हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 17 – दोहन ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  मानव  द्वारा पर्यावरण के दोहन पर उनकी एक  सार्थक  रचना दोहन . आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 17  – विशाखा की नज़र से

☆ दोहन ☆

 

कभी धरती एक कुआँ

इसमें से निकाले हमने अमूल्य रत्न ,

तेल, पानी, कोयला

और ना जाने क्या -क्या ।

कभी धरती हुई सपाट,

रोपी हमने मनचाही फसलें

उजाड़ कर उसका सौन्दर्य ।

 

कभी धरती हुई ढलान,

बही वहाँ अमृत की धारा

कल -कल -कल ,

रोका हमनें उसे बना बाँध,

उन्मुक्त को किया बंधक ।

 

कभी धरती हुई पहाड़ ,

वहाँ भी चढ़कर जड़े हमनें स्वाभिमान के झंडे ,

कुरेदा उसका अस्तित्व

किया वहाँ भी निर्माण ।

 

धरती ने अपने रूप बदले

पर ना बदला इंसान ,

तब धरती में हुआ हाहाकार , मचा भूचाल

तो ताका हमने आसमाँ ,

वो भी कांपा हमारे इरादों से ,

दिखा अपनी चमक -धमक

किया हम पर उसने प्रथम प्रहार

पर ना समझा इंसान ……..

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी  को  स्व संतोष गुप्ता स्मृति सम्मानोपाधि  से सम्मानित किया गया।  ई- अभिव्यक्ति की ओर से हार्दिक शुभ कामनाएं ।  

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 6 – फांकाकशी ☆

(आपने अब तक पढ़ा – पगली माई शीर्षक से एक भारतीय नारी के जीवन का पूर्वाध पढ़ रहे थे कथा वृत्त पढ़ते हुए यह विचार भी आया होगा कि पगली की कहानी का पगली माई से क्या संबंध हो सकता है, इसके रहस्य को समझने के लिए आपको थोड़ा धैर्य रखना होगा।अब आगे पढ़ें ——–)

पगली का समय अच्छा बीत रहा था, गौतम की उम्र लगभग 12 बरस की हो गई थी, वह अब स्कूल भी जाने लगा था।

प्रा० पाठशाला की आखिरी सीढ़ी लांघने के कगार पर था। दूसरी तरफ उसका पति ज्यों ज्यों बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ रहा था। त्यों त्यों उसकी नशे की लत जवान होती जा रही थी।  जुए शराब के चलते पहले जानवर, फिर गहनें, फिर बर्तन फिर खेती बाड़ी।

अब घर की सारी संपन्नता शराब-जुए की भेंट चढ़ गई थी।  हालात यहां तक बद्तर हो चुके थे कि घर में रोटियों के लाले पड़ रहे थे।

अब तो फाकाकशी की नौबत आ गई थी। पहले उसका पति शराब पीता था, अब शराब उसे पीने लगी थी। नशे की अधिकता ने उसके पति को ठठरी की गठरी बना डाला था।

घर में राशन न होने की स्थिति में पति-पत्नी में अनबन भी  रहने लगी वह अपनी झूठी शान व शेखी के चलते उसे बाहर काम पर भी नही जाने देता। पगली जब भी बाहर काम पर  जाने की बात कहती तो उसे ऐसा लगता जैसे पगली उसके पुरूषार्थ को चुनौती दे रही हो और वह मरखने सांड़ की तरह बिदक जाता।  फिर पति पत्नी में वाक् युद्ध छिड़ जाता। घर महाभारत का मैदान बन जाता। इन सबको गौतम सूनी सूनी आंखों से  देखता सुनता तथा मौन, हो मूकदर्शक बन जाता।

वह पूस मास की जाड़े की रात थी। लगभग दो दिनों से घर में अन्न न होने से घर में फाकाकशी चल रही थी।  गौतम दो दिनों से भूखा था।

दो दिनों से उसका बाप भी घर नहीं आया था। अपनी भूख की पीड़ा तो पगली सीने पर पत्थर रख बर्दाश्त किये जा रही थी। लेकिन गौतम का भूख से मुरझाया चेहरा तथा ऐठती अंतड़ियां पगली  देख नही सकती थी। अंत में राशन लेने के लिए पगली पडोसियों से कुछ पैसे उधार ले आई थी। लेकिन दुर्भाग्य से घर पहुँचते ही उसका सामना पति से हुआ।

