मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 43 ☆ मावृत्वाचा पदर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “मावृत्वाचा पदर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 43 ☆

☆ मावृत्वाचा पदर ☆

मी नाही देऊ शकत

तुझ्या मातृत्वाच्या पदराला

सागर किंवा आकाशाचं परिमाण…

 

अमृताहू मधुर अशा मातेच्या दुधावर वाढलेला जीव

अमृतासारख्या भ्रामक कल्पनेला

कसा देऊ शकेल थारा…

 

ॐकाराचा ध्वनी, चित्त शांत करीत असला तरी

माझ्या मातेच्या मुखातून निघालेले ध्वनी

मला आजही उर्जा देऊन पुलकीत करतात…

 

सूर्याचा प्रखर प्रकाश सौम्य करण्यासाठी

ती होते चंद्र

आणि

लेकराच्या आयुष्याचं करून टाकते तारांगण…

 

तारांगणाला बांधलेल्या पाळण्याची दोरी

तिच्या हातात असते म्हणून

चंदनाच्या पाळण्यातलं आणि

झोळीतलं बाळही तेवढ्याच निर्धास्तपणे झोपतं

गरीब श्रीमंतीचा भेदभाव विसरून…

 

जगातली कुठलीच माता गरीब नसते

मातृहृदयाच्या तिजोरीत

न मावणारी श्रीमंती

तिच्या प्रत्येक कृतीतून दिसत असते.

 

म्हणूनच  मातृत्वाच्या पदराला

मी नाही देऊ शकत

सागर किंवा आकाशाचं परिमाण…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 40 – लघुकथा – मुआवजा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “मुआवजा।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  सर्वोत्कृष्ट लघुकथा है जो अत्यंत कम शब्दों में वह सब कह देती है जिसके लिए कई पंक्तियाँ लिखी जा सकती थीं।  मात्र चार पंक्तियों में प्रत्येक पात्र का चरित्र और चित्र अपने आप ही मस्तिष्क में उभर  आता है। इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 40☆

☆ लघुकथा  – मुआवजा

कोरोना से गांव में बुधनी की मौत।

अस्सी साल की बुधनी बेटा बहू के साथ टपरे पर रहती थी। गरीबी की मार और उस पर कोरोना का द्वंद। बुधनी अभी दो-तीन दिन से उल्टा पुल्टा चीज खाने को मांग रही थी और रह-रहकर खट्टी दही अचार खा रही थी।  उसे सांस लेने में तकलीफ की बीमारी थी। बेटे ने मना किया पर मान ही नहीं रही थी। अचानक बहुत तबीयत खराब हो गई सांस लेने में तकलीफ और खांसी बुखार । बेटा समझ नहीं पाया अम्मा को क्या हो गया बुधनी अस्पताल पहुंचकर शांत हो गई।  कोरोना से मरने वालों के परिवार को मुआवजा मिलता है। बुधनी ने  पडोस में बातें करते सुन लिया था। शांत होकर भी बुधनी मुस्करा रही थी। अब बेटे के टपरे घर पर खपरैल लग जायेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कर्म से कोरोना ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी  कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक रचना। )

☆ कर्म से कोरोना ☆

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

प्रकृति को भूल कर,

तोड़ी तुमने मर्यादा ।

मार पड़ी जब प्रकृति की,

तो हो गया हक्का – बक्का ।।

 

हे! मानव,

तुम हल्के में नहीं लेवे,

कोरोना की महामारी को ।

इटली और चाइना की तबाही,

देख रोके नहीं रुकती ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

बच्चे, बूढ़े और बेघर का,

तुम्हें रखना है ख्याल ।

सभी रहें अपने घर,

कोरोना का हैं ईलाज ।।

 

हे! मानव,

नहीं होवे जनहानि,

कोरोना महामारी से ।

अफवाहों को न फैलाएं,

अफवाहें हैं बड़ा वायरस ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर।l

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

हे! मानव,

संबंधो में थी दूरिया,

पहले से ही गहरी ।

कोरोना के वायरस से,

गहरी हो गई और दूरिया ।।

 

हे! मानव,

स्वच्छता और एकांतपन है,

कोरोना का बचाव ।

समय नहीं है घबराने का,

सतर्कता का दे सुझाव ।।

 

हे! मानव,

कैसा कर्म कर लिया तुमने,

कोरोना को जन्म देकर ।

त्राहिम- त्राहिम मचाया तुमने,

कोरोना को फैलाकर ।।

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 39 ☆ – विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन प्रवाह ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में   wishw कविता दिवस पर उनकी विशेष कविता   जीवन प्रवाह । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 39

