हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 – अशोक कुमार ….2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 5 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : अशोक कुमार ….2 ☆ 

अपने समय में (1940 के बाद के वर्षों में) अशोक कुमार का क्रेज़ ऐसा था कि वे कभी-कभार ही घर से निकलते थे और जब भी निकलते तो भारी भीड़ जमा हो जाती और ट्रैफिक रुक जाता था. भीड़ दूर करने के लिए कभी-कभी पुलिस को लाठियां चलानी पड़ती थीं. रॉयल फैमिलीज़ और बड़े घरानों की महिलाएं उन पर फिदा थीं और लाइन मारती थीं.

अशोक कुमार को 1943 मे बांबे टाकीज की एक अन्य फ़िल्म किस्मत में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक छवि से बाहर निकल कर अपनी एक अलग छवि बनाई। इस फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका की और अपनी इस भूमिका के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे। किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार चलने का रिकार्ड बनाया।

बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय की मौत के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियों चले गए। वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले मशाल, जिद्दी और मजबूर जैसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया। उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था।

पचास के दशक मे बाम्बे टॉकीज से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी खुद की कंपनी शुरू की और जूपिटर थिएटर को भी खरीद लिया। अशोक कुमार प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने सबसे पहली फ़िल्म समाज का निर्माण किया, लेकिन यह फ़िल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह असफल रही। इसके बाद उन्होनें अपने बैनर तले फ़िल्म परिणीता भी बनाई। लगभग तीन वर्ष के बाद फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में घाटा होने के कारण उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बंद कर दी। 1953 मे प्रदर्शित फ़िल्म परिणीता के निर्माण के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिमल राय के साथ उनकी अनबन हो गई थी। जिसके कारण उन्होंने बिमल राय के साथ काम करना बंद कर दिया, लेकिन अभिनेत्री नूतन के कहने पर अशोक कुमार ने एक बार फिर से बिमल रॉय के साथ 1963 मे प्रदर्शित फ़िल्म बंदिनी मे काम किया । यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्म के इतिहास में आज भी क्लासिक फ़िल्मों में शुमार की जाती है। 1967 मे प्रदर्शित फ़िल्म ज्वैलथीफ में अशोक कुमार के अभिनय का नया रूप दर्शको को देखने को मिला। इस फ़िल्म में वह अपने सिने कैरियर मे पहली बार खलनायक की भूमिका मे दिखाई दिए। इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। अभिनय मे आई एकरुपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए अशोक कुमार ने खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इनमें 1968 मे प्रदर्शित फ़िल्म आर्शीवाद खास तौर पर उल्लेखनीय है। फ़िल्म में बेमिसाल अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म मे उनका गाया गाना रेल गाड़ी-रेल गाड़ी बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ।

1984 मे दूरदर्शन के इतिहास के पहले शोप ओपेरा हमलोग में वह सीरियल के सूत्रधार की भूमिका मे दिखाई दिए और छोटे पर्दे पर भी उन्होंने दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया। दूरदर्शन के लिए ही दादामुनि ने भीमभवानी, बहादुर शाह जफर और उजाले की ओर जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का जौहर दिखाया।

अशोक कुमार को दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया। पहली बार राखी 1962 और दूसरी बार आर्शीवाद 1968, इसके अलावा 1966 मे प्रदर्शित फ़िल्म अफसाना के लिए वह सहायक अभिनेता के फ़िल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजे गए। दादामुनि को हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ठ सहयोग के लिए 1988 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 1999 में पद्म भूषण और 2001 में  उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अवध सम्मान प्रदान किया गया। अशोक कुमार भारतीय सिनेमा के एक प्रमुख अभिनेता रहे हैं। प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार भी आपके ही सगे भाई थे। लगभग छह दशक तक अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शकों के दिल पर राज करने वाले अशोक कुमार का निधन 10 दिसम्बर 2001 को हुआ।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 44 – दृष्टि ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “दृष्टि। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 44 ☆

