हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 28 ☆ होरी खेलें ……… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की होली के रंग में सराबोर भगवान् श्रीकृष्ण जी पर आधारित बृजभाषा में रचित दो भावपूर्ण रचनाएँ  “होरी खेलें ………”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 28 ☆

☆ होरी खेलें ………  ☆

मोरो मोहन रँग रंगीलो

बहियाँ पकरि जबरन रँग डारे, ऐसो श्याम छबीलो

छाय रही छवि छटा छबीली, केसर घोलो पीलो

हिल मिल खें सब सखियाँ आई, करें कृष्ण को गीलो

कटि- लंहगा गल-माल कंचुकी, नैनन सो मटकीलो

केसर कीच कपोलन दीनी, रसिया रँग रसीलो

चरण शरण “संतोष”आपकी, जग को तजा कबीलो

 

होरी खेलें कृष्ण मुरारी

राधा के संग रास रचा कर, विंहसे विपिन विहारी

लाल गुलाल गाल पै चुपरत, रँगी चुनरिया सारी

कृष्ण रँग में रँगी सुरतिया, लगती कारी कारी

तरह तरह के इतर सुहाए, चली प्रेम पिचकारी

फूलों के रँग खूबै बरसें, बहके सब नर नारी

मन “संतोष” हिया अनुरागी, कर कर के जयकारी

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ संत गाडगे महाराज जयंती विशेष ☆ देवदूत ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव सामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है संत गाडगे महाराज  की जयंती के अवसर पर आधारित आपकी एक भावप्रवण कविता देवदूत )

 ☆  देवदूत ☆

(फेब्रुवारी २३, १८७६ – २० डिसेंबर इ.स. १९५६)

चिंध्या पांघरोनी बाबा

धरी मस्तकी गाडगे

डेबुजी या बालकाने

दिले स्वच्छतेचे धडे. . . . !

 

विदर्भात कोते गावी

जन्मा आली ही विभूती.

हाती खराटा घेऊन

स्वच्छ केली रे विकृती. . . !

 

वसा लोकजागृतीचा

केला समाज साक्षर

श्रमदान करूनीया

केला ज्ञानाचा जागर.

 

झाडूनीया माणसाला

स्वच्छ केले  अंतर्मन.

धर्मशाळा गावोगावी

दिले तन, मन, धन. . . . !

 

देहश्रम पराकाष्ठा

समतेची दिली जोड

संत अभंगाने केली

बोली माणसाची गोड.. . !

 

धर्म, वर्ण, नाही भेद

सदा साधला संवाद

घरी दारी, मनोमनी

गोपालाचा केला नाद. . . !

 

स्वतः कष्ट करूनीया

सोपी केली पायवाट

संत गाडगे बाबांचा

वर्णीयेला कर्मघाट .. . . !

 

असा देवदूत जनी

मन ठेवतो निर्मळ

त्यांच्या आठवात आहे

प्रबोधन परीमल.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 16 ☆ कविता – समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 16 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

 

हेल-मेल दूभर हुए, आभासी संवाद।

चल-चित्रों -सी जिंदगी, कौन सुने फरियाद।।

 

समय नहीं खुद के लिए,भाग रही है छाँव।

बूढ़ा बरगद खोजता, फिरता अपना गाँव।।

 

चीजों में सुख भर गया, कहाँ किसी से प्रेम।

मुखमण्डल में जड़ गए, अनगिन सुंदर फ्रेम।।

 

घर-घर बगुला भगत हैं, शतरंजी हैं चाल।

अपने अपने राग हैं, अपनी-अपनी ढाल।।

 

बचपन बीता खेल में, हुई जवानी स्वप्न।

आज बुढ़ापा खोजता, अपने प्यारे रत्न।।

 

कौन किसी के साथ है, क्या है किसके हाथ।

देख बावरे स्वयं को, लिखा बहुत कुछ माथ।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “गांधी जी आज भी बोलते हैं ”।  अपनी बेहतरीन  व्यंग्य  शैली के माध्यम से श्री विवेक रंजन जी सांकेतिक रूप से वह सब कह देते हैं जिसे पाठक समझ जाते हैं और सदैव सकारात्मक रूप से लेते हैं ।  श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 36 ☆ 

