(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय कविता रिश्ते… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 245 ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 9
बात इतनी सी सै! — लेखक- डॉ. रमेश मिलन समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक- बात इतनी सी सै!
विधा- लघु नाट्य संग्रह
लेखक- डॉ. रमेश मिलन
प्रकाशन- आकाशगंगा पब्लिकेशन, दिल्ली
धाराप्रवाह धारावाहिक☆ श्री संजय भारद्वाज
देखना, बोलना, सुनना मनुष्य जीवन में अनुभूति और अभिव्यक्ति के अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि मनुष्य देखा, बोला, सुना, प्राय: अपने संगी-साथियों के साथ साझा करता है। देखने, बोलने, सुनने का साझा रूप है नाटक। वस्तुत: जीवन के प्रसंगों और घटनाओं का रेपलिका है नाटक। मनुष्य की भावनाओं से व्यापक अंतरंगता ने भरतमुनि से हज़ारों वर्ष पूर्व नाट्यशास्त्र की रचना करवाई। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव के साथ ही सृष्टि के रंगमंच पर पात्रों की आवाजाही त्रिकाल सत्य है। इस सत्य को व्यक्त करते हुए शेक्सपियर ने लिखा, ‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।
रंगकर्म अथवा नाटक अपने आरंभिक समय में लोकनाट्य के रूप में उभरा। कालांतर में सभागारों तक पहुँचा। समय ने करवट ली और और दूरदर्शन के धारावाहिकों के रूप में विकसित हुआ नाटक।
डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ द्वारा लिखित ‘बात इतनी सी सै’, विभिन्न विषयों पर दूरदर्शन के लिए लिखे अलग-अलग लघु नाट्यों का संग्रह है।
इन धारावाहिकों या एपिसोड का लेखन काल लगभग साढ़े तीन दशक पुराना है। स्वाभाविक है कि तत्कालीन समाज की भाषा, सोच, मूल्य, ऊहापोह जैसे अनेक बिंदु इनमें दृष्टिगोचर होते हैं। यही लेखन की कसौटी भी है जिस पर लेखक खरा उतरता है।
सच्चा साहित्य वह है जो त्रिकाल तक अपने दृष्टि का विस्तार कर सके। उसकी आँखों में समकालीनता का प्रकाश हो, साथ ही अंतस में सार्वकालिकता का अखंड दीप भी प्रज्ज्वलित हो रहा हो। भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रासंगिक बने रहना, लेखन की बड़ी उपादेयता है।
नाट्यलेखन के कुछ तत्व एवं सूत्र हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, शैली आदि का विस्तृत विवेचन लघु भूमिका में वांछित नहीं है। सारांश में कहना चाहूँगा कि नाटक की प्रवहनीयता, उसकी सहजता और विश्वसनीयता भी होती है। नाटक नाटक तो हो पर नाटकीय न हो तो लेखन सफल है। इस आधार पर संग्रह के धारावाहिक सफल हैं।
इस सफलता की एक बानगी है, शादी, ब्याह से लौटने के बाद मिठाई और पकवान की विविधता और स्वाद पर बातें करना। इसी तरह बहू का सास के पैर दबाना तत्कालीन जीवन मूल्यों की ओर संकेत करता है। “लड़की जैसे हीरा और तू हीरे की जौहरी..” जैसे संवाद अपने इर्द-गिर्द एवं परिवेश के लगते हैं। धारावाहिक के पात्र स्नेह, सम्मान, खीज, मतभेद सभी जीते हैं। रिश्ते, सम्मानजनक सीमा का पालन करते हैं। इसके चलते संबंध आयातित नहीं लगते। वर्तमान में अनेक धारावाहिकों में सास-बहू एक दूसरे के विरुद्ध जानलेवा षड्यंत्र करते दीखती हैं। ऐसे में एक साथ बैठकर धारावाहिक देखती सास और बहू दोनों के मन में यह प्रश्न उठता है कि ये कौनसी दुनिया के रिश्ते हैं? संबंध की नींव षड्यंत्र नहीं विश्वास होती है। ‘इतनी सी बात’ के पात्र इस विश्वास का निर्वाह करते हैं।
