हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 13 ☆ कविता – प्यार में ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण कविता  “प्यार में.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 13 ☆

☆ प्यार में ☆ 

 

प्यार में हम जिए या मरे

मुश्किलों से मगर कब डरे

 

आस्था का समर्पण रहा

अर्घ्य देकर रहे हम खरे

 

बचपना जब हवा हो गया

फूल, शूलों में जाकर झरे

 

लोग कहते रहे यूँ हमें

कोई पागल, कोई मसखरे

 

खेत, बच्चे, पखेरू, विटप

सब मेरे दिल को लगते हरे

 

मेरे अंदर के बच्चे सभी

मुझसे मिलते हैं खुशियाँ भरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “समस्या का पंजीकरण”।  इस  बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ 

☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆

“आपकी समस्या सरकार की” अभियान में अपनी हिस्सेदारी की कठिनाई का टाइप किया हुआ प्रतिवेदन लेकर, रामभरोसे  गांव से सुबह की पहली बस से ही साढ़े दस बजते बजते जिले के दफ्तर में जा पहुंचा.

ग्राम सचिव से लेकर, सरपंच जी तक ने उसे दिलासा दी थी कि अब सरकार में जनता की कठिनाई, सरकार की समस्या है. इसके लिये  विशेष अभियान चलाया जा रहा है. लोगों से उनकी कठिनाईयां इकट्ठी की जा रही हैं. अगले बरस चुनाव भी होने वाले हैं, तो लोगों को उम्मीद है कि कठिनाईयों का कुछ न कुछ हल भी मिल सकता है. किन्तु समस्या के हल के लिये सबसे पहले समस्या का पंजीकरण जरूरी था, इसी मुहिम में रामभरोसे जिला दफ्तर आ पहुंचा था. इस प्रयास में उसका पहला साक्षात्कार दफ्तर के बाहर ही हनुमान मंदिर के निकट बने चाय के टपरे पर उपस्थित पकौड़े बना रहे  स्वरोजगार युवा से हुआ. रामभरोसे ने सदैव सर्वत्र उपस्थित हनुमान जी को नमन किया. पंडित जी भी बाकायदा घंटी की ध्वनि करते उपस्थित थे, उन्होने आरती का थाल रामभरोसे की ओर बढ़ाया, तो उसने न्यौछावर कर आरती ले ली और चाय के टपरे में दफ्तर खुलने की बाट देखता चाय पीने चला गया.  चाय पीते हुये बातों ही बातों में रामभरोसे को ज्ञात हुआ कि वह युवक डबल एमए भी है.  रामभरोसे के हाथों में टंकित प्रतिवेदन देखकर, चाय के रुपये काट कर बाकी चिल्हर लौटाते हुये उसने रामभरोसे को कार्यालय के आवक विभाग की दिशा भी सौजन्य स्वरूप दिखला दी. रामभरोसे बड़ा प्रसन्न हुआ, मन ही मन वह हनुमान जी को धन्यवाद करता हुआ, आवक विभाग की ओर बढ़ चला. वहां पहुंच रामभरोसे को पता चला कि  आवक लिपिक आये ही नही हैं. प्रतीक्षा का फल हमेशा मीठा होता है, घण्टे भर की प्रतीक्षा के बाद पान चबाते हुये जब आवक लिपिक आये, तो रामभरोसे ने अपनी अर्जी प्रस्तुत कर दी. आवक लिपिक ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, फिर अर्जी पढ़ी, रामभरोसे को लगा कि वह तो केवल समस्या के पंजीकरण के लिये आया था, लगता है बजरंगबली की कृपा से आज समाधान ही मिल जावेगा. पर तभी लिपिक की नजर अर्जी पर ऊपर ही टंकित पंक्ति ” आपकी समस्या सरकार की ” पर पड़ गयी.

