मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 31 – गेली कित्येक वर्षे…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक हृदयस्पर्शी कविता  “गेली कित्येक वर्षे…!” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #31☆ 

☆ गेली कित्येक वर्षे…! ☆ 

 

शहरात गेल्यापासून

तुम्ही पार विसरून गेलात मला..,

आज इतक्या वर्षानंतर

तुम्ही मला घर म्हणत असाल की नाही

ठाऊक नाही…

पण मी अजूनही सांभांळून ठेवलंय..,

घराचं घरपण

तुम्ही जसं सोडून गेलात तसंच . . .

गेल्या कित्येक वर्षात

अनेक उन पावसाळ्यात

मी तग धरून उभा राहतोय

कसाबसा…. तुमच्या शिवाय…

रोज न चुकता

तुमच्या सर्वांचीआठवण येते …

पण खरं सांगू . . .

आता नाही सहन होत

हे ऊन वा-याचे घाव …

माझ्या छप्परांनीही आता

माझी साथ सोडायचा निर्णय घेतलाय…

माझा दरवाजा तर

तुमची वाट पाहून पाहून

कधीच माझा हात सोडून

निखळून पडलाय….!

माझ्या समोरच अंगण तुळशीवृंदावन

सगळंच कसं दिसेनास झालंय आता…

माझ्या भिंतीनी माझा श्वास

मोकळा करून देण्या आधी

एकदा तरी . . .  फक्त एकदा तरी ….

मला भेटायला याल अशी आशा आहे…!

तूमचं घर तुमची वाट पाहतय…!

गेली कित्येक वर्षे …. . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 31 – माँ ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक कविता  माँ। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 31☆

☆ माँ ☆  

 

माँ ममता का महाकाव्य, माँ परम्परा है

माँ अनंत आकाश, धीर-गम्भीर धरा है।।

 

माँ मंदिर माँ मस्जिद, माँ गुरुद्वारा है

माँ गंगा-जमुना की शीतल धारा है,

माँ की नेह दृष्टि से, यह जग हरा भरा है……..

 

माँ रामायण माँ कुरान, माँ वेद ऋचायें

माँ बाइबिल, गुरुग्रंथ, विश्व में प्रेम जगाए,

माँ का स्नेहांचल, सागर से भी गहरा है……….

 

माँ चासनी शकर की, तड़का माँ जीरे का

भोजन की खुशबू माँ, माँ का मन हीरे का,

माँ करुणा की मूरत, निश्छल प्रेम भरा है……..

 

माँ के चरणों की रज, है माथे का चंदन

माँ जीवन के सुख समृद्धि का नंदनवन,

द्वार-देहरी बन , देती सबका पहरा है……….

 

माँ तो ब्रह्मस्वरूप, सृष्टि की है रचयिता

माँ ही है असीम शक्ति, माँ भगवद्गीता,

सारे तीर्थों का दर्शन, माँ का चेहरा है………..

 

जन्म दिया मां ने, असंख्य पीड़ाएँ सहकर

पाला-पोसा बड़ा किया, कष्टों में रह कर,

जो भी माँ ने किया, सभी कुछ खरा-खरा है….

 

माँ हमारी प्रार्थना है

और मंगल गीत है

व्यंजनों की थाल है माँ

माँ मधुर नव गीत है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दीवार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – दीवार  

 

दोनों बनाते-बढ़ाते रहे

साउंडप्रूफ दीवारें अपने बीच,

नटखट बालक-सा वाचाल मौन

कूदता-फांदता रहा

दीवार के दोनों ओर

दोनों के बीच..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(11.28 बजे, 19.1.2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 33 – मी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “मी.  सुश्री प्रभा जी की कविता अनुवंश एक विमर्श ही नहीं आत्मावलोकन भी है।  यह कृति सक्षम है  सुश्री प्रभा जी के व्यक्तित्व  की झलक पाने के लिए। यह गंभीर काव्य विमर्श है ।  और वे अनायास ही इस रचना के माध्यम से अपनी मौलिक रचनाओं एवं मौलिक कृतित्व  पर विमर्श करती हैं। अभिमान एवं स्वाभिमान में एक धागे सा अंतर होता है और  पूरी रचना में अभिमान कहीं नहीं झलकता । झलकती है तो मात्र कठिन परिश्रम, सम्पूर्ण मौलिकता और विरासत में मिले संस्कार ।  इस बेबाक रचना  के लिए बधाई की पात्र हैं। 

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 33 ☆

☆ मी ☆ 

 

मी नाही देवी अथवा

समई देवघरातली!

