हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रसहीन ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – रसहीन  

प्रकृति से दूर कांक्रीट के जंगल में भटकती हुई एक तितली गिफ्ट सेंटर पर लटके सजावटी रंगबिरंगे फूलों की माला पर आकर्षित होकर , कभी इस फूल पर , कभी उस फूल पर बैठती एवं कुछ देर पश्चात पुनः उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठती । यह प्रक्रिया कुछ देर चलती रही और फिर तितली निढाल अवस्था में वहीं शो केस के कांच पर बैठ गई ।

उसे क्या पता था कि इन फूलों में रस नही है , ये केवल दिखावटी हैं । इन्हीं प्लास्टिक के फूलों की तरह मनुष्य भी प्राकृतिक सौंदर्य से दूर केवल बनावटी जीवन में ही रस ढूंढ़ते हुए रसहीन हो चुका है ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ।  हाँ इतना अवश्य कहना होगा कि- सर अगली बार ऑथर फ्रेंडली  पब्लिशर्स पर अवश्य प्रकाश डालने का कष्ट करियेगा। कई ऑथर्स अपनी बुक्स लेकर ऑथर फ्रेंडली पब्लिशर्स तलाश रहे हैं। इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ।  अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆☆

इन दिनों आप एक छोटा सा सेफ्टी पिन खरीदने जाईये, आपको साड़ी फ्रेंडली मिलेगा. हेयर फ्रेंडली शैम्पू, नोज फ्रेंडली नथ, होंठ फ्रेंडली लिप-ग्लॉस, सामानों की दुनिया में इतना दोस्ताना माहौल पहले शायद ही कभी देखा गया. पिछले दिनों वाईफ और मैं एक तवा ख़रीदने गये. दुकानदार ने कहा – रुकिये मैडम, हम आपको होम-मेकर फ्रेंडली तवे दिखाते हैं.  मुझे लगा कि फ्रेंडली तवे शायद मांजने नहीं पड़ते, या कि उन पर गरम किये बिना ही रोटियां सेंकी जा सकती हैं, हो सकता है फ्रेंडली तवे झक्कास गोरे-गोरे से दीखते हों. दुश्मन तो अब तक का, घर का तवा भी नहीं था जो बरसों पहले किसी लुहार से माँ ने खरीदा था. तवा तवे जैसा ही था, मगर था महंगा. जब हवाला दोस्ती का दिया गया हो तो क्या तो बार्गेन का करना और क्या मन में महंगे का मलाल रखना. होम-मेकर खुश थी सो ले लिया.

रफ़्ता रफ़्ता दोस्ताना इंसानों से सामानों में शिफ्ट होता जा रहा है. किसी पुराने दोस्त के मिलने से चेहरे पर चमक पर आये न आये, स्किन फ्रेंडली साबुन से घिसने से जरूर आ जाती है. आदमी का दर्द बांटनेवाला भी कोई हो न हो कपड़ों का हमदर्द हाज़िर है. और हाँ, ‘यारों से बने हम’ की टैग लाईन में दोस्ती का पैगाम भले दिया हो मगर एक रिस्क भी है. इस मादक रसायन को पिलाने के बाद चार-यार अपने दोस्त को नाली में अकेला छोड़कर भी जा सकते हैं. उमर बीत जाती है सच्चा साथी खोजते-खोजते, मिल नहीं पाता, कोल्ड क्रीम में मिल जाता है – आपकी त्वचा का सच्चा साथी. जब ‘योर्स फ्रेंडली गैस’ की बात चले तो बिना हलचल मचाये, आसानी से, बे-आवाज, पेट से खिसकती गैस मत समझियेगा श्रीमान, ये एचपी की रसोई गैस की टैग लाइन है. इस गैस पर पकनेवाला भोजन भी फ्रेंडली होता जा रहा है. हार्ट फ्रेंडली डाईट, किडनी फ्रेंडली प्रोटीन, लीवर फ्रेंडली फ़ूड. जुबाँ फ्रेंडली व्यंजन तो बेशुमार हैं, नहीं हैं तो बस एक अदद हमजुबाँ फ्रेंड नहीं है.