लिपिक ने रामभरोसे के भोलेपन कर नाराजगी जाहिर करते हुये उसे ज्ञान प्रदान किया कि यह तो सामान्य अर्जियों का आवक विभाग है. इन दिनो जो यह विशेष अभियान चलाया जा रहा है उसकी पंजीकरण खिड़की तो प्रवेश द्वार के बाजू में ही बनायी गयी है,और खिड़की पर इस सूचना की तख्ती भी टांगी गई है. रामभरोसे को अपनी अज्ञानता पर स्वयं ही खेद हुआ,वह बजरंगबली से अपनी मूर्खता के लिये मन ही मन क्षमा मांगता हुआ तेजी से वापस प्रवेश द्वार की ओर लपका, वहां खिड़की के बाहर लम्बी कतार थी. रामभरोसे कतारबद्ध हो लिया. उसका नम्बर आने ही वाला था कि इंटरनेट हैंग हो गया, और सुबह से लगातार काम में जुटा आपरेटर कुर्सी छोड़ गया. रामभरोसे फिर रामनाम सुमिरन करते हुये,प्रतीक्षा के मीठे फल खाने लगा.  जब कतार की प्रतीक्षा हो हल्ले में तब्दील होते दिखने लगी तो, प्रोग्रामर को बुलाया गया उसने कम्प्यूटर बंद कर पुनः चालू कर साफ्टवेयर अपडेट किया. पर इस सब में लंच ब्रेक लग गया. खैर लंच के बाद काम शुरू होते ही रामभरोसे का नम्बर आ गया, और अपनी समस्या की कम्प्यूटर मुद्रित रजिस्ट्रेशन स्लिप पाकर रामभरोसे मुदित मन से लौट ही रहा था कि उसे थकान और भूख का अहसास हुआ. वह उसी सुबह वाले चाय के टपरे पर ही पकौड़े खाने घुस गया. डबल एमए सरोजगार युवक पकौड़ो का ताजा घान झारे से निकाल रहा था. रामभरोसे ने पकौड़े खाते हुये उस युवक के ज्ञान में संशोधन करते हुये उसे बताया कि सुबह उसने, आवक विभाग की गलत जानकारी बता दी थी, इस उपक्रम में जब रामभरोसे ने समस्या पंजीकरण कम्प्यूटर स्लिप में दर्ज अपना मोबाईल नम्बर पढ़ा तो उसे नम्बर गलत होने का अहसास हुआ, डबल जीरो की जगह ट्रिपल जीरो अंकित हो गया था, शायद आपरेटर की हड़बड़ी के चलते ऐसा हुआ हो, या की बोर्ड की खराबी भी हो सकती थी, पकौड़े खाकर  स्वयं को संतोष देता हुआ रामभरोसे बजरंगबली की मर्जी मान, फिर से लाईन में लगने जाने लगा. उसने देखा पंडित जी मंदिर में घंटी बजाते हुये नये आगंतुको की ओर आरती का थाल बढ़ा रहे थे.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆ फॉलोअर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “फॉलोअर। भला आज की सोशल मीडिया की दुनियां में कौन फॉलोअर नहीं चाहता? आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆

☆ फॉलोअर

आजकल  सभी अपने मन की बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे-  ट्विटर , फेसबुक  व व्हाट्सएप पर ही करना पसंद करते हैं । जो भी जी चाहे वहाँ लिखा और बस लाइक की चाह में बैठ गए मोबाइल लेकर । अब तो हर जगह एक ही मुद्दा है मेरे इतने फॉलोवर्स हैं तेरे कितने  हैं । मजे की बात ये है कि इस सम्बंध में लोगों के आइडल  फ़िल्मी स्टार्स व सेलिब्रिटी होते हैं ; उन्ही की तर्ज पर नए- नए बने मोबाइल स्टार भी अपने फॉलो की संख्या तो कम रखते हैं व जल्दी ही लोगों को अनफॉलो कर देते हैं । बस उन्हें तो फॉलोवर्स  चाहिए ।

इस शब्द को सुनकर कहीं न कहीं फालोऑन की याद आती है कि कैसे टेस्ट क्रिकेट में पहली पारी में दूसरी टीम के कम रन होने पर पहली टीम उसे दुबारा खेलने पर मजबूर करती है और अक्सर देखने में आता कि दुबारा भी आल आउट करके विजेता बनना या मैच का ड्रा होना । खैर ये तो सब खेल – खेल में चलता ही रहता है ।