☆  विश्व कविता दिवस विशेष  – जीवन -प्रवाह  ☆ 

(विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता – – – )
सबसे बड़ी होती है आग,

     और सबसे बड़ा होता है पानी।

तुम आग पानी से बच गए,

     तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती ।

धरती से पहचान कर लोग ,

तो हवा भी मिल सकती है ,

धरती के आंचल से लिपट लोगे

तो रोशनी में पहचान बन सकती है ,

तुम चाहो तो धरती की गोद में ,

       पांव फैलाकर सो भी सकते हो ,

धरती को नाखूनों से खोदकर ,

        अमूल्य रत्नों  को भी पा सकते हो ,

या धरती में खड़े होकर ,

        अथाह समुद्र नाप भी सकते हो ,

तुम मन भर जी भी सकते हो ,

         धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो ,

कोई फर्क नहीं पड़ता ,

          यदि जीवन खतम होने लगे ,

असली बात तो ये है कि ,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 40 – माझी मायभूमि ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मातृभूमि पर आधारित आपकी एक अतिसुन्दर मौलिक कविता   “माझी मायभूमि ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 40 ☆ 

 ☆ माझी मायभूमि  

 

माझी मायभूमी। विश्वाचे भूषण। संस्कृती रक्षण। सर्वकाळ।।१।।

 

उंच हिमालय। मस्तकी मुकूट।तैसा चित्रकूट। शोभिवंत ।।२।।

 

सप्त सरितांचे। जल आचमन। पावन जीवन।सकलांचे।।३।।

 

तव चरणासी।जलधी तरंग। उधळीती रंग। अविरत ।।४।।

 

नाना धर्म पंथ । अगणित  जाती। नांदती सांगाती। आनंदाने ।।५।।

 

संत महंत हे। ख्यातनाम धामी। नर रत्न नामी। पुत्र तुझे।।६।

 

वीर धुरंधर ।रत्न ते अपार। करिती संहार । अधमांचा।।७।।

 

असे माय तुझी।  परंपरा थोर । जपू निरंतर । प्रेमभावे।।८।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #42 ☆ जनता कर्फ्यू और हम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 41 –  जनता कर्फ्यू और हम

मित्रो, कोरोनावायरस के संक्रमण से बचाव के एक उपाय के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कल रविवार 22 मार्च 2020 को  *जनता कर्फ्यू* का आह्वान किया है। हम सबको सुबह 7 से रात 9 बजे तक घर पर ही रहना है। 24 घंटे की यह फिजिकल डिस्टेंसिंग इस प्राणघातक वायरस की चेन तोड़ने में मददगार सिद्ध होगी।

मेरा अनुरोध है कि हम सब इस *जनता कर्फ्यू का शत-प्रतिशत पालन करें।* पूरे समय घर पर रहें। सजगता और सतर्कता से अब तक भारतवासियों ने इस वायरस के अत्यधिक फैलाव से देश को सुरक्षित रखा है। हमारा सामूहिक प्रयास इस सुरक्षा चक्र का विस्तार करेगा।

एक अनुरोध और, आदरणीय प्रधानमंत्री ने संध्या 5 बजे अपनी-अपनी बालकनी में आकर *थाली और ताली* बजाकर हमारे लिए 24 x 7 कार्यरत स्वास्थ्यकर्मियों, स्वच्छताकर्मियों, वैज्ञानिकों और अन्य राष्ट्रसेवकों के प्रति धन्यवाद का भी आह्वान किया है। हम इस धन्यवाद में परिवार के लिए अखंड कर्मरत महिलाओं को भी सम्मिलित करें।

समूह के साथी भाई सुशील जी ने एक पोस्ट में इसका उल्लेख भी किया है। कल शाम ठीक 5 बजे हम *अपनी-अपनी बालकनी में आकर थाली एवं ताली अवश्य बजाएँ।*

एक बात और, कृपया बच्चों को घर से बाहर खेलने के लिए न जाने दें। यह कठिन अवश्य है पर इस कठिन समय की यही मांग है। बच्चों को एकाध मित्र/सहेली के साथ घर पर ही खेलने को प्रेरित करें। बच्चों के हाथ भी साबुन/सैनिटाइजर से धुलवाते रहें।

