मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 13 ☆ दिवाने ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “दिवाने“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 13 ☆

☆ दिवाने

मी उलगडीत गेलो,कोड्यातले उखाणे

रीतेच राहिले परी,जीवनातले रकाने !!

 

लावूनी वर्ख लिलया,मी चमकविली पाने

किताब जिंदगीचे ,तरी राहिले पुराने !!

 

जिंकीत सर्व गेलो,अगदी क्रमाक्रमाने

सर्वस्व हारलो मी, एकाच नकाराने!!

 

वाटीत सुखे गेलो, तुडवीत किती राने

नामाभिदान दिधले,त्यांनी मला दिलाने !!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 – पृथ्वीराज कपूर ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूरपर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूर ☆ 

पृथ्वीराज कपूर (3 नवंबर 1906 – 29 मई 1972) हिंदी सिनेमा जगत एवं भारतीय रंगमंच के प्रमुख स्तंभों में गिने जाते हैं। पृथ्वीराज ने बतौर अभिनेता मूक फ़िल्मो से अपना करियर शुरू किया। उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक होने का भी गौरव हासिल है। पृथ्वीराज ने सन् 1944 में मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की, जो देश भर में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करता था। इन्हीं से कपूर ख़ानदान की भी शुरुआत भारतीय सिनेमा जगत में होती है।

ब्रिटिश भारत के खैबर पख्तूनख्वा, (वर्तमान पाकिस्तान) के पेशावर में एक गली में क़िस्सा ख्वानी बाज़ार था, जहाँ दोपहर से रात दस बजे तक गप्पों का लम्बा दौर चलता था जिसमें ज़ुबान के फ़नकार  और याददाश्त के धनी क़िस्साग़ो मौजूदा लोगों को रामायण-महाभारत, अरेबियन-नाइट, ब्रितानी-रानी और ईरानी-बादशाहों के साथ दिल्ली और लाहौर के क़िस्से मसाला लगाकर  सुनाया करते थे।

उस गली से थोड़ी दूर पर दो दोस्तों के मकान थे, एक घर लाला ग़ुलाम सरवार और दूसरा घर दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर का था। दोनों दोस्त फलों के बाग़ानों के मालिक और भरपूर परिवार के मुखिया थे। लाला ग़ुलाम सरवार के चार बच्चे थे, असलम खान, नासिर ख़ान, यूसुफ़ खान, एहसान खान।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को समुंद्री, समुंद्री तहसील, लायलपुर जिला, पंजाब के खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, बागेश्वरनाथ कपूर, पेशावर शहर में भारतीय इंपीरियल पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करते थे जबकि उनके दादा केशवमल कपूर समुंद्री में एक तहसीलदार थे। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और अभिनेता अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर पृथ्वीराज कपूर के चचेरे भाई थे।

दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर के दो बच्‍चे त्रिलोक कपूर और पृथ्वीराज कपूर के अलावा पृथ्वीराज कपूर की जल्दी शादी हो जाने  से उनके बच्चे राज कपूर, शशि कपूर, शम्मी कपूर, उर्मिला कपूर और सिआल कपूर, सब हम उम्र थे। क़िस्सा वाली गली में क़िस्सा-कहानी सुनने जमे रहते थे, उनमें यूसुफ़ और राज सबसे आगे बैठते थे, एक आज़ाद भारत का अदाकारी सम्राट और दूसरा सबसे बड़ा क़िस्सागो “शो मेन” बनने वाला था।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवम्बर 1906 को समुंद्री, फैसलाबाद, पंजाब (ब्रिटिश भारत), अब पाकिस्तान का पंजाब में हुआ था। वे ख्याति नाम फ़िल्म अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, लेखक थे। जब वे 17 साल के तब उनका विवाह 19 वर्षीय  रामसरनी मेहरा (1923–1972)  से हुआ और राजकपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर उनके सुपुत्र थे। पृथ्वीराज कपूर को कला क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1972 में उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

पृथ्वीराज ने पेशावर पाकिस्तान के एडवर्ड कालेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक साल तक कानून की शिक्षा भी प्राप्त की जिसके बाद उनका थियेटर की दुनिया में प्रवेश हुआ। 1928 में उनका मुंबई आगमन हुआ। कुछ एक मूक फ़िल्मों में काम करने के बाद उन्होंने भारत की पहली बोलनेवाली फ़िल्म आलम आरा में मुख्य भूमिका निभाई।

पृथ्वीराज लायलपुर और पेशावर में थियेटर में अभिनय करते थे। वे अपनी चाची से क़र्ज़ लेकर 1928 बम्बई आकर इम्पीरीयल फ़िल्म कम्पनी में नौकरी करने लगे जहाँ उन्होंने “दो धारी तलवार” मूक फ़िल्म में एक्स्ट्रा की भूमिका की, जिससे प्रभावित होकर उन्हें 1929 में “सिनेमा गर्ल” में मुख्य भूमिका मिल गई। उन्होंने कुल 9 मूक फ़िल्मों में काम किया जिनमे शेर ए अरब और प्रिन्स विजय कुमार धसमिल थीं। फिर उन्हें पहली सवाक् फ़िल्म आलमआरा में काम करने का मौक़ा मिला।

आलमआरा (विश्व की रौशनी) 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई (तब बंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था। यह पहली भारतीय सवाक इतनी लोकप्रिय हुई कि “पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए सहायता बुलानी पड़ी थी”। मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर मुख्य कलाकार थे।

1937 में पृथ्वीराज की फ़िल्म विद्यापति आई जो एक  बंगाली बायोपिक फिल्म है, जिसे देबकी बोस ने न्यू थियेटर्स के लिए निर्देशित किया है।  इसमें विद्यापति के रूप में पहाड़ी सान्याल ने अभिनय किया। फ़िल्म में उनके साथ कानन देवी, पृथ्वीराज कपूर, छाया देवी, लीला देसाई, के. सी. डे  और केदार शर्मा थे। संगीत आर. सी. बोरल का था और गीत केदार शर्मा ने लिखे थे। देबकी बोस और काजी नजरूल इस्लाम ने कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। कहानी मैथिली कवि और वैष्णव संत विद्यापति के बारे में है। फिल्म के गीत लोकप्रिय हो गए। इसने सिनेमाघरों में 1937 की बड़ी सफलता हासिल करने वाली भीड़ को सुनिश्चित किया।

