आध्यात्म/Spritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और दैवी प्रकृति वालों के भगवद्भजन का प्रकार )

 

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ।।13।।

 

दैवी प्रकृति स्वभाव के आश्रित सज्जन लोग

जान मुझे अव्यय अमर पा पूजन का योग।।13।।

 

भावार्थ :  परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के (इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 तक में देखना चाहिए) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं।।13।।

But the great souls, O Arjuna, partaking of My divine nature, worship Me with a single  mind (with the mind devoted to nothing else), knowing Me as the imperishable source of beings।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆ जिंदगी और हालात ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “जिंदगी और हालात”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 22 ☆

☆ जिंदगी और हालात

बदल जाती है जिंदगी,

हालातों के साथ,

इन्सां के पास क्या होता है?

मलता है हाथ

सामना करते हुए ,

कभी झुक जाता है,

ठोकर खाकर गिरने पर,

रूक जाता है।

हवा का रूख पलटकर ,

कभी चलता है,

जलते चरागों से खुद को,

कभी बचाता है।

बदल जाते हैं रास्ते,

बदल जाते हैं चराग भी

हालातों से बचकर ,

जहां कभी बनता है?

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 24 – इतिहास का सर्वोत्तम सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इतिहास का सर्वोत्तम सच।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 24 ☆

☆ इतिहास का सर्वोत्तम सच

 

भगवान ब्रह्मा ने अपने मस्तिष्क की सिर्फ एक इच्छा से चार कुमार (‘कु’ का अर्थ है ‘कौन’ और ‘मार’ का अर्थ है ‘मृत्यु’, तो कुमार का अर्थ है कि उसे कौन मार सकता है ? अथार्त कोई नहीं । इसलिए कुमार का अर्थ है मृत्यु से परे) मानस  (मन की इच्छा से निर्मित)पुत्रों को पैदा किया।उनके नाम सनक (अर्थ : प्राचीन), सनन्दन (अर्थ : आनंदमय), सनातन (अर्थ : अनंत, जिसकी कोई शुरुवात या अंत ना हो) और सनत (भगवान ब्रह्मा, शाश्वत, एक संरक्षक) थे।जब चार कुमार अस्तित्व में आये, तो वे सभी शुद्ध थे। उनके पास गर्व, क्रोध, लगाव, वासना, भौतिक इच्छा (अहंकर, क्रोध, मोह, कार्य , लोभ) जैसे नकारात्मक गुणों का कोई संकेत तक नहीं था। भगवान ब्रह्मा ने इन चारों को ब्रह्मांड बनाने में सहायता करने के लिए बनाया था, लेकिन कुमारों को कुछ भी बनाना नहीं आता था और उन्होंने खुद को भगवान और ब्रह्मचर्य के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा जी से हमेशा पाँच वर्षीय बच्चे बने रहने के वरदान के लिए अनुरोध किया, क्योंकि पाँच वर्षीय बच्चे के मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आ सकता है। तो वे हमेशा पाँच साल के बच्चे की तरह ही लगते थे ।

जय (अर्थ : जीत, आम तौर पर शारीरिक जीत लेकिन हमेशा नहीं) और विजय (अर्थ: जीत, आम तौर पर मस्तिष्क  की जीत, लेकिन हमेशा नहीं) वैकुंठ के द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने वैकुंठ के द्वार पर कुमारों को बच्चे समझ कर रोक दिया। उन्होंने कुमारों को बताया कि श्री विष्णु इस समय आराम कर रहे हैं और वे अभी उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं।

सनातन कुमार ने उत्तर दिया, “भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहते हैं। आपको हमे हमारे प्रिय भगवान के दर्शन करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है” लेकिन जय और विजय उनकी बातों को समझ नहीं पाए और लंबे समय तक कुमारों से बहस करते रहे। यद्यपि कुमार बहुत शुद्ध थे, लेकिन भगवान की योजना के अनुसार अपने द्वारपालों को एक सबक सिखाने और ब्रह्मांड के विकास के लिए, उन्होंने कुमारों के शुद्ध दिल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। गुस्से में कुमारों ने दोनों द्वारपालों जय और विजय को शाप दिया, जिससे की वह अपनी दिव्यता को छोड़ सकें और पृथ्वी पर प्राणियों के रूप में पैदा हो सकें और वहाँ रह सकें।