विश्वास है कि हमारा संयम और अनुशासन हमें सुरक्षित रखेगा। स्मरण रहे, जो सजग हैं, उन्हीं के लिए जग है।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 42 ☆ लघुकथा – कुशलचन्द्र और आचार्यजी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  की लघुकथा  ‘कुशलचन्द्र और आचार्यजी ’  में  डॉ परिहार जी ने उस शिष्य की पीड़ा का सजीव वर्णन किया है जो अपनी पढ़ाई कर उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो जाता है । फिर किस प्रकार उसके भूतपूर्व आचार्य कैसे उसका दोहन करते हैं।  इसी प्रकार का दोहन शोधार्थियों का भी होता है जिस विषय पर डॉ परिहार जी ने  विस्तार से एक व्यंग्य  में चर्चा भी की है। डॉ परिहार जी ने एक ज्वलंत विषय चुना है। शिक्षण के  क्षेत्र में इतने गहन अनुभव में उन्होंने निश्चित ही ऐसी कई घटनाएं  देखी होंगी । ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 42 ☆

☆ लघुकथा  – कुशलचन्द्र और आचार्यजी   ☆

 कुशलचन्द्र नामक युवक एक महाविद्यालय में अध्ययन करने के बाद उसी महाविद्यालय में व्याख्याता हो गया था। उसी महाविद्यालय में अध्ययन करने के कारण उसके अनेक सहयोगी उसके भूतपूर्व गुरू भी थे।

उनमें से अनेक गुरू उसे उसके भूतपूर्व शिष्यत्व का स्मरण दिलाकर नाना प्रकार से उसकी सेवाएं प्राप्त करते थे। शिष्यत्व के भाव से दबा और नौकरी कच्ची होने से चिन्तित कुशलचन्द्र अपने गुरुओं से शोषित होकर भी कोई मुक्ति का मार्ग नहीं खोज पाता था।

प्रोफेसर लाल इस मामले में सिद्ध थे और शिष्यों के दोहन के किसी अवसर को वे अपने हाथ से नहीं जाने देते थे।

वे अक्सर अध्यापन कार्य से मुक्त होकर कुशलचन्द्र के स्कूटर पर लद जाते और आदेश देते, ‘वत्स, मुझे ज़रा घर छोड़ दो और उससे पूर्व थोड़ा स्टेशन भी पाँच मिनट के लिए चलो।’

कुशलचन्द्र कंठ तक उठे विरोध को घोंटकर गुरूजी की सेवा करता।

एक दिन ऐसे ही आचार्य लाल कुशलचन्द्र के स्कूटर पर बैठे, बोले, ‘पुत्र, ज़रा विश्वविद्यालय चलना है। घंटे भर में मुक्त कर दूँगा।’

कुशलचन्द्र दीनभाव से बोला, ‘गुरूजी, मुझे स्कूटर पिताजी को तुरन्त देना है। वे ऑफिस जाने के लिए स्कूटर की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उनका स्कूटर आज ठीक नहीं है।’

आचार्यजी हँसे, बोले, ‘वत्स, जिस प्रकार मैं तुम्हारी सेवाओं का उपयोग कर रहा हूँ उसी प्रकार तुम्हारे पिताजी भी अपने कार्यालय के किसी कनिष्ठ सहयोगी की सेवाओं का उपयोग करके ऑफिस पहुँच सकते हैं। अतः चिन्ता छोड़ो और वाहन को विश्वविद्यालय की दिशा में मोड़ो।’

कुशलचन्द्र चिन्तित होकर बोला, ‘गुरूजी, हमारे घर के पास ऑफिस का कोई कर्मचारी नहीं रहता।’

आचार्यजी पुनः हँसकर बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र! तुम्हारे पिताजी बुद्धिमान और साधन-संपन्न हैं। वे इस नगर में कई वर्षों से रह रहे हैं। और फिर स्कूटर न भी हो तो नगर में किराये के वाहन प्रचुर मात्रा में हैं।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘लेकिन रिक्शे से जाने में देर हो सकती है। मेरे पिताजी ऑफिस में कभी लेट नहीं होते।’

आचार्यजी बोले, ‘हरे कुशलचन्द्र, यह समय की पाबन्दी बड़ा बंधन है। अब मुझे देखो। मैं तो अक्सर ही महाविद्यालय विलम्ब से आता हूँ, किन्तु उसके बाद भी मुझे तुम जैसे छात्रों का निर्माण करने का गौरव प्राप्त है। अतः चिन्ता छोड़ो और अपने वाहन को गति प्रदान करो।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘गुरूजी, आज तो मुझे क्षमा ही कर दें तो कृपा हो।’

अब आचार्यजी की भृकुटि वक्र हो गयी। वे तनिक कठोर स्वर में बोले, ‘सोच लो, कुशलचन्द्र। अभी तुम्हारी परिवीक्षा अर्थात प्रोबेशन की अवधि चल रही है और परिवीक्षा की अवधि व्याख्याता के परीक्षण की अवधि होती है। तुम जानते हो कि मैं प्राचार्य जी की दाहिनी भुजा हूँ। ऐसा न हो कि तुम अपनी नादानी के कारण हानि उठा जाओ।’

