हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ ईमानदार ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय लघुकथा   “ईमानदारी ”.)

☆ लघुकथा – ईमानदारी 

किराने का सामान लेकर प्रशांत घर पहुंचा । उसकी आदत किराने के बिल को चेक करने की थी। बिल चेक करने पर उसे समझ में  आया कि दुकानदार ने उसे सौ रुपये ज्यादा वापस कर दिए हैं।

दूसरे दिन कार्यालय से लौटते समय दुकानदार को  रुपये वापस लौटाते हुए उसने कहा – “कल किराना के बिल में आपने मुझे सौ रुपये ज्यादा दे दिये थे, ये वापस लीजिये।”

दुकानदार ने सौ रुपये रखते हुए कहा – “अरे, आप तो ज्यादा ही ईमानदार बन रहे हैं। आजकल कौन इतना ध्यान देता है कि सौ रुपये ज्यादा दे दिये या कम।”

उसकी इस ठंडी प्रतिक्रिया से प्रशांत का मन आहत हो गया। उसे लगा था कि दुकानदार उसकी ईमानदारी पर धन्यवाद देते हुए उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहेगा किंतु, उसकी आंखों को देखकर ऐसा लगा जैसे वह कह रहा हो बेवकूफ, ज्यादा ही ईमानदार बनता है।

एक क्षण को उसे महसूस हुआ जैसे उसने सौ रुपये लौटाकर कोई गुनाह किया हो, किंतु उसके अंतर्मन ने कहा – ‘तुमने रुपये लौटाकर  अपना फर्ज अदा किया है। सब बेईमान हो जायेंगे तो क्या तुम भी बेईमान हो जाओगे? हरगिज नहीं।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 36 – पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है आपकी एक सामयिक एवं भावपूर्ण कविता  “पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 36 ☆ 

 ☆ पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे

हाल माझ्या देशाचे हे पाहाल का राजे।

पुन्हा एकदा फिरूनिया याल का हो राजे।।धृ।।

न्याय निती शिस्त सारी मोडीत निघाली।

गल्लोगल्ली लांडग्यांची झुंडशाही आली।

मोकाट या श्वापदांना थांबवा ना राजे।।१।।

 

परस्री मातेसम ही प्रथा बंद झाली।

रोज नव्या बालिकांची होळी सुरू झाली।

अभयचे दान आम्हा द्याल ना हो राजे।।२।।

 

मद्य धुंद दाणवांनी आळी माजली हो।

सत्ता पिपासूंनी त्यात पोळी भाजली हो।

घडी पुन्हा राज्याची या बसवा ना राजे।।३।।

 

जिजाऊंच्या गोष्टी आज विसरून गेल्या।

रोज नव्या मालिकात माताजी रंगल्या।

संस्कारांचे बाळकडू  पाजाल का राजे ।।३।।

 

आवर्षण महापूर  संकटांची माला।

सावकारी फासात या बळी अडकला।

फासातून मान त्याची सोडवा ना राजे।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35 ☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक भावपूर्ण कविता “चौगड्डे के सिग्नल से ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 35

☆ कविता – चौगड्डे के सिग्नल से   

ओलम्पिया के सामने

पोल पर बैठा कौआ

अपने छोटे बच्चे को

दाना चुगने का गुर

बार बार सिखा रहा है

नीचे से करोड़ों की

कारें भी गुजर रहीं हैं

दिन डूबने के पहले

ऊपर से उड़नखटोलों

की भागदौड़ मची है

ओलम्पिया के चौगड्डे में

खूब हबड़ धबड़ मची है

ऊपरी मंजिल से लोग

झांक झांक कर कौए

को दाना न दे पाने का

खूब अफसोस कर रहे हैं

एक नये जमाने की मां

चोंच में दाना डालने के

तरीके भी सीख रही है

जीवन इतना सुंदर है

देखकर खुश हो रही है

 

     * चौगड्डे  ->चौराहे 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #38 – मुखिया मुख सो चाहिये ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “मुखिया मुख सो चाहिये”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 38 ☆

