(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – सेल्फ क्वारंटीन ☆
लॉकडाउन आरम्भ हुआ। पहले लगा, थोड़े समय की बात है। फिर पूर्णबंदी की अवधि बढ़ती गई। अनेकजन को लगता था कि यूँ समय कैसे कटेगा?
समय बीतता गया। कभी विचार किया कि इस समय को बिताने(!) में आभासी दुनिया का कितना बड़ा हाथ रहा! वॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टेलिग्राम पर कितना समय बीता। ब्लॉगिंग, मेलिंग और ऑनलाइन मीटिंग एपस् ने कितना समय लिया। फिर आभासी दुनिया से ऊब हो चली। जान लिया कि हरेक स्वमग्न है यहाँ। आभासी की खोखली वास्तविकता समझ आने लगी।
विडंबना यह है कि जिसे वास्तविक दुनिया समझते हो, वह भी ऐसी ही आभासी है।
सफलता, पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा, लाभ पाने की इच्छा, यही सब छिपा है इस आभास में भी। तुमसे थोड़ी मात्रा में भी लाभ मिल सकने की संभावना बनती है तो जमावड़ा है तुम्हारे इर्द-गिर्द। …और जमावड़े की आलोचना क्यों करते हो, ध्यान से देखो, तुम भी वहीं डटे हो जहाँ से कुछ पा सकते हो। तुम अलग नहीं हो। वह अलग नहीं है। मैं अलग नहीं हूँ। सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। सारे के सारे स्वमग्न!
मानसिक व्याधि है स्वमग्नता। है कोई कुछ नहीं पर सोचता है कि वह न हो तो जगत का क्या हो!
चलो प्रयोग करें। एक शब्द चलन में है इन दिनों,’क्वारंटीन’.., एकांतवास। कुछ दिन वास्तविक अर्थ में सेल्फ क्वारंटीन करो। विचार करो कि ऐसे कितने साथी हैं जो तन, मन, धन तीनों को खोकर भी तुम्हारा साथ दे सकेंगे? सिक्के को उलटकर अपना विश्लेषण भी इसी कसौटी पर कर लेना। सारे रिश्तों की पोल खुल जाएगी।
स्वमग्नता से बाहर आने का मार्ग दिखाया है आपदा ने। अभी भी समय है चेतने का। अपने यथार्थ को जानने-समझने का। आभासी से वास्तविक में लौटने का।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-3 ☆
अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की त्याग तपस्या सार्थक हुई, उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था। जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठाअभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आँखें।
इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबीसाबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी वर्गों का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।
इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों अंग्रेज सरकार द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे। वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाएँ । क्योंकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे। उन्हें लगता कि गांव ज्वार की गलियां, बड़े बुजुर्गो का प्यार, बच्चों की निष्कपट हँसी अपने मोह पाश में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों। इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।
आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने। शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने। महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने मेला अपने पूरे यौवन पर था। पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सौंधी सौंधी खुशबू जहाँ श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी तो कहीं बेर आदि मौसमी फलों से दुकानें पटी पड़ी थीऔर कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों ,मुर्गों, तीतर, बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मशगूल था। कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी। इन्ही सबके बीच मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।
उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग ही ऱंग बिखरा पड़ा था। महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल रही थी, निर्णायक मंडल के मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्योंकि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचासीन थे। प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर रहे थे।
ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन मुश्किल हो रहा था। एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन
ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की मधुर तान छेड़ी तो जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ित झंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया। उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ। पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले मंचासीन रामखेलावन से ही रघु काका की नजरें चार हुई थी,। लेकिन दो अपरिचितों की तरह रघु काका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी। उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे। पसीने से तर-बतर बतर हो गये। उन्हें डर था कि कहीं यह बूढ़ा मुझसे अपना रिश्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे। इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु शौच के बहाने रामखेलावन विद्यालय के पिछवाडे छुप आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का प्रयास कर रहे थे।
रघु काका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रतिउपजे अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे। थके थके पांवों बोझिल कदमों से मेले की तरफ़। दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखदायी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।
( श्री गणेश चतुर्थी पर्व के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की बचपन की यादों से परिपूर्ण कविता यहाँ यादें बचपन की। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆
☆ यहाँ यादें बचपन की ☆
आता है याद मुझको बचपन का घर वो प्यारा
अपनो के साथ मैने जीवन जहाँ गुजारा
खुशियों के साथ बीता जहॉ बालपन बिना भय
नहीं थी न कोई चिन्ता न ही कोई जय पराजय
घर वह कि पूर्वजो ने जिसे था कभी बनाया
जिसने मुझे बढ़ाया दे अपनी स्नेह छाया
आँगन था जिसका सुदंर औं बाग वह सुहाना
मैने जहाँ सुना नित चिड़ियों का चहचहाना
फूलों की छवि निरख खिंच तितलियाँ जहाँ आती
जो मेरे बालमन को बेहद रही लुभाती
जिनको पकड़ने गुपचुप हम बार बार जाते
पर कोशिशें भी कर कई उनको पकड़ न पाते
कैसा था मस्त मोहक बचपन का वह जमाना
कभी बेफिकर थिरकना कभी साथ मिल के गाना
कभी गिल्ली डण्डा गोली लट्टू कभी घुमाना
कभी छत पै चढ़ के चुपके ऊँचे पंतग उड़ाना
कभी साथियो के संग मिल कुछ पढना या पढाना
कभी घूमने को जाना या सायकिल चलाना
नजरों मे बसी हुई है माँ नर्मदा की धारा
सब घाट और मंदिर पावन हरा किनारा
स्कूल, क्लास, शिक्षक, बस्ती, गली बाजारें
पिताजी की शुभ सिखावन माँ की मधुर पुकारे
ताजी है अब भी मन मे सारी पुरानी बातें
खुशियों भरे मनोहर सुबह शाम दिन औं रातें
बदलाव ने समय के दुनियां बदल दी सारी
दुनियाँ के संग बदल गई सब जिंदगी हमारी
पर चित्त मे बसे है अब भी मधुर वे गाने
होकर भी जो पुराने नये से हैं क्यों न जाने
एकान्त में उभरता अब भी वो सौम्य सपना
जिससे अधिक सुहाना लगता न कोई अपना
ले आई खींच आगे बरसो समय की दूरी
लगता है मन की सारी इच्छाएं हुई न पूरी
आते हैं पर कभी क्या वे दिन जो बीत जाते
बस याद बन ही मन को रहते सदा रिझाते
