मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆ प्रीतिचा झरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “प्रीतिचा झरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆

☆ प्रीतिचा झरा 

 

डावी खिडकी हृदयाची या उघडायाला हवी

शुद्ध येईल हवा प्रीतिची तेव्हा हृदयी नवी

 

शृंगाराचा ऐवज माझा मी तर आहे परी

सुरूंग लावू आभाळाला बरसतील या सरी

 

चिरून घेते हृदय कोवळे फाळाकडुनी धरा

पाटामधुनी वहात आहे कसा प्रीतिचा झरा

 

अंधाराचे राज्य संपले वाटतोस तू रवी

प्रकाश किरणें मला खुलवती साथ तुझी रे हवी

 

असे गीत हे गाऊ आपण असेल त्याला गती

तुझ्या नि माझ्या मधे यायला नको कधीही यती

 

प्रीत सागरा नसे किनारा अधी वाटले बला

सहज पोहून गेलो नंतर छान वाटली कला

 

जमवू काड्या बांधू घरटे घरात लावू दिवा

कुणी तरी हा पुढे वारसा सांभाळाया हवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दोपहर सी है जिंदगी ,गोधूलि है पास।

 याद बावली हो गई, चंद्रकिरन की आस।।

क्या होगा यदि ले लिया ,यादों ने वनवास ।

जीवन बाबा भारती, एक आस विश्वास ।।

एक जिल्द सी ज़िंदगी ,अनगिन है अध्याय।

बहुमत में आरोप है ,कहां मिलेगा न्याय।।

खोकर ही पाया तुम्हें ,कैसा अजब विधान।

चुप्पी साधे संतजन, चुप साधे विज्ञान।।

लो अनंग में हो गया, यानी हुआ विदेह।

चमत्कार अनुभव किया, छूकर तेरी देह।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 18 – नदी हमारे गाँव  ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “नदी हमारे गाँव । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 18– ।। अभिनव गीत ।।

☆ नदी हमारे गाँव 

 

नदी हमारे गाँव

वेदना में डूबी रहती

पानी सूख गया फिर भी

आँसू से है बहती

 

इसकी आँखों में सचेत सा

था भविष्य उजला

जो बहने की प्रखर भूमिका

से था बस बहला

 

रेत पत्थरों में विनम्र हो

सदा बही है वह

और अभी भी ना जाने

कितने गम है सहती

 

सारा तन छिल गया

सूखते पानी का अपना

किन्तु उमीदों में पलता

वह ना डूबा सपना

 

नदी, नदी है अपना दुख

ढोती बहती जाती

अन्तर्मन की यह पीड़ा

खुद से भी ना कहती

 

पूछ रहा था पानी का

रिश्ता परसों सूरज

तुम्हें बहुत बहना है जब

क्यों छोड़ चुकी धीरज

 

बहना और सूख जाना

तो लक्षण  पानी के

एक यही पीड़ा क्यों

तुमको लगी यहाँ महती

 

© राघवेन्द्र तिवारी

26-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 12 ☆ व्यंग्य ☆ गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  समसामयिक विषय पर व्यंग्य  “गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 12 ☆

☆ व्यंग्य – गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है 

अब यह तो पता नहीं कि ये सरकारों के सुशासन का ही परिणाम है या नारी सशक्तीकरण आंदोलनों की सफलता, मगर जो भी हो, एक अच्छी बात यह है कि बलात्कार करना आसान सा अपराध नहीं रह गया है. इतना तो हो ही गया है कि अकेले रेप करने की हिम्मत अब कम ही लोग कर पाते हैं. सामूहिक रूप से गैंग बना कर करना पड़ता है. एक से भले दो, दो से भले चार. पैन इंडिया – नोयडा, बैतूल, बेटमा, जयपुर, बलरामपुर, मुंबई, कोलकत्ता, चंडीगढ़. नई सभ्यता, नये समाज का नया नार्म है – गैंग रेप. नया चलन, नई फैशन. एक आरोपी से मैंने पूछा – “गैंग कैसे बनाते हैं आप ? मेरा मतलब है मिनिमम कितने आदमी रखते हैं ?”

“चार तो होना ही चाहिये. चार में, कम से कम, एक दो लड़के सांसदो के, विधायकों के, पार्षदों के, सरपंच के भांजे, भतीजे रख लेते हैं. मंत्रीजी का लड़का हो तो सोने में सुहागा.”

