हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆ जोश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जोश”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 26 ☆

☆ जोश

जब सीली रात के झरोखे से

पूनम का चाँद मुस्कुराया,

चांदनी की जुस्तजू ग़ज़ब थी!

 

मैं भी उड़कर

पहुँच गयी आसमान की गोद में

और पी ली मैंने भी

दूधिया चांदनी!

 

तब से न जाने

मेरे ज़हन में जोश की

कई शाखाएं उग आयीं

और बन गयी मैं एक हरा दरख़्त

जो अपनी ख़ुशी ख़ुद ही ढूँढ़ लेता है!

 

अब तो इस दरख़्त में

कई गुल खिल उठे हैं

और ये सारे जहां को महकाते हैं

और देते हैं छाँव

उन सारे मुसाफिरों को

जो तनिक भी ग़म से पीड़ित हो उठते हैं!

 

कभी-कभी

मैं भी बैठ जाती हूँ

उसी दरख़्त के नीचे

और चूसने देती हूँ उमंग के फल

अपने ही जिगर को,

कि कहीं मेरी शाखाएं

कोई तोड़ न दे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆ कथा-कहानी ☆ नेत्रार्पण ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6

☆ कथा कहानी  – नेत्रार्पण ☆

समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।

सबकी आँखें बरबस ही भर आईं।  माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई।  उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।

अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।

जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।

अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“

“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“

“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“

अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।

वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।

उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी  अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।

अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?

मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन-यज्ञ-वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

एक आग का दरिया

माँ के आंचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह-मण्डप

यज्ञ-वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहां हैं ’वे’?

कहां हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस,

एक गम है।

सांस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ।

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता?

हँसता ….. खेलता

खिलखिलाता या रोता?

 

किन्तु,  मां!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो,

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

 

मेरी विदा के आंसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं।

माँ !

बस अब और नहीं।

 

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं।

दान तो वह करता है,

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।

और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।

किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे?  नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।

निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए।  आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 25 ☆ नाटक – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह) – सुश्री मंजूषा मन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुश्री मंजूषा मन जी के  हाइकू -तांका  विधा में रचित काव्य संग्रह  “मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.   श्री विवेक जी ने  आज जापानी कविता की इस विधा पर श्री विवेक जी ने विस्तृत चर्चा की है। हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना के प्रवाह बौद्ध धर्म और प्रकृति पर आधारित  कविता की इस विधा पर अतिसुन्दर समीक्षा लिखी है।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 25☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह  –  मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)

पुस्तक – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह) 

लेखक – सुश्री मंजूषा मन

प्रकाशक –पोएट्री पुस्तक बाजार , लखनऊ

पृष्ठ  – ९६

मूल्य –रु १४०.००

☆ काव्य संग्रह   – मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)– सुश्री  मंजूषा मन  –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

 न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है।

जब वृक्षो के भी बोनसाई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। कविता विश्वव्यापी विधा है। मनोभावों की अभिव्यक्ति किसी एक  देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकती।  जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलवाई ।

जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यक्ति है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई । किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।

दिल्ली के डॉ हरे राम समीप ,जनवादी रचनाकार है उनका हाइकू संग्रह चर्चित रहा है। जबलपुर से  सुश्री गीता गीत ने भी हाइकू खूब लिखे हैं। अन्य अनेक हिन्दी कवियो की लम्बी सूची है जिन्होने इस विधा को अपना माध्यम बनाया। बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की सुश्री मंजूषा मन कविता, कहानियों के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं. “मैं सागर सी” उनका पुरस्कृत हाईकू तांका संग्रह है।

उदाहरण स्वरूप इससे कुछ हाइकू देखे-

मन पे मेरे

ये जंग लगा ताला

किसने डाला

..

चला ये मन

ले यादों की बारात

माने न बात

..

हुई बंजर

उभरी हैं दरारें

मन जमीन

..

बासंती समां

मन बना पलाश

महका जहाँ.

..

