मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 45 – आजचं कथानक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनका एक समसामयिक संस्मरणात्मक  लघुकथा  “आजचं कथानक”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #45 ☆ 

☆ आजचं कथानक ☆ 

ह्या लाँकडाऊन मुळे काहीच कळत नाहीये…फक्त चालू आहे तो म्हणजे एकांताचा एकांताशी संवाद. तो ही निशब्द . . ! घरातल्या फुलांनीही आता उमलणं सोडलंय. पुन्हा पुन्हा तेच तेच फोन . . तेच तेच आवाज. .  तीच तीच चौकशी. .  काळजी घे . .  जपून रहा . . ऐकून ऐकून  घाबरायला होतय.  या सा-यात ना वेळेचं भान रहातं, ना दिवसाचं. . !

आज कोणती तारीख कोणता वार काहीच कळत नाही. माझे कान  मात्र सारखेच कुणाच्या तरी पावलाची चाहूल लागतेय की काय ह्या कडेच लागलेले असतात  आणि जेव्हा काहीच कळत नाही तेव्हा खिडकीच्या एका कोप-यात वही पेन घेऊन मी बसून राहतो तासन तास. . ! वेळेचं भान हरवून. .माझ्याच विचारात गर्क . . ! तसंही आत्ता  वेळ खूप आहे. …पण. . ह्या जगण्यात तोच तोच पणा इतका वाढलाय की, टेप रेकॉर्डरमध्ये कुणीतरी रोज सकाळी तीच तीच कँसेट पुन्हा पुन्हा लावतंय की काय असा भास होऊ लागलाय….! कसलाच संवाद नसतानाही संवाद जाणवू लागलाय. . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 49 – स्त्री ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक कल्पनाशील कविता “स्त्री “।  निःसंदेह सुश्री प्रभा जी  की कविता स्त्री मानसिकता पर आधारित है  और लिखने की आवश्यकता नहीं कि स्त्री मानसिकता पर स्त्री से बेहतर कौन लिख सकता है ? शेष भविष्य की परिकल्पना सार्थक एवं सजीव है । जैसे सब कुछ नेत्रों के सम्मुख घटित हो रहा है और भूतकाल में भी ऐसा होगा। अद्भुत परिकल्पना। सुश्री प्रभा जी की  परिकल्पना को लिपिबद्ध करती  हुई लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 49 ☆

☆ स्त्री ☆ 

 

किशोरवयात भावलेली

एक स्त्री..

दिसायला सर्व सामान्य,

पण खानदानी व्यक्तिमत्व!

हातात बांगड्या,

डोईवर पदर!

हाताखाली चार मोलकरणी!

सरंजामदारणीचा रूबाब सांभाळणा-या …..

आमच्या पवार काकी!

डोईवरचा पदर ढळू न देता…

आरामखुर्चीवर बसून सतत

वाचत  असायच्या किंवा

करत  असायच्या सूचना—

स्वयंपाकीणबाईला..

अनसूयाबाई ऽऽ हे करा….

घर स्वच्छ, नीटनेटक..

जिथल्यातिथे…

 

जगरहाटी प्रमाणे माझं ही,

झालं  लग्न …

हिरवा चुडा…डोईवर पदर..

रांधा वाढा …

गर्भारपण..

आईपण…….

….

घुसमट…

कविता….

संघर्ष…

 

नारीमुक्ती…

शिक्षणाचा विस्तार..

वाचन…संशोधन…लेखन..

कक्षा रूंदावणं…

कुणी विदुषी म्हणून संबोधणं !

घरातले पसारे पुस्तकांचे…कपड्यांचे…

 

काही गवसलेलं काही निसटलेलं…..

 

परवा विचारलं सहज कुणीतरी…

पुढच्या जन्मी काय व्हायला  आवडेल?

बोलून गेले सहज…

 

“मला सरंजामशाहीत जगायला  आवडेल….पण मुख्य सरंजामदारीण मी असले पाहिजे. ”

 

हे भूतकाळातलं स्वप्न की अधःपतन??