☆ व्यंग्य – गांधी जी आज भी बोलते हैं  ☆

साहब की कुर्सी के पीछे गांधीजी दुशाला ओढ़े लगे हुए हैं। साहब कुछ वैचारिक किस्म के आदमी हैं। वे अकेले में गांधी जी से मन ही मन  बिन बोले बातें करते हैं। गांधीजी उनसे बोलते हैं कि  सारी योजनाएं तभी कारगर  होंगी जब उनके केंद्र में  कतार की पंक्ति में खड़ा अंतिम आदमी ही पहला व्यक्ति होगा। इसलिए साहब अक्सर लाभ पहुंचाते समय कतार के पहले व्यक्ति की उपेक्षा कर अंतिम व्यक्ति को भी,  जो गांधी जी के साथ आता है सबसे पहले खड़ा कर लेते हैं।

साहब की आल्मारियो से फाइलें तभी बाहर आती हैं जब अकेले में वे उनके विषय  में  गांधी जी से पूरी बातें कर लेते हैं। उनके पास गांधीजी गड्डी में आते हैं। गांधी जी साहब की लाठी हैं। गांधीजी के बिना साहब फाइल को  लाठी से हकाल देते हैं। वे गांधीजी के इतने भक्त हैं कि गांधीजी की संख्या साहब के कलम की दिशा पलट देती है। वे गांधी जी के सो जाने के बाद ही साहब क्वचित नशा करते हैं। वे गांधीजी  के नोट पर छपे हर चित्र की सुरक्षा बहुत जतन से करते हैं। साहब ने एक बकरी भी गांधीजी की ही तरह पाली हुई है। यदि उन्हें किसी की कोई सलाह पसंद नहींं आती तो वे बकरी  को घास खिलाने चले जाते हैं और इस तरह विवाद होने से बच जाता  है। स्वयम ही अगली बार समझदार व्यक्ति बकरी के लिए पर्याप्त घास लेकर साहब के पास पहुंचता है। साहब उसके साथ गड्डी में आये हुए गांधी जी से एकांत में चर्चा करतेे हैं। और गांधीजी का संकेत मिलते ही  व्यक्ति का काम सुगमता से कर देते हैं। बकरी निमियाने लगती है।

इसलिए मेरा मानना है कि गांधी जी आज भी बराबर बोलते हैं, उन्हें गुनने, सुनने औऱ समझने वाले की ही आवश्यकता है। जन्म के 150 वे वर्ष में हम सब को गांधी जी को पुनः पढ़ना समझना आचरण में उतारने की जरूरत है बस।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 8 ☆ अघोषित युद्ध ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “अघोषित युद्ध।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।  इस सन्दर्भ में मैं अपनी दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा-

अब ना किताबघर रहे ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई

सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 8 ☆

☆ अघोषित युद्ध

कहते हैं जहाँ एक ओर बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा होता है तो वहीं दूसरी ओर चिड़चिड़ापन  चटनी के समान तीखा व चटपटा होता है, जो क्रोध को और लाग लपेट के साथ प्रस्तुत करता है । चिड़चिड़ा व्यक्ति क्या बोलता है ये समझ ही नहीं  पाता, उसके दिमाग में बस बदला लेने की प्रवत्ति ही छायी रहती है । वो मारपीट, समान तोड़ना, पुरानी बातों को याद करना, अपना माथा पीटना ऐसी हरकतों पर उतारू हो जाता है । ऐसी दशा में चेहरे का हुलिया बिगड़ जाता है  क्योंकि जब भी किसी को गुस्सा आता है तो चेहरा व आँखे लाल हो जाती है।  मन ही मन बैर पाल लेने की परंपरा बहुत पुरानी है । महाभारत युद्ध भी इसी का परिणाम था। खैर अब तो इलेक्ट्रॉनिक युग है सो बात-बात पर ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप इन पर कोई भी पोस्ट आयी नहीं कि दो खेमे तैयार एक पक्ष में माहौल बनाता है तो दूसरा विपक्ष में । बस इसी के साथ अनर्गल बात चीत का दौर शुरू हो जाता है । अब गुस्से में व्यक्ति अधिक से अधिक क्या कर सकता है बस अनफॉलो, अनफ्रेंड, रिमूव इनके अतिरिक्त और कोई इजाजत यहाँ नहीं होती ।

