हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 43 – बुनियादी अंतर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी अंतर। )

गौरव के क्षणयह हमारे लिए गर्व का विषय है कि – आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को  हरियाणा में ‘आनंद सर की हिंदी क्लास’  नामक युटुब चैनल में आपका परिचय प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में छात्रों से कराया गया  जिसका प्रसारण गत रविवार  को हुआ।

स्मरणीय है कि आपकी रोचक विज्ञान की बाल कहानियों का प्रकाशन प्रकाशन विभाग भारत सरकार दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। वहीँ आपकी 121 ई बुक्स और इतनी ही लगभग कहानियां 8 भाषाओं में प्रकाशित और प्रसारित हो चुकी हैं और कई पुरस्कारों से नवाजा जा चूका है।

ई अभिव्यक्ति की और से हार्दिक शुभकामनाएं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 43☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी अंतर ☆

 

“जानते हो काका ! आज थानेदार साहब जोर-जोर से चक्कर लगा कर परेशान क्यों हो रहे है ?” रघु अपने घावों पर हाथ फेरने लगा, “मेरे रिमांड का आज अंतिम दिन है और वे चोरी का राज नहीं उगलवा सके.”

“तू सही कहता है रघु बेटा ! आज उन की नौकरी पर संकट आ गया है. इसलिए वे घबरा रहे है,” कह काका ने बीड़ी जला कर आगे बढ़ा दी.

“जी काका. इस जैसे-जलाद बाप ने मुझे मारमार कर बिगड़ दिया. वरना किसे शौक होता है, चोर बनने का.” यह कहते ही रघु ने अपना चेहरा घुमा लिया. उस के हाथ आंख पर पहुँच चुके थे.

मगर जैसी ही वह संयत हुआ तो काका की ओर मुड़ा, “काका हाथ पैर बहुत दर्द कर रहे है. यदि इच्छा पूरी हो जाती तो?”

“क्यों नहीं बेटा.” काका रघु के सिर पर हाथ फेर कर मुस्करा दिए. वे रघु की इच्छा समझ चुके थे.

कुछ ही देर में दारू रघु के हलक में उतर चुकी थी और ‘राज’ की मजबूत दीवार प्यार के स्नेहिल स्पर्श से भरभरा कर गिर चुकी थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ मेरी रचना प्रक्रिया☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ 

मेरी रचना प्रक्रिया

मूलतः व्यंग्य, लेख, विज्ञान, बाल नाटक,विज्ञान कथा, कविता आदि मेरी अभिव्यक्ति की विधायें हैं.

मेरे प्रिय व्यंग्य, रामभरोसे, कौआ कान ले गया, धन्नो बसंती और बसंत, खटर पटर, मिलीभगत, आदि मेरे लोकप्रिय व्यंग्य संग्रह हैं. जल जंगल और जमीन बाल विज्ञान की पुस्तक है जो प्रदेश स्तर पर प्राथमिक शालाओ में खूब खरीदी व सराही गई, हिंदोस्तां हमारा, जादू शिक्षा का, नाटक की पुस्तकें हैं.आक्रोश १९९२ में विमोचित पहला कविता संग्रह है.

मैं रचना को मन में परिपक्व होने देता हूं, सामान्यतः अकेले घूमते हुये, अधनींद में, सुबह बिस्तर पर, वैचारिक स्तर पर सारी रचना का ताना बाना बन जाता है फिर जब मूड बनता है तो सीधे कम्प्यूटर पर लिख डालता हूं. मेरा मानना है कि किसी भी विधा का अंतिम ध्येय उसकी उपयोगिता होनी चाहिये. समाज की कुरीतियो, विसंगतियो पर प्रहार करने तथा पाठको का ज्ञान वर्धन व उन्हें सोचने के लिये ही वैचारिक सामग्री देना मेरी रचनाओ का लक्ष्य होता है.

मेरी रचना का विस्तार कई बार अमिधा में सीधे सीधे जानकारी देकर होता है, तो कई बार प्रतीक रूप से पात्रो का चयन करता हूं. कुछ बाल नाटको में मैने नदी,पहाड़,वृक्षो को बोलता हुआ भी रचा है. अभिव्यक्ति की विधा तथा विषय के अनुरूप इस तरह का चयन आवश्यक होता है, जब जड़ पात्रो को चेतन स्वरूप में वर्णित करना पड़ता है.  रचना की संप्रेषणीयता संवाद शैली से बेहतर बन जाती है इसलिये यह प्रक्रिया भी अनेक बार अपनानी पड़ती है.

