हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  संस्मरणात्मक, शिक्षाप्रद एवं सार्थक लघुकथा   “शर्मिंदगी ”।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 7 ☆

☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆

उसके ब्लाउज की फटी हुई आस्तीन से गोरी बाजू साफ झलक रही थी।

मेरी कमउम्र बाई कशिया को इसका भान तक न था। रसोईघर में घुसते ही मेरी नजर उस पर पड़ी तुरन्त ही मैने आँखो से इशारा किया, पर वह इशारा  नहीं समझ सकी। घर पर बडे-बड़े बच्चे और नाती पोते सभी थे।

उसके न समझने पर मैने उस समय कुछ न कहा और अंदर से एक ब्लाउज लाकर कशिया को देती हुई उससे बोली -“जा  गुसलखाने में जाकर बदल आ।”

वह मुझे हैरानी से देखने लगी। मगर बिना कुछ बोले  वह और गई ब्लाउज  बदल कर आ गई।

उसके हाथ में अब भी उसका वह ब्लाउज था। वह अब भी मुझे  हैरानी से ताक रही थी। ये देख मैने उसका ब्लाउज अपने हाथ में लेकर उसे फटा हुआ हिस्सा दिखाया।

वह अचकचा गई और शरम के कारण उसकी नजरें झुक गई। वह धीरे से बोली – “बाई हम समझ ही नहीं पाये जल्दी – जल्दी पहन आये। रास्ते में एक आदमी चुटकी ले रहा था। वह गा रहा था धूप में निकला न करो …….गोरा बदन काला न पड़ जाये।”

“कोई बात नहीं। पर ध्यान रखो घर से निकलते वक्त कपड़ो पर एक निगाह जरूर डालनी चाहिए ताकि बाद में कोई शर्मिंदगी न हो।”

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 1 ☆ राजनीति शास्त्र बनाम राजनैतिक शस्त्र ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। कुछ समय से आपकी अपनी ब्लॉग साइट/ई-पत्रिका “ई-अभिव्यक्ति” के सम्पादन में से समय निकाल कर कुछ नया लिखने और अपने पुराने साहित्य के अवलोकन के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा एवं अपनी स्वांतःसुखाय रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

 

साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #1  

☆ राजनीति शास्त्र बनाम राजनैतिक शस्त्र ☆

 

प्रश्न था

राजनीति शास्त्र की परिभाषा?

 

लोकतंत्र में जन्में,

राजनैतिक छात्रावास में पले

विचारशील,

क्रान्तिकारी छात्र का

उत्तर था

’राज’ नेताओं के लिये

’नीति’ जनता के लिये

और

’शास्त्र’ छात्रों के लिये।

 

अब यदि

आप पूछेंगे उससे

छात्र की परिभाषा

तब निःसन्देह

उसका उत्तर होगा

’राजनैतिक शस्त्र’।

 

(काव्य- संग्रह ‘शब्द और कविता’ से)

17 जनवरी 1982

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #31 – शालीन वारा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “शालीन वारा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 31☆

 

☆ शालीन वारा ☆

 

दुःख माझे काल आलो सोडुनी होतो वनी

ते पुन्हा श्वानाप्रमाणे काढते मज शोधुनी

 

राहिला शालीन वारा आज कोठे सांग ना

गंध आणिक श्वास नेला आज त्याने चोरुनी

 

हिरवळीवर चालताना चाल थोडी हुरळली

अन् तिच्याशी प्रीत जडता पाय गेले गोठुनी

 

एवढी का थंड आहे सहज होतो बोललो

तापली सूर्याप्रमाणे चूक केली बोलुनी

 

जन्म हा काट्यात जातो ह्या गुलाबाचा तरी

हास्य ओठावर सदोदित सांग येते कोठुनी

 

पान कोरे हे बदामी उडत आले अंगणी

मीच त्यावर नाव माझे घेतले मग कोरुनी

 

