हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 22 ☆ बुंदेली गीत – सबसे बड़ो गणतन्त्र हमारो ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  उनका एक सामयिक बुंदेली गीत  “सबसे बड़ो गणतन्त्र हमारो”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 22 ☆

☆ बुंदेली गीत – सबसे बड़ो गणतन्त्र हमारो ☆

 

जे नापाकी का कर लें हैं

तुरत चीर खें हम धर दें हैं

 

हम अपने सें कबहुँ न लड़ते

छेड़ो बाने तो लर जें हैं

 

दुनिया में पहचान अलग है

ईहाँ मिल खें सब रह लें हैं

 

तिरंगे की है शान निराली

परचम दुनिया में फहरें हैं

 

यू एन ओ का वीटो पावर

ताकत सें सबरो हक लें हैं

 

सबसे बड़ो गणतन्त्र हमारो

गर्व से ऊँचो सर कर लें हैं

 

देश अपना हम खों प्यारा

देश के लाने हम मर जें हैं

 

संभल जाओ देश द्रोहियो

जेल तुम्हे तुरत पर जे है

 

“संतोष” गाए वंदे मातरम

नारा वो जय हिंद लगे है

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 17 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “ बदलाव ”।  समाज में व्याप्त नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 17 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

माँ सुबह ६ बजे उठती है। झाड़ू लगाती है, नाश्ता बनाती है, स्नान कर तुलसी में जल चढ़ाती है। हाथ जोड़कर सूर्य भगवान की  परिक्रमा करती है।  मन ही मन कुछ कहती है। निश्चित ही पूरे परिवार के  लिए मंगलकामना करती है। पति-पुत्र को अपने व्रत और पूजा-पाठ के बल पर दीर्घायु करती है। बेटा देसी घी का लड्डू भले ही हो, बेटी भी उसके दिल का टुकड़ा है। दोपहर का खाना बनाती है। बर्तन माँजकर रसोई साफ करती है। कपड़े धोती है। शाम की चाय, रात का खाना, पति की प्रतीक्षा और फिर थकी बेसुध माँ लेटी है। बेटा तो सुनता नहीं, बेटी से पैर दबवाना चाहती है वह। दिन भर काम करते-करते पैर टूटने लगते है। माँ कहती है- बेटी ! मेरे पैरों पर खड़ी हो जा, टूट रहे हैं।

बेटी अनमने भाव से एक पैर दबाकर टी.वी. देखने भाग जाना चाहती है कि माँ उनींदे स्वर में बोलती है – बेटी ! अब दूसरे पैर पर भी खड़ी हो जा, नहीं तो वह रूठ जाएगा। बेटी पैरों को हाथ लगाने ही वाली थी कि ‘अरे ना- ना’, माँ बोल पड़ती है – ‘पैरों को हाथ मत लगाना, बस पैरों पर खड़ी हो जा।  बेटियाँ माँ के पैर नहीं छूतीं।’ नर्म –नर्म पैरों के दबाव से माँ के पैरों का दर्द उतरने लगता है या दिन भर की थकान उसे सुला देती है, पता नहीं…….. ?

अनायास बेटी का ध्यान माँ के पैर की उँगलियों में निश्चेष्ट पड़े बिछुवों की ओर जाता है। काले पड़े चाँदी के बिछुवों की कसावट से उंगलियां काली और कुछ पतली पड़ गयी हैं। बेटी एक बार माँ के शांत चेहरे की ओर देखती है और बरबस उसका हाथ बिछुवेवाली उँगलियों को सहलाने लगता है। बड़े भोलेपन से वह माँ से पूछ बैठती है – माँ तुम बिछुवे क्यों पहनती हो ?

