर प्रतिदिन खाद्य पदार्थों को पैक करने में, बिछाकर बैठने के अतिरिक्त सामान्य जनता अन्य तरह से उपयोग कर इन्हीं अखबारों के पन्नों को रास्ते में ही फेंक देते हैं और लोग अधिकतर इन्हें पैरों तले कुचलते रहते हैं। इस पर भी सामग्री विक्रेताओं व उपयोगकर्ताओं को ध्यान देना होगा। लोग अखबारों के इन सचित्र परिशिष्टों को अलग कर अपने पास रख सकते हैं अथवा पवित्र जगहों पर विसर्जित भी कर सकते हैं।

इसके बाद देखा गया है कि कुछ कट्टरपंथी अपने प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों में अन्य धर्मों की आलोचना कर श्रोताओं को दिग्भ्रमित करते हैं। साहित्य क्षेत्र के कुछ लोग भी विकृत मानसिकता को अपनी लेखनी के माध्यम उजागर करते हैं। उनके गद्य-पद्यों में किसी न किसी रूप से हिन्दु धर्म पर बुरी नीयत से कटाक्ष और व्यंग्य कसे जाते हैं। इसी वर्ग का दूसरा हिस्सा मंचीय कवियों तथा हास्य कलाकारों का होता है। आजकल अधिकांश कवि सम्मेलन स्वस्थ मनोरंजन और प्रेरक काव्य के स्थान पर ओछे व्यंग्यों, चुटकुलों एवं हास्य की बातों के मंच बन गए हैं। इन मंचों से कविता की चार पंक्तियाँ सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चार पंक्तियों के लिए आपको कम से कम बीस-तीस मिनट तक इनके फूहड़ चुटकुले अथवा बकवास झेलना पड़ती है। इन सब में सबसे गंभीर और विकृत परिस्थितियाँ यही तथाकथित हास्य कवि तथा हास्य कलाकार निर्मित करते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य यही रहता है कि फूहड़ और ओछी बातों से जनता का मनोरंजन किया जा सके। ये हमारे ही धर्म के असभ्य लोग हैं जो अपने ही देवी-देवताओं को लेकर ऐसी बातें करते हैं, जिससे हर सच्चे हिन्दु की आत्मा आहत हो जाती है। भला ये कैसे हिन्दु हैं जो चार पैसों और अपनी अल्प प्रसिद्धि के लिए अपने ही धर्म की मान-मर्यादा को भी दाँव पर लगाते हैं। देश के विभिन्न मंचों, टी.वी. सीरियलों एवं अपने यूट्यूब चैनलों, अपनी वेबसाइट्स, अपने एल्बमों द्वारा हिन्दुधर्म और इसमें समाहित आस्था की धज्जियाँ उड़ाते हैं। हिन्दु कलाकारों को जब अपने ही धर्म की खिल्ली उड़ाने में डर नहीं लगता तब देश के दूसरे धर्मावलम्बी कलाकारों को डर क्यों लगने लगा। हिन्दु धर्मावलंबियों के अतिरिक्त ऐसी सहिष्णुता अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देती। वैसे भी अन्य धर्मों में सख्ती के चलते ये सब सम्भव ही नहीं है। मंच, ऑडियो, वीडियो और उनकी पुस्तकों में लिखित साक्ष्यों एवं हिन्दुधर्म को अपमानित करने पर बहुत कम लोगों ही दण्डित हुए होंगे। हिन्दुधर्म पर अमर्यादित चुटकुले, हास्य, व्यंग्य, पैरोडी, लेखों, व हिन्दुधर्म का माखौल उड़ाने वालों पर कानूनी कार्यवाही का विधान बनना आवश्यक होता जा रहा है। जनहित याचिकाएँ एवं यदा-कदा न्यायालय के संज्ञान में आने पर भी स्वमेव कार्यवाही होते देखी गई हैं। क्या ऐसे ही किसी तरह से इन गतिविधियों पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। इन कृत्यों पर देश के तथाकथित कर्णधारों, धार्मिक संगठनों और जन सामान्य द्वारा भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। आखिर ऐसी जागरूकता एवं समझदारी लोगों में कब आएगी। गहन चिंतन करने पर यह पता चलता है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा हिन्दुधर्म के देवी-देवताओं और ग्रंथों में लिखे गए विषयों और प्रसंगों पर कुछ ज्यादा ही कुतर्क किए जाते हैं लेकिन यह बात भी दृढ़ता से कही जा सकता है कि हिन्दुधर्म व हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के सतही अध्ययन व अपूर्ण उद्देश्यप्रधान जानकारी के अभाव में ही ये सब अल्पज्ञ लोग घटिया तर्कों का सहारा लेकर हमारे धर्म पर कीचड़ उछलते हैं।