फ्रेंडली माहौल सिर्फ सामान की दुनिया में ही नहीं है, पप्स एंड पेट्स की दुनिया में भी है. जो लोग पेरेंट्स के लिये स्पेस नहीं निकाल पाते वे भी डॉग फ्रेंडली मकान जरूर बनवा लेते हैं, पप्पीज के लिये गुलाटियाँ फ्रेंडली लॉन, लॉन में थोड़ी थोड़ी दूर पर फ्रेंडली खम्बे, कुत्तों के फ्रेश होने की फ्रेंडली फेसिलिटी, डॉग फ्रेंडली हाउस में हाउस फ्रेंडली डॉग्स.

ये फ्रेंडलीनेस सस्ती नहीं है श्रीमान. माल जितना ज्यादा फ्रेंडली, उतनी ऊँची कीमत. भ्रम में पड़ जाते हैं आप कि सामान के जरिये दोस्ती बेची जा रही है या दोस्ती के जरिये सामान. बाज़ार है कि खामोशी से दोनों बेच रहा है. अब तो भगवान भी आपको फ्रेंडली किसम के लाने हैं. गणेश अब सिंपल गणेश नहीं रहे, वे ईको फ्रेंडली मोड में आने लगे हैं. लक्ष्मीजी के लिये ईको फ्रेंडली पटाखे और मंदिरों में दर्शन फ्रेंडली ऊँची दर पे टिकट. फिर, तुलसीदासजी को ही कब पता था कि एक दिन उनकी हनुमान चालीसा वोटर फ्रेंडली साबित होगी.

धोखे भी कम नहीं हैं इस ट्रेंड में श्रीमान. हम आस लगाये रहते हैं कॉमन-मैन फ्रेंडली बजट की, निकलता है कंपनी फ्रेंडली. हर पाँच साल में लाते हैं एक गरीब फ्रेंडली सरकार, निकलती है कार्पोरेट फ्रेंडली. हर तवा तवे जैसा और हर सरकार सरकारों जैसी, सारा खेल मार्केटिंग का है श्रीमान.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆ रेत सी यादें …..!! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा कोहरे के आँचल में लिखी हुई एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “रेत सी यादें …..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆

☆ रेत सी यादें …..!!

यादें लौट आती हैं

याद आने को,

आँसू बहा जाती हैं

सूख जाने को।

 

दिल को तार-तार करके

लौट जाती हैं,

कितने ही भेद खोल

करके जाती हैं ।

 

समंदर किनारे रेत का

घर तोड़ जाती हैं,

लहरें बनकर आती हैं

टकरा जाती हैं ।

 

ऊँगली से लिखे शब्द को

मिटा जाती हैं,

हाथों से बने दिल को

छेद जाती हैं ।

 

यादें रेत से सरकती

जाती हैं,

बीते लम्हों की बातें

सताकर जाती हैं ।

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 30 – भक्ति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “चेतना तत्व ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 30☆

☆ भक्ति

अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान श्री हरि की पूजा की जाती है । यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है । इस व्रत में सूत या रेशम के धागे को लाल कुंकुम से रंग, उसमें चौदह गांठे (14 गांठे भगवान श्री हरि के द्वारा 14 लोकों की प्रतीक मानी गई है ) लगाकर राखी की तरह का अनंत बनाया जाता है । इस अनंत रूपी धागे को पूजा में भगवान पर चढ़ा कर व्रती अपने बाजु में बाँधते हैं । पुरुष दाये तथा स्त्रियां बायें हाथ में अनंत बाँधती है । ऐसी मान्यता है कि यह अनंत हम पर आने वाले सब संकटों से रक्षा करता है। यह अनंत डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नए डोरे के अनंत को धारण करके पुराने का विसर्जन किया जाता है ।अग्नि पुराण के अनुसार व्रत करनेवाले को एक सेर आटे के मालपुए अथवा पूड़ी बनाकर पूजा करनी चाहिये तथा उसमें से आधी ब्राह्मण को दान दे और शेष को प्रसाद के रूप में बंधु-बाँधवों के साथ ग्रहण करें । इस व्रत में नमक का उपयोग निषेध बताया गया है । ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति को अनंत रास्ते में पड़ा मिल जाये तो उसे भगवान की इच्छा समझ कर, अनंत व्रत तथा पूजन करना चाहिये । यह व्रत पुरुषों और स्त्रियों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला माना गया है । इस व्रत के प्रभाव से ही पाण्डवों ने अपने भाईयों सहित से महाभारत का युद्ध जीत कर अपना खोया हुआ साम्राज्य तथा मान सम्मान पाया । कहा जाता है कि जब पाण्डव जुएँ में अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया।