कागदावर वचन होते अक्षरांना भान ना

काय पत्राचे करू त्या टाकले मी फाडुनी

 

लाकडांचे देह जळती या इथे सरणावरी

हुंदकाही येत नाही का कुणाचा दाटुनी ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 20 ☆ कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया – डा ज्योति गजभिये ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डा ज्योति गजभिये जी के कहानी संग्रह  “बिन मुखौटों की दुनिया ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.   श्री विवेक जी ने पुस्तक की भूमिका एवं कहानियों के शीर्षक विवरण जिस तरीके से  प्रस्तुत  किया है वह पुस्तक के  उच्च साहित्यिक स्तर  को प्रदर्शित करता है।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 20☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया  

पुस्तक –बिन मुखौटों की दुनिया

लेखिका – डा ज्योति गजभिये

प्रकाशक – अयन प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य –  220 रु  हार्ड बाउंड पृष्ठ 116

☆ कहानी संग्रह  –  बिन मुखौटों की दुनिया – डा ज्योति गजभिये –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

कहानी, अभिव्यक्ति की वह विधा है जो परिवेश को आत्मसात कर इस तरीके से लिखने का कौशल चाहती है कि पाठक उस वर्णन में स्वयं का परिवेश ढ़ूंढ़ सके, घटना को महसूस कर सके. डॉ ज्योति गजभिये मूलतः अहिन्दी भाषी हैं, हिन्दी कहानीकार के रूप में सर्वथा नई है. यद्यपि उनकी क्षणिका, कविता, गजल, शोध प्रबंध की पुस्तकें आ चुकी हैं. उन्होने नासिरा शर्मा के कथा साहित्य पर शोध किया है.

प्रस्तुत किताब में उनकी कुल १४ बेहतरीन कहानियां प्रकाशित हैं. अपनी भूमिका में वे कविता की तरह लिखती हैं “शब्दो को ठोक पीट कर वाक्य तैयार कर रही थी, कहानी लिखते हुये भी जब कविता कही से आकर अपनी झलक दिखला जाती तो उसे समझा बुझाकर वापस भेजना पड़ता”. यह सच है कि महानगरीय वातावरण संवेदना शून्य हो चला है, लोग नम्बरो और घड़ी के कांटो की तरह वहीं के वहीं घूम रहे हैं. यह दशा मनोरोगों को जन्म दे रही है. इसे ज्योति जी ने बारीकी से पकड़ा और अपना कथानक बनाया है.

संग्रह में बिरजू नही मरेगा, कवि सम्मेलन का आखिरी कवि, भूखे भेड़िये, टुकड़ा टुकड़ा प्यार, अनोखा ब्याह, कुलच्छिनी, नये जमाने की लड़की, बिन मुखौटो की दुनियां, फकीर नबाब, मिट्टी की खुश्बू, मन्नत का धागा, हीर का तीसरा जन्म, शेष हो तुम मेरे भीतर तथा  महापुरुष शीर्षको से कहानियां संग्रहित हैं. किसी कहानी को मैं कमजोर नही कह सकता. हां बिन मुखौटो की दुनियां जिस पर पुस्तक का नाम रखा गया है, सच ही प्रभावी कहानी है. कहानियां संवाद शैली में बुनी गई हैं, पठनीय  हैं. फ्लैप पर सूर्यबाला जी ने सही ही लिखा है ज्योति जिसे और परिष्कृत कहानियो की उम्मीद हिन्दी साहित्य जगत को है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 31 – जीवनदान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  भावप्रवण शिक्षाप्रद लघुकथा  “ जीवनदान ”।  यदि कोई भी स्त्री साहसपूर्ण सकारात्मक निर्णय ले तो निश्चित ही समाज की  कुरीतियों पर कुठाराघात कर किसी को भी जीवनदान  दिया जा सकता है।  फिर जीवनदान मात्र जीवन का ही नहीं होता, पश्चात्ताप के पश्चात  प्राप्त जीवन भी किसी जीवनदान से काम नहीं है। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 31 ☆