कोई भी रचना जितनी छोटी हो उतनी बेहतर होती है,न्यूनतम शब्दों में अधिकतम वैचारिक विस्तार दे सकना रचना की सफलता माना जा सकता है.  विषय का परिचय, विस्तार और उपसंहार ऐसा किया जाना चाहिये कि प्रवाहमान भाषा में सरल शब्दो में पाठक उसे समझ सकें.नन्हें पायको के लिये लघु रचना, किशोर और युवा पाठको के लिये किंचित विस्तार पूर्वक तथ्यात्मक तर्को के माध्यम से रचना जरूरी होती है. मैं बाल कथा ५०० शब्दों तक समेट लेता हूं, वही आम पाठको के लिये विस्तार से २५०० शब्दों में भी लिखता हूं. अनेक बार संपादक की मांग के अनुरूप भी रचना का विस्तार जरूरी होता है. व्यंग्य की शब्द सीमा १००० से १५००शब्द पर्याप्त लगती है. कई बार तो पाठको की या संपादक की मांग पर वांछित विषय पर लिखना पड़ा है. जब स्वतंत्र रूप से लिखा है तो मैंने पाया है कि अनेक बार अखबार की खबरों को पढ़ते हुये या रेडियो सुनते हुये कथानक का मूल विचार मन में कौंधता है.

मेरी अधिकांश रचनाओ के शीर्षक रचना पूरी हो जाने के बाद ही चुने गये हैं. एक ही रचना के कई शीर्षक अच्छे लगते हैं. कभी  रचना के ही किसी वाक्य के हिस्से को शीर्षक बना देता हूं. शीर्षक ऐसा होना जरूरी लगता है जिसमें रचना की पूरी ध्वनि आती हो.

मैंने  नाटक संवाद शैली में ही लिखे हैं. विज्ञान कथायें वर्णनात्मक शैली की हैं. व्यंग्य की कुछ रचनायें मिश्रित तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं. व्यंग्य रचनायें प्रतीको और संकेतो की मांग करती हैं. मैं सरलतम भाषा, छोटे वाक्य विन्यास, का प्रयोग करता हूं. उद्देश्य यह होता है कि बात पाठक तक आसानी से पहुंच सके. जिस विषय पर लिखने का मेरा मन बनता है, उसे मन में वैचारिक स्तर पर खूब गूंथता हूं, यह भी पूर्वानुमान लगाता हूं कि वह रचना कितनी पसंद की जावेगी.

मेरी रचनायें कविता या कहानी भी नितांत कपोल कल्पना नही होती.मेरा मानना है कि कल्पना की कोई प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में अवश्य ही होनी चाहिये. मेरी अनेक रचनाओ में धार्मिक पौराणिक प्रसंगो का चित्रण मैंने वर्तमान संदर्भो में किया है.

मेरी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप में शायद ज्यादा बन चुकी है. इसका कारण यह भी है कि सामाजिक राजनैतिक विसंगतियो पर प्रतिक्रिया स्वरूप समसामयिक व्यंग्य  लिख कर मुझे अच्छा लगता है, जो फटाफट प्रकाशित भी होते हैं.नियमित पठन पाठन करता हूं, हर सप्ताह किसी पढ़ी गई किताब की परिचयात्मक संक्षिप्त समीक्षा भी करता हूं. नाटक के लिये मुझे साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है. बाल नाटको की पुस्तके आ गई हैं. इस सबके साथ ही बाल विज्ञान कथायें लिखी हैं . कविता तो एक प्रिय विधा है ही.

पुस्तक मेलो में शायद अधिकाधिक बिकने वाला साहित्य आज बाल साहित्य ही है. बच्चो में अच्छे संस्कार देना हर माता पिता की इच्छा होती है, जो भी माता पिता समर्थ होते हैं, वे सहज ही बाल साहित्य की किताबें बच्चो के लिये खरीद देते हैं. यह और बात है कि बच्चे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तको में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें इतर साहित्य के लिये समय ही नही मिल पा रहा.