मी पूर्ण  अनभिज्ञ…

 

माझ्याच मानसिकतेशी !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण-1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज से  हम बापू के संस्मरण श्रृंखला  प्रारम्भ करने जा रहे हैं । आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – महात्मा गांधी और सरला देवी”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 27 – बापू के संस्मरण – 1 महात्मा गांधी और सरला देवी ☆ 

लन्दन में 1901 में जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे 1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और अपना नाम सरला देवी रखा। बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 से अल्मोडा में स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक अनासक्ति योग लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया। सरला देवी भी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को जब उन्हें रिहा किया गया तो वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनस पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी I मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है। लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया।  कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थेI साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली।  हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी।  हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी।  इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था।  बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे।  वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे। पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे। उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा। मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता। तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है। तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है।  इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी।   यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया। हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं, और  हम फिर दुबारा वही गलती नहीं करते।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी।  जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा।  पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆ कविता – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और  मौलिक कविता जैसा बोया  काटा कहते हैं……  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस कविता के माध्यम से  वयोवृद्ध पीढ़ी के प्रति  युवा पीढ़ी को अपनी धारणा  परिवर्तन हेतु प्रेरित करने का प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆

☆ कविता  – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆

 

लड़खड़ाती जिंदगी को थामकर तो देखिए

सूख गया सावन जो सींचकर तो देखिए

 

खीज भी उतारें न कठोरता रखे  नहीं

लाड़ प्यार  इनपर लुटाकर तो देखिए

 

ऊँगली पकड़ इनसे चलना है सीखा

काँधे पै दोनों हाथ धरा कर तो देखिए

 

बचपन, जवानी, बुढ़ापा अभी छा गया

तनिक मीठी  बात बोलकर तो देखिए

 

जैसा बोया  काटा कहते हैं  आप हम

खुशी पायें आप जुगत लगाकर तो  देखिए

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 47☆ महिमा काळाचा☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “महिमा काळाचा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 47 ☆

☆ महिमा काळाचा ☆

 

देह आहे कापराचा

म्हणे मालक जागेचा

जागा जागेवर आहे

धूर होतोय देहाचा

 

डाव हाती तुझ्या नाही

वागणे हे राजेशाही

डाव श्वासाने जिंकला

दिला झटका जोराचा

 

नको ऐश्वर्याचे सांगू

आणि मस्तीमध्ये वागू

येता वादळ क्षणाचे

होई पाला जीवनाचा

 

नाही कडी नाही टाळा

खग उडून जाईल

नाही भरोसा क्षणाचा

 

तुझे आसन ढळले

नाही तुलाही कळले

स्थान अढळ नसते

सारा महिमा काळाचा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 2 – कविता तुझी ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है।

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘कविता तुझी’ । साथ ही इस कविता का वरिष्ठ मराठी एवं हिंदी साहित्यकार  श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ जी  द्वारा हिंदी भावानुवाद कविता तुम्हारी’ भी आज के ही अंक में प्रकाशित कर रहे हैं ।

आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 2 ☆ 

☆ कविता तुझी  

ही कविता तुझी

तुझ्यासाठी

समोर कोसळणारा धुवांधार पाऊस

रुजवतो आहे

रोमरोमात पेरलेले

तुझे स्पर्श…

घरानं कधीचंच नकारलेलं मला

देऊळही नाही एखादं दृष्टीपथात

अथवा पडकीही धर्मशाळा

निळंभोर आकाश

दूर गेलय रुसून

माझ्यापासून

किरणाचा इवला ठिपकाही

नाही उबेला.

