मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 12 ☆ मी कवी हुनार  ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  मी कवी हुनार है।  श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 12 ☆

 

☆ मी कवी हुनार ☆

(काव्यप्रकार -विडंबन.)

 

लयी लयी वाटायचं कराव्यात मस्त कविता !

पन् काय करु ,काय करू…?..

 

ईचार केला किती बी  तरी सुचतच न्हाई वो कविता !

स्पर्धा तर सोडाच पन् कविता वाचन्याजोगी तरीहवी !

आन् रोज रोज म्हन्ते …मी हुईन कवी ! मी हुईन कवी!!

 

पन् घोडंच कुठं पेंड खातंयं ते काई कळंना !

आन् आजपावतूर मला काही कविता कराया जमना !!

नवस केलं सायास केलं केलं देवदेव !

पन् न्हाई आली कुनालाच माजी वं कीव !!

 

 

म्हनलं जरा यावं भेटून फिल्मसिटीत ईनोदाच्या ईरांनला !

पन् कसलं काय आन् फाटक्यात पाय ,तितं

टाईमच हाय कुनाला. !!

 

भेटलं असतं कवी गुलजार !

पन् ते तरी म्हना काय कामाचं!

आपलं लिखान हाय इडंबन अन् हाय कि वो  ईनोदाचं !!

 

लयी डोस्कं खाजिवलं आन् केला मी ईचार !

 

बसले एकदाची लिव्हायला तर !

शेजापाजारच्या आयाबायांनी केलं की हो बेजार !

मंग म्हनलं हितं बसून आपली कविता न्हाई हुनार !!

 

तुकोबांनी आख्खी गाथा लिव्हली भंडाऱ्यावर !

आपनबी जावं की आपल्या डोंगरावर !

तडक उठले अन् तरातरा गेले अजिंक्यताऱा किल्ल्यावर ! !

घेतला भारी पेन आन् लिव्हायला लागले कागदावर. !

 

आली थंड झुळूक आन् कवा  लागला डोळा न्हाई मला कळ्ळं !

डरकाळी बिबट्याची ऐकून काळीजच माजं किवो हाल्लं !

 

आता कुटं पळू न् काय करु समजना मला !

पट्कन् उटूनशनी पळावं तर पायच लागलं कापायला !!

 

बिबट्या बिबट्या म्हनून जीव खाऊन वराडले !

 

आले आले म्हनून सुनबाईनं आवाज दिला !!

म्हनलं बरं झालं ती तरी आली माज्या मदतीला !!!

हात दिला तिच्या हातात न् लागले मी पळायला !

तर चहाची कपबशी घेऊन सुनबाई  उभी मला उठवायला !!

 

©®उर्मिला इंगळे, सतारा

भ्रमण – ९०२८८१५५८५

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆ चेहरे ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “चेहरे”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 13 ☆

☆ चेहरे

ओळखीचे वाटतात सगळेच चेहरे
अनोळख्या ठिकाणी जेव्हा मी जातो.

सारखेच भाव चेह-यावर असतात
सपाट शून्य मलूल चेहरा मी पाहतो.

तनावाने त्रस्त काळजीचे काहूर
भविश्याचे प्रश्न चेह-यावर पाहतो.

भूतकाळाचे गाठोडे पाठीवर लादून
ओझ्याने वाकलेला  कणा मी पाहतो.

चेह-यात चेहरे नित शोधतो मी
माझाच चेहरा जेव्हा मी पाहतो.

© सुजाता काळे,
पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 22 ☆ संगति का असर होता है ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “संगति का असर होता है”‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’, इस कथन में जो विरोधाभास है उस के इर्द गिर्द यह विमर्श अत्यंत विचारणीय है एवं आपको निश्चित ही विचार करने के लिए बाध्य कर देगा। आलेख के मूल में हम पाते हैं  कि हमें अच्छी या बुरी संगति की पहचान  होनी चाहिए एवं अपने स्वभाव को बदलने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 22 ☆

 

