हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #36 ☆ चिरमृतक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 36 ☆

☆ चिरमृतक ☆

-कल दिन बहुत खराब बीता।

-क्यों?

-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।

-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।

विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।

इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न! रोज चिरमृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिरमृतक या चिरजन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।

स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।

जीवन देखो, जीवन जियो।

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रातः 7.55 बजे, 4.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 23 – तिलस्म ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘तिलस्म । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 23  – विशाखा की नज़र से

☆ तिलस्म ☆

 

वो तब भी था उसके साथ जब था वह कोसों कोसों दूर

था वह दुनियाँ की किसी खुशनुमा महफ़िल में

हो रही थी जब फ़ला फ़ला बातें फ़ला फ़ला शख़्स की

तब भी भीतर छुप किसी कोनें से वह कर रहा था उससे गुफ़्तगू

 

वह हो रहा था जाहिर जो कि एक तिलस्म था

वह हिला रहा था सर पर मौन था

वह दिख रहा था दृश्य में पर अदृश्य था

सब देख रहे थे देह उसकी पर आत्मा नदारद थी

वह दिख रहा था मशरूफ़ पर अकेला था

 

वह प्रेम का एक बिंदु था

बिंदु जो कि सिलसिलेवार था

वह पहुँचा प्रकाश की गति से

प्रेमिका  के मानस में

बिंदु जो अब पूर्णविराम था

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 12 – गोविन्द ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली का विवाह हुआ, ससुराल आई, सुहागरात को नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी, कालांतर में एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जहरीली शराब पीकर पति मरा, नक्सली आतंकी हिंसा की ज्वाला ने पुत्र गौतम की बलि ले ली, पगली बिछोह की पीड़ा सह नही सकी। वह सचमुच ही पागलपन की शिकार हो दर दर भटक रही थी।  तभी अचानक घटी एक घटना ने उसका हृदय विदीर्ण कर दिया। वह दर्द तथा पीड़ा से कराह उठी। अब आगे पढ़े——-)

गोविन्द एक नाम एक व्यक्तित्व जिसकी पहचान औरों से अलग, गोरा चिट्टा रंग घुंघराले काले बाल, चेहरे पर हल्की मूछें, मोतीयों सी चमकती दंत मुक्तावली, चेहरे पे मोहक मुस्कान।  हर दुखी इंसान के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना उसे लाखों की भीड़ में अलग पहचान दिलाती थी। वह जब माँ के पेट में था, तभी उसके सैनिक पिता सन् 1965 के भारत पाक युद्ध में सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो  गये।

उन्होंने मरते मरते अपने रण कौशल से दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये।  दुश्मन की कई अग्रिम चौकियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था।

जब तिरंगे में लिपटी उस बहादुर जवान की लाश घर आई, तो सारा गाँव जवार  उसके घर इकठ्ठा हो गया था। गोविन्द की माँ पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी पति के शव के उपर।  उस अमर शहीद को बिदाई देने सारा क्षेत्र उमड़ पड़ा था। हर आंख नम थी, सभी ने अपनी भीगी पलकों से उस शहीद जवान को अन्तिम बिदाई दी थी।

उन आखिरी पलों में सभी  सामाजिक मिथकों को तोड़ते हुये गोविन्द की माँ ने पति के शव को मुखाग्नि दी थी।

उस समय स्थानीय प्रशासन  तथा जन प्रतिनिधियों ने भरपूर मदद का आश्वासन दे वाहवाही भी लूटी थी। लेकिन समय बीतते लोग भूलते चले गये।

उस शहीद की बेवा के साथ किये वादे को, उसको मिलने वाली सारी सरकारी सहायता नियमों कानून के मकड़जाल तथा भ्रष्टाचार के चंगुल में फंस कर रह गई।

अब वह बेवा अकेले ही मौत सी जिन्दगी का बोझ अपने सिर पर ढोने को विवश थी।  क्या करती वह, जब पति गुजरा था तो उस वक्त वह गर्भ से थी।

उन्ही विपरीत परिस्थितियों में गोविन्द नें अपनी माँ की कोख से जन्म लिया था।  उसके भविष्य को  ले उस माँ ने अपनी आँखों में बहुत सारे सुनहरे सपनें सजाये थे।  उस गरीबी में भी बडे़ अरमानों से अपने लाल को पाला था। लेकिन जब गोविन्द पांच बरस का हुआ, तभी उसकी माँ दवा के अभाव में टी बी की बीमारी से एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर  मर गई। विधाता ने अब गोविन्द के सिर से माँ का साया भी छीन लिया था।  नन्हा गोविन्द इस दुनियाँ में अकेला हो गया था।

ऐसे में उसका अगला ठिकाना बुआ का घर ही बना था। गोविन्द के प्रति उसकी बुआ के हृदय  में दया तथा करूणा का भाव था, लेकिन वह अपने पति के ब्यवहार से दुखी तथा क्षुब्ध थी, गोविन्द का बुआ के घर आना उसके फूफा को रास नही आया था। उसे ऐसा लगा जैसे उसके आने से बच्चों के प्रति उसकी माँ की ममता बट रही हो।

