हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ कितनी और निर्भया ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “कितनी और निर्भया ”.     डॉ  मुक्ता जी ने  इस आलेख के माध्यम से यौन अपराध  और उससे सम्बंधित तथ्यों पर विस्तृत विमर्श किया है। यह समझ से परे है कि इस तथ्य को सामयिक कहें या असामयिक, यह निर्णय आप पर है। किन्तु,  दुखद यह है कि अगली दुर्घटना होते तक या दुखद ब्रेकिंग न्यूज़ आते तक समाज निष्क्रिय क्यों रहता है ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।  )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ कितनी और निर्भया

 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या, उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख, मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं, चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा, गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं। लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद-हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे अपराध की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए? संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा। और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं। वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे, तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि भय  बिनु होइहि न प्रीति तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए कठोर दंड व्यवस्था का प्रावधान करना हमारा प्रमुख दायित्व होगा, ताकि समाज में सत्यम्,  शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता  ‘अनुरागी’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆ नजरिया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक सामायिक कविता  “नजरिया ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆

☆ नजरिया ☆

कल अचानक

मानवाधिकार

संगठन के

पदाधिकारी

से बात हो गई .!

हमने पूछा

आपकी

मानवता

बेटियों पर

कहाँ सो गई..?

सुनकर थोड़ा

झुंझलाए.!

फिर थोड़ा

करीब आये..!!

बोले हम तो

शिकायत पर

काम करते हैं.!

साबित होने पर

हिदायत तमाम

करते हैं..!!

हमने कहा

आपको

निर्भया, प्रियंका

के साथ घटित

घटना का इल्म है..?

झट बोले हां

ये तो बहुत बड़ा

जुल्म है..!

हमने बात

आगे बढ़ाई..!

कुछ आगे भी

बोलो भाई..!

जुल्म तो सबको

पता है.!

पर उस बेटी के

पास कुछ न

बचा है..!!

बोला हम इसकी

घोर निंदा करते हैं.!!

हमने कहा क्या आप

उन्हें ज़िंदा करते हैं..?

यह सुनकर

वह थोड़ा वहां से

खिसके..!

थोड़ा झिझके..!

फिर थोड़ा हुए रोबीले.!

एक नए अंदाज़ में बोले.!

महिलाएं भी इसमें

हैं जिम्मेदार.!

फैशन का है

उन पर भूत सवार..!!

हमने कहा

बस करो यार..!

सारी बंदिशें

पाबंदी सिर्फ

क्या बेटियों पर.?

और बेटों की आज़ादी

बुलंदियों पर..!!

बेटियों पर नजर.!!

बेटों से बे-खबर.!!

यही तो हमारी

कमजोरी है.!!

नजरिया बदलना

बहुत जरूरी है..!!

अब तो कुछ नेता भी

बेतुके बयान देते हैं..!

कुछ तो जाति धर्म

का नाम देते हैं..!!

इन्हें हर बात में

राजनीति याद

आती है..!

इनकी मानवता

जाने कहाँ सो जाती है..?

पर आप तो

मानवाधिकार के

पदाधिकारी हैं.!

आपकी सबसे बड़ी

जिम्मेदारी है..!!

इनकी अस्मत

बचाएं.!

सुरक्षा का माहौल

बनाएं..!!

“संतोष” बेटियों से

ज्यादा बेटों पर

लगाम लगाएं

उन्हें माँ, बहिन, बेटियों

का सम्मान सिखाएं..!!

तब ही आगे

बढ़ेंगी बेटियाँ.!

तब ही आगे

पढ़ेंगी बेटियाँ..!

तब ही आगे

बचेंगी बेटियाँ..!!