इंद्र धनुष

मन उगे अनेक

रंग अनूप

 

मन के विभिन्न मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति पुस्तक की इन नन्हीं कविताओ में परिलक्षित होती है. किताब एक बार पठनीय तो हैं ही. मंजूषा जी से सागर की अथाह गहराई से मन के और भी मोतियों की अपेक्षा हम रखते हैं.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #36 – चंद्र पौर्णिमेचा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “चंद्र पौर्णिमेचा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 36☆

☆ चंद्र पौर्णिमेचा ☆

 

माझ्या नभातला हा तारा कसा निखळला

आकाश फाटले अन् टाकाच हा उसवला

 

ओल्या बटा बटातुन गंगा कुठे निघाली

केसातुनी तुझीया पारा कसा निथळला

 

हिरव्या चुड्यात किणकिण नाजूक  मनगटांवर

येता वसंत दारी मुखडा तुझा उजळला

 

होतेस विश्व माझे सारेच तू उजळले

ही पाठ फिरवता तू अंधार हा पसरला

 

हा भेटण्यास येतो मज चंद्र पौर्णिमेचा

या लक्ष तारकांनी मांडव पुन्हा सजवला

 

रात्रीत या कळीचा विस्तारला पदर अन्

श्वासात गंध माझ्या होता इथे मिसळला

 

केवळ तुझ्याचसाठी झालो तुषार मीही

ओल्या मिठीत तूही मग देह हा घुसळला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 34 – ससेभाऊ असे नका धावू ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  बाल कविता  “ससेभाऊ असे नका धावू”  जो निश्चित ही आपको खरगोश और कछुवे की दौड़ याद दिला देगा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 34☆ 

 ☆ ससेभाऊ असे नका धावू

 

ससेभाऊ ससेभाऊ असे नका धावू।

धिम्या कासवाशी कधी पैज नका लावू।।धृ।।

 

केस शाणदार तुमची चाल डौलदार।

क्षणार्धात लावाल ,  झेंडा अटके पार।

गर्वाचा फूगा पुन्हा नका फुगू देवू।।१।।

 

थट्टा अशी  दुबळ्यांची बरी नाही राव।

लोभ.. आळसाला जरा म्हणा चले जाव।

गाजर पाहून ध्येयाला ठेंगा नका दावू।।२।।

 

सातत्याला तोड नसे, ठेवा जरा ध्यानी।

चालढकल, टंगळ मंगळ नका मनमानी।

जिंकाल पुन्हा मनी असे खचून नका जाऊ।।३।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33 ☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष ? ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक बुंदेलखंडी कविता “ग्राम्य विकास”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 33

☆ व्यंग्य – कौन बनेगा महापुरुष?  

“ना.. साहब, सुने हैं कि जे नये कलेक्टर साब ज्यादई तेज तर्रार हैं, सब अफसरों को परेशान कर रिये हैं ” – – गंगू पूछ रहा है।

मालिश करते हुए बीच बीच में गंगू ऐसे कई सवाल पूछ लेता है… वो भी ऐसे ऐन वक्त पर जब वो गर्दन चटकाने की तैयारी में गर्दन पकड़ कर खड़ा होता है।

गंगू हमको साहब इसीलिए कहता रहता है क्योंकि हम स्किल डेवलपमेंट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं एवं जिले के कलेक्टर से लेकर सभी विभागों के अफसरों के साथ उठते बैठते हैं। ये आदिवासी पिछड़ा जिला है अफसरों के लिए पनिशमेंट सेन्टर कहलाता है। यहां हर विभाग के अफसर को भ्रष्टाचारी, दारूखोर और चरित्रहीन होना जरूरी है क्योंकि पिछड़ेपन के कारण मनोरंजन के भी कोई साधन नहीं हैं, सब अफसर बंगलों में अकेले रहते हैं और फेमिली शहर में रखते हैं। इस जिले में सब टाइम पास करने आते हैं।

