मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 23 ☆ इंगळ्यांची मंजुळा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  अपनी सासु माँ को समर्पित उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “इंगळ्यांची मंजुळा”।  कविता का प्रकार – मुक्तछंद है। श्रीमती उर्मिला जी की कवितायेँ हमारे सामजिक परिवेश को रेखांकित करती हैं। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 23 ☆

ज्या घरात आजी-आजोबा,म्हणजे सासू सासरे,दीर जावा ,नणंदा , बाळगोपळ  आहेत असं घर गोकुळच असतं.सासरे घराचा कणा असतात तर सासूबाई  आपल्या घरातल्या चालीरीती,रुढी परंपरा चढून जाण्यासाठीचा जिना असतात.

आपण जेव्हा लग्न होऊन सासरी येतो तेव्हा पतीनंतर सगळ्यात पहिली चांगली ओळख होते ती सासूबाईची. त्यांचे मुळे आपल्या खऱ्या सासरच्या  आयुष्याची सुरुवात होते. घरातल्यांची आपले कुलाचार कुल परंपरांची ओळख होते , ती केवळ आणि केवळ सासुबाईंमुळेच.अशाच माझ्या सासूबाईं त्यांचं नाव ” मंजुळा ” त्यांची ओळख मी माझ्या कवितेतून करुन देते आहे.:-

 काव्यप्रकार:-मुक्तछंद

 शीर्षक:- “‘इंगळ्यांची मंजुळा “

 

मंजुळाबाई मंजुळा, सासुबाई

माझ्या मंजुळा !

मंजुळा त्यांचं नाव अन् वडगाव

आमचं गाव !

बरं कां म्हणून त्या ” ‘वडगावच्या

इंगळ्यांची मंजुळा ” !!१!!

 

गोरा गोमटा रंग त्यांचा ,

ठेंगणा ठुसका बांधा !

त्या होत्या आमच्या घराण्याचा

सांधा !!२!!

 

गोड गोड खायची सवय त्यांना

भारी !

लग्नकार्यात उठून दिसे

त्यांची भारदस्त स्वारी  !!३!

 

शिक्षणात होत्या अडाणी,

पण होत्या अगदी तोंडपाठ

त्यांच्या आरत्या अन् गाणी  !!४!!

 

जरब होती बोलण्यात,

रुबाब होता वागण्यात!

पण खूप खूप माया होती त्यांच्या

अंतरंगात  !!५!!

 

 

अहेवपणी मोठ्ठ कुंकू कपाळावर

शोभे छान !

गावातल्या साऱ्याजणी द्यायच्या

त्यांना मान !

पाणीदार मोत्यांची नथ शोभे

त्यांच्या नाकात !

नवऱ्यासह सारेजण असायचे

त्यांच्या धाकात  !!६!!

 

म्हणायच्या त्या नेहमी !…..

डझनभर माझ्या नातींचा

अभिमान लयी भारी !

सुंदर माझ्या चिमण्या घेतील

पटापट भरारी !

अशा माझ्या सासुबाई वाटायच्या

खूप करारी !

पण होती आम्हांवर त्यांची मायेची

पाखर सारी !!

त्यांची मायेची पाखर सारी !!

त्यांची मायेची पाखर सारी !!७!!

 

©️®️उर्मिला इंगळे

 

दिनांक:-१८-२-२०२०

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 35 ☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “तृष्णाएं–दु:खों का कारण”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख में  महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 35☆

☆ तृष्णाएं–दु:खों का कारण 

किसी को हरा देना बेहद आसान है, परंतु किसी को जीतना बेहद मुश्किल है। तुम किसी को बुरा-भला कह कर, उसे नीचा दिखला कर, गाली-गलौच कर, उसे शारीरिक व मानसिक रूप से आहत व पराजित कर सकते हो, परंतु उस के अंतर्मन पर विजय प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। ‘वास्तव में यदि तुम किसी का अनादर करते हो, तो वह खुद का अनादर है’… ऋषि अंगिरा का यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु अहंनिष्ठ बावरा मन इतराता है कि वह किसी पर क्रोध दरशा कर,  ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर  बड़ा बन गया है। वास्तव में इससे आपकी प्रतिष्ठा का हनन होता है, आपका मान-सम्मान दांव पर लगता है, दूसरे का नहीं… यदि वह मौन रहकर आपकी बदमिजाज़ी व आरोपों व को सहन करता है। इसलिए मनुष्य को दूसरे का अनादर करने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह अपना अनादर करने जा रहा है। लोग दूसरे को नहीं, आपको बुरा-भला कह कर आपकी निंदा करेंगे। ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ अर्थात् आधी भरी हुई गागर छलकती है, शोर करती है और पूरी भरी हुई शांत रहती है, क्योंकि  उसमें स्पेस नहीं रहता।