☆ मुखिया मुख सो चाहिये

देश की आजादी से पहले स्वतंत्रता के आंदोलन हुये. आजादी पाने के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजियां लगा दी. अनेक युवा हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गये. सत्य की जीत और आजादी पाने के लिये महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, अनशन, उपवास, अहिंसा का एक सर्वथा नया मार्ग प्रशस्त किया. देश स्वतंत्र हुआ, अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. लेकिन प्रश्न है कि वह क्या कारण था कि देश का हर व्यक्ति आजादी चाहता था? उन दिनो तो शहरो में बसने वाले देश के संपन्न वर्ग के लोग आसानी से विदेशो से शिक्षा ग्रहण कर ही लेते थे, राज परिवारो, जमीदारों, अधिकारियों, उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोगो के अंग्रेजो से सानिध्य के लिये हर शहर कस्बे में क्लब थे. सुसंपन्न चाटुकार महत्वपूर्ण लोगो को रायबहादुर वगैरह के खिताब भी दिये जाते थे. गांवो की जनसंख्या तो अंग्रेजो के शासन में शहरी आबादी से कहीं ज्यादा थी और, “है अपना हिंदुस्तान कहाँ? वह बसा हमारे गांवो में”. गांवो से सत्ता का अधिकांश नाता केवल लगान लेने का ही था. संचार के साधन बहुत सीमित थे. लोगो की जीवन शैली में संतोष और समझौते की प्रवृत्ति अधिक बलवान थी, लोग संतुष्ट थे.  फिर क्यों आजादी की लड़ाई हुई ? बिना बुलाये जन सभाओ में क्यो लोग भारी संख्या में एकत्रित होते थे ? अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वह पीढ़ी आजादी क्यो पाना चाहती थी?  इसका उत्तर समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा ही है.

आजादी के रण बांकुंरो की आत्मायें यदि बोल सकती, तो वे यही कहती कि उनने एक समर्थ तथा समृद्ध भारत की परिकल्पना की थी. आजादी का निहितार्थ यही था कि एक ऐसी शासन प्रणाली लागू होगी जिसमें संस्कार होगें. सत्य की पूछ परख होगी. राम राज्य की आध्यात्मिकता जिसके अनुसार “मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक,  पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ” वाले अधिकारी होंगे.देश का संविधान बनते और लागू होते तक यह विचार प्रबल रहा तभी तो “जनता का, जनता के लिये जनता के द्वारा ” शासन हमने स्वीकारा. पर उसके बाद कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई. आजादी के बाद से देश ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया. जहाँ एक सुई तक देश में नहीं बनती थी, और हर वस्तु “मेड इन इंग्लैंड” होती थी. आज हम सारी दुनिया में “मेक इन इण्डिया” का नारा लगा पाने में सक्षम हुये हैं. हमारे वैज्ञानिको ने ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है कि हम चांद और मंगल तक पहुँच चुके हैं. अमेरिका की सिलिकान वैली की सफलता की गाथा बिना भारतीयो के संभव नहीं दिखती. पर दुखद है कि आजादी के बाद हमारे समाज का चारित्रिक अधोपतन हुआ. आम आदमी ने आजादी के उत्तरदायित्वो को समझने में भारी भूल की है. हमने शायद स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता लगा लिया.

सर्वमान्य सत्य है कि हमेशा से आदमी किसी न किसी डर से ही अनुशासन में रहता आया है. भगवान के डर से, अपने आप के डर से या राजा अर्थात शासन के डर से. सच ही है “भय बिन होई न प्रीति “. आजादी के बाद के दशको में वैज्ञानिक प्रगति ने भगवान के कथित डर को तर्क से मिटा दिया.

भौतिक सुख संसाधनो के बढ़ते माया जाल ने लोगो को संतुष्टि से “जितना चादर है उतने पैर फैलाओ” की जगह पहले पैर फैलाओ फिर उस नाप के चादर की व्यवस्था करो का पाठ सीखने के लिये विवश किया है. इस व्यवस्था के लिये साम दाम दण्ड भेद, नैतिक अनैतिक हर तरीके के इस्तेमाल से लोग अब डर नहीं रहे. “‌‌ॠणं कृत्वा घृतं पिवेत् ” वाली अर्थव्यवस्था से समाज प्रेरित हुआ. राजा शासन या कानून  का डर मिट गया है क्योकि भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है, लोग रुपयो से या टेलीफोन की घंटियो के बल पर अपने काम करवा लेने की ताकत पर गुमान करने लगे हैं. जिन नेताओ को हम अपनी सरकार चलाने के लिये चुनते हैं वे हमारे ही वोटो से चुने जाने बाद हम पर ही रौब गांठने के हुनर से शक्ति संपन्न हो जाते हैं, इस कारण चुनावी राजनीति में धन व बाहुबल का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनेता सरकारी ठेकों, देश की प्राकृतिक संपदा के दोहन, सार्वजनिक संपत्तियों को अपनी बपौती मानने लगे हैं. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई क्योकि कलम से जनअधिकारो की रक्षा की अपेक्षा थी  किंतु पूंजीपतियो तथा राजनेताओ ने इसका भी अपने हित में दोहन किया है.अनेक मीडिया हाउस तटस्थ होने की जगह पार्टी विशेष   के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय हैं. आम जनता दिग्भ्रमित है हर बार चुनावो में वह पार्टी बदल बदल कर परिवर्तन की आशा करती है पर नये सिरे से ठगी जाती है.  इस तरह भय हीन समाज निरंकुश होता जा रहा है.