या दिशाहीन वाटचालीत

सोबतीला आहेत

तुझ्या अनेक आठवणी

आणि…आता…

त्यांच्या विस्कटलेल्या कविता

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 45 – लघुकथा – अदृश्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “अदृश्यअतिसुन्दर लघुकथा जिसके पीछे एक लम्बी कहानी दिखाई देती है जो वास्तव में अदृश्य है और पाठक को उसकी विवेचना स्वयं करनी होगी। इस लघुकथा की खूबसूरती यह है कि प्रत्येक पाठक की भिन्न विचारधारा के अनुरूप इस लघुकथा के पीछे विभिन्न कथाएं दिखाई देंगी जो उनकी  विभिन्न परिकल्पनाओं पर आधारित होंगी । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 45 ☆

☆ लघुकथा  – अदृश्य

प्रतिदिन की भांति दिव्या उठी। माँ से लाड प्यार कर ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी। फिर माँ के पूजन के बाद एक लिफाफे को निकाल प्रणाम कर, फिर पूजा के जगह पर रख देना प्रतिदिन का नियम था। कभी उसने लिफाफे को देखने के लिए जिद नहीं की, क्योंकि माँ ने मना कर रखी थी।

आज ना जाने क्यों वह बार-बार माँ से पूछने लगी- “माँ आखिर इस लिफाफे में क्या है? जो आप मुझसे बताना नहीं चाहती। मां ने रुधें गले से आवाज लगाई “दिव्या जैसे भगवान दिखाई नहीं देते और हमारी सभी चीजों को सही वक्त पर हमें देते हैं, ठीक उसी प्रकार यह वह अदृश्य रूप में ईश्वर है। जिनके कारण आज तुम मेरे पास सुरक्षित हो। नहीं तो पता नहीं क्या हो गया होता” और आंखों से आंसू बहने लगे। दिव्या बोली “माँ मुझे तो देखने दो।”

माँ ने आखिरकार छोटी सी तस्वीर को निकाल कर दिखा दी। जल्दी जल्दी तैयार होकर वह ऑफिस के लिए निकल गई क्योंकि जिस कंपनी में वह काम करती है। उसके बॉस की शादी की 25वीं सालगिरह है और आज वह पहली बार बाकी कर्मचारियों के साथ उन्हें देखेगी।

मन में बहुत उत्साह था। क्योंकि छोटे कर्मचारियों को बॉस किसी भी मीटिंग में या कार्यक्रम में शामिल नहीं करते थे। आज पहली बार दिव्या को बुलाया गया था। सजे हुए हॉल में जैसे ही दिव्य पहुंची। सभी बॉस को बधाइयां दे रहे थे। परंतु दिव्या दरवाजे के पास पहुंच कर ठिठक कर खड़ी हो गई। हाथ से फूलों का गुलदस्ता नीचे गिर गया। वो और कोई नहीं लिफाफे वाले अदृश्य ईश्वर है। फूलों का गुलदस्ता बॉस के चरणों में रख दिव्या बहुत खुश होकर माँ को बताने घर चल पड़ी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 1 ☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  ने हमारे आग्रह पर ई- अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  लिखना स्वीकार किया है जिसके लिए हम  आपके ह्रदय से आभारी हैं।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है उनका एक सार्थक व्यंग्य “डिझाईनर टोंटियों के दौर में ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #1 ☆

☆ डिझाईनर टोंटियों के दौर में

एक विनम्र सलाह है श्रीमान, जब कभी किसी नये बाथरूम में जाना पड़े तो टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा. एक छोटी सी भूल आपका करियर बर्बाद कर सकती है. उस दिन, एक बड़े होटल के कन्वेन्शन सेन्टर में ऑफिस की एक इम्पोर्टेन्ट मीटिंग  में चल रही थी.  बाथरूम जाना पड़ा.  हाथ धोने के लिये नल चलाया तो सर के ऊपर फव्वारा चल पड़ा. बंद करने के लिये नॉब दबाया तो साईड का मिस्टिक शॉवर चल पड़ा. तेजी से बंद करने की कोशिश में फव्वारा एक ओर से बंद होता तो दूसरी ओर खुल जाता. जो नॉब लेफ्ट में खुलती वो राईट में पानी फेंकती. जो राईट में खुलती वो सेंटर भिगो देती. आड़े, तिरछे, गोल, ऊपर, सामने से लहराते से फव्वारे को जब तक अपन पूरी तरह बंद कर पाते तब तक देर हो चुकी थी. अपन की जगह किसी हिंदी सिनेमा की नायिका होती तो जबरदस्त हिट सीन होता. अपन की फिलिम तो पिट चुकी थी. नेपथ्य से सुनायी दिया – भीगे कपड़े मीटिंग अटेंड करने नहीं देंगे और एमडी साब तुम्हें घर जाने नहीं देंगे शांतिबाबू. मुगलेआज़म की सलीम अनारकली टाईप मामला था. बहरहाल, मौका मुआईना कर बॉस ने ऐसी जगह ट्रान्सफर करने का मन बना लिया जहाँ डिब्बा लेकर दिशा मैदान जाना पड़ेगा और बाल्टी से पानी खेंच के कुएं की पाल पर नहाना पड़ेगा. नो टोंटी नो झंझट. उनका अभिमत स्पष्ट था, जो आदमी पानी की टोंटी सही से नहीं खोल सकता हो वो कम्पनी के परफोर्मेंस की टोंटी क्या खोल पायेगा.