सो! जीवन में जितनी तृष्णाएं होंगी, उतने छेद होंगे। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘तृष्णा में छेद ही छेद हैं ज़िंदगी भर भरते हुए मालूम पड़ता है कि इस स्थिति में हाथ कुछ नहीं आता।’ यदि आप गागर में कुएं से जल भरते हैं, तो छेद होने के कारण वह बाहर आते-आते खाली हो जाती है और कुएं में शोर मचता रहता है। परंतु उसके हाथ कुछ नहीं लगता। इसी प्रकार मानव आजीवन तृष्णाओं के भंवर से बाहर नहीं आ सकता, क्योंकि यह मानव को एक पल भी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म लेती है। सो! मानव को चिंतन करने का समय प्राप्त ही नहीं होता और न ही वह इस तथ्य से अवगत हो पाता है कि उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? वह क्यों आया है, इस जगत् में? उम्र भर वह स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से बाहर नहीं आ पाता। मनुष्य सदैव इसी भ्रम में जीता है कि वह सर्वश्रेष्ठ है और वह कभी गलती कर भी नहीं सकता।

‘विश्व रूपी वृक्ष के अमृत समान दो फल हैं… सरस प्रिय वचन व सज्जनों की संगति’…चाणक्य की उक्त युक्ति चिंतनीय है, माननीय है, विचारणीय है। अहंनिष्ठ, आत्मकेंद्रित व क्रोधी मानव सज्जनों की संगति नहीं करता…क्योंकि उसे तो सबमें दोष ही दोष नज़र आते हैं। सो! मधुर व प्रिय वचन बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। क्रोधी व्यक्ति हर समय आग-बबूला रहता है तथा सदैव कटु वचनों का प्रयोग करना उसकी नियति बन जाती है। सरस व  प्रिय वचन तो वही बोलेगा, जो विनम्र होगा, ज़मीन से जुड़ा होगा, सत्य के निकट होगा, अच्छाई-बुराई से परिचित होगा, क्योंकि पके हुए फल जिस वृक्ष पर लगते हैं, वह सदैव झुका रहता है। लोग भी  सदैव उसे ही पत्थर मारते हैं, क्योंकि सबको मीठे फलों की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार लोग ऐसे व्यक्ति की संगति चाहते हैं, जो मधुभाषी हो, विनम्र हो, सत्य व हितकर वाणी बोले।

विद्या से विनम्रता आती है और विनम्रता से विनय भाव जाग्रत होता है। ‘सामान्यत: जो व्यक्ति के सत्य के साथ कर्त्तव्य-परायणता में लीन रहता है, उसके मार्ग में बाधक होना कोई सरल कार्य नहीं’… टैगोर जी का यह कथन कोटिश: सत्य है। जो व्यक्ति सत्य की राह पर चलता है, अपने कर्म को पूजा समझ कर करता है, उसके मार्ग में बाधाएं आ ही नहीं सकतीं और न ही उसे पथ-विचलित कर सकती हैं। अच्छे का फल सदैव अच्छा व बुरे का बुरा ही होता है। इसलिए अब्राहिम लिंकन कहते हैं कि ‘जब मैं अच्छा करता हूं, तो अच्छा महसूस होता है और बुरा करता हूं, तो बुरा महसूस होता है, यही मेरा धर्म है।’ सो! वे उसे शास्त्र- सम्मत स्वीकार जीवन में धारण करते हैं। यदि आपके भीतर संतोष है, तो आप सबसे अमीर हैं…यदि शांति है, तो सबसे सुखी हैं… यदि दया है, तो आप सबसे अच्छे इंसान हैं। इसलिए संतोष व शांति से बढ़कर है करुणा भाव, जो इंसान को इंसान बनाता है। यही सर्वश्रेष्ठ गुण है… महात्मा बुद्ध ने भी करुणा को सर्वोत्तम गुण स्वीकारा है। प्रेम व करुणा में सभी दैवीय भाव समाहित हैं। जहां प्रेम के साथ करुणा है, वहां स्नेह व सौहार्द होगा, सहृदयता व सदाशयता होगी…एक-दूसरे की परवाह होगी और सहानुभूति, सहनशीलता व संवेदना होगी। जीवन में इनकी दरक़ार मानव को सदैव रहती है। इसलिए मानव को दूसरों के चश्मे से न देखने की सलाह दी गई है, क्योंकि उनकी नज़रें धुंधली हो सकती हैं। खुद को खुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।

