मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆ चंद्रकोर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है असमय भयावह वर्षा पर आधारित रचना  “चंद्रकोर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆

☆ चंद्रकोर ☆

 

पाणी पाणी ओरडत राती उठलं शिवार

कसा अंधाऱ्या रातीला आला पावसाला जोर

 

वीज कडाडली त्यात आणि विझली ही वात

धडधडते ही छाती भीती दाटलेली आत

झोप उडाली घराची जागी रातभर पोरं

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

मेघ रडवेला झाला कुणी डिवचल त्याला

गडगड हा लोळला ओला चिंब केला पाला

त्याला शांतवण्यासाठी बघा नाचला हा मोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

चंद्र होता साक्ष देत शुभ्र होतं हे आकाश

क्षणभरात अंधार कुठं गेला हा प्रकाश

काळ्या ढगानं झाकली कशी होती चंद्रकोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

डोळ्यांसमोर तरळे जसा कापसाचा धागा

एका दिसात टाचल्या त्यानं धरतीच्या भेगा

इंद्र देवाने सोडला वाटे जादूचा हा दोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

जाऊ पावसाच्या गावा सोडू कागदाच्या नावा

नावेमधे हा संदेश ठेवा लक्ष तुम्ही देवा

जशी खेळातली नदी दिसो उघडता दार

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 41 – लघुकथा – गणगौर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “गणगौर।  अभी हाल ही में गणगौर पूजा संपन्न हुई है और ऐसे अवसर पर  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो हमें सिखाता है कि कितना भी कठिन समय हो धैर्य रखना चाहिए। ईश्वर उचित समय  पर उचित अवसर अवश्य देता है । इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 41☆

☆ लघुकथा  – गणगौर

नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर माता की पूजा होती है। कहते हैं  कि सौभाग्य की देवी को, जितना अधिक सौभाग्य की वस्तुएं चढ़ाकर बांट दिया जाता है। उतना ही अधिक पतिदेव की सुख समृद्धि बढ़ती है।

गांव में एक ऐसा घर जहां पर सासु मां का बोलबाला था। अपने इकलौते बेटे की शादी के बाद, बहू को अपने तरीके से रख रही थी। ना किसी से मिलने देना, ना किसी से बातचीत, एक बिटिया होने के बाद मायके वालों से भी लगभग संबंध तोड़ दिया गया था। परंतु बहू अनामिका बहुत ही धैर्यवान और समझदार थी। कहा करती थी कि समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।

परंतु सासू मां उसे तंग करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती। उनका कहना था कि “जब तक पोता जनकर नहीं देगी तब तक तुझे कोई नया कपड़ा और श्रृंगार का सामन नहीं दूंगी।” बहु पढ़ी लिखी थी, समझाती थी परंतु सासू मां समझने को तैयार नहीं थी। गांव में सासू माँ की एक अलग महफिल जमती थी। जिसमें सब उसी प्रकार की महिलाएं थी। बहू ने अपनी सासू मां और पति से कहा कि उसकी  ओढ़नी की चुनरी फट चुकी है।” मुझे इस बार गणगौर तीज में नई चुनरी दे दीजिएगा। पर सासु माँ ने कहा “तुम तो चिथड़े पहनोगी। मुझे तो समाज में बांटकर नाम कमाना है और अखबार में तस्वीर आएगी। तुझे देने से क्या फायदा होगा। ”

एक दिन बहु कुएं से पानी लेकर आ रही थी कि रास्ते में गांव के चाचा जी की तबीयत अचानक खराब हो गई। चक्कर खाकर गिर गए। बहू ने तुरंत उठा, उनको पानी पिला, होश में लाकर घर भिजवा दिया। उनके यहां सभी बहुत खुश हो गये क्योंकि अनामिका ने आज उनके पति की जान बचाई। गणगौर के दिन वह बहुत सारा सुहाग का सामान और जोड़े में लाल चुनरी लेकर आई और अनामिका को देकर बोली “मेरे सुहाग की रक्षा करने वाली, मेरी गणगौर तीज की देवी तो तुम हो।”