ये खूबसूरत, आकर्षक, डिझाईनर मगर उलझनभरी टोंटियों का दौर है श्रीमान. टोंटियों के नये निज़ाम में जरूरत न केवल सही टोंटी पहचानने की है बल्कि उसे किस दिशा में खोलना है यह जानना भी जरूरी है. अपन तो अक्सर लेफ्ट में खोलकर खौलते पानी में हाथ जला बैठते हैं, अनुकूल पानी तो इन दिनों राईट साईड में बह रहा है. कैसे खोलना है – ये भी लाख टके सवाल का है. कभी अपन नॉब पुश करते हैं, कभी ऊपर करके देखते हैं, कभी लिफ्ट करके साईड में घुमाकर ट्राय करते हैं तो कभी टोंटी के अगले हिस्से को घुमाकर देखते हैं. तरह तरह के जतन करना पड़ते हैं तब जाकर खुल पाती है टोंटी. कभी कभी तो समझ ही नहीं पड़ता कि बाथरूम की दीवार में जो ठुकी है वो टोंटी है कि खूंटी. भूत सूनी हवेलियों में ही नहीं रहा करते हैं, नलों में भी रहते हैं. हाथ टोंटी के नीचे ले जाते हैं तो पानी चालू हो जाता,  हटाओ तो बंद. फिर चालू फिर बंद. टोंटी नहीं हुई पहेली हो गई श्रीमान. एअरपोर्ट के वाटरकूलर की टोंटी तो ऐसी उजबक् कि पानी पीने के लिये आपको गर्दन ऊँट से उधार लेनी पड़े. नल जहां से मुड़ता है वहां न मुंडी फंसा पाते हैं न अंजुरी ठीक से भर पाती है. टोंटी खुलेगी कहाँ से – जानने के लिये कूलर की परकम्मा करनी पड़ती है.

अपन तो जिंदगी में सही टोंटी पहली बार में कभी खोल ही नहीं पाये. हमारे दफ्तर में हैं कुछ सफल सहकर्मी. वे सही टोंटी पहचानते है, उसे किस दिशा में, कैसे और कितना खोलना है यह भी जानते हैं. जितने वे टोंटी खोलने की कला में पारंगत हैं उतने ही बंद करने में निपुण हैं. कौनसी टोंटी कब और कहाँ से बंद करना है, उनसे सीखे कोई.  वे जो टोंटी खोलते हैं उसमें से माल ही माल टपकता है. वे गीले नहीं होते, गच्च होते हैं. कभी कभी वे अपनी बचाने के फेर में दूसरों की टोंटी उखाड़ फैंकते है.  साले राजनीति में होते तो मोटी धार की टोंटियों से खेल कर रहे होते. जब तक खेलते तब तक खेलते, फिर   उखाड़ कर ले जाते.