वह बर्दाश्त नही कर पा रहा था गोविन्द का अपने परिवार के साथ रहना। इस प्रकार दिन बीतते बीतते गोविन्द बारह बरस का हो गया।
अब घर में गोविन्द एक घरेलू नौकर बन कर रह गया था।  लेकिन वह तो किसी और ही मिट्टी का बना था।  पढ़ाई लिखाई के प्रति उसमें अदम्य इछा शक्ति तथा जिज्ञासा थी।  वह  बुआ के लड़कों को रोज तैयार हो स्कूल जाते देखता तो उसका मन भी मचल उठता स्कूल जाने के लिए। लेकिन अपने फूफा की डांट खा चुप हो जाता।  एक दिन खेल खेल में ही बुआ के बच्चों के साथ उसका झगड़ा हुआ।

उस दिन उसकी  खूब जम कर पिटाई हुई थी।  इसी कारण गोविन्द नें अपनी बुआ का घर रात के अन्धेरे में छोड़ दिया था तथा सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर हो गया था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 13 – सीढियाँ

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 31 – महाशिवरात्रि पर्व विशेष – हिन्दू खगोल-विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  महाशिवरात्रि पर्व पर  विशेष सामायिक आलेख  “हिन्दू खगोल-विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 31☆

☆ हिन्दू खगोलविज्ञान 

ब्रह्माण्ड में ग्रहों की कोई गति और हलचल हमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं से प्रभावित करती है । हम जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति पृथ्वी पर एक वर्ष के लिए जिम्मेदार है और यदि हम इस गति को छह हिस्सों में विभाजित करते हैं तो यह वसंत, ग्रीष्मकालीन, मानसून, शरद ऋतु, पूर्व-शीतकालीन और शीतकालीन जैसे पृथ्वी पर मौसम को परिभाषित करता है । इसमें दो-दो विषुव (equinox) और अयनांत (solstice) भी सम्मलित हैं । पृथ्वी पर हमारे सौर मंडल के ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन हमेशाएक ही प्रकार का नहीं होता है क्योंकि विभिन्न ग्रहों की गति और हमारी धरती के आंदोलन की गति भिन्न भिन्न होती है । विशेष रूप से ऊर्जा के प्रवाह को जानने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में सूर्य की स्थिति, नक्षत्रों में चंद्रमा की स्थिति, चंद्रमा की तिथि, जिसकी गणना चंद्रमा के उतार चढ़ाव या शुक्ल और कृष्ण पक्षों के चक्रों से की जाती है, और अन्य कई पहलुओं को ध्यान में रखना पड़ता है । हर समय इन ऊर्जायों के सभी संयोजन समान नहीं होते हैं । कभी-कभी कुछ अच्छे होते हैं, और अन्य बुरे, और इसी तरह । आपको पता होगा ही कि सूर्य की ऊर्जा के कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है, सूर्य के बिना पृथ्वी पर कोई जीवन संभव नहीं हो सकता है । जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे वातावरण में जीवन की मूल इकाई, प्राण आयन मुख्य रूप से सूर्य से ही उत्पन्न होते हैं, और चंद्रमा के चक्र समुद्र के ज्वार- भाटा, व्यक्ति के मस्तिष्क और स्त्रियों के मासिक धर्म चक्र पर प्रभाव डालते हैं । मंगल गृह हमारी शारीरिक क्षमता और क्रोध के लिए ज़िम्मेदार होता है, और इसी तरह अन्य ग्रहों की ऊर्जा हमारे शरीर, मस्तिष्क हमारे रहन सहन और जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव डालती है ।

अयनांत अयनांत/अयनान्त (अंग्रेज़ी:सोलस्टिस) एक खगोलय घटना है जो वर्ष में दो बार घटित होती है जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है । विषुव और अयनान्त मिलकर एक ऋतु का निर्माण करते हैं । इन्हें हम संक्रान्ति तथा सम्पात इन संज्ञाओं से भी जानते हैं । विभिन्न सभ्यताओं में अयनान्त को ग्रीष्मकाल और शीतकाल की शुरुआत अथवा मध्य बिन्दु माना जाता है । 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनान्त या कर्क संक्रांति कहते हैं । इस समय उत्तरी गोलार्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है । मार्च और सितम्बर में जब दिन और रात्रि दोनों 12-12 घण्टों के होते हैं तब उसे विषुवदिन कहते हैं।

तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्मांड इकाइयों के कुछ संयोजनों के दौरान प्रकृति हमें एकाग्रता, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने में सहायता करती है अन्य में, हम प्रकृति के साथ स्वयं का सामंजस्य बनाकर शारीरिक रूप से अधिक आसानी से कार्य कर सकते हैं आदि आदि । तो कुछ संयोजन एक तरह का कार्य प्रारम्भ करने के लिए अच्छे होते हैं और अन्य किसी और प्रकार के कार्य के लिए । पूरे वर्ष में पाँच प्रसिद्ध रातें आती हैं जिसमें विशाल मात्रा में ब्रह्मांड की ऊर्जा पृथ्वी पर बहती है । अब यह व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस ऊर्जा को अपने आप के लिए या किसी और के लिए उसका उपयोग अच्छे तौर पर कर सकता है या दूसरों के लिए बुराई के तौर पर, जैसे कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों में किया जाता है । इसके अतरिक्त कुछ रातें ऐसी भी होती है जो 3-4 वर्षो में एक बार या 10-20 वर्षो में एक बार एवं कुछ तो सदियों में एक बार या युगों में एक बार आती हैं । ये सब हमारे सौर मंडल में उपस्थित ग्रहों, नक्षत्रों और कुछ हमारे सौर मंडल के बाहर के पिंडो आदि की सापेक्ष गति और अन्य कई कारणों से होता है ।

