हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 14 ☆ कविता – समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 15 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

कामी को प्रिय नारि है,  धन लोभी का प्यार ।

हरि में जिसकी प्रीत है, उसका बेड़ा पार।।

 

धन की गतियाँ तीन हैं, दान, भोग औ नाश।

दान, भोग गति नीक है, अंतिम सत्यानाश।।

 

वही धन्य, धन धन्य है, जो जाए नित दान।

बुद्धि वही प्रिय धन्य है, हित चाहे कल्याण।।

 

दुख समझे वह संत है, हरि में जिसकी प्रीत।

जीवन उसका है सुफल, दान करे हित रीत।।

 

कंठ हार रिश्ते बनें, रखिए इन्हें सँभाल।

बोल तनिक बिगड़े नहीं, गाँठ पड़े तत्काल।

 

बात लगे हित की बुरी, करते हैं प्रतिकार।

ऐसे मानव हीन हैं, मूढ़,दीन, बेकार।।

 

साधु नहीं अब स्वादु हैं, करते अभिनय मस्त।

बने कुबेरा शूर सब, अपने में ही व्यस्त।।

 

धर्म जाति बदले यहाँ, बदले रीति रिवाज।

बढ़ी सोच,संकुल हुई, मन में पलते राज।।

 

महँगी चीजें बेचकर, बढ़ा रहे व्यापार।

बाबाजी गुण गा रहे, करें दिखाबी प्यार।।

 

अपनी गाते हैं कथा, अपने से ही प्यार।

अपने में ही आज सब, सिमट गया संसार।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “कुतर्क के तुर्क”।  इस बेहतरीन  समसामयिक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 35 ☆ 

☆ व्यंग्य – कुतर्क के तुर्क ☆

नेता जी अपने युवा पोते को सिखा रहे थे कि वर्तमान में वही बड़ा नेता है जो अपने तर्क या कुतर्क के जरिये खुद को जनता के सामने सही साबित कर अपने पीछे भीड़ खड़ी कर सके। विदेश से एम बी ए युवा नेता ने जो हाल ही विदेश से वापस लौटकर पिताजी की कास्टीट्युएंसी में कुछ कर के फटाफट अपना वर्चस्व बना लेना चाहता है, अमेरिका और गल्फ के चंद उदाहरण देते हुये कहा, आप सही कह रहे हैं दादा जी यह समय दुनियां भर में कुतर्को को स्थापित करने का समय  है।

मूलभूत नैसर्गिक न्याय को भुलाकर, संविधान की मूल भावना को किनारे रखकर अपने कुतर्क के पक्ष में ढ़ूंढ़ निकाली गई किसी पंक्ति या शब्दावली  की गलत सही व्याख्या कर देश में बेवजह बड़े बड़े आंदोलन खड़े किये जा रहे हैं। अल्लारख्खा और रामभरोसे दोनो ही तर्क कुतर्क के झूले में झूलने पर विवश हैं।

बिना संदर्भ समझे युवा तुर्क वाहवाही लूटने के लिये नासमझो के बीच गजल पढ़ रहे हैं। कापी कैट का जमाना है, चूंकि किसी आंदोलन में फलां शायर की फलां गजल पढ़ी जाती थी तो ये जनाब कैसे पीछे रह जाते, गूगल भाई का माइक दबा कर जितना याद हो वे लफ्ज ही तो बोलने हैं, लीजीये पूरी गजल हाजिर है, बिना जाने बूझे, पढ़ डालिये और तालियां बजवाईये, टी वी पर सुर्खियां बटोरिये। सुनने वाले भी कहां किसी से कम हैं, उन्हें  भी कुछ खास लफ्ज ही सुनाई पड़े और पूर्वागृह से लबरेज जहर उगलने में उन्होंने देर न की।  बेचारी गजल और कब्र में बंद शायर सोशल मीडिया पर ट्रेड करने लगा।