लेकिन सुखद बात यह है कि आज भी जनतांत्रिक मूल्यो में देश में गहरी आस्था है. हमारे देश के चुनाव विश्व के लिये उदाहरण बने हैं. इसी तरह न्यायपालिका के सम्मान की भावना भी हमारे समाज की बहुत बड़ी पूंजी है. समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना व  वर्तमान समाज में सुधार हेतु आशा की किरण कानून और उसके परिपालन के लिये उन्नत टेक्नालाजी का उपयोग ही सबसे कारगर विकल्प दिखता है. अंग्रेजो के समय के लचर राज पक्षीय पुराने कानूनो की विस्तृत विवेचना समय के साथ जरूरी हो चुकी है. नियम उपनियम,पुराने फैसलो के उदाहरण,  कण्डिकायें इतनी अधिक हो गईं है  कि नैसर्गिक न्याय भी कानून की किताबों और वकील साहब की फीस के मकड़जाल में उलझता जा रहा है. एक अदालत कुछ फैसला करती है तो उसी या उस जैसे ही प्रकरण में दूसरी अदालत कुछ और निर्णय सुनाती है. आज समय आ चुका है कि कानून सरल, बोधगम्य और स्पष्ट बनें. आम आदमी भी जिसने कानून की पढ़ाई न की हो नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उनहें समझ सके और उनका अमल करे. समाज में नियमों के परिपालन की भावना को सुढ़ृड़ किया जाना जरूरी हो चुका है.आम नागरिको के  नियमो के पालन को सुनिश्चित करने के लिये  प्राद्योगिकी व संचार तकनीक का सहारा लिया जाना उपयुक्त है. हमारी पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह रेल रिजर्वेशन में कम्प्यूटरीकरण से व्यापक परिवर्तन हुये, सुविधा बढ़ी, भ्रष्टाचार बहुत कम हुआ. वीडियो कैमरो की मदद से आज खेल के मैदान पर भी निर्णय हो रहे हैं, जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानो, कार्यालयों में और तेजी से कम्प्यूटरीकरण किया जावे, संचार तकनीक से आडियो वीडियो निगरानी बढ़ाई जावे. इस तरह न केवल अपराधो पर नियंत्रण बढ़ेगा वरन आजादी के सिपाहियो द्वारा देखी गई समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा मूर्त रूप ले सकेगी. कानून व तकनीकी निगरानी के चलते जनता, अधिकारी या नेता हर कोई मूल्य आधारित संस्कारित व्यवहार करने पर विवश होगा. धीरे धीरे यह लोगो की आदत बन जायेगी. यह आदत समाज के संस्कार बने इसके लिये शिक्षा के द्वारा लोगों के मन में भौतिक की जगह नैतिक मूल्यो की स्थाई प्रतिस्थापना की जानी जरूरी है.  जब यह सब होगा तो आम आदमी आजादी के उत्तरदायित्व समझेगा स्वनियंत्रित बनेगा,अधिकारी कर्मचारी स्वयं को जनता का सेवक समझेंगे और  नेता अनुकरणीय बनेंगे.  देश में अंतिम व्यक्ति तक सुशासन पहुंचेगा. देश में प्राकृतिक या बौद्धिक संसाधनो की कमी नहीं है, जरूरत केवल यह है कि मूल्य आधारित प्रणाली से देश के विकास को सही दिशा दी जावे. भारत समर्थ है, हमारी पीढ़ी को इसे  समृद्ध भारत में बदलने का सुअवसर समय ने दिया है, इस हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना जरूरी है. इस अवधारणा को लागू करने के लिये हमें कानून व प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 38☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘दो कवियों की कथा ’ हास्य का पुट लिए हुए एक बेहतरीन व्यंग्य है । इस व्यंग्य में  तो मानिये किसी अतृप्त कवि की आत्मा ही समा गई हो। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 38 ☆

☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा  ☆

कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।

कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।

धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’

वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘

कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।

वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’

उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘

कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’

‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘

कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’

वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘

कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’

वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’

कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’

वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘

कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘

वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’

‘ठीक है। ‘

कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।

चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘

वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘

कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘

जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’

वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘

कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘

वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘

कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘

वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘

कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘

वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘

कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #36 ☆ चिरमृतक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 36 ☆

☆ चिरमृतक ☆

-कल दिन बहुत खराब बीता।

-क्यों?