ये पाँच विशेष रातें पाँच महत्वपूर्ण हिन्दु पर्वों की रात्रि हैं जो महाशिवरात्रि से शुरू होती हैं और उसके पश्चात होली, जन्माष्टमी, कालरात्रि और पाँचवी और तांत्रवाद के लिए सबसे खास रात्रि वह रात्रि है जो दिवाली के पूर्व मध्यरात्रि से शुरू होती है जिसे नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली या काली चौदस या भूत चौदस भी कहा जाता है । अर्थात वह समय, जो दिवाली रात्रि विशेष समय पूर्व, दिवाली रात्रि या नरक चतुरादाशी रात्रि 12:00 बजे से सुबह दिवाली की सुबह ब्रह्म मुहूर्त तक होता है ।

कालरात्रि नवरात्रि समारोहों की नौ रातों के दौरान माँ कालरात्रि की परंपरागत रूप से पूजा की जाती है । विशेष रूप से नवरात्र पूजा (हिंदू प्रार्थना अनुष्ठान) का सातवां दिन उन्हें समर्पित है और उन्हें माता देवी का भयंकर रूप माना जाता है, उसकी उपस्थिति स्वयं भय का आह्वान करती है । माना जाता है कि देवी का यह रूप सभी दानव इकाइयों, भूत, आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं का विनाशक माना जाता है, जो इस रात्रि उनके आने के  स्मरण मात्र से भी भागते हैं ।

नरक चतुर्दशी यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है । मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है । विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है । इस रात्रि दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंधी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था । इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति (अर्थ : केलि, क्रीड़ा, विराम) देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने जाने-अनजाने में भी कभी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो क्योंकि आपके यहाँ आने का अर्थ है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है । दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दे । यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है । ऋषि बोले हे राजन आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणो को भोजन करवा कर उनसे अपने हुए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है । स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है । इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है ।

नरक चतुर्दशी (काली चौदस, रूप चौदस, छोटी दीवाली या नरक निवारण चतुर्दशी के रूप में भी जाना जाता है) हिंदू कैलेंडर अश्विन महीने की विक्रम संवत में और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (चौदहवें दिन) पर होती है । यह दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव का दूसरा दिन है । भूत चतुर्दशी चंद्रमा की बढ़ती अवधि के दौरान अंधकार पक्ष या कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन पर हर बंगाली परिवार में मनाया जाता है और यह पूर्णिमा की रात्रि से पहले होता है । यह सामान्य रूप से अश्विन या कार्तिक के महीने में 14 दिन या चतुर्दशी पर होता है ।

ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय के डेढ़ घण्टा पहले का मुहूर्त, ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है । सही-सही कहा जाय तो सूर्योदय के 2 मुहूर्त पहले, या सूर्योदय के 4 घटिका पहले का मुहूर्त । 1 मुहूर्त की अवधि 48 मिनट होती है । अतः सूर्योदय के 96 मिनट पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त होता है । इस समय संपूर्ण वातावरण शांतिमय और निर्मल होता है । देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं । सत्व गुणों की प्रधानता रहती है । प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है । जल्दी उठने में सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । यह समय ग्रंथ रचना के लिए उत्तम माना गया है । वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है । इसी समय वायुमंडल में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है । शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है । ऐसे समय में शहर की सफाई निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है । ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है । यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि रात्रि को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है । सुबह ऑक्सिजन का स्तर भी ज्यादा होता है जो मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है जिसके चलते अध्ययन बातें स्मृति कोष में आसानी से चली जाती है ।

अगर हम बारीकी से विश्लेषण करे, महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन के महीने में आता है ।

फाल्गुन हिंदू कैलेंडर का एक महीना है । भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष का बारहवां महीना है, और ग्रेगोरियन कैलेंडर में फरवरी/मार्च के साथ मेल खाता है । चंद्र-सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष के एक ही समय में नए चंद्रमा या पूर्णिमा पर शुरू हो सकता है, और वर्ष का बारहवां महीना होता है । हालांकि, गुजरात में, कार्तिक वर्ष का पहला महीना है, और इसलिए फाल्गुन गुजरातियों के लिए पाँचवें महीने के रूप में आता है । होली (15वी तिथि या पूर्णिमा शुक्ल पक्ष फाल्गुन) और महाशिवरात्रि (14वी तिथि कृष्ण पक्ष फाल्गुन) की छुट्टियां इस महीने में मनाई जाती हैं । सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है, और सौर वर्ष, या वसंत का बारहवां महीना होता है । यह वह समय है जब भारत में बहुत गर्म या ठंडा मौसम नहीं होताहै ।

