डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का प्रेरकआलेख “सुखी जीवन का मंत्र”. डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख का प्रथम कथन “सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो ” यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है। डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 34☆
☆ सुखी जीवन का मंत्र ☆
‘सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो’ यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है। उसके जीवन में कभी अवसाद आ ही नहीं सकता, क्योंकि जब मन में किसी के प्रति दुर्भावना व दुष्भावना नहीं होगी, तो तनाव कैसे होगा? सो! आपको किसी में भी बुराई नज़र आयेगी ही नहीं। आइए! आज से उसे धारण करते हैं, जीवन में तथा उस परमात्म सत्ता का हर पल नाम-स्मरण करना…सृष्टि में उसकी सत्ता को अनुभव करना और ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ को अपने अंतर्मन में बसाए रखना अर्थात् उसकी विस्मृति न करना ही सुखी जीवन का रहस्य है। यह अकाट्य सत्य है कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, फिर उससे भय कैसा? गीता में तो इसे वस्त्र धारण करने के समान स्वीकारा गया है। मृत्यु के पश्चात् मानव शरीर भी नया चोला धारण करता है… इसके लिए शोक क्यों?
यदि हम सृष्टि-नियंता में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, तो हम कभी कोई गलत काम करने की सोचते भी नहीं, क्योंकि ‘कर्म करावन अपने आप, न कछु बंदे के हाथ’ जब मालिक सब कुछ करने वाला है…सो! कल की चिंता क्यों? आज अथवा वर्तमान निश्चित है, कल कभी आता नहीं, क्यों न आज ही अच्छे कर्म करें? कल अनिश्चित है, कभी आता नहीं, फिर क्यों न आज से ही अच्छे कर्म करें, खूब परिश्रम कर जीवन को सार्थक बनाएं। क्योंकि आज कभी जाता नहीं और कल आता नहीं। इसलिए हर पल को जीवन का अंतिम पल समझ कर, प्रसन्नता से जीना चाहिए। अपने हृदय में कलुषता व किसी के प्रति मलिनता ने आने दें। इस स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का शमन-अंत स्वत: हो जाएगा। राग-द्वेष की जनक है, स्व-पर की भावना अर्थात् जब हम अपनों से प्रेम करते हैं, उनका हित चाहते हैं, उस स्थिति में अपने-पराए का भाव घर कर जाता है और हम उसके हित में कुछ ग़लत भी कर गुज़रते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘अंधा बांटे रेवड़ियां, बार-बार अपनों माहिं’ उसे अपनों के सिवाय कोई नज़र ही नहीं आता। उसका दायरा बहुत सीमित होता है। परंतु मानव में सबके प्रति समभाव और प्राणी-मात्र के कल्याण का भाव होना चाहिए। इस स्थिति में वह संतोषी जीव अपरिग्रह रूपी रोग से मुक्त रहेगा और उसके मन में यही धारणा बनी रहेगी, कि इस संसार में मानव जो भी करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। सो! मानव नि:स्वार्थ भाव से कार्य करता है। परंतु स्वार्थ हमें एकांगी बनाता है, आत्म- केंद्रितता का भाव जाग्रत करता है, जिसका जनक है…लोभ व मोह का भाव। माया के कारण यह नश्वर संसार व संबंध सत्य भासते हैं, जबकि सब संबंध स्वार्थ के होते हैं तथा इनसे मुक्ति पाना मानव जीवन का लक्ष्य होता है।
यह स्थिति तभी आती है, जब मानव दो बातें भूल जाए…कि ‘उसने कभी किसी का भला किया है या किसी ने उसका बुरा किया है।’ और ‘भलाई कर कुएं में डाल’ इस कहावत से तो आप सब परिचित होंगे। यदि आप किसी का हित करके उसे नहीं भुलाते हैं, तो आपके अंतर्मन में प्रतिदान की इच्छा जाग्रत होना स्वाभाविक है। आप में अपेक्षा भाव जाग्रत होगी कि मैंनें उसके लिए यह सब किया, परंतु बदले में मुझे क्या मिला… यह भाव हमें पतन के गर्त में ले जाता है। हम स्वार्थ के ताने-बाने से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते।। इसका दूसरा पक्ष यह भी है, कि हम भूल जाएं… किसी ने हमारा बुरा किया है। जी हां! हम यह सोचें कि यह तो हमारे कर्मों का फल है, जो हमें मिला है। इसमें किसी का क्या दोष… भगवान ने उसे बुद्धि ही ऐसी दी है, तभी वह यह सब कर रहा है, वरना उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह सकारात्मक सोच है, जो हमें व्यर्थ की चिंता व चिंतन से मुक्त कर सकती है और हम तनाव-रहित जीवन जी सकते हैं। यह सोच हमारे