अलबत्ता नये रिश्ते जोड़ते समय आदमी के भीतर का लोभ, अपना लाभ तलाशता है। “एक हज़ार गज़ में दोमंजिला मकान,… पाँच सौ बीघा जमीन, एक लाख नगद दिलवा दूँगा,… घर भर देगा”, जैसे संवाद इस लोभ को मुखर करते हैं। आदमी ऊपरी तौर पर आदर्शों की कितनी ही बात कर ले लेकिन निजी लाभ की स्थिति बनते ही सुविधा के गणित पर आ जाता है। “क्या मैं दुनिया से न्यारी हूँ..” इस सुविधा का प्रतिनिधि प्रस्तुतिकरण है। “..ब्याह शादी के कमीशन लेकर नहीं खाया करते../ अपना लोक-परलोक मत बिगाड़ना…” जैसे संवाद भारतीय दर्शन विशेषकर ग्रामीण और छोटे शहरों में भीतर तक पैठे सांस्कृतिक मूल्यों की सहज अभिव्यक्ति हैं।
ये धारावाहिक दूरदर्शन के लिए लिखे गए थे। अतः इनके माध्यम से सरकारी नीतियों और योजनाओं का प्रचार-प्रसार होना स्वाभाविक है। “…पढ़ाई गाँव में इस्तेमाल करूँगा../ नए तौर-तरीके इस्तेमाल करूँगा..” जैसे संवाद इसके उदाहरण हैं। “लड़का 21 बरस का, लड़की 18 बरस की न हो तो कानून में जुर्म है” यह वाक्य भी दहेज की मानसिकता के विरुद्ध जनजागरण के सरकार के प्रयासों और कानून की जानकारी कथासूत्र में पिरोकर देता है।
इन धारावाहिकों का लेखन साँचाबद्ध एवं धाराप्रवाह है। यूँ भी धाराप्रवाह न हो तो धारावाहिक कैसा? कथासूत्र में ‘वॉट नेक्स्ट’ अर्थात ‘आगे क्या घटित होगा’ का भाव होना अनिवार्य तत्व है। इस संग्रह में यह भाव
पाठक की उत्कंठा को बनाए रखता है।
‘बात इतनी सी सै’ की बात दूर तक जाने में सक्षम है। आशा है जिज्ञासु पाठकों और इस क्षेत्र विशेषकर संहिता लेखन में काम कर रहे नवोदितों के लिए यह संग्रह उपयोगी सिद्ध होगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – दिव्य नव कविता… ।
रचना संसार # 17 – गीत – दिव्य नव कविता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं कविता – लहराता आंचल खुले केश…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 245 – साहित्य निकुंज ☆
☆ कविता – लहराता आंचल खुले केश… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक… बारिश। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 216 ☆
☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष –महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी लाला हरदयाल जी 🇮🇳 ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
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लाला हरदयाल भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के उन अग्रणी क्रान्तिकारियों में से थे, जिन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीयों को देश की आजादी की लड़ाई में योगदान के लिये प्रेरित व प्रोत्साहित किया। इसके लिये उन्होंने अमरीका में जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावना जागृत की। उनके सरल जीवन और बौद्धिक कौशल ने प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए कनाडा और अमेरिका में रहने वाले हजारों प्रवासी भारतीयों को प्रेरित किया।
लाला हरदयाल का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में गुरुद्वारा शीशगंज के पीछे स्थित चीराखाना मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता भोली रानी ने तुलसीकृत रामचरितमानस एवं वीर पूजा के पाठ पढ़ा कर उनमें देश के प्रति उदात्त भावना, शक्ति एवं सौन्दर्य बुद्धि का संचार किया। उर्दू तथा फारसी के पण्डित पिता गौरीदयाल माथुर दिल्ली के जिला न्यायालय में रीडर थे। उन्होंने अपने बेटे को शिक्षा के प्रति प्रेरित किया। 17 वर्ष की आयु में सुन्दर रानी नाम की अत्यन्त रूपसी कन्या से उनका विवाह हुआ। दो वर्ष बाद उन दोनों को एक पुत्र की प्राप्ति हुई, किन्तु कुछ दिनों बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1908 में उनकी दूसरी सन्तान एक पुत्री पैदा हुई। लाला जी बहुत कम उम्र में ही आर्य समाज से प्रभावित हो चुके थे।