मला म्हणू ही नका

कुणी तसले काही बाही !

 

कुणा प्रख्यात कवयित्री सारखी

असेलही माझी केशरचना,

किंवा धारण केले असेल मी

एखाद्या ख्यातनाम कवयित्री चे नाव

पण हे केवळ योगायोगानेच !

मला नाही बनायचे

कुणाची प्रतिमा किंवा प्रतिकृती,

मी माझीच, माझ्याच सारखी!

 

एखाद्या हिंदी गाण्यात

असेलही माझी झलक,

किंवा इंग्रजी कवितेतली

असेन मी “लेझी मेरी” !

 

माझ्या पसारेदार घरात

राहातही असेन मी

बेशिस्तपणे,

किंवा माझ्या मर्जीप्रमाणे

मी करतही असेन,

झाडू पोछा, धुणीभांडी,

किंवा पडू ही देत असेन

अस्ताव्यस्त  !

कधी करतही असेन,

नेटकेपणाने पूजाअर्चा,

रेखितही असेन

दारात रांगोळी!

 

माझ्या संपूर्ण जगण्यावर

असते मोहर

माझ्याच नावाची !

मी नाही करत कधी कुणाची नक्कल

किंवा देत ही नाही

कधी कुणाच्या चुकांचे दाखले,

कारण

‘चुकणे हे मानवी आहे’

हे अंतिम सत्य मला मान्य!

म्हणूनच कुणी केली कुटाळी,

दिल्या शिव्या चार,

मी करतही नाही

त्याचा फार विचार!

 

कुणी म्हणावे मला

बेजबाबदार, बेशिस्त,

माझी नाही कुणावर भिस्त!

मी माणूसपण  जपणारी बाई

मी मानवजातीची,

मनुष्य वंशाची!

मला म्हणू नका देवी अथवा

समई देवघरातली!

मी नाही कुणाची यशोमय गाथा

मी एक मनस्वी,

मुक्तछंदातली कविता!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 12 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा)”.)

☆ गांधी चर्चा # 12 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆

शिक्षा – तालीम का अर्थ क्या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ अक्षर-ज्ञान ही हो, तो वह एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्त्र से चीर-फाड़ करके बीमार को अच्छा किया जा सकता है और वही शस्त्र किसी की जान लेने के के लिए भी काम में लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञान का भी ऐसा ही है। बहुत से लोग बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं । उसका अच्छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं। यह बात अगर ठीक है तो इससे साबित होता है कि अक्षर-ज्ञान से दुनिया को फायदे के बदले नुकसान ही हुआ है।

शिक्षा का साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है । लोगों को लिखना,पढ़ना और हिसाब करना सिखाना बुनियादी या प्राथमिक – प्रायमरी – शिक्षा कहलाती है । एक किसान ईमानदारी से खुद खेती करके रोटी कमाता है। उसे मामूली तौर पर दुनियावी ज्ञान है। अपने माँ-बाप के साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्री के साथ कैसे बरतना, बच्चों से कैसे पेश आना, जिस देहात में वह बसा हुआ है वहां उसकी चाल ढाल कैसी होनी चाहिए, इस सबका उसे काफी ज्ञान है। वह नीति के नियम समझता है और उनका पालन करता है। लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता। इस आदमी को आप अक्षर-ज्ञान देकर क्या करना चाहते हैं? उसके सुख में आप कौन सी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपडी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर-ज्ञान देने की जरूरत नहीं है। पश्चिम के असर के नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगों को शिक्षा देनी चाहिए। लेकिन उसके बारे में हम आगे पीछे की बात सोचते ही नहीं। अब ऊँची शिक्षा को लें।  मैं भूगोल-विद्या सीखा,खगोल-विद्या सीखा (आकाश के तारों की विद्या), बीज गणित(एलजब्रा)  भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्यामेट्री)  का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्या को मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से वह भला किया? किस मकसद से वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फ़ायदा हुआ? एक अंग्रेज विद्वान (हक्सली) ने शिक्षा के बारे में यों कहा: “उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गयी है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनायें बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जाएगा, क्योंकि वह कुदरत के क़ानून के मुताबिक़ चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह कुदरत का अच्छा उपयोग करेगा। अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूंगा कि ऊपर जो शास्त्र मैंने गिनाये हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इन्द्रियों को बस में करने के लिए मुझे नहीं करना पड़ा। इसलिए प्रायमरी – प्राथमिक शिक्षा को लीजिये या ऊँचीं शिक्षा को लीजिये, उसका उपयोग मुख्य बातों में नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते- उससे हम अपना कर्तव्य नहीं जान सकते।