फॉलो मी शब्द भी बहुत प्रचलित है कोई न कोई किसी न किसी को फॉलो अवश्य करता है। हमारे अपने कई रोल मॉडल होते हैं जिनके अनुयायी बनकर जीवन जीना आसान होता है । वैसे भी भेड़ चाल का अपना ही मजा होता है बिना दिमाग लगाए बस मौज उड़ाते रहो यदि गलती एक गड्ढे में गिरा तो उसी के पीछे सब उसी में गिर कर चीखते चिल्लाते रहते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि गिरने वाले  इतने सारे लोग होते हैं कि गड्डा भर जाता है और वे एक दूसरे की पीठ पर चढ़कर बाहर आने के लिए  एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं और कुशल चमचे अति शीघ्र ऊपर आ जाते हैं और बन जाते हैं मोटिवेशनल लीडर । जैसे ही लेखनी ने प्रेरणा रूपी आग ऊगली बस फॉलोअर बनने लगे ।

आजकल सबसे ज्यादा पोस्ट  भी बस मोटिवेशनल ही होती है हर व्यक्ति मोटिवेशन चाहता है । सच मानिए जैसे ही पूरा वीडियो देखा उसे लाइक शेयर और कॉमेंट किया तो ऐसा लगता है कि बस पूरी एनर्जी मेरे अंदर  आ गयी है । और  हम निकल पड़ते हैं दूसरे को ज्ञान बाँटने और हाँ अपने फॉलोअर बनाने के लिए फिर पोस्ट को स्पॉन्सर करते हैं । लोगों को व्हाट्सएप पर मैसेज भेज कर उन्हें अपनी पोस्ट पढ़ने हेतु  प्रेरित करते हैं और करना भी चाहिए क्योंकि किसी को प्रेरित करना आज के समय में बहुत बड़ा कार्य है । जहाँ एक तरफ लोग बिना स्वार्थ के किसी की पोस्ट पर लाइक तक नहीं करते वहीं दूसरी ओर लोगों को जाग्रत करने की बात ही कुछ और ही होती है ।

आज के  इलेक्ट्रॉनिक युग में लोकप्रिय होने से कहीं ज्यादा जरूरी है लोकप्रिय होने का दिखावा करना क्योंकि जो दिखता है वही बिकता है । इस तथ्य को सभी कम्पनियों द्वारा समय – समय पर सिद्ध किया जाता रहा है । और तो और अब तो  नेता व दलों का चुनाव भी ये प्रचार के स्लोगन ही निर्धारित करते हैं । आखिर शब्दों की शक्ति को  कौन नहीं जानता । शब्द तो ब्रह्म होते हैं ।  और जहाँ सच्चे शब्द वहाँ समझो जीत पक्की । बस हर क्षेत्र में फॉलो मी का ही खेल चल रहा है । कोई किसी से पिछाड़ी नहीं होना चाहता सभी अगाड़ी बन अपने – अपने स्वार्थ की गाड़ी चलाते रहना चाहते हैं तो बस आप भी जुट जाइये अपने फॉलोवर्स बढ़ाने की जद्दोजहद में और बन जाइये  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सुपर स्टार ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 36 – रुक ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा   “रुक  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #36 ☆

☆ लघुकथा – रुक ☆

 

रघु अपनी पत्नी को सहारा देते हुए बोला. ” धनिया ! थोड़ी हिम्मत और कर. अस्पताल थोड़ी दूर है. अभी पहुच जाते है.” मगर धनिया की हिम्मत जवाब दे चुकी थी. वह लटक गई.

रामू और सीता अपनी अम्मा का हाथ पकडे हुए चल रहे थे.

इधर धनिया गश खा कर गिर पड़ी. यह देख कर रघु घबरा गया. इधरउधर देख कर बोला ,” बस धनिया ! थोड़ी देर और रुक जा. हम अस्पताल पहुँचने वाले है.” मगर धनिया का समय आ गया था. वह हाफाने लगी.

“रामू – सीता, तुम अम्मा को सम्हालना. मैं अभी अम्बुलेंस ले कर आता हूँ.” कह कर रघु ने इधरउधर सहायता के लिए पुकारा और फिर अस्पताल की ओर  भाग गया.