अनन्तचतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

भगवान हनुमान जैसा आज तक कोई भी भक्त नहीं हुआ है।

नारद मुनि एक बार भगवान हनुमान से मिले, जिन्होंने उनके लिए एक गीत गाया। संगीत का आनंद लेते हुए नारद ने अपनी वीणा को एक चट्टान पर रखा जो भगवान हनुमान के गीत से पिघल गयी थी, और नारद की वीणा पिघले हुए चट्टान में समा गयी जब भगवान हनुमान द्वारा गायन खत्म हो गया था, तो वो चट्टान फिर से कड़ी हो गई और नारद मुनि की वीणा उसमें फंस गई।तब भगवान हनुमान ने नारद मुनि से एक गीत गाकर चट्टान को पिघलाने और अपनी वीणा को बाहर निकालने के लिए कहा। नारद मुनि ने गीत गाया किन्तु चट्टान जरा भी नहीं पिघली।जब भगवान हनुमान ने पुनः एक गीत गाया तो चट्टान फिर से पिघल गयी। तब नारद मुनि ने इसका कारण पूछा। भगवान हनुमान ने कहा, “हे महान ऋषि! मेरा गीत मेरे भगवान राम की भक्ति से भरा था, लेकिन आपका अहंकार से भरा हुआ था। वह केवल भक्ति ही है, अहंकार नहीं जो चट्टानों को भी पिघला सकता है।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य ☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नशा ☆ सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक ऐसे  लघुकथा जिसमें एक सामाजिक बुराई का अंत दर्शित करने का सफल प्रयास किया गया है। नशे की लत विशेष कर हमारे समाज के  निम्न – मध्यम वर्ग के परिवार को खोखला करते जा रही है। हालांकि मध्यम  एवं उच्च वर्ग के कुछ परिवार व बच्चे भी इसके अपवाद नहीं हैं । वीक एन्ड पार्टियां, बैचलर पार्टियां और न जाने क्या क्या।? एक  विचारणीय लघुकथा।)

☆ लघुकथा – नशा ☆

हर रोज की तरह वह आज भी दारू पी कर आया था। लेकिन आज झगड़ा नहीं कर रहा था। वरन् शांत था। आज जब घरवाली ने खाना दिया तो न चिल्लाया न मीन मेख ही निकाली। उसने पूछा, “क्या बात है, आज कम मिली है?” वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोले जा रही थी पर आज रमेश कुछ भी उत्तर नहीं दे रहा था। आज बच्चे माँ-बाप सब अचम्भे में थे। आज कोई डरा हुआ नहीं था। बच्चे सहम कर चिपके हुए नहीं थे।

..चुपचाप खाना खा वहीं बरामदे में पड़ी चारपाई पर लेट गया व थोड़ी देर बाद ही नींद आ गई। कड़ाके की ठंड थी। सबने खूब जगाया ताकि अंदर सुला सके। नशे की वजह से वह गहरी नींद में था नहीं उठा वहीं उसके ऊपर रजाई ढांप दी। सब अपने बिस्तरों में जाकर सो गये। सुबह 5 बजे जब माँ उठी तो देखा वह बिना ओढे जमीन पर सोया पड़ा है। खूब उठाया मगर टस से मस नहीं हुआ। तब सब घबरा गये। क्योंकि इतनी देर बाद तो नशा भी उतर जाता है।

..डॉक्टर को बुलाया पूरे चेकअप के बाद जो उसने उत्तर दिया सब बिलख-बिलख रोने लगे। उसने बताया, “ठंड में ज्यादा देर जमीन पर लेटे रहने से खून जम गया है व हार्ट ने काम करना बंद कर दिया है। इसे मरे तकरीबन एक घंटा हो चुका है। “सब रो-रो कर अफसोस जाहिर कर रहे थे कि हम में से किसी को पास सोना चाहिए था, इतना समझाते थे कि हमारी तरफ तो देख हमारा क्या होगा तू इतनी मत पिया कर। अगर सुन लेता तो आज हमें….।