☆ दृष्टि 

 मैं अब आपको स्वर योग के विषय में कुछ बताता हूँ । सर्वप्रथम हाथों द्वारा नाक के छिद्रों से बाहर निकलती हुई श्वास को अनुभव करने का प्रयत्न कीजिए । देखिए कि कौन से छिद्र से श्वास बाहर निकल रही है । स्वर योग के अनुसार अगर श्वास दाहिने छिद्र से बाहर निकल रही है तो यह सूर्य स्वर होगा । इसके विपरीत यदि श्वास बाएँ छिद्र से निकल रही है तो यह चंद्र स्वर होगा एवं यदि जब दोनों छिद्रों से श्वास निकलता अनुभव हो तो यह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा । श्वास के बाहर निकलने की उपरोक्त तीनों क्रियाएँ ही स्वर योग का आधार हैं । सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है । इसका रंग काला है । यह शिव स्वरूप है, इसके विपरीत चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात्‌ पार्वती का रूप है । इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं ओर स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी ओर अर्थात्‌ इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर । सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब दोनों ओर से श्वास निकले वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा ।

गांधार नाड़ी नाक में, हस्तिजिह्वा दाहिनी आंख में, पूषा दाये कान में, यशस्विनी बायें कान में, अलंबुसा मुख में, कुहू लिंग प्रदेश में और शंखिनी गुदा में जाती है । हठयोग में नाभिकंद अर्थात कुंडलिनी का स्थान गुदा से लिंग प्रदेश की ओर दो अंगुल हटकर मूलाधार चक्र में माना गया है । स्वर योग में कुंडलिनी की यह स्थिति नहीं मानी जाती है। स्वर योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि गुदामूल में नहीं, वरन उदर मध्य ही हो सकती हैं । इसीलिए यहाँ नाभिप्रदेश का तात्पर्य उदर भाग मानना ही ठीक है । श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष संबंध उदर से ही है । स्वर योग इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य को नाभि तक पूरी साँस लेनी चाहिए । वह प्राण वायु का स्थान फेफड़ों को नहीं, नाभि को मानता है । गहन अनुसंधान के पश्चात अब शरीर शास्त्री भी इस बात को स्वीकारते हैं कि वायु को फेफड़ों में भरने मात्र से ही श्वास का कार्य पूरा नहीं हो जाता । उसका उपयुक्त तरीका यह है कि उससे पेड़ू तक पेट सिकुड़ता और फैलता रहे एवं डायफ्राम का भी साथ-साथ संचालन हो । तात्पर्य यह कि श्वास का प्रभाव नाभि तक पहुँचना जरूरी है । इसके बिना स्वास्थ्य खराब होने का खतरा बना रहता है । इसीलिए सामान्य श्वास को स्वर योग में अधूरी क्रिया माना गया है । इससे जीवन की प्रगति रुकी रह जाती है । इसकी पूर्ति के लिए योग के आचार्यों ने प्राणायाम जैसे अभ्यासों का विकास किया ।

तो वास्तव में हम प्रकृति और ब्रह्मांड में बाहरी परिवर्तन के साथ हमारे आंतरिक शरीर और मस्तिष्क के परिवर्तनों को समझ सकते हैं ।

 

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 – फुगडी कोरोनाची ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की रचना  “फुगडी कोरोनाची ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 ☆

☆ फुगडी कोरोनाची ☆ 

(काव्यप्रकार :-मुक्तछंद)

 

फू बाई फू.. फुगडी फू..वाढ वाढ वाढतोयस कोरोना तूं रे कोरोना तूं.ऽऽ.!!धृ.!!

 

विमानातनं आलास !

हाहा म्हणता पसरलास!

तग धरुन बसलास !!१!! आता फुगडी फू….

 

कोरोना रे कोरोना !

तुझा लाडका चायना !

व्हायरस पाठवून केली की हो दैना !

कोरोनाची पीडा आता जाता जाईना !!२!! फुगडी फू…

 

अमेरिका फ्रान्स स्पेन अन् इटली !

चायनाची तर हौसच फिटली !

लाखोंची पतंग याने की हो काटली !!३!! आता फुगडी फू…

 

कोरोनाचा तर वाढतोय जोश!

त्यावर नाही अजून निघाला डोस !

गावेच्या गावे याने पाडली ओस !

जिकड तिकडं याचाच घोष !!४!! आता फुगडी फू..

 

आम्ही नाही हरणार !

शासनाचे ऐकणार!

घरातच रहाणार!

फळे आम्ही खाणार!

सात्त्विक आहार घेणार !

तुला पळवून लावणार !

जोमाने उभे रहाणार!!५!! आता फुगडी फू…

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:२१-५-२०.