☆ संगति का असर होता है 

झूठ कहते हैं, संगति का असर होता है। ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया और न फूलों को चुभना आया’ कितना विरोधाभास निहित है इस कथन में…यह सोचने पर विवश करता है, क्या वास्तव में संगति का प्रभाव नहीं होता? हम बरसों से यही सुनते आए हैं कि अच्छी संगति का असर अच्छा होता है।सो! बुरी संगति से बचना ही श्रेयस्कर है। जैसी संगति में आप रहेंगे, लोग आप को वैसा ही समझेंगे। बुरी संगति मानव को अंधी गलियों में धकेल देती है, जहां से लौटना नामुमक़िन होता है। वैसे ही उसे दलदल-कीचड़ की संज्ञा दी गयी है। यदि आप कीचड़  में कंकड़ फेंकेंगे, तो छींटे अवश्य ही आपके दामन को मैला कर देगे। सो! इनसे सदैव दूर रहना चाहिए। इतना ही क्यों ‘Better alone than a bad company.’ अर्थात् ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ हां! पुस्तकों को सबसे अच्छा मित्र स्वीकारा गया है जो हमें सत्मार्ग की ओर ले जाती हैं।
परंतु इस दलील का क्या… ‘आज तक न कांटों को महकने का सलीका आया, न फूलों को चुभना रास आया’ अंतर्मन में ऊहापोह की स्थिति उत्पन्न करता है और मस्तिष्क को उद्वेलित ही नहीं करता, झिंझोड़ कर रख देता है। हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर सत्य क्या है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना उसी प्रकार असम्भव है, जैसे परमात्मा की सत्ता व गुणों का बखान करना। हम समझ नहीं पाते …आखिर सत्य क्या है? इसे भी परमात्मा के असीम  -अलौकिक गुणों को शब्दबद्ध करने की भांति असंभव है। शायद! इसीलिए उस नियंता के बारे में लोग नेति-नेति कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
परमात्मा निर्गुण, निराकार, अनश्वर व सर्वव्यापक है। उसकी महिमा अपरम्पार है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और उसकी महिमा का बखान करना मानव के वश से बाहर है। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट झलकता है कि जो निराकार है…जिसका रूप- आकार नहीं, जो निर्गुण है.. सत्, रज,तम तीनों गुणों से परे है, जो निर्विकार अर्थात् दोषों से रहित है तथा जिसमें शील, शक्ति व सौंदर्य का  समन्वय है…वह श्रद्धेय है, आराध्य है, वंदनीय है।
प्रश्न उठता है, जो शब्द ब्रह्म हमारे अंतर्मन में बसता है, उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं, उसे मन की एकाग्रता द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। एकाग्रता ध्यान की वह स्थिति है, जिस में मानव क्षुद्र व तुच्छ वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। परन्तु सांसारिक प्रलोभनों व मायाजाल में लिप्त बावरा मन, मृग की भांति उस कस्तूरी को पाने के निमित्त इत-उत भटकता रहता है और अंत में भूखा-प्यासा, सूर्य की किरणों में जल का आभास  पाकर अपने प्राण त्याग देता है। वही दशा मानव की है, जो नश्वर भौतिक संसार व मंदिर-मस्जिदों में उसे तलाशता रहता है, परंतु निष्फल। मृग-तृष्णाएं उसे पग-पग पर आजीवन भटकाती हैं। वह बावरा इस मायाजाल से  आजीवन मुक्त नहीं हो पाता और लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। उसे कहीं भी सुक़ून व आनंद की प्राप्ति नहीं होती।
जहां तक  कांटों को महकने का सलीका न आने का प्रश्न है, यह प्रकाश डालता है, मानव की आदतों पर, जो लाख प्रयास करने पर भी नहीं बदलतीं, क्योंकि यह हमें पूर्वजन्म  के संस्कारों के रूप में प्राप्त होती हैं। कुछ संस्कार हमें  पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं। यह विभिन्न संबंधों के रूप में  हमें प्राप्त होते हैं, जिन्हें  प्राप्त करने में  हमारा कोई योगदान नहीं होता। परंतु कुछ संस्कार हमें माता-पिता, गुरुजनों व हमारी संस्कृति द्वारा प्राप्त होते हैं, जो हमारे चारित्रिक गुणों को विकसित करते हैं।अच्छे संस्कार हमें आदर्शवादी बनाते हैं और बुरे संस्कार हमें पथ-विचलित करते हैं  … हमें  संसार में अपयश दिलाते हैं। इन कुसंस्कारों के कारण समाज में हमारी निंदा होती है और लोग हमसे घृणा करना प्रारंभ कर देते हैं। बुरे लोगों का साथ देने से, हम पर उंगलियां उठना  स्वाभाविक है। क्योंकि ‘यह मथुरा काजर की कोठरी,  जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् ‘जैसा संग वैसा रंग’। संगति का रंग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ता है। कबीर दास जी की यह पंक्ति’ कोयला होई ना उजरा,सौ मन साबुन लाय’  कोयला सौ मन साबुन से धोने पर भी कभी उजला नहीं हो सकता अर्थात् मानव की जैसी प्रकृति-प्रवृत्ति होती है, सोच होती है, आदतें होती हैं, उनसे वह आजीवन वैसा ही व्यवहार करता है।
इंसान अपनी आदतों का गुलाम होता है और सदैव उनके अंकुश में रहता है तथा उनसे मुक्ति पाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए कहा जाता है कि इंसान की आदतें, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। सो! प्रकृति के विभिन्न उपादान फूल, कांटे आदि अपना स्वभाव कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? फूलों की प्रकृति है हंसना, मुस्कराना, बगिया के वातावरण को महकाना, आगंतुकों के हृदय को आह्लादित व उन्मादित करना। सो! वे कांटो के चुभने के दायित्व का वहन कैसे कर सकते हैं? इसी प्रकार शीतल, मंद, सुगंधित वायु याद दिलाती है प्रिय की, जिसके ज़ेहन में आने के परिणाम-स्वरूप समस्त वातावरण आंदोलित हो उठता है तथा मानव अपनी सुधबुध खो बैठता है।