हृदय में प्रभु के प्रति आस्था भाव उत्पन्न करती है कि वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है…वह हमारा बुरा कभी सोच ही नहीं सकता। जिस प्रकार माता-पिता मतभेद होने के पश्चात् भी, अपनी संतान का हित चाहते हैं, तो वह सृष्टि-नियंता, जिससे हमारा जन्म- जन्मांतर का अटूट संबंध है, वह हमारा अमंगल कैसे कर सकता है? वह तो हमारा सच्चा हितैषी है, जो हमें प्रभु देता है, जिससे हमारा मंगल होता है, न कि जो हम चाहते हैं। इसलिए सब कुछ प्रभु पर छोड़ कर, मस्ती से जियो… सब अच्छा ही अच्छा होगा और जीवन में कभी भी, कोई बुरा वक्त आएगा ही नहीं।
मुझे स्मरण हो रहा है, ग़ालिब का वह शेयर
गुज़र जायेगा यह दौर भी, ज़रा इत्मीनान तो रख
जब खुशी ना ठहरी, तो ग़म की औक़ात क्या
अर्थात् सुख-दु:ख, हानि-लाभ सब मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। दोनों एक स्थान पर इकट्ठे ठहर ही नहीं सकते। सो! स्मरण रहे, कि रात के पश्चात् दिन व दु:ख के पश्चात् सुख का आना अवश्यंभावी है। सूरज भी हर शाम अस्त होता है और भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, सबको उल्लसित- ऊर्जस्वित करता है। वह कभी निराश नहीं होता और पूर्ण उत्साह से अंधकार को दूर करता है।
सो! परिवर्तन सृष्टि का नियम है और समय अपनी गति से निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं। इसलिए मानव को भी निरंतर पूर्ण उत्साह व साहस के साथ कर्मशील रहना चाहिए। ज़िंदगी तो एक फिल्म की भांति है, जिसका अर्द्ध-विराम होता ही नहीं, केवल अंत होता है। इसलिए जीवन में कभी रुकिए नहीं, अविराम चलते रहिए…अपनी संस्कृति तथा संस्कारों से जुड़े रहिए। इंसान कितना भी ऊंचा उठ जाए, परंतु उसके कदम ज़मीन से जुड़े रहने चाहियें, क्योंकि अहंकारनिष्ठ मानव पल भर में अर्श से फर्श पर आन गिरता है। इसलिए अहं को कोटि शत्रुओं सम स्वीकार, उसका त्याग कर दीजिए और जीवन को साक्षी भाव से देखने का अंदाज़ सीख लीजिए, क्योंकि जो होना है, निश्चित है… अवश्य होकर रहेगा। लाख प्रयास करने पर भी, आप उसे रोक नहीं सकते। सो! आप प्रेम से पूरे संसार को जीत सकते हैं और अहं से सब कुछ खो सकते हैं। इसलिए प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलिए मत, क्योंकि यह विकास पथ में अवरोधक स्वरूप प्रकट होते हैं। हां! आलोचना पर गंभीरता से विचार करना अपेक्षित है, यह हमें अपने गुण-दोषों से अवगत करा कर, सीधे-सपाट मार्ग पर चलने की राह दर्शाती है। इसलिए उन पहलुओं पर दृष्टिपात कर चिंतन-मनन कीजिए और अपने दोषों में सुधार कीजिए।
सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक है… अच्छे दोस्तों का होना। धन व दोस्त समान होते हैं, अनमोल होते हैं… जिन्हें बनाना तो बहुत कठिन और खोना बहुत आसान होता है। इसी प्रकार रिश्ते भी नाज़ुक होते हैं, तनिक लापरवाही व ग़लतफ़हमी से टूट जाते हैं। इन्हें बहुत सहेज व संजो कर रखने की आवश्यकता होती है। सो! आप दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि अपेक्षा ही तनाव का कारण है। न अपेक्षा, न ही उपेक्षा। सो! निरपेक्षता को जीवन- मंत्र बना लीजिए। सब को सम्मान दीजिए, सम्मान प्राप्त कीजिए…सारे जहान की खुशियों से आपका दामन भर जायेगा और ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख’ वाली कहावत सार्थक हो जायेगी। इसलिए दाता बनिए… किसी के सम्मुख हाथ न पसारिए। आत्म संतोष सबसे बड़ा धन है और इस के सम्मुख सब धन धूरि समान अर्थात् रहीम जी के यह शब्द ‘जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान’ बहुत सार्थक है। संतोष रूपी धन, अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने व आत्माव- लोकन करने के पश्चात् प्राप्त होता है। जब हम संसार को मिथ्या समझ, सबका मंगल चाहने लगते हैं और सृष्टि के कण-कण में परमात्मा सत्ता का आभास पाते हैं, तो उस परम सत्ता से हमारा तादात्म्य हो जाता है। इस स्थिति में हृदय पावन हो जाता है तथा हम किसी का अमंगल चाहते ही नहीं… न ही हमें किसी से अपेक्षा रहती है। सो! हमें वक्त, दोस्त व संबंधों की कद्र करनी चाहिए…वे अनमोल होते हैं। हमारे जीवन का आधार होते हैं… उन्हें बहुत संभाल कर रखना चाहिए।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878