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (भाग-8) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #7 ☆ मित….. (भाग-8) ☆

पुढचे दोन दिवस मुंबई सह महाराष्ट्रातील प्रसिद्ध पर्यटन स्थळी फिरतांना त्यांचा हक्काचा मार्गदर्शक मीत होता. त्याचं सोबत असणं तिला आतल्या आत सुखावत होतं. त्याचं हसणं, बोलणं, वागणं, प्रत्येक गोष्ट संयमाने व विचारपूर्वक हाताळणं तिला त्याच्याकडे अधिकच आकर्षित करत होतं. सोबत घालवलेला प्रत्येक क्षण ती त्याला पारखत होती. एक चांगला मित्रच नव्हे तर चांगला जीवनसाथी होण्यास पात्र आहे का ? हे पाहत होती. आणि तिने केलेले विश्लेषण बरोबर आहे का हे स्वतःला विचारत होती. शुद्ध सोने सिद्ध होण्यासाठी कराव्या लागणा-या चारही परिक्षेतून ती त्याला पारखून घेत होती. आजचं त्याचं असं पावलो पावली काळजी घेणं असंच आयुष्यभर राहीलं का याचा अंदाज ती घेत होती.

अशा एक ना अनेक प्रकारे तिने त्याची परिक्षा घ्यायला सुरुवात केली होती. आणि तिच्या प्रत्येक प्रश्नाचं उत्तर तो अगदी चोख देत होता. त्याच्यासोबत मारलेल्या गप्पांमध्ये त्याने त्याच्या बद्दल ज्या ज्या गोष्टी सांगितल्या होत्या त्या अगदी तंतोतंत ती अनुभवत होती. आणि प्रत्येक परिक्षेत पैकीच्या पैकी गुण देऊन पास करत होती. आता तिच्या परिक्षाही संपल्या होत्या. आणि तिच्या वडिलांच्या सुट्ट्याही. शिर्डीला बाई बाबांचे दर्शन घेऊन ते मुंबईला आले. हाॅटेलवर येऊन सामानाची आवरा आवर करू लागले.

रिमझिम जड अंतःकरणाने सारी कामे करत होती. कदाचित तिला परत जायचं नव्हतं. तिच्या बाबांनी तिला ‘काय झालं ‘ विचारले पण ‘ काही नाही’ म्हणून तीने त्यांना टाळलं. गॅलरीत वाळत ठेवलेला स्कार्प    काढायला गेली. तिच्यावर चोरटी नजर ठेऊन असलेला मीत संधी पाहून तिच्या मागे गेला. आणि तिच्या अगदी मागे उभा राहिला. स्कार्प काढून ती जशी मागे फिरली तशी तीच्या अगदी जवळ मीत उभा होता. ती क्षणभर घाबरली. पण सावरलीही. आणि एकमेकांच्या डोळ्यांत डोळे घालून बघत राहीले.

रिमझिम- क्यो देखते हो ऐसी नजरो से की इंसान खो-सा रह जाए

मीत- मै भी हैरान हूँ. की तुम्हे देखकर क्यो आँखो में ये नुर-सा क्यो जाग जाता है. लेकीन सुकून भी उतना ही मिलता है. और दिल मे बेचैनी भी

रिमझिम- कुछ तो नाम होगा इस बेचैनी का. अपनापन या फिर………

मीत- या फिर…..

तीने लाजून मान खाली घातली. त्याने हळूच तिची हनुवटी वर केली. आणि

मीत- प्यार……….

लांब श्वास घेऊन मीत शब्द न काढता फक्त तोंडातून निघणा-या हवेच्या साह्याने बोलला. पुन्हा ती लाजली आणि मान खाली घातली. तिला त्याच्या डोळ्यांत डोळे घालून बोलायचे होते. आणि ती ही किती प्रेम करते हे जाहीर करायचे होते. पण शरमेने खाली गेलेल्या पापण्या वरती होत नव्हत्या. तशीच ती त्याच्या खांद्यावर डोके ठेऊन विसावली. गॅलरीतून आलेल्या हवेच्या झुळूकने दरवाजाला लावलेला पडदा हळूच त्याच्या भोवती गुंडाळला गेला.

मीत – रिमझिम, पता नही क्यो, पर मुझे लग रहा है की तुम हमेशा के लिए रूक जाओ. मेरे साथ

रिमझिम- क्या ये संभव है?

मीत- तुम चाहो तो……..

त्याने तीला मिठीतून सोडले. आणि आपल्या समोर उभे केले. आणि हळूच तिची हनुवटी पुन्हा वर केली.