“टाइमिंग का भी ध्यान रखना पड़ता होगा आपको ?”

“बिल्कुल. हमसे कुछ केसेस में टाइमिंग की ही मिस्टेक हुई. जब संसद का सत्र चल रहा हो, विधान सभा चल रही हो या किसी सूबे में चुनाव नजदीक हों, तब नहीं करना चाहिये. मामला ज्यादा तूल पकड़ लेता है. समूची बहस पीड़िता से हट कर इस बात पर आ टिकती है कि उसकी जाति-समाज के वोट कितने प्रतिशत हैं ? पीड़िता दलित है कि महादलित ? दलित है तो जाटव है कि गैर जाटव ? रेप से सूबे की सरकार पर क्या असर पड़ेगा ? सोशल इंजिनियरिंग दरक गयी तो सूबेदार फिर से सत्ता में आ पायेगा कि नहीं ? सामूहिक बलात्कार कैसे सूबे की सरकार के लिए कैसे राजनीतिक चुनौती बन सकता है ? रेप हमारे लिये एक प्रोजेक्ट है तो सियासतदानों के लिये सुपर-प्रोजेक्ट. इसीलिये सोचते हैं आगे से इस पीरियड में ‘नो-गैंगरेप-डेज’ डिक्लेयर कर देंगे.”

“गैंगरेप में बड़ी बाधा क्या है ?”

“मीडिया से परेशानी है. शहरों में, शहरों के आसपास मीडिया हाइपर-एक्टिव है. हमारे छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स भी हाइप का शिकार हो जाते हैं. इसीलिये हमें दूर गांवो में अन्दर जाना पड़ता है. शिकार नाबालिग हो, आदिवासी हो, गरीब हो, ठेठ गांव के पास बाजरे जुआर के खेत में हो तो केसेस लाइट में नहीं आ पाते. जो पीड़िताएँ दिल्ली नहीं ले जाईं जाती उनके केस में बवाल इतना नहीं कटता.”

“रेप कर चुकने के बाद खर्चा तो लगता होगा ना.”

“ओह वेरी मच. बाद में ही ज्यादा लगता है. लीगल एक्सपेंसेस  भारी पड़ते हैं. अस्पताल, पोस्ट-मार्टम, पुलिस, वकील, गवाह, कोर्ट- कचहरी,  मुंशी,  मोहर्रिर. सब जगह पैसा तो लगता ही है, फीस कम रिश्वतें ज्यादा. मीडिया जितना ज्यादा कवर करता है पैसा उतना ज्यादा लगता है. लेकिन, जैसा मैंने आपको बताया कि व्यापारी, उद्योगपति, अफसर, किसी बड़े बल्लम का बेटा साथ में हो तो फिनांस मैनेज हो जाता है.”

“कभी शर्म लगती है आपको ?”

“हमारी छोड़िये सर, किसे लगती है अब ? सियासत की दुनियां में हम शर्म के विषय नहीं रह गये है.”

“तब भी अपराधी कहाने से डर तो लगता होगा ?”

“किसने कहा हम अपराधी हैं. हम या तो ठाकुर हैं या ब्राह्मण हैं या दलित हैं या महादलित हैं. जाति अपराध पर भारी पड़ती है सर. पॉवर पोजीशन में अपनी जाति का आदमी बैठा हो तो नंगा नाच सकते हैं आप. कोई टेंशन नहीं है.”

“पुलिस वालों को नहीं रखते हैं टीम में ?”

“नहीं, वे अपनी खुद की गैंग बनाकर थाने में ही कर लेते हैं. हमारे साथ नहीं आते.”

“आगे की योजना क्या है ?”

वे सिर्फ मुस्कराये और थैंक्यू कह कर चले गये. जल्दी में हैं. गैंग के बाकी सदस्य इंतज़ार कर रहे होंगे उनका, एक दो प्रोजेक्ट्स प्लान कर लिये हैं उन्होंने. आखिर दुनिया की आधी आबादी उनके लिये एक शिकार है और जीवनावधि छोटी. कब पूरे होंगे उनके सारे प्रोजेक्ट्स!!!