इधर धनिया भी चुपचाप चली गई और बच्चे माँ को चुपचाप देख कर रोने लगे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 35 – सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक प्रेरक कविता  “सोच के अनुरूप ही परिणाम भी….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 35 ☆

☆ सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆  

 

एक पग आगे बढ़ो

पग दूसरा आगे चलेगा।

 

एक निर्मल मुस्कुराहट

पुष्प खुशियों का खिलेगा।

 

एक सच के ताप में

सौ झूठ का कल्मष जलेगा।

 

इक निवाला प्रेम का

संतृप्ति का एहसास देगा।

 

सज्जनों की सभासद में

एक दुर्जन भी खलेगा।

 

खोट है मन में यदि तो

आस्तीन विषधर पलेगा।

 

प्रपंचों पर पल रहा जो

हाथ वो इक दिन मलेगा।

 

जी रहा खैरात पर

वो मूंग छाती पर दलेगा।

 

अंकुरित होगा वही

जो बीज भूमि में गलेगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 37 – गझल – ………. आले चांदणे! ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक प्यारी सी ग़ज़ल “……. आले चांदणे!.  सुश्री प्रभा जी की  यह गजल चन्द्रमा की चाँदनी को जीवन  दर्शन से जोड़ती हुई प्रतीत  होती है। चन्द्रमा अमावस्या से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा  के पूर्ण चन्द्रमा तक अपनी कलाओं  और आकार से हमारे जीवन से सामंजस्य बनाये रखता है।  सुश्री प्रभा जी ने इस सामंजस्य को अपनी ग़ज़ल में बेहतरीन तरीके से एक सूत्र में पिरोया है। इस अतिसुन्दर  ग़ज़ल  के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 37 ☆

☆ गझल – ………. आले चांदणे! ☆ 

 

मध्यरात्री जन्मताना घेऊन आले चांदणे

गर्द काळ्या त्या तमाला भेदून  आले चांदणे

 

जन्म जेथे जाहला त्या गावात माझा चांदवा

त्याच गावी  आठवांचे ठेवून आले चांदणे

 

ती किशोरी धीट स्वप्ने गंधाळली तेजाळली

मी दुपारी तप्त सूर्या देवून आले चांदणे

 

नेहमी मी मोह फसवे हेटाळले या जीवनी

संशायाचे बीज का हो पेरून आले  चांदणे

 

दूषणे सा-या जगाची सोसून मी तारांगणी

पौर्णिमेने ढाळलेले वेचून  आले चांदणे

 

जीवनाचे गीत गाता आसावरी झंकारली

आर्ततेचे सूर सारे छेडून  आले चांदणे

 

तारकांचा गाव  आता देतो “प्रभा” आमंत्रणे

शुभ्र साध्या भावनांचे  लेवून  आले चांदणे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 16 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु”.)

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆

मेरे साथी श्री उदय सिंह टुंडेले ने महात्मा जी पर  लिखा कि  “यह कुछ ऐसा ही है कि तेज रौशनी में हमारी आँखें चौंधियां जाती हैं और हम आसपास की कई चीजें देख ही नहीं पाते.” सचमुच गांधीजी का भारत भूमि की धरा पर आगमन कुछ ऐसा ही था। यदि वे बीसवीं सदी में हमारे देश को ईश्वर की अनुपम देन है तो पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के लिए गांधीजी की अद्भुत खोज हैं। गांधीजी को नेहरू ने परखा, समझा, उन्हे समर्थन दिया और कभी कभी उनके विचारों से असहमति  भी व्यक्त करी और उन पर बेबाकी से भरपूर लिखा। अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में उन्होने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गांधीजी की छाप की विस्तृत विवेचना की है। एक अध्याय “गांधीजी मैदान में” वे लिखते है:

“ 1919 के शुरू में गांधीजी एक सख्त बीमारी से उठे थे। रोग-शैय्या से उठते ही उन्होने वॉइसराय से प्रार्थना की थी की वह इस बिल को कानून न बनने दें। इस अपील की उन्होने, दूसरी अपीलों की तरह कोई परवाह ना की और उस हालत में, गांधीजी को अपनी तबीयत के खिलाफ इस आंदोलन का अगुआ बनना पड़ा, जो उनके जीवन में पहला भारत-व्यापी आंदोलन था।उन्होने सत्याग्रह सभा शुरू की, जिसके मेम्बरों से यह प्रतिज्ञा कराई गई थी के उनपर लागू किए जाने पर वे रौलट-कानून को न मानेंगे।दूसरे शब्दो में यह खुलमखुल्ला और जानबूझकर जेल जाने की तैयारी करनी थी।