आज अखबारो के साहित्य परिशिष्ट ही आम पाठक की साहित्य की भूख मिटा रहे हैं.पत्रिकाओ की प्रसार संख्या बहुत कम हुई है. वेब पोर्टल नई पीढ़ी को साहित्य सुलभ कर रहे हैं. किन्तु मोबाईल पर पढ़ना सीमित होता है, हार्ड कापी में किताब पढ़ने का आनन्द ही अलग होता है.  शासन को साहित्य की खरीदी करके पुस्तकालयो को समृद्ध करने की जरूरत है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 13 ☆ पहली पसन्द ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “पहली पसंद*।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 13 ☆

☆ पहली पसंद

आदि काल से ही राजाओं के दरबार में चाटुकारों का बाहुल्य रहा है । जिस तरह एक कुशल सेनापति सेना को संभाल सकता हैं , योग्य मंत्री राज्य को सुचारू रूप से संचालित कर उसके आय- व्यय का ब्यौरा रख , कोष हमेशा भरा रखता है, इसी तरह भाट हमेशा राजा की वंशावली का गुणगान  सर्वत्र करता है । अब बात आती चाटुकार की;  ये तो सबसे जरूरी होते हैं ।  सच कहूँ तो जिस प्रकार उत्प्रेरक, रासायनिक पदार्थों की क्रियाशीलता को बढ़ाते हैं, एपीटाइजर भूख को बढ़ाते हैं ठीक वैसे ही राजा को क्रियाशील बनाने हेतु चाटुकार कार्य करते हैं ।

मानव का मूल स्वभाव है कि जब कोई प्रशंसा करता है तो मानो पंख ही लग जाते हैं । चाटुकार एक ऐसा पद है जिसकी कोई नियुक्ति नहीं होती फिर भी सबकी नियुक्तियों में उसका ही हाथ होता है । नीति निर्माताओं की पहली पसंद यही होते हैं क्योंकि इनके पास विशाल जनमत होता है । यदि दरबार को सजाना, सँवारना है तो  दरबारी होने ही चाहिए और वो भी विश्वास पात्र । इन सबको जोड़ने का कार्य चाटुकार से बेहतर कौन करेगा । राय देने में तो इनको इतनी महारत हासिल होती है कि लगता है बस ये पूरी दुनिया केवल और केवल  इन्होंने ही बनाई है ।

कोई भी राजा बनें चाटुकार तो हर हालत में खुश रहते हैं ।  चाटुकारों की उपयोगिता इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं जो सत्यवादी बनने की होड़ में कुछ ज्यादा ही जोड़- तोड़ कर बैठते हैं और फिर औंधे मुख गिरते हुए  बचाओ – बचाओ की गुहार लगाते हैं । कुछ लोग तो इतने जिद्दी होते हैं कि  बस सत्य का ही राग अलापेंगे न समय देखते हैं न व्यक्ति । ऐसे कठिन समय में यदि कोई जीवन दायक बन कर उभरता है तो वो चाटुकार ही होता है;   जिसे चाहो न चाहो चाहना ही पड़ता है ।

जीवन का ये भी एक कड़वा सत्य ही है कि हर व्यक्ति  कहता है कि आप मेरे दोष बताइये किन्तु जैसे ही सत्य  निंदा की पोषाक पहन कर सामने आया कि – बिन पानी बिन साबुना निर्मल करे सुहाय की निर्मलता  कोसो दूर चली जाती है । आप खुद ही सोचिए कि निंदा में अगर रस होता तो व्याकरण में रस की श्रंखला में वात्सल्य को तो दसवां रस मानने हेतु वैयाकरण  राजी हुए किन्तु निंदा रस को क्यों नहीं माना ।

कारण साफ है करनी और कथनी में अंतर होता है । जब तक निंदा दूसरे की करनी हो वो भी पीठ पीछे तभी तक इसमें रस उतपन्न होता है । व्यक्ति के सामने करने पर रौद्र व वीभत्स के संयोग रस की उतपत्ति हो जाती है ।