यकीन मानिए कि  ये सब करते हुए बहुत सुकून मिलता है दूसरे शब्दों में कहूँ तो राजा जैसी फीलिंग आती है । जिस तरह पुराने समय में बदला लेने के लिए युद्ध होते थे वैसे ही यहाँ पर भी अघोषित युद्ध आये दिन चलते रहते हैं जिसमें पिसता बेचारा असहाय वर्ग ही है क्योंकि वो इन पोस्ट्स को पढ़ता है और इसी आधार पर आपस में ज्ञान बाँटने लगता है ।

वीडियो, भड़काऊ पोस्ट, ज्ञान दर्शन की बातें ये सब खजाना खुला पड़ा है  सोशल मीडिया पर ;  बस यहाँ से वहाँ फॉरवर्ड करिए और दूसरों की नजरों में भले ही आप बैकवर्ड हो पर स्वयं की नजर में तो फॉरवर्ड घोषित हो ही जाते हैं । मजे की बात इन बातों का  प्रभाव भी दूरगामी होता है ; मन ही मन खिचड़ी पकने लगती और हमारे क्रियाकलाप उसी तरह हो जाते हैं जो सामने वाला चाहता है । भटकाव के इस दौर में जो लोग साहित्य को दर्पण मान  पुस्तक में डूब जाते हैं उनकी जीवन नैया तो संगम के पार उतर जाती है बाकी के लोगों को राम ही राखे ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 38 – बेशर्म ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेशर्म । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #38 ☆

☆ लघुकथा – बेशर्म ☆

 

“बेटी ! इसे माफ़ कर दे. आखिर तुम दोनों के पिता तो एक ही है.”

“माँ ! आप इसे माफ़ कर सकती हैं क्यों की आप सौतेली ही सही. मगर माँ हो. मगर, मैं नहीं। जानती हो माँ क्यों?”

अनीता अपना आवेश रोक नहीं पाई, “क्योंकि यह उस वक्त भाग गया था, जब आप को और मुझे इस की सब से ज्यादा जरूरत थी. उस वक्त आप दूसरों के घर काम कर के मुझे पढ़ा लिखा रही थी. आज जब मेरी नौकरी लग गई है तो ये घर आ गया.”

“यह अपने किए पर शर्मिंदा है.”

“माँ ! पहले यह हम से बचने के लिए ससुराल भाग गया था और अब वहाँ की जीतोड़ खेतीबाड़ी से बचने के लिए यहाँ आ गया. यह मुफ्तखोर है. इसे सौतेली माँ बहन का प्यार नहीं, मेरी नौकरी खीच कर लाई है.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 36 – आठवण ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “आठवण ”। अक्सर जीवन के भागदौड़ में  कई बार हम किसी  कथन के पीछे छिपे एहसास को समझ नहीं पाते । किन्तु, यह कविता पढ़ कर आप निश्चित ही विचार करेंगे, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है ।) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #36☆ 

☆ आठवण ☆ 

माझी माय मला नेहमी

म्हणते की..

तू ना तुझ्या बा सारखाच दिसतोस

तोंड नाक डोळे सगळ कस …

बा सारखंच..,

बोलणं सुध्दा

मला प्रश्न पडतो…

मी खरच बा सारखा दिसतो

का मायेला बा ची आठवण येते..,

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 37 – भीतर का बसन्त सुरभित हो………☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती एक विचारणीय कविता  “भीतर का बसन्त सुरभित हो………। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 37 ☆

☆ भीतर का बसन्त सुरभित हो……… ☆  

 

स्वयं हुए पतझड़, बातें बसन्त की करते

ऐसा लगता है-

अंतिम पल में ज्यों, दीपक कुछ अधिक

चमकता है।

 

ऋतुएं तो आती-जाती है

क्रम से अपने

पर पागल मन देखा करता

झूठे सपने,

पहिन फरेबी विविध मुखौटे

खुद को ठगता है।

ऐसा लगता है…….