बहरहाल, किस्से की नैतिक शिक्षा ये श्रीमान कि टोंटियों के साथ थोडा संभलकर बर्ताव कीजियेगा वरना वे ऐसा बर्ताव करेंगी कि आप न सूखे रह पायेंगे न सुखी.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 6 ☆ कॉलेज ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

( डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  जीवन के स्वर्णिम कॉलेज में गुजरे लम्हों पर आधारित एक  समसामयिक भावपूर्ण एवं सार्थक कविता  “कॉलेज”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 6 ☆

☆  कॉलेज ☆

हर क्षण, हर लम्हा याद आता हैं उस मधुर स्मृति का,

बन्द हो गये कपाट उस मधुर ज्योति के,

नित्य कालेज को जाना एक नये उल्लास स्फूर्ति से,

ह्रदय में उल्लास भरता, भानुमती सा,

ज्ञान ज्योति मिटाती, अन्धकार रति सा,

हर क्षण, हर लम्हा याद आता है उस मधुर स्मृति का।

 

घंटो बैठना आनंदमय मित्रों की गोष्ठी का,

वो बैठ जाना कॉलेज की कैंटीन में पंचवटी सा,

निहारते रहना हर फूल की आकृति को,

नयनों में संजोकर रखना उस छवि को,

घूमता रहता है हर क्षण, वह उल्लास मेरी मति का,

हर क्षण, हर लम्हा याद आता है उस मधुर स्मृति का।

 

वो मित्रों को छेड़ना, मनोरंजन अभिशाप सा,

नित्य नये वस्त्रों का पहनना नवग्रह निधिपति सा,

नये श्रृंगार करना और घण्टों निहारना मानो पूँजीपति सा,

वो रोज़ तफरी का आलम हर पल गति सा,

हर्ष उल्हास भरता स्फूति सा,

हर क्षण, हर लम्हा याद आता है उस मधुर स्मृति का।

 

वो निडर हो कर बोलना केन्द्र बिन्दु सा,

कल्पना करना हर पल स्वर्णमय भविष्य का,

मित्रों का आगे बढ़ना आत्मीयता सा,

एकरूपता से बढ़ना वो अधिक उपयुक्त समाज का,

हर क्षण, हर लम्हा याद आता हैं उस मधुर स्मृति का,

बन्द हो गया कपाट उस मधुर ज्योति का।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 48 ☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा’।  मल्लूभाई जैसे बहुत सारे चरित्र आपके आस पड़ोस में मिल जायेंगे, किन्तु ऐसे  सजीव चरित्र को हूबहू किसी रचना में उतारने क्षमता तो डॉ परिहार जी की  लेखनी में ही है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 48 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆

लॉकडाउन लगने पर मल्लूभाई दफ्तर से घर में ऐसे गिरे हैं जैसे पानी में से खींची गयी कोई मछली ज़मीन पर गिरती है। जिस दफ्तर में दिन के दस घंटे गुज़रते थे और जो घर से भी बड़ा घर बन गया था, उसके दर्शन को आँखें तरस गयीं। रोज़ शाम साढ़े पाँच बजे घर आते थे, फिर चाय वाय पीकर सात बजे दफ्तर के क्लब के लिए भागते थे। वहाँ दो घंटे दोस्तों के साथ मस्ती होती थी। कैरम, शतरंज के साथ चाय-पकौड़े के दौर चलते थे। इतवार को भी दो तीन घंटे के लिए दोस्त वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। दफ्तर में रोज़ हज़ार-पाँच सौ ऊपर के मिल जाते थे, जिसकी बदौलत बीवी-बच्चों पर रुतबा बना रहता था। अब वह रुतबा छीज रहा था।

अब मल्लूभाई बनयाइन-लुंगी पहने घर में मंडराते रहते हैं। हर खिड़की पर रुककर झाँकते हैं, फिर लंबी साँस खींचते हैं। इसके बाद आगे बढ़ जाते हैं। बाहर सड़कों पर सन्नाटा और वीरानी है। इधर उधर डंडाधारी पुलिसवालों के सिवा कोई नहीं दिखता।

मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘देखो, हर खराबी में कुछ अच्छाई होती है। अब हम फुरसत हैं तो घर के काम में आपकी मदद करेंगे। अभी आपका काम बढ़ गया है, हम मदद करेंगे तो आपको कुछ राहत मिलेगी। ‘