उन दिनों की फिल्मों में नायिका-केंद्रित होने का चलन था और हालांकि इस फिल्म को विद्यापति कहा जाता था, लेकिन फिल्म की मुख्य कलाकार कानन देवी थीं। एक मजबूत स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का मुख्य प्रदर्शन उनका मुख्य प्रदर्शन बन गया।

पृथ्वीराज कपूर के प्रदर्शन को फिल्मइंडिया के संपादक बाबूराव पटेल ने उच्च दर्जा दिया, जबकि “नवागंतुक” मोहम्मद इशाक की भी सराहना की। उन्होंने देबकी बोस के निर्देशन को “कला की बेहतरीन कविता” और बोस को “वास्तव में एक महान निर्देशक” कहा।

इस फिल्म का उपयोग गुरुदत्त ने अपनी फिल्म कागज़ के फूल (1959) में थिएटर युग की बालकनी में फ़िल्म के किरदार सुरेश को श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया, जहाँ विद्यापति को दर्शकों द्वारा देखा जा रहा है।

संगीत निर्देशक आर. सी. बोराल ने अपने संगीत निर्देशन में पियानो का उपयोग करके पश्चिमी प्रभाव में लाए।  यह प्रभाव लोकप्रिय होने के साथ-साथ क्लासिक धुनों में भी सफल रहा और गीतों को काफी सराहा गया। अनुराधा की भूमिका जिसे कानन देवी ने अधिनियमित किया था, उसे नाज़रुल इस्लाम ने बनाया था। उनके गीत “मोर अंगना में आयी आली” और के. सी डे के साथ उनके युगल गीतों ने उन्हें न्यू थियेटर्स में के. एल. सहगल के साथ शीर्ष महिला गायन स्टार बना दिया। केदार शर्मा ने अपने और देबकी बोस के बीच मतभेदों के बाद न्यू थियेटर्स को छोड़ दिया।

पृथ्वीराजकी 1941 में एक बहुत बेहतरीन फ़िल्म “सिकंदर” आई, जिसके निर्देशक सोहराब मोदी थे। इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर महान का किरदार निभाया है।

कहानी 326 ई.पू. फिल्म सिकंदर महान के फारस और काबुल घाटी पर विजय के बाद  भारतीय अभियान से शुरू होती है, सिकंदर की सेना  झेलम में भारतीय सीमा तक पहुंचती है। वह अरस्तू का सम्मान करता है और फारसी रुखसाना से प्यार करता है। सोहराब मोदी भारतीय राजा पुरु (यूनानियों के लिए पोरस) की भूमिका में हैं। पुरु पड़ोसी राज्यों से एक सामान्य विदेशी दुश्मन के खिलाफ एकजुट होने का अनुरोध करता है। विश्वासघाती आम्भी राजा की भूमिका में के.एन.सिंग थे।

जब सिकंदर ने पोरस को हराया और उसे कैद किया, तो उसने पोरस से पूछा कि उसका इलाज कैसे किया जाएगा। पोरस ने उत्तर दिया: “जिस तरह एक राजा दूसरे राजा द्वारा व्यवहार किया जाता है”। सिकंदर उनके जवाब से प्रभावित हुए और उन्हें आज़ाद कर दिया। पृथ्वीराज  और सोहराब मोदी के लम्बे-लम्बे संवाद फ़िल्म की जान थे। बाद में एक फ़िल्म “सिकंदरे आज़म भी बनी थी जिसमें दारासिंह सिकंदर और पृथ्वीराज राजा पोरस बने थे।

पृथ्वीराज को थियेटर का बचपन से शौक़ था। बम्बई में सोहराब मोदी पारसी थियेटर से जुड़े थे। उनकी संवाद अदायगी और भूमिका निर्वाह में थियेटर की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पृथ्वीराज को भी थियेटर की ललक जागी तो उन्होंने बम्बई की एंडरसन थियेटर कम्पनी में शौक़िया जाना शुरू किया। उन्हें नियमित रूप से नाटकों में भूमिका मिलने लगी। एंडरसन थियेटर कम्पनी इंग्लिश-यूरोपियन थियेटर के शेक्सपियर के नाटकों  प्रभावित था। पृथ्वीराज नाटकों और फ़िल्मों के मंजे हुए कलाकार के रूप में उभरने लगे। पृथ्वीराज पर थियेटर का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने 1944 में बम्बई में पृथ्वी थियेटर स्थापित कर दिया हालाँकि वे 1942 से कालिदास का अभिज्ञान शकुन्तलम नाटक प्रस्तुति कर रहे थे।

पृथ्वीराज 1946 तक अपने भरे पूरे परिवार के एकमात्र कमाने वाले मुखिया थे। जब राजकपूर फ़िल्मों में काम करने लगे और आग फ़िल्म से निर्माता-निर्देशक के रूप में उभरने लग गए तो पृथ्वीराज पूरी तरह थियेटर को समर्पित हो गए।

उन्होंने आज़ादी की थीम पर पूरे देश में घूमकर नाटक मंचन करना शुरू कर दिया। उन्होंने दो सालों में 2662 नाटक मंचित किए। उनका एक बहुत प्रसिद्ध नाटक पठान था जो हिंदू मुस्लिम एकता ओर केंद्रित था, जिसे बम्बई में 600 बार मंचित किया। उनके थिएटर ग्रुप में 80 कलाकार थे। 1950 तक फ़िल्मे अधिक बनने लगीं और छोटे शहरों में भी टाक़ीज खुलने से घुमंतू थिएटर का ज़माना लदने लगा। उनके ग्रुप के अधिकांश कलाकार भी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए तब उन्होंने भी 1951 से राजकपूर की फ़िल्म आवारा से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। पृथ्वी थिएटर बम्बई में काम करता रहा। वे फ़िल्मों से जितना भी कमाते थियेटर में लगा देते थे।