प्रश्न : अगर ऐसा ही है तो मैं आपसे एक सवाल करूंगा। आप ये जो सारी बातें कह रहे हैं, वह किसकी बदौलत कह रहे हैं? अगर आपने अक्षर-ज्ञान और ऊँची शिक्षा नहीं पायी होती, तो ये सब बातें आप मुझे कैसे समझा पाते?

उत्तर: आपने अच्छी सुनायी। लेकिन आपके सवाल का मेरा जबाब भी सीधा ही है। अगर मैंने ऊँची या नीची शिक्षा नहीं पायी होती, तो मैं नहीं मानता कि मैं निक्कमा हो जाता। अब ये बातें कहकर मैं उपयोगी बनने की इच्छा रखता हूँ। ऐसा करते हुए जो कुछ मैंने पढ़ा उसे मैं काम में लाता हूँ; और उसका उपयोग, अगर वह उपयोग हो तो, मैं अपने करोड़ो भाइयों के लिए नहीं कर सकता हूँ। इससे भी मेरी ही बात का समर्थन होता है।मैं और आप दोनों गलत शिक्षा के पंजे में फँस गए थे। उसमे से मैं अपने आप को मुक्त हुआ मानता हूँ। अब वह अनुभव मैं आपको देता हूँ और उसे देते समय ली हुई शिक्षा का उपयोग करके उसमे रही सडन मैं आपको दिखाता हूँ।

इसके सिवा, आपने जो बातें मुझे सुनायी उसमे आप गलती खा गए, क्योंकि मैंने अक्षर-ज्ञान को (हर हालत में) बुरा नहीं कहा है। मैंने तो इतना कहा है कि उस ज्ञान की हमें मूर्ति की तरह पूजा नहीं करनी चाहिए। वह हमारी कामधेनु नहीं है। वह अपनी जगह पर शोभा दे सकता है। और वह जगह यह है : जब मैंने और आपने अपनी इन्द्रियों को बस में कर लिया हो, जब हमने नीति की नीव मजबूत बना ली हो, तब अगर हमें अक्षर-ज्ञान पाने की इच्छा हो, तो उसे पाकर हम अच्छा उपयोग कर सकते हैं। वह शिक्षा आभूषण के रूप में अच्छी लग सकती है। लेकिन अगर अक्षर-ज्ञान का आभूषण के तौर पर ही उपयोग हो तो ऐसी शिक्षा लाजिमी करने की हमें जरूरत नहीं। हमारे पुराने स्कूल ही काफी हैं। वहाँ नीति की शिक्षा को पहला स्थान दिया जाता है। वह सच्ची प्राथमिक शिक्षा है। उस पर हम जो इमारत खडी करेंगे वह टिक सकेगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 9 ☆ कविता– आग के मोल ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक प्रेरणास्पद लघुकथा  “आग के मोल।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 9 ☆

☆ आग के मोल ☆

“आभा, अपने बच्चों पर ध्यान दिया करो! न तो बचपन में दिया और न ही अब दे रही हो!”  सास ने गुस्से में कहा।

“माँ जी, क्या राजुल सिर्फ मेरा बेटा है! आपका भी तो पोता है ना! बाबूजी का भी और आर्यन का तो बेटा है ना! फिर सभी मुझसे क्यों आशा करते हैं? सभी को उसका ध्यान रखना चाहिए!”