-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।

-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।

विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।

इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न! रोज चिरमृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिरमृतक या चिरजन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।

स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।

जीवन देखो, जीवन जियो।

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रातः 7.55 बजे, 4.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 23 – तिलस्म ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘तिलस्म । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 23  – विशाखा की नज़र से

☆ तिलस्म ☆

 

वो तब भी था उसके साथ जब था वह कोसों कोसों दूर

था वह दुनियाँ की किसी खुशनुमा महफ़िल में

हो रही थी जब फ़ला फ़ला बातें फ़ला फ़ला शख़्स की

तब भी भीतर छुप किसी कोनें से वह कर रहा था उससे गुफ़्तगू

 

वह हो रहा था जाहिर जो कि एक तिलस्म था

वह हिला रहा था सर पर मौन था

वह दिख रहा था दृश्य में पर अदृश्य था

सब देख रहे थे देह उसकी पर आत्मा नदारद थी

वह दिख रहा था मशरूफ़ पर अकेला था

 

वह प्रेम का एक बिंदु था

बिंदु जो कि सिलसिलेवार था

वह पहुँचा प्रकाश की गति से

प्रेमिका  के मानस में

बिंदु जो अब पूर्णविराम था

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 12 – गोविन्द ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली का विवाह हुआ, ससुराल आई, सुहागरात को नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी, कालांतर में एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जहरीली शराब पीकर पति मरा, नक्सली आतंकी हिंसा की ज्वाला ने पुत्र गौतम की बलि ले ली, पगली बिछोह की पीड़ा सह नही सकी। वह सचमुच ही पागलपन की शिकार हो दर दर भटक रही थी।  तभी अचानक घटी एक घटना ने उसका हृदय विदीर्ण कर दिया। वह दर्द तथा पीड़ा से कराह उठी। अब आगे पढ़े——-)

गोविन्द एक नाम एक व्यक्तित्व जिसकी पहचान औरों से अलग, गोरा चिट्टा रंग घुंघराले काले बाल, चेहरे पर हल्की मूछें, मोतीयों सी चमकती दंत मुक्तावली, चेहरे पे मोहक मुस्कान।  हर दुखी इंसान के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना उसे लाखों की भीड़ में अलग पहचान दिलाती थी। वह जब माँ के पेट में था, तभी उसके सैनिक पिता सन् 1965 के भारत पाक युद्ध में सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो  गये।

उन्होंने मरते मरते अपने रण कौशल से दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये।  दुश्मन की कई अग्रिम चौकियों को पूरी तरह तबाह कर दिया था।

जब तिरंगे में लिपटी उस बहादुर जवान की लाश घर आई, तो सारा गाँव जवार  उसके घर इकठ्ठा हो गया था। गोविन्द की माँ पछाड़ खाकर गिर पड़ी थी पति के शव के उपर।  उस अमर शहीद को बिदाई देने सारा क्षेत्र उमड़ पड़ा था। हर आंख नम थी, सभी ने अपनी भीगी पलकों से उस शहीद जवान को अन्तिम बिदाई दी थी।

उन आखिरी पलों में सभी  सामाजिक मिथकों को तोड़ते हुये गोविन्द की माँ ने पति के शव को मुखाग्नि दी थी।

उस समय स्थानीय प्रशासन  तथा जन प्रतिनिधियों ने भरपूर मदद का आश्वासन दे वाहवाही भी लूटी थी। लेकिन समय बीतते लोग भूलते चले गये।

उस शहीद की बेवा के साथ किये वादे को, उसको मिलने वाली सारी सरकारी सहायता नियमों कानून के मकड़जाल तथा भ्रष्टाचार के चंगुल में फंस कर रह गई।

अब वह बेवा अकेले ही मौत सी जिन्दगी का बोझ अपने सिर पर ढोने को विवश थी।  क्या करती वह, जब पति गुजरा था तो उस वक्त वह गर्भ से थी।