जिनसे भरी रसीली सुखदायी शांति सारी
हर व्यक्ति के लिये है जीवन की निधि जो प्यारी
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं । उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆
☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆
फिल्म निर्देशक महबूब खान का जन्म 9 सितंबर, 1907 को गुजरात में स्थित तत्कालीन बड़ौदा रियासत के गंदेवी तालुक़ा के नज़दीक बिलिमोड़ा बस्ती में हुआ था. महबूब पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, लेकिन जीवन की पाठशाला में उन्होंने ऐसे नायाब सबक सीखे कि उनकी फिल्में तात्कालिक समाज का दर्पण और सदाबहार स्वस्थ मनोरंजन का पर्याय बन गईं। हमेशा कुछ नया करने की जिद ने उन्हें फिल्म निर्माण से जुड़े हर पक्ष पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि उनकी मदर इंडिया, अंदाज, अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, आन, अमर जैसी फिल्मों में एक कसावट नजर आती है।
अपनी अद्भुत कला के माध्यम से उन्होंने भारतीय सिनेमा का परिचय विदेश से करवाया. मदर इंडिया फिल्म को भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म ने ऑस्कर तक का सफर तय किया। फिल्म अवॉर्ड लेने में तो सफल नहीं रही मगर फिल्म ने भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती पूर्ण मापदंड तय करके निर्माताओं को नई दिशा जरूर दिखाई। निर्देशक महबूब खान ने 30 साल के करियर में कुल 24 फिल्मों का निर्देशन किया था, मदर इंडिया इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा में रही।
बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि महबूब खान को निर्देशक नहीं बल्कि एक एक्टर बनने का शौक था. 16 साल की उम्र में वे घर से भागकर एक्टिंग करने के लिए मुंबई आ गए थे। सिनेमा के रुपहले परदे से सम्मोहित मेह्बूब ने कम उम्र में ही बंबई की राह ले ली। अपने समय के अधिकतर फिल्मकारों की तरह महबूब ने भी विभिन्न स्टूडियो में संघर्ष कर फिल्म निर्माण की कला को समझा। मगर जब उनके पिता को इस बारे में पता चला वे महबूब को वापस घर ले आए। मेह्बूब जब 23 साल के हुए तब फ़िल्म उद्योग को घोड़े प्रदान करने का कारोबार करने वाले नूर अली मुहम्मद शिपरा, उनको घोड़े की नाल लगाने और घुड़साल की देखभाल के लिए बम्बई ले आए।
दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के निर्देशक चंद्रशेखर एक दिन घोड़ों को लेकर फ़ाइटिंग दृश्य फ़िल्मा रहे थे तब मेह्बूब उनकी सहायता करते हुए घोड़ों को सम्भाल रहे थे। उन्होंने फ़ुरसत के क्षणों में महबूब से फ़िल्मों में काम करने के बारे में पूछा तो महबूब ने रूचि दिखाई। उन्होंने नूर अली मुहम्मद शिपरा की अनुमति से महबूब को ले गए। एक दिन चंद्रशेखर फ़िल्म का निर्देशन कर रहे थे, महबूब ने साथ काम करने की इच्छा जताई जिस पर उन्हें डायरेक्टर की रजामंदी भी मिल गई। मगर भूमिका बहुत छोटी थी। इसके बाद धीरे-धीर उन्हें सपोर्टिंग रोल्स ही मिले।
ये बात मूक फ़िल्मों के दौर की है। जब भारत में पहली बोलती फिल्म आलम आरा बन रही थी तो फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने मुख्य भूमिका के लिए महबूब खान को ही लिया था मगर बात कुछ खास बनी नहीं। तमाम लोगों ने अर्देशिर को कहा कि पहली सवाक् फिल्म है, इसमें ज्यादा नए कलाकार को लेना ठीक नहीं है. इसके बाद फिल्म में विट्ठल ने वह भूमिका निभाई। उन्होंने पहले महबूब प्रडक्शन बनाया बाद में बांद्रा में महबूब स्टूडीओ स्थापित करके अनमोल घड़ी, औरत, अन्दाज़, आन और अमर फ़िल्मे बनाईं।