लाला हरदयाल जी की आरम्भिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली से संस्कृत में स्नातक किया। तत्पश्चात् पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से संस्कृत में ही एम०ए० किया। इस परीक्षा में उन्हें इतने अंक प्राप्त हुए थे कि सरकार की ओर से 200 पौण्ड की छात्रवृत्ति प्रदान की गयी। हरदयाल जी उस छात्रवृत्ति के सहारे आगे पढ़ने के लिये लन्दन चले गये और सन् 1905 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ उन्होंने दो छात्रवृत्तियाँ और प्राप्त कीं। हरदयाल जी की यह विशेषता थी कि वे एक समय में पाँच कार्य एक साथ कर लेते थे। 12 घंटे का नोटिस देकर इनके सहपाठी मित्र इनसे शेक्सपियर का कोई भी नाटक मुँहजुबानी सुन लिया करते थे।
इसके पहले ही वे मास्टर अमीरचन्द की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था के सदस्य बन चुके थे। उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा भी रहते थे, जिन्होंने देशभक्ति का प्रचार करने के लिये वहीं इण्डिया हाउस की स्थापना की हुई थी। इतिहास के अध्ययन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को पाप समझकर सन् 1907 में “भाड़ में जाये आई०सी०एस०” कह कर उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय तत्काल छोड़ दिया और लन्दन में देशभक्त समाज स्थापित कर असहयोग आन्दोलन का प्रचार करने लगे, जिसका विचार गान्धी जी को काफी देर बाद सन् 1920 में आया। भारत को स्वतन्त्र करने के लिये लाला जी की यह योजना थी कि जनता में राष्ट्रीय भावना जगाने के पश्चात् पहले सरकार की कड़ी आलोचना की जाये, फिर युद्ध की तैयारी की जाये, तभी कोई ठोस परिणाम मिल सकता है, अन्यथा नहीं। कुछ दिनों विदेश में रहने के बाद 1908 में वे भारत वापस लौट आये।
बात उन दिनों की है जब लाहौर में युवाओं के मनोरंजन के लिये एक ही क्लब हुआ करता था, जिसका नाम था यंग मैन क्रिश्चयन एसोसियेशन या ‘वाई एएम सी ए ‘। उस समय लाला हरदयाल लाहौर में एम० ए० कर रहे थे। संयोग से उनकी क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर तीखी बहस हो गयी। लाला जी ने आव देखा न ताव, तुरन्त ही ‘वाई एम् सी ए’ के समानान्तर यंग मैन इण्डिया एसोसियेशन की स्थापना कर डाली। लाला जी के कालेज में मोहम्मद अल्लामा इक़बाल भी प्रोफेसर थे, जो वहाँ दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। उन दोनों के बीच अच्छी मित्रता थी। जब लाला जी ने प्रो॰ इकबाल से एसोसियेशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा तो वह सहर्ष तैयार हो गये। इस समारोह में इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा” तरन्नुम में सुनायी थी। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि किसी समारोह के अध्यक्ष ने अपने अध्यक्षीय भाषण के स्थान पर कोई तराना गाया हो। इस छोटी लेकिन जोश भरी रचना का श्रोताओं पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि इक़बाल को समारोह के आरम्भ और समापन- दोनों ही अवसरों पर ये गीत सुनाना पड़ा।