आज तक का इतिहास उठा कर देख लीजिए किसी भी शासक ने निंदक को अपनी कार्यकारिणी में नहीं रखा , हाँ इतना जरूर है कि चाहें कोई भी काल रहा हो यहाँ तक कि गुलामी के दौर में भी बस आगे बढ़े हैं तो केवल चाटुकार ही । बढ़ना ही जीवन है तो क्यों न इस गति को बरकरार रखते हुए चिंतन करें कि हम किस ओर जा रहे हैं ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 22 ☆ आध्यात्मिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपके  अतिसुन्दर एवं सार्थक “आध्यात्मिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 22 ☆

☆ आध्यात्मिक दोहे ☆

 

पत्ता टूटा पेड़ से, आया मेरे पास  ।

जीवन सबका इस तरह, मत हो मित्र उदास।।

 

ॐ मन्त्र ही श्रेष्ठ है, जप तप का आधार ।

चक्र सदा इसमें रमो, करता बेड़ा पार।।

 

माया के बहु रूप हैं,  माया दुख का सार।

माया ही करती रही ,चक्र सदा अपकार।।

 

समय अभी है चेत जा, चक्र लगा ले ध्यान।

शोर शराबा हर तरफ, दुष्ट करें अपमान।।

 

वेदों में हैं जो रमे, करते गीता पाठ।

ज्ञान बुद्धि सन्मति बढ़े, भ्रम, संशय हो काठ।।

 

दो ही मानव जातियाँ, असुर औ एक देव।

देव करें शुभ काम ही, असुर रखें मन भेद।।

 

काम, क्रोध, मद, लोभ ही; यही नरक के द्वार।

जो इनसे बच के रहें, हो उनका उद्धार।।

 

सुख -दुख में है साथ प्रिय, तुझसे पावन प्यार।

पवन गगन सर्वत्र है, तुझमें है संसार।।

 

लघुता में रहकर जिया, मन में सुक्ख अपार।

जीवन ही देता रहा, मौन सुखी संसार।।

 

लाभ हानि सुख छोड़कर ,गुरु देता है ज्ञान।

गुरुवर के सानिध्य से,सबका हो कल्याण।।

 

‘चक्र’ कबीरा बाबरा,  हँसे अकेला रोज।

मायावी संसार में, करे स्वयं की खोज।।

 

कृपण कभी देता नहीं, प्यार और सत्कार।

चाहे भर लूँ मुट्ठियाँ, भर लूँ सब संसार।।

 

संशय , शक जो जन करें, वही भाग्य के हीन।

कर ले शुभ- शुभ बाबरे, श्वाश मिलीं दो तीन।।

 

योग,परिश्रम नित करू, सोचूँ शुभ -शुभ काम।

सभी समर्पित ईश को, मुझे कहाँ  विश्राम।।

 

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 41 – लढूया लढाई….!  ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक अत्यंत भावप्रवण एवं प्रेरक कविता   “लढूया लढाई….!”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #41 ☆ 

☆ लढूया लढाई….! ☆ 

(जागतिक महामारी कोरोना विषाणू चे संकट संपूर्ण जगावर  असताना  आपण प्रतिबंधकात्मक उपाय म्हणून लाॅक डाऊन चा मार्ग  अवलंबिला आहे. या  काळात सुचलेली  एक रचना खास  आपल्यासाठी. . . . !)

 

इवला विषाणू    फिरे गावोगाव

महामारी  वाव   देण्यासाठी . . . . !

 

लढूया लढाई     घेऊनी माघार

टाळूयात वार     कोरोनाचा.. . !

 

प्रसारा आधीच   सावधानी हवी

संरक्षण हमी       कुटुंबास.. . . !

 

धन  आरोग्याचे   ठेऊ सुरक्षीत

करू  आरक्षीत    जीवनाला  .. . !

 

नको गळामिठी   करू नमस्कार

नवे सोपस्कार     पूर्ण करू. . . . !

 

गर्दीच्या ठिकाणी   नको येणे जाणे

टाळूयात जाणे      पदोपदी. . . . .!

 

संचार बंदीत     संपर्क टाळूया

नियम पाळूया    बचावाचे . . . . !

 

वारंवार स्वच्छ     ठेवू घरदार

संसर्गाचा वार      घातदायी . . . . . !

 

सर्दी खोकल्यात    उपचार  करू

रूमालास धरू       नाकापुढे    ……!