असफलता में सफलता छिपी होती है। हर असफलता मानव को पाठ पढ़ाती है, तभी वह एक दिन सफल होता है। सफलता अनुभव की पाठशाला है, जिससे गुज़र कर इंसान महानता का पद प्राप्त कर सकता है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘पहले के अनुभव से नया अनुभव हासिल करना होता है। इस क्रिया को ज्ञान कहते हैं।’ जो निर्णय लेने से पूर्व उसके समस्त पहलुओं पर चिंतन-मनन कर निर्णय लेता है, उसे असफलता का मुंह देखना नहीं पड़ता…यह क्रिया ज्ञान कहलाती है, जीवन की राह दर्शाती है । इसी संदर्भ में उनकी यह उक्ति भी विचारणीय है कि ‘कोई व्यक्ति कितना भी महान् क्यों न हो, आंखे मूंदकर उसके पीछे न चलें। यदि ईश्वर की ऐसी मंशा होती, तो वह हर प्राणी को आंख, कान, नाक, मुंह और दिमाग क्यों देता?’

इसलिए अंधानुकरण भले ही व्यक्ति का हो या रास्ते का,… मानव को पथ-विचलित करता है और दिग्भ्रमित  होने के कारण, उसका अपने लक्ष्य तक पहुंचना असंभव हो जाता है। एक बार गलत राह का अनुसरण करने के पश्चात् उसका लौटना दुष्कर होता है, अत्यंत कठिन होता है। इस उक्ति के माध्यम से, वे समाज को सजग-सचेत करते हुए कहते हैं कि हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती। यह संसार मृग-तृष्णा है। उसके पीछे मत भागो अन्यथा रेगिस्तान में जल की तलाश में बेतहाशा भागते हुए हिरण के समान होगी, मानव की दुर्दशा… जिसका अंत प्राणोत्सर्ग के रूप में होना अवश्यांभावी है।

ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से अर्थ।  इंसान कमाल का है कि पसंद करे, तो बुराई नहीं देखता, नफ़रत करे, तो अच्छाई नहीं देखता। सो! ज्ञान से दृष्टि व सोच अधिक प्रभावशाली है। ज्ञान से हमें शब्दार्थ समझ में आते हैं, परंतु अर्थ हमें जीवन के रहस्य से अवगत कराते हैं.. अनुभव दे जाते हैं। वास्तव में प्रेम व नफ़रत से ही हर व्यक्ति का मूल्यांकन संभव हैं। अकसर हमारा ध्यान उसके दोषों की ओर नहीं जाता… यदि हम उससे घृणा करते हैं। इस स्थिति में हमें उसके दोष गुणों व अच्छाइयों-सम भासते हैं। जैसाकि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, उसकी दृष्टि में होता है। हमारी मन:स्थिति, सोच व नज़रिया निर्धारित करते हैं…व्यक्ति व वस्तु  के सौंदर्य व कुरूपता को…सो! ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ इससे भी बढ़कर है हमारा व्यवहार… जो  ज्ञान से भी बड़ा है। ज़िंदगी में अनेक परिस्थितियां आती हैं, जब ज्ञान फेल हो जाता है। परंतु हम उत्तम व्यवहार से प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने में सफल हो जाते हैं अर्थात् सुविचार व व्यवहार बगिया के वे सुंदर पुष्प हैं, जो व्यक्तित्व को महका देते हैं और सब्र व सच्चाई अपने शहसवार को कभी गिरने नहीं देते, न किसी के कदमों में, न ही किसी की नज़रों में अर्थात् वे हमें यह पाठ पढ़ाते हैं कि जीवन एक यात्रा है… रो-रो कर जीने से लंबी लगेगी, हंस कर जीने से कब पूरी हो जाएगी… पता ही नहीं चलेगा। इसलिए अपनों के बीच अपनों की तलाश कीजिए… है तो यह बहुत कठिन, परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि पीठ में छुरा घोंपने वाले आपके निकटतम संबंधी व प्रियजन ही होते हैं। सो! दूसरों की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखिए, यही सर्वोत्तम प्रेरणा-स्रोत है, जो आपकी दुर्गम राह को सुगम व प्राप्य बनाता है।