आन 1952 में बनी हिन्दी भाषा की फ़िल्म है। इस फ़िल्म में अन्य साथी कलाकारों के साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता दिलीप कुमार ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। उन दिनों भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म ‘आन’ की आउटडोर शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश और इसके आसपास के इलाकों में फ़िल्माया गया था। फ़िल्म सन 1949 में बननी शुरू हुई थी और सन 1952 में रिलीज़ हुई थी। इसमें नरसिंहगढ़ का क़िला, जलमंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाटी के हिस्सों में फ़िल्म के बड़े हिस्से को शूट किया गया था। फ़िल्म को देश के पहले शोमैन महबूब ख़ान ने बनाया था। जिनकी सन 1957 में रिलीज क्लासिक फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ विश्व सिनेमा के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। फ़िल्म में दिलीप कुमार, नादिरा, निम्मी, मुकरी, शीलाबाज, प्रेमनाथ, कुक्कू, मुराद ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं।
(सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “कोरोना अपने घर जाओ ना!”। )
(सुजित शिवाजी कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी श्री गणेश उत्सव के पर्व पर एक हृदयस्पर्शी कविता “सहवास…!”। आप प्रत्येक शनिवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। )
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं शब्द, तुम अर्थ । संभवतः जीवनसाथी के लिए “मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ” से बेहतर परिभाषा हो ही नहीं सकती। इस गंभीर विमर्श को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 59 ☆
☆ मैं शब्द, तुम अर्थ ☆
एक नन्ही सी परिभाषा है, जीवन साथी की ‘मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ,’ परंतु आधुनिक युग में यह कल्पनातीत है। आजकल तो जीवन-साथी की परिभाषा ही बदल गई है…’जब तक आप एक-दूसरे की आकांक्षाओं पर खरा उतरें; भावनात्मक संबंध बने रहें; मौज-मस्ती से रह सकें’ उचित है, अन्यथा संबंध-निर्वहन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जीवन खुशी व आनंद से जीने का नाम है, ढोने का नाम नहीं। सो! तुरंत संबंध-विच्छेद के लिए आगे बढ़ें क्योंकि ‘तू नहीं और सही’ का आजकल सर्वाधिक प्रचलन है।
प्राचीन काल में विवाह को पति-पत्नी का सात जन्मों तक चलने वाला संबंध स्वीकारा जाता था। परंतु आजकल इसके मायने ही नहीं रहे। वैसे तो आज की युवा-पीढ़ी विवाह रूपी संस्था को नकार कर, ‘लिव-इन’ में रहना अधिक पसंद करती है। जब तक मन चाहे साथ रहो और जब मन भर जाए, अलग हो जाओ। आजकल लोग भरपूर ज़िंदगी जीने में विश्वास रखते हैं। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ उनके जीवन का लक्ष्य है। चारवॉक दर्शन में उनकी आस्था है। वे प्रतिबंधों में जीना पसंद नहीं करते।
शब्द ब्रह्म है; सृष्टि का सार है। शब्द और अर्थ का शाश्वत व चिरंतन संबंध है, क्योंकि शब्द में ही उसका अर्थ निहित होता है। ‘मैं शब्द, तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ’ का जीवन में महत्व है। जिस प्रकार शब्द को अर्थ से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार पति-पत्नी को भी एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना बेमानी थी, जिसका प्रमाण प्राचीन काल में पत्नी का पति के साथ जौहर के रूप में देखा जाता था। परंतु समय के साथ सती-प्रथा का अंत हुआ, क्योंकि पत्नी को ज़िदा जला देना सामाजिक बुराई थी। परंतु समय ने तेज़ी से करवट ली और संबंधों के रूपाकार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे। वे अनचाहे संबंध- निर्वाह को कैंसर के रोग की भांति स्वीकारने लगे। जिस प्रकार एक अंग के कैंसर-पीड़ित