हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 33 ☆ लघुकथा – पंख होते तो उड जाते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “ पंख होते तो उड जाते”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 33☆

☆  लघुकथा – पंख होते तो उड जाते

लॉन के कोने में  आम का एक घना पेड है. एक दिन पेड के बीचोंबीच एक चिडिया की आवाजाही जरा ज्यादा ही दिखी,  मैंने आम की डाल को हटा कर धीरे से देखा – अरे वाह ! चिडिया रानी घोंसला बना रही हैं, मन खुश हो गया. पक्षियों की चहल – पहल पूरे घर में रौनक ला देती है. चिडिया अपनी छोटी सी चोंच में घास – फूस, धागे का टुकडा तो कभी सुतली लेकर आती. धीरे – धीरे घोंसला बन रहा था , मैं चुपचाप जाकर उसकी बुनावट देखती कुछ पत्तों को धागे और  सुतली से ऐसे जोड दिया था मानों किसी इंसान ने सुईं धागे से सिल दिया हो, कैसी कलाकारी है इन पक्षियों में,  कौन सिखाता है इन्हें ये सब. इंसानों की दुनिया में दर्जनों कोचिंग क्लासेस हैं,जो चाहे सीख लो,  पर ये कैसे सीखते हैं ? नजरें आकाश की ओर उठ गईं.

चिडिया ने कब  घोंसला बना लिया और कब उसमें अंडे आ गए मुझे कुछ पता ही न चला.  एक दिन चूँ – चूँ   की मोहक आवाज ने लॉन को गूँजा दिया. चिडिया रानी अब नन्हें- नन्हें चूजों की माँ थी और अपना दायित्व निभा रही थीं. फुर्र से उडकर जाती और नन्हीं सी चोंच में दाने लाकर चूजों के मुँह में डाल देती. ना जाने कितने चक्कर लगाती थी वह. तीनों बच्चे चोंच  खोले चूँ- चूँ, चीं -चीं करते रहते. इनकी  मीठी आवाजों से आम का पेड  गुलजार  था और मेरा मन भी.

चिडिया रानी अब अपने बच्चॉं को उडना सिखाने लगी थी. वह उडकर पेड की एक  डाल पर बैठती और पीछे पीछे बच्चे भी आ बैठते. फिर पेड से उडकर छत की मुंडेर पर बैठने लगी. बच्चे कुछ उडते,  कुछ फुदकते उसके पीछे आ जाते. और फिर एक दिन  चिडिया ने लंबी उडान भरी, बच्चे उडना सीख गए थे, उनके पंखों में जान आ गई थी,  अब उनकी  अलग दिशाएं थीं, अपने रास्ते.  ना चिडिया लौटी, ना बच्चे. आम के पेड पर घोंसला अब भी वैसा ही था  पक्षियों के जीवन की कहानी कहता हुआ,  बच्चों को जन्म दिया, खिलाया, पिलाया, उडना सिखाया और बस. इंसानों की तरह ना अकेलापन, ना बेबसी, ना कोरोना,  ना रोना .

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ तंजखोर शब्दों की बीमारी ! ☆ श्री राकेश सोहम

श्री राकेश सोहम

( श्री राकेश सोहम जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  श्री राकेश सोहम जी  की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा कुछ इस प्रकार है – 

साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण बाल रचनाकार प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।

पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान यश अर्चन सम्मान संचार शिरोमणि सम्मान विशिष्ठ सेवा संचार पदक

☆ व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी ! 

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी का  एक  विचारणीय व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी !।  कृपया  रचना में निहित सकारात्मक दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

कविता सृजन के मध्य कुछ शब्द व्यंग्य से निकल कर शरणागत हुए. वे उनींदे और परेशान थे. प्रतिदिन देर रात तक जागना. किसी पर पर तंज कसने के लिए अपने आप को तैयार करना. फिर अलसुबह निकल जाना. उनके चेहरों पर कटाक्ष से उपजीं तनाव की लकीरें स्पष्ट दिख रहीं थीं. व्यंग्य के पैनेपन को सम्हालते हुए वे भोथरे हो चले थे.