समाज का और देश का जो नुकसान कुछ कीमती संपत्ति जलाने से हुआ उससे कही बहुत अधिक नुकसान पीढ़ियों में स्थापित लोगों के बीच बने परस्पर सामंजस्य में खटास पैदा कर, निरर्थक ध्रुवीकरण से हो रहा है। आज की  ग्लोबल होती, इंटर डिपेंडेंट दुनियां में क्या यह संभव है कि अपने अपने घरों, जातियों के संकुचित दायरों में रहकर देश, समाज चल सके ? इस संकुचन का अंत कहां है ? क्या डबल बेड पर भी अपने अपने कंबलो में सिमटन ही नेतागिरी का अंतिम लक्ष्य है ?  नही, पर यह सही तर्क उस कुतर्क के सामने बहुत छोटा है, जिसमें एक वर्ग विशेष का छद्म घमण्ड छिपा है कि उनके बाबा के बाबा के बाबा तो यहां के बादशाह थे भले ही आज वे तांगे चला रहे हों, या फिर दूसरे वर्ग की वह पीड़ा जिसके चलते संग्रहालय में रखी ५०० साल पुरानी मूर्ति को तोड़ने के जुर्म की सजा यदि तब नही दी जा सकी तो आज तो वह दी ही जानी चाहिये भले ही अपराधियो के वंशजो को दी जाये।

दर्शनशास्त्र में तर्क‍ या आर्ग्यूमेंट्स  कथनों की ऐसी श्रंखला होती है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी तथ्य के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं।  गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक तकनीकी भाषा में भी लिखे जा सकते हैं। कम्प्यूटर की तो सारी गणना पद्धति ही तर्क अर्थात लाजिक पर ही आधारित है। एक बंद घड़ी भी कुतर्क की भाषा में पांच मिनट तेज चलने वाली घड़ी से बेहतर कही जा सकती है, क्योकि बंद घड़ी २४ घंटो में कम से कम दो बार तो बिल्कुल सही समय बताती है। अरस्तु वे पहले दार्शनिक थे जिन्होने कुतर्को को भी सूचीबद्ध किया था।तो एक गजलगो के नाते अपना तो यही तर्क है कि शब्दो के नही भावनाओ के सही निहितार्थ समझने की जरूरत है, सबको बड़े दिल से बड़े काम करने के लिये एक जुट होना चाहिये, नेतागिरी चमकाने के चक्कर में जनता को बरगलाने के कुतर्क आज नही तो कल पकड़े ही जायेंगे।

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 37 – बोझ  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बोझ  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #37 ☆

☆ लघुकथा – बोझ  ☆

 

“क्या हुआ था, हेड साहब ?”

“कोई ट्रक वाला टक्कर मार गया. बासाहब की टांग कट गई. लड़का मर गया.”

पुलिस वाले ने आगे बताया, ” इस के तीन मासूम बच्चे और अनपढ़ बीवी है.”

सुनते ही मोहन दहाड़ मार कर रो पड़ा,” भैया ! कहाँ चले गए. मुझ गरीब बेसहारा के भरोसे अपाहिज बाप, बेसहारा बच्चे और अपनी बीवी को छोड़ कर. अब मैं इन्हें कैसे संभालूँगा.”

और वह इस मानसिक बोझ के तले दब कर बेहोश हो गया .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆ पुनरागमन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “पुनरागमन।  यह सत्य ही है कि पुराना इतिहास  एक कालखंड के पश्चात दोहराया जाता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 7 ☆

☆ पुनरागमन

आगमन, पुनरागमन की प्रक्रिया कोई नयी नहीं है।  जीवन की हर गतिविधियाँ 20 साल बाद दोहरायी जाती हैं। जैसे फैशन को ही लें आजकल जो कपड़ों का चलन बढ़ रहा है वो सब पुराने इतिहास को ही दुहरा रहा है बस हमारा देखने का नज़रिया बदल गया है और उस पहनावे को आधुनिक मान लेते हैं। यही चीज खान पान के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है। पुराने समय में भी इनोवेशन होते थे जिसके फलस्वरूप नयी – नयी वैरायटी स्वाद की श्रंखलाओं से निरंतर जुड़ती जा रही है।  आजकल हर वस्तुएँ ऑन लाइन  बुलायी जा रहीं हैं। ये भी कोई अजूबा नहीं है। लाइन में तो हम सब बरसों से लग रहे हैं। कभी राशन के लिए तो कभी यात्रा के टिकट हेतु, कभी चुनावी टिकट हेतु, बिजली के बिल जमा हेतु, बैंक में खाता ऑपरेट करने हेतु । ऐसे ही न जाने कितने कार्य हैं जहाँ लम्बी लाइन लगती है। सो बदलते परिवेश में आधुनिकीकरण हो गया और ऑन लाइन की परंपरा आ बैठी।  मन पसन्द भोजन,  कपड़े, दैनिक उपयोग की वस्तुएँ, रोजमर्रा की सभी वस्तुएँ मिलने लग गयी हैं।