जब जय और विजय को वैकुंठ के प्रवेश द्वार पर कुमारों ने शाप दिया, तो भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और द्वारपालों ने विष्णु से कुमारों द्वारा दिए गए अभिशाप को हटाने का अनुरोध किया। विष्णु जी ने कहा कि कुमारों के अभिशाप को वापस नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, वह जय और विजय को दो विकल्प देते हैं। पहला विकल्प पृथ्वी पर सात जन्म विष्णु के भक्त के रूप में लेना है, जबकि दूसरा तीन जन्म विष्णु के दुश्मनों के रूप में लेना है।

इन वाक्यों में से किसी एक पूर्ण करने के बाद ही वे वैकुंठ में अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के साथ स्थायी रूप से रह सकते हैं। जय और विजय सात जन्मों के लिए भगवान विष्णु से दूर रहने का विचार सोच भी नहीं सकते थे तो वे तीन जन्मों तक भगवान विष्णु के दुश्मन बनने के दूसरे विकल्प के लिए सहमत हो गए।

भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में पहले जन्म में, जय और विजय सत्य युग में हिरण्याक्ष (अर्थ : स्वर्ण की आँखों वाला, सोने की धुरी) और हिरण्यकशिपु (अर्थ : सोने में पहने हुए) के रूप में पैदा हुए ।  दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात्रि  में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आये । वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात्रि, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। हिरण्याक्ष का वध वाराह अवतारी विष्णु ने किया था। वह हिरण्यकशिपु का छोटा भाई था। हिरण्याक्ष माता धरती को रसातल में ले गया था जिसकी रक्षा के लिए आदि नारायण भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया, कहते हैं वाराह अवतार का जन्म ब्रह्मा जी के नाक से हुआ था । कुछ मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिरण्याक्ष और वाराह अवतार में कई वर्षों तक युद्ध चला । क्योंकि जो राक्षस स्वयं धरती को रसातल में ले जा सकता है आप सोचिए उसकी शक्ति कितनी होगी ? फिर वाराह अवतार के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज के द्वारा हिरण्याक्ष का वध हुआ ।

अगले त्रेता युग में, जय और विजय रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए, और भगवान विष्णु ने भगवान राम अवतार के रूप में उनका वध किया।

द्वापर युग के अंत में, जय और विजय शिशुपाल (अर्थ : बच्चे का संरक्षक) और दन्तवक्र (अर्थ : कुटिल दांत) के रूप में अपने तीसरे जन्म में उत्पन्न हुए। दन्तवक्र, शिशुपाल के मित्र जरासंध (अर्थ : थोड़ा सा संदेह) और भगवान कृष्ण के दुश्मन थे। जिनका वध भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार ने किया ।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #3 ☆ मित….. (भाग-3) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #3 ☆ मित….. (भाग-3) ☆

(मनावर आधीराज्य गाजवणारं, हक्काने रागावणारं, रूसणारं आणि तळमळत असलेल्या मनाला हळूच स्थिर करणारं असं  कोणीतरी प्रत्येकाच्या आयुष्यात येतं आणि सा-या जीवनाचा थकवा एका क्षणांत घालवून जातं. अशीच सोशल मिडिया अॅप द्वारे ओळख झालेली रिमझिमही आता मनाने मितच्या जवळ येऊ लागली आहे. आणि मित तर तिचा फोटो पाहताच तिच्या प्रेमात पडलाय. मैत्री पर्यत ठीक पण प्रेम ते ही कधीही न पाहिलेल्या व्यक्तीवर? हे शक्य आहे का?? असे एक ना अनेक प्रश्न तिच्या मनात उठताहेत. ती खुप विचार करतेय. पण त्याच्या शब्दांवर तीही भाळतेय. हे आकर्षण तिचं प्रेमात बदलू शकतं का?? हे आपण पुढील भागात पाहू…..