जब मैंने अखबारों में यह खबर पढ़ी तो मुझे बड़ा संतोष हुआ।आखिर इस उलझन से एक रास्ता मिला तो। वार करने का एक हथियार तो मिला, जो सीधा, खुला और बहुत करके रामबाण था। मेरे उत्साह का पार ना रहा और में फौरन सत्याग्रह सभा में शामिल होना चाहता था।…मगर एकाएक मेरे सारे उत्साह पर पाला पड़ गया और मैंने समझ लिया की मेरा रास्ता आसान नहीं है, क्योंकि पिताजी इस विचार के घोर विरोधी थे।…पिताजी ने गांधीजी को बुलाया और वह इलाहाबाद आए। दोनों की बड़ी देर तक बातें होती रही। उस समय मैं मौजूद न था। इसका नतीजा यह हुआ कि गांधीजी ने मुझे सलाह दी कि जल्दी न करो और ऐसा काम न करो जो पिताजी को असह्य हो।“

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू के जीवन, रहन सहन, तौर तरीके से अच्छे-खासे प्रभावित थे, और सही मायने मे  आम भारतीय पुत्रों की तरह वे भी पिता को अपना आदर्श मानते थे। “मेरी कहानी” के एक अध्याय “ पिताजी और गांधीजी” में वे अपने पिता व गांधीजी की तुलना करते हुये लिखते हैं कि “ मगर मेरे पिताजी गांधीजी से कितने भिन्न थे! उनमें भी व्यक्तित्व का बल था और बादशाहियत की मात्रा थी। वह ना तो नम्र ही थे , न मुलायम ही, और गांधीजी के उलट वह उन लोगों की खबर लिए बिना नहीं रहते थे जिनकी राय उनके खिलाफ होती थी।“ विचारों से इतनी मत-भिन्नता रखने वाले पंडित मोतीलाल नेहरू को भी  गांधीजी ने अपना मित्र बना लिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू आगे लिखते हैं- “ एक दूसरे से उनकी राय चाहे कितनी ही खिलाफ होती, लेकिन दोनों के दिल में एक दूसरे के लिए सद्भाव और आदर था। ‘विचार-प्रवाह’ (Thought Currents) नाम की एक पुस्तिका में गांधीजी के लेखों का संग्रह छापा गया। इस पुस्तक की भूमिका पिताजी ने लिखी थी। उन्होने लिखा है- मैंने महात्माओं और महान पुरुषों की बाबत बहुत सुना है, लेकिन उनसे मिलने का आन्नद मुझे कभी नहीं मिला। और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझे उनकी असली हस्ती के बारे में कुछ शक है। मैं तो मर्दो में और मर्दानगी में विश्वास करता हूँ। इस पुस्तिका में जो विचार इकट्ठा किए गए हैं, वे एक ऐसे ही मर्द के दिमाग से निकले हैं और उनमे मर्दानगी है।वे मानव प्रकृति के दो बड़े गुणों के नमूने हैं-यानी श्रद्धा और पुरुषार्थ के… जिस आदमी में न श्रद्धा है, न पुरुषार्थ है, वह पूछता है, ‘इन सबका नतीजा क्या होगा?’ यह जबाब कि जीत होगी या मौत उसे अपील नहीं करता। इस बीच में वह विनीत और छोटा-सा व्यक्ति अजेय शक्ति और श्रद्धा के साथ सीधा खड़ा हुआ अपने देश के लोगों को मातृभूमि के लिए अपनी कुर्बानी करने और कष्ट सहने का अपना संदेश देता चला जा रहा है। लाखों लोगों के हृदय में इस संदेश की प्रतिध्वनि उठती है।………”