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 22 ☆ लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

लोकमान्य हास्य योग संघाच्या बावीसाव्व्या वर्धापन दिनानिमित्त

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित लोकमान्य हास्य योग संघ, पुणे  के बावीसवें स्थापना दिवस पर एक कविता  “लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन”।  कविता का प्रकार – मुक्तछंद है। ई- अभिव्यक्ति की और से लोकमान्य हास्य योग संघ, पुणे को बावीसवें स्थापना दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें।)  

☆0 साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 21 ☆

☆ लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन ☆

!!श्रीराम!!
!!श्रीगणेशाय नमः!!
!!श्रीशारदायै नमः!!
!! श्री गुरवे नमः!!
कवितेचा प्रकार : मुक्तछंद
चाल:- कविवर्य भा.रा.तांबे यांच्या “सायंकाळची शोभा “या कवितेतील ..
“पिवळे तांबुस ऊन कोवळे ,पसरे चौफेर..ऽऽ”
या चालीवर.
लोकमान्य हास्ययोग संघाच्या आम्ही नित्य इथे जमुनी ऽऽ
हा हा हो हो उगाच नाही करीत साऱ्याजणी !!१!!
व्यर्थ न जमतो येथे आम्ही फक्तचि हसण्याला ऽऽ
खेळ खेळुनी शिकतो आम्ही सुंदर जगण्याला !!२!!
खेळ खेळतो फुगे फुगवितो पतंगही उडवितो ऽ ऽ
मस्त काटाकाटी करुनिया गंमतचि पाहतो !!३!!
दोहन करितो दो हातांनी दूध पिऊनी टाकितो ऽ ऽ
ताक घुसळुनी लोणी काढुनी गट्टमचि करितो !!४!!
फू फू आवाज करीत आम्ही गालचि ते फुगवुनी ऽ ऽ
फुफुसातली नको ती हवा देतो टाकुनी !!५!!
स्वच्छ मोकळा श्वास घ्यावया तयार होतो आम्ही ऽऽ
वारकरी होऊनी नाचतो रिंगण ते करुनी !!६!!
राग लोभ अहं मद मत्सर हे शत्रू असती सहा ऽऽ
बिघडविती आरोग्य कसे ते सर्वांनी हो पहा!!७!!
त्या शत्रूंना पळविण्यासचि एकचि उपाय ऽऽ
हास्यसंघामध्ये येऊनी त्यांना करा बाय बाय ,!!८!!
हास्यसंघात नियमित येता चेहरा होई गोजिरा ऽऽ
सारे मिळुनी वर्धापन दिन आज करु साजरा !!९!!
” लोकमान्य हास्य योग संघाचा विजय असो !”

©️®️उर्मिला इंगळे, सतारा

दिनांक:-१६-२-२०२०

मो. 9028815585
 !!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 34 ☆ सुखी जीवन का मंत्र ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “सुखी जीवन का मंत्र”डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख का प्रथम कथन  “सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो ” यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है।  डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 34☆

☆ सुखी जीवन का मंत्र 

 

‘सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो’ यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है। उसके जीवन में कभी अवसाद आ ही नहीं सकता, क्योंकि जब मन में किसी के प्रति दुर्भावना व दुष्भावना नहीं होगी, तो तनाव कैसे होगा? सो! आपको किसी में भी बुराई नज़र आयेगी ही नहीं। आइए! आज से उसे धारण करते हैं, जीवन में तथा उस परमात्म सत्ता का हर पल नाम-स्मरण करना…सृष्टि में उसकी सत्ता को अनुभव करना और ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ को अपने अंतर्मन में बसाए रखना अर्थात् उसकी  विस्मृति न करना ही सुखी जीवन का रहस्य है। यह अकाट्य सत्य है कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, फिर उससे भय कैसा? गीता में तो इसे वस्त्र धारण करने के समान स्वीकारा गया है। मृत्यु के पश्चात् मानव शरीर भी नया चोला धारण करता है… इसके लिए शोक क्यों?