होने पर, उसे शरीर से निकाल कर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार यदि जीवन-साथी से विचार-वैषम्य हो, तो उसे जीवन से निकाल बाहर कर देना कारग़र उपाय समझा जाता है। यदि जीवन-साथी से संबंध अच्छे नहीं हैं, तो उन संबंधों को ज़बरदस्ती निभाने की क्या आवश्यकता है? तुरंत संबंध-विच्छेद उसका सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम उपाय है; जिसका प्रमाण है… तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफा होना। पहले पति-पत्नी एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। एक के अभाव में अर्थात् न रहने पर दूसरे को जीवन निष्प्रयोजन अथवा निष्फल लगता था। परंतु आजकल यदि वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते। यदि उनमें विचार-वैषम्य है; वे तुरंत अलग हो जाते हैं।
आधुनिक युग में अहंनिष्ठ मानव आत्मविश्लेषण करना अर्थात् अपने अंतर्मन में झांकना व गुण-दोषों का विश्लेषण करना ही नहीं चाहता; स्वीकारने की उम्मीद रखना तो बहुत दूर की बात है। उसके हृदय में यह बात घर कर जाती है कि वह तो कोई ग़लती कर ही नहीं सकता तथा वह गुणों की खान है। सारे दोष तो दूसरे व्यक्ति अर्थात् सामने वाले में हैं। इसलिए उसे नहीं, प्रतिपक्ष को अपने भीतर सुधार लाने की आवश्यकता है। यदि वह समर्पण कर देता है, तो समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है अर्थात् यदि पत्नी-पति के अनुकूल आचरण करने लगती है; कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचने लगती है, तो दाम्पत्य संबंध सुचारू रूप से कायम रह सकता है, अन्यथा अंजाम आपके समक्ष है।
ज़िंदगी एक फिल्म की तरह है, जिसमें इंटरवल अर्थात् मध्यांतर नहीं होता; पता नहीं कब एंड अर्थात् समाप्त हो जाए। आजकल संबंध भी ऐसे ही हैं… कौन जानता है, कब अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना, जब विवाहोपरांत चंद घंटों में पति-पत्नी में संबंध- विच्छेद हो गया और पत्नी घर छोड़कर मायके चली गई। यदि आप कारण सुनेंगे, तो हैरान रह जाएंगे। प्रथम रात्रि को बार-बार फोन आने पर, पति का पत्नी से यह कहना कि ‘बहुत फोन आते हैं तुम्हारे’ और पत्नी का इसी बात पर तुनक कर पति से झगड़ा करना; उस पर संकीर्ण मानसिकता का आरोप लगा, सदैव के लिए उसे छोड़कर चले जाना … सोचने पर विवश करता है, ‘क्या वास्तव में संबंध कांच की भांति नाज़ुक नहीं हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते दरक़ जाते हैं?’ परंतु यहां तो निर्दोष पति को अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया गया। बरसों से महिलाएं यह सब सहन कर रही थीं। उन्हें कहां प्राप्त था…अपना पक्ष रखने का अधिकार? पत्नी को तो किसी भी पल जीवन से बे-दखल करने का अधिकार पति को प्राप्त था। महात्मा बुद्ध का यह कथन कि ‘संसार में जैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ इसलिए सबसे अच्छा व्यवहार कीजिए।
सो! आधुनिक युग में संविधान द्वारा महिलाओं को समानाधिकार प्राप्त हुए हैं, जो कागज़ की फाइलों में बंद हैं। परंतु कुछ महिलाएं इसका दुरुपयोग कर रही हैं, जिसका प्रमाण आप तलाक़ के बढ़ते मुकदमों को देखकर लगा सकते हैं। आजकल जीवन लघु फिल्मों की भांति होकर रह गया है, जिसमे मध्यांतर नहीं होता, सीधा अंत हो जाता है अर्थात् समझौते अथवा विकल्प की लेशमात्र भी संभावना नहीं होती।
कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं किस्मत ही बदल देते हैं। इसलिए अच्छे दोस्तों को संभाल कर रखना चाहिए। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारा पक्षधर होते हैं तथा ढाल बन कर खड़े रहते हैं। वे आप पर विश्वास करते हैं, कभी आपकी निंदा नहीं करते, न ही आपके विरुद्ध आक्षेप सुनते हैं, क्योंकि वे केवल आंखिन देखी पर विश्वास करते हैं।