एक महिना झाला होता मितला घरी येऊन. बाबांच्या आजाराचं डाॅक्टरांनी नुकतंच निदान केलं होतं. डाॅक्टरांनी त्यांना पुर्णवेळ आरामाचा सल्ला दिला होता. मित शिक्षित होता. म्हणून बाबांना  दवाखान्यात ने-आण करणं. औषध वगैरे वेळेवर देणं हे सगळं मितच बघत होता. म्हणून मागच्या महिन्याभरात तो होस्टेलला परतला नव्हता. विद्यापीठाच्या अगामी युवारंग महोत्सवासाठी त्याने जे नाटक लिहीलं होतं. त्याच्या तयारीसाठी तो संघरत्न आणि बाकीही त्याच्या टीमच्या संपर्कात होताच. त्याच्या गैरहजरीत श्रोतीका  आणि प्रियंका उत्तम प्रकारे ते नाटक बसवत होत्या. पण त्याची कमी सर्वांना जाणवत होतीच. तसं वेळोवेळी त्याची मदत त्या घेत होत्याच. आणि शिक्षकही होते मदतीला.

इकडे रिमझिमशी गप्पा  दिवसेंदिवस वाढत चालल्या होत्या. जेव्हा तीचा ‘hi’  मॅसेज आल्यानंतर तिच्याबद्दल तो जाणून घ्यायला उत्सुक झाला.

मित- व्हेअर आर यु फ्राॅम?

त्याने प्रश्न केला

रिमझिम- आसाम. यु??

तिनेही उत्तर दिले. आणि लगेच प्रश्नही केला.

मित- ओह. वाॅव आसाम इज व्हेरी बेस्ट प्लेस यु नो. इज इन नाॅर्थ इस्ट आय थिंक??

त्याने प्रोत्साहीत करण्यासाठी लगेच म्हटले.

रिमझिम- येस. यु आर फ्राॅम?

मित- महाराष्ट्रा

रिमझिम- नाईस.

एवढं बोलून ती ऑफलाईन चालली गेली. पहिल्यांदा ते बोलले म्हणेन  मितही जास्त बोलला नाही. दुस-या दिवशी त्याने  ‘गुड माॅर्निंग ‘ चा मॅसेज केला. आणि आपल्या कामाला लागला. त्यांचं बोलणं आता रोजच होऊ लागलं.  लवकरच ते चांगले मित्र बनले. एकमेकांच्या चांगल्या वाईट सवयी, स्वभाव जाणुन घेऊ लागले. तिलाही त्याच्याशी बोलण्यात दिवसेंदिवस रस वाढत जात होता.

आज मित घरीच होता. आई-बाबा बहीणीच्या घरी गेल्यामुळे आज त्याला दवाखान्यातही जायचं नव्हतं म्हणून दुपारच्या वेळी त्याच्या अभ्यासाच्या टेबलावर तो निवांत बसला होता.  Hey तिचा मॅसेज आल्यावर त्यांच्या गप्पा सुरू झाल्या.

मित- आज काॅलेज नही गई

रिमझिम- नही आज छूट्टी है.

मित – ओह. ओके.

रिमझिम- जी.

मित- यार हम इतना दिनो से बाते कर रहे है. और मैने आपका नाम ही नही पूँछा आपका नाम क्या है?

रिमझिम – रिमझिम. लिखा तो है.

मित- अरे एसे नाम के आय डी फेक भी होते है. लडके फेक आय डी बना कर रखते है. इसलिए पूँछा.

रिमझिम- ये तुम लडको की प्रोब्लेम है. इसमे मै क्या कर सकता हूँ . मेरा तो यही नाम है.

आणि हसण्याची इमोजी पाठवली . त्यानेही हसण्याची इमोजी पाठवली.

मित- कोई बात नही. लेकीन नाम बहोत अच्छा है आपका. रिमझिम बरसती सावन की धार पुरे कायनात को ठंडक पहुंचाती हैं और आपकी मुस्कान आँखो को.

त्याचा हा मॅसेज वाचून ती स्मित हसली आणि “शायद” एवढं म्हटली. त्याला वाटलं लाजली असावी.

मित – शायद इसी ठंडक की तलाश मे आँखे बरसों से रिमझिम सी बारिश ढूँढ रही थी. जो आप पर जाकर रूकी.

ये मॅसेजला तीने उत्तर दिले नाही. फक्त स्मित हास्याची एक इमोजी पाठवली. त्याने जास्त वेळ उत्तराची वाट न पाहता वाचनात व्यस्त झाला.

थोडाच वेळ झाला होता. तेव्हा दारावर एक जोराची थाप पडली. “मित दादा, लवकर दार उघड” असा काहीसा घाबरलेल्या आवाजात रोहित दरवाज्यावर दार उघडण्यास सांगत होता. मित उठला आणि दरवाज्याकडे जाऊ लागला. तेवढ्यात रोहितने पुन्हा थाप दिली.