सो! तृष्णाएं सुरसा के मुख की भांति कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं, निरंतर बढ़ती रहती है और आजीवन हमें दु:ख के भंवर से बाहर नहीं आने देतीं। हम उन्हें पूरा करने में पूरे जीवन की खुशियां झोंक देते हैं… गलत हथकंडे अपनाते हैं और उनकी की भावनाओं को रौंदते हुए चले जाते हैं। दूसरों पर अकारण दोषारोपण करना, हमारी आदत में शुमार हो जाता है। निंदा हमारा स्वभाव बन जाता है और अहं व  सर्वश्रेष्ठता का भाव हमारे अंतर्मन में इस प्रकार घर कर लेता है, जिसे बाहर निकाल फेंकना व उससे मुक्ति पाना हमारे वश की बात नहीं रहती। तृष्णा व अहं का चोली दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। इसलिए जब आप तृष्णाओं को अपने जीवन से बाहर निकाल देते हैं…अहं स्वत: नष्ट हो जाता है और जीवन में सुख-शांति व आनंद का पदार्पण हो जाता है।

शालीनता, विनम्रता आदि इसके जीवन साथी के रूप में प्रवेश पाकर सुक़ून पाते हैं। समय पंख लगा कैसे उड़ जाता है, व्यक्ति जान ही नहीं पाता। उसके जीवन में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। अर्थशास्त्र भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देता है, क्योंकि  सीमित साधनों द्वारा इनकी पूर्ति करना असंभव है। यह चिंता, तनाव व अवसाद की जनक है, जिससे मुक्ति पाने का इंसान के पास कोई कारग़र उपाय नहीं है। तृष्णाएं हमारे जीवन को नरक के द्वार पर पहुंचा देती हैं, जहां से लौटना नामुमक़िन है। परंतु जब तक हम उनके प्रवेश पर अंकुश लगा निषिद्ध कर देते हैं तो वे पुन: दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाते। तृष्णाएं तो सर्प की भांति हैं। उम्र भर दूध पिलाओ, डसने से बाज़ नहीं आतीं। यह सदैव हानि पहुंचाती हैं… मानव को कटघरे में खड़ा कर तमाशा देखती हैं। इनके फ़न को कुचलना ही सबके लिए उपयोगी व हितकारी है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 35 ☆ स्वतंत्र ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “स्वतंत्र।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 35 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – स्वतंत्र

“सोमा आज मकान मालिक का फोन आया 15 दिन के अंदर मकान खाली करना है।अब इतनी जल्दी कैसे कहां मकान मिलेगा?”

सोमा ने कहा…”कल चलते है सासू मां के पास उन्हें बताते हैं हो सकता है समस्या का हल निकल आये और उन्हें दया आ जाए  कह दें , तुम लोग आ जाओ अब अकेले रहा नहीं जाता”।

माँ  से मिले।  माँ को सब कुछ बताया ।उन्होंने कहा – “कोई बात नहीं, दो बिल्डिंग आगे एक मकान खाली है जाकर बात कर आओ।”

सोमा उनका मुंह देखती रही । हम सभी किराये के मकान में रह रहे हैं ।

कैसी माँ  है तीन बेटे है फिर भी अकेली  स्वतंत्र अपने घर में रहना चाहती है ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆ प्रभात ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “प्रभात ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 26 ☆

☆ प्रभात ☆

सौगात

सूरज की यह लालिमा,देती सुखद प्रभात

खगकुल का कलरव मधुर,पूरब की सौगात

 

लालिमा

देख उषा की लालिमा,मन हर्षित हो जाय

करते सूरज को नमन,दिल से अर्घ चढ़ाय

 

पूरब

पूरब दिशा सुहावनी,पूरब घर का द्वार

उत्तम फल मिलता सदा,दूर भगे अँधियार

 

सूरज

सूरज की गर्मी सदा,करती नव बरसात

जिसके दिव्य प्रकाश से,डरती है यह रात

 

खगकुल

खगकुल की महिमा बड़ी,उनके रूप अनेक

देते संदेशा सुबह,काम करें सब नेक

 

प्रभात

प्रथम नमन माता-पिता,फिर प्रभात -सत्कार

करते जो उनके यहाँ,खुशियाँ सदाबहार

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 21 ☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “हाथी के दांत खाने के और ‌‌…..”।  यह लघुकथा हमें जीवन  के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जो हम देख कर भी नहीं देख पाते और स्वयं को  कुछ भी करने में असहाय पाते हैं। जब तक हमारे हाथ पांव चल रहे हैं तब तक ही हमारा मूल्य है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 21 ☆

☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ‌‌….. 

रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। उत्तर भारत में सर्दी के मौसम में शाम से ही ठंड पाँव पसारने लगती है। ऐसा लगने लगता है मानों ठंडक कपड़ों को भेदकर शरीर में घुस रही हो। मुझे नींद आ रही थी, एक झपकी लगी ही थी कि बर्तनों की खटपट सुनाई दी। सब तो सो गए फिर कौन इस समय रसोई में काम कर रहा है ? रजाई से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी फिर भी बेमन से मैं रसोई की ओर चल पड़ी। देखा तो सन्न रह गई। काकी काँपते हाथों से बर्तन माँज रही थी। शॉल उतारकर एक किनारे रखा हुआ था। स्वेटर की बाँहें कोहनी तक चढ़ाई हुई थी जिससे पानी से गीली ना हो जाए। दोहरी पीठ वाली काकी बर्तनों के ढ़ेर पर झुकी धीरे–धीरे बर्तन माँज रही थी।

मैं झुंझलाकर बोली – “क्या कर रही हो काकी ? समय देखा है ? रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं रजाई में लेटकर भी कँपकँपी छूट रही है और तुम बर्तन धोने बैठी हो ? छोड़ो बर्तन, सुबह मंज जाएंगे। बीमार पड़ जाओगी तुम।“

काकी से मेरी फोन पर अक्सर बातचीत होती रहती है। उनका हमेशा एक ही डायलॉग होता ‘गुड्डो’! काम से फुरसत नहीं मिलती। घर के काम खत्म ही नहीं होते। काकी की बातें मैं हंसी में टाल देती – “अब बुढ़ापे में कितना काम करोगी काकी ?” और सोचती शायद याददाश्त खराब होने के कारण काकी बातें दोहराती रहती हैं

मैं उनका हाथ पकड़कर जबर्दस्ती उठाना चाह रही थी। काकी मेरा हाथ छुड़ाते हुए बहुत शांत भाव से बोलीं “हम बीमार नहीं पड़तीं गुड्डो। हमारा तो यह रोज का काम है,  आदत हो गई है हमें।“ मैंने फिर कहा – “हालत देख रही हो अपनी  जरा – सा चलने में थक जाती हो। हाथ की उंगलियाँ देखो गठिए के कारण अकड़ गई हैं। काकी ! तुम जिद्द बहुत करती हो। भाभी भी तुम्हारी शिकायत कर रही थीं। भैया कितना मना करते हैं तुम्हें काम करने को, उनकी बात तो सुनो कम से कम।“

“रहने दे गुड्डो, क्यों जी जला रही है अपना। चार दिन के लिए आती है यहाँ आराम से रह और चली जा, भावुक ना हुआ कर। भैया – भाभी की मीठी बातें तू सुन। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। तू वह सुनती है जो वो तेरे सामने बोलते हैं। मैं साल भर वो सुनती हूँ जो वे मुझे सुनाना चाहते हैं। बूढ़ी हूँ, कमर झुक गई है तो क्या हुआ ? घर में रहती हूँ, खाना खाती हूँ, चाय पीती हूँ, मुफ्त में मिलेगा क्या ये सब ……………..?”

काकी काँपती आवाज़ में मुझे वह बताना चाह रही थीं जो मैं खुली आंखों से देख नहीं पा रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 13 ☆ कविता – प्यार में ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण कविता  “प्यार में.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 13 ☆

☆ प्यार में ☆ 

 

प्यार में हम जिए या मरे

मुश्किलों से मगर कब डरे

 

आस्था का समर्पण रहा

अर्घ्य देकर रहे हम खरे

 

बचपना जब हवा हो गया

फूल, शूलों में जाकर झरे

 

लोग कहते रहे यूँ हमें

कोई पागल, कोई मसखरे

 

खेत, बच्चे, पखेरू, विटप

सब मेरे दिल को लगते हरे

 

मेरे अंदर के बच्चे सभी

मुझसे मिलते हैं खुशियाँ भरे

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  व्यंग्य  “समस्या का पंजीकरण”।  इस  बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 34 ☆ 

☆ व्यंग्य – समस्या का पंजीकरण ☆

“आपकी समस्या सरकार की” अभियान में अपनी हिस्सेदारी की कठिनाई का टाइप किया हुआ प्रतिवेदन लेकर, रामभरोसे  गांव से सुबह की पहली बस से ही साढ़े दस बजते बजते जिले के दफ्तर में जा पहुंचा.