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  बीज

 

जलती सूखी ज़मीन,

ठूँठ से खड़े पेड़,

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे,

दरकती माटी की दरारें,

इन दरारों के बीच पड़ा

वह बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ,

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र  है,

यह जो समाये है

विशाल संभावनाएँ

वृक्ष होने की,

छाया देने की,

बरसात देने की,

फल देने की,

फिर एक नया

बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 3 ☆ गीत – आज माँ हैं साथ मेरे ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक गीत   “आज माँ हैं साथ मेरे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 3 ☆

☆  आज माँ हैं साथ मेरे ☆ 

 

मैं अकेला ही चला हूँ

सज सँवरकर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

पाप पुण्यों को समेटे

रख लिया है गोद में।

रो रहा कोई,मगन

कोई यहाँ आमोद में।।

 

बन्धनों से मुक्त तन-मन

किन्तु गति अवरोध है।

कौन जाने,है कहाँ

गन्तव्य किसको बोध है।।

 

मैं नवेला ही चला हूँ

सत डगर पर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

सत्य,श्रम से जो सहेजा

था कलेजा थाम कर।

द्वंद्व युद्धों से लड़ा था

आरजू नीलाम कर।।

 

लुट गए घर-द्वार,आँगन

हार-गहने लुट गए।।

गीत छूटे , मीत छूटे

और सपने लुट गए।।

 

मैं अबेला ही चला हूँ

पथ बदलकर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

सब हँसो मेरी चिता पर

किस तरह का जीव था।

जो स्वयं को छल रहा था

खोखली-सी नींव था।।

 

हर मनुज को जोड़कर

बलिदान जो देता रहा।

दीन की ईमान की

नौका सदा खेता रहा।।

 

मैं गहेला ही चला हूँ

जिस सफर पर

काफिले की क्या जरूरत

आज माँ हैं साथ मेरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆ प्रेरणा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “प्रेरणा”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆

☆ प्रेरणा ☆

खुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफारिश करते हुए कमलेश ने कहा, “यार योगेश! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बन कर लोगों की सेवा करना चाहता है.”

“ठीक है मैं उस की मदद कर दूंगा.  उस से कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें.” योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “मगर, मैं चाहता हूं कि तू उस की निस्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें.”

“नहीं यार! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं ?”  योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “इस से तेरा नाम होगा ! लोग तूझे जिंदगी भर याद रखेंगे.”

“हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर,  मैं नहीं चाहता हूं कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह खत्म हो जाए.”

“मैं उसे जानता हूं, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा”, कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, योगेश ने हाथ ऊंचा कर के उसे रोक दिया.

“भाई कमलेश ! यह उस के हित में है कि वह मेहनत कर के पढाई करें”, कह कर यौगेश ने अपनी आंख में आए आंसू को पौंछ लिए, “तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है.”

यह सच्चाई सुन कर कमलेश चुप हो गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य – # 23 ☆ व्यंग्य – मिस्सड़ के मजे ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “मिस्सड़ के मजे”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  बेशक असामयिक लग रहा होगा किन्तु, मैं इसे सामयिक के दर्जे में ही रखता हूँ। ब्रेकिंग न्यूज़ तो कभी भी रिपीट होती रहती है।  तो मिस्सड के मजे तो कभी भी लिए जा सकते हैं।यह तो सिद्ध हो  ही  गया  कि  श्री विवेक जी  पुरे देश की राजनीति को किचन से जोड़ने में भी माहिर हैं। किससे किसकी और किसको उपमा  देना तो कोई  श्री विवेक जी से सीखे। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 23 ☆ 

☆ मिस्सड़ के मजे ☆

 

मैं और मेरी पत्नी एक समारोह से दोपहर में घर लौटे थे,खाना बनाने वाली घर बंद देखकर लौट चुकी थी  मैने पत्नी से कहा डायटीशियन की दाल दलिया, उबली सब्जी, सूप, अंडे का भी केवल एग व्हाईट, खाते खाते मैं बोर हो चुका हूं , पत्नी की मिन्नत करते हुये मैंने प्यार से फरमाईश की कि बरसों हो गये हलवा नही खाया, क्यो न आज हलवा बनाया खाया जावे. हलवा ऐसा व्यंजन है जो किसी होटल में भी सहजता से नही मिलता, वह माँ, बहन या पत्नी के एकाधिकार में घर की रसोई में ही सुरक्षित है.