उन्होंने 1960 में मुग़ल-ए-आज़म, 1963 में हरीशचंद्र तारामती, 1965 में सिकंदर-ए-आज़म और 1971 में कल आज और कल में काम किया था।

उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों नानक नाम जहाज़ है (1969) नानक दुखिया सब संसार (1970) और मेले मित्तरां दे (1972) में भी काम किया था।

उन्हें 1954 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1969 में पद्म भूषण पुरस्कार और 1971 में दादा साहिब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया  गया था। वे 9 सालों तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे।

वे उनकी पत्नी दोनों कैंसर से पीड़ित होकर आठ दिनों के अंतर से स्वर्ग सिधार गए, पृथ्वीराज की मृत्यु 29 मई 1972 को बम्बई में हुई थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ स्वप्नात   आलं   झाड ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता स्वप्नात   आलं   झाड। हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

 

☆ स्वप्नात   आलं   झाड ☆

 

एकदा   स्वप्नात  आलं   झाड

बोलू    लागलं    फाडफाड.

फांद्यांचे    हिरवे     हात

हलवत     होतं     जोरजोरात..

 

“आम्ही   सुध्दा     तुमच्या सारखी

ह्या    धरतीची    मुलं    आहोत.

तुमचा    छळ    आणि   जुलूम

मुकेपणाने    सोसतो    आहोत

आमचं    जीवन   आणि   मरण

तुमच्या    हातात   घेतलत   तुम्ही

तुमच्यासाठी    करतो    त्याग

तो     तुम्हाला   कळत   नाही.

रस्ते    रुंद    हवेत   म्हणून

तिथून    आम्हाला    उखडता

घरात    अंधार      येतो   सांगून

सरळ    फांद्या    छाटून    टाकता.

करू    नका    आमची    पूजा ,

उगिचच     करता    गाजावाजा

तुमचे    सण,     तुमचे   उत्सव

आम्ही    भोगत    असतो    सजा

आमचा    बहर,   आमचं    वैभव

तुम्ही    करता    बेचिराख

न  हलण्याचा,   न  बोलण्याचा

आम्हाला    आहे   ना   शाप.

जंगलात   आहे    आमचं   राज्य

तिथे   तरी    येऊ    नका

प्राणी,  पक्षी   आमचे    मित्र

त्यांना    बेघर   करू    नका.”

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 45 – तंत्र, शिव और शक्ति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “तंत्र, शिव और शक्ति । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 45 ☆

☆ तंत्र, शिव और शक्ति 

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि तंत्रवाद में सभी दृश्य वस्तुएँ या रूप या अवधारणाएँ भगवान शिव और शक्ति के संयोजन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। हमारा जीवन शिव और शक्ति के बीच अलगाव के कारण ही है । शक्ति हमेशा व्यक्तिगत और ब्रह्मांड के विकास को पूरा करने के लिए शिव के साथ एकजुट होने का प्रयत्न करती है । जब शक्ति भगवान शिव के साथ मिलती है तो वैश्विक खेल समाप्त होता है और विश्राम का समय आ जाता है । आप इससे ऐसे सोच सकते हैं कि शिव एक अपरिवर्तिनीय चेतना या स्थितिज ऊर्जा है और शक्ति सक्रिय चेतना या गतिज ऊर्जा है ।

चेतना के गुणों की अंतः क्रिया से सीमित आयाम प्रकट होते हैं, और यह सीमित अभिव्यक्ति आयाम उन गुणों को प्राप्त करते हैं जिन्हें यह नाद, बिंदू और कला से ग्रहण करते हैं। शुद्ध अव्यक्त ऊर्जा के तीन गुण नाद, कला और बिंदू हैं । जबकि प्रकट ऊर्जा के तीन गुण सत्त्व, राजास और तामस हैं, स्पष्ट रूप से नाद कंपन है, बिंदू एक नाभि या केंद्र है और कला एक किरण या बल है जो नाभिक या बिंदू से उत्पन्न होता है ।

प्रत्येक नाद या कंपन में चार आवृत्तियाँ हैं जिनके विषय में मैंने कई बार बताया है, वे परा या ब्रह्मांडीय, पश्यन्ती या आकाशीय, मध्यमा या सूक्ष्म और विखारी या सकल या स्थूल हैं । क्या आप जानते हैं कि हमारे शरीर की हर कोशिका का नाभिक वही बिंदू है । इसमें गुणसूत्र होते हैं जो पूरी स्मृति और प्रजातियों की विकासवादी क्षमता को सांकेतिक शब्दों में बदलते (encode) हैं । यह बिंदू वास्तव में पदार्थ, ऊर्जा और चेतना के बीच एक कड़ी है ।

मनुष्य का वीर्य, जो सृजन के लिए ज़िम्मेदार है वास्तव में इस बिंदू और शुक्राणुजनों का संयोजन है। निषेचित अंडा एक सचेत जीवित ऊतक है । जब शुक्राणु अंडाशय में प्रवेश करता है, तो यह चेतना की एक सूक्ष्म गतिशील जगह बनाता है। उस जगह को आकश रहित आकाश कहा जाता है, जो चेतना का बिंदू है और बिना साँस के हिलता और धड़कता रहता है। उर्वरित अंडाशय में, जीव-व्यक्तिगत चेतना, ब्रह्म-सार्वभौमिक चेतना से अलग होती है। नाद-ध्वनिहीन ध्वनि, बिंदू-स्पंदनात्मक चेतना, और कला-झिल्लीदार संरचना, सभी युग्मनज (zygote) में उपस्थित होते हैं । यह गर्भ में बढ़ने वाला एक मृत ऊतक नहीं होता । एक कोशिका का दो, चार, और सोलह कोशिकाओं में विभाजन प्राण वायु द्वारा पूर्ण किया जाता है । इस प्रकार, शरीर का आकार प्राण वायु द्वारा ही निर्धारित होता है । कफ प्रत्येक कोशिका को पोषित करने में सहायता करता है और पित्त युग्मनज के मूल में अपरिपक्व कोशिका को परिपक्व कोशिका में परिवर्तित करता है । उर्वरित अंडाशय का यह कोश विभाजन भ्रूण को विकास की ओर ले जाता है ।