उन्होंने पूना जाकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से भेंट की। उसके बाद फिर न जाने क्या हुआ कि उन्होंने पटियाला पहुँच कर गौतम बुद्ध के समान सन्यास ले लिया। शिष्य-मण्डली के सम्मुख लगातार 3 सप्ताह तक संसार के क्रान्तिकारियों के जीवन का विवेचन किया। तत्पश्चात् लाहौर के अंग्रेजी दैनिक पंजाबी का सम्पादन करने लगे। लाला जी के आलस्य-त्याग, अहंकार-शून्यता, सरलता, विद्वत्ता, भाषा पर आधिपत्य, बुद्धिप्रखरता, राष्ट्रभक्ति का ओज तथा परदु:ख में संवेदनशीलता जैसे असाधारण गुणों के कारण कोई भी व्यक्ति एक बार उनका दर्शन करते ही मुग्ध हो जाता था। वे अपने सभी निजी पत्र हिन्दी में ही लिखते थे किन्तु दक्षिण भारत के भक्तों को सदैव संस्कृत में उत्तर देते थे। लाला जी बहुधा यह बात कहा करते थे- “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से राष्ट्रीय चरित्र तो नष्ट होता ही है, राष्ट्रीय जीवन का स्रोत भी विषाक्त हो जाता है। अंग्रेज ईसाइयत के प्रसार द्वारा हमारे दासत्व को स्थायी बना रहे हैं।”
1908 में क्रूर अंग्रेजी सरकार का दमन चक्र चला। लाला जी के आग्नेय प्रवचनों के परिणामस्वरूप विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने लगे और सरकारी कर्मचारी अपनी-अपनी नौकरियाँ। भयभीत सरकार इन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाने में जुट गयी। लाला लाजपत राय के परामर्श को शिरोधार्य कर आप फौरन पेरिस चले गये और वहीं रहकर जेनेवा से निकलने वाली मासिक पत्रिका वन्दे मातरम् का सम्पादन करने लगे। गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादियों की आलोचना अपने लेखों में खुल कर किया करते थे। महान क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा के सम्बन्ध में उन्होंने एक लेख में लिखा था – “इस अमर वीर के शब्दों एवं कृत्यों पर सदियों तक विचार किया जायेगा , जो मृत्यु से नव-वधू के समान प्यार करता था।” मदनलाल ढींगरा जी ने फाँसी दिए जाने से पूर्व कहा था – “मेरे राष्ट्र का अपमान परमात्मा का अपमान है और यह अपमान मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था अत: मैं जो कुछ कर सकता था , वही मैंने किया। मुझे अपने किये पर जरा भी पश्चात्ताप नहीं है।”
लाला हरदयाल ने पेरिस को अपना प्रचार-केन्द्र बनाना चाहा था , किन्तु वहाँ पर इनके रहने खाने का प्रबन्ध प्रवासी भारतीय देशभक्त न कर सके। विवश होकर वे सन् 1910 में पहले अल्जीरिया गये बाद में एकान्तवास हेतु एक अन्य स्थान खोज लिया और लामार्तनीक द्वीप में जाकर महात्मा बुद्ध के समान तप करने लगे। परन्तु वहाँ भी अधिक दिनों तक न रह सके और भाई परमानन्द के अनुरोध पर हिन्दू संस्कृति के प्रचारार्थ अमरीका चले गये। तत्पश्चात् होनोलूलू के समुद्र तट पर एक गुफा में रहकर आदि शंकराचार्य, काण्ट, हीगल व कार्ल मार्क्स आदि का अध्ययन करने लगे। भाई परमानन्द के कहने पर इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन पर कई व्याख्यान दिए। अमरीकी बुद्धिजीवी इन्हें हिन्दू संत, ऋषि एवं स्वतन्त्रता सेनानी कहा करते थे। आप 1912 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में हिन्दू दर्शन तथा संस्कृत के ऑनरेरी प्रोफेसर नियुक्त हुए। वहीं रहते हुए आपने गदर पत्रिका निकालनी प्रारम्भ की। पत्रिका ने अपना रँग दिखाना प्रारम्भ ही किया था कि जर्मनी और इंग्लैण्ड में भयंकर युद्ध छिड़ गया। लाला जी ने विदेश में रह रहे सिक्खों को स्वदेश लौटने के लिये प्रेरित किया। इसके लिये वे स्थान-स्थान पर जाकर प्रवासी भारतीय सिक्खों में ओजस्वी व्याख्यान दिया करते थे। आपके उन व्याख्यानों के प्रभाव से ही लगभग दस हजार पंजाबी सिक्ख भारत लौटे। कितने ही रास्ते में गोली से उड़ा दिये गये। जिन्होंने भी देश के लिए स्वतंत्रता के लिए प्रदर्शन किया, वे सूली पर चढ़ा दिये गये। लाला हरदयाल ने उधर अमरीका में और भाई परमानन्द ने इधर