जब से नया कलेक्टर आया है लोग उसे झक्की कलेक्टर कहते हैं, क्योंकि वो जिले का विकास चाहता है, अफसरों को सुधारना चाहता है, अफसरों के अंदर गांधी दर्शन भरना चाहता है। कई दिनों से मुझे भी परेशान किए है, कहता है कि – 150 साल के अवसर पर अपने प्रशिक्षण संस्थान में अफसरों के लिए गांधी दर्शन के प्रशिक्षण आयोजित करें। कलेक्टर चाहता है कि अफसर गांधीवादी बन जायें तो विकास सही ढंग से होगा।

राजनीति सब जगह हावी रहती है, शहर के छुटभैया नेता प्रशिक्षण संस्थान का नाम बदलकर दीन दयाल संस्थान करना चाहते हैं और कलेक्टर है कि संस्थान में गांधी दर्शन के प्रशिक्षण करवाना चाहता है। अफसर नहीं चाहते कि वे कलेक्टर के हिसाब से गांधीवादी बने। अफसर अपने हिसाब से कभी गांधीवादी तो कभी सत्ताधारी पार्टीवादी बनना चाहते हैं।

अफसरों का गांधीवादी चिंतन अलग होता है। एक आला अफसर पूछ रहा था कि- “गांधी जी महापुरुष थे कि महात्मा थे ?” दूसरा अफसर कहता है- “गांधी महात्मा कहलाते थे इसलिए उनको महात्मा गांधी कहा जाता है।” जब उनसे पूछा गया कि- “वे महात्मा गांधी क्यों कहलाते हैं ?”तो उनका सीधा जबाब था कि- “भारत के महापुरुष रवींद्र नाथ टैगोर के मुंह से एक बार गांधी के लिए ‘महात्मा’ शब्द निकल गया था तो वे महात्मा गांधी कहलाने लगे, तो जय बोलो महात्मा गांधी की……. । महापुरुषों की बात ही अलग होती है।”

दो अफसरों के बीच नशे में महात्मा और महापुरुष शब्दों के चक्कर में लड़ाई हो गयी….. एक कहता कि महात्मा और महापुरुष में कोई अन्तर नहीं है, महात्मा गांधी महापुरुष थे। दूसरे का मत था कि जिसके पास महान आत्मा होती है वे महात्मा होते हैं और जो सब पुरुषों में बड़े होते हैं वे महापुरुष कहलाते हैं। पहले वाले ने तर्क दिया ऐसे में तो स्त्री…., महापुरुष बन ही नहीं सकती, एक महिला अफसर सब सुन रही थी बोली – “बड़ी अजीब बात है, महापुरुषों में सिर्फ पुरुषों का अधिकार है”। इसलिए महिला ने बताया कि उसने अपने बेटे का नाम ‘महापुरुष’ रखा है , धोखे से उसकी सिंह राशि निकल आयी, ज्योतिषी कहता है कि महापुरुष नाम के लड़के की राशि का स्वामी सूर्य होता है सूर्य तेज होता है इसलिए हमारा महापुरुष किसी के सामने झुकता नहीं। महापुरुष नाम के लड़के में सभ्यता और ईमानदारी कूट कूट कर भरी होती है इसलिए ये आगे चलकर महापुरुष बन सकता है। मेडम की बात सुनकर चिड़चिड़े स्वाभाव के तीसरे अफसर को मुंह खोलने का अच्छा मौका मिल गया, कहने लगा – “इसका मतलब हमारे नये कलेक्टर की भी सिंह राशि है और उनका ग्रह स्वामी सूर्य होगा तभी वे तेज तर्रार हैं और महापुरुष बनने के जुगाड़ में हैं।”

गांधी जी सत्य के पुजारी थे, अफसर को भी सत्य बोलना पड़ता है क्योंकि उसे अपने कमीशन रेट के बारे में सच सच बतलाना पड़ता है, ठेकेदार भी अफसर के सत्य से प्रभावित रहता है और सच्चाई के साथ निर्धारित कमीशन गांधी की तस्वीर के सामने इमानदारी से अदा कर देता है। सारे कार्य नियम से होते हैं। गांधीजी भी नियम के पाबंद थे, अफसर भी पाबंद हैं। नया कलेक्टर गांधीवाद को अफसरों के ऊपर लादना चाहता है। कलेक्टर उन्हें गांधीवादी बनने पर जोर दे रहा है। जिस ढंग से कलेक्टर चाहता है उस ढंग से अफसर वैसा नहीं बनना चाहते। अफसर गांधीवादी क्यों बनेंगे…… अफसरवाद और गांधीवाद दो विरोधी चीजें हैं। अफसर अफसर होता है और महापुरुष बेचारा महापुरुष ही तो होता है।