शक्ति त्रिगुणात्मक होती है, और ये इच्छा शक्ति – इच्छा की शक्ति, क्रिया शक्ति – कार्य की शक्ति, और ज्ञान शक्ति – ज्ञान की शक्ति है । ज्ञान शक्ति सात्विक होती है, क्रिया राजस्विक एवं इच्छा शक्ति तामसिक होती है । ज्ञान शक्ति शरीर का वात दोष, क्रिया पित्त दोष और इच्छा कफ दोष का सूक्ष्म रूप है । सामान्य मनुष्यों के लिए सरल शब्दों में ज्ञान शक्ति स्वयं या आत्मा और बुद्धि का मिश्रित रूप है, क्रिया शक्ति आत्मा और चित्त का मिश्रित रूप है और इच्छा शक्ति आत्मा और मन का मिश्रित रूप है ।

तंत्रवाद के शब्दों में बिंदू शिव है, कला शक्ति है (तीन मुख्य कला : क्रिया, ज्ञान और इच्छा) और नाद शिव और शक्ति का युग्मन है ।

सृजन के तीन बिन्दु सूर्य बिंदू, चंद्र बिंदू और अग्नि बिंदू हैं । अगर हम सूर्य बिंदू से अग्नि बिंदू को मिलाते हैं, तो मिलाने वाली रेखा को क्रिया शक्ति, जो की तीनों शक्तियों में सबसे बड़ी है कहा जायेगा । चंद्र बिंदु और अग्नि बिंदु को मिलाने वाली रेखा तामस प्रकृति की इच्छा शक्ति है और सूर्य बिंदु और चंद्र बिंदु को मिलाने वाली रेखा में ज्ञान शक्ति है जिसकी सात्विक प्रकृति है ।

क्रिया शक्ति रेखा वर्णमाला के साथ शुरू होने वाले संस्कृत के 16 स्वर हैं । यह भी स्पष्ट है कि क्रिया शक्ति का अर्थ भौतिक कार्यों से है जिसे संस्कृत के स्वरों द्वारा प्रकृति में नामित किया गया है जैसा कि चक्रों के विषय में बताते समय मैंने पहले ही बताया था । इच्छा शक्ति रेखा के 16 व्यंजन हैं जो ‘थ’ से शुरू होते हैं एवं ज्ञान शक्ति के 16 व्यंजन हैं जो ‘क’ से शुरू होते हैं ।  संस्कृत वर्णमाला के शेष तीन अक्षर ‘ह’, ‘ल’ और ‘क्ष’ इस त्रिभुज के शिखर हैं । अब इन तीन शक्तियों से उत्पन्न ध्वनि को समझें ।

आत्मा के प्राण वायु के माध्यम से कार्य करते हुए इच्छा शक्ति के आवेग से मूलाधार चक्र में परा नामक ध्वनि शक्ति उत्पन्न होती है, जो अन्य चक्रों के माध्यम से अपने आरोही आंदोलन में अन्य विशेषताओं और नामों (पश्यन्ती और मध्यमा) से जाती है, और जब मुँह से प्रकट होती है तो बोलने वाले अक्षरों के रूप में विखारी का रूप ले लेती है जो चक्रों में ध्वनि के सकल या स्थूल पहलू हैं । जब तीन गुण सत्त्व, राजस और तामस संतुलन (साम्य) की स्थिति में होते हैं, तो उस अवस्था को परा कहा जाता है । पश्यन्ती वह अवस्था है जब तीनों गुण असमान हो जाते हैं । अब कुछ और अवधारणाएं स्पष्ट हुई?”

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 48 ☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी…लम्हों की किताब।  वास्तव में  ज़िन्दगी लम्हों की किताब ही है। एक एक लम्हा किताब के पन्नों की तरह गुज़रता है, फर्क सिर्फ इतना कि आप उसे पलट कर पढ़ नहीं सकते। आपके हाथों में सिर्फ अगले अगले लम्हे ही हैं। हाँ मन के पन्नों को पलटा कर कभी भी  खुद को पढ़ा जा सकता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 48 ☆

☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब

लम्हों की किताब है जिंदगी/ सांसों व ख्यालों का हिसाब है ज़िंदगी/ कुछ ज़रुरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी/ बस इन्हीं सवालों का/ जवाब है जिंदगी।’ प्रश्न उठता है–ज़िंदगी क्या है? ज़िंदगी एक सवाल है; लम्हों की किताब है; सांसों व ख्यालों का हिसाब है; कुछ अधूरी व कुछ पूरी ख्वाहिशों का सवाल है। सच ही तो है, स्वयं को पढ़ना सबसे अधिक कठिन कार्य है। जब हम खुद के बारे में नहीं जानते; अनजान हैं खुद से… फिर ज़िंदगी को समझना कैसे संभव है? ‘जिंदगी लम्हों की सौग़ात है/ अनबूझ पहेली है/ किसी को बहुत लंबी लगती/ किसी को लगती सहेली है।’ ज़िंदगी सांसों का एक सिलसिला है। जब कुछ ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं, तो इंसान प्रसन्न हो जाता है; फूला नहीं समाता है– मानो उसकी ज़िंदगी में चिर-बसंत का आगमन हो जाता है और जो ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं; टीस बन जाती हैं; नासूर बन हर पल सालती हैं, तो ज़िंदगी अज़ाब बन जाती है। इस स्थिति के लिए दोषी कौन? शायद! हम…क्योंकि ख्वाहिशें हम ही मन में पालते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक के बाद दूसरी प्रकट हो जाती है और ये हमें चैन से नहीं बैठने देतीं। अक्सर हमारी जीवन-नौका भंवर में इस क़दर फंस जाती है कि हम चाह कर उस चक्रवात से बाहर नहीं निकल पाते। परंतु इसके लिए दोषी हम स्वयं हैं, इसीलिए उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं और न ही हम यह जानते हैं कि हम कौन हैं? कहां से आए हैं और इस संसार में आने का हमारा प्रयोजन क्या है? संसार व समस्त प्राणी-जगत् नश्वर है और माया के कारण सत्य भासता है। यह सब जानते हुए भी हम आजीवन इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाते।