नींद में भी माँ खीज उठती है – अरे ! तूने मेरे पैरों को हाथ क्यों लगाया ? कितनी बार मना किया है ना ! और कुछ भी पूछती है तू ? पहना दिए इसलिए पहनती हूँ बिछुवे, और क्या बताऊँ……

बेटी सकपका जाती है, माँ पैरों को सिकोडकर सो जाती है।

दृश्य कुछ वही है आज मैं माँ हूँ। याद ही नहीं आता कि कब, कैसे अपनी माँ के रूप में ढ़लती चली गयी। कभी लगता है – ये  मैं नहीं हूँ, माँ का ही प्रतिरूप हूँ। आज मेरी बेटी ने भी मेरे दुखते पैरों को दबाया, बिछुवे वाली उँगलियों को सहलाया, बिछुवों की कसावट थोडी कम कर दी, उंगलियों ने मानों राहत की साँस ली।

मैंने पैर नहीं सिकोडे। बेटी मुस्कुरा दी।

अरे ! यह क्या, बेटी के साथ-साथ मैं भी तो मुस्कुराने लगी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 10 ☆ कविता/गीत – वाणी में संगीत जगा दे ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत  “वाणी में संगीत जगा दे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 10 ☆

☆ वाणी में संगीत जगा दे ☆ 

 

शब्द-साधना को महका दे

सात स्वरों के दीप जला दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

सब हो जाएं मेरे अपने

तेरा हर दिन ध्यान करूँ माँ

मन मेरा पावन मंदिर हो

पल-छिन मंगलगान करूँ माँ।।

 

मनुज-मनुज में प्रेम बढ़े माँ

ऐसी कोई रीत चला दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

तेरा-मेरा सब मिट जाए

सत्य, ज्ञान का अवलम्बन दे।

मिटे तमिस्रा भय-संशय की

ऐसा अर्चन-आराधन दे।।

 

मित्र बने हर शत्रु अंततः

जीत करा दे, प्रीत करा दे

वीणापाणी जय-जय तेरी

वाणी में संगीत जगा दे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 29 ☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक सामायिक व्यंग्य  “पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साह9त्य  # 29 ☆ 

☆ पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन 

 

अर्जुन जी का नेचर ही थोड़ा कनफुजाया हुआ है. वह महाभारत के टाईम भी एन कुरुक्षेत्र के मैदान में कनफ्यूज हो गये थे. भगवान कृष्ण को उन्हें समझाना पड़ा तब कहीं उन्होनें धनुष उठाया.

पिछले कई दिनो से आज के अरजुन देख रहे थे कि  सत्ता से बाहर हुये नेता गण जनसेवा के लिए और सत्तासीन कुर्सी बचाने के लिए बेचैन हो रहे हैं. येन केन प्रकारेण फिर से कुर्सी पा लेने/कुर्सी बचाने के लिये गुरुकुलों तक में तोड़ फोड़, मारपीट, पत्थरबाजी सब करवाई जा रही थी. कौआ कान ले गया की रट लगाकर भीड़ को कनफ्यूजियाने का हर संभव प्रयास चल रहा था. तेज ठंड के चलते जो लोग कानो पर मफलर बांधे हुये हैं वे. बिना कान देखे कौए के पीछे दौड़ते फिर रहे हैं. ऐसे समय में ही राजधानी के चुनाव आ गये.  अरजुन जी किसना के संग पोलिंग बूथ पर जा पहुंचे. ठीक बूथ के बाहर वे फिर से कनफुजिया गये. किंकर्तव्यविमूढ़ अरजुन ने किसना से कहा कि ये चारों बदमाश जो चुनाव लड़ रहे हैं मेरे अपने ही हैं. मैं भला कैसे किसी एक को वोट दे सकता हूं ? इन चारों में से कोई भी मेरे देश का भला नही कर सकता. मैँ इन सबको बहुत अच्छी तरह जानता हूं. अरजुन की यह दशा देख इंद्रप्रस्थ पोलिंग बूथ पर लगी लम्बी कतार में ही किसना ने कहा..

हे पार्थ तुम केवल प्याज की महंगाई की चिंता करो तुम्हें देश की चिंता क्यों सता रही है !

हे पार्थ तुम फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री वाईफाई और मेट्रो में पत्नी के फ्री सफर, शिक्षा/स्वास्थ्य केन्द्रों की चिंता करो तुम्हें भला देश की चिंता का अधिकार किसने दिया है.

हे पार्थ तुम  बेटे के रोजगार की चिंता करो. बेरोजगारी भत्ते की चिंता करो तुम्हें जातियों के अनुपात की  चिंता क्यों !

हे पार्थ तुम शहर की स्मार्टनेस की चिंता करो तुम्हें साफ सफाई के बजट की और उसमें दिख रहे घपले की चिंता नहीं होनी चाहिये  !

