डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “खामोशी और आबरू”. डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख हमें साधारण मानवीय व्यवहार से रूबरू कराता है। इस आलेख का कथन “परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 31☆
☆ खामोशी और आबरू ☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, शब्द सर्व-व्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम शब्द सर्वव्याप्त है, जो अजर, अमर व अविनाशी है तथा कष्ट में व्यक्ति के मुख में दो ही शब्द निकलते हैं… ओंम तथा मां।
परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का अपने लहू से उसका सिंचन व भरण-पोषण करती है और यह करिश्मा प्रभु का है। जन्म के पश्चात् उसके हृदय से पहला शब्द ओंम व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता- बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधू ले आती है, ताकि वे भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान दे सकें। घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… उसका बचपन देखने की बलवती लालसा.. उसे हर हाल में, अपने आत्मजों के साथ रहने को विवश करती है और वह खामोश रहकर सब कुछ सहन करती रहती है ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो…दिलों में कटुता के कारण दूरियां न बढ़ जाएं। वह माला के सभी मनकों को डोरी में पिरो कर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य बना रहे। परंतु कई बार उसकी खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।
वैसे यह समय की ज़बरदस्त मांग है। रिश्ते खामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं। लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और पति के देहांत के बाद पुत्र के आशियाने में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और हर बात पर टोका जाता है और प्रतिबंध लगाए जाते हैं…हिदायतें दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और वह समानाधिकारों की मांग करती है… तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि वह कुल दीपक है और वह हमें मोक्ष द्वार पर ले जाएगा। तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर आज्ञा व आदेशों को वेद-वाक्य समझ उनकी अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के नीचे दबी वह नव-यौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना समझ, सजाने-संवारने में लग जाती है और सब की खुशियों के लिए, अपनी ख्वाहिशों को दफ़न कर, अपने मन को मार, पल-पल जीती, पल-पल मरती है, परंतु उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधि को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार नहीं करती तथा उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है… उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को भंवर में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती है, वह उसका होता ही नहीं। उसे किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुरका अर्थात् आवरण ओढ़े रहती है, घुटती रहती हैं, क्योंकि विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं। पति के घर में भी वह सदा पराई अथवा अजनबी समझी जाती है। अपने अस्तित्व को तलाशती, ओंठ बंद कर अमानवीय व्यवहार सहन करती, इस संसार को अलविदा कह चल देती है।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। वे बचपन से लड़कों की तरह मौज- मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन गया है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगी हैं। प्रतिबंधों में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा के सीमाओं व दायरे में बंधना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत वे नहीं स्वीकारतीं, न ही घर- परिवार के कायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ अपने ढंग से स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात- बात पर पति व परिवारजनों से उलझना, उन्हें व्यर्थ भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भयावह-भीषण परिणाम हम तलाक़ के रूप में देख रहे हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गयी है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी भी एक छत के नीचे भी अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंधों-सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो बच्चों को जन्म देकर युवा पीढ़ी अपने दायित्वों का वहन करना नहीं चाहती, क्योंकि आजकल सब ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और लिव-इन व मी-टू ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखलाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में विश्वास रखने लगे हैं और यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर की सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता विनाश की ओर जाता है। सो! वे उस जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह है, प्रतिक्रिया है उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षाओं व भावों को भी दरशा नहीं पाता। मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं और खाई के रूप में समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है, संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब खामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उससे मुक्ति पा लेना।
जीवन की केवल समस्याएं नहीं, संभावनाओं को तलाशिये, क्योंकि हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है…उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते हैं। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… उन्हें अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि आपाधापी के युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझें, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं। इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक सिखलाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना असंभव है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म-सीमित अर्थात् आत्म-केंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ इसलिए उसे छोड़िये मत, पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस असामान्य परिस्थिति मेंअपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है… ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
खामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। सो! समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन- मनन कीजिए… सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है सर्वश्रेष्ठ जीने की कला।
परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन- शक्ति बढ़ाइए। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878