 

अंतर   ठेवून      येवू संपर्कात

सौख्य  बरसात  आशादायी. . . . !

 

करोना लागण     आहे महामारी

मृत्यू लोक वारी    ठरू नये.. . !

 

विचित्र हा शत्रू   कुणा ना  दिसला

मारीत सुटला     जग सारे. . . . !

 

परतूनी लावू    एक एक वार

टाळूया संचार   भोवताली  . . . . !

 

करू संरक्षण     नियमास पाळू

टाळू महामारी    विनाशक.. . !

 

…©सुजित कदम

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 42 – किनको, किन-‘को-रोना’ रे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनकी एक  अतिसुन्दर समसामयिक रचना किनको, किन-‘को-रोना’ रे। आज यही जीवन का कटु सत्य भी है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 42 ☆

☆ किनको, किन-‘को-रोना’ रे☆  

 

कौन कहां के बापू माई

कौन, कहां मृगछौना रे,

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

प्रीत लगाई बाहर से

बाहर वाले ही भाये

ये अनुयाई हैं उनके जो

अपनों को ठुकराए,

 

ठौर ठिकाना अलग सोच का

इनका अलग बिछौना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

जो भीषण संकट में भी

अपना ही ज्ञान बघारे

हित चिंतक का करें मखौल

भ्रष्ट बुद्धि मिल सारे,

 

इनके कद के सम्मुख लगे

आदमी बिल्कुल बौना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना’ रे।।

 

ये ही हैं उनके पोषक

जो घर को तोड़े फोड़े

आतंकी है इनके प्रिय

उनसे ये नाता जोड़ें,

 

अपना मरे, सिले मुँह इनके

उन पर रोना धोना रे।

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

“सर्वे भवन्तु सुखिनः”का

ये मूल मंत्र अपनाएं

अच्छे बुरे पराए अपने

सबको गले लगाएं,

 

मिलजुल कर सब रहें

हृदय में प्रेम बीज को बोना रे ।

कौन कहां के बापू माई

कौन कहां मृगछौना रे,

अपनी-अपनी मगज पचाई

किनको, किन-को-रोना रे ।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 44 – आज्ञाताच्या हाका☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  इस सदी के लिया आह्वान  “आज्ञाताच्या हाका  ।  हमारे समवयस्कों का सारा जीवन निकल गया और आज हम एक ऐसे दोराहे पर खड़े हैं  जो हमें अनजान राहों पर ले जाते हैं।  अक्सर तीसरी अदृश्य राह  भी है जो हमें दिखाई नहीं पड़ती जो हमें  अनजान और जोखिम भरी राह  पर ले जाती है। ऐसे क्षणों में हम जीवन के बीते हुए अनमोल क्षणों की स्मृतियों में खो जाते हैं और भविष्य दिखाई ही नहीं देता। आज की परिस्थितियों में सुश्री प्रभा जी ने मुझे निःशब्द कर दिया है । यदि आप कुछ टिपण्णी कर सकते हैं तो आपका स्वागत है। इस भावप्रवण अप्रतिम  रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 44☆

☆ आज्ञाताच्या हाका ☆ 

  या जगण्याला

आता कोणती आस?

हे वैश्विक विघ्न टळावे,

हाच एक ध्यास!

☆ आज्ञाताच्या हाका ☆ 

(एक मुक्त चिंतन )

 आयुष्य अवघे आता नजरेसमोर येते,

बालपण, किशोरावस्था, तारुण्य,

मनी घमघमते,

 

सूरपारंब्या, विटी दांडू, लगोरी ,सागरगोटे,

मनसोक्त खेळ…. ते हुंदडणे…

सारेच हृदयी दाटे…

 

ते दिवस छानसे होते,

शाळेची हिरवी वाट…

ती रम्य सख्यांची साथ….

दाटते धुके घनदाट

 

काॅलेज एक काहूर

काळजात कशी हूरहूर

उमटली दिनांची त्या ही

जगण्यावरी एक मोहर

 

संसार तसाही झाला,

जशी जगरहाटी असते…

प्राक्तनात होते ते ते ,घडले….

अन तोल असेही सावरले.

 

या जगण्यात रमले खूप

वय या वळणावर आले …..