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 64 ☆ लघुकथा – विसर्जन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक लघुकथा – विसर्जन । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 64

☆ लघुकथा – विसर्जन ☆ 

एक बार कबूतरों के झुंड से एक कबूतर को निकाल दिया गया, तो उस कबूतर ने एक तखत में कब्जा कर प्रवचन देने प्रारंभ कर दिए,श्रोता जुड़ते गए… अच्छा विचार विमर्श होता रहता।

जीवन में अनुशासन और मर्यादा की खूब बातें होती, फिर प्रवचन देने का काम बारी बारी से दो और कबूतर करने लगे। बढ़िया चलने लगा, तखत से नये नये प्रयोग होने लगे, और ढेर सारे कबूतर श्रोता बनके जुड़ने लगे, अनुशासन बनाए रखने की तालीम होती रहती,नये नये विषयों पर शानदार प्रवचनों से श्रोता कबूतरों को नयी दृष्टि मिलने लगी, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर ध्यान जाने लगा।

एक कबूतरी पता नहीं कहां से आई, और सबके रोशनदान से घुसकर गुटरगू करने लगी, सबको खूब मज़ा आने लगा, प्रवचन देने वाले पहले कबूतर का ध्यान भंग हो गया, कबूतर अचानक संभावनाएं तलाशने लगा, कबूतरी महात्वाकांक्षी और अहंकारी थी, आत्ममुग्धता में अनुशासन और मर्यादा भूल जाती थी।

एक दिन प्रवचन चालू होने वाले थे तखत में प्रवचन करने वाले दोनों कबूतर बैठ चुके थे ,क्रोध में चूर कबूतरी तखत के चारों ओर उड़ने लगी, प्रवचन चालू होने के पहले बहसें होने लगीं, श्रोता कबूतरों ने कहा ये तो महा अपकुशन हो गया, शुद्ध तखत के चारों तरफ अशुद्ध कबूतरी को चक्कर नहीं लगाना था। फिर उसी रात को ऐसी आंधी आयी कि जमा जमाया तखत उड़ गया। सारे कबूतर उड़ गए, दो दिन बाद किसी ने बताया कि भीषण आंधी से तखत उड़ कर टूट गया था इसीलिए उसका विसर्जन कर दिया गया।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 21 ☆ महात्मा गांधी ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “महात्मा गांधी”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 21 ☆ 

☆ महात्मा गांधी

 

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

आजादी का रास्ता दिखला, कर खुद को कुर्बान,

साबरमती का संत, बापू जिनका नाम,

सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ाया, कर खुद को कुर्बान,

युगों युगों तक सदा रहेगा, अमर जिनका नाम,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

कद में छोटे, बात बड़ी करते, कर्म जिनका महान,

खादी, चरखा, सत्याग्रह जिनकी पहचान,

आँखों की ऐनक और खादी जिनकी जान,

जात-पात की तोड़ दी जंजीरे, वैसे बापू महान,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

आओ इस दिवस पर एक हो जाएँ हम,

अपने आप को अपने आप से ऊपर उठाएँ हम,

कॉलेज की भूमि को स्वच्छ बनाएँ हम,

एक नया इतिहास रचाएँ हम,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #11 ☆ तितलियाँ ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “लाॅकडाऊन”।  श्री श्याम खापर्डे जी ने  इस कविता के माध्यम से लॉकडाउन की वर्तमान एवं सामाजिक व्याख्या की है जो विचारणीय है।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 10 ☆ 

☆ तितलियाँ ☆ 

 

आसमान में उड़ती

ये रंग बिरंगी तितलियाँ

रंगीन परों से रंग बिखेरती

रंग बिरंगी तितलियाँ

हर किसी का मन लुभाती

रंग बिरंगी तितलियाँ

आँखों को कितना सुहाती

रंग बिरंगी तितलियाँ

लाल, गुलाबी, सफेद,काली

भूरी बैंगनी,हरी, पीली

नारंगी, सुनहरी, नीली

कुछ चाँदी सी चमकती

ये मनभावन तितलियाँ

ये फूलों पर मंडराती

उनपर परागकण लुटाती

कलियों को फूल बनाती

ये परोपकारी तितलियाँ

भ्रमरों के संग खेलती रहती

पर सदा उनसे बचकर रहती

ये भोली भाली तितलियाँ

ईश्वर बुरी नजर से

इन को  बचाये

तितलियों पर कोई

आँच ना  आये

वाटिका की जान है

श्रृंगार है, शान है

सदा यूं ही उड़ती जाये

आसमान में पर फैलायें

रंगों सी झिलमिलाती

छोटी बड़ी तितलियां

 

© श्याम खापर्डे 

03/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 17 ☆ हे भरलं आभाळ… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ प्रकाशित कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  “हे भरलं आभाळ…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 17 ☆ 