यदि हम सृष्टि-नियंता में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, तो हम कभी कोई गलत काम करने की सोचते भी नहीं, क्योंकि ‘कर्म करावन अपने आप, न कछु बंदे के हाथ’ जब मालिक सब कुछ करने वाला है…सो! कल की चिंता क्यों? आज अथवा वर्तमान निश्चित है, कल कभी आता नहीं, क्यों न आज ही अच्छे कर्म करें? कल अनिश्चित है, कभी आता नहीं, फिर क्यों न आज से ही अच्छे कर्म करें, खूब परिश्रम कर जीवन को सार्थक बनाएं। क्योंकि आज कभी जाता नहीं और कल आता नहीं। इसलिए हर पल को जीवन का अंतिम पल समझ कर, प्रसन्नता से जीना चाहिए। अपने हृदय में कलुषता व किसी के प्रति मलिनता ने आने दें। इस स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का शमन-अंत स्वत: हो जाएगा। राग-द्वेष की जनक है, स्व-पर की भावना अर्थात् जब हम अपनों से प्रेम करते हैं, उनका हित चाहते हैं, उस स्थिति में अपने-पराए का भाव घर कर जाता है और हम उसके हित में कुछ ग़लत भी कर गुज़रते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘अंधा बांटे रेवड़ियां, बार-बार अपनों माहिं’ उसे अपनों के सिवाय कोई नज़र ही नहीं आता। उसका दायरा बहुत सीमित होता है। परंतु मानव में सबके प्रति समभाव और प्राणी-मात्र के कल्याण का भाव होना चाहिए। इस स्थिति में वह संतोषी जीव अपरिग्रह रूपी रोग से मुक्त रहेगा और उसके मन में यही धारणा बनी रहेगी, कि इस संसार में मानव जो भी करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। सो! मानव नि:स्वार्थ भाव से कार्य करता है। परंतु स्वार्थ हमें एकांगी बनाता है, आत्म- केंद्रितता का भाव जाग्रत करता है, जिसका जनक है…लोभ व मोह का भाव। माया के कारण यह नश्वर संसार व संबंध सत्य भासते हैं, जबकि सब संबंध स्वार्थ के होते हैं तथा इनसे मुक्ति पाना मानव जीवन का लक्ष्य  होता है।

यह स्थिति तभी आती है, जब मानव दो बातें भूल जाए…कि ‘उसने कभी किसी का भला किया है या किसी ने उसका बुरा किया है।’ और ‘भलाई कर कुएं में डाल’ इस कहावत से तो आप सब परिचित होंगे। यदि आप किसी का हित करके उसे नहीं भुलाते हैं, तो आपके अंतर्मन में प्रतिदान की इच्छा जाग्रत होना स्वाभाविक है। आप में अपेक्षा भाव जाग्रत होगी कि मैंनें उसके लिए यह सब किया, परंतु बदले में मुझे क्या मिला… यह भाव हमें पतन के गर्त में ले जाता है। हम स्वार्थ के ताने-बाने से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते।। इसका दूसरा पक्ष यह भी है, कि हम भूल जाएं… किसी ने हमारा बुरा किया है। जी हां! हम यह सोचें कि यह तो हमारे कर्मों का फल है, जो हमें मिला है। इसमें किसी का क्या दोष… भगवान ने उसे बुद्धि ही ऐसी दी है, तभी वह यह सब कर रहा है, वरना उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह सकारात्मक सोच है, जो हमें व्यर्थ की चिंता व चिंतन से मुक्त कर सकती है और हम तनाव-रहित जीवन जी सकते हैं। यह सोच हमारे हृदय में प्रभु के प्रति आस्था भाव उत्पन्न करती है कि वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है…वह हमारा बुरा कभी सोच ही नहीं सकता। जिस प्रकार माता-पिता मतभेद होने के पश्चात् भी, अपनी संतान का हित चाहते हैं, तो वह सृष्टि-नियंता, जिससे हमारा जन्म- जन्मांतर का अटूट संबंध है, वह हमारा अमंगल कैसे कर सकता है? वह तो हमारा सच्चा हितैषी है, जो  हमें प्रभु देता है, जिससे हमारा मंगल होता है, न कि जो हम चाहते हैं। इसलिए सब कुछ प्रभु पर छोड़ कर, मस्ती से जियो… सब अच्छा ही अच्छा होगा और जीवन में कभी भी, कोई बुरा वक्त आएगा ही नहीं।