आभा सुबह उठकर सभी का नाश्ता और लंच तक का ध्यान रखती और घर के जितने भी काम सभी निपटाती। इसी आपा- धापी मे कब दोपहर हुई कब शाम, उसे पता ही नहीं चलता था।

अभी सासू माँ ने अर्णव का मासिक मूल्यांकन देखा तो उन्होंने आभा से यह शिकायत कर दी और आभा ने गुस्से में जबाब भी दे दिया पर अब पछता रही थी। माँ जी को उसने कभी पलटकर जबाब नहीं दिया था। उसने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और अर्णव को बुलाकर पास में बैठाकर  बोली,” बेटे, मैं आपको आज से समय मिलते ही पढ़ाया करुँगी।”

अर्णव ने हाँ में सिर हिलाया और दौड़कर खेलने भाग गया।

आभा सभी काम से फुरसत हो अर्णव को आवाज देने लगी तभी सासू माँ बोली, “आभा, जरा एक बाल्टी पानी धूप में रख दो। ठंडक छूट जायेगी तो नहा लेती हूँ।” बुजुर्ग होने के कारण वे हर काम आराम से करती थी।

अभी आभा ने बेटे को बुलाया और तुरन्त माँ जी की फरमाइश शुरु हो गई।

आभा को क्रोध आ गया पर कोई फायदा नहीं। यही दिनचर्या चलती रही आभा को समय ही नहीं मिल पाता बेटे को पढ़ाने के लिये।

पतिदेव चाहते तो पढ़ा सकते थे पर सारी जिम्मेदारी आभा पर लाद दी गई थी। एक तरफ पढ़ाई की चिंता दूसरी तरफ बेटे का भविष्य, आभा को ये सभी आग के मोल लग रहा था।

बढ़ती उमर का बेटा घर की सारी जिम्मेदारी आभा को आग का मोल ही लग रही थी।  सेवा  में कमी तो बड़े नाराज और काम की अधिकता से बेटे से बेपरवाह का खिताब । ये सब आग के मोल के समान ही हो गये थे।

मगर आभा कब तक बेपरवाह रह सकती थी। एक दिन सुबह माँ जी जब रसोई में गई तो एक अपरिचित महिला रसोई में आभा का हाथ बंटाती दिखी। कुछ देर बाद घर के अन्य कार्यों में भी वह मदद करती नजर आई तो माँ जी से रहा नहीं गया, “ये कौन है?”

“माँ जी, ये ललिता है। आज से मैंने इसे घर के कामों में अपनी मदद के लिए रख लिया है ताकि मैं बेटे पर ध्यान देने के लिए समय निकाल सकूँ।”

“क्या! लेकिन इतने पैसे…!”

“चिंता न करें माँजी, मैंने पूरा बजट बनाकर ही इसे रखा है। कुछ बेकार के खर्च कम करके हम अपना बजट यथावत रख सकते हैं। माँ जी, आग के मोल चुकाने से बेहतर मुझे यही रास्ता लगा।” कहती हुई आभा बेटे को पढ़ाने के लिए मुस्कुराती हुई कमरे में चली गई।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 23 ☆ बरसात ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बरसात”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 23 ☆

☆ बरसात

मैं

तुम्हारे जाने के ग़म में

कोई ग़ज़ल नहीं लिखूंगी,

न ही अपने एहसासों को पिरोकर

कोई नज़्म ही लिखूँगी,

न ही अपनी ख्वाहिशों को

किसी समंदर में डूब जाने दूँगी,

न ही अपनी आरज़ू की

हस्ती मिटने दूँगी!

 

तुम आई ही हो

मुझे चंद घड़ियों की ख़ुशी देने के लिए,

और मैं इस वक़्त को

अपनी यादों की संदुकची में

बांधकर रख दूँगी!

 

सुनो, ए बरसात!