हम सभी जानते हैं कि हर चीज व हर बातें समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं। तुलसीदास जी, बाल्मीकि जी, वेदव्यास जी सहित ऐसे अनेक प्रकांड हिन्दु विद्वानों द्वारा ग्रंथों में लिखी गईं एक एक बात तात्कालिक दृष्टि से शत प्रतिशत सही है। आज भी कुछ ऐसे लोग व जातियाँ हैं, जिनके पूर्वज स्वयं उन्हीं नामों से स्वयं का परिचय देते थे परंतु आज उन्हीं शब्दों के संबोधन असंगत या बुरे लगते हैं। तब उन बातों को हम उसी समय के लिए ही छोड़ देना श्रेयस्कर क्यों नहीं मानते। क्या विरोध करने से ग्रंथों के भी शब्द बदल जाएँगे। क्या मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के नाम पुरानी पुस्तकों या अभिलेखों से हटा सकते हैं। नहीं न। फिर कुछ ऐसी ही सरल-सहज पढ़ी-लिखी गईं विगत धार्मिक और सामाजिक बातों की आड़ में विषवमन क्यों किया जाता है। इन पर अमर्यादित धार्मिक अभिव्यक्ति कतई न्याय संगत नहीं है। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो हिन्दु होते हुए भी अपने ही धार्मिक ग्रंथों और देवी-देवताओं पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर कीचड़ उछालते रहते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि एक सीमा के बाद गलत अभिव्यक्ति भी आपराधिक कृत्य माना जा सकता है।

देवी देवताओं के नामों पर असंगत दुकानों, उपयोगी वस्तुओं, सेवाओं के साथ इनका नाम नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जूते, चप्पल, मांस-मदिरा के उत्पादों पर धार्मिक चित्रों के उपयोग पर प्रतिबंध होना चाहिए। धर्म, देवी-देवताओं, ग्रंथों आदि पर कटाक्ष तथा माखौल उड़ाने पर ऐसे लोगों की निंदा एवं बहिष्कार जैसे कदम उठाए जाना चाहिए।
हिन्दु धर्म तथा देवी-देवताओं से सम्बन्धित बढ़ती अपसंस्कृति का यह एक बेहद संवेदनशील विषय है। इस पर हिंदुओं सहित हर धर्म के लोगों को भी सोचना होगा कि हम ऐसे कोई कार्य न करें, जिससे किसी भी धर्म की भावनाओं को ठेस पहुँचे। धर्म लोगों के जीवन का अभिन्न अंग होता है। धर्म पथ पर चलने के आचार एवं व्यवहार हमें विरासत में मिलते हैं। आस्था हमारे हृदय में बसी होती है। धर्म व धर्मावलंबी होने के अस्तित्व परस्पर पूरक होते हैं। इसलिए इनकी मान-मर्यादा एवं सम्मान को बनाए रखना हम सबका दायित्व है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 64 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 64– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

हर युग की पीड़ा रही, रहा मिलन का राग।

योग न बन पाया कभी, नहीं नदी का भाग।।

 

पेड कटे जंगल नहीं, तपती आज जमीन।

तड़प रहा है आदमी, बिन ज्यों पानी  मीन।।

 

प्रीति तुम्हारी पावनी, जैसे दिव्य  प्रकाश।

साथ तुम्हारा चाहिए,  छू लूँगी आकाश ।।

 

भरी हृदय में वेदना, कदम कदम पर खार।

खारा सागर नैन में, किस विधि पाऊं पार।।

 

प्रीति बिना उर हो गए, जैसे रेगिस्तान।

रिश्तों की बगिया जली, घर लगते शमसान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 55 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

अपने मनोबल से कोरोना को पराजित कर लौटे श्री संतोष नेमा युगल का  ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक अभिनंदन।

ईश्वर सभी को सदैव स्वस्थ रखें इसी कामना के साथ…..