यदि गांधी जी महापुरुष थे और गांव का विकास चाहते थे तो अफसर भी तो गांव के विकास के बहाने अपना विकास चाहते हैं। अफसरों का भाग्य इतना तेज दौड़ता है कि इधर सड़क बननी चालू हुई उधर बुलडोजर से उचकी गिट्टी साहब के बंगले में तब्दील हो जाती है। अभी तक अफसरों का जितना विकास हुआ है उसमें गांव की सड़क, बांध और ग्रामीण विकास योजनाओं ने अफसरों की खूब मदद की है।

“कलेक्टर को महापुरुष बनने का शौक है तो वे क्यों नहीं गांधी दर्शन के प्रशिक्षण लेते, हम सबको प्रशिक्षण में काहे फंसा रहे हैं?”

मैंने कहा – “इसमें फंसने की क्या बात है कलेक्टर का सोचना सही है कि सब अफसर गांधी दर्शन को समझकर देश की समस्याएं हल कर सकते हैं।”

मेरी बात से कई अफसर भड़क गए कहने लगे – “देश की समस्याओं को हल करने का ठेका हमीं लोगों ने लिया है क्या? देश का और जनता का सबसे ज्यादा शोषण नेता कर रहे हैं। देश के नेता तो असली गांधीवादी बन नहीं सके और कलेक्टर चाहते हैं कि अफसर गांधीवादी बनें।”

मुझे उनके तर्क कुछ ठीक लगे। नेता अगर गांधीवादी होते तो देश की यह हालत न होती। गांधीवाद का नाम लेकर देश को इस हाल में पहुंचा दिया कि मेरे पास शब्द ही नहीं बचे। गांधीवाद की सबकी परिभाषाएं अलग अलग हैं, हर पार्टी ऐन वक्त में गांधीवादी बन जाती है।  150 वें साल में गांधी पर इतने प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी कोई गिनती ही नहीं है।  ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के लिए गांधीवाद रबर के समान है चाहे जब खींचकर महापुरुष बना दिया, चाहे जब छोड़कर महात्मा बना दिया और चाहे जब छोड़ कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया।

गांधी महापुरुष थे इसलिए गांधी के नाम पर सारी पार्टियां चुनाव लड़तीं हैं, गांधी की समाधि पर कसम खातीं हैं। चुनाव जीतने के बाद गांधी को भूल जातीं हैं। नये जमाने के अनुसार आजकल वही नेता महापुरुष बन पायेंगे जो झूठ को सच की तरह बोलते हैं और गंभीर होने का नाटक करते हैं या फिर रंगदारी करते हैं। सत्ता गांधीवाद की विरोधी होती है गांधीवाद को भूलकर ही सत्ता को बचाया जा सकता है। वैसे भी सत्ता और गांधीवाद की दो नावों पर पैर रख कर चलना किसी जोखिम से कम नहीं है।

सत्ता और गांधी एक साथ नहीं चल सकते। सब अफसर यदि महापुरुष बनने के चक्कर में गांधीवादी बन गए तो सरकार कौन चलाएगा। सरकार को अफसरों से मिलकर चलाया जाता है। अफसर यदि नाराज हो गए तो सरकार चलना कठिन है, इसलिए गांधीवाद का दिखावा दोनों को करना पड़ता है। कब कौन नेता या अफसर महापुरुष बन जाए, कोई ठिकाना नहीं है। तभी तो गंगू कौन बनेगा करोड़पति स्टाइल में अभिताभ की नकली आवाज में पूछ रहा है- “कौन बनेगा महापुरुष?”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #36 – विश्वसनीयता ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कैसे हो गाँव का विकास”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 36 ☆