 मित- अरू उघडतोय ना. थांबशील की नाही थोडं

मितने दार उघडलं. रोहित घाई-घाईत आत घुसला.

मित- अरे रोहित, एवढ्या कसल्या घाईत आहेस.  काय झालं?

मितने त्याला प्रश्न केला.

रोहित – अरे मित दादा. तू ये लवकर तूला एक गोष्ट सांगायचीय. लवकर ये ना……

त्याला कसलाच धीर निघत नव्हता.मित त्याच्या जवळ खुर्चीवर जाऊन बसला.

मित- हं. बोल

रोहित खुप घाबरल्यासारखा होता. पण कुठेतरी हास्यही त्याच्या ओठांवर तरळत होतं

   (क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 28 ☆ सोSहम् शिवोहं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “सोSहम् शिवोहं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें इस प्रश्न का उत्तर जानने  के लिए प्रेरित करता है कि “मैं  कौन हूँ ?”डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 28☆

☆ सोSहम् शिवोहं

 

सोSहम् शिवोहं…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे  कि ‘मैं कौन हूं’  फिर जानने के लिए  कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ा चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा  तृषा से आकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो   रेत पर पड़ी सूर्य की किरणों को जल समझ दौड़ा चला जाता है और  अंत में अपने प्राण त्याग देता है।  यही दशा मानव की है, जो अधिकाधिक ख-संपदा पाने के का हर संभव प्रयास करता है…  राह में आने वाली आपदाओं की परवाह नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है । उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अह- र्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् वह  बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य  से  वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है  कि सुख-सुविधाएं- स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु  बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व साहचर्य की…और पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं  और उनके सानिध्य में खुद को किसी बादशाह से कम नहीं आंकते। परंतु आजकल बच्चों  व बुज़ुर्गों को  एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ता है, जिसके परिणाम-स्वरूप  बच्चे गलत राह पर अग्रसर हो जाते हैं  और मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं,  जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के  जीने को विवश होते हैं,  क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी हज़म नहीं कर पाते।इतना ही नहीं,उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास  दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन के उद्वेलन से जूझते हुए वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी  आत्मावलोकन करने को  विवश हो जाते हैं, जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की राह तक पहुंच जाते हैं।

संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और  हम अपनी हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं, चाहे हमें उसके लिए बड़े से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े…भले ही हमें उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग देना पड़े। हम अंधाधुंध दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’

वास्तव में इस आपाधापी के युग में यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदिगुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है।  संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है…वह सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा,तारे व पृथ्वी आदि सभी क्रियाशील हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित समयानुसार घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ भाव से दूसरों  के हित के लिए  काम कर रहे हैं। वृक्ष अपने फल नहीं खाते, जल व वायु अपने तत्वों का उपयोग- उपभोग नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता, पर जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के  निष्काम कर्म का संदेश…फल की इच्छा न रखने व मानवता-  वादी भावों से आप्लावित है।

स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर खुद की किस्मत बनाएं।’  परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने का औचित्य नहीं। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के भाव  को पुष्ट करते हैं, कि जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षा -रत रहते हैं,  तो उन्हें जीवन में उस बचे हुये फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरूषार्थी व्यक्ति अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेता है। सो!आलसी लोगों को मनचाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।

‘अपने सपनों को साकार करने का  सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी व पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो!क्षहर पल की कीमत समझो।’स्वयं को जानो, पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से आप वैसे ही बन जाओगे… आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित सुप्त शक्तियों को पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख तो बाधाएं भी खड़ा  रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी  सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे और सत्य सदैव  कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में नहीं भटकने देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिजाज़ लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए  ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का  एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है, अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