ये शब्द, ससमूह तकलीफों का गान करने लगे. कुछ ने कहा कि वे समाज को कुछ देने की बजाए कभी राजनीति को पोसते, और कभी कोसते है. व्यवस्थाओं पर राजनीतिक तंज और अकड़बाज़ी दिखाते-दिखाते उनकी तासीर ही अकड़कर कठोर हो चली है. वे प्रतिदिन सैकड़ों हज़ारों की संख्या में व्यंग्य के तीर बनकर निशाने से चूक जाते है. व्यवस्थाओं को सुधारने में असमर्थ पाते है. व्यवस्थाएं केवल और केवल राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गयीं हैं. इन्हें चुनावों के दौरान भुनाया जाता है. ये शब्द प्रतिदिवस अखबारों में बैठकर केवल चटखारे बन कर रह गए है. उनके पैनेपन से, उनकी चुभन से जिम्मेदार आला दर्जे के लोग अब दर्द महसूस नहीं करते. अजीब तरह का आनंद अनुभव करते हैं. बल्कि ये लोग उम्मीद करते हैं कि अगली सुबह उन पर निशाना कसा जाएगा और वे चर्चा में बने रहने का सुख भोग पाएंगे.

कठोर मानसिकता से बीमार अनेक शब्द सीनाजोरी पर उतर आए. बहुत समझाने पर भी वे माने नहीं. मांगे मनवाने हेतु जोर आजमाईश पर उतारू हो गए. कवि विचलित हो गया. अतः उनकी इच्छा जाननी चाही. वे बोले कि उन्हें व्यंग्य से निजात दिला दी जाए और कविता में बिठा दिया जाए. उन्हें अपनी बीमार कठोरता से मुक्ति चाहिए.

‘ऐसा क्यों? कविता में क्यों बैठना चाहते है !’, कवि ने फिर पूछा. वे समवेत स्वर में बोल पड़े, ‘क्योंकि कविता स्त्रैण होती है. वह कोमल होती है. सुन्दर और सुवासित होती है. कविता में सरलता और तरलता दोनों होती है, इसलिए.’

कवि ने समझाया, ‘ऐसा नहीं है कि कविता स्त्रैण है इसलिए उसमें कठोरता का कोई स्थान नहीं है. वह कोमल है ज़रूर किन्तु कमज़ोर नहीं है. वह सबला है. आज की स्त्री पुरषोंचित सामर्थ्य जुटाने में सक्षम है. उसे अपना हक़ लेना आ गया है. ज्यादतियों के विरोध में स्वर सुनाई देने लगे है. कविता का तंज व्यंग्य की मार से कमतर नहीं है. कविता दिल से उपजती है और व्यंग्य दिमाग से. इसलिए तुम्हारी मांगें अनुचित है. व्यवस्थाओं के सुधार के लिए दिल-दिमाग दोनों चाहिए.’

व्यंग्य से पलायनवादी शब्द अपने भोथरेपन के साथ निशब्द होकर लौट गए.

 

©  राकेश सोहम्

एल – 16 , देवयानी काम्प्लेक्स, जय नगर , गढ़ा रोड , जबलपुर [म.प्र ]

फ़ोन : 0761 -2416901 मोब : 08275087650

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 30 ☆ पावन-सा चंदन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “पावन-सा चंदन.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 30 ☆

☆ पावन-सा चंदन ☆

 

प्रात मुझे सुखमय लगता है

चिड़ियों का वंदन

जीवन नित आशा से भरता

एक नया विश्वास बरसता

पावन-सा चंदन

 

कभी हँसूँ अपने पर मैं तो

कभी हँसूँ दुनिया पर

मुस्काती हैं दिशा-दिशाएँ

नई-नई धुन भरकर

 

प्रेम खोजता खुली हवा में

हर्षित जग-वंदन

 

तमस निशा-सा था यह जीवन

मरुथल-सा तपता मन

सूनापन घट-घट अंतर् का

करता मधु-गुंजन

 

दुख हरता है,सुख भरता है

भोर किरण स्यंदन

 

कितने जन्म लिए हैं मैंने

अब तो याद नहीं कुछ

अनगिन थाती और धरोहर

के संवाद नहीं कुछ

 

पल-छिन माया छोड़ रहा मैं

काट रहा बंधन

 