तुमको तो जाना ही था

और मैं यह जानती थी ;

पर जब तक तुम थीं

तुमने मुझे बेपनाह मुहब्बत दी

और बस मैंने इन लम्हों को

जिगर में छुपाकर रख दिया है!

 

वैसे भी

तुम तो बरसात हो…

अगले साल तो तुमको

आना ही होगा, है ना!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मौन अनुवादक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मौन अनुवादक  

 

हर बार परिश्रम किया है

मूल के निकट पहुँचा है

मेरी रचनाओं का अनुवादक,

इस बार जीवट का परिचय दिया है

मेरे मौन का उसने अनुवाद किया है,

पाठक ने जितनी बार पढ़ा है

उतनी बार नया अर्थ मिला है,

पता नहीं

उसका अनुवाद बहुआयामी है

या मेरा मौन सर्वव्यापी है…!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 10.40 बजे, 19.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 3 ☆ रिश्ते और दोस्ती ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते hain.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #3 

☆ रिश्ते और दोस्ती  ☆

 

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता

 

कई रिश्ते निभाने में लोगों की तो आवाज ही बदल जाती है

बस अच्छी दोस्ती में कोई आवाज और लहजा ही नहीं होता

 

रिश्ते निभाने के लिए ताउम्र लिबास बदलते रहते हैं लोग

बस अच्छी दोस्ती निभाने में लिबास बदलना ही नहीं होता

 

बहुत फूँक फूँक कर कदम रखना पड़ता है रिश्ते निभाने में

बस अच्छी दोस्ती में कोई कदम कहीं रखना ही नहीं होता

 

जिंदगी के बाज़ार में हर रिश्ते की अपनी ही अहमियत है

बस अच्छी दोस्ती को किसी रिश्ते में रखना ही नहीं होता

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 22 ☆ व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी और जिंदगीनामा – श्री लालित्य ललित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री लालित्य ललित जी के व्यंग्य संग्रह  “पांडेय जी और जिंदगीनामा” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.   श्री विवेक जी ने पुस्तक की बेबाक आलोचनात्मक समीक्षा लिखी है।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 22☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  पांडेय जी और जिंदगीनामा

पुस्तक –पांडेय जी और जिंदगीनामा

लेखिका – श्री लालित्य ललित

प्रकाशक – भावना प्रकाशन नई दिल्ली

आई एस बी एन – ९७८९३८३६२५५३६

मूल्य –  220 रु  प्रथम संस्करण  2019

☆ व्यंग्य संग्रह  – पांडेय जी और जिंदगीनामा – श्री लालित्य ललित –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

मूलतः पांडेय जी की आपबीती, जगबीती पर केंद्रित कुछ कुछ निबंध टाईप के संस्मरण हैं। “पांडेय जी और जिंदगीनामा” में, जिनमें बीच बीच में कुछ व्यंग्य के पंच मिलते हैं।

लालित्य जी पहले कवि के रूप में ३५ पुस्तको के माध्यम से साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं. फिर व्यंग्य की मांग और परिवेश के प्रभाव में वे धुंआधार व्यंग्य लेखन करते सोशल मीडीया से लेकर पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. इसी वर्ष उनकी १८ व्यंग्य की पुस्तकें छपीं. यह तथ्य प्रकाशको से उनके संबंध रेखांकित करता है. जब बिना ब्रेक इतना सारा लेखन हो तो सब स्तरीय ही हो यह संभव नही. चूंकि पुस्तक  को व्यंग्य संग्रह के रूप में प्रस्तुत किया गया है, मुझे लगता है  पाठक,आलोचक, साहित्य जगत समय के साथ व्यंग्य की कसौटी पर स्वयं ही सार गर्भित स्वीकार कर लेगें या अस्वीकार करेंगे. मैंने जो पाया वह यह कि  २९ लम्बे संस्मरण नुमा लेखो का संग्रह है पांडेय जी और जिंदगीनामा. लेखों की भाषा प्रवाहमान है जैसे आंखों देखा रिपोर्ताज हो रोजमर्रा का पाण्डेय जी का सह-पात्रो के साथ वर्णन की यह शैली ही लालित्य जी की मौलिकता है.

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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