सो! आइए, खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें; अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दे। ख्वाहिशों अथवा आकांक्षाओं को आवश्यकताओं तक सीमित कर दें, क्योंकि आवश्यकताओं की पूर्ति तो सहज रूप में संभव है; इच्छाओं की नहीं, क्योंकि वे तो सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं और उनका अंत कभी नहीं होता। जिस दिन हम इच्छा व आवश्यकता के गणित को समझ जाएंगे; ज़िंदगी आसान हो जाएगी। आवश्यकता के बिना तो ज़िंदगी की कल्पना ही बेमानी है, असंभव है। परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में वायु, जल आदि प्राकृतिक संसाधन जुटाए हैं… भले ही मानव के बढ़ते लालच के कारण  हम इनका मूल्य चुकाने को विवश हैं। सो! इसमें दोष हमारी बढ़ती इच्छाओं का है। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाकर उन्हें सीमित कर; तनाव-रहित जीवन जीना श्रेयस्कर है।

ख्वाहिशें कभी पूरी नहीं होती और कई बार हम पहले ही घुटने टेक कर पराजय स्वीकार लेते हैं; उन्हें पूरा करने के निमित्त जी-जान से प्रयत्न भी नहीं करते और स्वयं को झोंक देते हैं– चिंता, तनाव, निराशा व अवसाद के गहन सागर में; जिसके चंगुल से बच निकलना असंभव होता है। वास्तव में ज़िंदगी सांसों का सिलसिला है। वैसे भी ‘जब तक सांस, तब तक आस’ रहती है और जिस दिन सांस थम जाती है, धरा का, सब धरा पर, धरा ही रह जाता है। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है…सो! मानव अंत में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश में विलीन हो जाता है।

‘आदमी की औक़ात, बस! एक मुट्ठी भर राख’ यही जीवन का शाश्वत सत्य है। मृत्यु अवश्यंभावी है; भले ही समय व स्थान निर्धारित नहीं है। इंसान इस जहान में खाली हाथ आया था और उसे सब कुछ यहीं छोड़, खाली हाथ लौट जाना है। परंतु फिर भी वह आखिरी सांस तक इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और अपनों की चिंता में लिप्त रहता है। वह अपने आत्मजों व प्रियजनों के लिए आजीवन उचित- अनुचित कार्यों को अंजाम देता है…उनकी खुशी के लिए, जबकि पापों का फल उसे अकेले ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का आनंद तो सभी लेते हैं, परंतु वे पाप के प्रतिभागी नहीं होते। आइए! हम इससे निजात पाने की चेष्टा करें और हर पल को अंतिम पल मानकर निष्काम कर्म करें। ‘पल में प्रलय हो जाएगी, मूरख करेगा कब?’ जी हां! कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; केवल वर्तमान ही सत्य है। इसलिए जो भी करना है; आज ही नहीं, अभी करना बेहतर है। कबीर जी का यह संदेश उक्त भाव को अभिव्यक्त करता है। क़ुदरत ने तो हमें आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारी स्वयं की खोज है। इससे तात्पर्य है कि प्रकृति दयालु है; मां की भांति  हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। परंतु मानव स्वार्थी है; उसका अनावश्यक दोहन करता है;

जिसके कारण अपेक्षित संतुलन व सामाजिक- व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा उसके कार्य-व्यवहार में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का परिणाम है… सुनामी, अत्यधिक वर्षा, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी आदि… जिनका सामना आज पूरा विश्व कर रहा है। मुझे स्मरण हो रही हो रहा है… भगवान महाबीर द्वारा निर्दिष्ट–’जियो और जीने दो’ का सिद्धांत, जो अधिकार को त्याग कर्तव्य-पालन व संचय की प्रवृत्ति का त्याग करने का संदेश देता है। सृष्टि का नियम है कि ‘एक सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।’ सो! जीवन में ज़रूरतों की पूर्ति करो; व्यर्थ की ख्वाहिशें मत पनपने दो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होतीं और उनके जंज़ाल में फंसा मानव कभी भी मुक्त नहीं हो पाताता। इसलिए सदैव अपनी चादर देख कर पांव पसारने अर्थात् संतोष से जीने की सीख दी गयी है… यही अनमोल धन है अर्थात् जो मिला है, उसी में संतोष कीजिए, क्योंकि परमात्मा वही देता है, जो हमारे लिए आवश्यक व शुभ होता है। सो! ‘सपने देखिए! मगर खुली आंख से’…और उन्हें साकार करने की पूर्ण चेष्टा कीजिए; परंतु अपनी सीमाओं में रहते हुए, ताकि उससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।

