मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 23 – कॉपी ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  शिक्षिका के कलम से एक भावप्रवण कविता  – “कॉपी। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 23☆ 

 

 ☆ कॉपी ☆

 

कॉपी मुक्त शिक्षणाची

आज मांडली से थट्टा ।

पेपर फुटीला ऊधान

लावी गुणवत्तेला बट्टा।

 

गरिबाचं पोरं  वेडं

दिनरात अभ्यासानं।

ऐनवेळी रोवी झेंडा

गठ्ठेवाला धनवान ।

 

सार्‍या शिक्षणाचा सार

गुण   सांगती शंभर।

चाकरीत  बिरबल

सत्ताधारी अकबर।

 

कॉपी पुरता अभ्यास

चार दिवसाचे सत्र।

ठरविते गुणवत्ता

गुणहीन  गुणपत्र।

 

उन्नतीस खीळ घाली

कॉपी नामक वळंबा।

नाणे पारखावे जसे

राजे शिवाजी नि संभा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 24 – व्यंग्य – पत्रिका के साझेदार ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने एक ऐसे पडोसी चरित्र के मनोविज्ञान का अध्ययन किया है, जिसकी मानसिकता गांठ के पैसे  से कुछ भी  खरीदने की है ही नहीं। पत्रिका तो मात्र संकेत है। यदि आप ऐसी मानसिक बीमारी के चरित्र को जानना चाहते हैं तो आपको इस  व्यंग्य को अंत तक पढ़ना चाहिए एक जासूस पाठक की तरह। मेरा दवा है आप कुछ नया ही निष्कर्ष निकालेंगे। डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “पत्रिका के साझेदार”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 24 ☆

☆ व्यंग्य  – पत्रिका के साझेदार   ☆

 

शर्मा जी ने टेबिल पर रखी ‘ज्योति’ पत्रिका उठा ली,बोले, ‘नियमित मंगाते हैं क्या?’

‘हाँ’, मैंने कहा।

‘बहुत बढ़िया’, उन्होंने पन्ने पलटते हुए कहा। थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए, बोले, ‘ज़रा इसे ले जा रहा हूँ। पढ़कर लौटा दूँगा।’

वह पत्रिका का नया अंक था। मैंने मुरव्वत के मारे दे दिया। तीन दिन बाद पत्रिका वापस आयी, जवान से बूढ़ी होकर।

फिर हालत यह हुई कि पत्रिका का नया अंक आने के दूसरे दिन शर्मा जी के चिरंजीव दरवाज़े पर उपस्थित होने लगे। ‘बाबूजी ने पत्रिका मंगायी है।’  चिरंजीव पुराना अंक वापस लेकर आते और नये की मांग पेश करते।

धीरे धीरे शर्मा जी ने समय-अन्तराल को छोटा करना शुरू किया और इतनी प्रगति की कि इधर ‘हॉकर’ अंक देकर गया और उधर उनके चिरंजीव उसे मांगने के लिए प्रकट हुए। किसी तरह  टाल-टूल कर दूसरे दिन तक अपने पास रख पाता।

फिर एक बार अंक नहीं आया। मैं इंतज़ार करता रहा। एक दिन ‘हॉकर’ रास्ते में टकराया तो मैंने अंक के बारे में पूछा। वह आश्चर्य से बोला, ‘आपको मिला नहीं क्या? शर्मा जी ने मुझसे रास्ते में ले लिया था। कहा था कि आपको दे देंगे।’

मैंने झल्लाकर उसे आगे के लिए वर्जित किया और शर्मा जी के घर से पत्रिका मंगायी। वह राणा सांगा की काया लिये हुए आयी। शर्मा जी ने खेद का कोई शब्द नहीं भेजा।

अगले अंक के पदार्पण के साथ ही चिरंजीव फिर हाज़िर। मैंने चिढ़कर  कहा, ‘बाबूजी से कहना पहले मैं पढ़ूँगा फिर दूँगा। इतनी जल्दी मत आया करो।’

दूसरे दिन रास्ते में शर्मा जी मिले तो मुँह टेढ़ा करके निकल गये। दुआ-सलाम भी नहीं हुई। करीब पंद्रह दिन तक यही चला। वे मुझे पूर्व की ओर से आते देखते तो पश्चिम दिशा का अवलोकन करने लगते। मैंने भी कमर कस ली। उनका ही रास्ता पकड़ लिया। मैं भी उनको अपना मुख दिखाने के बजाय पीठ दिखाने लगा।

शर्मा जी समझ गये कि तरीका गलत हो गया, इस तरह तो पत्रिका के निःशुल्क पठन से गये। उन्होंने रुख बदला। एक दिन बत्तीसी हमारी तरफ घुमायी, बोले, ‘क्या बात है भाई? आजकल कुछ कुपित हो क्या? बातचीत भी नहीं होती।’

मैंने कहा, ‘आप ही कहाँ बातचीत करते हैं, महाराज। मुझसे क्या कहते हैं?’

वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘अरे नहीं भाई, कुछ घरेलू परेशानियाँ आ गयी थीं। चिन्ताओं में मग्न रहता था। आप तो हमारे बंधु हैं।’

चिरंजीव फिर दरवाज़े पर दस्तक देने लगे, लेकिन थोड़ी सावधानी के साथ।

पत्रिका का एक अंक जो शर्मा जी की सेवा में गया तो कई दिन तक लौट कर नहीं आया। उसे मैं सुरक्षित रखना चाहता था। मैंने एक दिन उसके लिए शर्मा जी के घर के तीन चक्कर लगाये। शर्मा जी तीनों बार नहीं मिले। गाँव से उनके पिताजी पधारे थे, तीनों बार उन्हीं से साक्षात्कार हुआ। सफेद नुकीली मूँछों वाले तेज़-तर्रार आदमी।

पहली बार उन्होंने पूछा, ‘कहिए भइया जी, क्या काम है?’ मैंने कहा, ‘ज़रा एक पत्रिका लेनी थी।’ वे बोले, ‘बबुआ थोड़ी देर में आ जाएगा। तब पधारें।’ बबुआ तो नहीं मिला, तीनों बार बाबूजी ही मिले। तीसरी बार तनिक भृकुटि वक्र करके बोले, ‘आप पत्रिका खरीद क्यों नहीं लिया करते?’  मैंने उन्हें समझाया कि उनके सुपुत्र के पास जो पत्रिका है वह दास की गाढ़ी कमाई से खरीदी हुई है। उन्होंने तुरंत नरम होकर खेद प्रकट किया। पत्रिका का वह अंक अंतर्ध्यान ही रहा। शर्मा जी से पूछने पर उत्तर मिलता, ‘हाँ, ढूँढ़ रहा हूँ।’

फिर एक दिन वह अंक खुद हमारे घर में प्रकट हुआ। उस पर मेरे छोटे सुपुत्र की कुछ कलाकारी थी, इसलिए पहचान गया। मैंने पूछा, ‘यह कहाँ से आयी? यह तो अपनी है।’ मेरा बड़ा पुत्र बोला, ‘लेकिन यह तो मैं खरे साहब के यहाँ से पढ़ने को लाया हूँ।’ मैंने खरे साहब से कहलवाया कि वह पत्रिका मेरी है। खरे साहब भागे भागे आये, बोले, ‘नहीं साहब, आपकी कैसे हो सकती है? यह तो हम जोशी जी के घर से लाये थे।’ मैंने कहा, ‘आप चाहे जोशी जी से लाये हों या जोशीमठ से, यह पत्रिका मेरी है और मैं इस पर पुनः अपना अधिकार स्थापित करना चाहता हूँ।’ वे बहुत घबराये, बोले, ‘ऐसा गज़ब मत करिए। मैं इसे जोशी जी को वापस कर देता हूँ। आप उनसे बखुशी ले लीजिए।’

मैंने जासूस का चोला पहना और पता लगाया कि यह गंगा कौन कौन से घाटों से बहती हुई घूमकर अपने उद्गम पर आयी थी। पता चला कि वह अंक शर्मा जी के घर से चलकर सिंह साहब, दुबे जी, रावत साहब, सिन्हा साहब तथा जोशी जी के यहाँ होता हुआ खरे साहब के घर अवतरित हुआ था। बीच की कोई कड़ी मुझे उस पत्रिका का मालिक मानने को तैयार नहीं हुई, इसलिए मैंने उसे ‘थ्रू प्रापर चैनल’ शर्मा जी के घर की तरफ ढकेलना शुरू किया। लेकिन वह अंक वापस शर्मा जी तक नहीं पहुंचा। लौटते लौटते वह बीच में कहीं तिरोहित हो गया और अब तक गुमशुदा है।

शर्मा जी से जब मैं आखिरी बार शिकायत करने गया तो उन्होंने गहन खेद प्रकट किया,यहाँ तक कि वे खेद प्रकट करते हुए मेरे साथ चलकर मुझे घर तक छोड़ गये। लौटते समय मेरे फाटक पर रुककर उन्होंने सिर खुजाया, फिर अपनी टटोलती आँखों को मेरे चेहरे पर गड़ाकर बोले, ‘नया अंक तो पढ़ चुके होंगे?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #21 – गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
(We present an English Version of this Hindi Article “गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ”  as ☆ In an attempt to scare away the vulture ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 20☆

☆ गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆

कहानियों के पात्र प्राय: हमारे इर्द-गिर्द होते हैं, हमारे परिवेश में होते हैं। पात्र की पड़ताल कीजिए तो संबंधित साहित्यकार बताएगा/गी कि यह पात्र उसके मोहल्ले में रहता था। फलां पात्र के बारे में एक मित्र ने बताया था, अर्थात कहानियों के पात्र वास्तविक जीवन से कागज़ पर उतरते हैं। पात्र, पाठक की संवेदना के साथ जुड़ जाता है। पात्र के जीवन की घटनाओं पर आह और वाह, पाठक की  अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं।

विसंगति है कि कहानी के पात्र के साथ संवेदना रखने वाला अपितु संवेदना जीने वाला वास्तविक जीवन में पात्रों की दुर्दशा में यह कहकर दख़लअंदाज़ी करने से मना कर देता है कि यह सम्बंधित पात्र का निजी मामला है।

इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। (विचलित करने वाली यह तस्वीर मैं साझा नहीं कर रहा हूँ।) इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में एक टीवी शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘ उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’ माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।

इस दुर्भाग्यजनक कहानी के विविध पहलुओं पर चर्चा हो सकती है। सहमति, असहमति हो सकती है पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि साहित्यकार, पत्रकार, कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हम उस गिद्ध को समाप्त न कर सकें पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं न!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

22.10.2019, प्रात: 6.19 बजे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆ सुख – दुःख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सुख – दुःखअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से

☆ सुख – दुःख ☆

 

मैंने दुःख को विदा किया

कभी ना लौट आने के लिए

वो सुख की चादर ओढ़ आया

मेरे निश्चय की आजमाइश में ।

 

उसने विदाई का सम्मान किया

बस दूर खड़े रह सुख का नाट्य किया

हाथों में गुब्बारे लिए उसने

मेरे बालमन को लोभित किया

 

कभी वो ख़्वाबों की तश्तरी लाया

कभी रंग -बिरंगी तितलियाँ लाया

मेरी बढ़ती ताक -झाँक को

उसकी नजरो ने जान लिया

 

दुःख था बड़ा बहुरूपिया

समझता था मेरी कमजोरियाँ

हर उस शख्स का उसने रूप धरा

जिससे कभी था मेरा नाता जुड़ा

 