भारत में क्रान्ति की अग्नि को प्रचण्ड किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों ही गिरफ्तार कर लिये गये। भाई परमानन्द को पहले फाँसी का दण्ड सुनाया गया, बाद में उसे काला पानी की सजा में बदल दिया गया , परन्तु हरदयाल जी अपने बुद्धि-कौशल्य से अचानक स्विट्ज़रलैण्ड खिसक गये और जर्मनी के साथ मिल कर भारत को स्वतन्त्र करने के यत्न करने लगे। महायुद्ध के उत्तर भाग में जब जर्मनी हारने लगा , तो लाला जी वहाँ से चुपचाप स्वीडन चले गये। उन्होंने वहाँ की भाषा आनन-फानन में सीख ली और स्विस भाषा में ही इतिहास, संगीत, दर्शन आदि पर व्याख्यान देने लगे। उस समय तक वे विश्व की तेरह भाषाएं पूरी तरह सीख चुके थे।
लाला जी को सन् 1927 में भारत लाने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो उन्होंने इंग्लैण्ड में ही रहने का मन बनाया और वहीं रहते हुए डॉक्ट्रिन्स ऑफ बोधिसत्व नामक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी , जिस पर उन्हें लंदन विश्वविद्यालय ने पीएच०डी० की उपाधि प्रदान की। बाद में लन्दन से ही उनकी कालजयी कृति ‘हिंट्स फार सेल्फ कल्चर’ प्रकाशित हुई, जिसे पढ़कर लगता है कि लाला हरदयाल जी की विद्वत्ता अथाह थी। अन्तिम पुस्तक ‘ट्वेल्व रिलीजन्स ऐण्ड मॉर्डन लाइफ’ में उन्होंने मानवता पर विशेष बल दिया। मानवता को अपना धर्म मान कर उन्होंने लन्दन में ही आधुनिक संस्कृति संस्था भी स्थापित की। तत्कालीन ब्रिटिश भारत की सरकार ने उन्हें सन् 1938 में हिन्दुस्तान लौटने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही उन्होंने स्वदेश लौटकर जीवन को देशोत्थान में लगाने का निश्चय किया।
हिन्दुस्तान के लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि लाला जी स्वदेश आयेंगे भी या नहीं, किन्तु इस देश के दुर्भाग्य से लाला जी के शरीर में अवस्थित उस महान आत्मा ने फिलाडेल्फिया में 4 मार्च 1938 को अपने उस शरीर को स्वयं ही त्याग दिया। लाला जी जीवित रहते हुए भारत नहीं लौट सके। उनकी अकस्मात् मृत्यु ने सभी देशभक्तों को असमंजस में डाल दिया। तरह-तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं। परन्तु उनके बचपन के मित्र लाला हनुमन्त सहाय जब तक जीवित रहे बराबर यही कहते रहे कि हरदयाल की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उन्हें विष देकर मारा गया।
ऐसे महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी, लेखक, पत्रकार, विद्वान को हम शत- शत- नमन, नमन और वंदन करते हैं , जिन्होंने देश को स्वतंत्रता दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज हम सभी को ऐसे महान आत्मा के आदर्शों को अपनाकर देश के हित में कार्य करने चाहिए। देश को कमजोर करने वालों को उचित प्रतिउत्तर देना चाहिए , ताकि वे देश को जातियों , धर्मों में फूट डलवाकर देश को कमजोर नहीं करें।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बढ़ता है शोभाधन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 209 ☆बढ़ता है शोभाधन… ☆
कर्म के महत्व को ज्ञानी विज्ञानी सभी ने स्वीकार किया है। सच्चाई ये है कि कोई ध्यान योग, कोई कर्म योग तो कोई भोग विलास के साधक बन जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
जो कर्मवान है उसकी उपयोगिता तभी तक है जब तक उसका कार्य पसंद आ रहा है जैसे ही वो अनुपयोगी हुआ उसमें तरह-तरह के दोष नज़र आने लगते हैं।