☆ लघुकथा – जीवनदान ☆

 

गांव में ठकुराइन कहने से एक अलग ही छवि उभरती थी। कद- काठी से मजबूत अच्छे अच्छों को बातों से हरा देना और जरुरत पड़ने पर  खरी-खोटी बेवजह सुनाना उनका काम था। पूरे गांव में ठकुराइन का ही शासन चलता था। उनके तेज तर्रार रूप स्वभाव के कारण उसका पति जो गांव का सरपंच था, अपनी सब बातों में चुप ही रहता था। जो ठकुराइन कह दे वही सही होता था। किसी में हिम्मत नहीं थी उनकी बात काटने या किसी बात की अवहेलना करने की।

उसका बेटा मां के अनुरूप ही निकला था। घर की बहू और अन्य महिलाओं को सिर्फ घर के काम काज, चूल्हा चौकी तक ही सीमित देखना चाहता था। गरीब घर से बहू ब्याह कर लाने के बाद, बहु पूरा दिन घर में काम करती थी। और बाकी के समय सासू मां की सेवा।

सख्त हिदायत दी गई थी कि घर में पोता ही होना चाहिए। बहु बेचारी सोच-सोच कर परेशान थी। समय आने पर घर में खुशी का माहौल बना, परंतु पोती होने पर उस नन्हीं सी जान को बाहर फेक आने तक की सलाह देने लगी ठकुराइन। बहू ने कहा… “आप जो चाहे सजा मुझे दे, पर बिटिया को मारकर आप स्वयं पाप के भागीदार ना बने।” सासू माँ ने कहा…. “ठीक है इस लड़की का मुंह मुझे कभी ना दिखाना। चाहे तू इसे किसी तरह पाल-पोस कर बड़ा कर, मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु मेरे सामने तेरी लड़की नहीं आएगी।”

माँ ने सभी शर्तें मान ली। बिटिया धीरे-धीरे बड़ी हुई। घर में दूसरा बच्चा पोता भी आ गया। परंतु सासू मां के सामने नन्हीं बच्ची को कभी नहीं लाया जाता था। बड़ी होती गई बिटिया स्कूल में पढ़ने लिखने में बहुत होशियार थी। पढ़ाई करते-करते कब बड़ी हो गई, माँ को पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे सभी प्रकार की परीक्षा पास करते गई और एक दिन IAS परीक्षा पास कर कलेक्टर बन गई।

आज गांव के स्कूल का मैदान खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम था गांव की एक बिटिया का पढ़ लिख कर कलेक्टर बन कर गांव में आना। बिटिया को जिस स्कूल में वह पढ़ी थी उसी स्कूल में सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था। ठकुराइन को महिला मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। पूरा गाँव जय जयकार कर रहा था। दादी नीचे सिर किए बैठी-बैठी सभी का भाषण सुन रही थी। सम्मानित करने के लिए, बिटिया को मंच पर खड़ा किया गया और आवाज़ लगाई गई।

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल परिसर गूंज उठा। दादी रुंघे गले से और आंखों में पश्चाताप के आंसू लिए अपनी पोती को देख रही थी। लगातार आँसू बह रहे थे। बिटिया ने कहा…. “आज यह सम्मान मैं अपनी दादी के हाथों लेना चाहूंगी। क्योंकि मुझे जीवन दान देकर, दादी ने मुझ पर उपकार किया था। आज इस सफलता पर मेरी दादी ही मेरे लिए सबसे महान है।”