एक तरफ जहां पगली और गौतम भूख की पीड़ा से बिलबिला रहे थे। वहीं उसके मन में शराब की तलब मचल रही थी, वह शराब पीने के लिये पगलाया हुआ था। पगली और उसके पति दोंनों की दरवाजे पर ही नजरें चार हुई। यद्यपि वह पगली से नजरें नहीं मिला पाया।

फिर भी उसने चोर दृष्टि से पैसे को साड़ी की गांठ में छुपाते देख ही लिया था। उन पैसों के देखते ही उसकी आंखों में वहशियाना चमक नाच उठी। उसके चेहरे पर साक्षात् शैतान नग्न नर्तन कर उठा और उसने पगली से दारू पीने के लिए पैसे की मांग कर दी। जिसे सुनते ही पगली बौखला  उठी, उसका धैर्य साहस सभी कुछ जबाब दे गये।

उसने पतिव्रत धर्म की सारी मर्यादा तोड़ते हुये उसे पैसे देने से इंकार कर दिया। इस कारण पहले वाक् युद्ध।  फिर बात बढते बढ़ते मार पीट में बदल गई थी।

आज एक बार फिर गौतम ममता और हैवानियत का युद्ध मौन हो मूकदर्शक बन देखने को मजबूर था। एक तरफ एक माँ की ममता भूखी शेरनी की तरह पैसों की रक्षा के लिए अड़ी खड़ी थी, तो दूसरी तरफ उसका पिता नशे की तलब में इंसान से हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था। वह पगली से उधार के पैसे छीनने की ताक में उस पर गिद्ध दृष्टि जमाये खड़ा था। उसे तो अपनी पत्नी की लाचारी बेबसी और भूख से तड़पते बेटे की पीड़ा का एहसास ही नही हो रहा था।

उसकी आँखों में सिर्फ़ और सिर्फ़ शराब की रंगीन बोतलें नांच रही थी । सहसा अकस्मात् उसने भूखे बाज की तरह पगली के हाथ में छुपे पैसों पर झपट्टा मारा। वह भी सतर्क थी उसने उन पैसों को और कसकर पकड़ लिया था।  लेकिन फिर भी उसका दाव पगली पर भारी पड़ा। उसने उधार के पैसे पगली के हाथ से छीन लिए।  अब पगली भी झरबेरी के कांटों की तरह उससे लिपटती नजर आई । उसका उस वहशी शैतान को रोकने का हर प्रयास विफल हो गया।

वह उसके हाथ के पैसे छीन भाग चला था ठेके की ओर,

अब पगली की ममता भूख और पीड़ा से बिलबिलाते  बच्चे को गोद में छुपाये रोने पर विवश थी वह कुछ नहीं कर पा रही थी।

 – अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -7 – नशे का जहर 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 6 ☆ हौसले ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता हौसले । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #6 ☆ हौसले

 

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे,

हौसले किये है हमने अब बुलंद,

अब अंधेरो में भी हम जुगनू जलाएंगे,

आएंगे दौर मुसीबतो के,

फिर भी हम आगे बढ़ाते जाएंगे,

अकेले ही चल पडेंगे हम,

कारवां तो अपने आप बनते जाएंगे,

अपनी मंज़िल वो ही पाते है जो खुद पे विश्वास दिखाते हैं

इसको हम अपना उद्देश्य बनाएंगे ,

तेरे मेरे के चक्कर में पड़े है सब,

हम सबको आरम्भ कर दिखाएंगे,

सीख लिया है हमने सफल जीवन का रहस्य,

अब इस रोशनी को हम सब में जगमगाएंगे,

तेरी लहरों पे चढ़ के जाएंगे,

ऐ समंदर हम तो भव सागर भी पार कर जाएंगे

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अरण्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अरण्य

निराशा के पलों में

आक्रोश के क्षणों में,

कई बार सोचा

आग लगा दूँ

अपनी कविताओं के

अरण्य को,

वैसे भी यह अरण्य

घेर लेता है

दुनिया भर की जगह

और देने के नाम पर

छदाम भी नहीं देता,

संताप बढ़ा

चरम पर पहुँचा,

आश्चर्य!!