☆ विश्वसनीयता

फोर जी का जमाना आ गया है. सब कुछ बहुत तेज है. इधर घटना घटी नहीं कि दुनिया भर में, पल भर में उसकी अपने अपने नजरिये से रिपोर्टिंग हो जाती है, सोशल मीडिया की असंपादित प्रसारण क्षमता का जितना दोहन हो सकता है हो रहा है. निरंकुशता का यह समय विश्वसनीयता पर गहरा आघात है. हरेक के उसके व्यक्तिगत स्वार्थ के अनुरूप घटना पर प्रतिक्रिया होनी शुरू हो जाती है. टी वी चैनल पर बहस में न्यायपालिका को किनारे रखकर हर प्रवक्ता स्वयं न्यायाधीश बन जाता है. आरोपों के आडियो वीडीयो प्रमाणो की सीडी की सच्चाई साफ्टवेयर में हमारी निपुणता के चलते सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में होती है.

नैतिक मूल्यो और सस्ती लोकप्रियता की चाह ऐसी हो गई है कि स्त्रियां तक स्वयं की आबरू लुटने को भी एक अस्त्र के रूप में उपयोग करने में शर्मिंदा नहीं हैं. एक चैनल जो खबर ब्रेकिंग न्यूज के रूप में देता है, अगले ही घंटे में दूसरा चैनल उसका प्रतिवाद प्रस्तुत करने की सामर्थ्य रखता दिखता है. वास्तविक सच्चाई  लम्बी कानूनी जाँच के बाद तब सामने आती है जब मूल घटना का महत्व ही बदल गया होता है. विश्वसनीयता के अंत के ऐसे समय में हम भौंचक बने रहने पर विवश हैं.

मुझे सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ याद आती है, बाबा भारती का डाकू खडगसिंग से संवाद “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” किंतु आज किसे परवाह है नैतिक मूल्यो की? दीन दुखियों की? हर दीन दुखी तो बस जैसे एक वोट मात्र है. आज खबरो में पुनः भरोसा पैदा करने की जरूरत दीख रही है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 36☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  के व्यंग्य  ‘बात-वापसी समारोह ’ में  हास्य का पुट लिए लोकतंत्र  में जुबान के फिसलने से लेकर जुबान को वापिस उसी जगह लाने की  प्रक्रिया पर तीक्ष्ण प्रहार है। आप भी आनंद लीजिये ।  ऐसे विनोदपूर्ण  व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 36 ☆

☆ व्यंग्य – बात-वापसी समारोह  ☆

 

नेताजी एक दिन जोश में विपक्षी पार्टियों को ‘जानवरों का कुनबा’ बोल गये। वैसे नेताजी अक्सर जोश में रहते थे और अपने ऊटपटांग वक्तव्यों से पार्टी को संकट में डालते रहते थे।

नेताजी के बयान पर हंगामा शुरू हो गया और विपक्षियों ने नेताजी से माफी की मांग शुरू कर दी। तिस पर नेताजी ने अपनी शानदार मूँछों पर ताव देकर फरमाया कि उनकी बात जो है वह कमान से निकला तीर होती है और उसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने यह भी कहा कि वे बात वापस लेने के बजाय मर जाना पसन्द करेंगे। उनकी इस बात पर चमचों ने ज़ोर से तालियाँ बजायीं और ‘नेताजी जिन्दाबाद’ के नारे लगाये।

हंगामा बढ़ा तो नेताजी को उनकी पार्टी की हाई कमांड ने तलब कर लिया। उन्हें हिदायत दी गयी कि वे तत्काल अपनी बात वापस लें अन्यथा उनके खिलाफ सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

नेताजी पार्टी दफ्तर से बाहर निकले तो उनकी शानदार मूँछें, जो हमेशा ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर रहती थीं, सात-पच्चीस बजा रही थीं।बाहर निकलकर पत्रकारों से बोले, ‘हाई कमांड ने वही बात कही जो कल रात से मेरे दिमाग में घुमड़ रही थी। मुझे भी लग रहा था कि मैं कुछ ज्यादा बोल गया।वैसे मैं जानवरों को बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ और उनका बहुत सम्मान करता हूँ। अब मैं अपने पंडिज्जी से पूछकर बात वापस लेने की सुदिन-साइत तय करूँगा।’