मीत- इन खुबसूरत आँखो मे मै जिंदगी भर डुब कर रह जाना चाहता हूँ. इन ओठों की हंसी यु ही उम्रभर बरक़रार रखना चाहता हूँ. इस हसी चेहरे का नूर यूँ ही हमेशा के लिए बरक़रार रखना चाहता हूँ. और जिंदगी भर बस तुमसे ही प्यार करना चाहता हूँ. अगर तूम चाहो तो……

ती लाजली आणि तेथून निघुन गेली. तिच्या गालावर पसरलेली लाली त्याला ते सगळं काही सांगुन गेली होती.

मुंबई सेंट्रलला रेल्वे उभी होती. ‘बेटा, इस अनजान जगह पर आने के बाद मुझे अपने बच्चो की बहोत फ़िक्र हो रही थी. पर तुम्हारे साथ होने के बाद लगा ही नही की हम अनजान जगह पर है. जितने भी साथ रहे. आप मेरे परिवार का हिस्सा बनकर रहे. वैसे तो आप उम्र मे बहोत छोटे हो हमसे. फिर भी आप का बहोत बहोत शुक्रिया. हमेशा खुश रहो.

मीत- अंकल जी, जब आपने हमे अपने परिवार का हिस्सा कहा है. तो मै ये आपको बता दूँ  की अपनों का शुक्रिया अदा कैसा ?तेव्हा तिचा लहान भाऊ गिरीश म्हटला

‘ हाँ,  और कभी गुवाहाटी आओ तो हमे जरूर बताना. हम तुम्हे गुवाहाटी की सैर कराएगे ‘

त्याच्या या विनोदावर सर्वच हसले.

मीत- जरूर आएँगे और गुवाहाटी के साथ साथ पुरे आसाम की खुबसूरती तुम्हारी नजरों से ही देखेंगे

तेवढ्यात गाडीचा हाॅर्न वाजला. रिमझिम चे बाबा ‘ अच्छा बेटा हम करते है. अपना खयाल रखना’ आणि गाडीत बसायला लागले. खिडकीतून रिमझिमला त्याने एक नजर शेवटचे पाहिले. आणि हळूच ‘हॅप्पी जर्णी ‘ म्हटले. गाडी सुरू झाली. मीत मागे परतला.

बसमध्ये तिच्यासोबतच्या आठवणींमध्ये हरवला. कधी स्मित हास्य तर कधी काळजी असे प्रसंगानुरूप त्याच्या चेह-यारचे भाव बदलत होते. तसेच काहीसे रिमझिमचे पण होते. पण सर्वापासून तिने ते भाव अगदी शिताफीने लपवले होते.

मीत घरी पोहोचला. बॅगेतला सामान तो कपाटात ठेवत होता. तेव्हा त्याला बॅगेत एक पार्सल दिसले. ते त्याचे नव्हते. मग कोणी ठेवले हा प्रश्न त्याला पडला. आणि उत्सुकतेने त्याने ते पार्सल उघडले. आणि त्याला आश्चर्य झाले. आत तीच बुद्धमुर्ती ठेवलेली होती. जी अजिंठा लेण्या पहायला गेले असतांना त्याला पसंत पडली होती. ती रिमझिम ने त्याला माहीती न पडू देता त्याला भेट दिली होती. त्या मुर्तीच्या मागे तीने एक कागद चिकटवलेला होता. त्याने पाहीले. ज्यावर लिहीले होते, ‘ मनमीत जी, अपने कहा की आप मेरे चेहरे की हसी जिंदगी भर यूँ ही बरक़रार रखना चाहते हो. तो अपना बहोत खयाल रखीएगा. क्यो की अब मेरे चेहरे की मुस्कान आप हो……..

  क्रमशः

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 47 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद।  इस आलेख की एक पंक्ति ‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा’ अपने आप में महत्वपूर्ण है।  इस आलेख में इस तरह के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 47 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है, जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है, आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व-प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं, हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशा-जनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं; हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर, हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव,  दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है… अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्ममुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिएं, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित-अहित,  खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं… कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और चिंता रूपी दलदल से, वह लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है, जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे देती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते और संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते…अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने- समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण गलत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु -सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर  किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार, उसे कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे  मुक्ति पाने के प्रयास करना… इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शहसवार को कभी भी गिरने नहीं देतीं… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है, जिससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो, रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जायें और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है और उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी हो जाएगा। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां … ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी–’एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणा- स्पद है व ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो आपका अपनी मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना… करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता- सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है,क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महामूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिये मत और निंदा से भटकिये मत’ और हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही, सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है, जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 1 ☆ ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सकारात्मक आलेख  ‘ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का’।)