मन उगाच गहिवरले…

बदलले रंग अन रूप….

 

अतर्क्य, अनाकलनीय आहे

इथला हा भव्य पसारा…

जाहले पुरे हे इतुके,

सारेच भरभरून येथे वाहे….

 

हे असेच राहिल येथे…

धरित्री, आकाश, हवा अन पाणी …

या आज्ञाताच्या हाका….पडतात आताशा कानी

 

मी खुप साजरे केले

जगण्याचे सौख्य सोहळे

कोणत्या दिशेला  आता..

आयुष्य – सांज मावळे…..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर  हम  आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर  आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  प्रथम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर  – 1

परतंत्र भारत में समाज सुधार के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले महापुरुषों  में डाक्टर भीमराव आम्बेडकर और मोहनदास करमचंद गांधी का नाम अग्रिम पंक्ति में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। डाक्टर भीम राव आम्बेडकर को स्वतन्त्रता के पूर्व से ही दलित वर्ग के नेतृत्वकर्ता के रूप में पहचान मिली और वे वंचित शोषित समाज के प्रतिनिधि के रूप में पहले साइमन कमीशन के सामने मुंबई में  और फिर तीनों  गोलमेज कांफ्रेंस, लन्दन में न केवल सम्मिलित हुए वरन उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में दलितों की समस्या पुरजोर ढंग से अंग्रेज सरकार के सामने रखी। इसके पूर्व भी डाक्टर आम्बेडकर विभिन्न मंचों पर दलित समुदाय की समस्याएं उठाते रहे और अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन व जनजागरण की मुहीम चलाते रहे। इस दिशा में महाड़ के चवदार तालाब में अपने अनुयायियों के साथ प्रवेश कर अंजुली भर जल पीने और नाशिक के कालाराम मंदिर तथा अन्य हिन्दू धार्मिक स्थलों  में दलितों के प्रवेश को लेकर किये गए आन्दोलनों, अछूतों के उपनयन संस्कार आदि के आयोजनों ने उन्हें पर्याप्त ख्याति दी।  दूसरी ओर गांधीजी ने भी दलित समाज की पीड़ा को समझा और उनको मुख्य धारा में शामिल करने, छुआछूत का भेद मिटाने, मंदिरों में प्रवेश, दलित वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक विकास  आदि को लेकर सामाजिक आंदोलन किये, उन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया और ‘हरिजन’ नाम से एक समाचार पत्र का सम्पादन भी किया। गांधीजी ने कांग्रेस के कार्यों के लिए लगभग एक  करोड़ रूपये का चन्दा सन 1921 में एकत्रित किया था, इसमें से बड़ी रकम उन्होंने अछूतपन मिटाने जैसे  रचनात्मक कार्यों के लिये आवंटित की थी। गांधीजी ने 1933 में भारत का व्यापक दौरा किया जिसे इतिहास में हरिजन दौरे का नाम मिला।  दोनों नेताओं के बीच दलितों के उत्थान को लेकर इस सामाजिक बुराई को लेकर गहरे मतभेद थे। आज भी यदा कदा इन मतभेदों को लेकर चर्चाएँ होती रहती हैं और दोनों को एक दूसरे के कट्टर विरोधी और कटु आलोचक के रूप में दिखाया जाता है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। इन दोनों नेताओं के बीच दलित समाज के उत्थान को लेकर चिंता थी, दोनों इस सामाजिक बुराई को दूर करना चाहते थे लेकिन जहाँ एक ओर कानूनविद आम्बेडकर इस बुराई को दूर करने के लिए कठोर कारवाई और  क़ानून का सहारा लेना चाहते थे तो दूसरी ओर गांधीजी इसे सौम्यता के साथ सामाजिक बदलाव व ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से दूर करना चाहते थे।

इन्दौर के निकट महू छावनी में  (जिसका नामकरण अब डाक्टर आम्बेडकर नगर हो गया है)  14 अप्रैल 1891 को जन्मे भीमराव आम्बेडकर, सेना में सूबेदार रामजी राव के चौदहवें पुत्र थे और वे महात्मा गांधी से लगभग बाईस वर्ष छोटे थे। उम्र के इतने अंतर के बाद भी गांधीजी डाक्टर आम्बेडकर से अपने मतभेदों के बावजूद  संवाद करते रहते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने डाक्टर आम्बेडकर को अपनी मंत्रीपरिषद में क़ानून मंत्री बनाया, संविधान सभा का सदस्य बनाया और उनकी इच्छा के अनुरूप दलितों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिलाया यह सब कुछ निश्चय ही महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही संभव हुआ।

गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मध्य अस्पृश्यता को लेकर बड़े गहरे मतभेद थे। जहाँ गांधीजी वर्ण व्यवस्था को हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते थे और उनके मतानुसार अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था की देन  न होकर ऊँच-नीच की भावना का परिणाम है जो हिन्दुओं में फैल गई है व समाज को खाए जा रही है। डाक्टर आम्बेडकर का मानना था कि  अस्पृश्यता मनुवादी वर्ण व्यवस्था के कारण है और जब तक वर्णाश्रम को ख़त्म नहीं किया जाता तब तक अन्त्ज्य रहेंगे और उनकी मुक्ति संभव नहीं है। जाति प्रथा को भी गांधीजी अनिवार्य मानते थे और इसे वे रोजगार से जोड़कर देखते थे। डाक्टर आम्बेडकर के विचारों में स्वराज से पहले अछूत समस्या का निदान जरूरी था और वे दलित वर्ग के लिए समता के अधिकारों की गारंटी स्वराज हासिल करने के पहले चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि अगर अंग्रेजों के रहते अछूतों को उनके अधिकार नहीं मिले तो स्वराज प्राप्ति के बाद भारत की राजनीति में सवर्णों का एकाधिपत्य बना रहेगा और वे दलितों के साथ सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार दुर्व्यवहार व भेदभाव करते रहेंगे। गांधीजी सोचते थे कि एक बार स्वराज मिल जाय तो फिर इस समस्या का निदान खोजा जाकर  अंत कर दिया जाएगा। गांधीजी ने दलितों को हिन्दू समाज में सम्मानजनक स्थान देने के लिए ‘हरिजन’ नाम दिया। डाक्टर आम्बेडकर और उनके अनुयायियों ने ‘हरिजन’ शब्द को कानूनी मान्यता देने संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। उनके मतानुसार यदि दलित ‘हरिजन’ यानी ईश्वर की संतान हैं तो क्या शेष लोग शैतान की संतान हैं?

गांधीजी और आम्बेडकर में मतभेद  अस्पृश्यता की उत्पत्ति को लेकर भी थे। गांधीजी का मानना था कि वेदों में चार वर्ण की तुलना शरीर के चार हिस्सों से की गई है। चूँकि चारों वर्ण शरीर का अंग हैं अत: उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं हो सकता। वे मानते थे कि पुर्नजन्म के सिद्धांत के अनुसार अच्छे कार्य करने से शूद्र भी अगले जन्म में ब्राह्मण वर्ण में पैदा हो सकता है। वे वर्ण व्यवस्था को सोपान क्रम जैसा नहीं मानते वरन उनके अनुसार अलग-अलग जातियों का होना हिन्दू धर्म में सामाजिक समन्वय व आर्थिक स्थिरता बनाए रखता है। हिन्दू समाज के एक समन्वित इकाई के रूप में कार्य करने का श्रेय वे वर्ण व्यवस्था को देते हैं। वे विभिन्न वर्णों व जातियों के मध्य विवाह व खान पान का निषेध नहीं करते हैं, लेकिन इस हेतु किसी भी जोर जबरदस्ती के वे खिलाफ हैं। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर ने वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था की अलग ढंग से व्याख्या की। वे मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था में विभिन्न वर्गों का शरीर के अंगों के समतुल्य मानना सोची समझी योजना है। मानव शरीर में पैर ही सबसे हेय अंग हैं और इसलिए शूद्र को सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचली पायदान प्राप्त है। सामाजिक अपमान की यह धारणा उनके मतानुसार परतबद्ध असमानता के दम पर टिकी है। वे जाति प्रथा का कारण आर्थिक नहीं वरन एक ही जाति के भीतर विवाह की व्यवस्था को मानते हैं। उनके मतानुसार रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाए बिना जाति व्यवस्था ख़त्म नहीं होगी और जब तक जातियाँ अस्तित्व में अस्पृश्यता बनी रहेगी।