मानव व प्रकृति का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है…  पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और मानव भी अंत में इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य- वश वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार  के द्वंद्व से मुक्ति  नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी उहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद-शास्त्र,  तीर्थ- स्थल व अन्य धार्मिक-ग्रंथ हमें समय-समय पर जीवन के अंतिम लक्ष्य का ध्यान दिलाते हैं…जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है, उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर हो जाती है तथा सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ  स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्म-चिंतन करने पर  ही उसे अपनी गल्तियों का ज्ञान होता है और वह प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवारजन भी उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। परंतु समय गुजरने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती। सो! अब उसे अपना बोझ स्वयं ढोना पड़ता है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ अत्यंत सार्थक है, जिसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और वह प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभुकथा सत्य  और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है और मानव मौन रहना अधिक पसंद करता है।ऐसा व्यक्ति निंदा-स्तुति, स्व- पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे  किसी से कोई शिक़वा-शिकायत नहीं रहती क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस नियंता के अतिरिक्त किसी को देखना नहीं चाहता…

नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं

न हौं देखूं और को, न तुझ  देखन देहुं

अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति… जहां आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं रह जाता। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो, गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखाओ, तो मानें’…उनके  प्रगाढ़ प्रेम को  दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक कैवल्य की स्थिति नहीं आएगी क्योंकि जब तक मानव विषय- वासनाओ…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, मैं और तुम की स्थिति से ऊपर  नहीं उठ जाता, वह लख चौरासी अर्थात् जन्म-जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

अंततः मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोहं  ही मानव जीवन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है, सांसारिक बंधन व भौतिक सुख सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं।  वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना होती है कि एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाये और आत्मा- परमात्मा का भेद समाप्त हो जाये। यही है, मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य…सोSहम् शिवोहं जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म जन्मांतरों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 28 ☆ उलझन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण कविता  ‘उलझन।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 28 साहित्य निकुंज ☆

☆ उलझन

(मन के भावों से एक प्रयास उलझन विषय पर)

मैं आज

कुछ बताना चाहती हूं

उलझन को सुलझाना चाहती हूं

मैं सोच रही हूं

उन लम्हों को

जिनको तुम्हारे साथ जिया है

लगा यूं अमृत का घूंट पिया है

मैंने

उन सहजे हुए पल को

अलमारी में रखा है

जब मन करता है

तब उन्हें उलट पलट कर देख लेती हूं।

वो लम्हा जी लेती हूं

आज उलटते हुए

मन हुआ

अंतर्मन ने छुआ

हूं आज मैं गहन उलझन में

शायद तुम ही

सुलझा सको इन्हें

क्या ?

तुम्हारे दिल के किसी कोने में

मेरी महक बाकी है।

मैं अब इस उलझन से निजात चाहती हूं

क्या तुम मुझे अपनाकर

अपने गुलदान की

शोभा बनाओगे

अपने घर आंगन को महकाओगे।

प्रिये

कहो फिर से कहो

ये सुनने के लिए

कान तरस गए

नैन बरस गए

हमने सोचा तुमने

मेरे अहसासों को

नहीं किया स्पर्श

स्पंदन को नहीं छुआ

लेकिन

तुमने महसूस किया

मेरे अहसास को

न जाने कितनी पीड़ा थी

मन में

थी कितनी उलझन

अब

किया तुमने समर्पण।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆ लो आ गया अब नया साल ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “लो आ गया अब नया साल”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 19 ☆

☆ लो आ गया अब नया साल ☆

लो आ गया अब नया साल

पिछले भूलो सभी मलाल

लो आ गया अब नया साल

 

शीतल सर्द मद मस्त हवा

गिरती ओस अल मस्त सबा

जो नित नये करती कमाल

लो आ गया अब नया साल

 

गुजरा वक्त बड़ा निराला

कुछ ने कीचड़ खूब उछाला

राजनीति के नए जंजाल

लो आ गया अब नया साल

 

नफरतों की होली जलाएँ

एक दूजे को गले लगाएँ

प्रेम संग सब करें धमाल

लो आ गया अब नया साल

 

बना रहे सद्भाव सभी में

हों न कभी दुराव सभी में

शक के रहें न कभी सवाल

लो आ गया अब नया साल

 

खट्टी मीठी यादें शेष

साल बदलता अपना भेष

अब यह बीस रहे खुशहाल

लो आ गया अब नया साल

 

पूर्ण हों अब सबकी आशा

पास रहे ना अब निराशा

हो ना कभी कोई बवाल

लो आ गया अब नया साल

 

सभी के मन “संतोष” रहे

नया वर्ष नया जोश रहे

हो न अब कोई तंगहाल

लो आ गया अब नया साल

 