कुशलचन्द्र के मस्तक पर पसीने के बिन्दु झिलमिला आये। बोला, ‘भूल हुई। आइए गुरूजी, बिराजिए।’

इसी प्रकार कुशलचन्द्र ने लगभग छः माह तक अपने गुरुओं की तन, मन और धन से सेवा करके परिवीक्षा की वैतरणी पार की।

अन्ततः उसकी साधना सफल हुई और एक दिन उसे अपनी सेवाएं पक्की होने का आदेश प्राप्त हो गया।

दूसरे दिन अध्यापन समाप्त होने के बाद कुशलचन्द्र चलने के लिए तैयार हुआ कि आचार्य लाल प्रकट हुए। उसे बधाई देने के बाद बोले, ‘वत्स! कुछ वस्तुएं क्रय करने के लिए थोड़ा बाज़ार तक चलना है। तुम निश्चिंत रहो, भुगतान मैं ही करूँगा।’

कुशलचन्द्र बोला, ‘भुगतान तो अब आप करेंगे ही गुरूजी,किन्तु अब कुशलचन्द्र पूर्व की भाँति आपकी सेवा करने के लिए तैयार नहीं है। अब बाजी आपके हाथ से निकल चुकी है।’

आचार्यजी बोले, ‘वत्स, गुरू के प्रति सेवाभाव तो होना ही चाहिए। ‘

कुशलचन्द्र ने उत्तर दिया, ‘सेवाभाव तो बहुत था गुरूजी, लेकिन आपने दो वर्ष की अवधि में उसे जड़ तक सोख लिया। अब वहाँ कुछ नहीं रहा। अब आप अपने इतने दिन के बचाये धन का कुछ भाग गरीब रिक्शे और ऑटो वालों को देने की कृपा करें।’

आचार्यजी ने लम्बी साँस ली,बोले, ‘ठीक है वत्स, मैं पैदल ही चला जाऊँगा।’

फिर वे किसी दूसरे शिष्य की तलाश में चल दिये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 27 – हाथों में हाथ  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना ‘हाथों में हाथ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 27 – विशाखा की नज़र से

☆ हाथों में हाथ ☆

 

तुमनें हाथ से छुड़ाया हाथ

और हाथ मेरा

दुआ मांगता आसमां तकता रहा

 

मुझे नहीं चाहिए अनामिका में

किसी धातु का कोई छल्ला

जो दबाव बनाता हो हृदय की रग में

 

तुम बस मेरी उंगलियों के

मध्य के खाली स्थान को भर दो

मेरे हाथ को बेवजह यूँ ही पकड़ लो

 

ताकि, मैं महसूस कर सकूं

मुलायम हाथ की मज़बूत पकड़

कह सकूं,

           “दुनिया को हाथ की तरह 

             गर्म और सुन्दर होना चाहिये “

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆ नयी रोशनी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर समसामयिक प्रेरणास्पद कविता नयी रोशनी । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ दीपिका साहित्य # 8 ☆

☆ नयी रोशनी

 

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी , वो सुबह जल्द ही आएगी,

हौसला अपना रखना बुलंद, ये ख़ुशी हमसे कब तक छुप पाएगी ,

एक जुट होने का है वक़्त , फिर देखो हर जीत हमारी कहलाएगी ,

हिम्मत ना हारना बस जरा सा रास्ता है बाकी, उस पार फिर खुशियाली लहरायेगी ,

जीवन है संघर्ष का नाम दूसरा, उसके बाद सफलता तुमसे हाथ मिलाएगी ,

ये उतार चढ़ाव तो हिस्सा है, चलते रहना ही जिंदादिली कहलाएगी ,

फबता है खिलखिलाना तुमको , ये चिंता तो चंद लम्हेँ ही रह पाएगी ,

नयी रोशनी फिर जगमगाएगी, वो सुबह जल्द ही आएगी . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 ☆ जाऊ नकाचं तुम्ही ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  कविता “जाऊ नकाचं तुम्ही“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 3 ☆

☆ कविता – जाऊ नकाचं तुम्ही☆ 

ओठात थांबलेल्या शब्दात गुंतलो मी

ती नजर मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

झाकोळल्या दिशा अन् मेघगर्जनांनी

संध्या ती मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

रात्रीत काजव्याचे स्वर कर्णकटू कानी

ती रजनी मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सरता गं मध्यरात्र बोझील पापण्यांनी

ती निशा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही

 

सुटला पहाटवारा प्रीत बांधली ही कोणी

ती उषा मजशी सांगे जाऊ नकाचं तुम्ही.

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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