 

बचपन औ’ यौवन तो

एक बार ही आये

किन्तु बुढापा अंतिम क्षण तक

साथ निभाये,

साथ छोड़कर, मन अतीत में

व्यर्थ भटकता है।

ऐसा लगता है……….

 

स्वीकारें अपनी वय को

मन और प्राण से

क्यों भागें डरकर

हम अपने वर्तमान से

यौवन के भ्रम में जो मुंह का

थूक निगलता है

ऐसा लगता है……….

 

भीतर का बसन्त

सुरभित हो जब मुस्काये

सुख,-दुख में मन

समरसता के गीत सुनाए,

आचरणों में जहाँ शील,

सच औ’ शुचिता है।

तब ऐसा लगता है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 39 – त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनके चौदह वर्ष की आयु से प्रारम्भ साहित्यिक यात्रा के दौरान उनके साहित्य  के   ‘वाङमय चौर्य’  के  कटु अनुभव पर आधारित एक विचारणीय आलेख “त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……….  सुश्री प्रभा जी  का यह आलेख इसलिए भी विचारणीय है, क्योंकि  हमारी समवयस्क पीढ़ी को साहित्यिक चोरी का पता काफी देर से चलता था जबकि सोशल मीडिया के इस जमाने में चोरी बड़ी आसानी से और जल्दी ही पकड़ ली जाती है। किन्तु, शब्दों और विचारों के हेर फेर के बाद  ‘वाङमय चौर्य’  के  अनुभव को आप क्या कहेंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  इस अतिसुन्दर  एवं विचारणीय आलेख के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 39 ☆

☆  त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……… ☆ 

वयाच्या तेरा चौदाव्या वर्षी कविता माझ्या आयुष्यात आली. शाळेत असताना हस्तलिखिताच्या निमित्ताने!

विसाव्या वर्षा नंतर कविता थांबेल असं मला वाटलं होतं, पण काही  वर्षे थांबल्या नंतर….कवितेच्या पुन्हा प्रेमात पडले, कवितेला व्यासपीठ मिळालं, अनेक ग्रुप मिळाले,  एका ग्रुप मधल्या बारा तेरा वर्षांनी मोठ्या असलेल्या कवयित्री बरोबर मैत्री झाली. आमची घरे जवळ असल्यामुळे  एकमेकींच्या घरी जाणं, कविसंमेलनात एकत्र सहभागी होणं, रिक्षा शेअर करणं यामुळे मैत्री वाढली, पण काही वर्षापासून असा शोध लागला की त्या कवयित्री कडे स्वतःची चांगली कविता नाही, ती सादर करत असलेल्या, दाद घेणा-या सर्व कविता मान्यवर कवींच्या चोरलेल्या कविता आहेत, हल्ली फेसबुक, व्हाटस् अॅप मुळे तिच्या चो-या उघडकीस आल्या, तिने त्या त्या कवींची माफीही मागितली पण निर्ढावलेपण अंगी मुरलेलं, वयाची पंचाहत्तरी उलटून गेली तरी व्यासपीठावर कविता सादर करण्याची इच्छा, दुस-यांच्या कविता वाचून दाद, मोठेपणा मिळवायची सवय लागलेली, कवयित्री म्हणून प्रतिमा पूर्ण डागाळलेली……पण मैत्रीच्या नात्याचं काय?

काही आयोजकांच्या मते आता तिच्या या वयात तिला वाळीत टाकणं म्हणजे तिला धक्का बसून ती कोलमडून जाईल, म्हणून वाङमय चौर्य हा गुन्हा माफ करायचा का ? थोड्या थोडक्या नव्हे वीस पंचवीस चोरलेल्या कवितांच्या आधारे सगळी कारकीर्द गाजवली! बाई उच्चशिक्षित, मराठीत एम.ए. असलेली, पण कवितेची चोर नव्हे तर अट्टल दरोडेखोर! तिला वृत्ताची जाण नाही पण अनेक वृत्तबद्ध कविता अनेक वर्षे सादर केल्या इतकंच नव्हे त्या दुस-यांच्या कविता स्वतःच्या संग्रहातही छापल्या. एका कवीने “पोलिसकेस करीन” म्हटल्यावर तिने  त्याला जाहीर माफी पत्र लिहून दिले ते फेसबुक वर प्रसिद्ध झाले!