हे पार्थ तुम सीमा पर शहीद जवान की शव यात्रा में शामिल होकर देश भक्ति के नारे लगाओ  भला तुम्हें इससे क्या लेना देना कि यदि नेता जमात ने  सही निर्णय लिये होते तो जवान के शहीद होने के अवसर ही न आते !

हे पार्थ तुम देश बंद के आव्हान पर अपनी दूकान बन्द करके बंद को समर्थन दो.  अन्यथा तुम्हारी दूकान में तोड़फोड़ हो सकती है. तुम्हें इससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिये कि यह बन्द किसने और क्यों बुलाया ?

हे पार्थ तुम्हें सरदार पटेल. आजाद. सुभाष चन्द्र बोस. सावरकर. विवेकानन्द  या गोलवलकर जी वगैरह को पढ़ने समझने की भला क्या जरूरत तुम तो आज के मंत्री जी को पहचानो उनसे अपने ट्रांसफर करवाओ. सिफारिश करवाओ और लोकतंत्र की जय बोलो व प्रसन्न रहो !

हे पार्थ तुम्हें शाहीन रोड पर  धरना देने के लिए पार्टियों का प्रतिनिधित्व करने पर सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं तुम मजे से चाय पियो. अखबार पढ़ो. बहस करो. टीवी पर बहस सुनो. कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाओ.

हे पार्थ तुम्हें सच जानकार भला क्या मिलेगा ? तुम वही जानो जो तुम्हें बताया जा रहा है ! यह जानना तुम्हारा काम नही है कि जिसे चुनाव में पार्टी टिकिट मिली है उसका चाल चरित्र कैसा है. वह सब किसी पार्टी में हाई कमान ने टिकिट के लिए करोड़ो लेने से पहले. या किसी पार्टी ने वैचारिक मंथन कर पहले ही देख लिया होता है.

हे पार्थ वैसे भी तुम्हारे एक वोट से जीतने वाले नेता जी का ज्यादा कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं. सो तुम बिना अधिक संशय किये मतदान केंद्र में जाओ चार लगभग एक से चेहरों में से जिसे तुम देश का कम दुश्मन समझते हो उसे या जो तुम्हें अपनी जाति का अपने ज्यादा पास दिखता हो उसे अपना मत दे आओ, और जोर शोर से लोकतंत्र का त्यौहार मनाओ.

किसना अरजुन संवाद जारी था. पर मेरा नम्बर  आ गया और मैं अंगुली पर काला टीका लगवाने आगे बढ़ गया.

कुरुक्षेत्र में कृष्ण के अर्जुन को उपदेशों से गीता बन पड़ी थी. आज भी इससे कईयों के पेट पल रहे हैं. कोई गीता की व्याख्या कर रहा है. कोई समझ रहा है.  कोई समझा रहा है. कोई छापकर बेच रहा है. इसी से प्रेरित हो हमने भी अरजुन किसना संवाद लिख दिया है. इसी आशा से कि लोग कानो के मफलर खोल कर अपने कान देखने का कष्ट उठायें. और पोलिंग बूथ पर हुये इस संवाद के निहितार्थ समझ सकें तो समझ लें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆ हास परिहास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “हास परिहास। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆

☆ हास परिहास

मोबाइल को चार्ज पर लगा चैटिंग का आनन्द उठा ही रही थी तभी  अचानक से बैटरी लो का संकेत हुआ और जब तक मैं कुछ समझती मोबाइल एक मीठी सी आवाज़ के साथ ऑफ हो गया । अब तो एक  बेचारगी की स्थिति हो गयी , तभी ध्यान आया कि अपने पड़ोसी से मुलाक़ात की जाए जो फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते अरे भई  पत्रकार जो ठहरे कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ज्यादातर तो टी. व्ही. के सामने ही देखा जाता है उनको ।

फोन पर वे किसी को बड़े प्यार से समझा रहे थे, यह सर्वोत्तम है किन्तु अधिक व्यक्ति होने से एवं समय कम होने से ही बिना नाम के देने पड़े, भविष्य में नाम वाले  प्रतीक चिन्ह देंगे।

तभी फोन के दूसरी ओर से किसी ने कहा हमें इतनी खुशी न दें कि हम  बर्दाश्त ही न कर सकें , चेहरा तो फिर पीलिया से ग्रसित दिखने लगा पत्रकार महोदय का, मैंने धीरे से टोकते हुए कहा कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?