☆ किसलय की कलम से # 1 ☆

☆ ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का ☆

ईश्वर साक्षी है, जिसने समय से सबक नहीं लिया वह सदा ही मुसीबत में पड़ा है। समय सबको एक बार पूर्वाभास अवश्य कराता है, लेकिन अपने में मशगूल आज के इंसान को अच्छे या बुरे वक्त की आहट या दस्तक सुनाई ही नहीं पड़ती। समय जब बुरे वक्त की दस्तक देता है तब हम दुनियादारी के शोर में कुछ सुन नहीं पाते, चिंतन-मनन की बात तो बहुत दूर की है। इसी तरह जब अच्छे वक्त की आहट होती है तब भी हम सुनना नहीं चाहते। उन अच्छे दिनों को ईशकृपा मानने के बजाय स्वयं की उपलब्धि मान बैठते हैं, जबकि यह अच्छा वक्त केवल आपके कर्मों का फल नहीं होता। इसमें हमारे परिवार, हमारे समाज एवं हमारी प्रकृति की भी भागीदारी होती है। यदि इंसान इस सत्सूत्र को जान ले तो वह सभी प्राणियों व प्रकृति से मित्रवत व्यवहार करने लगेगा, इस प्रकार ‘जियो और जीने दो’  वाक्य के चरितार्थ होने देर नहीं लगेगी।

हमने देखा है कि किसी कार्य के प्रारंभ होने से पूर्व ही उस कार्य की परिणति के विचार मानस पटल पर उभरने लगते हैं। ज्ञानवान तो इन विचारों की बारीकियों को पकड़ लेते हैं लेकिन आम आदमी का पूरा ध्यान सफलता के आभासी उत्स में ही डूबा रहता है। वह कमियों को सिरे से नकारता रहता है। यही भ्रम उस कार्य के परिणाम पर भी प्रभाव डालता है।

पेड़-पौधों व जंगलों के घटते क्षेत्रफल से उत्पन्न पानी का अभाव, गर्मी का प्रकोप, शुद्ध वायु की कमी, वन्यजीवों की घटती संख्या एवं पृथ्वी के हठात दोहन से आज प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अब तो आदमी परेशानी महसूस करने लगा है। बुरे वक्त की दस्तकों व चेतावनी  सुनकर हमने कोई संतोषजनक कदम नहीं उठाए। बढ़ते कांक्रीट जंगलों, असंयत खानपान की वजह से बीमारियाँ तथा स्वास्थ्यगत कमजोरियाँ बढ़ती जा रही हैं, बावजूद इन सबके इन दस्तकों से किसी ने जीवन शैली में सुधार करने की कोशिश नहीं की।

आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व की ही बात करें तो क्या इतनी भयानक और आधिक्य में बीमारियाँ होती थीं। आज तो हम न बीमारियों के नाम और न ही डॉक्टरों के प्रकार गिन पाते। और तो और उस समय के इंसान ने आज पाई जाने वाली बीमारियों की कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसी भी कोई बीमारियाँ हो सकती हैं, जो चमगादड़, सूअर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली या साँप-बिच्छू के खाने से भी होंगी। सोचते भी कैसे, क्योंकि हमने कभी सुना भी नहीं था कि लोग इन जीव-जंतुओं को कच्चा भी खाते होंगे। हमारे देश में तो ‘अहिंसा परमोधर्मः’ पर चलने वाले लोग वनस्पतियों तक को अनावश्यक क्षति पहुँचाने को  हिंसा मानते थे, लेकिन आज ये सब अतीत की बातें हो गई हैं।