बातों ही बातों में एक कर्मवान व्यक्ति की कहानी याद आ गयी जो सबसे कार्य लेने में बहुत चतुर था परन्तु किसी का भी कार्य करना हो तो बिना लिहाज मना कर देता अब धीरे – धीरे सभी लोग दबी जबान से उसका विरोध करने लगे, जो स्वामिभक्त लोग थे वे भी उसके अवसरवादी प्रवृत्ति से नाखुश रहते ।
एक दिन बड़े जोरों की बरसात हुई कर्मयोगी का सब कुछ बाढ़ की चपेट में बर्बाद हो गया। अब वो जहाँ भी जाता उसे ज्ञानी ही मिल रहे थे, लोग सच ही कहते हैं जब वक्त बदलता है तो सबसे पहले वही बदलते हैं जिन पर सबसे ज्यादा विश्वास हो। किसी ने उसकी मदद नहीं कि वो वहीं उदास होकर अपने द्वारा किये आज तक के कार्यों को याद करने लगा कि किस तरह वो भी ऐसा ही करता था, इतनी चालाकी और सफाई से कि किसी को कानों कान खबर भी न होती।
पर कहते हैं न कि जब ऊपर वाले कि लाठी पड़ती है तो आवाज़ नहीं होती। दूध का दूध पानी का पानी अलग हो जाता है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्ता का नया फार्मुला।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 17 – गरीबी का ताना-बाना☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गरीबी, हां वही, जिसे हम सभी ने सहेज कर रखा है, जैसे पुराने जमाने की बेमिसाल विरासत। इसे किसी बर्तन में ढक कर रखा जाए, या फिर दरवाजे पर लटका दिया जाए, इससे फर्क नहीं पड़ता। गरीबों की झुग्गी में सब कुछ मस्त था, बशर्ते खाने-पीने का कोई इंतजाम न हो।
भोलू नामक एक गरीब किसान, जो कि अपने खेत में कुछ भी न उगाकर रोज़ की खिचड़ी पकाता था, अपने हालात पर हमेशा हंसता रहता। एक दिन वह अपनी गगरी लेकर पानी भरने चला, जैसे गगरी से पानी निकालकर अमीर बन जाएगा। लेकिन भोलू का तो पूरा दिन इसी फिक्र में निकल जाता था कि पानी किस तरह उसकी झुग्गी में आए।
“पानी भरने का काम बहुत आसान है, बस हाथ और गगरी चाहिए, बाकी सब तो आ जाएगा,” उसने खुद से कहा, लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई। पानी भरने के बाद, भोलू को एक महात्मा का दर्शन हुआ जो उसके घर में आकर बोले, “गरीबी दूर करने के लिए तुमने कोई शास्त्र पढ़ा?”
“नहीं बाबाजी, मैंने तो गगरी भरने के बाद सिर्फ गगरी ही पढ़ी है,” भोलू ने जवाब दिया। महात्मा ने उसकी यह प्रतिक्रिया सुनकर कहा, “तुम्हारी गरीबी अब भी कायम रहेगी।”
फिर भोलू के विचारों में उथल-पुथल मच गई। उसने सोचा, “गरीबी हटाने का तरीका अब यही है कि हर बात में केवल हंसी ही हंसी करूँ। किसी ने पूछा, ‘भोलू, क्या हाल है?’ मैंने कहा, ‘अरे, हर रोज़ नया हो जाता है।’ यह भी सच है कि गरीबों का चेहरा हमेशा नए नारे सुनने के लिए तैयार रहता है।”
इस बीच, गांव में एक बड़ी दावत हुई, जिसमें भोलू भी गया। वहाँ, महात्मा ने फिर से उसकी सराहना की, “भोलू, तुमने बड़ा काम किया है, दावत में आए हो।”
“हां बाबाजी, लेकिन दावत में तो गरीब के लिए भी जगह नहीं मिलती,” भोलू ने कहा। महात्मा हंस पड़े और बोले, “गरीब का स्थान तो दावत में हमेशा खाली रहता है।”
भोलू दावत की हर चीज़ को देखकर सोचने लगा कि गरीब का दिल भी हमेशा खाली रहता है, जैसे दावत के थालों में कभी-कभी जगह नहीं होती। फिर भोलू ने सोचा कि गरीबी के खिलाफ आंदोलन करना चाहिए। उसने गांव में भाषण देना शुरू किया, “सभी लोग सुनो, गरीब को ही सच्चा अमीर समझो। अमीर तो सिर्फ दिखावा करते हैं, असली अमीरी तो गरीबों की झोपड़ी में है। यहाँ न कोई टैक्स है, न कोई ब्याज। सब कुछ मुफ्त में मिल रहा है।”
इस भाषण के बाद, गांव के अमीरों ने भोलू को अपनी चाय पर बुलाया। भोलू ने सोचा, “अब तक अमीरों की चाय की आदत थी, अब गरीबों की चाय की आदत बनानी पड़ेगी।” चाय पीते हुए, अमीरों ने भोलू से पूछा, “क्या योजना है तुम्हारी गरीबी मिटाने की?”