☆ हे भरलं आभाळ… ☆

हे भरलं आभाळ…

सहज रिचवलं

उष्णता क्षमली

वातावरण बहरलं…०१

 

हे भरलं आभाळ…

किमया देवाची

थेंब थेंब पाणी

कहाणी जीवनाची…०२

 

हे भरलं आभाळ…

अंधार पडला क्षणात

जलधारा बरसल्या

पाऊस आला जोरात…०३

 

हे भरलं आभाळ…

कधी तसंच राहिलं

माणसाचे क्रूरकर्म

आभाळाला डागलं… ०४

 

हे भरलं आभाळ…

तसं मायेचं असावं

सुजलाम सुफलाम

सर्व जग बनावं…०५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 67 ☆ व्यंग्य – जहाज का पंछी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य  ‘जहाज का पंछी ’।  आखिर जहाज का पंछी कितना भी ऊंचा उड़ ले , वापिस जहाज पर ही आएगा। कहावत नहीं साहब यह शत प्रतिशत सत्य है।   विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 67 ☆

☆ व्यंग्य – जहाज का पंछी

परमू भाई से वहीं बात हुई थी जहाँ हो सकती थी, यानी मल्लू के ढाबे में। जो ज्ञानी हैं वे उन्हें दफ्तर में उनकी सीट पर खोजने के बजाय सीधे मल्लू के ढाबे पर ब्रेक लगाते हैं,उनका चाय-समोसे का बिल चुकाते हैं और आराम से काम की बात करते हैं। जो अज्ञानी हैं वे दफ्तर में उनको उसी तरह ढूँढ़ते रह जाते हैं जैसे लोग ज़िन्दगी भर मन्दिर में भगवान को खोजते रह जाते हैं।

उस दिन मैंने परमू भाई को ढाबे में अकेला पा, हिम्मत जुटा कर कहा, ‘परमू भाई, बहुत दिनों से आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। ‘

परमू भाई निर्विकार भाव से चाय पीते हुए बोले, ‘बेखटके कह डालो भाई। ‘

मैंने कहा, ‘परमू भाई!बहुत दिनों से आप पर लक्ष्मी की कृपा है। आप का घर अब धन-धान्य से परिपूर्ण है,भाभी इस उम्र में भी पन्द्रह तोले के गहने लटकाये घूमती हैं, तीनों सपूत लाखों के धंधे में लग गये और दोनों पुत्रियाँ रिश्वतखोर, संभावनाशील अफसरों की पत्नियाँ बन कर विदा हुईं। अब मेरे ख़याल से आपको परलोक के वास्ते कुछ ‘प्लानिंग’ करना चाहिए और लक्ष्मी के प्रति मोह कम करना चाहिए। ‘

परमू भाई सामने दीवार पर नज़र टिकाकर दार्शनिकों के लहजे में बोले, ‘किसोर भाई!(वे ‘श’ को ‘स”बोलते थे) आपने बात तो कही, लेकिन सोच कर नहीं कही। आपने कभी पाइप से पानी निकाला होगा। पहले आदमी को मुँह से खींचकर निकालना पड़ता है, फिर पानी अपने आप खिंचा चला आता है। मैं भी अब उस अवस्था में पहुँच गया हूँ जहाँ मुझे खींचना नहीं पड़ता, माल अपने आप चला आता है। ‘

मैंने कहा, ‘मैं जानता हूँ परमू भाई, कि आप समृद्धि की इस उच्च अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं,लेकिन पाइप को कभी न कभी बन्द न किया जाए तो आदमी बाढ़ में डूबने लगता है। अब वक्त आ गया है कि आप इस टोंटी को बन्द करें। ‘

परमू भाई के चेहरे पर दुख उभर आया। बोले, ‘भाई, आप मछली से कहते हो कि पानी से बाहर आ जाए और पंछी से कहते हो कि उड़ना बन्द कर दे। कैसी बातें करते हो भाई?’