महा शिवरात्रि कृष्णपक्ष की 14वीं तिथि या चंद्रमा के घटने के चक्र में चौदवें दिन मनाया जाता है। वैज्ञानिक रूप से कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की चतुर्दशी पर, चंद्रमा की पृथ्वी को ऊर्जा देने की क्षमता बहुत कम हो जाती है (जो की उसके अगले दिन अमावस्या को पूर्ण समाप्त हो जाती है), इसलिए मन की अभिव्यक्ति भी कम हो जाती है, एक व्यक्ति का मस्तिष्क  परेशान हो जाता है, और किसी भी विचार से कई मानसिक तनाव हो सकते हैं ।

तो अच्छे विचारों के साथ एक खाली मस्तिष्क भरने के लिए या हमारे मन पर प्रक्षेपित चंद्रमा की ऊर्जा को नए और ताजे रूप से स्थापित करने के लिए सब को महा शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । महा शिवरात्रि से पहले, सूर्य देव (सूर्य के देवता), भी उत्तरायण तक पहुँच चुके होते हैं अर्थात यह मौसम बदलने का समय भी होता है ।

उत्तरायण सूर्य की एक दशा है । ‘उत्तरायण’ (= उत्तर + अयन) का शाब्दिक अर्थ है – ‘उत्तर में गमन’ । दिन के समय सूर्य के उच्चतम बिंदु को यदि दैनिक तौर पर देखा जाये तो वह बिंदु हर दिन उत्तर की ओर बढ़ता हुआ दिखेगा । उत्तरायण की दशा में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे होते जाते हैं और रातें छोटी । उत्तरायण का आरंभ 21 या 22 दिसम्बर होता है । यह अंतर इसलिए है क्योंकि विषुवों के पूर्ववर्ती होने के कारण अयनकाल प्रति वर्ष 50 चाप सेकंड (arcseconds) की दर से लगातार प्रसंस्करण कर रहे हैं, यानी यह अंतर नाक्षत्रिक (sidereal) और उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों के बीच का अंतर है । सूर्य सिद्धांत बारह राशियों में से चार की सीमाओं को चार अयनांत कालिक (solstitial) और विषुव (equinoctial) बिंदुओं से जोड़कर इस अंतर को पूरा करता है । यह दशा 21 जून तक रहती है । उसके बाद पुनः दिन छोटे और रात्रि लम्बी होती जाती है । उत्तरायण का पूरक दक्षिणायन है, यानी नाक्षत्रिक राशि चक्र के अनुसार कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति के बीच की अवधि और उष्णकटिबंधीय राशि चक्र के अनुसार ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अयनांत के बीच की अवधि ।

तो यह शुभ समय होता है वसंत का स्वागत करने के लिए । वसंत जो खुशी और उत्तेजना के साथ मस्तिष्क को भरता है, महा शिवरात्रि पर भी सबसे शुभ समय ‘निशिता काल’ (अर्थ : हिंदू अर्धरात्रि का समय) है, जिसमें धरती पर सभी ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन उनके कुंडली ग्रह की स्थिति के बावजूद पृथ्वी के सभी मानवों के लिए सकारात्मक होता है । महा शिवरात्रि पर आध्यात्मिक ऊर्जा के संयोजन की व्याख्या करने के लिए, यह फाल्गुन महीने में पड़ता है, जो कि सूर्य के स्थान परिवर्तन का समय होता है और वह उत्तरायन में प्रवेश कर चूका होता है इस समय सर्दी का मौसम समाप्त हो जाता है । फाल्गुन नाम ‘उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर आधारित है, जिसके स्वामी सूर्य देव हैं, जिसमें मोक्ष, आयुर्वेदिक दोष  वात, जाति योद्धा, गुणवत्ता स्थिर, गण मानव, दिशा पूर्व की प्रेरणा होती है । महा शिवरात्रि चंद्रमा के घटने के चक्र के 14 वें दिन पर आता है, इसके एकदम बाद अमावस्या (जिसमे चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं दिखाई देता) होती है । तो चंद्रमा के घटने की 14वी तिथि वह समय होता है जब चंद्रमा के चक्र की ऊर्जा का अंतिम भाग उसकी ऊर्जा के दूसरे भाग द्वारा परिवर्तित होने वाला होता है ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 29 ☆ तेव्हा तुझी आठवण येते… ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “तेव्हा तुझी आठवण येते…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 29 ☆

☆ तेव्हा तुझी आठवण येते… ☆

 

मी रानोमाळ भटकते

दऱ्या डोंगरातून फिरते

पायवाटेवर भरगच्च बहरलेली

रानफुले खांदयांशी लगडतात

उंच उंच गवताचे पाते

गालावर टिचकी मारते

तेव्हा तुझी आठवण येते

वाऱ्याची अल्लड झुळूक

कपाळावरील बटांना

अलगद उडवते

नाजुक रंगीत फुलपाखरू

खांदयावर हात ठेवते

अलगद हृदय उलगडते

तेव्हा तुझी आठवण येते

क्षितिजापाशी सूर्य

पाऊलखुणा सोडतो

अंधारतो काळोख अन्

झोंबतो गार वारा

अंगावर येतो शहारा

तेव्हा तुझी आठवण येते

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 23 ☆ इंगळ्यांची मंजुळा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  अपनी सासु माँ को समर्पित उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “इंगळ्यांची मंजुळा”।  कविता का प्रकार – मुक्तछंद है। श्रीमती उर्मिला जी की कवितायेँ हमारे सामजिक परिवेश को रेखांकित करती हैं। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 23 ☆