हमारी फरमाईश पर पत्नी ने भी पूरा पत्नित्व बताते हुये झिड़क कर  कहा बहुत चटोरे हो आप. फिर इस आश्वासन के बाद कि मैं चार किलोमीटर अतिरिक्त वाक पर जाउंगा, वह मेरे लिये कम घी का हलुआ बनाने को राजी हो ही गई. घर में लम्बे अरसे के बाद हलुआ बनना था, मौका महत्वपूर्ण था. रवे की तलाश हुई, डब्बे खोले गये, रवा था तो पर वांछित मात्रा से कम, वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बीजेपी के विधायक.

दलिया छानकर निपुण, गृहकार्य में दक्ष पत्नी ने किंचित मात्रा और जुटा ली, मुझे उसके अमित शाही गुण का अंदाजा हुआ. शक्कर के डब्बे में शक्कर भी तलहटी में ही थी, महीना अपने अंतिम पायदान पर था, और वैसे भी हम दोनो ही बगैर शक्कर की ही चाय पीते हैं. शक्कर तो काम वाली बाई की चाय के लिये ही खरीदी जाती है. मै हलुआ निर्माण की इस फुरसतिया रविवारी दोपहरी की प्रक्रिया में पूरी सहभागिता दे रहा था, पत्नी ने एक प्लेट में डब्बे से शक्कर उलट कर रख दी, तो अनजाने ही मुझे बचपन याद हो आया जब मैं माँ के पास किचन में बैठा बैठा शक्कर फांक जाया करता था, अनजाने ही मेरे हाथ चम्मच भर शक्कर फांकने के लिये बढ़े, पत्नी ने मेरी मंशा भांप ली और तुरंत ही शक्कर की प्लेट मेरी पहुंच से दूर अपने कब्जे में दूसरी ओर रख दी, मुझे लगा जैसे दल बदल के डर से कांग्रेस ने अपने विधायको को किसी रिसोर्ट में भेज दिया हो.

अब घी की खोज की गई तो पता चला कि बैलेंस डाईट के चक्कर में घी केवल भगवान के सामने दिया जलाने के लिये ही आता है, भोजन व ब्रेकफास्ट में हम मख्खन खाते हैं. याने सीधे तौर पर हलवा खाने की योजना पर पानी फिर गया. चटोरे मूड में हम अन्य विकल्प तलाशने लगे.

पत्नी ने प्रस्ताव रखा कि नमकीन उपमा बनाया जावे, पर मीठी नीम और धनिया पत्ती नही थी सो विचार के बाद भी उपमा बनने की बात बनी नही. जैसे महाराष्ट्र में सरकार गठन के अलग अलग विकल्प दिल्ली में की जा रही चर्चाओ में तलाशे जा रहे थे, वैसे ही हम किचिन से उठकर टी वी के सामने ड्राइग रूम में आ बैठे थे और मंत्रणा चल रही थी कि आखिर क्या खाया जावे, क्या और कैसे बनाया जावे, जो मुझे भी पसंद हो और पत्नी को भी. अस्तु काफी विचार विमर्श, चिंतन मनन, सोच विचार के बाद  पत्नी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर डाला.

इसके आधार पर  नमकीन या मीठे के विरोधाभासी होने  की परवाह किये बगैर  उपलब्ध बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमें के तीन डब्बो में  जो भी थोड़ा थोड़ा चूरा सहित जो भी कुछ बचा हुआ  उसे मिला वह सब  एक प्लेट में निकाल लाई, और बिना शक्कर की चाय के साथ हम भूखे पेट इस मिस्सड़ का आनंद लेने में मशगूल हो गये.

टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चल रही थी महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना और पवार कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनने वाली है. सोते सोते तक यही स्थिति थी, सोकर उठे तो दूसरे ही शपथ ले चुके थे, शाम होते होते उनके बहुमत पर कुशंका के बादल मंडरा रहे थे, सचमुच हम रॉकेट युग मे पहुंच चुके हैं ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 26 – जर….. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  जर…...    सुश्री प्रभा जी  ने सत्तर वर्ष की  वय में  जिस  परीकथा को लिखने की कल्पना की थी, उन्हें पता भी नहीं चला और उन्होंने इस कविता के माध्यम से लिख ही दिया। इसका आभास उन्हें तब होगा जब वे इस कविता को पुनः पढेंगी। वास्तव में कवि अपनी परिकल्पना में इतना खो जाता है  कि उसे पता ही नहीं चलता है कि वह एक कालजयी रचना कर रहा है। अतिसुन्दर परी कथा की  रचना एक मधुर स्मृति  की तरह संजो कर रखने लायक।  मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 26 ☆

जर….. ☆ 

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे….

तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…

कुणाला आवडो न आवडो…

त्यात असेल एक गाव….

परीकथेतला….

आजोबा म्हणायचे,

“तुम्ही काहीही सांगाल, आम्हाला खरं वाटलं पाहिजे ना? ”

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी,

परीकथेत असतील इतरही प-या,

यक्ष, जादू च्या छड्या, चेटकिणी,

घडेल काही आक्रित,

नियती वाचवेल प्रत्येकवेळी परीला…..

परीला पडतील स्वप्न….अगदी साधीसुधी….

ती खेळेल भातुकलीचा खेळ

बाहुला बाहुलीचे लग्न ही लावेल….

 

ती हरवेल कधी जंगलात, कधी गर्दीत….

तिला सापडणार नाहीत हवे ते रस्ते…

ती रस्ता चुकेल, रडेल,

दुखेल, खुपेल तिलाही…

ती सहन करेल तोंड दाबून बुक्क्यांचा मार…

 

आयुष्यात प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्ध च घडणार आहे,

हे माहित असूनही,

ती लावेल पत्त्यांचे

नवे नवे डाव आणि हरत राहिल वारंवार!

 

परी सांगेल तिची खरीखुरी कहाणी, गाईल गाणी,

खेळेल  ऐलोमा पैलोमा….

 

ती करेल स्वयंपाक, थापिल भाकरी, कधी सुगरण असेल ती तर कधी करपेल तिचा भात,पोळी कच्ची राहिल,

आडाचं पाणी काढायला जाताना…तिचे पडतील ही दोन दात…

केस पांढरे होतील, सुरकुत्या पडतील चेह-यावर…..

परी म्हातारी होईल, तरीही तिला काढावसं वाटेल आडाचं पाणी….

कुणी म्हणेल ही सहजपणे….

“धप्पकन पडली त्यात”

ती पडेल आडात,पाण्यात की खडकावर माहित नाही…..

तिने हातात गच्च धरून ठेवलेला शिंपला पडेल त्याच आडात…

 

आणि आजूबाजूच्या फेर धरणा-या तरूण प-या म्हणतील….

आडात पडला शिंपला…..तिचा खेळ संपला!

 

जर मी जगलेच सत्तर वर्षे तर लिहिन एका म्हाता-या परीची कथा…..

जी आली होती जन्माला बाईच्या जातीत…..आणि मेली ही बाई म्हणूनच!

 

आणि ही कथा तुम्हाला नक्कीच खरी वाटेल

परीकथा असूनही..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 24 – कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक  विचारोत्तेजक कविता   “कुर्सी जब भी नई बनाई है। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 24 ☆

 

☆ कुर्सी जब भी नई बनाई है ☆  

 

कुर्सी जब भी नई बनाई है

पेड़ की  ही, हुई  कटाई है।

 

बांस सीधा खड़ा जो जंगल में

मौत  पहले, उसी की आई है।

 

उछलने कूदने वालों के हैं दिन

पढ़े लिखों को, समझ आई है।

 

जान सकता वो दर्द को कैसे

पांव में  तो,  मेरे  बिवाई  है।

 

रोटी दिखलाते हुए, भूखों को

फोटो  गमगीन हो, खिंचाई है।

 

बाढ़ नीचे, वो आसमानों पर

देख लो  कितनी, बेहयाई है।

 

दस्तखत, पहले दवा देने के

ट्रायलों पर, टिकी कमाई है।

 

एकमत से बढ़ा लिए वेतन

खुद प्रसूता,वे खुद ही दाई है।

 

पेड़ आंगन में जो बचा अब तक

उम्मीदें कुछ, वहीं से पाई है।

 

खाद-पानी, बने रहे तन्मय

फसल जो खेत में उगाई है।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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