उन्होंने हाथ के इशारे से मौन रहने का संदेश दिया  सो मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी ।

फोन पर वार्तालाप को विराम देते  हुए उन्होंने कहा आप  दो चार कविता सुना ही दीजिए कुछ समस्याओं  का हल भी मिल जाएगा ।  फेसबुक में पढ़ा कि आपको कोई सम्मान मिला है, कोई अधिकारी बन  गयीं हैं आप ।

बुझे मन से मैंने कहा हाँ जब तक कोई शिरा न खींच दे , मणि तो आप सब हैं मैँ तो एक शिरा हूँ दूसरे शिरे पर लोग पदों  को छीनने के लिए लालायित बैठे हैं ।

मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा “ऐसे ही लोगों के लिए क्या खूब कहा गया है –

जब भगवान दे खाने को

       जाए कौन कमाने को

मैंने कहा भगवान से खजूर और ताड़ी याद आ गयी…..

अब खजूर पे मत चढ़ा देना मुझको । वो मिसेज शर्मा भी तो काव्य पाठ करतीं  हैं एक कार्यक्रम में देखा था, वहाँ तो बिल्ला लगाएँ थीं, मुझे देखा तो मुस्कुराकर  अभिवादन किया  मेरा,  वहाँ पर  काव्य पाठ वीर रस से शृंगार  रस तक  पहुँच गया, श्रोता भी गजब के थे, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा,  एक कवि की कल्पना तो देखिए उसने कहा ताड़ के नीचे खड़ा कर देंगे, ताड़ी का मजा मिलेगा ।

उन्होंने बात को बदलते हुए कहा आपकी बड़ी दीदी को संरक्षिका होना चाहिए काव्य सम्मेलन का ।  हम कब तक पुरानी यंग लेड़ी की वापसी का इन्तज़ार करेंगे,  बहुत ही सुस्त व भयंकर कामचोर हैं अभी तक डॉकूमेंट भी  नहीं भेजा चलिए कोई बात नहीं,  व्यंग्य लिखने हेतु टॉपिक ढूंढ रहे थे मिल गया पत्रकार महोदय ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । आप भी मेरे अखबार में जुड़ जाइए खूब काव्य रचनाएँ प्रकाशित होंगी ।

अपने दो चार व्यंग्य दे दीजिए, काव्यपाठ के बीच- बीच में हास परिहास के काम आएंगे जब श्रोताओं का मन भटका तो उनको रोकने के लिए सुना दिया  करेंगे , लोग भी कमाल के होते हैं कविता से  तो ऊब जाते हैं पर हास्य मिश्रित चुटकुले को सर आँखो पर लेते हैं अब कौन पूँछे कि अमा कविता सुनने को आए थे आप या यूं ही गम ग़लत करने को तशरीफ का टोकरा लेकर हाज़िर हो गए  ।

पत्रकार महोदय ने फिर बात बदलते हुए कहा किसी और को ढूंढ लीजिये वरना मेरा तो  …… मंत्र है ही ।

बने रहो पगला

काम करेगा अगला ।

अनुभवी लोगों का सूत्र है ये , अरे कुछ देर पहले ताड़ी की बात निकली थी आप कैसे जानती हैं ?

क्या आपके यहाँ निकाली जाती है ?

संभव तो नहीं है पर कहावतों के बिना कोई बात प्रभावी होती ही नहीं सो बीच – बीच में फिट कर देती हूँ मंद- मंद मुस्कुराते हुए कहा ।

चलो कुछ तो टाइम पास हुआ अब चलती हूँ मोबाइल भी चार्ज हो गया होगा ।

बहन जी तो अभी तक क्या सत्संग हो रहा था ।

अरे वो ताड़ी की बात याद आई हमारे इलाके में

बरसात में खूब बिकती है।

पढ़ती तो हमेशा थी आपका लिखा व्यंग्य पेपर में पर  अब देख रही हूँ बात- चीत में भी आप बख़ूबी कटाक्ष करते हैं ।

व्यंग्य माला निकल जायेगी, कहिए तो अपनी संस्था में बात करूँ मैंने कहा । शुभकामना पत्र पर , अलंकारिक भाषा में आप लिख लेना मेरी तरफ़ से , सिग्नेचर मैं कर दूंगी मुस्कुराते हुए मैंने कहा ।  चलते- चलते चंद पंक्तियाँ सुना ही देती हूँ , वो कहते हैं न जहाँ भी मौका मिले काव्यज्ञान देने से नहीं चूकना चाहिए…….