सन्मति की मैं करूँ प्रार्थना

इनकी-उनकी सबकी

मार्ग चुनूँ मैं सहज-सरल ही

मदद अकिंचन जन की

 

रसना गाती भजन राम के

जय-जय रघुनंदन

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी।  वास्तव में रचना में चर्चित ” हेल्पिंग  हैंड्स” और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। यदि समाज अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा तो लोगों का मानवता पर से विश्वास उठ जायेगा। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆

☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी

जबसे रमाशंकर जी ने अनलॉक -1 की खबर सुनी तभी से उन्होंने अपने सारे साठोत्तरीय दोस्तों को मैसेज कर दिया कि अब हम लोग आपस में मिल सकते हैं ;  मॉर्निंग वॉक पर, गार्डन में व चाय की चुस्कियों के साथ चाय वाले के टपरे पर,  जो बहुत दिनों से बंद था।

सभी दोस्तों की ओर से सहमति भी मिल गयी।

अब तो सुबह 5 बजे से ही सब लोग मास्क लगा कर, दूरी को मेंटेन करते हुए चल पड़े टहलने के लिए। अक्सर ही जब वे टहल कर थक जाते तो वहाँ पास में ही बने टपरे पर बैठकर चाय बिस्किट का आनंद लेते हुए नोक झोक करते थे। पर आज तो पूरा सूना सपाटा था। कहाँ तो लाइन से अंकुरित अनाज का ठेला, ताजे फलों के जूस का ठेला व और भी कई लोग आ जाते थे।

अब क्या करें यही प्रश्न भरी निगाहें एक दूसरे को देख रहीं थीं।

रमाशंकर जी ने कहा ” हम लोगों से चूक हो गयी, हमने सबके बारे में तो सोचा पर इधर ध्यान ही नहीं गया कि ये लोग बेचारे क्या करेंगे। हमारी सुबह को सुखद बनाने वाले परेशान होते रहे और हम लोग घरों में ही रहकर लॉक डाउन का आनंद लेते रहे।

हाँ, ये चूक तो हुयी, सभी ने एक स्वर से कहा।

अब चलो वहाँ बैठे गार्ड से पूछते हैं, ये लोग कहाँ मिलेंगे ?

सभी गार्डन की देखभाल करने वाले गार्ड के पास गए तो उसने बताया कि ये लोग अपने गाँव चले गए। जहाँ रहते थे,वहाँ मकान मालिक परेशान करते थे। खाना तो समाज सेवी संस्था से मिल रहा था किंतु रहने की दिक्कत के चलते क्या करते।

गार्डन भी तो कितना अस्त- व्यस्त लग रहा है, रमाशंकर जी ने कहा।

यही तो माली काका के साथ भी हुआ। उनको भी एक महीने का वेतन तो मिल गया था, उसके बाद का आधा ही मिला। वैसे तो कोई न कोई और भी काम कर लेते थे पर इस समय वो भी बंद, रहने की दिक्कत भी हो रही थी सो वे भी चले गए, गार्ड ने बताया।

क्या किया जाए, ये महामारी बिना लॉक डाउन जाती ही नहीं, इसलिए ये तो जरूरी था, रमाशंकर जी ने कहा।

आज देखो सब लोग घूमते दिख रहे हैं, बस वही लोग जो हमारे हेल्पिंग हैंड थे वे ही नहीं हैं क्योंकि जो मदद हम घरों में रहकर कर सकते थे उस ओर हमने ध्यान नहीं दिया,  रमाशंकर जी ने कहा।

कोई बात नहीं साहब, अब भी अगर आप लोग चाहें तो सब ठीक हो सकता है। इनका पता लगाइए, ये जहाँ रहते थे उनके पास इन लोगों का मो. न. अवश्य होगा, इन्हें फिर से हिम्मत दिलाइये कि ये शहर इनका अपना है, हम लोगों से भूल हुई है, इन्हें इनका व्यवसाय स्थापित करने में  सक्षम लोग यदि थोड़ी -थोड़ी भी मदद करें तो फिर से ये शहर चहकने – महकने लगेगा, गार्ड ने कहा।

तुमने तो हम सबकी आँखें खोल दी। तुम्हें सैल्यूट है। हम लोग मिलकर अवश्य ही अपना दायित्व निर्वाह करेंगे, सभी ने एक स्वर में कहा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 51 – नकल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नकल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 51 ☆

☆ लघुकथा –  नकल ☆

 

परीक्षाहाल से गणित का प्रश्नपत्र हल कर बाहर निकले रवि ने चहकते हुए जवाब दिया, “निजी विद्यालय में पढ़ने का यही लाभ है कि छात्रहित में सब व्यवस्था हो जाती है.”