उन्ही विपरीत परिस्थितियों में गोविन्द नें अपनी माँ की कोख से जन्म लिया था।  उसके भविष्य को  ले उस माँ ने अपनी आँखों में बहुत सारे सुनहरे सपनें सजाये थे।  उस गरीबी में भी बडे़ अरमानों से अपने लाल को पाला था। लेकिन जब गोविन्द पांच बरस का हुआ, तभी उसकी माँ दवा के अभाव में टी बी की बीमारी से एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर  मर गई। विधाता ने अब गोविन्द के सिर से माँ का साया भी छीन लिया था।  नन्हा गोविन्द इस दुनियाँ में अकेला हो गया था।

ऐसे में उसका अगला ठिकाना बुआ का घर ही बना था। गोविन्द के प्रति उसकी बुआ के हृदय  में दया तथा करूणा का भाव था, लेकिन वह अपने पति के ब्यवहार से दुखी तथा क्षुब्ध थी, गोविन्द का बुआ के घर आना उसके फूफा को रास नही आया था। उसे ऐसा लगा जैसे उसके आने से बच्चों के प्रति उसकी माँ की ममता बट रही हो।

वह बर्दाश्त नही कर पा रहा था गोविन्द का अपने परिवार के साथ रहना। इस प्रकार दिन बीतते बीतते गोविन्द बारह बरस का हो गया।
अब घर में गोविन्द एक घरेलू नौकर बन कर रह गया था।  लेकिन वह तो किसी और ही मिट्टी का बना था।  पढ़ाई लिखाई के प्रति उसमें अदम्य इछा शक्ति तथा जिज्ञासा थी।  वह  बुआ के लड़कों को रोज तैयार हो स्कूल जाते देखता तो उसका मन भी मचल उठता स्कूल जाने के लिए। लेकिन अपने फूफा की डांट खा चुप हो जाता।  एक दिन खेल खेल में ही बुआ के बच्चों के साथ उसका झगड़ा हुआ।

उस दिन उसकी  खूब जम कर पिटाई हुई थी।  इसी कारण गोविन्द नें अपनी बुआ का घर रात के अन्धेरे में छोड़ दिया था तथा सड़कों पर भटकने के लिए मजबूर हो गया था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 13 – सीढियाँ

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 31 – महाशिवरात्रि पर्व विशेष – हिन्दू खगोल-विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  महाशिवरात्रि पर्व पर  विशेष सामायिक आलेख  “हिन्दू खगोल-विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 31☆

☆ हिन्दू खगोलविज्ञान 

ब्रह्माण्ड में ग्रहों की कोई गति और हलचल हमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं से प्रभावित करती है । हम जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति पृथ्वी पर एक वर्ष के लिए जिम्मेदार है और यदि हम इस गति को छह हिस्सों में विभाजित करते हैं तो यह वसंत, ग्रीष्मकालीन, मानसून, शरद ऋतु, पूर्व-शीतकालीन और शीतकालीन जैसे पृथ्वी पर मौसम को परिभाषित करता है । इसमें दो-दो विषुव (equinox) और अयनांत (solstice) भी सम्मलित हैं । पृथ्वी पर हमारे सौर मंडल के ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन हमेशाएक ही प्रकार का नहीं होता है क्योंकि विभिन्न ग्रहों की गति और हमारी धरती के आंदोलन की गति भिन्न भिन्न होती है । विशेष रूप से ऊर्जा के प्रवाह को जानने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में सूर्य की स्थिति, नक्षत्रों में चंद्रमा की स्थिति, चंद्रमा की तिथि, जिसकी गणना चंद्रमा के उतार चढ़ाव या शुक्ल और कृष्ण पक्षों के चक्रों से की जाती है, और अन्य कई पहलुओं को ध्यान में रखना पड़ता है । हर समय इन ऊर्जायों के सभी संयोजन समान नहीं होते हैं । कभी-कभी कुछ अच्छे होते हैं, और अन्य बुरे, और इसी तरह । आपको पता होगा ही कि सूर्य की ऊर्जा के कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है, सूर्य के बिना पृथ्वी पर कोई जीवन संभव नहीं हो सकता है । जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे वातावरण में जीवन की मूल इकाई, प्राण आयन मुख्य रूप से सूर्य से ही उत्पन्न होते हैं, और चंद्रमा के चक्र समुद्र के ज्वार- भाटा, व्यक्ति के मस्तिष्क और स्त्रियों के मासिक धर्म चक्र पर प्रभाव डालते हैं । मंगल गृह हमारी शारीरिक क्षमता और क्रोध के लिए ज़िम्मेदार होता है, और इसी तरह अन्य ग्रहों की ऊर्जा हमारे शरीर, मस्तिष्क हमारे रहन सहन और जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव डालती है ।