वक्त ने दस्तक दी हिंसा बुरी बात है, पर क्या सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद कम हुए? वक्त ने दस्तक दी-प्रेम भाईचारे की, क्या ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव जगे। इसके विपरीत विश्व के विभिन्न देश आज लड़ाई-झगड़े और अपने वर्चस्व की खातिर इंसानियत की हद भी पार करने से नहीं चूक रहे। आज परमाणु युद्ध और स्पेसवार के आगे भी व्यापार युद्ध,पानीयुद्ध और सबसे बड़े युद्ध ‘वायरस वार’ की दस्तक और सुगबुगाहट हम सुन पा रहे है। क्या यह इंसान के लिए अत्यंत संवेदनशील एवं विचारणीय समय नहीं है? आज राष्ट्रीय सीमाओं और हीन विचारों से ऊपर उठकर प्राकृतिक संतुलन को पुनः स्थापित करने का वक्त है। आज कोविड-19 नामक विश्वव्यापी महामारी के चलते जब सारी दुनिया थम सी गई है। आज जैसे हर घर में एक अजीब सा मौन पसरा हुआ है। लोगों की मनःस्थिति का पता लगाना मुश्किल हो गया है। ये  ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ जैसी स्थिति है, परंतु इन दिनों हमारे पास पर्याप्त समय है जब हम मानव जीवन की उपादेयता, शांतिपूर्ण सामाजिक वातावरण तथा प्रकृति से निकटता स्थापित करने विषयक कुछ सकारात्मक चिंतन-मनन कर सकते हैं। कहा भी गया है कि इंसान को दुख या मुश्किल के क्षणों में ही अच्छा-बुरा, सत्य-असत्य, लाभ-हानि कुछ ज्यादा ही दिखाई देने लगता है। विगत जीवन की अनेकानेक यादें स्मृत हो उठती हैं।

अतः ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का। हम समय निकालकर अपने जीवन की उपादेयता व सामाजिक सद्भावना पर चिंतन-मनन करें और उस पर अमल करना आज से ही प्रारंभ करें। मुझे विश्वास है इससे हमारे मन निर्मल होंगे और मानव समाज निश्चित रूप से सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगा।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 47 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 47 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दूर-दूर तक देश में,हैं कितने अभियान।

दृढ़ता से संकल्प लो, तभी मिलेगा ज्ञान।।

 

रखें धैर्य साहस सदा,मन में हो विश्वास।

जीवन-यात्रा में कभी, टूट न जाए आस।।

 

आज विश्व में हो रही, जन्म-मरण की जंग।

संयम लाएगा सदा, जीवन में फिर रंग।।

 

मानव संकट से घिरा, सूझे नहीं निदान।

देना होगा कब तलक, अपनों का बलिदान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 38 ☆ भाषा आँखों की अलग …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “भाषा आँखों की अलग …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 38 ☆

☆ भाषा आँखों की अलग .... ☆

आँखों से आँखें करें, आपस में तक़रीर

देखो मूरख लिख रहे,आँखों  की तक़दीर

 

आँखें ही तो खोलतीं,दिल के गहरे राज़

प्यार मुहब्बत इश्क़ का,करती हैं आगाज़

 

आँखों से ही उतरकर,दिल में बसता प्यार

दिल से उतरा आँख से,बरसाता जल धार

 

प्यासी आँखें खोजतीं,सदा नेह जल धार

जिन आँखों में जल नहीं,वो निष्ठुर बेकार

 

गहराई जब आँख की,देखे कोई और

आँखों में ही डूबता,रहे न कोई ठौर

 

आँखें ही तो पकड़तीं,सबकी झूठ जबान

दिल-जबान के भेद की,करतीं वे पहचान

 

भाषा आँखों की अलग,इनकी अलग जबान

आँख मिलाते समय अब,सजग रहें श्रीमान

 

आँखों को भाता सदा,कुदरत का नव रंग

सुंदरता मन मोहती,आँखों भरी उमंग

 

आँखों में सपने बसें,बसती हैं तसवीर

आँखों से ही झलकती, इन नैनों की पीर

 

आँखों से ही हो सदा,खुशियों की बरसात

भीगी आँखें रात-दिन,छलकातीं जज्बात

 

आँखें जग रोशन करें,आँखें रोशन दान

आँखों में संतोष है,सूरज ज्योतिर्मान।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मंदिर ह्रदयीचे. . . ! )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆

जखमांवरती मलम लावले, आई संज्ञेचे

अलगद  आले, भरून सारे, घाव अंतरीचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आयुष्याला तोलून धरले, अज्ञात ताजव्याने

त्या शक्तीचे दर्शन घडले, आई रूपाने

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आई म्हणजे  अमृत पान्हा, संचित जीवनाचे

वात्सल्याची आभाळमाया, जीवन घडवीते

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

एकच आता दैवत माना, मनी माऊलीचे

संस्काराने जिने घडविले, मंदिर सौख्याचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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