दादी ने नीचे सिर किए ही बिटिया को गले में माला पहनाई और धीरे से कान में पोती को कहा…. “अब मैं समझ गई बिटिया भी बेटों से कम नहीं होती। अगले जन्म में मैं तुम्हारी बिटिया बनकर आना चाहूंगी। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है “और कसकर अपने बिटिया रानी को गले से लगा लिया। माँ भी बहुत खुश थी। आज एक महिला ने सारी कुरीतियों को त्याग कर एक लड़की का सम्मान किया और सारा गिला शिकवा भूलकर गर्व से मुस्कुरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “पिंजरा”  as  ☆ Caged Willpower ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – पिंजरा ☆

 

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 – व्यंग्य – रजाई में राजनीति ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला व्यंग्य  “रजाई में राजनीति”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 28 ☆

☆ व्यंग्य – रजाई में राजनीति  

 

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में ये रजाई….. वाह रजाई…. हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है। रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा, अभी रजाई में घुसकर हनुमान जी जाति पर नेताओं के बयान देख रहे हैं। एक चैनल ने हनुमान जी को चीनी कह दिया एक ने जाट बना दिया किसी ने मुसलमान बना लिया, तरह-तरह के नेता और तरह-तरह की बातें।

अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत तो की थी पर गुजरात के चुनाव और पांच राज्यों के चुनाव ने सबको डरा दिया है। जीएसटी और नोटबंदी ने कबाड़ा कर दिया।

जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले दो साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी, फिर राजनैतिक पार्टियां इसी बात को मुद्दा बनाकर कांव कांव करेंगी, टीवी चैनल वाले दिनों रात तंग करेंगे…… खैर जो भी होगा देखा जाएगा। अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #31 – नदियो में धार्मिक स्नान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नदियो में धार्मिक स्नान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 31 ☆

☆ नदियो में धार्मिक स्नान

 

स्नान का महत्व निर्विवाद हैशुद्धता और पवित्रता के लिये प्रतिदिन प्रातः काल हम नहाते हैं.हमारी शरीर से निकलते पसीने व वातावरण के सूक्ष्म कण धूल इत्यादि से त्वचा पर जो  मैल व गंध का जो आवरण बन जाता है वह साफ पानी से नहाने से निकल जाता है और त्वचा को स्निग्धता तथा स्फूर्ति मिलती है इस भौतिक स्चच्छता का हमारे मन पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, शरीर की थकान मिट जाती है . हमारे रोमकूप खुल जाते हैं जिससे त्वचा का सौंदर्य भी बढ़ता है आंतरिक स्फूर्ति का संचरण होता है.  इसीलिये ठंड के दिनो में सनबाथ, स्टीमबाथ, लिया जाता है तो गर्मियों में टब बाथ का महत्व है.आयुर्वेद में भोजन के तुरंत बाद स्नान वर्जित कहा गया है.  मकर संक्रांति पर पंचकर्म और मिट्टी, उबटन, तरह तरह के साबुन बाडी वाश आदि से जल स्नान का प्रचलन हमारी संस्कृति का हिस्सा है. योग में शरीर के आंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए  शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, कुंजल, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि अनेक विधियां बताई जाती हैं. गर्म पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले कुछ उतेजित होता है किन्तु बाद में मंद पड़ जाता है, लेकिन ठंडे पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले मंद पड़ता है और बाद में उतेजित होता है जो कि अधिक लाभदायक है।

आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया गया है. जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं.  प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतात्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.

वास्तव में नदियो में धार्मिक भावना से कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधुसंतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें की होती हैं. लोगों का मिलना जुलना वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 30 – बालगीत – लाडू ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है अतिसुन्दर बालगीत “लाडू” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 30 ☆ 

 ☆ बालगीत – लाडू

 

दिवाळी सण खुलले मन

घरदार सजेल पंगतीने ।

फराळ भारी  पाहुणे दारी

लाडूंच्या पराती चळतीने।।धृ।।

 

लाडू करंजी चकली चिवडा

खुशाल खाऊ या गमतीने।

दिवाळीची ही लज्जत वाढेल

तऱ्हेतऱ्हेच्या लाडूने।१।।

 