तीली के स्थान पर

तूलिका उठाई

नई रचना आई,

सृजन की बयार चली

मन उपजाऊ हुआ

अरण्य और घना हुआ,

पर्यावरणविद सही कहते हैं;

व्यक्ति और समाज के

स्वास्थ्य के लिए

अरण्य अनिवार्य हैं!

अरण्य घने होते रहें। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कविता संग्रह *मैं नहीं लिखता कविता* से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 16 ☆ धुंधुरमास भोजन (पोवाडा) ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका  विनोदपूर्ण  गीत  धुंधुरमास भोजन (पोवाडा)। इस गीत के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आप ‘ लोकमान्य हास्य  योग  संघ, दौलतनगर शाखा आनंदनगर पुणे की सदस्य रही हैं। उनके वर्ग की  सदस्याओं द्वारा धुंधुरमास भोजन का आयोजन किया गया। उस वक्त सुरुचिपूर्ण भोजन के बारे में आपके मन में जो विचार आये उन्हें आपने बड़े ही सुरुचिपूर्ण काव्य में शब्दबद्ध किया है।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 16 ☆

☆ धुंधुरमास भोजन (पोवाडा) ☆

 

आला आला हो धुंधुरमास  !

भोजनाचा बेत केला खास !!

 

आमसुली घेवडा- पापडी !

शेंगा मटाराच्या सोलुनी !

चुका भाजी बोरं घालुनी !

घातली वांगी-गाजरं चिरुनी !

हरभऱ्याचे सोलाणे सोलुनी!

दिली कढीपत्त्याची फोडणी !

लेकुरवाळी भाजी करुनी !

आणली यादवांच्या ताईंनी !

चटण्या लोणची आणली कुणीकुणी !!

 

शुभांगीची गाजर कोशिंबीर !

त्यावर हिरवीगार कोथिंबीर !

अशा भाज्या सजल्या सुंदर !

जिलेबीने आणली मस्त बहार !!

 

मूगडाळ- तांदूळ खिचडी !

दालचिनी मसाला घालुनी !

बनविली पराडकर ताईंनी !!

 

खिचडीच्या जोडीला कढी !

शीतलनं केली हवी तेवढी !!

 

काळ्या पांढऱ्या तिळांनी !

जणू नक्षी सुबक काढुनी !

खमंग बाजरीच्या भाकरी !

उर्मिला वाढी लोणी त्यावरी !!

 

धुंधुरमासाच्या भोजनाचा !

बेत असा छान रंगला !!

 

बेत असा छान रंगला !

छान रंगला..ऽऽ..हो..ऽऽऽ..

जी…जी…जी……..

 

©®उर्मिला इंगळे

सातारा.

दिनांक:-२८-११-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #4 ☆ मित….. (भाग-4) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #4 ☆ मित….. (भाग-4) ☆

रोहित नेहमीच बेफिकीरीने जगणारा, कोणालाही कसल्याही बाबतीत न जुमाननारा मुलगा आज एवढ्या घाबरलेल्या अवस्थेत पाहून मित चकित होता. तो आपल्या खुर्चीवर येऊन बसला.

मित- हं बोल, काय म्हणतोयस.

रोहित- मित दा, मला भिती वाटतेय. कसं सांगु तेच कळत नाहीये.

मित हसला.

मित – तुला पण भिती वाटते?

मितचं चिडवलेलं रोहितला आवडलं नाही.

रोहित- मजा घेतोयस माझी

मितला आता हसू आवरेना. कसं तरी त्याने स्वतःला आवरले.

मित- अरे मजा नाही घेत. सांग तुला काय म्हणायचंय ते. घाबरू नको.

रोहित – अरे काय झालं सांगू का?

आणि त्याने त्याच्यासोबत घडलेली गोष्ट सांगायला सुरुवात केली.

प्रेम साधारणतः तेरा – चौदा वर्षाचा मुलगा त्याची सकाळची शाळा संपवून सायकलने घरी जात होता. दुपारची वेळ होती. म्हणून बाहेर फारसं कोणी नव्हतं. मुस्कानने त्याला हाक मारून थांबवले. पुजाही तीच्या जवळच होती. दोघीही पळत पळत त्याच्याजवळ आल्या.