बात-वापसी की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरू हो गयीं।एक लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक से अनुरोध किया गया कि वे अपने उपकरणों के ज़रिए पता लगायें कि बात जो है वह कहाँ तक पहुँची है। यह तो निश्चित था कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, लेकिन कितनी दूर तलक जाएगी यह जानना जरूरी था। चुनांचे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक ने डेढ़ दो घंटे की मगजमारी के बाद बताया कि बात जो थी वह धरती के छः चक्कर लगाकर भूमध्यसागर में ग़र्क हो गयी थी। वहाँ एक मछली ने उसे कोई भोज्य-पदार्थ समझकर गटक लिया था। बात को गटकने के बाद मछली की भूख-प्यास जाती रही थी और वह, निढाल, पानी की सतह पर उतरा रही थी।

यह जानकारी मिलते ही तत्काल वायुसेना का एक हवाई-जहाज़ गोताखोरों के दल के साथ भूमध्यसागर में संबंधित स्थान को रवाना किया गया। गोताखोरों ने आसानी से मछली को गिरफ्तार कर लिया और खुशी खुशी वापस लौट आये।पायलट ने मछली अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत कर सैल्यूट मारा और अधिकारियों ने खुश होकर वादा किया कि वे पायलट की सिफारिश विशिष्ट सेवा मेडल के लिए करेंगे।

पंडिज्जी की बतायी हुई साइत पर बात-वापसी की तैयारी हुई। स्थानीय समाचारपत्रों में आधे पेज का इश्तहार छपा कि नेताजी आत्मा की आवाज़ और हाई कमांड के निर्देश का पालन करते हुए अपनी अमुक तिथि को कही गयी बात को वापस लेंगे। इश्तहार में पार्टी के बड़े नेताओं का फोटो छपा, बीच में हाथ जोड़े नेताजी। समारोह स्थल पर विशिष्ट दर्शकों के लिए एक शामियाना लगाया गया और वहाँ बात-वापसी यंत्र लाया गया। बात वापसी देखने के उत्सुक लोगों की बड़ी भीड़ जमा हो गयी। नेताजी एम्बुलेंस में लेटे थे।

पंडिज्जी के बताये शुभ समय पर कार्रवाई शुरू हुई। मशीन का एक पाइप मछली के मुँह में डाला गया और दूसरे पाइप का सिरा नेताजी के मुँह में। मशीन चालू हुई और मछली चैतन्य होकर उछलने कूदने लगी। उधर नेताजी एक झटका खाकर बेहोश हो गये। बात जो थी वह मछली के पेट से निकलकर नेताजी के उदर में पहुँच गयी।

एक मिनट बाद नेताजी ने आँखें खोलीं। मुस्कराते हुए टीवी के संवाददाताओं से बोले, ‘मैं हाई कमांड को बताना चाहता हूँ कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। मैंने पूरी निष्ठा से हाई कमांड के आदेश का पालन किया है। मुझे यकीन है कि अब मैं उनका कोपभाजन न रहकर स्नेहभाजन बन जाऊँगा। मुझे भरोसा है कि आप के माध्यम से मेरी बात हाई कमांड तक पहुँच जाएगी।’

इसके बाद नेताजी डाक्टरों की देखरेख में एम्बुलेंस में घर को रवाना हो गये। पीछे पीछे कारों में ‘नेताजी की जय’ के नारे लगाते चमचे भी गये।

नेताजी के जाने के बाद मछली की ढूँढ़-खोज शुरू हुई। काफी खोज-बीन के बाद पता चला कि एक दूरदर्शी अधिकारी ने गुपचुप मछली अपने घर भिजवा दी थी और, जैसा कि समझा जा सकता है, वहाँ मित्रों के साथ मत्स्य-भोज की तैयारी चल रही थी।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #34 ☆ सांस्कृतिक चेतना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 34 ☆

☆ सांस्कृतिक चेतना ☆

सबसे अधिक टीआरपी के लिए सीरियल्स में गाली-गलौज, लड़के-लड़कियों में हिंसक धक्कामुक्की को सहज घटनाओं के रूप में दिखाना और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ‘बहन जी’ को व्यंग और अपशब्द की तरह इस्तेमाल किया जाना अब आम हो गया है। मैं अवाक हूँ। भारतीय विचार और चेतना को क्या हो गया है? बेबात के विवाद, हंगामा और सामूहिक अराजकता के अभ्यस्त हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति कैसे सुप्त हो चले हैं? कैसी मरघटी वीरानगी ओढ़ ली है हम सबने?