चाणक्य का यह कथन ‘ रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिएं। परंतु जहां खबर न हो, निभाने भी नहीं चाहिए ‘ बहुत सार्थक संदेश देता है। वे संबंध-निर्वहन पर बल देते हुए कहते हैं कि संबंध-विच्छेद कारग़र नहीं है। परंतु जहां संबंधों की अहमियत व स्वीकार्यता ही न हो, उन्हें ढोने का क्या लाभ… उनसे मुक्ति पाना ही हितकर है। जहां ताल्लुक़ बोझ बन जाए, उसे तोड़ना अच्छा, क्योंकि वह आपको आकस्मिक आपदा में डाल सकता है। आजकल सहनशीलता तो मानव जीवन से नदारद है। कोई भी दूसरे की भावनाओं को अहमियत नहीं देना चाहता, केवल स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम समझता है। सो! समन्वय व सामंजस्यता की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जहां समझौता नहीं होगा, वहां साहचर्य व संबंध-निर्वहन कैसे संभव है? आजकल हमारा विश्वास भगवान पर रहा ही नहीं। ‘यदि भरोसा उस भगवान पर है, तो जो तक़दीर में लिखा है, वही पाओगे। यदि भरोसा खुद पर है, तो वही पाओगे, जो चाहोगे।’ आजकल मानव स्वयं को भगवान से भी ऊपर मानता है तथा मनचाहा पाना चाहता है। वह ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास कर आगे बढ़ता जाता है और जीवन में एक पल भी सुक़ून से नहीं गुज़ार पाता। सो! उसे सदैव निराशा का सामना करना पड़ता है।
असंतोष अहंनिष्ठ व्यक्ति के जीवन की पूंजी बन जाता है और भौतिक संपदा पाना वह अपने जीवन का लक्ष्य समझता है। धन से वह सुख-सुविधा की वस्तुएं तो खरीद सकता है, परंतु वे क्षणिक सुख प्रदान करती हैं। सब उसकी वाह-वाही करते हैं। परंतु वह आंतरिक सुख-शांति व सुकून से कोसों दूर रहता है। इसलिए मानव को शाश्वत संबंध-निर्वाह करने की शिक्षा दी गई है। अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! जीवन में दु:ख व चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार, निरंतर आगे बढ़िए। जीवन में पराजय को कभी न स्वीकारिए। साहस व धैर्य से उनका सामना कीजिए, क्योंकि समय ठहरता नहीं, निरंतर चलता रहता है। इसलिए आप भी निरंतर आगे बढ़ते रहिए। वैसे आजकल ‘रिश्ते पहाड़ियों की तरह खामोश हैं। जब तक न पुकारें, उधर से आवाज़ ही नहीं आती’ दर्शाता है कि रिश्तों में स्वार्थ के संबंध व्याप रहे हैं और अजनबीपन के अहसास के कारण चहुं ओर मौन व सन्नाटा बढ़ रहा है। इस संवेदनहीन समाज में ‘ मैं शब्द, तुम अर्थ ‘ की कल्पना करना बेमानी है, कल्पनातीत है, हास्यास्पद है।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि. )
☆ किसलय की कलम से # 12 ☆
☆ पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि ☆
मित्राणि धन धान्यानि, प्रजानां सम्मतानिव।
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी
जनसमुदाय में मित्र, धन, धान्य आदि का बहुत सम्मान है, लेकिन माँ एवं मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उच्च है। इसी तरह श्री राम लंका विजय के उपरांत लक्ष्मण जी के पूछने पर कहते हैं कि लक्ष्मण! लंका के स्वर्णनिर्मित होने के पश्चात भी मेरी इस में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा होता है। हमारी मातृभूमि अयोध्या तो तीनों लोकों से कहीं अधिक सुंदर है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं-
“ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’
महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, मंगल पांडे, आजाद, भगत, सुखदेव जैसे नाम मातृभूमि अर्थात राष्ट्रप्रेम के पर्याय बन चुके हैं। ‘पुष्प की अभिलाषा’ नामक अमर कविता के रचयिता राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी सहित असंख्य कवियों की लेखनी ने भी राष्ट्र को सर्वोच्च माना है।