केवढी ही शोकांतिका! असे मोह का होत असतील? तिच्या बरोबर केलेल्या अनेक मैफिली आठवल्या, तिचं खोटेपण, चोरटेपण आज लक्षात आलं!

कवयित्री म्हणून ती निश्चितच बाद झाली पण मैत्री चं काय?? त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार असलेली पण सतत काव्यक्षेत्रात दुस्वास करणारी, कुरघोडी करू पहाणारी ती……एक प्रश्नचिन्ह बनूनच राहिली आहे!

तिने मुक्तपणे माळली, दुस-याच्या बागेतली

सुंदर सुंदर फुले स्वतःच्या केसात…

आणि मिरवली

गंध स्वतःच्याच मालकीचा असल्याच्या तो-यात,

ती फुलं ही दुस-याची आणि गंधही परकाच असल्याचं समजलं सगळ्यांना

आणि बागेतल्या सा-याच फुलांनी केला  उठाव…..

तिची लूट थोपवण्यासाठी…

कवितेचे कित्येक ताटवे…   परतताहेत आता…

आपापल्या मालकांकडे  !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 18– महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी”

☆ गांधी चर्चा # 18 – महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी

अक्सर यह प्रश्न उठता रहता है कि क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? गांधी जी ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना में पंडित नेहरू को क्यों अधिक पसंद किया? अनेक बार तो यह वाद विवाद  शालीनता की समस्त मर्यादाओं को पीछे छोड़ अत्याधिक कटु हो जाता है। पंडित नेहरू  ने अपनी आत्मकथा में इन विवादों पर कोई खास टिप्पणियाँ नहीं की हैं। गांधीजी के अन्य  प्रशंसकों, जिनकी लिखी पुस्तके पढ़ने का अवसर मुझे मिला उसमे भी इन विवादों पर कोई टीका टिप्पणी करने से परहेज किया गया है। कहते हैं कि गांधी वाङ्मय में भगत सिंह की फाँसी रोकने हेतु  महात्मा गांधी द्वारा वाइसराय  को  23 मार्च 1931 को  लिखा गया पत्र व वाइसराय  द्वारा  दिया गया उत्तर आदि संकलित हैं पर मैंने   गांधी वाङ्मय नही पढ़ा है।

यह सत्य है की गांधीजी व क्रांतिकारियों के मध्य स्वतंत्रता प्राप्ति के साधनों को लेकर गहरे मतभेद थे। काँग्रेस भी गांधीजी के भारत  आगमन से पहले ही गरम दल व नरम दल में बटी हुई थी। गरम दल का नेतृत्व लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक व विपिन चन्द्र पाल करते थे।  इनकी जोड़ी लाल बाल पाल के नाम से विख्यात है। गांधीजी के राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले नरम दल के थे व अंग्रेजों के प्रति  उग्रता के हिमायती नही थे। गांधीजी का काँग्रेस के अंदर गरम दल वालों से भी वैचारिक मतभेद था। जब कभी काँग्रेस के अधिवेशनों में हिंसा को लेकर चर्चा हुई या प्रस्ताव लाये गए गांधीजी और उनके समर्थकों ने सदैव उनका विरोध किया। प्राय: गरम दल के नेताओं द्वारा इस संबंध में लाये गए प्रस्ताव बहुत कम  मतों से गिर गए। इन सब वैचारिक मतभेदों के बाद भी दोनों पक्षों के नेताओं में एक दूसरे के प्रति प्रेम, आदर व सम्मान का भाव सदैव बना रहा।