बुंदीच्या लाडूची मजाच न्यारी

दाण्या दाण्याची लज्जत भारी।

केशर काडी नि वेलची थोडी।

किसमीस चाखूया गमतीने।।2।।

 

बेसन बर्फीला वर्खाची रंगत।

जोडीला काजू बदाम संगत।

खोबरे किस अन् चारोळी तीस।

मिटक्या मांरूया संगतीने।।३।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 31 ☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी।  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता जिसने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किसी न किसी ऐसे काम में लगाया हो जिसपर हर किसी की नजर न पड़ती हो। मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी के फ़िल्मी गीत के बीच  तालमेल बैठते आइडियाज  कितने महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 31 ☆

☆ व्यंग्य – मुकुन्दी की नौकरी और मुन्नी की बदनामी ☆

 

मुकुन्दी बी.ए.पास करके फिलहाल बेरोज़गार हैं। सरकारी नौकरी के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, लेकिन वहाँ घुसने के लिए सूराख नहीं मिला। जहाँ गये वहाँ डेढ़ दो लाख से कम की माँग नहीं हुई। सुनने को मिला कि सरकारी नौकरी अनेक जन्मों के संचित पुण्यों का फल होती है।बिना काम देखे पूरी तनख्वाह नियमित मिलती है, ऊपरी आमदनी अलग से। ऐसी नौकरी के लिए इस जन्म में भी कुछ त्याग करना पड़े तो क्या गलत हुआ? मुकुन्दी के पास त्यागने के लिए पर्याप्त माल नहीं है, इसलिए सड़क पर हैं।

गाँव के ज़मींदार साहब ने काम बताया है।उनके पुरखों का पुराना मन्दिर है। पुराने पुजारी जी अपने गाँव जाना चाहते हैं। मुकुन्दी मन्दिर का काम  संभाल ले तो वे उसे सीधा-पिसान देते रहेंगे। कुछ चढ़ावा भी मिल जाएगा। फिलहाल मुकुन्दी का खर्चा-पानी निकलता रहेगा। नौकरी मिल जाए तो भले ही चला जाए।

मुकुन्दी मन्दिर में स्थापित हो गये। सबेरे शाम पूजा-आरती, दिन भर कुछ पढ़ना-लिखना या ऊँघना। मन्दिर के बगल में कुआँ है, इसलिए नहाने-धोने और मन्दिर की साफ-सफाई के लिए पानी की कमी नहीं है।

इस मन्दिर में ज़्यादा मजमा नहीं जुड़ता इसलिए मुकुन्दी बोर होते हैं। गाँव के लोग वैसे भी तंगदस्त होते हैं, इसलिए ज़्यादा चढ़ावा नहीं चढ़ता। ‘परसाद’ के लालच में दो चार गरीब बच्चे आरती के वक्त घंटा-घड़याल बजाने के लिए जुट जाते हैं। बाकी टाइम काटना मुश्किल होता है। मुकुन्दी के पास एक ट्रांज़िस्टर है, दिन भर उसे चालू रखते हैं।

एक दोपहर मुकुन्दी के ट्रांज़िस्टर पर ‘दबंग’ फिल्म का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ आ रहा था। गाना ऐसा कि अच्छे-भले आदमी के हाथ-पाँव फड़कने लगें। गाना तेज़ वाल्यूम में गूँज रहा था। बगल के रास्ते से गाँव के बच्चे स्कूल जाते थे। मुकुन्दी कुछ शोर-गुल सुनकर मन्दिर के पीछे गये तो देखा आठ-दस लड़के अपने बस्ते रास्ते के किनारे पटक कर गाने की धुन पर बेसुध अपने बदन को झटके दे रहे थे। मुकुन्दी बड़ी देर तक उनकी मुद्राओं का मज़ा लेते रहे। लड़के दीन-दुनिया से बेख़बर थे।