ग्राम सचिव से लेकर, सरपंच जी तक ने उसे दिलासा दी थी कि अब सरकार में जनता की कठिनाई, सरकार की समस्या है. इसके लिये  विशेष अभियान चलाया जा रहा है. लोगों से उनकी कठिनाईयां इकट्ठी की जा रही हैं. अगले बरस चुनाव भी होने वाले हैं, तो लोगों को उम्मीद है कि कठिनाईयों का कुछ न कुछ हल भी मिल सकता है. किन्तु समस्या के हल के लिये सबसे पहले समस्या का पंजीकरण जरूरी था, इसी मुहिम में रामभरोसे जिला दफ्तर आ पहुंचा था. इस प्रयास में उसका पहला साक्षात्कार दफ्तर के बाहर ही हनुमान मंदिर के निकट बने चाय के टपरे पर उपस्थित पकौड़े बना रहे  स्वरोजगार युवा से हुआ. रामभरोसे ने सदैव सर्वत्र उपस्थित हनुमान जी को नमन किया. पंडित जी भी बाकायदा घंटी की ध्वनि करते उपस्थित थे, उन्होने आरती का थाल रामभरोसे की ओर बढ़ाया, तो उसने न्यौछावर कर आरती ले ली और चाय के टपरे में दफ्तर खुलने की बाट देखता चाय पीने चला गया.  चाय पीते हुये बातों ही बातों में रामभरोसे को ज्ञात हुआ कि वह युवक डबल एमए भी है.  रामभरोसे के हाथों में टंकित प्रतिवेदन देखकर, चाय के रुपये काट कर बाकी चिल्हर लौटाते हुये उसने रामभरोसे को कार्यालय के आवक विभाग की दिशा भी सौजन्य स्वरूप दिखला दी. रामभरोसे बड़ा प्रसन्न हुआ, मन ही मन वह हनुमान जी को धन्यवाद करता हुआ, आवक विभाग की ओर बढ़ चला. वहां पहुंच रामभरोसे को पता चला कि  आवक लिपिक आये ही नही हैं. प्रतीक्षा का फल हमेशा मीठा होता है, घण्टे भर की प्रतीक्षा के बाद पान चबाते हुये जब आवक लिपिक आये, तो रामभरोसे ने अपनी अर्जी प्रस्तुत कर दी. आवक लिपिक ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, फिर अर्जी पढ़ी, रामभरोसे को लगा कि वह तो केवल समस्या के पंजीकरण के लिये आया था, लगता है बजरंगबली की कृपा से आज समाधान ही मिल जावेगा. पर तभी लिपिक की नजर अर्जी पर ऊपर ही टंकित पंक्ति ” आपकी समस्या सरकार की ” पर पड़ गयी.