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 55☆

☆ संतोष के दोहे ☆

नदी,पेड़ आकाश अरु, सागर रेगिस्तान

कुदरत के सब रंग हैं, हो इनका सम्मान

 

नदियाँ सागर में मिलें, सागर बनता भाप

बादल बन कर बरसता, खुशियों की दे थाप

 

पेड़ों की रक्षा करें, देते जीवन दान

पर्यावरण हो सुरक्षित, रख पेड़ों का मान

 

मन का ओर न छोर है, मन स्वछंद आकाश

मन को जो भी साध ले, उसका जल्द विकास

 

सागर सी पीड़ा मिले, मन पर बढ़े दबाब

कोरोना के काल में, इसका नहीं जवाब

 

मन की पीड़ा जब बढ़े, लगता रेगिस्तान

खुशियाँ मन की उछलकर, जोड़ें सकल जहान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 9 – शब्दांचं नातं हळुवार ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 9 ☆

☆ शब्दांचं नातं हळुवार ☆

शब्द -एक आविष्कार

शब्द -एक नवं हत्यार

शब्द म्हणजे एक वार

शब्द म्हणजे तलवार

शब्द करतो काळजावर घाव

शब्दच म्हणतो माझं मलम लाव

शब्द घडवतो बिघडवतो

शब्द लढवतो, भांडतो, मारतो

शब्द जगायलाही शिकवतो

शब्द असा-शब्द तसा

कसा?-तर वापराल जसा

शब्द तोलतात शहाणपण

शब्द खोलतात गाढवपण

शब्द करतो बदनाम

मुक्या जनावरांनाही

राग येतो माणसांना

कुत्रा प्रामाणिक असतो तरीही

म्हणून म्हणतो शब्दांनो तुम्हीच

वेळेवर शहाणे व्हा

माझ्यातल्या शब्दवेड्याला

शहाणपणाचं भान द्या

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

07/06/20

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 47 ☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  संस्कृति विमर्श  पर आधारित लघुकथा तुम संस्कृति हो ना?  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 47 ☆

☆  लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆

शादी की भीड़-भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पडी। अरे, ये संस्कृति है क्या? पर वह कैसे हो सकती है? मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन – सहन? कोई इतना कोई बदल सकता है कि पहचान में ही ना आए? हाँ ये सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। सारी सुनी-सुनाई बातें थी, हम साथ पढे थे और तब से उससे कभी मिलना हुआ ही नहीं। तब फेसबुक होती तो सबके हाल-चाल मिलते रहते पर उस समय कहाँ था ये सब? स्कूल से निकलो तो कुछ सहेलियां तब छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया किसकी कहाँ  शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। फिर से ध्यान उसकी ओर  ही चला गया – – –  मन उलझ रहा था।

तब तक उसने मुझे देख लिया, बडी नफासत से मुझसे गले मिली – हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना ! ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं और मैं अब भी मानों सकते में थी। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी, चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। कटे हुए स्टाईलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में वह हिंदी बोल रही थी, बहुत बनावटी लग रहा था सब कुछ। मैं खुद को समझा ही नहीं पा रही थी, अपने को संभालते हुए मैंने धीरे से पूछा – तुम संस्कृति ही हो ना? उसे झटका लगा – अरे ! पहचाना नहीं क्या मुझे? मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।