यह तो हुआ स्वभाव, प्रकृति व आदतों के न बदलने का चिंतन, जो सार्वभौमिक सत्य है।  परंतु अच्छी आदतें सुसंस्कृत व अच्छे लोगों की संगति द्वारा बदली जा सकती है। हां! हमारे शास्त्र व अच्छी पुस्तकें इसमें बेहतर योगदान दे सकती हैं…उचित मार्गदर्शन कर जीवन की दिशा  बदल सकती हैं। जो मनुष्य नियमित रूप से ध्यान-मग्न रहता है…केवल अध्ययन नहीं, चिंतन-मनन करता है,आत्मावलोकन करता है, चित्तवृत्तियों पर अंकुश लगाता है, इच्छाओं की दास्तान स्वीकार नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्तियों के इस मायाजाल से स्वत: मुक्ति प्राप्त कर सकता है… संस्कारों को धत्ता बता सकता है और अपने स्वभाव को बदलने में समर्थ हो सकता है।
सो! हम उक्त कथन को मिथ्या सिद्ध कर सकते हैं कि सत्संगति प्रभावहीन होती है क्योंकि फूल और कांटे अपना सहज स्वभाव-प्रभाव हरगिज़ नहीं छोड़ते। कांटे अवरोधक होते हैं, सहज विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं, सदैव चुभते हैं, पीड़ा पहुंचाते हैं, दूसरे को कष्ट में देखकर आनंदित होते हैं। दूसरी ओर फूल इस तथ्य से अवगत होते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, फिर भी वे निराशा का दामन कभी नहीं थामते… अपना महकने व मुस्कुराने का स्वभाव नहीं त्यागते। इसलिए मानव को इनसे संदेश लेना चाहिए तथा जीवन में सदैव हंसना-मुस्कुराना चाहिए,क्योंकि खुश रहना जीवन की अनमोल कुंजी है, जीवन जीने का सलीका है।इसलिए हमें सदैव प्रसन्न रहना चाहिए ताकि दूसरे लोग भी हमें देखकर उल्लसित रह सकें और अपने कष्टों के चंगुल से मुक्ति प्राप्त कर सकें।
अंतत: मैं कहना चाहूंगी कि परमात्मा ने सबको समान बनाया है।इंसान कभी अच्छा-बुरा नहीं हो सकता…उसके कर्म-दुष्कर्म ही उसे अच्छा व बुरा बनाते हैं…उसकी सोच को सकारात्मक व नकारात्मक बनाते हैं। अपने सुकर्मों से ही प्राणी सब का प्रिय बन सकता है। जैसे प्रकृति अपना स्वभाव नहीं बदलती, धरा, सूर्य, चंद्र, नदियां, पर्वत, वृक्ष आदि निरंतर कर्मशील रहते हैं, नियत समय पर अपने कार्य को अंजाम देते हैं, अपने स्वभाव को विषम परिस्थितियों में भी नहीं त्यागते…सो! हमें इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सत्य की राह का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि इनमें परार्थ की भावना निहित रहती है…ये किसी को आघात नहीं पहुंचाते, किसी का बुरा नहीं चाहते। हमारा स्वभाव भी वृक्षों की भांति होना चाहिए। वे धूप, आतप, वर्षा, आंधी आदि के प्रहार सहन करने के पश्चात् भी तपस्वी की भांति खड़े रहते हैं, जबकि वे जानते हैं कि उन्हें अपने फलों का स्वाद नहीं चखना है। परंतु वे परोपकार हित सबको शीतल छाया व मीठे फल देते हैं, भले ही कोई  इन्हें कितनी भी हानि पहुंचाए। इसी प्रकार सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करती हैं, चंद्रमा व तारे अपने निश्चित समय पर दस्तक देते हैं तथा थके-हारे मानव को निद्रा देवी की आग़ोश में सुला देते हैं ताकि वे ताज़गी का अनुभव कर सकें तथा पुन:कार्य में तल्लीन हो सकें। इसी प्रकार वर्षा से होने से धरा पर हरीतिमा छा जाती है, जीवनदायिनी फसलें लहलहा उठती हैं सबसे बढ़कर ऋतु-परिवर्तन जीवन की एकरसता को मिटाता है।
मानव का स्वभाव चंचल है। वह एक-सी मन:स्थिति में रहना पसंद नहीं करता। परंतु जब हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं, तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है, जो भूकंप, सुनामी, भयंकर बाढ़, पर्वत दरकने आदि के रूप में समय-समय पर प्रकट होते हैं।यह कोटिशः सत्य है कि जब प्रकृति के विभिन्न उपादान अपना स्वभाव नहीं बदलते,तो मानव क्यों अपना स्वभाव बदले…जीवन में बुरी राहों का अनुसरण करे तथा दूसरों को व्यर्थ हानि पहुंचाए? सो! जैसा व्यवहार आप दूसरों से करते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिये सदैव अच्छा सोचिए,अच्छा बोलिए, अच्छा कीजिए, अच्छा दीजिए व अच्छा लीजिए। यदि दूसरा व्यक्ति आपके प्रति दुर्भावना रखता है, दुष्कर्म करता है, तो कबीर दास जी के दोहे का स्मरण कीजिए ‘जो ताको  कांटा  बुवै, ते बूवै ताको फूल अर्थात् आपको फूल के बदले फूल मिलेंगे और कांटे बोने वाले को शूल ही प्राप्त होंगे। इसलिए इस सिद्धांत को जीवन में धारण कर लीजिए कि शुभ का फल शुभ अथवा कल्याणकारी होता है। यह भी शाश्वत सत्य है कि कुटिल मनुष्य कभी भी अपनी कुटिलता का त्याग नहीं करता,जैसे सांप को जितना भी दूध पिलाओ, वह काटने का स्वभाव नहीं त्यागता। इसलिए ऐसे दुष्ट लोगों से सदैव सावधान रहना चाहिए… उनकी फ़ितरत पर विश्वास करना स्वयं को संकट में डालना है तथा उनका साथ देना अपने चरित्र पर लांछन लगाना है, कालिख़ पोतना है। सो! मानव के लिए, दूसरों के व्यवहार के प्रतिक्रिया-स्वरूप अपना स्वभाव न बदलने में ही अपना व सबका हित है, सबका मंगल है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – 1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