लौट कर बैठे तो मुकुन्दी के दिमाग़ में एक आइडिया कौंधा। गाँव में एक दुर्गाप्रसाद हैं जो हारमोनियम बढ़िया बजाते हैं, लेकिन गाँव में उनके हुनर का उपयोग नहीं होता। हारमोनिय म पर धूल चढ़ी रहती है। दूसरे पुत्तूसिंह ढोलक के उस्ताद हैं। उनकी ढोलक भी छठे-छमासे ही धमकती है। गाँव में गुणीजन की कदर कम होती है।

मुकुन्दी शाम को दोनों उस्तादों से मिले और ‘डील’ पक्की हो गयी। रोज़ शाम को आरती से पहले मुकुन्दी का बनाया नया भजन होगा और जो चढ़ावा आयेगा उसका बंटवारा तीनों के बीच होगा। मुकुन्दी ने ज़मींदार साहब को भी समझा दिया कि उनकी योजना सफल हो गयी तो मन्दिर के दिन फिर जाएंगे।

दो दिन बाद मन्दिर में शाम की आरती से पहले पुत्तूसिंह की ढोलक धमकने लगी। साथ में शुरू हुआ मन्दिर के पुजारी मुकुन्दीलाल रचित भक्तिरस से ओतप्रोत भजन, ‘राधा बदनाम हुई कन्हैया तेरे लिए, ललिता बदनाम हुई सांवरे तेरे लिए।’ सोने में सुहागा जैसी दुर्गा उस्ताद की हरमुनियां की धुन।

थोड़ी देर में मन्दिर में मजमा लग गया।जिसके कान में धुन पड़ी, दौड़ा आया। सारी भीड़ भक्तिरस में झूमने लगी। थोड़ी देर में आधे लोगों ने बाहर मैदान में ठुमके लगाना शुरू कर दिया। घंटों नाच-गाना चलता रहा।न गाने वाले थके, न नाचने वाले। गायन मंडली की तबियत बाग-बाग हो गयी। उस दिन चढ़ावा भी खूब चढ़ा।

दूसरे दिन से शाम होते ही जनता मुकुन्दी के मन्दिर की तरफ वैसे ही लपकने लगी जैसे चींटे गुड़ की तरफ दौड़ते हैं। सब टकटकी लगाकर बैठते जाते थे कि कब भजन शुरू हो। भजन शुरू होते ही आधे नाचने को बाहर निकल जाते और आधे भक्तिरस में झूमने लगते। बीच बीच में मुकुन्दी भी भावविभोर होकर नाचने लगते। मुकुन्दी ने फिल्मी धुनों पर दो तीन भजन और साध लिये थे, लेकिन उनकी वह ‘डिमांड’ नहीं थी जो ‘राधा बदनाम हुई’ की थी।

कुछ दिनों में मन्दिर की सूरत बदल गयी। सारा परिसर चमकने लगा। भजन के प्रसारण के लिए लाउडस्पीकर भी लग गया।परिणामतः लोग मीलों से खिंचे चले आते। गाँव के एमैले साहब ने पच्चीस हजार रुपये मन्दिर में रंगाई-पुताई के लिए दिये और मन्दिर की सड़क भी पक्की करवा दी। मन्दिर की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी।गाँव के दूसरे मन्दिरों में भक्तों का भारी टोटा पड़ गया।

मुकुन्दी की धजा भी बदल गयी है। हाथ में पाँच हजार का मोबाइल लिए मन्दिर-प्रांगण में ठसके से घूमते रहते हैं। मोबाइल पर भक्तों की शंकाओं का समाधान करते रहते हैं। कुछ भूत-भविष्य भी बता देते हैं। दो तीन लड़के सफाई और सेवा के लिए रख लिये हैं। अब नौकरी के बारे में पूछने पर जवाब देते हैं, ‘कोई अच्छी नौकरी मिली तो सोचेंगे, वर्ना हमारी कोई गरज नहीं है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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