वह खिलखिला कर हँस पडी – यार पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष।  उन लोगों बीच रहना है तो उनके जैसे ही दिखो, उनकी भाषा बोलो। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना? मैंने ओढी हुई मुस्कान के साथ कहा – हाँ, तुम पर सूट कर रहा है पर अपनी पहचान ही बदल दी? अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है ना? – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – क्या करेंगें हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है। मैं बेमन से उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी। मुझे संस्कृति के माता – पिता  याद आ रहे थे जो हमेशा अपना भारत देश, बोली – भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। उन्होंने अपनी माटी, अपने देश के संस्कार दिए थे इसे  फिर भी  खरे देसीपन के वातावरण में पली – बढी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।)

आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख  एवं ई-अभिव्यक्ति  का आह्वान एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें। 

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन इस संदर्भ की एक रचना पाठकों के लिए लाने जा रहे हैं, लेखकों से हमारा आव्हान है कि इस विषय पर कलम चला कर रचनाएँ भेजें, हम इस का प्रारम्भ करेंगे सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति” आयोजन में प्राप्त चुनी हुई रचनाओं से

☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें  ☆

कोरोना के परिदृश्य में स्पष्ट हो चुका है कि केवल सबके बचाव में ही स्वयं का बचाव संभव है. एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें हैं. जो देश इस कठिनाई के समय में भी विस्तार की नीति अपना रहे हैं, वहां की सरकारें जनता से छल कर रही हैं. दुनियां के लिये यह समय सामंजस्य और एकता के विस्तार का है.

हमारी युवा शक्ति ही देश की सबसे बड़ी ताकत है.बुद्धि और विद्वता के स्तर पर हमारे देश के युवाओ ने सारे विश्व में मुकाम स्थापित किया है. हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर्स  के बगैर किसी अमेरिकन कंपनी का काम नही चलता. हमारी स्त्री शक्ति सशक्त हुई है. देश के युवाओ से यही कहना है कि  हम किसी से कम नही है और हमारे देश को विश्व में नम्बर वन बनाने की जबाबदारी हमारी पीढ़ी की ही है.हमें नीति शिक्षा की किताबो से चारित्रिक उत्थान के पाठ पढ़ने ही नही उसे अपने जीवन में उतारने की जरूरत है. मेरा विश्वास है कि भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व शासन प्रणाली प्रमाणित होगी, इस समय जो कमियां भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, क्षेत्रीयता, भाषावाद, वोटो की खरीद फरोक्त को लेकर देश में दिख रही हैं उन्हें दूर करके हम विश्व नेतृत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् के प्राचीन भारतीय मंत्र को साकार कर दिखायेंगे. आज जब मानवीय मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं, संभवतः रोबोट और मशीनी व्यवस्थायें ही देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर सकती है, जैसा कंप्यूटरीकरण के विस्तार से रेल्वे या अन्य विभिन्न क्षेत्रो में हो भी रहा है.

सैक्स के बाद यदि दुनिया में कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय विषय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है.और सारे विश्व में भारतीय लोकतंत्र न केवल सबसे बड़ा है वरन सबसे  तटस्थ चुनावी प्रणाली के चलते विश्वसनीय भी है. चुनावी उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय  घोषित कर चुके हैं  वह हमसे छिपी नही है,  एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है,वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि  आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है. क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है ? मेरे तो परिवार जन तक मेरे इतने ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है,  राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादात में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में.  जबकि उन्हें पता था कि नेता जी आकर क्या बोलने वाले हैं. इसका अर्थ  यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं जिसे मेरे जैसे मूढ़ बुद्धि शायद समझ नही पा रहे. तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते, देश ही नही दुनिया भर में हमारे रामभरोसे की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. रामभरोसे वोटरे के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से करते रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करती हूं.पिछले अनुभवों में हर बार बेचारा रामभरोसे वोटर ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है रामभरोसे, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर रामभरोसे का सपना टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है, नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं,जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला रामभरोसे पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है.मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम अब तक यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छबिया होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में रामभरोसे के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद   कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल रामभरोसे के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि  नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं रामभरोसे के खर्चे पर, वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. संभवतः सर्वहारा को सर्व शक्तिमान बना सकने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र की सफलता के लिये उसकी ये कमियां स्वीकार करनी जरूरी हैं.जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है, तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है.

भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली की वैधानिक व्यवस्थायें अमेरिकन व इंगलैण्ड सहित दुनिया के विभिन्न संविधानो के अध्ययन के उपरांत भीमराव अम्बेडकर जैसे विद्वानो ने निर्धारित की थीं. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तो विजयी उम्मीदवारों में से सबसे बड़े दल के सांसद,अपना नेता चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिये राष्ट्रपति के सम्मुख अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करता है, अर्थात जनता अपने वोट से सीधे रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव नही करती यद्यपि सत्ता की मूल शक्ति प्रधानमंत्री में ही सन्नहित होती है . जबकि अमेरिकन प्रणाली में राष्ट्रपति सत्ता की शक्ति का केंद्र होता है, और उसका सीधा चुनाव जनता अपने मत से करती है.

अब जन आकांक्षा केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस चाहती है . सरकार से हमें देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें  हैं . सरकार सबके हितो के लिये काम करे न कि पार्टी विशेष के, पर्दे के सामने या पीछे के नुमाइन्दो से सिफारिश पर, केवल उन लोगो के काम हो जिन के पास वह खास सिफारिश हो. जो उम्मीदें चुनावी भाषणो और रैलियो में जगाई गई हैं, वे बिना भ्रष्टाचार के मूर्त रूप लें .महिलाओ को सुरक्षा मिले, पुरुषो की बराबरी का अधिकार मिले. युवाओ को अच्छी शिक्षा तथा रोजगार मिले. आम आदमी को मंहगाई और भ्रष्टाचार से निजात मिले. अल्पसंख्यको को विश्वास मिले. देश का सर्वांगीण विकास हो सके.राष्ट्र कूटनीतिक रूप से, तकनीकी रूप से,सक्षम हो.  विकास के रथ पर सवार होकर हमारा देश दुनिया के सामने एक विकसित राष्ट्र के रूप में पहचान बनाये यह हर भारतीय की आकांक्षा है, और यही  सरकार की चुनौती है.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते विकास के सारे मापदण्ड छिन्न भिन्न हैं  निश्चित ही सारी जबाबदारी केवल सरकार पर नही डाली जा सकती, हर नागरिक को भी इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही  होगी. सरकार विकास का वातावरण बना सकती है, सुविधायें जुटा सकती है, पर विकास तो तभी होगा जब प्रत्येक इकाई विकसित होगी, हर नागरिक सुशिक्षित बनेगा. जब देशप्रेम की भावना का अभ्युदय  हर बच्चे में होगा तो स्वहित के साथ साथ देशहित भी हर नागरिक के मन मस्तिष्क का मंथन करेगा. भ्रष्टाचार स्वयमेव नियंत्रित होता जायेगा और देश उत्तरोत्तर विकसित हो सकेगा. अतः नागरिको में सुसंस्कार विकसित करना भी नई सरकार के सम्मुख एक चुनौती है.

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 66 – रतनगढ़ का हमाम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “रतनगढ़ का हमाम। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 66 ☆

☆ रतनगढ़ का हमाम ☆

चित्तौड़गढ़ से 70 किलोमीटर पूर्व में अरावली की पहाड़ी पर  तीनों ओर गहरी खाई के घुमावदार हिस्से पर रतनगढ़ का किला 11 वीं शताब्दी का बना हुआ है। इसे राजा रतनसिंह के नाम पर रतनगढ़ का किला कहते हैं। इसी से गांव का नाम रतनगढ़ पड़ा है।

यह रतनगढ़ सिंगोली तहसील जिला नीमच मध्यप्रदेश में स्थित है। पूर्व में यह जागीर ग्वालियर रियासत को इंदौर रियासत द्वारा स्थानांतरित की गई थी।

खंडहर हो चुके किले में एक अद्भुत हमाम घर है। यह हमामघर रूपी बावड़ी आज भी बनी हुई है । जिसमें 12 महीने पानी आज भी भरा रहता है । इसकी बनावट, तकनीकी व खुबसूरती से जमीन के अंदर की निर्माण कला की उत्कृष्टता का बखूबी समझा जा सकता है। जब यह बावड़ी सह हमाम घर आज के समय यह इतना बेजोड़ और उम्दा है तो उस जमाने में कैसा रहा होगा ?