एक और अब निकला साल

सबको मुबारक नया साल

लो आ गया अब नया साल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “निर्विकार”।  कथानक सत्य के धरातल पर  रचित है किन्तु, देख पढ़कर सुन कर  हृदय  द्रवित  हो जाता है कि आज के भौतिक संसार में  मनुष्य इतना निर्विकार कैसे हो सकता है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆

☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ 

 

ट्रेन मनमाड से चलने ही वाली थी कि अचानक प्लेट्फार्म पर भीड़ का एक रेला आया। भीड़ में औरतें और बच्चे ही ज्यादा थे,  संभवतः वे बनजारे थे। इनकी पूरी गृहस्थी, थैलों, गठरियों और बोरियों में सिमट कर चलती है। जहाँ ठिकाना मिला वहाँ इन गठरियों और बोरियों के मुँह खुल जाते हैं। पसर जाती है इनकी जिंदगी, कभी खाली पड़े मैदानों में और कभी रेल की पटरियों के किनारे।

चटक रंग के घेरदार घाघरे, हाथों में प्लास्टिक के रंग-बिरंगे कंगन, कानों में बालियाँ या बड़े-बड़े  झुमके, नाक में बड़ी-सी नथ  (लगभग झूलती हुई)। एक बच्चा पैरों से चिपटा खड़ा , दूसरा गोद में और तीसरे को गर्भ में संभाले बनजारिनें प्लेटफार्म पर ट्रेन के दरवाजे के पास झुंड बनाए खड़ी थीं।

उनका ही एक आदमी झोले और बोरियों  में भरे सामान को दनादन ट्रेन के दरवाजे से अंदर फेंक रहा था , सामान पहले चढ़ जाना चाहिए ? औरतें, बच्चे बाद में चढ़ लेगें, शायद छूट भी जाएं तो कोई फर्क नहीं ?  पुरुषों का क्या वे तो चलती ट्रेन में चढ़-उतर सकते हैं। थैले, गठरी, बोरे चढ़ाए जा रहे थे कि इसी बीच उनका एक बच्चा भी सामान के साथ झटके में ट्रेन में चढ़ गया। कुछ वैसे ही जैसे सारा सामान चढ़ाया जा रहा था। बच्चा छोटा था ट्रेन की सीढ़ी चढ़कर वह ठीक से खड़ा हो पाता कि इससे पहले उसके ऊपर कुछ और गठरियाँ, बोरे लद गए, उसके नीचे दबा बच्चा बिलबिलाने लगा। माई रे, माई रे….. की क्षीण आवाज सुनायी दे रही थी। लेकिन ना तो समान फेंकनेवाले के हाथ थम रहे थे और ना दरवाजे के पास खड़ी औरतों के चेहरे पर कोई शिकन नजर आयी। सभी यथावत, निर्विकार, संवेदनहीन। बोरियों में भरा सामान ज्यादा जरूरी था, बच्चा तो………?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆ कविता – अहम ब्रह्मास्मि! ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता    “अहम ब्रह्मास्मि!.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 7 ☆

☆   कुछ मित्र मिले ☆ 

 

हे सर्वज्ञ

सर्वव्यापक परमपिता

तुम हो विराजे ह्रदय में

अनगिन नाम

अनगिन काम

निराकार

साकार हर रूप में

आते रहे भक्तों का उद्धार करने

मैं क्यों भटकता रहा

इधर से उधर

शहर-शहर

देखा है मैंने उस मूर्तिकार को

जो है गढ़ता रहा काल्पनिक

तुम्हारे चित्र अनेकानेक रूपों में

लेकिन वही है करता व्यभिचार

अनाचार

पड़ा रहा सदैव नर्क में

इस धरती पर

मैंने है देखा बार-बार

 

समझ गया गया हूँ मैं

तुम कारणों के हो कारण

हो अजन्मा

अविनाशी, विश्वासी

मेरी आत्मा के

 

मुझे बसाए रहना

सदैव अपने ह्रदय में

सुख-दुख में न भूलूँ

माया के आवरण भी

न घेरें

जन्मजन्मांतर न फेरें

 

न मैं आर्त् हूँ

न जिज्ञासु

न ज्ञानी

न अर्थार्थी

मैं हूँ बस एक रसिक

बिना एक आसन में बैठे

सुमिरन रहा करता

चलते-फिरते

भोग-विलास

और काम-धंधा दिनचर्या

करते-करते

 

तुम हो विराजमान

प्राण स्वरूप

दिव्य स्वरूप

प्रकाश स्वरूप

ज्योतिरीश्वर

सदैव करते रहे मार्गदर्शन

अतः मैं हूँ कह रहा

अहम ब्रह्मास्मि!