मुस्कान- फोन कर त्याला

तीने हाफतच म्हटले. प्रेम तीचं म्हणनं त्याला समजलं. त्याने स्मित करत खिशातून त्याचा साधा फोन काढला. आणि रोहितचा नंबर डायल केला.

रोहित शेतात काम करत होता. त्याचे आई – बाबाही सोबतीला होते.  त्याचा फोन वाजला. त्याने नंबर पाहिला आणि उचलून

रोहित- हं बोल प्रेम.

प्रेम- घे मुस्कान बात करतेय.

मुस्कानचं नाव ऐकताच त्याच्या अंगात थर-थर व्हायला लागले. त्याने तसाच भितीने थरथरत म्हटले-

रोहित- फोन ठेव प्रेम.

शांत वातावरण असल्याने त्याचं बोलणं मुस्कान आणि पुजालाही एकू जात होते.  त्याचं असं बोलणं ऐकून प्रेम आणि मुस्कानही चकित झाले.

प्रेम- का रे ?

रोहित- तू फोन ठेव, मला भिती वाटतेय….

त्याने घाई घाईत फोन बंद केला. आणि हातातलं काम सोडून कुणालाही न सांगता तो चालता झाला. त्याचं असं न सांगता जाणं आईला खटकलं. तिने त्याला रोखले. पण तो थांबला नाही. आई म्हटली

“थांब बेटा ये संध्याकाळी मग दावते तूला”

पण ते ऐकण्यासाठी तो थांबला कुठे होता. आईला शांत करण्यासाठी बाबा म्हटले

“अगं गेला तो जाऊ दे”

आई- हो का. जाऊद्या तर जाऊद्या मग. मला काय ? हे सगळं तुम्हाला एकट्यालाच करायला लावते की नाही ते बघाच”

इकडे त्याचं असं बालिशपणे बोलण्याने मुस्कान, पुजा आणि प्रेम एकमेकांकडे बघून हसले.आणि चालले गेले

रस्ताच्या बाजूला मुस्कानचं घर होतं. रोहित जेव्हा आला. तेव्हा त्याने चोरट्या नजरेने पाहिले. त्या दोघीही ओट्यावरच बसले होते. त्याला पाहून दोघीही हसल्या. रोहितने चालणे अजून जोरात  केले.

त्याने पुर्ण एकून घेतल्यावर मित म्हटला- बरं, मग तुझं काय म्हणणं आहे?

रोहित क्षणभर गोंधळला.

रोहित- म्हणजे. मला काही कळत नाहीये. तू सांग मी काय करू ते.

मित – मी काय सांगणार? बरं फोन कर

रोहित ( पुन्हा गोंधळला) – अरे मित दा. असं नको सांगू ना. मला काहीच कळत नाहीये काय बोलायचं ते.  तू सांग काय बोलू ते

मित- अरे, त्यात घाबरण्यासारखं काय आहे? तीने तुला फोन केला तर काहीतरी बोलण्यासाठीच केला असेल ना. तू फक्त हॅलो म्हण. ती बोलेल पुढे काय बोलायचं ते.

सायंकाळी मित आणि रोहित बाहेर गेले फिरायला. मुस्कानचे घराजवळून जातांना रोहितने मितला म्हटले  ” मित दा, ती आहे बघ” मितने वळून पाहिले आणि स्मित केले. आणि पुढे चालता  झाला. मुस्कान गोंधळली. ती त्याच्या हसण्याला काही वेगळंच समजून गेली.