प्राचीन समय में जमीन से इतनी ऊपर पहाड़ी पर इतनी जोरदार वास्तुकला की यह बावड़ी आधुनिक स्विमिंग पूल को भी मात देती है । यह ऊंची पहाड़ी पर समतल जमीन से तीन मंजिला नीचे दो भागों में विभाजित स्विमिंग पुल यानी पुराना हमामघर बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बनाया गया है।

इसी किले पर बड़ी-बड़ी धान भरने की गोलाकार कोठियां बनी हुई है । जिनका दीवारों पर लगा चिकना प्लास्टर आज भी विद्यमान है । कई शताब्दी बीत जाने के बाद भी यह कोठियां आज भी बेहतर हालत में विद्यमान है। इससे भारतीय कामगारों की उत्कृष्टता और गुणवत्ता युक्त सामग्री का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रतन-गढ़~

धानकोठी में गिरा

चूहा ले सांप।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 36 ☆ भागमभाग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “भागमभाग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 36 – भागमभाग ☆

कुर्सी दौड़ का आयोजन चल रहा था। एक आनर सौ बीमार का दृश्य। आयोजक भी बहुत होशियार अपनी कुर्सी तो फिक्स करके बैठ गए बाकी सब को संगीत की धुन पर दौड़ा दिया। जो प्रतिभागी उनकी ओर विश्वास की दृष्टि से देखता, उसी की कुर्सी छिन जाती।  खेल शुरू हो गया। हर राउंड में, एक कुर्सी कम हो जाती , कुर्सी छोड़ कर  जाने वाला कातर निगाह से देखता और मन ही मन बड़बड़ाते हुए चला जाता। देखते ही देखते बस तीन लोग बचे अब तो समझ में ही नहीं आ रहा था कौन जीतेगा। बस आयोजक ही पूर्ण आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे।  अन्य दो प्रतिभागियों ने उनकी कुर्सी की जाँच करवाने के लिए कहा तो वो तैयार ही न हुए।

दूर बैठे वो सभी लोग जो अभी तक इस दौड़ में शामिल थे आ धमके और आयोजक को पूरी ताकत से हटाने लगे पर वो तो अपनी कुर्सी से हिल ही नहीं रहे थे।

किसी ने कहा फेविकोल का जोड़ है, हटेगा नहीं , कुर्सी ही तोड़ दो, तो न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी।

तोड़- फोड़ शुरू हो गयी। एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप की झड़ी लग चुकी थी तभी  समझाइश लाल जी देवदूत के समान आ पहुँचे। अब तो सबकी निगाहें उनकी ओर ही लगी हुई थी।

उन्होंने सर्वप्रथम कुर्सी दौड़ के आयोजक को धन्यवाद देते हुए कहा आप सचमुच बधाई के पात्र हैं , जो सबको इस तरह से जोड़ कर रखे हुए हैं। अपने भावों को व्यक्त करने का ये सशक्त माध्यम है।  मन की बात अगर मन में रह जाए,  तो ये किसी भी काल में उचित नहीं रहा है। हम सब लोग चाय पर चर्चा करते हुए इस समस्या का निराकरण भी कर लेंगे।

चाय की चुस्कियों के साथ जब – जब चर्चा होती है , तब- तब बात केवल नाश्ते पर ही रुक जाती है। क्योंकि चाय और नाश्ते का चोली दामन का साथ जो ठहरा।

खैर निष्कर्ष वही ढाक के तीन पात, जिसको इस आयोजन में भाग लेना हो वो रुके अन्यथा द्वारा खुले है। जो नियमों के अनुसार नहीं चलेगा वो जा सकता है।

अगले महीने पुनः प्रथम रविवार को कुर्सी दौड़ की प्रतियोगिता होगी जो भी जुड़ना चाहे जुड़ सकता है , बस आयोजक के नियमों को मानना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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