23 दिसंबर 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तंभ वाइसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। गांधी जी ने इस कृत्य की कठोर निंदा की व यंग इंडिया में एक लेख ” बम की पूजा” प्रकाशित किया। इसका जबाब ‘ हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा’ की ओर से  26 जनवरी 1930 को एक पर्चे के माध्यम से  दिया गया जिसे भगवती चरण वोहरा ने लिखा  भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। इस लेख में  कथन है कि ” सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह । उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक व नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास रखता है। देश को केवल क्रांति से ही स्वतंत्रता मिल सकती है। तरुण पीढ़ी मानसिक गुलामी व धार्मिक रुढिवादी बंधनों से मुक्ती चाहती है, तरुणों की इस बैचेनी में क्रांतिकारी प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। गांधीजी सोचते हैं कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नही गई है और अहिंसा उनका राजनैतिक शस्त्र बन गया है। गांधीजी घोषणा करते हैं की अहिंसा के सामर्थ्य से वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर देंगे। देश में ऐसे लोग भी होंगे जिन्हे काँग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं , इससे वे कुछ आशा भी नही करते । यदि गांधी जी  क्रांतिकारियों  को उस श्रेणी में गिनते है तो वे उसके साथ अन्याय करते हैं।” इस प्रकार क्रांतिकारी   गांधीजी के साधन का विरोध करते थे, उनके विचारों में गांधीजी के अपमान की बात कतई नहीं दीखती।

सरदार भगत सिंह ने अपनी फाँसी के कुछ दिन पहले ही अपने नवयुवक राजनैतिक कार्यकर्ताओं को  02 फरवरी 1931 को एक पत्र लिखा था। अपने साथियों से वे कहते हैं कि ” इस समय हमारा आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुजर रहा है। गोलमेज़ कान्फ्रेन्स के बाद काँग्रेस के नेता आंदोलन कि स्थगित कर समझौता करने को तैयार दिखाई देते है। वस्तुतः समझौता कोई हेय और निंदा योग्य वस्तु नहीं है, बल्कि वह राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। भारत की वर्तमान लड़ाई ज्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते लड़ी जा रही है , जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। देश के करोड़ों मजदूर और किसान जनता का उद्धार इतने से नही हो सकता  है। काँग्रेस के लोग क्रांति नही चाहते वे सरकार पर आर्थिक दबाब डालकर कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। हमारे दल का अंतिम लक्ष्य सोशलिस्ट समाज की स्थापना करना है। जब लाहौर काँग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता  का प्रस्ताव पास किया तो हम लोग इसे पूरे दिल से चाहते थे। परंतु काँग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि समझौते का दरवाजा अभी खुला है। इसका अर्थ है कि  उनकी लड़ाई का अंत इसी प्रकार किसी समझौते से होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा नही  कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते है। मैं आतंकवादी नही हूँ। मैं एक क्रांतिकारी हूँ।  फाँसी की काल कोठरी में पड़े रहने पर भी मेरे विचारों में कोई परिवर्तन नही आया है पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम  से कोई लाभ प्राप्त नही कर सकते हैं। केवल बम फेकना ना सिर्फ व्यर्थ है अपितु बहुत बार हानिकारक भी है।”  इस प्रकार सरदार भगत सिंह ने भी गांधीजी के प्रति अपने सम्मान को कभी कम न होने दिया। गांधीजी ने भी जनमत का मान रखते हुये अपने सिद्धांतों के विपरीत वाइसराय को पत्र लिखकर भगत सिंह की फाँसी रोकने का अनुरोध किया। हाँ यह अनुरोध पत्र बहुत जोरदार भाषा में न था केवल विनय से युक्त था। आज जब 29 सितंबर 2017 को यह सब मैं लिख रहा हूँ तो उसके एक दिन पहले ही 28 सितंबर 1907 को जन्मे अमर शहीद भगत सिंह का 111वाँ जन्म दिन था। मेरा उन्हे शत शत नमन। उन अमर क्रांतिकारी शहीदों को भी नमन जिन्होने देश के लिए बलिदान दिया और हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये। गांधीजी पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने सरदार भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। मैं पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि इस सम्बन्ध में वे श्रीमती सुजाता चौधरी की पुस्तक “ राष्ट्रपिता और भगत सिंह “ अवश्य पढ़े। इसमें सुजाताजी ने विस्तार से यह सिद्ध किया है कि भगत सिंह की फांसी अंग्रेज टालना नहीं चाहते थे और भगत सिंह के प्रति जनता की भावना को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने यह चाल चली कि अगर महात्मा गांधी कहेंगे तो भगत सिंह की फांसी रोक दी जायेगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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