ऐसा नही था की पंडित नेहरू गांधीजी के प्रत्येक निर्णय से सहमत होते। अनेक अवसरों पर उन्होने गांधीजी से विभिन्न मत रखा और अपनी आत्मकथा में इसका उल्लेख भी बड़ी शालीनता से किया है। सितंबर 1932 के बीच में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा लिए गए सांप्रदायिक निर्णय जिसके अनुसार दलित जातियों को अलग चुनाव के अधिकार दिये जाने के विरोध में वे गांधीजी द्वारा आमरण अनशन किए जाने के निर्णय से असहमत थे। अपनी आत्मकथा के “धर्म क्या है?” अध्याय में वे लिखते हैं – “ और फिर मुझे झुझलाहट भी आई  कि उन्होने अपने अंतिम बलिदान के लिए एक छोटा सा, सिर्फ चुनाव का, मामला लिया है। हमारे आजादी के आंदोलन का क्या होगा? क्या अब, कम से कम थोड़े वक्त के लिए ही सही, बड़े सवाल पीछे नहीं पड़ जाएँगे? और अगर वह अपनी अभी की बात पर कामयाब भी हो जाएँगे, और दलित जातियों के लिए सम्मिलित चुनाव प्राप्त भी कर लेंगे, तो क्या इससे एक प्रतिक्रिया न होगी, और यह भावना न फैल जाएगी कि कुछ-न-कुछ तो प्राप्त कर ही लिया गया है, और कुछ दिन तक अब कुछ भी नही करना चाहिए?”

पंडित नेहरू 1934 में अलीपुर जेल में कैद थे, तभी उन्हे अखबारों से खबर मिली कि गांधीजी ने सत्याग्रह वापिस ले लिया है, इस खबर से वे विचलित हुये। अपनी आत्मकथा  के एक अन्य अध्याय “नैराश्य” में वे लिखते हैं “ लेकिन गांधीजी की महानता का, भारत के प्रति उनकी महान सेवाओं का या अपने प्रति की गई महान उदारताओं का, जिनके लिए मैं उनका ऋणी हूँ, कोई प्रश्न ही नही है। इन सब बातों के होते हुये भी वह बहुत सी बातों में गलती कर सकते हैं।आखिर उनका लक्ष्य क्या है? इतने वर्षो तक उनके निकटतम रहने पर भी मुझे खुद अपने दिमाग में यह बात साफ साफ नही दिखाई देती कि उनका ध्येय आखिर क्या है। वह यह कहते कभी नही थकते कि हम अपने साधनों की चिंता रक्खे तो साध्य अपने आप ठीक हो जाएगा।“

पंडित नेहरू द्वारा अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में गांधीजी के विषय में बहुत  कुछ भी लिखा गया है  और इस आत्मकथा के विभिन्न अध्याय हमे गांधीजी के विचारों की तह में जो भावनाएँ काम करती रही हैं उन्हे समझने में मदद करते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – शारदा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अतिसुन्दर लघुकथा  “शारदा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज के एक पहलू को दर्शाती है साथ ही यह भी कि हम जो संस्कार देते हैं या बच्चे समाज से पाते हैं, वे उसी का अनुसरण भी करते हैं। ) 

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 13 ☆

☆ लघुकथा – शारदा ☆

 

चौदह बरस की शारदा का विवाह बचपन मैं तय किये गये बाईस वर्षीय लड़के के साथ कर दिया गया। शारदा तो खुश थी।

बचपन से संस्कार से भरी बालिका पहनने ओढ़ने  से बेहद अपने आपको सुंदर समझ रही थी। पर वह लड़का खुश नहीं था। ससुराल पहुँचते ही पता चला कि जिसके साथ उसे सात फेरों में बांधा गया है। माँ ने कहा था बेटी जिसके साथ फेरे लेती है वही जीवन भर उसका साथी होता है । उसी से निभाया जाता है। किसी और के बारे में कुछ भी नहीं  सोचा जाता ।

यहाँ आते ही उसे पता चला कि वह किसी और से भी विवाह कर चुका है और वह उसके साथ ही रहना चाहता है। शारदा एक पढ़ी और समझदार लड़की थी। भले वह पाँचवीं पढ़ चुकी थी। अधिक बहस में न पड़ माँ पिता को समझा कर तलाक के लिये अर्जी लगवा दी।