“अच्छा.” कहीं दिल में सोहन का ख्वाब टूट गया था.

“चल. अब, उत्तर मिला लेते है.”

“चल.”

प्रश्नोत्तर की कापी देखते ही रवि के होश के साथ-साथ उस के ख्वाब भी भाप बन कर उड़ चुके थे. वही सोहन की आँखों में मेहनत की चमक तैर रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 48 –एकांताची करतो सोबत. . . . ! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण गझल  “एकांताची करतो सोबत . . . . !”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #48 ☆ 

☆ गझल – एकांताची करतो सोबत ☆ 

 

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदी किनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

दिनांक  16/2/2019

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 50 – बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के ……☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता के रूप में भावप्रवण रचना कष्ट हरो मजदूर के ……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 50 ☆

☆ बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के …… ☆  

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चांदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर ना मांगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामां दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना, आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चांदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुक्ख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 52 – गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  गझल  “ना इथे ना राहते आहे तिथे।  सर्वव्याप्त अदृश्य ईश्वर का साथ और पृथ्वी  पर उसकी अपेक्षाओं  पर आधारित एक अप्रतिम रचना । सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित संवेदनशील रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 52 ☆

☆ गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ 

 

सोसला  दुष्काळ हा, आता तरी,

पावसाच्या बरसु दे झरझर सरी

 

जातिधर्माचे कशाला दाखले

वाढते आहे विषमतेची दरी

 

तू किती नाकारल्या काळ्या मुली

भांडते रात्रंदिनी गोरी परी

 

कष्ट करणे टाळले वरचेवरी

देत आहे कोण भाजी भाकरी ?

 

ना इथे ना राहते आहे तिथे

भेटला मज विश्वव्यापी तो हरी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 31 – बापू के संस्मरण-5 मैं तुझसे डर जाता हूं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मैं तुझसे डर जाता हूं”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण – 5- मैं तुझसे डर जाता हूं☆ 

 

साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था । प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं । त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं । गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना” ।

लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे । काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचे गिर गई । उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, “तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?”

लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, “तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?” लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, “तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया” । बा बोलीं, “पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?” और बा भी उनके साथ काम करने लगीं ।

शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, “मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?” गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, “क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?” बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों –“आप और मुझसे डरते हैं!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 1 – फलसफा जिंदगी का ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता फलसफा जिंदगी का

 

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☆ फलसफा जिंदगी का ☆

फलसफा जिंदगी का लिखने बैठा था,

कलम स्याही और कुछ खाली पन्ने रखे थे पास में ||

 

सोच रहा था आज फुर्सत में हूँ,

उकेर दूंगा अपनी जिंदगी इन पन्नों में जो रखे थे साथ में ||

 

कलम को स्याही में डुबोया ही था,

एक हवा का झोंका आया पन्ने उड़ने लगे जो रखे थे पास में ||

 

दवात से स्याही बाहर निकल गयी,

लिखे पन्नों पर स्याही बिखर गयी जो रखे थे पास में ||

 

हवा के झोंके ने मुझे झझकोर दिया,

झोंके से पन्ने इधर-उधरउड़ने लगे जो स्याही में रंगे थे ||

 

कागज सम्भालने को उठा ही था,

दूर तक उड़ कर चले गए कुछ पन्ने जो पास में रखे थे ||

 

उड़ते पन्ने कुछ मेरे चेहरे से टकराए,

चेहरे पर कुछ काले धब्बे लग गए लोग मुझ पर हंसने लगे थे ||

 

नजर उठी तो देखा लोग मुझे देख रहे थे,

लोगों ने मेरी जिंदगी स्याही भरे पन्नों में पढ़ ली जो बिखरे पड़े थे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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