मैं हूँ आत्मा !

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 26 ☆ व्यंग्य – डरने और डराने के मजे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “डरने और डराने के मजे”.   श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए ।  कई बार बचपन में खेले जाने वाले खेल का सम्बन्ध भविष्य के खेलों से कैसे जुड़ जाता है बेशक हम उस खेल के पात्र न हो तो भी।  इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 26 ☆ 

☆  डरने और डराने के मजे 

 

बचपन में मैं दरवाजे के पीछे छिप जाया करता था, जैसे ही कोई दरवाजे से निकलता मैं चिल्लाते हुये बाहर आता और इस अचानक, अप्रत्याशित हो हल्ले से, आने वाला अनायास डर जाता था. इस खेल में मुझे डराने में बड़ा मजा आता था, गलती से कही मां या पिताजी को डराने की कोशिश कर दी तो फिर जो डांट पड़ती थी उससे डरने का मजा भी अलग ही था. आशय यह है कि डरने और डराने में भी मजे हैं. आज सारे देश में यही डरने और डराने के खेल कुशल राजनीति के साथ खेले जा रहे हैं. एक हमारे जैसे नाकारा लोग हैं जिन्हें स्वयं अपने आप के लिये ही समय नही है, अपना टैक्स रिटर्न भरना हो, बिजली बिल जमा करना हो, किसी संपादक की मांग पर कोई रचना लिख भेजनी हो हम कल पर टालते रहते हैं. यदि अंतिम तिथि न हो तो शायद हमारे जैसो के कोई काम ही न हो पायें. पर भला हो उन महान समाज सेवियो का जो संविधान की रक्षा के लिये फटाफट समय निकाल लेते हैं. पत्थर, आगजनी के सामान सहित धरने आंदोलन कर डालते हैं. कोई नियम बना नहीं कि उससे किस किस को किस तरह डराया जा सकता है, इसका झूठा सच्चा पूरा हिसाब लगाकर ऐसे लोग भरी ठण्ड में भीड़ इकट्ठी कर डराने का खेल खेलने के विशेषज्ञ होते हैं . उन्हें पता होता है कि किसे डर बता कर बरगलाया जा सकता है, वे अपनी टारगेट आडियेंस को प्रभावित करने में बिना किसी कोताही के जुट जाते हैं. कहने को तो देश में सब समझदार हैं, पढ़े लिखे हैं पर जब उन्हें धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर डराया जाता है तो सब बिना सोचे समझे डरने लगते हैं. ज्यादा पढ़े लिखे लोग बिना वास्तविकता जाने समझे ट्वीटर पर अपना डर अभिव्यक्त कर डालते हैं. मजे की बात यह भी है कि वही सरकार जो आयोडीन नमक के फायदे गिनाने के लिये वातावरण निर्माण पर करोड़ो के विज्ञापन जारी करती है, बच्चो की रैली निकाल कर जागरूखता लाती है. चुनावो में मतदान करने के लिये प्रेरित करने के जन आंदोलन अभियान पर बेहिसाब खर्च करती है, प्रसिद्ध फिल्मी हस्तियों को इंडोर्स करते हुये हाथ धोने की हर छोटी बड़ी बारीकियां समझाती है, वही सरकार ऐसे कानून बनाते समय चुप्पे चाप यह मान लेती है कि सरकार के इस कदम से कोई नही डरेगा. बिना किसी पूर्व नियोजित तैयारी के सरकार नोट बंद कर डालती है, टैक्स कानून में रातो रात बदलाव कर देती है. सरकार को लगता है कर डालो जो होगा देखा जायेगा. जैसे बिना यह समझे कि दरवाजे पर आने वाला हार्ट पेशेंट भी हो सकता था बचपन मैं उसे डराकर स्वयं को बहुत तीसमारखां समझा करता था, कुछ वैसे ही सरकार भी चल रही है. या तो सरकार ने तुलसी की चौपाई पढ़ ली है ” भय बिन होई न प्रीति “. जो भी हो मैं तो यही सोचकर खुश हूं कि “डर के आगे जीत है”.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares
image_print