सब्र का मेरे बांध ढहा

हल्के से मन का किवाड़ खुला

दहलीज पर जो मैंने कदम रखा

मृगमरीचिका सा भरम हुआ

 

मैं दौड़ पड़ी उस ओर

सुख की चाह थी पुरजोर

उसने भी चादर फैला के मुझे

अपने अंक में समेट लिया

 

मै पहुँची अंध लोक

बस सुख की ही थी खोज

सुख का स्पर्श मुझे याद था

पर वहाँ कही ना उसका आभास था

 

मेरी आँखों से अश्रु बहे

सुख चाहे पर  दुःख मिले

क्यों पुराने पाठ ना याद रहे

सुख -दुःख सदा ही साथ रहे ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #28 – ☆ शिक्षण ☆ – सुश्री आरूशी दाते

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 – मन की इन्द्रियों पर विजय ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “मन की इन्द्रियों पर विजय।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 ☆

 

☆ मन की इन्द्रियों पर विजय

 

सबसे पहले इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर वरुण पाश (पानी के देवता वरुण का फंदा) चलाया। यह किसी भी प्राणी को हवा में लटकाकर उसके प्राण हर सकता था, चाहे वह देवता, असुर या मानव कोई भी हो। इस अस्त्र के फंदे से बचना असंभव था, उत्तर में, लक्ष्मण ने कुम्भ अस्त्र का प्रयोग किया जो संग्रह पात्र की तरह कार्य करता था, और इंद्रजीत द्वारा वरुण पाश को कुम्भ अस्त्र ने अपने अंदर एकत्रित करना शुरू कर दिया और जल्द ही वरुण पाश आकाश में लुप्त हो गया ।

तब इंद्रजीत ने कंकालम अस्त्र चलाया यह एक भरी मूसल नुमा अस्त्र था इसका उत्तर  लक्ष्मण ने धर्म पाश (अर्थ : सच्चाई का हथियार)से दिया ।

इंद्रजीत का क्रोध सभी असफल अस्त्रों के साथ बढ़ रहा था। क्रोध में इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर त्रिशूल फेंक दिया, भगवान शिव का विनाशक अस्त्र । यह अचूक है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता है। इसे बिना किसी समानांतर के सबसे शक्तिशाली हथियार कहा जाता है । परन्तु जैसे ही यह इंद्रजीत के हाथ से त्रिशूल निकला, लक्ष्मण ने अपने दोनों हाथों को उसकी ओर जोड़ दिया, और त्रिशूल आकाश में उड़ गया और सीधे कैलाश गया, और भगवान शिव के बायीं ओर बर्फ की जमीन पर  गड  गया। बिना भगवान शिव की अनुमति के लक्ष्मण पर शक्ति का उपयोग किया गया था, जिससे शिव जी  इंद्रजीत से नाराज थे तो ऐसा लगा की जैसे उनका त्रिशूल भी इंद्रजीत से नाराज है ।

त्रिशूल एक परंपरागत भारतीय हथियार है। यह एक हिन्दु चिन्ह की तरह भी प्रयुक्त होता है। यह एक तीन चोंच वाला धात्विक सिर का भाला या हथियार होता है, जो कि लकडी़ या बांस के डंडे पर भी लगा हो सकता है। यह हिन्दु भगवान शिव के हाथ में शोभा पाता है। यह शिव का सबसे प्रिय अस्त्र हैं शिव का त्रिशूल पवित्रता एवं शुभकर्म का प्रतीक है। इसके तीन सिरों के कई अर्थ लगाए जाते हैं: –यह त्रिगुण मयी सृष्टि का परिचायक है, –यह तीन गुण सत्व, रज, तम का परिचायक है

इन तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का संचालन कठ‌िन हैं, इसल‌िए श‌िव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण क‌िया। यह त्रिदेव का परिचायक है। भगवान शिव के त्रिशूल के बारे में कहा जाता है कि यह त्रिदेवों का सूचक है यानि ब्रम्हा, विष्णु, महेश के अनुसार ही इसे रचना, पालक और विनाश के रूप में देखा जाता है। इसे भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ धऱती, स्वर्ग तथा पाताल का भी सूचक माना जाता हैं। यह दैहिक, दैविक एवं भौतिक ये तीन दुःख, के नाश के रूप में त्रिताप के रूप में जाना जाता है। यह हिन्दु देवी दुर्गा के हाथों में भी शोभा पाता है। खासकर उनके महिषासुर मर्दिनी रूप में, वे इससे महिषासुर राक्षस को मारती हुई दिखाई देतीं हैं। विभिन्न देवी दुर्गा के मंदिरो की प्रतिमा में त्रिशूल सोने चाँदी या पीतल के देखे जा सकते हैं । मनुष्य शरीर में भी त्रिशूल, जहाँ तीन नाड़ियां मिलती हैं, उपस्थित है और यह ऊर्जा स्त्रोतों, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को दर्शाता है। सुषुम्ना जो कि मध्य में है, को सातवां चक्र और ऊर्जा का केंद्र कहा जाता है ।