संसार अद्भुत स्थान है। आप दूसरे के दिल में, विचारों में, दुआओं में रहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब आप किसी के लिए अच्छा करते हैं; उसका मंगल चाहते हैं; उसके प्रति मनोमालिन्य का दूषित भाव नहीं रखते। सो! ‘सब हमारे, हम सभी के’ –इस सिद्धांत को जीवन में अपना लीजिए…यही आत्मोन्नति का सोपान है। ‘कर भला, हो भला’ तथा ‘सबका मंगल होय’ अर्थात् इस संसार में हम जैसा करते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है। इसीलिए कहा गया है कि रूठे हुए को हंसाना; असहाय की सहायता करना; सुपात्र को दान देना आदि सब आपके पास ही प्रतिदान रूप में लौट कर आता है। वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। ‘कौन जाने, किस घड़ी, वक्त का बदले मिज़ाज’ तथा ‘कल चमन था, आज एक सह़रा हुआ/ देखते ही देखते यह क्या हुआ’– यह हक़ीक़त है। पल-भर में रंक राजा व राजा रंक बन सकता है। क़ुदरत के खेल अजब हैं; न्यारे हैं; विचित्र हैं। सुनामी के सम्मुख बड़ी-बड़ी इमारतें ढह जाती हैं और वह सब बहा कर ले जाता है। उसी प्रकार घर में आग लगने पर कुछ भी शेष नहीं बचता। कोरोना जैसी महामारी का उदाहरण आप सबके समक्ष है। आप घर की चारदीवारी में क़ैद हैं… आपके पास धन-दौलत है; आप उसे खर्च नहीं कर सकते; अपनों की खोज-खबर नहीं ले सकते। कोरोना से पीड़ित व्यक्ति राजकीय संपत्ति बन जाता है। यदि बच गया, तो लौट आएगा,अन्यथा उसका विद्युत्-दाह भी सरकार द्वारा किया जाएगा। हां! आपको सूचना अवश्य दे दी जाएगी।

लॉक-डाउन में सब बंद है। जीवन थम-सा गया है। सब कुछ मालिक के हाथ है; उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल पाता…फिर यह भागदौड़ क्यों? अधिकाधिक धन कमाने के लिए अपनों से छल क्यों? दूसरों की भावनाओं को रौंद कर महल बनाने की इच्छा क्यों? सो! सदा प्रसन्न रहिए। ‘कुछ परेशानियों को हंस कर टाल दो, कुछ को वक्त पर टाल दो।’ समय सबसे बलवान् है; सबसे बड़ी शक्ति है; सबसे बड़ी नियामत है। जो ठीक होगा, वह तुम्हें अवश्य मिल जाएगा। चिंता मत करो। जिसे तुम अपना कहते हो; तुम्हें यहीं से मिला है और तुम्हें यहीं सब छोड़ कर जाना है। फिर चिंता और शोक क्यों?

रोते हुए को हंसाना सबसे बड़ी इबादत है; पूजा है; भक्ति है; जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। सो! मुट्ठी खुली रखना सीखें, क्योंकि तुम्हें इस संसार से खाली हाथ लौटना है। अपने हाथों से गरीबों की मदद करें; उनके सुख में अपना सुख स्वीकारें, क्योंकि ‘क़द बढ़ा नहीं करते, एड़ियां उठाने से/ ऊंचाइयां तो मिलती है, सर को झुकाने से।’ विनम्रता मानव का सबसे बड़ा गुण है। इससे बाह्य धन-संपदा ही नहीं मिलती; आंतरिक सुख, शांति व आत्म-संतोष भी प्राप्त होता है और मानव की दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: अंत हो जाता है। वह संसार उसे अपनाव खुशहाल नज़र आता है। सो! ज़िंदगी उसे दु:खालय नहीं भासती; उत्सव प्रतीत होती है, जिस में रंजोग़म का स्थान नहीं; खुशियां ही खुशियां हैं; जो देने से, बांटने से विद्या रूपी दान की भांति बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए कहा जाता है–’जिसे इस जहान में आंसुओं को पीना आ गया/ समझो! उसे जीना आ गया।’ सो! जो मिला है, उसे प्रभु-कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें, ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल, भविष्य जो अनिश्चित है; कभी आएगा नहीं…उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें… यही ज़िंदगी है और लम्हों की सौग़ात है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 2 ☆ इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना’।)

☆ किसलय की कलम से # 2 ☆

☆ इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना ☆

गरीब, जरूरतमंद, भिखारी अथवा कृपाकांक्षी होना अक्सर किसी का स्वभाव या प्रवृत्ति नहीं होती, अपितु यह किसी सामान्य इंसान का अंतिम रास्ता या परिस्थिति होती है। समाज भी इसे सम्मानजनक नहीं मानता। विश्व में कर्म को प्रधानता प्राप्त है, तब अकर्मण्यता आखिर क्यों सम्मानित होगी? भले ही वह विषम परिस्थितियों अथवा विवशता में अपनाई जाए, घर की दो सूखी रोटियाँ भली इसीलिए कहीं गई हैं। एक साधारण  बात है जो चीज मेहनत, बल, बुद्धि और समय खपाकर प्राप्त की जाती है, उसे यूँ ही खैरात में बाँटने का साहस एक सामान्य मानव नहीं कर पाता या जब वह किसी अकर्मण्य को किसी दूसरे के पसीने की कमाई लुटाते या उपभोग करते देखता है तो उसके हृदय में न चाहते हुए भी कसक होती ही है।

दरवाजे पर आए भिखारियों और राह चलते माँगने वालों को हम सभी ने दुत्कारते और मना करते देखा है। आखिर इस मानसिकता के पृष्ठभाग में क्या छुपा है? इसमें सच्चाई यही है कि अधिकतर ये भिखारी या जरूरत का आडंबर ओढ़े लोग अपनी दिन भर की कमाई को उदरपोषण और बचत करने के बजाय दारुखोरी, जुए और अन्य व्यसनों में ज्यादा उड़ा देते हैं। इनमें ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें वास्तव में दान या सहयोग का सुपात्र कहा जाये। एक और सच्चाई है कि यह जानते हुए कि याचक हमारी दया का पात्र है फिर भी हम अपनी मेहनत की कमाई देने का मन नहीं बना पाते। दान, परोपकार व सहयोग की भावना तब बलवती होती है, जब सामने वाली की मुसीबतें, लाचारी, असलियत और अवस्था प्रदाता की अंतरात्मा को द्रवित करती है। इस भावना के वशीभूत होकर जब इंसान परपीड़ा, परोपकार, दान या सहयोग करता है तब ही वह परमानंद पाता है जो आत्मसंतुष्टि तो देता ही है, अतुलनीय भी होता है। मानव को प्राप्त हुए इस परमानंद के लिए याचक और दानदाता दोनों के मन साफ होना आवश्यक है। याचक की लालची प्रवृत्ति के पता चलने पर दाता जहाँ ठगे जाने का अनुभव करता है, वहीं सुपात्र याचक भी कभी-कभी दाता द्वारा अनिच्छा पूर्वक दिए दान से दुखी भी होते हैं। आदिकाल के हरिश्चंद्र, मोरध्वज या दानवीर कर्ण की दानवीरता से कौन परिचित नहीं है। परमार्थ हमारे संस्कारों तथा भारतीयता के मूल में है। सभी चाहते हैं कि उनकी संतान संस्कारवान बने और सुकृति हो, पर आज के बदलते परिवेश और एकल पारिवारिक जीवनशैली ने हमारी परंपराओं, रिश्तों और सद्भावना की दुर्गति बना दी है। कहते हैं कि आग राख  के अंदर विद्यमान रहती है। हमारे संस्कार बाह्याडंबर और चकाचौंध में भले ही सिमट जाएँ लेकिन अनुकूल वातावरण में वे पुनर्जीवित हो जाते हैं।