फिर मेरी तरफ देखकर बोले, ‘फिर भी आपकी बात पर विचार करूँगा। वैसे भी पहले जैसी भूख नहीं रही। अघा गया हूँ। ‘

दूसरे दिन वे मुझसे मिलते ही बोले, ‘मैंने कल उस बारे में तुम्हारी भाभी की राय ली थी। बताने लगीं कि उन्हें तीन चार दिन से सपने में यमराज का भैंसा दिखता है। उनकी भी राय है कि आपकी बात मान ली जाए। ‘

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की। वे बोले, ‘तो ठीक है। कल गुरुवार का ‘सुभ’ दिन है। कल से ‘रिसवत’ लेना पाप है। ‘

शाम को घर जाने से पहले वे मेरी कुर्सी के पास आकर जेब बजाते हुए बोले, ‘कल से बन्द करना है इसलिए आज जितना खींचते बना,खींच लिया। पिछले उधार भी वसूल कर लिए। अब बन्द करने में कोई अफसोस नहीं होगा।

दूसरे दिन दफ्तर पहुँचा तो बरामदे में भीड़ देखकर उधर झाँका। देखा, भीड़ का केन्द्र परमू भाई थे। वे कह रहे थे, ‘बस, आज से छोड़ दिया। आदमी ठान ले तो क्या नहीं कर सकता!आज से हाथ भी नहीं लगाना है। आज से परलोक का इंतजाम ‘सुरू’। ‘

लोग मुँह बाए सुन रहे थे और एक दूसरे के मुँह की तरफ देख रहे थे। यह रातोंरात हृदय-परिवर्तन का मामला था। शेर माँस खाना छोड़कर शाकाहारी होने जा रहा था। पूरे जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गयी।

उस दिन से परमू भाई ने रिश्वत लेना सचमुच बन्द कर दिया। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने काम करना भी बन्द कर दिया। काम में उनकी दिलचस्पी जाती रही। दिन भर मल्लू के ढाबे में बैठे रहते। कहते, ‘जब काम से कुछ मिलना ही नहीं तो काम किस लिए करें?अब कलम उठाने का मन नहीं होता। ‘अपनी फाइल दूसरे बाबुओं को दे देते और चक्कर लगाने वालों से कह देते, ‘जाओ भैया, उधर पूजा-दच्छिना चढ़ाकर काम करा लो। अब यहाँ मत्था मत टेको।

परमू भाई ने लेना और काम करना बन्द कर दिया तो उनके आसपास दिन भर मंडराती मधुमक्खियाँ भी ग़ायब हो गयीं। लोग परमू भाई से कन्नी काटने लगे। चाय के पैसे परमू भाई की जेब से ही जाने लगे।

परमू भाई ने रिश्वत लेना बन्द ज़रूर कर दिया, लेकिन रिश्वत उनके दिल, दिमाग़ और ज़बान पर बैठ गयी। जो भी मिलता उससे एक ही राग अलापते–‘भैया, अपन ने तो बिलकुल छोड़ दिया। जिन्दगी भर यही थोड़इ करते रहेंगे। बहुत हो गया। अब ‘निस्चिंतता’ से रहेंगे और चैन की नींद सोएंगे। ‘ सुनने वाला एक ही रिकार्ड सुनते सुनते भाग खड़ा होता।

अपनी कुर्सी पर बैठते तो सामने वालों से पुकार कर पूछते, ‘कहो, आज कितने बने?वो जो सेठ आया था, कितने दे गया?लिये जाओ, लिये जाओ। अपन तो भैया, इस सब से छुटकारा पा गये। ‘

जहाँ भी बैठते, यही किस्सा छेड़ देते, ‘भैया, बड़ी ‘सान्ती’ मिल रही है। पहले यही लगा रहता था कि इतने मिले उतने मिले,इसने दिये उसने नहीं दिये। अब इस सब टुच्चई से ऊपर उठ गये। ‘

ढाबे में बैठते तो सब को सुनाकर कहते, ‘भैया, अच्छी चाय बनाना। अब जेब से पैसा जाता है। ‘

दफ्तर के लोग यह भविष्यवाणी करने लगे कि परमू भाई कुछ दिन में सन्यास लेकर हिमालय की तरफ प्रस्थान कर जाएंगे और दफ्तर मणिहीन हो जाएगा।

अब परमू भाई दिन भर इस उम्मीद में घूमते रहते थे कि दफ्तर में सब तरफ उनकी ईमानदारी की चर्चा हो और सारा दफ्तर उनकी जयजयकार से गूँजे। लेकिन हो उल्टा रहा था। लोग उनकी उपस्थिति में भी मंहगाई-भत्ते, ट्रांसफरों और साहब के द्वारा अकेले रिश्वत हड़पने की बातें करते थे और उनकी ईमानदारी की पैदाइश के तीन चार दिन बाद ही लोगों ने उसे कचरे के ढेर में फेंक दिया था। अब परमू भाई बैठे कुढ़ते रहते और लोग टीवी पर चल रहे सीरियलों की बातें करके खी-खी हँसते रहते। धीरे धीरे परमू भाई का धीरज चुकने लगा और उन्हें बोध होने लगा कि वे इतना बड़ा त्याग करके बेवकूफ बन गये। वे उदास रहने लगे।

एक दिन मेरे पास आकर बैठ गये, बोले, ‘बंधू, मामला कुछ जम नहीं रहा है। ‘

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ, परमू भाई?’