अगर तत्त्वमीमाँसा की दृष्टि से देखे तो इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच का संग्राम क्या सूचित करता है ? इंद्रजीत अर्थात जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो या जिसकी कर्म इन्द्रियाँ और ज्ञान इन्द्रियाँ भोग विलास की वस्तुओं को स्वीकार ना करती हो। ये दस, पाँच कर्म इन्द्रियाँ और पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ वाह्य मुखी होती है पर एक आंतरिक इन्द्रिय भी होती है जिसे मन कहते है मन वह इन्द्रिय  है जो मस्तिष्क में बाहरी वासनाओं के प्रति आने वाली पहली लहर की प्रतिक्रिया देता है । तो  भले ही कोई मनुष्य दस बाहरी इन्द्रियों पर काबू कर ले तो भी उसकी वासनाएँ जीवित रहेंगी जब तक कि उसका मन संतुलित ना हो। दूसरी ओर लक्ष्मण का अर्थ है जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर रहे और किसी भी वासना के प्रति तनिक भी ना डिगे। अगर मन स्थिर हो तो बाहरी इन्द्रियाँ आपने आप काबू में आ जाती है। तो इंद्रजीत की बाहरी इन्द्रियाँ भले ही उसके नियंत्रण में हो लकिन उसका मन लंका और उसके पिता के अहंकार की वासनाओं से जुड़ा हुआ था जबकि लक्ष्मण का मन सदैव भगवान राम की भक्ति में लगा था इसी लिए लक्ष्मण इंद्रजीत को मार पाए ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 14 ☆ चिंधी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका  एक भावप्रवण  आलेख  चिंधी  जिसमें उन्होंने  कपडे के टुकड़ों “ का महत्व एवं  उसका धार्मिक, पौराणिक एवं सामाजिक जीवन में योगदान पर विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने महाभारत काल में द्रौपदी के चीरहरण, साईँ बाबा के वस्त्र और ग्रामीण महिलाओं द्वारा चिन्दी से गुदड़ी  सिलने के व्यवसाय तक  की चर्चा की है। इस आलेख को पढ़ते वक्त हमें हिंदी की कहावत “गुदड़ी  के लाल” सहज ही याद आ जाती है। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 14 ☆

 

☆ चिंधी ☆

“भरजरी गं पितांबर दिला…. फाडून..!

द्रौपदीसी बंधू शोभे नारायण..!! ”

आचार्य अत्रे दिग्दर्शित ‘श्यामची आई ‘ चित्रपटातलं ,आशाताईंच्या सुरेल आवाजातलं गाणं ऐकत होते.. किती छान गाणं..!

ऐकताना विचार करु लागले खरंच चिंधी ही किती क्षुल्लक व टाकावू पण तिला श्रीकृष्णाच्या बोटावर विराजमान होण्याचं भाग्य लाभलं अन् ती अजरामर झाली.

महाभारतातल्या एका प्रसंगात श्रीकृष्णाच्या बोटाला कापलं रक्ताची धार लागली ते पाहून त्याची सख्खी बहीण सुभद्रा कपडा आणायला अंतर्गृहाकडे धावली तर मानलेली बहीण द्रौपदीनं क्षणाचाही विचार न करता स्वत:च्या अंगावरच्या भरजरी शेल्याचा पदर फाडून त्याची चिंधी भाऊ श्रीकृष्णाच्या बोटाला तात्काळ बांधली.

देवही परीक्षा पहात असतो.!

तुम्ही किती मायेनं तत्परतेनं,आस्थेनं करता ते तो कधीही विसरत नाही. म्हणूनच द्रौपदी वस्त्रहरणाचे वेळी सर्व स्वकीयांना बोलावले पण तिने बंधू श्रीकृष्णाला हाक मारताच क्षणाचाही विलंब न करता कृष्णाने एका चिंधीच्या बदल्यात एकाचवेळी असंख्य साड्या पुरवून तिचे अब्रूरक्षण केले.

जगात कोणतीही वस्तू टाकावू नसते हा महान मंत्र द्रौपदीच्या चिंधीने जगाला दिला.

चिंधी चिंधी जोडून आई फाटक्या लुगड्याची गोधडी लेकरासाठी शिवते ती त्याला आयुष्यभर प्रेमाची ऊब देते.

रंगीबेरंगी चिंध्या रंगसंगती साधून एकत्र जोडून बाळासाठी देखणी दुपटी बारशाचेवेळी शिवली जातात. त्याला आईच्या मायेची ऊब असते त्यामुळे बाळ त्यात शांतपणे झोपी जातं.

शिर्डीचे महान संत श्रीसाईबाबांच्या अंगावर नेहमी चिंध्यांनी जोडून केलेला अंगरखा असे. आज मात्र त्यांच्या प्रतिमेला भरजरी कपड्यांनी सजवलं जातंय!

स्वत: अशिक्षित असूनही शिक्षणाचा व स्वच्छतेचा संदेश देणाऱ्या संत गाडगेबाबा यांच्या अंगावरही गोधडीचाच अंगरखा असायचा, म्हणून त्यांना गोधडेबुवाही म्हणत असत.

माझ्या लहानपणी मी त्यांना पंढरपूर,देहू आळंदी इथं प्रत्यक्ष पाहिलेलं आहे.मी इतकी भाग्यवान की माझे वारकरी काका-काकू त्यांचे अनुयायी त्यामुळे आम्हा सर्वांना हातात झाडू घेऊन त्यांचेबरोबर आळंदीला थोडीफार स्वच्छता सेवा करण्याचं भाग्य मला लाभलं.

माणदेशी महिला महोत्सवात बचत गटाच्या महिलांनी बनविलेल्या अतिशय सुंदर गोधड्या मला पहायला मिळाल्या.भारतात त्यांना रुपये पाचशे पासून अंदाजे पाच हजारांपर्यंत किंमत मिळते., तर परदेशातही त्यांना भरपूर मागणी असल्याचे समजले. श्रमजीवी महिलांना या चिंध्यांपासून एक चांगला रोजगार मिळाला व त्यांच्या श्रमाचं चीज झालं असं म्हणावं लागेल.

खेड्यातल्या महिलांना शेतातली उन्हाळी कामं झाली की दुपारचा भरपूर मोकळा वेळ असतो त्यावेळी बऱ्याचजणी एकत्र येऊन ‘वाकळा ‘ शिवतात. खेड्यात गोधडीला वाकळ म्हणतात. वाकळ जोडत असते एक एक चिंधी, तशा त्या महिलाही एकमेकींशी जोडल्या जातात. त्यांची मन एकमेकींकडं मोकळी होतात. मनात साठलेलं सगळं मळभ निघून जातं व त्या नवी ऊर्जा घेऊन ताज्या दमाने पुढल्या वर्षीच्या कामाला लागतात.