अरे भई चाँद और मंगल पर भी तो बसेरा करना है कहाँ तक लाइनों में समय व्यर्थ करें अब तो हवा में उड़ने का समय आ गया है। वैसे भी मन की उड़ान सदियों से सबसे तेज रही है। बस कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और चल पड़िये जहाँ जी चाहे। वैज्ञानिकों ने भी सतत परिवर्तन को स्वीकार किया है। साथ ही ये भी माना है कि गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाते हैं सो फैशन भी आता – जाता रहता नये- नये संशोधनों के साथ। संशोधन की बात पर तो संविधान संशोधन की बात याद आ गयी जिसका समय – समय पर मूल्यांकन होता रहता है  जो होना भी चाहिए क्योंकि लोग बदल रहे हैं कब तक पुराना चलेगा। नयी विचारधारा का स्वागत करना चाहिए।   तभी तो आगमन- पुनरागमन का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 35 – पुस्तक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “पुस्तक ”)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #35☆ 

☆ पुस्तक ☆ 

पुस्तकांच्या

दुकानात

गेल्यावर

मला

ऐकू येतात..;

पुस्तकात

मिटलेल्या

असंख्य

माणसांचे

हुंदके.. ;

आणि.. . . .

दिसतात

पुस्तकांच्या

मुखपृष्ठावर

ओघळलेले

आसवांचे

काही थेंब…!

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 36 – मछलियों को कायदे से…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक विचारणीय कविता  “मछलियों को कायदे से….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 36 ☆

☆ मछलियों को कायदे से…. ☆  

 

आजकल वे सेमीनारों में

हुनर दिखला रहे हैं

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।

 

अकर्मण्य उछाल भरते मेंढकों से

‘जम्प’ कैसे लें, इसे सब जान लें

और कछुओं से रहें अंतर्मुखी तो

आहटें खतरों की तब पहचान लें।

मगरमच्छ नृशंष,

लक्षित प्राणियों को मार कर

हर्षित हृदय से निडर हो

जो खा रहे हैं। मछलियों को कायदे………

 

वे सतह पर अंगवश्त्रों से सुसज्जित

किंतु गहरे में रहे बिन आवरण है

वे बगूलों से, सफेदी  में  छिपाए

कालिखें, कल्मष, कुटेवी आचरण है।

साधनों के बीच में

लेकर हिलोरें झूमते वे

साधना औ’ सादगी के

भक्ति गान सुना रहे है। मछलियों को कायदे………..

 

कर रहे हैं मंत्रणा मक्कार मिलकर

हवा, पानी, पेड़-पौधे, खेत, फसलें

हों नियंत्रण में, सभी इनके रहम पर

बेबसी, लाचारियों से ग्रसित नस्लें।

योजनाएं योजनों हैं दूर

अंतिम आदमी से

चोर अब आयोजनों में

नीतिशास्त्र  पढ़ा रहे हैं।

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 38 – अनुभव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “*अनुभव*.  सुश्री प्रभा जी की  यह  कविता हमें स्त्री विमर्श से जोड़ती है। निःसंदेह प्रत्येक स्त्री पुरुष का स्वभाव उनकी वैचारिकता को दर्शाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  संभवतः इस कविता में कहीं न कहीं कवियित्री का अनुभव अपने आप लेखनी के माध्यम से  हृदय से कागज़ पर उतर आता है। इस अतिसुन्दर कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 38 ☆

☆ अनुभव  ☆ 

 

आपण वेगळे आहोत इतरांपेक्षा,

हे जाणवले तिला—

त्या सा-याजणीं च्या

घोळक्यात!

 

नवीन  घरात रहायला गेल्यावर

समवयस्क बायकांशी

गप्पा मारायला गेली होती ती,

सोसायटीच्या बागेत!

 

उद्या वटपौर्णिमा आहे…

“कुठे जाणार वडाची पूजा करायला?”

“मी फांदी आणणार आहे.”

अशा  आणि या सारख्याच…

पारंपरिक वळणाच्या…..

गप्पा मधे ती नाही

रमत….

गेली कित्येक वर्षे!

त्या पेक्षा ऐकावी

एकांतात रफी ची जुनी गाणी

लता… आशा…गीता दत्त..

चे तलम रेशमी स्वर..

घ्यावेत लपेटून मनावर…

बाल्कनीत ल्या झोक्यावर बसून

वाचावी गौरी देशपांडे….

सानिया…

अंबिका सरकार…

ईरावती कर्वेंची जुनी संग्रहित

पुस्तके…पुनःपुन्हा!