 

 (क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 23 ☆ होशोहवास ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “होशोहवास”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 23 ☆

☆ होशोहवास

 

मेरे शहर में हज़ारों लोग हैं जो

दूसरों के गिरहबान में झाँक रहे हैं

अपने गिरहबान में झाँकने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में अनगिनत लोग हैं जो

दूसरों की गलतियों पर ताना देते हैं

अपनी गलतियों पर पछताने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में हजारों लोग हैं जो

दूसरों के दुखों पर खुश होते हैं

अपने सुख से परे देखने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

मेरे शहर में लाखों  लोग हैं जो

दूसरों के हार पर खुश होते हैं

अपनी जीत के आगे देखने का

उन्हें होशोहवास नहीं है।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 25 – जीव विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “जीव विज्ञान।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 25 ☆

☆ जीव विज्ञान 

मुझे लगता है कि आप सभी जानते होंगे कि हमारा शरीर अरबों कोशिकाओं से बना है, और शरीर की कोशिकाएँ हर पल बदलती रहती है कोशिकाओं का बदलाव ही उम्र के बढ़ने का कारण है। यदि शरीर की कोशिकाएँ नहीं बदलती हैं, तो हम बूढ़े नहीं होंगे।जीवद्रव्य, पुरस या प्रोटोप्लाज्म कोशिका की जीवित सामग्री होता है जो प्लाज्मा झिल्ली से घिरा होता है। जीवद्रव्य आयनों, एमिनो अम्लों, मोनोसैक्राइड और पानी जैसे छोटे अणुओं और नाभिकीय अम्ल, प्रोटीन, लिपिड और पॉलीसैकराइड जैसे बड़े अणुओं (macromolecules) के मिश्रण से बना होता है। सुकेंद्रिक या युकेरियोट (eukaryote) एक ऐसे जीव को कहा जाता है जिसकी कोशिकाओं (सेल) में झिल्लियों में बंद जटिल ढाँचे हों। सुकेंद्रिक और अकेंद्रिक (प्रोकेरियोट) कोशिकाओं में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि सुकेंद्रिक कोशिकाओं में एक झिल्ली से घिरा हुआ केन्द्रक (न्यूक्लियस) होता है जिसके अन्दर आनुवंशिक (जेनेटिक) सामान होता है।

प्रोटोप्लाज्म दो रूपों में पाया जाता था, एक तरल जैसा ठोस रूप या दूसरा लप्सी/जेली जैसी चिपचिपा घोल” कोशिकाओं (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं। ‘कोशिका’ का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के ‘शेलुला’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ ‘एक छोटा कमरा’ है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 29 ☆ हाउ से हू तक ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “हाउ से हू तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  यह सच है कि धन दौलत और पद प्रतिष्ठा का चोली दामन का साथ है, किन्तु मानवीय व्यवहार तो आपके  नियंत्रण में है न ।डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 29☆

☆हाउ से हू तक

‘दौलत भी क्या चीज़ है, जब आती है तो इंसान खुद को भूल जाता है, जब जाती है तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-दौलत, पैसा व पद-प्रतिष्ठा का नशा अक्सर सिर चढ़कर बोलता है, क्योंकि इन्हें प्राप्त करने के पश्चात् इंसान अपनी सुध-बुध खो बैठता है … स्वयं को भूल जाता है। तात्पर्य यह है, कि धन-सम्पदा पाने के पश्चात् इंसान अहं के नशे में चूर जो रहता है, उसे अपने सिवाय कुछ भी दिखलायी नहीं पड़ता… उस स्थिति में वह स्व-पर से ऊपर उठ जाता है… उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता… सब पराए अथवा दुश्मन ही नज़र आते हैं। वह दौलत के नशे के साथ-साथ शराब व ड्रग्स का आदी हो जाता है…सो! उसे समय, स्थान व परिस्थिति का लेशमात्र भान अथवा ख्याल भी नहीं रहता। और वह संबंध व सरोकारों का उसके जीवन में महत्व नहीं रहता। इस स्थिति में वह अहंनिष्ठ मानव अपनों अर्थात् परिवार व बच्चों से दूर…बहुत…दूर चला जाता है और वह अपने सम्मुख  किसी के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। वह  मर्यादा की समस्त सीमाओं को लांघ जाता है और रास्ते में आने वाली बाधाओं के सिर पर पांव रख कर आगे बढ़ता चला जाता है  और उसकी यह दौड़ उसे कहीं भी थमने नहीं देती।