थोडा विचार केला तर माणसाच्या मनातल्या कप्प्यातही अशा अनेक चिंध्या असतात. त्या सकारात्मक व नकारात्मक दोन्ही प्रकारच्या असू शकतात. त्यातली कुठली चिंधी कशी व कुठं जोडायची अन् आयुष्य कसं सांधायचं, जोडायचं, उभं करायचं हे प्रत्येकानं ठरवायचं असतं.

एकेक चिंधी जोडत त्याची वाकळ होऊ शकते  तसेच आपल्या मनातले विचार एकत्र गुंफले तर त्यांच्या प्रतिभेला स्फुरण चढते व सुंदर प्रासादिक काव्य लेखन निर्मिती होऊ शकते !…. हो नां…!

©®उर्मिला इंगळे
दि.१५-११-२०१९
!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 15 ☆ आज बाजारात….. ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “आज बाजारात…..”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 15 ☆

 

☆ आज बाजारात…..

आज पाहिलं
विजेच्या कडाक्यात
जोरदार पावसात
वादळी वा-यात
जख्खड वृक्ष उन्मळून
कोसळला आज बाजारात
आणि एक गरीब शेतकरी
तत्क्षणी जागीच मेला.

फक्त काही जण गलबलले
काही क्षण रेगांळले
पुन्हा काही क्षणात यथावत
आज बाजारात.
काही लोक सरसावले
त्याच झाडाच्या फांद्या,
ढपल्या तोडण्यात
आज बाजारात.

वर्मी लागलेला
तोच बुंधा उचलून नेला
काही पोटं भरण्यासाठी
काही जीव जगवण्यासाठी
आज बाजारात.
मृत्युच्या कारणाला
घरी नेलं गोळा करून
आज पाहिलं…..
मरण सुध्दा जीव जगवतं
कुणाची अश्रु तर कुणा
जीव देऊन जातं……!!

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 24 ☆ पुरुष वर्चस्व और नारी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “पुरुष वर्चस्व और नारी”.  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने  अपनी बेबाक राय बड़े ही सहज तरीके से रखी है।  यह एक ऐसा विषय है जिसके विभिन्न  पहलुओं पर  किसी भी प्रकार की विवेचना कोई स्त्री ही कर सकती हैऔर इस दायित्व को उन्होंने बड़ी बखूबी निभाया है। इस सशक्त रचना में  धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, आपराधिक और ऐसा शायद ही कोई  तथ्य छूटा हो जिसकी विवेचना उन्होंने सोदाहरण प्रस्तुत न की हो।  डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 24 ☆

☆ पुरुष वर्चस्व और नारी 

पितृसत्तात्मक युग के पुराने कायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरूष को सर्वश्रेष्ठ समझ सारे अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे… मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे आज तक बजाना पड़ रहा है। उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह गृहस्थ के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी,उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ताउम्र नाचेगी, उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी… जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसे तो हुक्म बजाना है दासी की तरह और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना है। इसके लिए सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ बनवास झेला और लक्ष्मण-रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम..सीता-हरण हुआ और आगे की कथा से तो आप परिचित हैं। ज़रा स्मरण कीजिए…शापित अहिल्या का, जिसे पति के श्राप स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। महाभारत की पात्रा द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीर-हरण हुआ। प्रश्न उठता है, किसने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका, उनकी निंदा की। सब बंधे थे मर्यादा से, समर्पित थे राज्य के प्रति..अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राज सभा  में उपस्थित हर शख्स अंधा था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठ-जन, पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे…आखिर क्यों? क्या उनका अपराध क्षम्य था?

आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर, सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वाया गया… वहां लव कुश का जन्म होना और अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, राम से भेंट होना…राम को उसकी संतति सौंप पुन: धरती में समा जाना.. क्या  संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात्, उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था, अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहां हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना क्या अनुचित नहीं था?  इसमें आश्चर्य क्या है… आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगाकर उसे बेवजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधि- कार कहां प्रदत है? वह हाड़-मांस की पुतली…जिसे भावहीन व संवेदनविहीन समझा जाता है, फिर उसमें हृदय व मस्तिष्क होने का प्रश्न ही कहां उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’  यदि अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर, घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। और उसके साथ ही हमारे समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे, उसकी अस्मत लूट किस नरक में धकेल देते हैं… यह सब तो आप जानते हैं। जुर्म के बढ़ते ग्रॉफ़ से तो आप सब परिचित हैं। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष महिला को .. कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे उसे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना,उसके असीमित दायरों की कारस्तानियों की कल्पना तो आप कर ही सकते हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पुरूष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर- ज़बर्दस्ती करना, जन्म के पश्चात् प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखला देना, दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना… सामान्य-सी बात है, घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है। पुत्र को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष अक्षम्य अपराध स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण, हर पल मासूम पर दोषारोपण, व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है… ऐसे जुमलों का सामना उसे आजीवन करना पड़ता है।

विवाह के पश्चात् पति हर पल उस निरीह पर निशाना  साधता है। वैसे भी हर कसूर के लिए अपराधिनी तो औरत ही कहलाती है, भले ही वह अपराध उसने किया हो, या नहीं…क्योंकि उसे तो विदाई की वेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है, कभी अकेले इस चौखट पर पांव नहीं रखना है… आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है, बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके अपना जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है, कभी कोई शिकवा -शिकायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है… गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना, कभी नदी किनारे पांव फिसल जाना, तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना, मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यातना से कौन अपरिचित है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी इन हादसों का शिकार क्यों नहीं होतीं? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर, पिता के दायित्वों का वहन बखूबी करती है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