 

एवढे संपन्न  अनुभव पाठीशी

असताना—

कुठल्याही पठडीत नाही बसवता येत स्वतःला!

आयुष्याची सांज कातर होते…

 

जे हवे  असते ते हरवत जाते….

इथे तिथे….

 

हा ही एक  अनुभवच ….

वेगळेपण जपण्याचा!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 17– महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन?

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन

महात्मा गांधी  अफ्रीका को हमेशा के लिए अलविदा कर लंदन पहुँचे जहाँ उन्हे अफ्रीका में बसे भारतीयों की सेवा करने के लिए वायसराय लार्ड हर्डिंग ने 6 अगस्त 1914 को ”कैसरे हिन्द” के  तमगे से बिभूषित किया। लंदन से गांधीजी समुद्री जहाज से लंबी यात्रा कर 13 जनवरी 1915 को बम्बई पहुँचे। अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में वे लिखते है – “कुछ दिनों में हम बम्बई पहुँचे।जिस देश में सन 1905 में वापस आने की आशा रखता था, उसमें दस बरस बाद तो वापस आ सका, यह सोचकर मुझे बहुत आन्नद हुआ। बम्बई में गोखले ने स्वागत- सम्मेलन आदि की व्यवस्था कर ही रखी थी। उनका स्वास्थ्य नाजुक था; फिर भी वे बम्बई आ पहुँचे थे। मैं इस उमंग के साथ बम्बई पहुँचा था कि उनसे मिलकर और अपने को उनके जीवन में समाकर मैं अपना भार उतार डालूंगा। किन्तु विधाता ने कुछ दूसरी ही रचना कर रखी थी।…. मेरे बम्बई पहुँचते ही गोखले ने मुझे खबर दी थी : “गवर्नर आपसे मिलना चाहते हैं। इसलिए मैं उनसे मिलने गया। साधारण बातचीत के बाद उन्होने कहा :

“मैं आपसे एक वचन माँगता हूँ । मैं चाहता हूँ कि सरकार के बारे में आप कोई भी कदम उठाएँ, उससे पहले मुझसे मिल कर बात कर लिया करें।“

मैंने जबाब दिया: “ यह वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है। क्योंकि सत्याग्रही के नाते मेरा यह नियम ही है कि किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना हो, तो पहले उसका दृष्टिकोण उसीसे समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनुकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मैं मैंने सदैव इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी वैसा ही करने वाला हूँ।

लार्ड विलिंग्डन ने आभार माना और कहा: “आप जब मिलना चाहेंगे, मुझसे तुरंत मिल सकेंगे और आप देखेंगे कि सरकार जान-बूझकर कोई बुरा काम नहीं करना चाहती।“

मैंने जबाब दिया : “यह विश्वास ही तो  मेरा सहारा है।“

इसके बाद गांधीजी ने  गोखलेजी से गुजरात में आश्रम खोल वहाँ बसने व सार्वजनिक कार्य करने की इच्छा बताई। गोखलेजी  ने  उन्हे आश्रम खोलने के लिए उनके पास से धन लेने का आग्रह किया और गोखलेजी की  सलाह पर गांधीजी एक वर्ष तक रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में बैठ भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे। इसी बीच 25 मई 1915 को अहमदाबाद के  पास कोचरब में साबरमती नदी के तट पर पचीस लोगों के रहने के लिए सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। और इसी के साथ गांधीजी का भारत में सार्वजनिक जीवन प्रारंभ हो गया।

भारत में गांधीजी के सार्वजनिक जीवन में उनकी चम्पारन यात्रा का विशिष्ट स्थान है। वे सत्य के प्रयोग में लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस  में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई जिसके फलस्वरूप गांधीजी के परामर्श पर बृजकिशोर बाबू काँग्रेस में चम्पारन के बारे में बोले और एक सहानुभूति सूचक प्रस्ताव पास हुआ। 15 अप्रैल 1917 को जब मोहनदास करमचंद गांधी चम्पारन पंहुचे तब वहाँ के किसानों का जीवन गुलामी से भरा हुआ था। गोरे अंग्रेज उन्हे नील  की खेती के लिए विवश कर शोषण करते थे। गांधीजी के सत्याग्रह  आंदोलन के फलस्वरूप तीन कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ती मिली, देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे लगनशील नेता मिले।