सासू मां कभी अपने रखी हुई चुनरी और कभी अपनी बहू का मुंह ताक रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 1 ☆ आशा और निराशा  ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी आशावादी कविता  “आशा और निराशा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 1 ☆

☆ आशा और निराशा  ☆

 

निराशा जब जीवन का गला घोंटने लगती है,

तब आशा कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

हर मोड़ हर रास्ता काटने लगता है,

तब आशा फूलों का गुलदस्ता लिए,

कानों मे कह जाती, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब रात काली घनेरी आती है, अंधेरा फैलने लगता है,

तब आशा रौशनी का दीप जलाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब शब्दों के बाण घायल कर जाते हैं,

तब आशा मीठे बोल सुनाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब रास्ते पथरिले और पाँव छलनी हो जाते हैं,

तब आशा हाथों की गदली रख जाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

जब पतझड़ पीले पत्ते कर जाता है,

तब आशा हरियाली भर देती है,

और कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

जब आँखों से आँसू झरने लगते हैं,

तब मन सहराती है, आँसू पी जाती है,

और कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब मन तूफ़ानों मे घिर जाता है, मन की नाव डूबने लगती है,

तब पतवार हाथों में लिए,

आशा कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब राह भटकने लगती, जीवन पहेली बन जाती है,

तब आशा पहेली सुलझाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

चलना जीवन, चलते जाओगे, चलते जाओगे,

आशा साथ चलेगी, सदा साथ चलेगी, सदा सदा चलेगी।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 40 ☆ कोरोना फोबिया ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक कविता   “कोरोना फोबिया। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 40

☆  कोरोना फोबिया  ☆ 

 

मायूस सड़कें,

उदास लैम्पपोस्ट,

उबाऊ सन्नाटा,

कर्फ्यू का जोर,

कर्फ्यू की ऊब,

डरावना शोर

इक्कीस दिन बाद,

फिर सोच बदलेगी,

सड़कों की तरफ,

फिर भागदौड़ मचेगी,

लोग घरों से,

बाजार तरफ लौटेंगे,

डर के साये में,

सांकल मुक्त होगी

धरती की गोद में,

प्रार्थना की बात होगी

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 41 –  गाठोडे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  नानी / दादी की स्मृतियों में खो जाने लायक संयुक्त  परिवार एवं ग्राम्य परिवेश में व्यतीत पुराने दिनों को याद दिलाती एक अतिसुन्दर मौलिक कविता   “ गाठोडे”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 41 ☆ 

 ☆  गाठोडे 

 

कुठे गेले आजीबाई

तुझे गाठोडे ग सांग।

खाऊ, खेळणी, औषध

यांची देत आसे बांग।

 

गाठोड्यात पोटलीची

असे जादू  लई भारी।

क्षणार्धात दिसेनासी

होई समूळ बिमारी।

 

काच कांगऱ्या कवड्या

खेळ पुन्हा रोज रंगे।

सारीपाट  सोंगट्यांची

हवी मला जोडी संगे।

 

मऊशार उबदार

तुझी गोधडी जोडाची।

जादू तिची वाढविते

कशी रंगत स्वप्नाची।

 

गाठोड्याची कळ तुझ्या

कुणी दाबली ग बाई।

सर त्याची कपाटाला

कशी येईल ग बाई।

 

श्रीमतीचे आईचे हे

भूत जाईल का देवा

गाठोड्याच्या मायेचा तो

पुन्हा देशील का ठेवा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 28 – माँ का होना ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना  ‘माँ का होना ।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

ऐसी रचना सिर्फ और सिर्फ माँ ही रच सकती है और उसकी भावनाएं संतान ही पढ़ सकती हैं ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 28 – विशाखा की नज़र से

☆ माँ का होना ☆

 

माँ का होना मतलब ,

चूल्हे का होना

आग का होना

उस पर रखी देगची

और,

पकते भोजन का सुवास होना

 