आधुनिक युग में नारी को प्राप्त हुए हैं समानाधिकार … उसे स्वतंत्रता प्राप्त तो हुई है और वह मनचाहा भी कर सकती है, अपने ढंग से जी सकती है तथा कोई भी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर, उसकी शिकायत कर सकती है। मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है … आखिर कहां हैं वे कायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?  शायद! वे फाइलों के नीचे दबे पड़े हैं। कल्पना कीजिए, जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात्, उस के माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ…’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर, दुष्कर्म करने को ले जायेगा… कितना चाहिए …इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं… पहले पुलिस स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में… यह सब सुनकर वे ठगे-से रह जाते हैं और लंबे समय तक इस सदमे से उबर नहीं पाते।यह सुनकर कलेजा मुंह को आता है… उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर कहां दिया जाता है और वे निरीह प्राणी लौट आते हैं … प्रायश्चित भाव के साथ…क्यों उन्होंने वहां का रूख किया। उम्रभर वह मासूम कहां उबर पाती है उस हादसे से।वे दुष्कर्मी, सफेदपोश रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर, सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं और दिन के उजाले में पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहलाते हैं।

कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उसे हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा-कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा करते हैं… यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना भी दुष्कर हो जाता है।15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्यस्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील को निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच तथा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है। और स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया।

अक्सर कार्यस्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बात कही जाती है। उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है और उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा हर पहलू से उसे बदनाम करने की कोशिश की जाती है। क्या यह पुरूष वर्चस्व नहीं है,जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।

आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें … आजकल ‘लिव-इन व मी-टू’ का बोलबाला है। चंद  स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़, विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’   को अपना रही हैं। अक्सर इसका खामियाज़ा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, जब पुरूष साथी  उसे यह कहकर छोड़ देता है… ‘तुम्हारा क्या भरोसा …जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई, कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी ? ‘इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर’…वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को पर-स्त्री के साथ, संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते- खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर, पुरूष को सीखचों के पीछे पहुंचाने का औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते-खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं की  साख पर भी तो आंच आती है, परंतु वे ऐसा सोचती कब हैं… कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरूष महिला पर पूर्ण अधिकार चाहता है… उसका अहं फुंकारने पर, वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से बेदखल करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वह पहले भी गुलाम थी और सदा रहेगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 22 ☆ साक्षात्कार ☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत.
हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त 1924 को हुआ। वे एक समर्थ कवि, उपन्यासकार और कहानीकार हैं। किसी भी वाद के कृत्रिम दबाव में न आकर उन्होंने अपना लेखन सहज ही परिवर्तित होने दिया।
हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ राम दरश मिश्र जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 22  साहित्य निकुंज ☆

☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत  निकट रही )

हिंदी साहित्य के वरिष्ठ और श्रेष्ठ साहित्यकार, विविध विधाओं में सिद्धहस्त, पुरोधा पीढ़ी के साहित्यकार, आलोचक की दृष्टि रखने वाले, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. रामदरश मिश्र जी जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन रचना-कर्म में पूरी सक्रियता और मनोयोग से लगाया और जो भी हिंदी साहित्य को दिया वो प्रेरणादायी है।

आपने अनेक कविता संग्रह ,कहानी संग्रह ,अनेक उपन्यास ,समीक्षा,ललित निबंध,यात्रा वृतांत ,डायरी ,आत्मकथा ,आलोचना, संस्मरण ,संचयन संपादन आदि हिंदी साहित्य को भेंट किये। आपके लेखन में गाँव की मिटटी की गंध समाहित है। आप विविध विधाओं के निष्णात आज आयु के दसवें दशक में भी गति शील है।

अनेक पुरस्कार से सम्मानित मिश्र जी को अभी हाल ही में  “आग की हँसी” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।

जब मै उनसे मिली तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सपना साकार हो गया  हो। जिन्हें मैंने बचपन में  पढ़ा और फिर पढाया आज मै उनका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ और उनकी कविता उनके मुख से सुन रही हूँ। ये मेरे लिए बहुत हो गौरव की बात है।प्रस्तुत है उनके साथ की गई बातचीत के अंश …………

डॉ.भावना शुक्ल – अभी-अभी आपने बताया आपका गज़ल संग्रह आ रहा है हम यहीं से शुरुवात करते है आप हमें नए ग़ज़ल संग्रह में से कुछ अंश ग़ज़ल के सुनाइये।

डॉ राम दरश मिश्र – भावना बेटी मैंने बातों के दौरान कविताये तो सुना डाली पर ग़ज़ल नहीं सुनाई। मेरे मन की बात कही| मुझे बहुत पसंद है …………

याद आना था न ,पर याद आया ,

एक  भूला-सा  पहर  याद आया।

बेचते-बेचते   गया   थक   मै ,

आज बाज़ार में घर याद  आया।

पाया क्या-क्या न मगर क्या खोकर,

भूल  बैठा  हूँ, ठहर , याद  आया।

भूल  बैठा  था  जिसे  पा  मंजिल,

कच्चे  रास्तों  का सफ़र याद आया।

छाँह में  पलते  हुए  अश्मों की ,

अपने आँगन का शजर याद आया।

कोई  है  जो  कि  भूला-भूला सा,

फूल –सा जिन्दगी भर याद आया।

डॉ.भावना शुक्ल – बहुत ही शानदार ग़ज़ल सुनाई। यथार्थ का बहुत ही उम्दा चित्रण किया है। आप सुदीर्घकाल से साहित्य साधना कर रहे ,आप अनुभव संपन्न हैं| सबसे पहले हम जानना चाहेंगे कृपया आप हमें  काव्य भाषा के सन्दर्भ में कुछ बताइए ?