गीतिका जो कवि रचे , संगीत सँग मधुहास हो ।

नेह रंग  में   रंग सभी, करते  चलें  परिहास हो ।।

भावनाओं को समेटे,   मान  अरु  सम्मान  नित ।

वक्त  चाहें  कुछ  रहे,  छाया नवल उत्साह  हो ।।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 32 – श्रद्धा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  जीवन का कटु सत्य दर्शाती लघुकथा  “श्रद्धा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #32☆

☆ लघुकथा – श्रद्धा☆

“तू कहती थी न कि हमारा हरीश औरत का गुलाम है. वह बड़ा आदमी हो गया. अब हमारी सेवा क्या करेगा. पर तू देख. वह मेरे हार्टअटेक की खबर सुनते ही शीघ्र चला आया. उस ने मुझे अस्पताल में भरती कराया और यह मोबाइल दे दिया.” हरीश के बापू अपने बड़े बेटे की अपनत्व से अभिभूत थे.

मगर दूसरे ही क्षण उन का यह दिव्यस्वप्न मोबाइल पर आए दोस्त के फोन को सुन कर टूट गया, “अरे भाई हरीश ! अब तो सब बंटवारा हो गया होगा. जल्दी से यहाँ चले आओ. क्या बूढ़े को जिंदगी भर रोने का इरादा है. ”

पिता के हाथ से मोबाइल छूट कर दूर जा गिरा और बेटे के प्रति श्रद्धा की अर्थी उन की अंतिम साँस के साथ निकल गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 31 – गेली कित्येक वर्षे…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक हृदयस्पर्शी कविता  “गेली कित्येक वर्षे…!” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #31☆ 

☆ गेली कित्येक वर्षे…! ☆ 

 

शहरात गेल्यापासून

तुम्ही पार विसरून गेलात मला..,

आज इतक्या वर्षानंतर

तुम्ही मला घर म्हणत असाल की नाही

ठाऊक नाही…

पण मी अजूनही सांभांळून ठेवलंय..,

घराचं घरपण

तुम्ही जसं सोडून गेलात तसंच . . .

गेल्या कित्येक वर्षात

अनेक उन पावसाळ्यात

मी तग धरून उभा राहतोय

कसाबसा…. तुमच्या शिवाय…

रोज न चुकता

तुमच्या सर्वांचीआठवण येते …

पण खरं सांगू . . .

आता नाही सहन होत

हे ऊन वा-याचे घाव …

माझ्या छप्परांनीही आता

माझी साथ सोडायचा निर्णय घेतलाय…

माझा दरवाजा तर

तुमची वाट पाहून पाहून

कधीच माझा हात सोडून

निखळून पडलाय….!

माझ्या समोरच अंगण तुळशीवृंदावन

सगळंच कसं दिसेनास झालंय आता…

माझ्या भिंतीनी माझा श्वास

मोकळा करून देण्या आधी

एकदा तरी . . .  फक्त एकदा तरी ….

मला भेटायला याल अशी आशा आहे…!

तूमचं घर तुमची वाट पाहतय…!

गेली कित्येक वर्षे …. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 31 – माँ ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक कविता  माँ। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 31☆

☆ माँ ☆  

 

माँ ममता का महाकाव्य, माँ परम्परा है

माँ अनंत आकाश, धीर-गम्भीर धरा है।।

 

माँ मंदिर माँ मस्जिद, माँ गुरुद्वारा है

माँ गंगा-जमुना की शीतल धारा है,

माँ की नेह दृष्टि से, यह जग हरा भरा है……..

 

माँ रामायण माँ कुरान, माँ वेद ऋचायें

माँ बाइबिल, गुरुग्रंथ, विश्व में प्रेम जगाए,

माँ का स्नेहांचल, सागर से भी गहरा है……….