चम्पारन में ,जो राजा जनक की भूमि है व गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा है, गांधीजी ने लोगों की दुर्दशा करीब से देखी और महसूस किया कि गाँव में शिक्ष का प्रवेश होना चाहिए। अत: उन्होने प्रारंभ में छह गाँव में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं – “ प्राय: प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा और सफाई के काम करने थे। स्त्रियों की मार्फत स्त्री- समाज में प्रवेश करना था। साफ सफाई का काम कठिन था। लोग गंदगी दूर करने को तैयार नही थे। जो लोग रोज खेतों की मजदूरी करते थे, वे भी अपने हाथ से मैला साफ करने के लिए तैयार ना थे। मुझे याद है कि सफाई की बात सुनकर कुछ जगहों में लोगों ने अपनी नाराजी भी प्रकट की थी।“

चम्पारन में प्रवास के दौरान गांधीजी को अनेक अनुभव हुये। ऐसे ही एक अनुभव का वर्णन करते हुये वे लिखते हैं – “ इन अनुभवों में से एक जिसका वर्णन मैंने स्त्रियों की कई सभाओं में किया है, यहाँ  देना अनुचित न होगा। भीतिहरवा एक छोटा सा गाँव था। उसके पास उससे भी छोटा एक गाँव था। वहाँ कुछ बहनों के कपड़े बहुत मैले दिखाई दिये। इन बहनों को कपड़े बदलने के बारे में समझाने के लिए मैंने कस्तूरबाई से कहा। उसने उन बहनों से बात की। उनमे से एक बहन कस्तूरबाई को अपनी झोपड़ी में ले गई और बोली ‘ आप देखिए, यहाँ कोई पेटी या अलमारी नहीं कि जिसमे कपड़े बंद हों। मेरे पास यही एक साड़ी है, जो मैंने पहन रखी है।  इसे मैं कैसे धो सकती हूँ? महात्माजी से कहिए कि वे कपड़े दिलवाए। उस दशा में मैं रोज नहाने और कपड़े बदलने को तैयार रहूँगी।‘ हिन्दुस्तान में ऐसे झोपड़े अपवाद स्वरूप नहीं हैं। असंख्य झोपड़ों में साज-सामान, सन्दूक-पेटी, कपड़े-लत्ते कुछ नही होते और असंख्य लोग केवल पहने हुये कपड़ों पर ही निर्वाह करते हैं।“

शायद यही वह घटना है जिसने गांधीजी से उनके वस्त्र व काठियावाड़ी पगड़ी छीन ली और वे हमारे देश के असंख्य गरीबों के लिए लंगोटी वाले बाबा बन गए, मसीहा बन गए, जन जन में पूज्यनीय हो गए। आज भी उन जैसा दूसरा व्यक्तित्व देश में पैदा नाही हुआ।

रियासतकालीन बुंदेलखंड में भी किसान मजदूर पीढ़ित व शोषित थे। इन शोषणों के विरुद्ध समय समय पर चरणपादुका जैसे अनेक अहिंसक आंदोलन  हुये जिनकी प्रेरणा गांधीजी के चम्पारन सत्याग्रह से ही मिली।स्थानीय नेतृत्व को पनपने दिया गया, जन सैलाब को तैयार किया गया, मध्यस्तता की संभावनाएँ खोजी गई,  किसानों ले लाठियाँ व गोलियाँ खाई, बातचीत के दरवाजे खुले रखे गए, समस्याओं के समाधान की ईमानदारी से कोशिश की गई  और  अंततः किसानो को काफी हद तक शोषण  से मुक्ती मिली। आज पुनः किसान परेशान है, समस्याओं से घिरा है,पहले दो जून की रोटी की आस में  आसमान पर घुमड़ते बादलों को देखता था अब सूखते तालाबों, सिकुडती नदियों, घटते  जल स्तर से परेशान है, पहले उसे चिंता थी खाद कैसे मिले अब परेशान है खाद के अधिक प्रयोग से बंजर होते खेत से, पहले लगान चुकाने में असमर्थ था अब बैंकों का कर्ज नहीं चुका पा रहा है। मैं सोचता हूँ क्या इन समस्याओं का कोई निदान है, क्या मात्र ऋणमाफ़ी से किसान खुशहाल हो जाएगा। हमने किसानो को बैंकों से दिये जाने वाले कर्ज को पाँच साल मे  दुगुना कर दिया और उसके दुष्परिणाम भी आत्महत्या के रूप मैं देख रहे हैं। पहले तो ऐसा नहीं सुनने मैं आता था। मुंशी प्रेमचन्द जैसे ग्रामीण परिवेश के साहित्यकारों ने भी कहानियों में दुखों की चर्चा का अंत कभी आत्महत्या से नहीं किया। आज  जबकि  हमारे पास कृषि विशेषज्ञों की फौज है, अनेक कृषि विश्वविद्यालय है, उन्नत तकनीक है तब भी हम  किसानों को  समस्याओं से निजात नहीं दिला पा रहें है। मुझे लगता है हमे एक बार फिर 15 अप्रैल 1917 की ओर मुड़कर देखना होगा, जब मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण पंहुचे थे, शायद उन्ही के तरीके से किसानों की खुशहाली का कोई नया  उपाय निकल कर सामने आए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – वाह री परंपरा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “वाह री परम्परा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज  की एक ऐसी प्रथा  के परिणाम और दुष्परिणाम पर विस्तृत दृष्टि डालती है जिस पर अक्सर लोग सब कुछ जानते हुए भी विवाद में न पड़ते  हुए कि  लोग क्या कहेंगे सोच कर निभाते हैं , तो  कुछ लोग दिखावे मात्र के लिए निभाते हैं ताकि लोग  उनका  उदहारण  दे।   समाज की परम्पराओं पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता  है ।