अयनांत अयनांत/अयनान्त (अंग्रेज़ी:सोलस्टिस) एक खगोलय घटना है जो वर्ष में दो बार घटित होती है जब सूर्य खगोलीय गोले में खगोलीय मध्य रेखा के सापेक्ष अपनी उच्चतम अथवा निम्नतम अवस्था में भ्रमण करता है । विषुव और अयनान्त मिलकर एक ऋतु का निर्माण करते हैं । इन्हें हम संक्रान्ति तथा सम्पात इन संज्ञाओं से भी जानते हैं । विभिन्न सभ्यताओं में अयनान्त को ग्रीष्मकाल और शीतकाल की शुरुआत अथवा मध्य बिन्दु माना जाता है । 21 जून को दोपहर को जब सूर्य कर्क रेखा पर सिर के ठीक ऊपर रहता है, इसे उत्तर अयनान्त या कर्क संक्रांति कहते हैं । इस समय उत्तरी गोलार्ध में सर्वाधिक लम्बे दिन होते हैं और ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्ध में इसके विपरीत सर्वाधिक छोटे दिन होते हैं और शीत ऋतु का समय होता है । मार्च और सितम्बर में जब दिन और रात्रि दोनों 12-12 घण्टों के होते हैं तब उसे विषुवदिन कहते हैं।

तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्मांड इकाइयों के कुछ संयोजनों के दौरान प्रकृति हमें एकाग्रता, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने में सहायता करती है अन्य में, हम प्रकृति के साथ स्वयं का सामंजस्य बनाकर शारीरिक रूप से अधिक आसानी से कार्य कर सकते हैं आदि आदि । तो कुछ संयोजन एक तरह का कार्य प्रारम्भ करने के लिए अच्छे होते हैं और अन्य किसी और प्रकार के कार्य के लिए । पूरे वर्ष में पाँच प्रसिद्ध रातें आती हैं जिसमें विशाल मात्रा में ब्रह्मांड की ऊर्जा पृथ्वी पर बहती है । अब यह व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस ऊर्जा को अपने आप के लिए या किसी और के लिए उसका उपयोग अच्छे तौर पर कर सकता है या दूसरों के लिए बुराई के तौर पर, जैसे कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों में किया जाता है । इसके अतरिक्त कुछ रातें ऐसी भी होती है जो 3-4 वर्षो में एक बार या 10-20 वर्षो में एक बार एवं कुछ तो सदियों में एक बार या युगों में एक बार आती हैं । ये सब हमारे सौर मंडल में उपस्थित ग्रहों, नक्षत्रों और कुछ हमारे सौर मंडल के बाहर के पिंडो आदि की सापेक्ष गति और अन्य कई कारणों से होता है ।

ये पाँच विशेष रातें पाँच महत्वपूर्ण हिन्दु पर्वों की रात्रि हैं जो महाशिवरात्रि से शुरू होती हैं और उसके पश्चात होली, जन्माष्टमी, कालरात्रि और पाँचवी और तांत्रवाद के लिए सबसे खास रात्रि वह रात्रि है जो दिवाली के पूर्व मध्यरात्रि से शुरू होती है जिसे नरक चतुर्दशी या छोटी दिवाली या काली चौदस या भूत चौदस भी कहा जाता है । अर्थात वह समय, जो दिवाली रात्रि विशेष समय पूर्व, दिवाली रात्रि या नरक चतुरादाशी रात्रि 12:00 बजे से सुबह दिवाली की सुबह ब्रह्म मुहूर्त तक होता है ।

कालरात्रि नवरात्रि समारोहों की नौ रातों के दौरान माँ कालरात्रि की परंपरागत रूप से पूजा की जाती है । विशेष रूप से नवरात्र पूजा (हिंदू प्रार्थना अनुष्ठान) का सातवां दिन उन्हें समर्पित है और उन्हें माता देवी का भयंकर रूप माना जाता है, उसकी उपस्थिति स्वयं भय का आह्वान करती है । माना जाता है कि देवी का यह रूप सभी दानव इकाइयों, भूत, आत्माओं और नकारात्मक ऊर्जाओं का विनाशक माना जाता है, जो इस रात्रि उनके आने के  स्मरण मात्र से भी भागते हैं ।