फिर विधिपूर्वक तलाक भी हो गया। तलाक हो जाने के बाद सबके कहने पर भी उसने विवाह नहीं किया। और जब कोई भी उससे कहता या पूछता कि आगे क्या होगा तब वह कहती जिसने मुझे बनाते समय यह सब सोच  लिया था तो आगे भी वही समझेगा। एक बार ही खुशियों का द्वार भारतीय लड़कियों का खुलता है बार बार नहीं खुलता। अर्थात हो चुका जो होना था अब और नहीं।

….और उसने आगे पढ़ने का मन बना लिया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆ खामोशी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खामोशी”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆

☆ खामोशी

बारिश है

कि बरसे ही जा रही है,

काले बादलों ने

हरी-भरी धरती को भिगो रखा है,

एक अजीब सी खामोशी है हर तरफ!

 

परिंदों की आवाज़

कहीं खो गयी है,

गुल भीग-भीगकर

नम हो गए है

और झर रहे हैं,

बस हवाएं हैं कि

ज़ोरों से बोले जा रही हैं

और मचल रही हैं

कुछ कहने को!

 

मेरा दिल भी

बहुत कुछ कहना चाहता है

पर इस खामोशी ने

मुझे भी भिगो रखा है

और आज मैं बैठी रहना चाहती हूँ

बस चुपचाप एक कोने में

अपने मन के साथ,

अपनी ज़िदगी की किताब के

हर पन्ने को को

बस पलट-पलटकर देखना चाहती हूँ;

बस यही तमन्ना है

कि जितना हो सके

चूस लूँ जुस्तजू के वो सारे लम्हे

जिसकी चिंगारी ने मेरे ज़हन में

रौशनी भर दी थी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 7 ☆ शब्द … और कविता ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “शब्द … और कविता”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #

☆ शब्द … और कविता ☆

 

मेरे शब्द

कभी सोते नहीं।

जब तुम सोते हो

तब भी नहीं

और

जब मैं सोता हूँ

तब भी नहीं।

 

ये

शब्द ही तो

मेरे वजूद हैं

मेरी पहचान हैं।

 

जब सारी दुनिया सोती है

अपनी अपनी दुनियाँ में

अपनी अपनी नींद में

तब ये शब्द ही

मुझे जगाते हैं

और

कराते हैं

अहसास

कि –

कुछ शब्द नादान हैं

एक दूसरे से अनजान हैं।

 

कोशिश करता हूँ

उन्हें जोड़ने

मन मस्तिष्क के शब्दकोश में

उन्हे बताने कि –

यही तो उनकी पहचान है।

ये शब्द

कभी – कभी

जुड़ जाते हैं

और

कभी कभी

हाथों से फिसल जाते हैं

और

चले जाते हैं

दूर

बहुत दूर।

 

झील के पार

नदी के पार

दूर

पहाड़ों पर

पहाड़ों पर बने

किलों पर

समुन्दर पर

और

कभी कभी

सात समुन्दर पार भी

सवार होकर

मेरे मन की उड़ान पर ।

 

शब्द तो

स्वतंत्र हैं।

उन्हें कोई भी

बाँध नहीं सकता।

किसी का

मन मस्तिष्क भी नहीं

और

किसी देश की

सीमा भी नहीं ।

 

जब कभी

होता हूँ अकेला

तब चुपचाप

ये ही शब्द

मुझे

सुनाते हैं

शान्त झील

और

पहाड़ी नदी के गीत

हरे – भरे

खेतों – मैदानों

की शान्ति

और

पहाड़ों

घने जंगलों में फैली

भयावहता की कहानियाँ।

श्मशान की भयावहता

और

ऐतिहासिक किलों में दफन

इतिहास।

 

इन सभी शब्दों का

अपना वजूद है

मेरे जेहन में

मेरे अपने शब्दकोश में ।

 

मेरे सभी शब्द

मेरे प्रिय हैं

मेरे अतिप्रिय हैं

 

कभी – कभी

राह चलते

मिल जाते हैं

कुछ कठोर शब्द!

जो विचलित कर देते हैं

तब

उन्हें करना पड़ता है – दरकिनार।

तभी

रच पाता हूँ

शेष शब्दों से

ऐसे ही एक कविता!

 

बेम्बर्ग 29 मई 2014

 

 

© हेमन्त बावनकर

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