‘बहन’ शब्द में सहोदर पवित्रता अंतर्भूत है। लंबे समय शिक्षिकाओं के लिए ‘बहन जी’ शब्द उपयोग होता रहा। अब कॉलेज में भारतीय परिधान धारण करने वाली लड़कियों को ‘बहन जी’ कहा जाता है। भयावह चित्र! अपने अस्तित्व, अपनी चेतना के प्रति वितृष्णा नहीं अपितु विद्वेष और उपहास कहाँ ले जाकर खड़ा करेगा? क्या हो चला है हमें?

इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का पाश्चात्यीकरण। इस पाश्चात्यीकरण का माध्यम भारतीय भाषाएँ बनती तो शायद नुकसान कम होता। शिक्षा से भारतीय भाषाओं को एक षड्यंत्र के तहत बेदखल किया गया। लोकोक्ति है कि अँग्रेज ख़ामोश हँसी हँसता है। इस समय अँग्रेज़ी ख़ामोश हँसी हँस रही है। विचारधारा के दोनों ध्रुवों पर या दोनों ध्रुवों के बीच आप किसी भी विचारधारा के हों,  यदि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के समर्थक हैं तो  यह *अभी नहीं तो कभी नहीं* का समय है।

अपने समय की पुकार सुनें। अपने-अपने घेरों से बाहर आएँ। भारतीय भाषाओं के आंदोलन को पांचजन्य-सा घोष करना होगा। शिक्षा का माध्यम केवल और केवल भारतीय भाषाएँ हों। इस उद्देश्य के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ने को तैयार हों। कोई साथी है जो ‘बहन जी’ और ऐसे तमाम शब्द जिन्हें उपहास का पात्र बनाया जा रहा है,  की अस्मिता की वैधानिक लड़ाई लड़ सके?

मित्रो! हम भारत में जन्मे हैं। हम भारत के नागरिक हैं। हमारी भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता का संरक्षण, प्रचार और विस्तार हमारा मूलभूत अधिकार है। अधिकारों का दमन बहुत हो चुका, अब नहीं।

अनुरोध है कि साथ आएँ ताकि इसे एक बड़े और सक्रिय आंदोलन का रूप दे सकें। आप सब मित्रों का इस कार्य के लिए विशेष आह्वान है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 21 – चाहत /हसरत  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक अतिसुन्दर दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘चाहत /हसरत  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 21  – विशाखा की नज़र से

☆ चाहत /हसरत   ☆

 

कुछ जद थी

कुछ ज़िद थी

कुछ तुझ तक  पहुँचने की हूक थी

मैं नंगे पांव चला आया

 

खाली था कुम्भ

मन बावरा सा मीन

नैनों में अश्रु

रीता / भरा

कुछ मध्य सा मैं बन आया

 

कुछ घटता रहा भीतर

कुछ मरता रहा जीकर

साँसों को छोड़, रूह को ओढ़

मै कफ़न साथ ले आया

 

तेरी चाहत का दिया जला है

ये जिस्म क्या तुझे पुकारती एक सदा है

जो गूँजती है मेरी देह के गलियारों में

अब गिनती है मेरी आवारों में

 

बस छूकर तुझे मै ठहर जाऊँ

मोम सा सांचे में ढल जाऊँ

गर तेरे इज़हार की बाती मिले

मै अखंड दीप बन जल जाऊँ

 

आत्मा पाऊँ ,

शरीर उधार लाऊं ,

प्यार बन जाऊँ,

प्रीत जग जाऊँ ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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