ज्या घरात आजी-आजोबा,म्हणजे सासू सासरे,दीर जावा ,नणंदा , बाळगोपळ  आहेत असं घर गोकुळच असतं.सासरे घराचा कणा असतात तर सासूबाई  आपल्या घरातल्या चालीरीती,रुढी परंपरा चढून जाण्यासाठीचा जिना असतात.

आपण जेव्हा लग्न होऊन सासरी येतो तेव्हा पतीनंतर सगळ्यात पहिली चांगली ओळख होते ती सासूबाईची. त्यांचे मुळे आपल्या खऱ्या सासरच्या  आयुष्याची सुरुवात होते. घरातल्यांची आपले कुलाचार कुल परंपरांची ओळख होते , ती केवळ आणि केवळ सासुबाईंमुळेच.अशाच माझ्या सासूबाईं त्यांचं नाव ” मंजुळा ” त्यांची ओळख मी माझ्या कवितेतून करुन देते आहे.:-

 काव्यप्रकार:-मुक्तछंद

 शीर्षक:- “‘इंगळ्यांची मंजुळा “

 

मंजुळाबाई मंजुळा, सासुबाई

माझ्या मंजुळा !

मंजुळा त्यांचं नाव अन् वडगाव

आमचं गाव !

बरं कां म्हणून त्या ” ‘वडगावच्या

इंगळ्यांची मंजुळा ” !!१!!

 

गोरा गोमटा रंग त्यांचा ,

ठेंगणा ठुसका बांधा !

त्या होत्या आमच्या घराण्याचा

सांधा !!२!!

 

गोड गोड खायची सवय त्यांना

भारी !

लग्नकार्यात उठून दिसे

त्यांची भारदस्त स्वारी  !!३!

 

शिक्षणात होत्या अडाणी,

पण होत्या अगदी तोंडपाठ

त्यांच्या आरत्या अन् गाणी  !!४!!

 

जरब होती बोलण्यात,

रुबाब होता वागण्यात!

पण खूप खूप माया होती त्यांच्या

अंतरंगात  !!५!!

 

 

अहेवपणी मोठ्ठ कुंकू कपाळावर

शोभे छान !

गावातल्या साऱ्याजणी द्यायच्या

त्यांना मान !

पाणीदार मोत्यांची नथ शोभे

त्यांच्या नाकात !

नवऱ्यासह सारेजण असायचे

त्यांच्या धाकात  !!६!!

 

म्हणायच्या त्या नेहमी !…..

डझनभर माझ्या नातींचा

अभिमान लयी भारी !

सुंदर माझ्या चिमण्या घेतील

पटापट भरारी !

अशा माझ्या सासुबाई वाटायच्या

खूप करारी !

पण होती आम्हांवर त्यांची मायेची

पाखर सारी !!

त्यांची मायेची पाखर सारी !!

त्यांची मायेची पाखर सारी !!७!!

 

©️®️उर्मिला इंगळे

 

दिनांक:-१८-२-२०२०

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 35 ☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “तृष्णाएं–दु:खों का कारण”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख में  महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 35☆

☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण 

किसी को हरा देना बेहद आसान है, परंतु किसी को जीतना बेहद मुश्किल है। तुम किसी को बुरा-भला कह कर, उसे नीचा दिखला कर, गाली-गलौच कर, उसे शारीरिक व मानसिक रूप से आहत व पराजित कर सकते हो, परंतु उस के अंतर्मन पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। ‘वास्तव में यदि तुम किसी का अनादर करते हो, तो वह खुद का अनादर है’… ऋषि अंगिरा का यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु अहंनिष्ठ बावरा मन इतराता है कि वह किसी पर क्रोध दरशा कर,  ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर  बड़ा बन गया है। वास्तव में इससे आपकी प्रतिष्ठा का हनन होता है, आपका मान-सम्मान दांव पर लगता है, दूसरे का नहीं… यदि वह मौन रहकर आपकी बदमिजाज़ी व आरोपों व को सहन करता है। इसलिए मनुष्य को दूसरे का अनादर करने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह अपना अनादर करने जा रहा है। लोग दूसरे को नहीं, आपको बुरा-भला कह कर आपकी निंदा करेंगे। ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ अर्थात् आधी भरी हुई गागर छलकती है, शोर करती है और पूरी भरी हुई शांत रहती है, क्योंकि  उसमें स्पेस नहीं रहता।