लिपिक ने रामभरोसे के भोलेपन कर नाराजगी जाहिर करते हुये उसे ज्ञान प्रदान किया कि यह तो सामान्य अर्जियों का आवक विभाग है. इन दिनो जो यह विशेष अभियान चलाया जा रहा है उसकी पंजीकरण खिड़की तो प्रवेश द्वार के बाजू में ही बनायी गयी है,और खिड़की पर इस सूचना की तख्ती भी टांगी गई है. रामभरोसे को अपनी अज्ञानता पर स्वयं ही खेद हुआ,वह बजरंगबली से अपनी मूर्खता के लिये मन ही मन क्षमा मांगता हुआ तेजी से वापस प्रवेश द्वार की ओर लपका, वहां खिड़की के बाहर लम्बी कतार थी. रामभरोसे कतारबद्ध हो लिया. उसका नम्बर आने ही वाला था कि इंटरनेट हैंग हो गया, और सुबह से लगातार काम में जुटा आपरेटर कुर्सी छोड़ गया. रामभरोसे फिर रामनाम सुमिरन करते हुये,प्रतीक्षा के मीठे फल खाने लगा.  जब कतार की प्रतीक्षा हो हल्ले में तब्दील होते दिखने लगी तो, प्रोग्रामर को बुलाया गया उसने कम्प्यूटर बंद कर पुनः चालू कर साफ्टवेयर अपडेट किया. पर इस सब में लंच ब्रेक लग गया. खैर लंच के बाद काम शुरू होते ही रामभरोसे का नम्बर आ गया, और अपनी समस्या की कम्प्यूटर मुद्रित रजिस्ट्रेशन स्लिप पाकर रामभरोसे मुदित मन से लौट ही रहा था कि उसे थकान और भूख का अहसास हुआ. वह उसी सुबह वाले चाय के टपरे पर ही पकौड़े खाने घुस गया. डबल एमए सरोजगार युवक पकौड़ो का ताजा घान झारे से निकाल रहा था. रामभरोसे ने पकौड़े खाते हुये उस युवक के ज्ञान में संशोधन करते हुये उसे बताया कि सुबह उसने, आवक विभाग की गलत जानकारी बता दी थी, इस उपक्रम में जब रामभरोसे ने समस्या पंजीकरण कम्प्यूटर स्लिप में दर्ज अपना मोबाईल नम्बर पढ़ा तो उसे नम्बर गलत होने का अहसास हुआ, डबल जीरो की जगह ट्रिपल जीरो अंकित हो गया था, शायद आपरेटर की हड़बड़ी के चलते ऐसा हुआ हो, या की बोर्ड की खराबी भी हो सकती थी, पकौड़े खाकर  स्वयं को संतोष देता हुआ रामभरोसे बजरंगबली की मर्जी मान, फिर से लाईन में लगने जाने लगा. उसने देखा पंडित जी मंदिर में घंटी बजाते हुये नये आगंतुको की ओर आरती का थाल बढ़ा रहे थे.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆ फॉलोअर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “फॉलोअर। भला आज की सोशल मीडिया की दुनियां में कौन फॉलोअर नहीं चाहता? आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 6 ☆

☆ फॉलोअर

आजकल  सभी अपने मन की बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे-  ट्विटर , फेसबुक  व व्हाट्सएप पर ही करना पसंद करते हैं । जो भी जी चाहे वहाँ लिखा और बस लाइक की चाह में बैठ गए मोबाइल लेकर । अब तो हर जगह एक ही मुद्दा है मेरे इतने फॉलोवर्स हैं तेरे कितने  हैं । मजे की बात ये है कि इस सम्बंध में लोगों के आइडल  फ़िल्मी स्टार्स व सेलिब्रिटी होते हैं ; उन्ही की तर्ज पर नए- नए बने मोबाइल स्टार भी अपने फॉलो की संख्या तो कम रखते हैं व जल्दी ही लोगों को अनफॉलो कर देते हैं । बस उन्हें तो फॉलोवर्स  चाहिए ।

इस शब्द को सुनकर कहीं न कहीं फालोऑन की याद आती है कि कैसे टेस्ट क्रिकेट में पहली पारी में दूसरी टीम के कम रन होने पर पहली टीम उसे दुबारा खेलने पर मजबूर करती है और अक्सर देखने में आता कि दुबारा भी आल आउट करके विजेता बनना या मैच का ड्रा होना । खैर ये तो सब खेल – खेल में चलता ही रहता है ।

फॉलो मी शब्द भी बहुत प्रचलित है कोई न कोई किसी न किसी को फॉलो अवश्य करता है। हमारे अपने कई रोल मॉडल होते हैं जिनके अनुयायी बनकर जीवन जीना आसान होता है । वैसे भी भेड़ चाल का अपना ही मजा होता है बिना दिमाग लगाए बस मौज उड़ाते रहो यदि गलती एक गड्ढे में गिरा तो उसी के पीछे सब उसी में गिर कर चीखते चिल्लाते रहते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि गिरने वाले  इतने सारे लोग होते हैं कि गड्डा भर जाता है और वे एक दूसरे की पीठ पर चढ़कर बाहर आने के लिए  एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं और कुशल चमचे अति शीघ्र ऊपर आ जाते हैं और बन जाते हैं मोटिवेशनल लीडर । जैसे ही लेखनी ने प्रेरणा रूपी आग ऊगली बस फॉलोअर बनने लगे ।