नरक चतुर्दशी यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है । मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है । विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो कर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है । इस रात्रि दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं । एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंधी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था । इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति (अर्थ : केलि, क्रीड़ा, विराम) देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे । उन्होंने जाने-अनजाने में भी कभी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए । यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आये हो क्योंकि आपके यहाँ आने का अर्थ है कि मुझे नर्क जाना होगा । आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है । पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है । दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दे । यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी । राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है । ऋषि बोले हे राजन आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणो को भोजन करवा कर उनसे अपने हुए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें । राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया । इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ । उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है । इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है । स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है । इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है ।

नरक चतुर्दशी (काली चौदस, रूप चौदस, छोटी दीवाली या नरक निवारण चतुर्दशी के रूप में भी जाना जाता है) हिंदू कैलेंडर अश्विन महीने की विक्रम संवत में और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (चौदहवें दिन) पर होती है । यह दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव का दूसरा दिन है । भूत चतुर्दशी चंद्रमा की बढ़ती अवधि के दौरान अंधकार पक्ष या कृष्ण पक्ष के 14 वें दिन पर हर बंगाली परिवार में मनाया जाता है और यह पूर्णिमा की रात्रि से पहले होता है । यह सामान्य रूप से अश्विन या कार्तिक के महीने में 14 दिन या चतुर्दशी पर होता है ।

ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय के डेढ़ घण्टा पहले का मुहूर्त, ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है । सही-सही कहा जाय तो सूर्योदय के 2 मुहूर्त पहले, या सूर्योदय के 4 घटिका पहले का मुहूर्त । 1 मुहूर्त की अवधि 48 मिनट होती है । अतः सूर्योदय के 96 मिनट पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त होता है । इस समय संपूर्ण वातावरण शांतिमय और निर्मल होता है । देवी-देवता इस काल में विचरण कर रहे होते हैं । सत्व गुणों की प्रधानता रहती है । प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है । जल्दी उठने में सौंदर्य, बल, विद्या और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । यह समय ग्रंथ रचना के लिए उत्तम माना गया है । वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायुमंडल प्रदूषणरहित होता है । इसी समय वायुमंडल में ऑक्सीजन (प्राणवायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है । शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है । ऐसे समय में शहर की सफाई निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है । ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है । यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है, क्योंकि रात्रि को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है । सुबह ऑक्सिजन का स्तर भी ज्यादा होता है जो मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा प्रदान करता है जिसके चलते अध्ययन बातें स्मृति कोष में आसानी से चली जाती है ।

अगर हम बारीकी से विश्लेषण करे, महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुन के महीने में आता है ।

फाल्गुन हिंदू कैलेंडर का एक महीना है । भारत के राष्ट्रीय नागरिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष का बारहवां महीना है, और ग्रेगोरियन कैलेंडर में फरवरी/मार्च के साथ मेल खाता है । चंद्र-सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन वर्ष के एक ही समय में नए चंद्रमा या पूर्णिमा पर शुरू हो सकता है, और वर्ष का बारहवां महीना होता है । हालांकि, गुजरात में, कार्तिक वर्ष का पहला महीना है, और इसलिए फाल्गुन गुजरातियों के लिए पाँचवें महीने के रूप में आता है । होली (15वी तिथि या पूर्णिमा शुक्ल पक्ष फाल्गुन) और महाशिवरात्रि (14वी तिथि कृष्ण पक्ष फाल्गुन) की छुट्टियां इस महीने में मनाई जाती हैं । सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है, और सौर वर्ष, या वसंत का बारहवां महीना होता है । यह वह समय है जब भारत में बहुत गर्म या ठंडा मौसम नहीं होताहै ।

महा शिवरात्रि कृष्णपक्ष की 14वीं तिथि या चंद्रमा के घटने के चक्र में चौदवें दिन मनाया जाता है। वैज्ञानिक रूप से कृष्ण पक्ष के चंद्रमा की चतुर्दशी पर, चंद्रमा की पृथ्वी को ऊर्जा देने की क्षमता बहुत कम हो जाती है (जो की उसके अगले दिन अमावस्या को पूर्ण समाप्त हो जाती है), इसलिए मन की अभिव्यक्ति भी कम हो जाती है, एक व्यक्ति का मस्तिष्क  परेशान हो जाता है, और किसी भी विचार से कई मानसिक तनाव हो सकते हैं ।

तो अच्छे विचारों के साथ एक खाली मस्तिष्क भरने के लिए या हमारे मन पर प्रक्षेपित चंद्रमा की ऊर्जा को नए और ताजे रूप से स्थापित करने के लिए सब को महा शिवरात्रि पर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । महा शिवरात्रि से पहले, सूर्य देव (सूर्य के देवता), भी उत्तरायण तक पहुँच चुके होते हैं अर्थात यह मौसम बदलने का समय भी होता है ।