सो! जीवन में जितनी तृष्णाएं होंगी, उतने छेद होंगे। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। इसी प्रकार मानव आजीवन तृष्णाओं के भंवर से बाहर नहीं आ सकता, क्योंकि यह मानव को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म लेती है। सो! मानव को चिंतन करने का समय प्राप्त ही नहीं होता और न ही वह इस तथ्य से अवगत हो पाता है कि उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? वह क्यों आया है, इस जगत् में? उम्र भर वह स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से बाहर नहीं आ पाता। मनुष्य सदैव इसी भ्रम में जीता है कि वह सर्वश्रेष्ठ है और वह कभी गलती कर भी नहीं सकता।

‘विश्व रूपी वृक्ष के अमृत समान दो फल हैं… सरस प्रिय वचन व सज्जनों की संगति’…चाणक्य की उक्त युक्ति चिंतनीय है, माननीय है, विचारणीय है। अहंनिष्ठ, आत्मकेंद्रित व क्रोधी मानव सज्जनों की संगति नहीं करता…क्योंकि उसे तो सबमें दोष ही दोष नज़र आते हैं। सो! मधुर व प्रिय वचन बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रोधी व्यक्ति हर समय आग-बबूला रहता है तथा सदैव कटु वचनों का प्रयोग करना उसकी नियति बन जाती है। सरस व  प्रिय वचन तो वही बोलेगा, जो विनम्र होगा, ज़मीन से जुड़ा होगा, सत्य के निकट होगा, अच्छाई-बुराई से परिचित होगा, क्योंकि पके हुए फल जिस वृक्ष पर लगते हैं, वह सदैव झुका रहता है। लोग भी  सदैव उसे ही पत्थर मारते हैं, क्योंकि सबको मीठे फलों की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार लोग ऐसे व्यक्ति की संगति चाहते हैं, जो मधुभाषी हो, विनम्र हो, सत्य व हितकर वाणी बोले।

विद्या से विनम्रता आती है और विनम्रता से विनय भाव जाग्रत होता है। ‘सामान्यत: जो व्यक्ति के सत्य के साथ कर्त्तव्य-परायणता में लीन रहता है, उसके मार्ग में बाधक होना कोई सरल कार्य नहीं’… टैगोर जी का यह कथन कोटिश: सत्य है। जो व्यक्ति सत्य की राह पर चलता है, अपने कर्म को पूजा समझ कर करता है, उसके मार्ग में बाधाएं आ ही नहीं सकतीं और न ही उसे पथ-विचलित कर सकती हैं। अच्छे का फल सदैव अच्छा व बुरे का बुरा ही होता है। इसलिए अब्राहिम लिंकन कहते हैं कि ‘जब मैं अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस होता है और बुरा करता हूं, तो बुरा महसूस होता है, यही मेरा धर्म है।’ सो! वे उसे शास्त्र- सम्मत स्वीकार जीवन में धारण करते हैं। यदि आपके भीतर संतोष है, तो आप सबसे अमीर हैं…यदि शांति है, तो सबसे सुखी हैं… यदि दया है, तो आप सबसे अच्छे इंसान हैं। इसलिए संतोष व शांति से बढ़कर है करुणा भाव, जो इंसान को इंसान बनाता है। यही सर्वश्रेष्ठ गुण है… महात्मा बुद्ध ने भी करुणा को सर्वोत्तम गुण स्वीकारा है। प्रेम व करुणा में सभी दैवीय भाव समाहित हैं। जहां प्रेम के साथ करुणा है, वहां स्नेह व सौहार्द होगा, सहृदयता व सदाशयता होगी…एक-दूसरे की परवाह होगी और सहानुभूति, सहनशीलता व संवेदना होगी। जीवन में इनकी दरक़ार मानव को सदैव रहती है। इसलिए मानव को दूसरों के चश्मे से न देखने की सलाह दी गई है, क्योंकि उनकी नज़रें धुंधली हो सकती हैं। खुद को खुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

असफलता में सफलता छिपी होती है। हर असफलता मानव को पाठ पढ़ाती है, तभी वह एक दिन सफल होता है। सफलता अनुभव की पाठशाला है, जिससे गुज़र कर इंसान महानता का पद प्राप्त कर सकता है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘पहले के अनुभव से नया अनुभव हासिल करना होता है। इस क्रिया को ज्ञान कहते हैं।’ जो निर्णय लेने से पूर्व उसके समस्त पहलुओं पर चिंतन-मनन कर निर्णय लेता है, उसे असफलता का मुंह देखना नहीं पड़ता…यह क्रिया ज्ञान कहलाती है, जीवन की राह दर्शाती है । इसी संदर्भ में उनकी यह उक्ति भी विचारणीय है कि ‘कोई व्यक्ति कितना भी महान् क्यों न हो, आंखे मूंदकर उसके पीछे न चलें। यदि ईश्वर की ऐसी मंशा होती, तो वह हर प्राणी को आंख, कान, नाक, मुंह और दिमाग क्यों देता?’