हम आज का ही उदाहरण लें, कोविड-19 महामारी से सारा विश्व ग्रसित और भयाक्रांत है, हर आदमी घर में ही दुबके रहना चाहता है, लेकिन हमारा मन घर तक सीमित भला कैसे रहेगा? मन तो घर-परिवार से आगे देश-दुनिया के बारे में भी सोचता रहता है। हम ठीक हैं, क्या और सभी ठीक हैं? पड़ोसी कैसा है? रिश्तेदार कैसे हैं? आसपास की आँखों देखी, रेडियो, टेलीविजन, प्रिंट मीडिया, अंतरजाल आदि पर पढ़ी-लिखी-सुनी बातों पर ये मन चिंतन तो करेगा ही।

इन दिनों प्रायः सभी ने यह देखा है कि एक बहुत बड़ा ऐसा तबका है जो दिहाड़ी पर निर्भर है या किसी कारणवश उसके पास खाद्यान्न का अभाव है। अनेक माध्यमों से बहुतायत में हम तक ये खबरें पहुँच रही हैं कि मुसीबत के इन क्षणों में इस तबके के लोगों को भूखे सोने तक की नौबत आ गई है। आज पत्थर दिल इंसान का भी दिल पिघल रहा है। उद्योगपति, धनाढ्य, उच्चवर्ग, मध्यमवर्ग, यहाँ तक कि उदारमना निम्नवर्ग भी इन दिनों “किसी को भूखा नहीं सोने देंगे” वाक्य को चरितार्थ करने में यथायोग्य सहायक बन रहा है। सरकार के सकारात्मक कार्यों की सराहना आज हर कोई कर रहा है लेकिन उससे कहीं अधिक जनसामान्य और निजी तौर पर किए जा रहे प्रयास भी प्रणम्य हैं। एक बड़े अंतराल के बाद ये परोपकारिता के दुर्लभ दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं। आज मोहल्ला, गाँवों, कस्बों और शहरों के कोने-कोने में व्यक्तिगत रूप से, समूहों व संस्थाओं के माध्यम से जरूरतमंदों को दिल खोलकर भोजन व खाद्य सामग्री पहुँचाई जा रही है। व्यक्तिगत, समूहों व संस्थाओं के सदस्य अपनी जान जोखिम में डालकर चौबीसों घंटे मदद हेतु तत्पर हैं। उनका सेवाभाव देखते ही बनता है। इसी तरह सहयोगकर्ताओं की अंतहीन सहायता युगों बाद दिखाई दे रही है। इन सहयोगियों, दानदाताओं और इस पुण्य कार्य में कर्त्तव्यस्थ व्यक्तियों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु शब्द कम पड़ रहे हैं। मेरा मानना है कि इन लोगों को देखकर जहाँ अन्य लोग भी प्रेरित हो रहे हैं, वहीं अनजाने में ही सही ये परहित के संस्कार हम अपनी संतानों में डाल रहे हैं। शायद अगली पीढ़ी और आने वाला समय ज्यादा सहृदय और सदाचारी हो।

आज हमें जरूरतमंदों के प्रति जो सेवाभाव देखने मिल रहा है। आवारा जानवरों, बंदरों, कुत्ते-बिल्लियों को तक लोग भोजन दे रहे हैं, ऐसा पूर्व में कभी नहीं दिखा। कोविड-19 महामारी का सबसे बड़ा खतरा है ही, बावजूद इसके आज सक्षम और परोपकारियों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण भी बन रहा है। लगभग 500 वर्ष पूर्व तुलसीदास जी द्वारा लिखा सूत्र-

परहित सरिस धरम नहिं भाई

परपीड़ा सम नहिं अधमाई

आज वास्तव में हमारे समाज के लोगों ने इसे चरितार्थ किया है। ऐसे वृहद स्तर व लंबी अवधि तक जरूरतमंदों को भोजन व खाद्यान्न आपूर्ति का ऐसा दृश्य मानवता की मिसाल ही कहा जाएगा। वक्त निकल जाएगा, महामारी चली जाएगी, पर काफी लंबे समय तक ये क्षण, ये बातें, ये परोपकार की कहानियाँ बार-बार दोहराई जाती रहेंगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 48 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 48 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दस्यु

कोरोना ने ले लिया, क्रूर दस्यु का रुप।

दहशत पूरे विश्व में, फैली काल- स्व्रूप।

 

भूकंप

उस भीषण भूकंप से, सहमा है गुजरात।

भयाक्रांत है आज भी, जब चलती है बात।।

 

कुटिया

सब कुटिया में बंद हैं, नहीं चैन- आराम।

रोजी-रोटी छिन गई, हर पल-छिन संग्राम।

 

चौपाल

गाँवों की चौपाल का, रहा अनूठा रंग।

हिलमिल गाते झूमते, जन-गण-मन रसरंग।।

 

नवतपा

आग उगलता नवतपा,  लू ने लिया लपेट।

कोरोना को अब यही, देगा मृत्यु-चपेट।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 39 ☆ वापिस अपने घर चले…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “वापिस अपने घर चले…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 39 ☆