माँ का होना मतलब,

घर का हर कोना व्यवस्थित होना

बुरी नज़र का दूर होना

और,

नौनिहालों के सर पर

आशीष का होना

 

माँ का होना मतलब,

पेट का भरा होना

तन पर चादर का होना

और,

सोते समय एक छोटी सी

कहानी का होना

 

माँ का होना मतलब,

अगरबत्ती का होना

मंत्रों का गुंजित होना

और,

घर के मंदिर में फूलों का होना

 

माँ का होना मतलब

एक व्यक्ति का सजग होना

छोटी सी चोट पर

हल्दी का मरहम होना

और,

अपने सारे तपोबल का

अंश पर निसार होना

मां का होना ….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #43 ☆ जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 43 –  जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆

एक सुखद संयोग:
जो बाँचेगा, वही रचेगा,
जो रचेगा, वही बचेगा।..
ये मेरी पंक्तियाँ हैं जिनका उल्लेख प्रधानमंत्री जी से काशी की एक लेखिका ने किया। हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार का यह सूत्र भी है। हमारी पत्रिका ‘हम लोग’ के मुखपृष्ठ पर इसे सदा छापा भी गया है।

– संजय भरद्वाज
☆ अमृत -2 ☆

मुझे अमृत

कभी मत देना,

मिल भी जाए

तो हर लेना,

चक्रपाणि,

ये चाह मुझे

जिलाये रखती है

मंथन को

टिकाये रखती है,

मैं जीना चाहता हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 43 ☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘बुद्ध और केशवदास’  निश्चित ही  युवावस्था की अगली अवस्था में  पदार्पण कर रहे या पदार्पण कर चुके /चुकी पीढ़ी  को बार बार आइना देखने को मजबूर कर देगा। मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  कई लोगों की दुखती राग पर हाथ धर दिया है।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 43 ☆

☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆

यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।

कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?

और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।

‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।

एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।

एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।

बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?

मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 1 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ” दोहा सलिला”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 1 ☆ 

☆  दोहा सलिला ☆ 

 

घर में रह परिवार सँग, मिल पाएँ आनंद

गीत गाइए हँसी के, मुस्कानों के छंद

 

दोहा दुनिया में नहीं, कोरोना का रोग

दोहा लेखन साधना, गीत जानिए योग

 

नमन चिकित्सक को करें, नर्स देवियाँ मान

कंपाउंडर कर्मठ बहुत, हैं समाज की जान

 

सामाजिक दूरी रखें, खुद को दें उपहार

मिलना-जुलना छोड़ दे, जो वह सच्चा यार

 

फिक्र काम की छोड़िए, कुछ दिन रह निष्काम

काम करें गृहवास कर, भला करेंगे राम

 

मनपसंद पुस्तक उठा, जी भर करिए पाठ

जो जी चाहे बना-खा, करें शाह सम ठाठ

 

घर से बाहर जो गया, खड़ी हो गई खाट

कोरोना दे पटकनी, मारे धोबीपाट

 

घरवाली को निहारें, बाहरवाली भूल

घरवाले के बाग में, खिलिए बनकर फूल

 

बच्चों के सँग खेलिए, मारें गप्पे खूब

जो जी चाहे खा-बना, हँसें खुशी में डूब

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4 ☆ स्वप्न ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “स्वप्न“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 4 ☆

☆ कविता – स्वप्न ☆ 

 

स्वप्नात एक आली छाया तुझ्या रुपाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

परिधान करुनी आली वस्त्रे अशी धुक्यांची

डोकाऊनी पहाती अंगांग यौवनाची

आशा मनात फुलली मिळो साथ एकदाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

एकेक पावलांचा झंकार उठे गगनी

आलीस जवळी माझ्या तू लहरीस्वरांमधुनी

लाऊ नको विलंबा ही वेळ मीलनाची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

हृदयात हृदय गुंतुनीया एकजीव होता

एका विशिष्ट घटिके रती मदन तृप्त होता

झाली पहाट वेळा अन् स्वप्न मोडण्याची

निःशब्द शांतता अन् ती रात्र चांदण्याची।।

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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