इसलिए अंधानुकरण भले ही व्यक्ति का हो या रास्ते का,… मानव को पथ-विचलित करता है और दिग्भ्रमित  होने के कारण, उसका अपने लक्ष्य तक पहुंचना असंभव हो जाता है। एक बार गलत राह का अनुसरण करने के पश्चात् उसका लौटना दुष्कर होता है, अत्यंत कठिन होता है। इस उक्ति के माध्यम से, वे समाज को सजग-सचेत करते हुए कहते हैं कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। यह संसार मृग-तृष्णा है। उसके पीछे मत भागो अन्यथा रेगिस्तान में जल की तलाश में बेतहाशा भागते हुए हिरण के समान होगी, मानव की दुर्दशा… जिसका अंत प्राणोत्सर्ग के रूप में होना अवश्यांभावी है।

ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।  इंसान कमाल का है कि पसंद करे, तो बुराई नहीं देखता, नफ़रत करे, तो अच्छाई नहीं देखता। सो! ज्ञान से दृष्टि व सोच अधिक प्रभावशाली है। ज्ञान से हमें शब्दार्थ समझ में आते हैं, परंतु अर्थ हमें जीवन के रहस्य से अवगत कराते हैं.. अनुभव दे जाते हैं। वास्तव में प्रेम व नफ़रत से ही हर व्यक्ति का मूल्यांकन संभव हैं। अकसर हमारा ध्यान उसके दोषों की ओर नहीं जाता… यदि हम उससे घृणा करते हैं। इस स्थिति में हमें उसके दोष गुणों व अच्छाइयों-सम भासते हैं। जैसाकि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, उसकी दृष्टि में होता है। हमारी मन:स्थिति, सोच व नज़रिया निर्धारित करते हैं…व्यक्ति व वस्तु  के सौंदर्य व कुरूपता को…सो! ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ इससे भी बढ़कर है हमारा व्यवहार… जो  ज्ञान से भी बड़ा है। ज़िंदगी में अनेक परिस्थितियां आती हैं, जब ज्ञान फेल हो जाता है। परंतु हम उत्तम व्यवहार से प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सफल हो जाते हैं अर्थात् सुविचार व व्यवहार बगिया के वे सुंदर पुष्प हैं, जो व्यक्तित्व को महका देते हैं और सब्र व सच्चाई अपने शहसवार को कभी गिरने नहीं देते, न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में अर्थात् वे हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि जीवन एक यात्रा है… रो-रो कर जीने से लंबी लगेगी, हंस कर जीने से कब पूरी हो जाएगी… पता ही नहीं चलेगा। इसलिए अपनों के बीच अपनों की तलाश कीजिए… है तो यह बहुत कठिन, परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि पीठ में छुरा घोंपने वाले आपके निकटतम संबंधी व प्रियजन ही होते हैं। सो! दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखिए, यही सर्वोत्तम प्रेरणा-स्रोत है, जो आपकी दुर्गम राह को सुगम व प्राप्य बनाता है।

सो! तृष्णाएं सुरसा के मुख की भांति कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं, निरंतर बढ़ती रहती है और आजीवन हमें दु:ख के भंवर से बाहर नहीं आने देतीं। हम उन्हें पूरा करने में पूरे जीवन की खुशियां झोंक देते हैं… गलत हथकंडे अपनाते हैं और उनकी की भावनाओं को रौंदते हुए चले जाते हैं। दूसरों पर अकारण दोषारोपण करना, हमारी आदत में शुमार हो जाता है। निंदा हमारा स्वभाव बन जाता है और अहं व  सर्वश्रेष्ठता का भाव हमारे अंतर्मन में इस प्रकार घर कर लेता है, जिसे बाहर निकाल फेंकना व उससे मुक्ति पाना हमारे वश की बात नहीं रहती। तृष्णा व अहं का चोली दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। इसलिए जब आप तृष्णाओं को अपने जीवन से बाहर निकाल देते हैं…अहं स्वत: नष्ट हो जाता है और जीवन में सुख-शांति व आनंद का पदार्पण हो जाता है।

शालीनता, विनम्रता आदि इसके जीवन साथी के रूप में प्रवेश पाकर सुक़ून पाते हैं। समय पंख लगा कैसे उड़ जाता है, व्यक्ति जान ही नहीं पाता। उसके जीवन में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। अर्थशास्त्र भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देता है, क्योंकि  सीमित साधनों द्वारा इनकी पूर्ति करना असंभव है। यह चिंता, तनाव व अवसाद की जनक है, जिससे मुक्ति पाने का इंसान के पास कोई कारग़र उपाय नहीं है। तृष्णाएं हमारे जीवन को नरक के द्वार पर पहुंचा देती हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन है। परंतु जब तक हम उनके प्रवेश पर अंकुश लगा निषिद्ध कर देते हैं तो वे पुन: दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाते। तृष्णाएं तो सर्प की भांति हैं। उम्र भर दूध पिलाओ, डसने से बाज़ नहीं आतीं। यह सदैव हानि पहुंचाती हैं… मानव को कटघरे में खड़ा कर तमाशा देखती हैं। इनके फ़न को कुचलना ही सबके लिए उपयोगी व हितकारी है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 35 ☆ स्वतंत्र ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “स्वतंत्र।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 35 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – स्वतंत्र

“सोमा आज मकान मालिक का फोन आया 15 दिन के अंदर मकान खाली करना है।अब इतनी जल्दी कैसे कहां मकान मिलेगा?”