पत्नी उन्हें जानती है। जवाब देती है, ‘देखते हैं कितनी मदद करते हो।’

मल्लूभाई पहले साढ़े सात बजे उठ जाते थे, अब दस बजे तक नाक बजाते, मनहूसियत फैलाते, सोते रहते हैं। उनके आसपास  पत्नी काम करती रहती है, लेकिन उन्हें  कोई फर्क नहीं पड़ता।

उठ कर नहा धो कर दो घंटे पूजा में बैठते हैं। पत्नी कहती है, ‘पहले तो आधे घंटे में पूजा हो जाती थी, अब दो घंटे तक क्या करते हो?’

मल्लूभाई जवाब देते हैं, ‘पहले सिर्फ अपने परिवार के लिए प्रार्थना करता था, अब इस मुसीबत में पूरी दुनिया के लिए प्रार्थना करता हूँ। एक एक देश का नाम लेता हूँ। फिर अपने देश पर आकर एक एक राज्य का नाम लेता हूँ। इसके बाद अपने राज्य के एक एक ज़िले का नाम लेता हूँ। फिर अपने शहर में आकर एक एक मुहल्ले का नाम लेता हूँ, और फिर अपनी कॉलोनी के एक एक घर का नाम लेता हूँ। फिर अपने परिवार और आपके मायकेवालों के नाम लेता हूँ। मैंने सब की लिस्टें बना ली हैं। अब इतनी लम्बी पूजा में दो घंटे से कम क्या लगेंगे?’

पत्नी चुप हो जाती है। भोजन करते करते मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘आप से कहा था कि कुछ काम मेरे लिए छोड़ दिया करो। आप छोड़ोगी नहीं तो हम क्या करेंगे?’

पत्नी व्यंग्य से कहती हैं, ‘आपसे क्या कहें?आपके पास काम के लिए टाइम ही कहाँ होता है।’

मल्लूभाई शर्मीली हँसी हँस कर मौन साध लेते हैं।

शाम को पत्नी मल्लूभाई से कहती है, ‘ज़रा बाहर निकलकर देखो, कोई सब्ज़ीवाला दिखे तो सब्ज़ी ले आओ। आज कोई ठेलेवाला नहीं आया।’

मल्लूभाई आज्ञाकारी भाव से कपड़े बदलते हैं और थैला उठाकर बाहर निकल जाते हैं।

डेढ़ घंटा गुज़र जाता है, लेकिन सब्ज़ी लेने गये मल्लूभाई लौट कर नहीं आते। पत्नी घबरा जाती है। मन में कई दुश्चिंताएं उठती हैं। कहीं पुलिस ने तो नहीं बैठा लिया।

परेशान होकर फोन लगाती है। उधर से जवाब मिलता है, ‘अरे, सड़क पर कोई पुलिसवाला नहीं दिखा, सो टहलते हुए खरे साहब के यहाँ आ गया। कई दिनों से मिल नहीं पाया था। बस आई रहा हूँ।’

नौ बजे मल्लूभाई खाली थैला हिलाते हुए आ जाते हैं। सफाई देते हैं, ‘सब सब्ज़ी वाले इतनी जल्दी गायब हो गये। तुम चिन्ता न करो। सबेरे ठेले वाले आएंगे, नहीं तो मैं कल पक्का ला दूँगा। कल सबेरे जल्दी उठ जाऊँगा तो सब्ज़ी भी देख लूँगा और घर के कुछ काम भी निपटा दूँगा।’

सबेरे नौ बजे तक ठेले नहीं आये तो पत्नी ने मल्लूभाई को हिलाया,कहा, ‘अभी तक कोई ठेला नहीं आया। ज़रा उठकर बाहर देख लो।’

मल्लूभाई नींद में हाथ उठाकर बुदबुदाते हैं, ‘चिन्ता मत करो। मैं अब्भी उठ कर सब देख लूँगा। सब हो जाएगा। बस अब्भी उठता हूँ।’

इतना बोलकर वे करवट लेकर फिर अपनी सुख-निद्रा में डूब जाते हैं।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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