……….क्रमशः  – 2

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆ लघुकथा – समझदारी …….. ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा समझदारी   ….।  पति पत्नी का सम्बन्ध एक नाजुक डोर सा होता है और विश्वास उसकी सबसे बड़ी कड़ी होती है।  इस तथ्य को श्रीमती कृष्णा जी ने  पति पत्नी के इस सम्बन्ध में निहित समझदारी  को बेहद  खूबसूरती से दर्शाया है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆

☆ लघुकथा  – समझदारी   …. ☆

 

पति  अजय ने आभा को अपने पास बैठाकर समझाया। बीती बातें एक बुरा सपना समझकर भूल जाओ मैं  तुम्हारे साथ हूँ   पर आभा नजरें नहीं मिला पा रही थी। अजय ने उसे गले लगाया बस फिर तो आभा के सब्र का बांध ही टूट गया हिचकी के साथ आँसू बहे और आँसुओं के साथ मित्र द्वारा की गयी गद्दारी  तार तार हो गई।

शाह ने पहले अजय से दोस्ती की और फिर बाद में आभा की गतिविधियों पर नजर रख उसका फायदा उठाया। अजय जानते थे। शाह बदमाश और गंदा व्यक्ति है पर उसकी  वाकपटुता से वे भी मोहित हो गये। किन्तु, उसका घर में घुसकर घरघुलुआ खेलना बहुत बुरा लगा। वे उस पर नजर रखते फिर भी शाह आभा से मिलना न छोड़ता।  अजय ने घर बर्बाद न हो, यह कोशिश शुरू कर दी।  अभी नयी नयी गृहस्थी थी एक दूसरे को समझ ही रहे थे, कि बीच में शाह का आ जाना  घर का टूटने जैसे होगा।

अजय ने आभा को बहुत प्यार और सम्मान, धीरज के साथ समझाया और शाह की कोई भी बुराई न कर आभा के मन को जीत  लिया।  नारी स्वभाव एक चढ़ती बेल ही तो होता है।  जो प्यार से संवारे,  उसी की हो ली।

अजय कुछ सामान लेने बाहर निकले ही थे कि झट से दूर खड़े शाह ने आभा के घर में प्रवेश किया।  अजय शाह को आते देख चुके थे।  वे आकर चुपचाप  बाहर कमरे में बैठ गये। शाह आभा से प्यार भरी बातें करने लगा। सब्जबाग दिखाने की कोशिश करने का प्रयास किया।  तभी आभा ने ऊंची आवाज में शाह को डाँटा कि आज के बाद इस घर में कदम मत रखना।  यह मेरा और मेरे पति का घर है, इसमें किसी तीसरे का कोई स्थान नहीं। और शाह अपनी चालबाजियों के आगे खुद ही हार गया। जब वह बाहर निकल रहा था, तभी अजय ने बड़े प्यार से उसकी ओर मुस्कुरा कर देखा। शाह सिर नीचे किए चुपचाप तेज कदमों से बाहर निकल गया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34 ☆ बौनापन ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बौनापन”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 34☆

☆  बौनापन ☆

 

ए ख़ुदा!

कितना विशाल है

तेरा जिगर

और कितनी छोटी है मेरी हस्ती!

 

जब भी अपने आप को

नापने लग जाती हूँ,

तो एक मिटटी का कण भी

मुझसे बड़ा ही लगता है,

सच, नहीं हूँ मैं,

एक कतरा भी!

 

ए ख़ुदा!

अक्सर सीली सी शामों में

सोचती हूँ कि

कैसे तू ख़याल रखता है

अपने इतने सारे चाहने वालों का?

कैसे तू निभाता जाता है साथ

हर अलग-अलग दिशा में उड़ते हुए

इन तिनकों का?

कैसे बटोरता है तू

इनके एहसास?

कैसे कर लेता है तू

हर किसी से इतनी मुहब्बत?

और कैसे इन्हें आभास दिलाता है

अपनेपन का?

 

आज

जब मेरे आवारा से कदम

फिर तौलने लगे खुद को

तो उन्हें एक बार फिर

हवाएँ एहसास दिला गयीं

मेरे बौनेपन का!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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