☆ वापिस अपने घर चले .... ☆

मजदूरों पर दे रहे, नेता रोज बयान

सुनते सुनते पक गए, मजदूरों के कान

 

पाँवों में छाले पड़े, गया हाथ से काम

वापिस अपने घर चले, लेकर दर्द तमाम

 

रोटी छूटी हाथ से, छूटा सकल जहान

भूख गरीबी चीख कर, चल दी देकर जान

 

मजदूरों की आत्मा, करती आज सवाल

किया किसी ने कुछ नहीं, उनके जीवन काल

 

कहते आह गरीब की, छोड़े बहुत प्रभाव

संभव हो तो कीजिये, उनका दूर अभाव

 

खाने के लाले पड़े, जीना हुआ मुहाल

रोजी रोटी भी गई, हुए तंग बदहाल

 

संकट नहीं दरिद्र सा, नहीं दरिद्र सी पीर

आखिर कोई कहाँ तक, मन में रक्खे धीर

 

श्रमजीवी लाचार हैं,  बेबस  हैं मजदूर

उनके हित कुछ कीजिये, साहिब आज जरूर

 

देखे अब जाते नहीं, इनके यह हालात

करना गर कुछ कीजिये, छोड़ हवाई बात

 

ऐसीं  नीति बनाइये, मिले  हाथ को काम

सब के हिय “संतोष”हो, कहीं न हों बे-काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – हळवे कुटुंब. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “हळवे कुटुंब. . . ! ,

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ हळवे कुटुंब. . . ! ☆  

 

वासे घराचे सांगती

धर संस्काराची कास.

सुख, दुःख , राग लोभ

चार भिंती, चातुर्मास.. . !   1

 

चार कोपरे घराचे

माया ममतेची आस

जन्म दाते मायबाप

कुटुंबाचा दैवी श्वास.. . !  2

 

गेलो माणूस वाचत

आला घराला  आकार

मित्र आणि गुरूजन

झाले कुटुंब साकार .. . !  3

 

बंधू भगिनी प्रेमात

कुटुंबाचे बालपण

जसा जाई काळ तसे

घरा येई घरपण. . . !  4

 

आज्जी आजोबांची साथ

जणू कुटुंब  आरोग्य

नात्या नात्यातून होते

त्याची देखभाल योग्य .. . ! 5

 

आप्त स्वकियांची ये जा

होई कुटुंब संवादी

दिली  वास्तू पुरूषाने

त्यांची  गुणदोष यादी. . . . ! 6

 

अन्नपूर्णा गृहिणीचा

आहे  कुटुंब आरसा

आई,  पत्नी,  आणि मुले

माझा जीवन वारसा.. . ! 7

 

कुटंबाने दिले बळ

पावसाला झेलायला

संकटांनी शिकविले

जीवनास तोलायला.. . ! 8

 

कुटुंबाने वेळोवेळी

दिला मदतीचा हात

उजेडाच्या गावी नेले

केली सौख्य बरसात. . . . ! 9

 

किती किती  आठवणी

चारभिंती पोपड्यात

सुख दुःख समारंभ

कुटुंबाच्या काळजात.. . ! 10

 

कुलदैवताची कृपा

शब्द सुता करी वास

अशा सृजन  विश्वात

नको दुःखाचा  आभास. . . . ! 11

 

असे हळवे कुटुंब

यशश्रीने सालंकृत

यशवंत भाग्यश्रीची

कृपा छाया  आलंकृत.. . .! 12

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 32 ☆ लघुकथा – दूरदर्शिता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक  “ बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 32☆

☆  बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता 

पानी से लबालब भरे एक तालाब में दो मछलियां रहती  थीं – दूरदर्शी और नुक्ताचीनी  , दोनों अच्छी दोस्त थीं पर स्वभाव में एक दूसरे के विपरीत. दूरदर्शी गंभीर स्वभाव की थी और हर काम सोच- समझकर किया करती थी. नुक्ताचीनी आलसी थी और हर बात को हँसकर हवा में उडा देती थी. उसका कहना था जो होगा देखा जाएगा. दूरदर्शी बहुत कोशिश करती थी उसे समझाने की, सही रास्ते पर लाने की लेकिन वह तो अपनी मर्जी की मालिक थी.

एक दिन दूरदर्शी तालाब की दीवार से सटी आराम कर रही थी तभी उसने दो मनुष्यों को आपस में बात करते सुना —‘ इस तालाब में बहुत मछलियां होंगी कल सबेरे आकर जाल डालेंगे, खूब कमाई होगी ‘. दूरदर्शी ने जल्दी से जाकर अन्य  मछलियों को सारी बात बताई और बोली हम सबको दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए, नहीं तो जाल में फँस जाएंगे. यह सुनकर नुक्ताचीनी हँसकर बोली – अरे ये तो ऐसे ही डराती रहती है, जरूरी नहीं है कि कल वो आदमी जाल लेकर आ ही जाएं,कल की कल देखेंगे और यह कहकर वह तेजी से  गहरे पानी में चली गई.  दूरदर्शी क्या करती,वह चुप रही और सुबह होने का इंतजार करने लगी.

सुबह तालाब में ऊपर आकर उसने नजर दौडाई, देखा,  दो आदमी जाल लिए चले आ रहे थे. वे तालाब में जाल डालने की तैयारी करने लगे.वह  तेजी से अपनी सखियों से बोली – जल्दी से सब निकल चलो यहाँ से,  मछुआरे आ गए हैं. नुक्ताचीनी ने अब भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. मछुआरों ने जाल डाला और नुक्ताचीनी उसमें फँस गई. वह बेबस निगाहों से अपनी सखियों की ओर देख रही थी पर अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत ?

दूरदर्शी  मछली अपनी दूरदर्शिता से दूसरे  तालाब  में अन्य सखियों के साथ जीवन का आनंद उठा रही थी. सच ही है दूरदर्शिता जीवन में बहुत से संकटों से हमें बचा लेती है.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

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