धन-दौलत का आकर्षण न धूमिल पड़ता है, न ही कभी समाप्त होता है। यह तो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ता चला जाता है। यह प्रसिद्ध कहावत है…’पैसा ही पैसे को खींचता है।’ दूसरे शब्दों में इंसान की पैसे  की हवस कभी समाप्त नहीं होती…सो! उसे उचित-अनुचित में भेद नज़र आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। धन कमाने का नशा उस पर इस क़दर हावी होता है कि वह राह में आने वाले  आगंतुकों-विरोधियों को कीड़े-मकोड़ों की भांति रौंदता हुआ बढ़ता चला जाता है। इस मन:स्थिति में  वह पाप-पुण्य के भेद को नकार, अपनी सोच व निर्णय को उचित स्वीकारता है।

दुनिया के लोग भी धनवान अथवा दौलतमंद  इंसान को सलाम करते हैं, अर्थात् करने को बाध्य होते हैं…  और यह उनकी नियति होती है। परंतु दौलत के खो जाने के पश्चात् ज़माना उसे भूल जाता है क्योंकि  यह तो ज़माने का चलन है। परंतु इंसान माया के कारण सांसारिक आकर्षणों व दुनियावी चकाचौंध में इस क़दर खो जाता है कि उसे अपने आत्मज भी अपने नज़र नहीं आते, दुश्मन भासते हैं। एक लंबे अंतराल के पश्चात् जब वह उन अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, तो वे भी उसे नकार देते हैं। अब उनके पास उस अहंनिष्ठ इंसान के  लिए समय का अभाव होता है। यह सृष्टि का नियम है कि जैसा आप इस संसार में करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। यह तो हुई आत्मजों अर्थात् अपने बच्चों की बात, जिन्हें अच्छी परवरिश व सुख- सुविधाएं प्रदान करने के लिए वह दिन-रात परिश्रम करता रहा, गलत-ठीक काम करता रहा…परंतु उन्हें समय व स्नेह नहीं दे पाया, जिसकी उन्हें दरक़ार थी, जो उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

फिर ग़ैरों से क्या शिक़वा कीजिए… दौलत के समाप्त होते ही ज़माना अर्थात् दुनिया भर के लोग भी उसे भुला देते हैं, क्योंकि वे संबंध स्वार्थ के थे, स्नेह सौहार्द के नहीं। मैं तो संबंधों को रिवाल्विंग चेयर की भांति मानती हूं। आपने मुंह दूसरी ओर घुमाया, अवसरवादी बाशिंदों के तेवर भी बदल गए, क्योंकि आजकल संबंध सत्ता व धन-संपदा से जुड़े होते हैं… सब कुर्सी को सलाम करते हैं। जब तक आप उस पर आसीन हैं, सब ठीक चलता है, आपको झूठा मान-सम्मान मिलता है, क्योंकि लोग आपसे हर उचित-अनुचित कार्य की अपेक्षा रखते हैं। वैसे भी समय पर तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है… सो! इंसान की तो बात ही अलग है।

लक्ष्मी का तो स्वभाव ही चंचल है… एक स्थान पर ठहरती कहां है। जब तक वह मानव के पास रहती है, सब उससे पूछते हैं ‘हाउ आर यू’ और लक्ष्मी के स्थान परिवर्तन करने के पश्चात् लोग कहते हैं ‘हू आर यू।’ इस प्रकार लोगों के तेवर पलभर में बदल जाते हैं। ‘हाउ’ में स्वीकार्यता है— अस्तित्वबोध की, आपकी सलामती का भाव है… जो दर्शाता है कि लोग आपकी चिंता करते हैं… चाहे विवशता-पूर्वक या मन की गहराइयों से… यह और बात है। परंतु ‘हाउ’ को ‘हू’ में बदलने में पल भर का समय भी नहीं लगता। ‘हू’ अस्वीकार्यता बोध…आपके अस्तित्व से बेखबर अर्थात् ‘कौन हैं आप?’ ‘कैसे से कौन’ प्रतीक है स्वार्थपरता का, आपके प्रति निरपेक्ष भाव का, अस्तित्वहीनता का… यह प्रतीक है, मानव के संकीर्ण भाव का… क्योंकि उगते सूर्य को सब सलाम करते हैं और डूबते सूर्य को निहारना अपशकुन मानते हैं। आजकल तो लोग बिना काम अर्थात् स्वार्थ के नमस्ते अथवा दुआ सलाम भी नहीं करते।