 

माँ चासनी शकर की, तड़का माँ जीरे का

भोजन की खुशबू माँ, माँ का मन हीरे का,

माँ करुणा की मूरत, निश्छल प्रेम भरा है……..

 

माँ के चरणों की रज, है माथे का चंदन

माँ जीवन के सुख समृद्धि का नंदनवन,

द्वार-देहरी बन , देती सबका पहरा है……….

 

माँ तो ब्रह्मस्वरूप, सृष्टि की है रचयिता

माँ ही है असीम शक्ति, माँ भगवद्गीता,

सारे तीर्थों का दर्शन, माँ का चेहरा है………..

 

जन्म दिया मां ने, असंख्य पीड़ाएँ सहकर

पाला-पोसा बड़ा किया, कष्टों में रह कर,

जो भी माँ ने किया, सभी कुछ खरा-खरा है….

 

माँ हमारी प्रार्थना है

और मंगल गीत है

व्यंजनों की थाल है माँ

माँ मधुर नव गीत है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दीवार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – दीवार  

 

दोनों बनाते-बढ़ाते रहे

साउंडप्रूफ दीवारें अपने बीच,

नटखट बालक-सा वाचाल मौन

कूदता-फांदता रहा

दीवार के दोनों ओर

दोनों के बीच..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(11.28 बजे, 19.1.2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 33 – मी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “मी.  सुश्री प्रभा जी की कविता अनुवंश एक विमर्श ही नहीं आत्मावलोकन भी है।  यह कृति सक्षम है  सुश्री प्रभा जी के व्यक्तित्व  की झलक पाने के लिए। यह गंभीर काव्य विमर्श है ।  और वे अनायास ही इस रचना के माध्यम से अपनी मौलिक रचनाओं एवं मौलिक कृतित्व  पर विमर्श करती हैं। अभिमान एवं स्वाभिमान में एक धागे सा अंतर होता है और  पूरी रचना में अभिमान कहीं नहीं झलकता । झलकती है तो मात्र कठिन परिश्रम, सम्पूर्ण मौलिकता और विरासत में मिले संस्कार ।  इस बेबाक रचना  के लिए बधाई की पात्र हैं। 

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 33 ☆

☆ मी ☆ 

 

मी नाही देवी अथवा

समई देवघरातली!

मला म्हणू ही नका

कुणी तसले काही बाही !

 

कुणा प्रख्यात कवयित्री सारखी

असेलही माझी केशरचना,

किंवा धारण केले असेल मी

एखाद्या ख्यातनाम कवयित्री चे नाव

पण हे केवळ योगायोगानेच !

मला नाही बनायचे

कुणाची प्रतिमा किंवा प्रतिकृती,

मी माझीच, माझ्याच सारखी!

 

एखाद्या हिंदी गाण्यात

असेलही माझी झलक,

किंवा इंग्रजी कवितेतली

असेन मी “लेझी मेरी” !

 

माझ्या पसारेदार घरात

राहातही असेन मी

बेशिस्तपणे,

किंवा माझ्या मर्जीप्रमाणे

मी करतही असेन,

झाडू पोछा, धुणीभांडी,

किंवा पडू ही देत असेन

अस्ताव्यस्त  !

कधी करतही असेन,

नेटकेपणाने पूजाअर्चा,

रेखितही असेन

दारात रांगोळी!

 

माझ्या संपूर्ण जगण्यावर

असते मोहर

माझ्याच नावाची !

मी नाही करत कधी कुणाची नक्कल

किंवा देत ही नाही

कधी कुणाच्या चुकांचे दाखले,

कारण

‘चुकणे हे मानवी आहे’

हे अंतिम सत्य मला मान्य!

म्हणूनच कुणी केली कुटाळी,

दिल्या शिव्या चार,

मी करतही नाही

त्याचा फार विचार!

 

कुणी म्हणावे मला

बेजबाबदार, बेशिस्त,

माझी नाही कुणावर भिस्त!

मी माणूसपण  जपणारी बाई

मी मानवजातीची,

मनुष्य वंशाची!

मला म्हणू नका देवी अथवा

समई देवघरातली!

मी नाही कुणाची यशोमय गाथा

मी एक मनस्वी,

मुक्तछंदातली कविता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print