आजकल सबसे ज्यादा पोस्ट  भी बस मोटिवेशनल ही होती है हर व्यक्ति मोटिवेशन चाहता है । सच मानिए जैसे ही पूरा वीडियो देखा उसे लाइक शेयर और कॉमेंट किया तो ऐसा लगता है कि बस पूरी एनर्जी मेरे अंदर  आ गयी है । और  हम निकल पड़ते हैं दूसरे को ज्ञान बाँटने और हाँ अपने फॉलोअर बनाने के लिए फिर पोस्ट को स्पॉन्सर करते हैं । लोगों को व्हाट्सएप पर मैसेज भेज कर उन्हें अपनी पोस्ट पढ़ने हेतु  प्रेरित करते हैं और करना भी चाहिए क्योंकि किसी को प्रेरित करना आज के समय में बहुत बड़ा कार्य है । जहाँ एक तरफ लोग बिना स्वार्थ के किसी की पोस्ट पर लाइक तक नहीं करते वहीं दूसरी ओर लोगों को जाग्रत करने की बात ही कुछ और ही होती है ।

आज के  इलेक्ट्रॉनिक युग में लोकप्रिय होने से कहीं ज्यादा जरूरी है लोकप्रिय होने का दिखावा करना क्योंकि जो दिखता है वही बिकता है । इस तथ्य को सभी कम्पनियों द्वारा समय – समय पर सिद्ध किया जाता रहा है । और तो और अब तो  नेता व दलों का चुनाव भी ये प्रचार के स्लोगन ही निर्धारित करते हैं । आखिर शब्दों की शक्ति को  कौन नहीं जानता । शब्द तो ब्रह्म होते हैं ।  और जहाँ सच्चे शब्द वहाँ समझो जीत पक्की । बस हर क्षेत्र में फॉलो मी का ही खेल चल रहा है । कोई किसी से पिछाड़ी नहीं होना चाहता सभी अगाड़ी बन अपने – अपने स्वार्थ की गाड़ी चलाते रहना चाहते हैं तो बस आप भी जुट जाइये अपने फॉलोवर्स बढ़ाने की जद्दोजहद में और बन जाइये  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सुपर स्टार ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 36 – रुक ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा   “रुक  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  #36 ☆

☆ लघुकथा – रुक ☆

 

रघु अपनी पत्नी को सहारा देते हुए बोला. ” धनिया ! थोड़ी हिम्मत और कर. अस्पताल थोड़ी दूर है. अभी पहुच जाते है.” मगर धनिया की हिम्मत जवाब दे चुकी थी. वह लटक गई.

रामू और सीता अपनी अम्मा का हाथ पकडे हुए चल रहे थे.

इधर धनिया गश खा कर गिर पड़ी. यह देख कर रघु घबरा गया. इधरउधर देख कर बोला ,” बस धनिया ! थोड़ी देर और रुक जा. हम अस्पताल पहुँचने वाले है.” मगर धनिया का समय आ गया था. वह हाफाने लगी.

“रामू – सीता, तुम अम्मा को सम्हालना. मैं अभी अम्बुलेंस ले कर आता हूँ.” कह कर रघु ने इधरउधर सहायता के लिए पुकारा और फिर अस्पताल की ओर  भाग गया.

इधर धनिया भी चुपचाप चली गई और बच्चे माँ को चुपचाप देख कर रोने लगे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 35 – सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक प्रेरक कविता  “सोच के अनुरूप ही परिणाम भी….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 35 ☆

☆ सोच के अनुरूप ही परिणाम भी…. ☆  

 

एक पग आगे बढ़ो

पग दूसरा आगे चलेगा।

 

एक निर्मल मुस्कुराहट

पुष्प खुशियों का खिलेगा।

 

एक सच के ताप में

सौ झूठ का कल्मष जलेगा।

 

इक निवाला प्रेम का

संतृप्ति का एहसास देगा।

 

सज्जनों की सभासद में

एक दुर्जन भी खलेगा।

 

खोट है मन में यदि तो

आस्तीन विषधर पलेगा।

 

प्रपंचों पर पल रहा जो

हाथ वो इक दिन मलेगा।

 

जी रहा खैरात पर

वो मूंग छाती पर दलेगा।

 

अंकुरित होगा वही

जो बीज भूमि में गलेगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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