उत्तरायण सूर्य की एक दशा है । ‘उत्तरायण’ (= उत्तर + अयन) का शाब्दिक अर्थ है – ‘उत्तर में गमन’ । दिन के समय सूर्य के उच्चतम बिंदु को यदि दैनिक तौर पर देखा जाये तो वह बिंदु हर दिन उत्तर की ओर बढ़ता हुआ दिखेगा । उत्तरायण की दशा में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे होते जाते हैं और रातें छोटी । उत्तरायण का आरंभ 21 या 22 दिसम्बर होता है । यह अंतर इसलिए है क्योंकि विषुवों के पूर्ववर्ती होने के कारण अयनकाल प्रति वर्ष 50 चाप सेकंड (arcseconds) की दर से लगातार प्रसंस्करण कर रहे हैं, यानी यह अंतर नाक्षत्रिक (sidereal) और उष्णकटिबंधीय राशि चक्रों के बीच का अंतर है । सूर्य सिद्धांत बारह राशियों में से चार की सीमाओं को चार अयनांत कालिक (solstitial) और विषुव (equinoctial) बिंदुओं से जोड़कर इस अंतर को पूरा करता है । यह दशा 21 जून तक रहती है । उसके बाद पुनः दिन छोटे और रात्रि लम्बी होती जाती है । उत्तरायण का पूरक दक्षिणायन है, यानी नाक्षत्रिक राशि चक्र के अनुसार कर्क संक्रांति और मकर संक्रांति के बीच की अवधि और उष्णकटिबंधीय राशि चक्र के अनुसार ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अयनांत के बीच की अवधि ।

तो यह शुभ समय होता है वसंत का स्वागत करने के लिए । वसंत जो खुशी और उत्तेजना के साथ मस्तिष्क को भरता है, महा शिवरात्रि पर भी सबसे शुभ समय ‘निशिता काल’ (अर्थ : हिंदू अर्धरात्रि का समय) है, जिसमें धरती पर सभी ग्रहों की ऊर्जा का संयोजन उनके कुंडली ग्रह की स्थिति के बावजूद पृथ्वी के सभी मानवों के लिए सकारात्मक होता है । महा शिवरात्रि पर आध्यात्मिक ऊर्जा के संयोजन की व्याख्या करने के लिए, यह फाल्गुन महीने में पड़ता है, जो कि सूर्य के स्थान परिवर्तन का समय होता है और वह उत्तरायन में प्रवेश कर चूका होता है इस समय सर्दी का मौसम समाप्त हो जाता है । फाल्गुन नाम ‘उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र’ पर आधारित है, जिसके स्वामी सूर्य देव हैं, जिसमें मोक्ष, आयुर्वेदिक दोष  वात, जाति योद्धा, गुणवत्ता स्थिर, गण मानव, दिशा पूर्व की प्रेरणा होती है । महा शिवरात्रि चंद्रमा के घटने के चक्र के 14 वें दिन पर आता है, इसके एकदम बाद अमावस्या (जिसमे चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वी पर नहीं दिखाई देता) होती है । तो चंद्रमा के घटने की 14वी तिथि वह समय होता है जब चंद्रमा के चक्र की ऊर्जा का अंतिम भाग उसकी ऊर्जा के दूसरे भाग द्वारा परिवर्तित होने वाला होता है ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 29 ☆ तेव्हा तुझी आठवण येते… ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “तेव्हा तुझी आठवण येते…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 29 ☆

☆ तेव्हा तुझी आठवण येते… ☆

 

मी रानोमाळ भटकते

दऱ्या डोंगरातून फिरते

पायवाटेवर भरगच्च बहरलेली

रानफुले खांदयांशी लगडतात

उंच उंच गवताचे पाते

गालावर टिचकी मारते

तेव्हा तुझी आठवण येते

वाऱ्याची अल्लड झुळूक

कपाळावरील बटांना

अलगद उडवते

नाजुक रंगीत फुलपाखरू

खांदयावर हात ठेवते

अलगद हृदय उलगडते

तेव्हा तुझी आठवण येते

क्षितिजापाशी सूर्य

पाऊलखुणा सोडतो

अंधारतो काळोख अन्

झोंबतो गार वारा

अंगावर येतो शहारा

तेव्हा तुझी आठवण येते

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

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