भोलू ने जवाब दिया, “गरीबी मिटाने की योजना है, अमीरों की चाय पीकर। जब अमीरों की चाय खत्म हो जाएगी, तो गरीबी भी ख़त्म हो जाएगी। अमीरों की चाय पीकर गरीबों की भूख भी मिटेगी।”
भोलू की बातों पर सब हंसी में फूट पड़े। भोलू की हर बात में गरीबी का ही मजाक था, जैसे गरीबी अपने आप में एक हंसी का विषय हो। वह जानता था कि गरीबी पर हंसी ही हंसी ही एकमात्र इलाज है।
एक दिन भोलू की झुग्गी में आग लग गई। गांव वालों ने देखा कि भोलू तो हंसते-हंसते जल रहा है। लोग बोले, “भोलू, तुम्हारे घर में आग लगी है।”
भोलू ने जवाब दिया, “अरे, आग लगी है तो क्या हुआ, गरीबी का घर ही तो जल रहा है। अगली बार तो इसी जलन के साथ नया घर बनाऊँगा।”
इस तरह, भोलू की हर बात में गरीबी की झलक दिखाई देती थी। उसका जीवन गरीबी से ही ताना-बाना बुनता था, और वह इसी ताने-बाने को हंसी में बदलने में माहिर था। गरीबी पर हंसी ही उसका सबसे बड़ा हथियार थी, और इसी हथियार से वह हर दिन गरीबी को पराजित करने की कोशिश करता था।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 295 ☆
आलेख – इंटरनेट ने दुनियां को नए सोपान दिए हैं… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
एक अप्रचलित अपेक्षाकृत सर्वथा नई तकनीक है इंटरनेट रेडियो। इस को ऑनलाइन रेडियो, वेब रेडियो, नेट रेडियो, स्ट्रीमिंग रेडियो, ई-रेडियो और आईपी रेडियो के नाम से भी जाना जाता है।
यह इंटरनेट के ज़रिए प्रसारित होने वाली एक डिजिटल ऑडियो सेवा है। इसलिए इसकी आवाज बहुत साफ होती है। त्वरित प्रसारण विधा है। इंटरनेट पर प्रसारण को आमतौर पर वेबकास्टिंग के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि इसे व्यापक रूप से वायरलेस माध्यम से प्रसारित नहीं किया जाता है। इसे या तो इंटरनेट के माध्यम से चलने वाले एक स्टैंड-अलोन डिवाइस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, या एक कंप्यूटर के माध्यम से चलने वाले सॉफ़्टवेयर के रूप में उपयोग किया जाता है। यह पॉडकास्ट से भिन्न होता है, क्योंकि इसकी रिकॉर्डिंग सदैव सुलभ नहीं होती।
इंटरनेट रेडियो का उपयोग आम तौर पर आवाज के माध्यम से संचार और आसानी से संदेश प्रसारण के लिए किया जाता है। इसे एक वायरलेस संचार नेटवर्क के माध्यम से प्रसारित किया जाता है जो इंटरनेट से जुड़ा होता है।
इंटरनेट रेडियो में स्ट्रीमिंग मीडिया शामिल है, जो श्रोताओं को ऑडियो की एक सतत स्ट्रीम प्रदान करता है जिसे आम तौर पर यू ट्यूब के समान फिर से नहीं चलाया जा सकता। यह बिल्कुल पारंपरिक प्रसारण रेडियो मीडिया की तरह होता है, अंतर यह होता है कि इंटरनेट से जुड़े होने के कारण इंटरनेट रेडियो डाउन लोडिंग द्वारा कहीं भी सुना जा सकता है।
इंटरनेट रेडियो सेवाएँ समाचार, खेल, बातचीत और संगीत की विभिन्न शैलियाँ प्रदान कर रही हैं – हर वह प्रारूप जो पारंपरिक प्रसारण रेडियो स्टेशनों पर उपलब्ध है। इंटरनेट रेडियो पर भी धीरे धीरे सुलभ हो रहा है।
स्टार्ट-अप हेतु यह बिल्कुल नायाब नया आइडिया है। कम लागत में विज्ञापन द्वारा बड़ी कमाई का साधन बन सकता है। इसके लिए कोई लाइसेंस वांछित नहीं है।
पहली इंटरनेट रेडियो सेवा 1993 में शुरू की गई थी। 2017 तक, दुनिया में सबसे लोकप्रिय इंटरनेट रेडियो प्लेटफ़ॉर्म और एप्लिकेशन में ट्यूनइन रेडियो, आईहार्टरेडियो और सिरियस एक्सएम शामिल हैं।
जयपुर से बॉक्स एफ एम नाम से एक इंटरनेट रेडियो शुरू किया गया है। इसमें अत्यंत उत्कृष्ट साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। श्री प्रभात गोस्वामी जी इसमें व्यंग्य के रंग नाम से व्यंग्य केंद्रित लोकप्रिय अद्भुत आयोजन प्रत्येक बुधवार को शाम 4 से 5 बजे तक प्रस्तुत करते हैं।
7 अगस्त को मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था।
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