डॉ राम दरश मिश्र – मैंने अपनी सृजन यात्रा कविता से ही प्रारंभ की थी और आज तक उसे शिद्दत से जी रहे हैं। मेरा  पहला काव्य संग्रह ‘पंथ के गीत’ 1951 में प्रकाशित हुआ था। तब से आज तक कई संग्रह आ चुके हैं। इनमें कुछ ‘बैरंग-बेनाम चिटठियां’, ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहां जा रहा है’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’ और ‘हंसी होंठ पर आंखें नम हैं’ जैसी बेहतरीन रचनाएं शामिल हैं।

कविता की भाषा सहज होनी चाहिए।भाषा ऐसी हो जिसमे खुलेपन की आड़ लेकर ‘कविता’को नग्न न किया जाये।अनेक कवि अपनी सहज भाषा के साथ फैंटेसी की चमक पैदा करते हैं।इसके साथ ही लोक गाथाओं का सानिध्य भी पा लेते हैं।एक बहुत मूल्यवान प्रसंग है।फ़िराक साहब का साक्षात्कार कुछ लोग ले रहे थे किसी से उनसे पूछा आपकी दृष्टि में विश्व का सबसे महँ ग्रन्थ कोण-सा है ?फ़िराक जी ने उत्तर दिया,’रामचरितमानस’|क्योकि रामचरितमानस सबसे सहज ग्रन्थ है और सहज लिखना बहुत कठिन होता है ;और उस जमाने के सारे भक्त कवि बड़े सहज  थे।

डॉ.भावना शुक्ल – हम आपके लेखन प्रेरणा के सन्दर्भ में जानना चाहेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – जब मै छठी कक्षा में था तब मुझे इतना महसूस हुआ था की मैंने कविता लिखी है।कविता मेरे  भीतर की उपज थी।लेकिन कई वर्षों तक शिक्षा के क्रम में उस देहाती परिवेश में ही रहा जिनमे नए साहित्य की सर्जना का कोई वातावरण नहीं था।बस में अपनी गति से लिखता जा रहा था छन्द अलंकार आदि का अभ्यास कर रहा था और हिंदी साहित्य के जो गुरु थे उनसे प्रोत्साहन प्राप्त कर रहा था।कविता में और भाषा में जो निखर स्वत: आ रहा था,वो आ रहा था लेकिन मुझे ठीक ज्ञान नही था कि उस समय कविता का मिजाज और भाषा का रूप कैसा है।सन १९४५ में बनारस पहुँचने के बाद मैंने अपने को नए साहित्यकार के रूप में पाया और वहाँ से मेरी काव्य यात्रा प्रारंभ हुई।

साहित्य लेखन के लिए जिस संवेदना एवं भावुकता की आवश्यकता होती है। वह मेरी माँ में और मेरे पिताजी में थी।लोक साहित्य के साथ इन दोनों का गहरा जुडाव था।मुझे इन दोनों से ही प्रेरणा मिली जिसके आधार पर मेरी साहित्यिक रचना शुरू हुई और धीरे –धीरे परिवेश के प्रभाव में उसमे गति आ गई ,नई-नई दिशाएं खुलती गई। मेरी रचना को निखारने में मेरे गुरुओं और साहित्यिक मित्रों ने अपनी भूमिका निभाई।

डॉ.भावना शुक्ल –  कविता की आलोचना के विषय में आपके क्या विचार है ?गुटबाजी की राजनीति से कविता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

डॉ राम दरश मिश्र – हिंदी साहित्य जगत में आलोचकों ने कविता की शानदार आलोचना लिखी है और हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है।साहित्य में समरसता का माहौल देखते ही देखते न जाने कहाँ को गया।पिछले पांच -छह: दशकों में आलोचकों की गुटबाजी ने हिंदी कविता को काफी नुक्सान पहुँचाया है।आलोचकों ने सही व निष्पक्ष आलोचना लिखने के स्थान पर टुच्ची राजनीति को बढ़ावा दिया है। पुराने और नए कवियों को आगे बढाने और पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी-कभी बिना पढ़े ही सरसरी तौर पर कविता देखी और आलोचना लिख दी, क्योंकि कवि को अधिक भाव नहीं देना है।और कभी कविताओं का अतिरंजित मूल्यांकन करते है।मुझे ऐसे आलोचकों और उनकी आलोचना पर आश्चर्य होता है जिन्हें निराला, दिनकर और मुक्तिबोध से भी अधिक वजनदार और महत्वपूर्ण लगती है युवा पीढी की कवितायेँ।

डॉ.भावना शुक्ल – क्या पुरस्कार लेखन की उत्कृष्टता का प्रमाण है ?

डॉ राम दरश मिश्र – हाँ अच्छे लेखन को सम्मान मिलता है और सहज भाव से मिलता है, तो सम्मान और लेखक दोनों गौरवान्वित होते हैं।सम्मान उत्कृष्ट लेखन के लिए एक तरह से सामाजिक तज्ञता है।लेकिन यह भी सही है कि आजकल सम्मान और पुरस्कार को पाने के लिए लेखकों में दौड़ धूप मची रहती है और अनेक तिकड़म भिडाये जाते है।ऐसी स्थिति में यदि सम्मान या पुरस्कार मिल भी जाता है तो अच्छा नही लगता ,लोगो के मन में आदर भाव नहीं रह जाता।

डॉ.भावना शुक्ल – आप अपनी विधागत रचना प्रक्रिया और रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – मैं आपको बेटी एक बात बताना चाहता हूँ कि मैंने लिखने की प्रक्रिया के विषय में कुछ भी नही सोचा, जो मन में आया लिखता चला गया।मेरे जीवन में बहुत से अनुभव है उसे मैं  में डायरी में उतार रहा हूँ।मैंने यह अनुभव किया की मैंने अपनी शक्ति भर साहित्य रच चुका हूँ और रचता जा रहा हूँ।