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 14 ☆

☆ लघुकथा – वाह री परम्परा ☆

 एक  करीबी रिश्तेदार की मौत हो जाने  पर तेरह दिनों मे कम से कम सात दिन समय निकाल कर आना जाना पड़ा।  गाँव का मामला था।  सभी धनाढ्य सम्पूर्ण थे।  जब भी हम जाते तभी चूल्हे पर परिवार की लड़कियाँ गैस जमीन पर रख गरमी सह कर ढेर सारा भोजन बनाती दिखती। उन्हें दोपहर में ही कुछ घंटे मिलते। उसमे वे बेटियाँ अपनी कंघी चोटी करती। खारी के बाद से दिन होने तक साफ सफाई के बाद से यह प़किया चल पड़ती। आने वाले से भेंट करना दुख प़कट करना यहां का रिवाज  है।

गंगा जी जाना। फिर हिन्दू पध्दति से पूजन करना आवश्यक होता है। प़तिदिन  सैकड़ो आदमियों का खाना होता।

ताज्जुब हमें तब हुआ जब हमने तेरहवी के दिन सुबह पूजन के बाद ब़ाम्हणो का भोज बिदाई कार्यक्रम देखा।

और फिर नाते रिश्तेदार  सभी ने तेरहवीं का खाना खाया खाया। करीब रात के आठ बजे तक पूरा का पूरा गाँव भोजन कर चुका था और भोजन के बाद बाहर आते ही भोजन की बढ़ाई या बुराई शुरु। ये पुरानी परम्पराओं का क्या कहीँ विराम नहीं? एक तो घर का प्राणी चला जाये और उस पर यदि उसके पास पैसा नहीं तो कर्जा कर आयोजन करवाना और झूठी शान पर जिन्दा रहना कब तक चलेगा?

जाने वाला तो चला गया पर उसके साथ और थोड़ा बहुत जीवन बसर का पैसा धेला बचा वह भी समाज के ठेकेदारों ने नोच खाया. कब बदलाव आयेगा? हम कब समझेंगे पता नहीं?

अगर किसी रोगी या बहन-बेटी या किसी बुजुर्ग की सेवा के लिये यह अधिक लगने वाला पैसा उपयोग में आ जाता तो जीवन जीने लायक और भविष्य को निर्मित कर देता पर  यह नहीं है।

बस दिखावा और रूढिवाद का बोलवाला।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28 ☆ कुमाऊं ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “कुमाऊं”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28☆

☆ कुमाऊं

जुलाई में जब बादल फूटा था-

हर तरफ बेबसी का आलम था,

एहसास पानी के आवेग में डूब रहे थे,

भावों का नाम-ओ-निशाँ नहीं था,

ख्वाहिशें लाश की तरह टपक रही थीं|

 

कुछ महीनों बाद

बेबसी को सब भूल चुके थे,

एहसास फिर उभर आये थे,

और ख्वाहिशों का भी जनम हो चुका था-

हर तरफ ख़ुशी झरनों सी फूट रही थी!

 

ऐसा लगता था जैसे सब

भूल चुके हैं

जुलाई की वो शाम,

पर जिसने देखा था उसे

या जिसने महसूस किया था उसे,

उसका दिल पथरा चुका था

और शायद आंसू भी सूख चुके थे-

एक अजब सी खामोशी थी

जो हौले हौले उसे बनाती जा रही थी

जीती-जागती लाश!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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