वे दुखी भाव से बोले, ‘भाई, ऐसा लग रहा है कि हमारा इतना बड़ा त्याग बेकार चला गया। हमने आपकी बात मानकर अपना चालू धंधा बन्द किया, और यहाँ लोगों को दो बोल बोलने की भी फुरसत नहीं है। लोगों का यही रवैया रहा तो फिर ईमानदार होना कौन पसन्द करेगा?’

मैंने कहा, ‘कैसी बातें करते हैं, परमू भाई!अच्छे काम का इनाम तो मन की सुख-शान्ति होती है। विद्वानों ने कहा है कि सन्तोष से बड़ा कोई धन नहीं होता। ‘

परमू भाई असहमति में सिर हिलाकर बोले, ‘आजकल ‘सन्तोस वन्तोस’ कौन पूछता है भाई? इतना बड़ा त्याग करने के बाद न कहीं तारीफ, न इनाम, न सम्मान, न अभिनन्दन। मेरा तो सारा बलिदान पानी में चला गया। ऐसी सूखी ईमानदारी से तो अपनी पुरानी बेईमानी लाख गुना अच्छी। चार लोग आगे पीछे तो लगे रहते थे। ‘

मैं संकट में पड़ गया। परमू भाई को ईमानदारी के अदृश्य और अप्रत्यक्ष लाभों के बारे में समझा पाना बड़ा कठिन लग रहा था। उन्होंने हमेशा ठोस प्रतिफल प्राप्त किये थे, इसलिए अदृश्य लाभ उनके दिमाग़ में नहीं बैठ रहे थे। उस दिन वे असंतुष्ट चले गये।

दूसरे दिन वे फिर आकर बैठ गये। बोले, ‘बंधू, मैंने काफी सोच लिया है। ऐसी मुफ्त की ईमानदारी से कोई फायदा नहीं है। वैसे भी हमारे ‘देस’ में औसत उम्र काफी बढ़ गयी है। अभी मेरे दफ्तर छोड़कर यमलोक जाने की कोई संभावना नहीं है। जब वक्त आएगा तो कोई रास्ता निकाल लेंगे। ‘

वे जाकर अपनी मेज़ पर फाइलें सजाने लगे और दोपहर तक खबर फैल गयी कि जहाज का पंछी पुनि जहाज पर लौट आया है। शाम तक लोग परमू भाई को ढाबे चलने का निमंत्रण देने लगे।

इस तरह परमू भाई अपनी पुरानी दुनिया में लौट गये और मेरे एक नेक काम की भ्रूणहत्या हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – # 64 ☆ नरगिद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  नरगिद्ध ☆

( संजय  उवाच में आज प्रस्तुत है अपवाद स्वरुप एक विचारणीय कविता) 

वे बेच रहे हैं

हत्या,

आत्महत्या,

चीत्कार,

बलात्कार,

सिसकारी,

महामारी,

धरना,

प्रदर्शन,

हंगामा,

तमाशा,

वेदना,

संवेदना..,

इस हाट में

हर पीड़ा

उपजाऊ है,

हर आँसू

बिकाऊ है..,

राजनीति,

सत्ता,

षड्यंत्र,

ताकत,

सारे बिचौलिये

अघा रहे हैं,

इनकी ख़ुराक पर

गिद्ध शरमा रहे हैं..,,

मैं निकल पड़ा हूँ दूर,

चलते-चलते

वहाँ पहुँच गया हूँ

जहाँ से यह मंडी

न दिखती है,

न सुनती है..,

नरगिद्धों के लिए वर्जित

इस टापू पर

निष्पक्ष होकर

सोच सकता हूँ,

कुछ और नहीं तो

पीड़ित के लिए

कुछ देर सचमुच

रो सकता हूँ..!

 

© संजय भारद्वाज

प्रात 5:31 बजे, 3 अक्टूबर  2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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