मुझे स्मरण हो रहा है, ग़ालिब का वह शेयर

गुज़र जायेगा यह दौर भी, ज़रा इत्मीनान तो रख

जब खुशी ना ठहरी, तो ग़म की औक़ात क्या

अर्थात् सुख-दु:ख, हानि-लाभ सब मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। दोनों एक स्थान पर इकट्ठे ठहर ही नहीं सकते। सो! स्मरण रहे, कि रात के पश्चात् दिन व दु:ख के पश्चात् सुख का आना अवश्यंभावी है। सूरज भी हर शाम अस्त होता है और भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, सबको उल्लसित- ऊर्जस्वित करता है। वह कभी निराश नहीं होता और पूर्ण उत्साह से अंधकार को दूर करता है।

सो! परिवर्तन सृष्टि का नियम है और समय अपनी गति से निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं। इसलिए मानव को भी निरंतर पूर्ण उत्साह व साहस के साथ कर्मशील रहना चाहिए। ज़िंदगी तो एक फिल्म की भांति है, जिसका अर्द्ध-विराम होता ही नहीं, केवल अंत होता है। इसलिए जीवन में कभी रुकिए नहीं, अविराम चलते रहिए…अपनी संस्कृति तथा संस्कारों से जुड़े रहिए। इंसान कितना भी ऊंचा उठ जाए, परंतु उसके कदम ज़मीन से जुड़े रहने चाहियें, क्योंकि अहंकारनिष्ठ मानव पल भर में अर्श से फर्श पर आन गिरता है। इसलिए अहं को कोटि शत्रुओं सम स्वीकार, उसका त्याग कर दीजिए और जीवन को साक्षी भाव से देखने का अंदाज़ सीख लीजिए, क्योंकि जो होना है, निश्चित है… अवश्य होकर रहेगा। लाख प्रयास करने पर भी, आप उसे रोक नहीं सकते। सो! आप प्रेम से पूरे संसार को जीत सकते हैं और अहं से सब कुछ खो सकते हैं। इसलिए प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलिए मत, क्योंकि यह विकास पथ में अवरोधक स्वरूप प्रकट होते हैं। हां! आलोचना पर गंभीरता से विचार करना अपेक्षित है, यह हमें अपने गुण-दोषों से अवगत करा कर, सीधे-सपाट मार्ग पर चलने की राह दर्शाती है। इसलिए उन पहलुओं पर दृष्टिपात कर चिंतन-मनन कीजिए और अपने दोषों में सुधार कीजिए।

सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक है… अच्छे दोस्तों का होना। धन व दोस्त समान होते हैं, अनमोल  होते हैं… जिन्हें बनाना तो बहुत कठिन और खोना बहुत आसान होता है। इसी प्रकार रिश्ते भी नाज़ुक होते हैं, तनिक लापरवाही व ग़लतफ़हमी से टूट जाते हैं। इन्हें बहुत सहेज व संजो कर रखने की आवश्यकता होती है। सो! आप दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि अपेक्षा ही तनाव का कारण है। न अपेक्षा, न ही उपेक्षा। सो! निरपेक्षता को जीवन- मंत्र बना लीजिए। सब को सम्मान दीजिए, सम्मान प्राप्त कीजिए…सारे जहान की खुशियों से आपका दामन भर जायेगा और ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख’ वाली कहावत सार्थक हो जायेगी। इसलिए दाता बनिए… किसी के सम्मुख हाथ न पसारिए। आत्म संतोष सबसे बड़ा धन है और इस के सम्मुख सब धन धूरि समान अर्थात् रहीम जी के यह शब्द ‘जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान’ बहुत सार्थक  है। संतोष रूपी धन, अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने व आत्माव- लोकन करने के पश्चात् प्राप्त होता है। जब हम संसार को मिथ्या समझ, सबका मंगल चाहने लगते हैं और सृष्टि के कण-कण में परमात्मा सत्ता का आभास पाते हैं, तो उस परम सत्ता से हमारा तादात्म्य हो जाता है। इस स्थिति में हृदय पावन हो जाता है तथा हम किसी का अमंगल चाहते ही नहीं… न ही हमें किसी से अपेक्षा रहती है। सो! हमें वक्त, दोस्त व संबंधों की कद्र करनी चाहिए…वे अनमोल होते हैं। हमारे जीवन का आधार होते हैं… उन्हें बहुत संभाल कर रखना चाहिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 34 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनके द्वारा रचित  “भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 34 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे

 

चंचरीक की गूंज से,

खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे,

तुम मेरा संसार।।

 

पतझर झरता शाख से,

वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का

हमें  है इंतजार।।

 

मन उपवन में खिल रहे,

देखो पुष्प हजार।

धरा प्रफुल्लित देखकर,

झरते हरसिंगार।।

 

गुलशन के गुल देखकर

छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के,

रंगों   की    बौछार ।।

 

यश वैभव का गेह में,

रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे,

जीवन में मधुमास।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “फागुन”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 25 ☆

☆ फागुन ☆

 

फाग

गाँव गाँव फागें पढ़ें,ऐसा फागुन मास

होली मन महुआ हुआ,पिया मिलन की आस

 

होलिका

जलें होलिका हर गली,लेते सब नव आग

गुजिया बनती घरों में,बढ़े प्रेम अनुराग

 

मदन

चञ्चल चितवन मन बड़ा,कभी रखे ना धीर

मन मतङ्ग व्याकुल हुआ,चुभे मदन के तीर

 

फागुन

मस्ती फागुन में बढ़ी,चढ़ा फागुनी रंग

अब अबीर उड़ने लगी,खूब मची हुड़दंग

 

महुआ

मादक महुआ झूम कर,करता बहुत कमाल

रंग फागुनी चढ़ गया,करते सभी धमाल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प पंचवीस # 25 ☆ समर्पित. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  व्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक  भावप्रवण कविता  “समर्पित. . . . !”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

☆ समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प  पंचवीस # 25 ☆

☆ समर्पित. . . . !☆

 

आधी होता वानर

मग झाला नर.

कधी सुर तर कधी  असूर

कधी यक्ष तर कधी किन्नर.

माणसा ही सारी तुझीच रूप.

तुला जन्मजात मती लाभलेली.

तू आर्य, तर कधी  अनार्य

टोळ्याटोळ्यातून रहाताना

घातलेस स्वतःला जातीचे कुंपण.

तू कधी संत,कधी महंत

कधी राजा,तर कधी, महाराजा

कधी  राष्ट्रपुरुष ,तर

कधी समाज पुरूष .

स्वतः घडलास

देश घडवलास.

ज्ञानी झालास

शिक्षणाचा प्रसार केलास.

कलेतून  आकारत गेलास

क्रिडेतून साकारत गेला

ज्ञानातून जगत गेलास

माणसा  तू  सतत

संस्कारातून शिकत गेला.

कार्य कर्तृत्व घडवीत गेला.

पद, पैसा,  प्रसिद्धी

क्षणोक्षणी जोडत गेला .

नी पैसा पैसा जोडताना

माणूस पण हरवीत गेला.

माणसानच आणली लोकशाही

लोकांनी लोकांसाठी. . .

आपलाच माणूस निवडून दिला

आपल्याला लोक ठरवून

लोकसत्ताक प्रतिनिधी झाला.

माणसा  अजूनही हव्या आहेत

मुलभूत गरजा, जगण्यासाठी.

आज स्वातंत्र्यानंतरही.. .

इथलं *बाई माणूस* सहन करत

अन्याय, अत्याचार,  बलात्कार.

इथ माणूस सुरक्षित हवाय

की  आरक्षित

प्रश्न आहे  अनुत्तरीत.

माणूस. . . माणूस. ..माणूस

माणूस  असा?

माणूस तसा ?

उत्तर नको प्रश्नांकीत. . !

माझीच कविता

माझ्यातल्या माणसाला समर्पित. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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