इस स्थिति में चिन्ता अथवा तनाव का होना अवश्यं- भावी है, जो मानव को अवसाद की स्थिति में धकेल देता है, जिससे मानव लाख चाहने पर भी उबर नहीं पाता। वह अतीत की स्मृतियों में अवगाहन करके संतोष का अनुभव करता है। उसके सम्मुख प्रायश्चित करने के अतिरिक्त दूसरा विकल्प होता ही नहीं। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है, तो दु:ख उसके धैर्य की…दोनों स्थितियों-परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाले व्यक्ति का जीवन सफल कहलाता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि सुख में व्यक्ति फूला नहीं समाता, उस के कदम धरा पर नहीं पड़ते…वह अहंवादी हो जाता है और दु:ख के समय वह हैरान-परेशान हो जाता है तथा अपना धैर्य खो बैठता है। वह अपनी नाकामी अथवा असफलता का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ता है। इस उधेड़बुन में वह सोच नहीं पाता कि यह संसार दु:खालय है और सुख बिजली की कौंध की मानिंद जीवन में दस्तक देता है…परंतु बावरा मन उसे स्थायी समझ अपनी बपौती समझ बैठता है और उसके जाने के पश्चात् शोकाकुल हो जाता है।

सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा आता है। जिस प्रकार एक  म्यान में दो तलवारों का रहना असंभव है, उसी प्रकार दोनों का एकछत्र छाया में रहना असंभव है। परंतु सुख-दु:ख में सम रहना आवश्यक है। दोनों अतिथि हैं, आए हैं, तो उनका लौटना भी निश्चित है। इसलिए न किसी के आने की खुशी, न किसी के जाने का शोक मनाना चाहिए। हर स्थिति में सम रहने का भाव सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। इसलिए सुख में अहं को शत्रु समझना आवश्यक है और दु:ख में अथवा दूसरे कार्य में धैर्य का दामन छोड़ना स्वयं को मुसीबत में डालने के समान है। जीवन में कभी भी किसी को छोटा समझ कर किसी की उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि समय पर हर व्यक्ति व वस्तु का अपना महत्व होता है। सूई का काम तलवार नहीं कर सकती। मिट्टी, जिसे आप पांव तले रौंदते हैं, उसका एक कण भी आंख में पड़ने पर, इंसान पर की जान पर बन आती है। सो! जीवन में किसी तुच्छ वस्तु व व्यक्ति की, कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए… उसे स्वयं से अर्थात् उसकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए।

पैसे से सुख-सुविधाएं तो खरीदी जा सकती हैं,  मानसिक शांति नहीं। इसलिए दौलत का अभिमान कभी मत कीजिए… पैसा तो हाथ का मैल है… एक स्थान पर नहीं ठहरता। परमात्मा की कृपा से पलक झपकते रंक राजा बन सकता है…पंगु पर्वत लांघ सकता है, अंधा देखने लग जाता है। इस जन्म में इंसान को जो कुछ भी मिलता है…पूर्वजन्मों के कर्मों का फल होता है…फिर अहं कैसा? गरीब व्यक्ति भी अपने कृतकर्मों का फल भोगता है…फिर उसकी उपेक्षा व अपमान क्यों? इसलिए मानव का हर स्थिति में सम रहना सर्वश्रेष्ठ व उत्तम है…सफलता का मूल है। समन्वय सामंजस्यता का जनक है, उपादान है, जो जीवन में समरसता लाता है। यह कैवल्य अर्थात् अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें ‘हाउ व हू’ का वैषम्य भाव समाप्त हो जाता है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 29 ☆ हाइकु ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  हाइकू विधा में  दो कवितायेँ   ‘हाइकु ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 29 साहित्य निकुंज ☆

हाइकु 

[1]

बातें ही बातें

होती है मुलाकातें

मिली मंजिल।

 

जिंदगी जीना

नहीं होता मुश्किल

साथ हो तेरा।

 

कृष्ण की प्रिया

होता दिन है खास

राधा अष्टमी।

 

[2]

 

खुशी का दिन

खुश है अंतर्मन

है शादी तिथि।

 

करो सम्मान

जीवन में तभी तो

मिलेगा मान।

 

चलते चलो

कर्म करते रहो

मिलेगा फल।

 

न हो निराश

करो तुम प्रार्थना

रखना आस।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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