संपूर्ण विश्व के जनसमुदाय की प्रतिबद्धता अपने-अपने देश के प्रति होती ही है। हम इजरायल की ही बात करें तो देशहित व देश की सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ के सभी महिला-पुरुषों को आर्मी का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है। हमारी सेना के जवानों का जज़्बा भी बेमिसाल है। प्रत्येक जवान देश के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने से पीछे नहीं हटता। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले जवानों ने जो हमारे दिलों में विश्वास स्थापित किया है, उसका ही परिणाम है कि हम और हमारा देश चैन की नींद सो पाता है। युगों-युगों से वर्तमान तक ऐसे असंख्य उदाहरण हैं। इजराइल जैसे देश तथा भारतीय सेना के जवानों की बात छोड़ दें तो अब न राम, कृष्ण का युग है, न राणा-लक्ष्मी-शिवा का समय और न ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों का जमाना। जनमानस में स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पर ही देश भक्ति और देश प्रेम की बातें होती हैं और लाउडस्पीकरों पर देश भक्ति के गाने कार्यक्रम आयोजक बजवाते हैं। आज कब शहीदों के बलिदान दिवस और जयन्तियाँ निकल जाती हैं, अधिकांश लोगों को पता ही नहीं चलता। शालाओं में भी औपचारिकताएँ ही बची हैं। जब विद्यार्थियों में ही राष्ट्रप्रेम के बीज नहीं बोये जाएँगे तब उनके दिलों में राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रप्रेम अंकुरित कैसे होगी। हम में से कोई अपनी संतान को नेता बनाना चाहता है, कोई इंजीनियर और कोई डॉक्टर। ज्यादा हुआ तो संतानों के लिए बड़े से उद्योग शुरू करा दिए जाते हैं। बात राष्ट्रभक्ति तक पहुँच ही नहीं पाती। वैसे आज राजनीति सबसे बड़ा व्यवसाय बन गया है। यदि आपके परिवार का कोई सदस्य अथवा आपका कोई आका राजनीति में है तो सब परेशानियों का हल चुटकी में हो जाता है। जब परेशानियाँ ही नहीं होंगी तो इंजीनियरिंग, डॉक्टरी और उद्योग निर्बाध तो चलेंगे ही। उद्योग-धंधे फलेंगे-फूलेंगे ही। सामान्य इंसान तन-मन-धन लगाने के बाद भी प्रायः सफल नहीं हो पाता और यदि सफल भी होता है तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, लेकिन नेताओं का तरह-तरह से बचा हुआ धन उन्हें बड़े से और बड़ा बना देता है। एक बार फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतारते भारत आए। भारतीय संसद को संबोधित करने के उपरांत उन्होंने कुछ सांसदों से पूछा कि आप क्या करते हैं? आपकी आय के क्या साधन है? उन्हें जब बताया गया कि राजनीति में रहते हुए भत्ते, वेतन और पेंशन ही उनकी आय के साधन हैं तब उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह पैसा तो जनता से टैक्स के रूप में लिया जाता है जो इन्हें यूँ ही दिया जा रहा है, जबकि उनके द्वारा बताया गया कि उनकी आय का प्रमुख साधन खेती है, वह सुबह 5:00 बजे से 9:00 बजे तक खेतों पर रहते हैं। उसके पश्चात 10:00 से देश के राष्ट्रपति वाले कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हैं। और ये हैं हमारे देश के नेताओं के आय के स्रोत, मानसिकता और उनकी दिनचर्या, जिनसे प्रायः सभी पतिचित हैं। कुछेक सांसद, विधायक मंत्री व जनप्रतिनिधियों को देशप्रेम, देशप्रगति व जनसेवा के सही मायने भी अच्छे से ज्ञात नहीं होंगे। राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रधर्म का निर्वहन करना उनकी प्राथमिकता होती ही नहीं। शासकीय नीतियों और अपने शीर्षस्थ नेताओं का समर्थन करना ही ये सबसे अच्छी राजनीति मानते हैं। यदि सारे नेताओं एवं सभी राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता देशहित को सर्वोपरि मानने की होती तो आज पाकिस्तान जब तब न अकड़ता। चीन हमारे ऊपर गिद्ध जैसा न मंडराता और न ही दोष देता। बांग्लादेश और नेपाल जैसे छोटे देश हमारे विरुद्ध न जाते। सबको पता है बंगाल, कर्नाटक और केरल की राजनीति। सब जानते हैं कट्टरपंथियों तथा वामपंथियों के कार्यकलापों को। यह भी सही है कि आज की सरकारें भी शतप्रतिशत सही नहीं होतीं। ये कोई लुकी-छिपी बातें नहीं हैं। सबकी अपनी ढपली और अपना राग है, जिसका फायदा हमेशा विदेशियों एवं हमारे दुश्मनों ने उठाया है और आज भी उठा रहे हैं। कैसी विडंबना है कि हम स्वदेशी उत्पादों की उपेक्षा और विदेशी उत्पादों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। वहीं हमने पढ़ा है कि जापानियों ने एक बार अपने देशी सेवफलों से मीठे, स्वादिष्ट और सस्ते अमेरिकन सेवफलों को केवल इसलिए नहीं खरीदा कि वे विदेशी थे। आज उनके देशप्रेम ने जापान को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। इसी तरह राष्ट्रहित में किये जाने वाले कार्य और योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए सभी के द्वारा सरकार को सहयोग किया गया होता तो आज ये हालात नहीं बनते। अधिकृत कश्मीर का मसला नहीं रहता, न ही चीन द्वारा हमारी जमीन पर कब्जे की बात होती। आज ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश व नेपाल जैसे पड़ोसियों के साथ हमारे दोस्ताना संबंध नहीं हैं। आखिर ऐसी क्या कमी है इस देश में, इस देश की सरकार में और विपक्षी दलों में, जो हमारे पड़ोसी देश हम से ही असहमत हैं। देश की सीमाओं पर शांति नहीं है, तनाव बना रहता है। कुछ शीर्षस्थ नेता हैं कुछ विपक्ष के लोग भी हैं जिन्हें देश की चिंता है, अमन-शांति की फिक्र है परंतु आग में घी डालने वालों की कमी नहीं है। काश! सभी भारतवासियों एवं जनप्रतियों में राष्ट्र के प्रति समर्पणभाव और आपसी एकता की सर्वोच्च प्रतिबद्धता होती तो विश्व का कोई भी देश हमारी ओर आँख उठाने का दुस्साहस नहीं करता। आज ऐसे उन सभी लोगों को समझना होगा कि उनकी छोटी अथवा बड़ी स्वार्थलिप्तता, देश के प्रति नकारात्मक सोच अथवा भ्रामक वक्तव्य हमारे देश को कमजोर बना सकते हैं। हमारे देश की एकता के लिए बाधक बन सकते हैं। वर्तमान में जब कोरोना जैसी महामारी से विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है। हम कोई भी कार्य सामान्य रूप से नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में चीन का आँखें तरेरना, पाकिस्तान की ओछी हरकतें और अब नेपाल द्वारा भारत विरोधी रवैया अपनाना हमारे लिए कठिन चुनौती बन गई है। आज समय है देशहित को सर्वोपरि सिद्ध करने का। हमें अपनी एकता दिखाने का। राजनीति तो जीवन भर की जा सकती है, लेकिन देश पर नजर गड़ाने वालों को आज करारा जवाब देना अत्यावश्यक हो गया है।
आज देश के कोई भी राजनीतिक दल हों, पक्ष अथवा विपक्ष हो, किसी भी विचारधारा के अनुगामी ही क्यों न हों, हमें असत्य व भ्रामक वक्तव्य तथा प्रचार से बचना होगा। हमें विश्व को बताना होगा कि हम भारतवासियों के लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है। इन सभी बातों को हवा-हवाई कतई नहीं लिया जाना चाहिए। अब यह सुनिश्चित करना हम, आप व देश के कर्णधारों का दायित्व बन गया है कि भले ही आपस में हमारे मतभेद हों लेकिन राष्ट्र की आन पर बगैर शर्त हम एक हैं। वर्तमान में आज यह महती आवश्यकता है कि हम पक्ष और विपक्ष के सभी एक सौ चालीस करोड़ देशवासी राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर देशप्रेम की ज्योति जलाने का संकल्प लें।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)