मै ‘अपने लोग ‘को अपना सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ ‘और जल टूटता हुआ’ को भी इसी के समकक्ष रखता हूँ।मै कहना यह चाहता हूँ मै अपने हर प्रकार के लेखन से संतुष्ट हूँ।उपन्यास और आत्मकथा भी दी साहित्य को।एक लम्बी आत्मकथा है उपन्यास के रूप में जिसमे बचपन से लेकर आज तक के समय में व्याप्त परिवेश की विविधता का चित्रण हुआ है।यह मेरी राम कहानी नही है ,यह एक सामाजिक दस्तावेज भी है।श्री लाल शुक्ल ने एक बार कहा था अरे मिश्र जी , तुम्हारी आत्मकथा तो शिक्षा जगत का इतिहास बन गई है।अगर आत्मकथा अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों की कहानी –मात्र है,तब तो वह गौण मानी जाएगी।

मैंने गीत, ग़ज़ल, छोटी कविताओं के साथ-साथ बड़ी लम्बी कवितायेँ भी लिखी है मुझे अब तड़प नहीं है कि मै यह नहीं लिख पाया वो नही लिख पाया और न ही की मै कल महान लेखक बनूँगा। मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ।और आज भी लिख रहा हूँ।

डॉ.भावना शुक्ल – आपको लेखन के कारण कोई संघर्ष करना पड़ा ?

डॉ राम दरश मिश्र – मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में लिखने के कारण संघर्ष नहीं करना पड़ा, वरन इसके विपरीत सम्मान और यश मिलता रहा। हाँ, लेखक बनने के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। शुरू के दिनों में भेजी गई कवितायेँ छपती नहीं थी। मैंने हार नहीं मानी। मेरे गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मुझसे कहा ,” तुम पान नहीं खाते हो, सिगरेट नहीं पीते हो , दूसरे खर्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, इसलिए तुम डाक खर्च करो और भेजा करो।एक दिन तुम्हारी कवितायेँ जरुर छपेंगी।” गुरुदेव की सीख मैंने शिरोधार्य कर ली ।डाक से कवितायेँ पत्रिकाओं को भेजता रहा। मेरे संघर्ष का प्रतिफल साहित्य समाज के सामने है।

डॉ भावना शुक्ल – आपने विविध विधाओं में लिखा किस विधा ने आपको बहुत आकर्षित किया  ?

डॉ राम दरश मिश्र – जी हाँ मैंने विविध विधाओं में लेखन किया है है और सभी मुझे प्रिय भी है और आकर्षित भी करती है साहित्यकार की हैसियत से, लेकिन एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही है।लेखन का प्रारंभ कविता से ही किया, उसके बाद कहानी में आया, फिर उपन्यास में आया ओए गाहे –बगाहे अनेक विधाओं में लिखा। एक बात की है रेखांकित करने की है कि बहुत से लोगों ने कविता से शुरुवात की और कथा में आकर कविता को छोड़ बैठे। जब वे लोग कहते है कि वे कविता से कहानी  में आया, तो मै कहता हूँ मै कविता के साथ आया। कविता मेरी आधोपांत चलती रही और उसके साथ कथा साहित्य भी चलता रहा।वह मुझसे बाद में जुदा लेकिन यह कविता की तरह ही प्रिय रहा। खास करके उपन्यास तो मुझे बहुत प्रिय रहा,क्योकि जो बात मै कविता –कहानी में नहीं कह सकता , वह उपन्यास में मैंने कही।जीवन को जिस समग्रता से कोई और विधा नहीं देख पता।एक बार जब मै उपन्यास में फंसा तो फंसता ही गया और लगभग ग्यारह उपन्यास आ गये। एक बात और है कि कविता मुझे प्रिय है और कविता मेरी हर विधा के साथ लगी रही। चाहे निबंध लिख रहा हूँ , चाहे कहानी लिख रहा हूँ ,चाहे मेरी आत्मकथा हो, कविता का एक जो अपना दबाव या प्रसन्न प्रभाव है ,मेरे अन्य लेखन पर भी रहा है।कविता ही ने मुझे बहुत आकर्षित किया है।

डॉ.भावना शुक्ल – नवोदित रचनाकारों  को आप कुछ मार्गदर्शन करेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – मार्गदर्शन तो दो तरह से होता है। एक तो यह कि आप जो लिख रहे हैं ,वह अपने समय के साथ हो और आने वाली पीढ़ियों को  महसूस हो कि आज के लेखन का यह सही स्वरुप हो सकता है। यानी कि वे आपके साहित्य को पढ़कर मार्ग पाएँ।और इस सन्दर्भ में एक बात बड़े महत्त्व की है। आपकी सर्जना और आपके विचार ऐसे हो जो नई पीढ़ियों को किसी तरह बांधते नहीं हों। ऐसा न हो कि आप उन्हें एक ख़ास विचार धारा में, एक ख़ास तरह के शिल्प में जकड दें और वे उसी जकडबंदी में मुबतला होकर अपना रचना कार्य करते रहें।

दूसरा रास्ता यह होता है कि नए लेखक आपसे मिलें। अपनी रचनाएं दिखाएँ आपको। आप अपनी रचना का सही-सही आकलन करके उनको उनकी शक्ति और अशक्ति की पहचान कराएँ। या उनकी रचना के प्रकाशन और प्रचार के लिए यथा संभव कुछ करें। मेरे पास जो भी नवोदित  आते है मै उन्हें खुले मन से सुनता हूँ उन्हें मार्गदर्शन करता हूँ।बस मै एक बात और कहना चाहता हूँ जितना पढोगे उतना ही लेखन निखरेगा।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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