सोमा ने कहा…”कल चलते है सासू मां के पास उन्हें बताते हैं हो सकता है समस्या का हल निकल आये और उन्हें दया आ जाए  कह दें , तुम लोग आ जाओ अब अकेले रहा नहीं जाता”।

माँ  से मिले।  माँ को सब कुछ बताया ।उन्होंने कहा – “कोई बात नहीं, दो बिल्डिंग आगे एक मकान खाली है जाकर बात कर आओ।”

सोमा उनका मुंह देखती रही । हम सभी किराये के मकान में रह रहे हैं ।

कैसी माँ  है तीन बेटे है फिर भी अकेली  स्वतंत्र अपने घर में रहना चाहती है ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆ प्रभात ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “प्रभात ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆

☆ प्रभात ☆

सौगात

सूरज की यह लालिमा,देती सुखद प्रभात

खगकुल का कलरव मधुर,पूरब की सौगात

 

लालिमा

देख उषा की लालिमा,मन हर्षित हो जाय

करते सूरज को नमन,दिल से अर्घ चढ़ाय

 

पूरब

पूरब दिशा सुहावनी,पूरब घर का द्वार

उत्तम फल मिलता सदा,दूर भगे अँधियार

 

सूरज

सूरज की गर्मी सदा,करती नव बरसात

जिसके दिव्य प्रकाश से,डरती है यह रात

 

खगकुल

खगकुल की महिमा बड़ी,उनके रूप अनेक

देते संदेशा सुबह,काम करें सब नेक

 

प्रभात

प्रथम नमन माता-पिता,फिर प्रभात -सत्कार

करते जो उनके यहाँ,खुशियाँ सदाबहार

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 21 ☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “हाथी के दांत खाने के और ‌‌…..”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जो हम देख कर भी नहीं देख पाते और स्वयं को  कुछ भी करने में असहाय पाते हैं। जब तक हमारे हाथ पांव चल रहे हैं तब तक ही हमारा मूल्य है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 21 ☆

☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. 

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। उत्तर भारत में सर्दी के मौसम में शाम से ही ठंड पाँव पसारने लगती है। ऐसा लगने लगता है मानों ठंडक कपड़ों को भेदकर शरीर में घुस रही हो। मुझे नींद आ रही थी, एक झपकी लगी ही थी कि बर्तनों की खटपट सुनाई दी। सब तो सो गए फिर कौन इस समय रसोई में काम कर रहा है ? रजाई से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी फिर भी बेमन से मैं रसोई की ओर चल पड़ी। देखा तो सन्न रह गई। काकी काँपते हाथों से बर्तन माँज रही थी। शॉल उतारकर एक किनारे रखा हुआ था। स्वेटर की बाँहें कोहनी तक चढ़ाई हुई थी जिससे पानी से गीली ना हो जाए। दोहरी पीठ वाली काकी बर्तनों के ढ़ेर पर झुकी धीरे–धीरे बर्तन माँज रही थी।

मैं झुंझलाकर बोली – “क्या कर रही हो काकी ? समय देखा है ? रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं रजाई में लेटकर भी कँपकँपी छूट रही है और तुम बर्तन धोने बैठी हो ? छोड़ो बर्तन, सुबह मंज जाएंगे। बीमार पड़ जाओगी तुम।“

काकी से मेरी फोन पर अक्सर बातचीत होती रहती है। उनका हमेशा एक ही डायलॉग होता ‘गुड्डो’! काम से फुरसत नहीं मिलती। घर के काम खत्म ही नहीं होते। काकी की बातें मैं हंसी में टाल देती – “अब बुढ़ापे में कितना काम करोगी काकी ?” और सोचती शायद याददाश्त खराब होने के कारण काकी बातें दोहराती रहती हैं

मैं उनका हाथ पकड़कर जबर्दस्ती उठाना चाह रही थी। काकी मेरा हाथ छुड़ाते हुए बहुत शांत भाव से बोलीं “हम बीमार नहीं पड़तीं गुड्डो। हमारा तो यह रोज का काम है,  आदत हो गई है हमें।“ मैंने फिर कहा – “हालत देख रही हो अपनी  जरा – सा चलने में थक जाती हो। हाथ की उंगलियाँ देखो गठिए के कारण अकड़ गई हैं। काकी ! तुम जिद्द बहुत करती हो। भाभी भी तुम्हारी शिकायत कर रही थीं। भैया कितना मना करते हैं तुम्हें काम करने को, उनकी बात तो सुनो कम से कम।“

“रहने दे गुड्डो, क्यों जी जला रही है अपना। चार दिन के लिए आती है यहाँ आराम से रह और चली जा, भावुक ना हुआ कर। भैया – भाभी की मीठी बातें तू सुन। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। तू वह सुनती है जो वो तेरे सामने बोलते हैं। मैं साल भर वो सुनती हूँ जो वे मुझे सुनाना चाहते हैं। बूढ़ी हूँ, कमर झुक गई है तो क्या हुआ ? घर में रहती हूँ, खाना खाती हूँ, चाय पीती हूँ, मुफ्त में मिलेगा क्या ये सब ……………..?”

काकी काँपती आवाज़ में मुझे वह बताना चाह रही थीं जो मैं खुली आंखों से देख नहीं पा रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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