हम  “संजय दृष्टि” के माध्यम से  आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित  करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित  की गई थी।  कल स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस  था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं।  इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख  “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका”  एक विशेष महत्व रखता है।  इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।

– हेमन्त बावनकर

 ☆ संजय दृष्टि  –  1.  राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका

लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’

दक्षिण अफ्रीका के जुलू  आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।

इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।

‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।

लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग  माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक  कहता है-

उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।

अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।

……….क्रमशः

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 20 ☆ दोहे ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  के अतिसुन्दर  “दोहे ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 20 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ दोहे

 

देख शरद की चाँदनी,

झूम उठा है चंद

पूनम के आगोश में,

हैं जीवन मकरंद।

 

देते हैं शुभकामना,

बाँट सको तुम प्यार।

जीवन में खुशियाँ सभी,

हर दिन हो त्यौहार।।

 

जो समझा सके मन को,

है चाबी वो खास।

पहुँच सकेगा  है वहीं,

होगा दिल के पास।।

 

मन से मालामाल वहीं,

जो दोषों से दूर।

जीवन में खुश है वहीं,

खुशियों से भरपूर।।

 

राजनीति का शोरगुल

छल छन्दी व्यवहार।

श्वेत कबूतर उड़ गए

अपने पंख पसार।।

 

रचती जाती पूतना ,

षड्यंत्री हर जाल ।

मनमोहन तो समझते,

उसकी हर इक चाल।।

 

महँगाई का दंश हम,

सहते हैं हर बार।

लुटते-लुटते लुट गए,

सबके ही घर बार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 8 ☆ सबसे सुंदर मेरा गाँव ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण रचना  “सबसे सुंदर मेरा गाँव ।”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 8 ☆

☆  सबसे सुंदर मेरा गाँव ☆

 

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।

जहां न कोई किलकिल-काँव।।

सबसे सुंदर मेरा गाँव।

 

खेरे खूँटे बैठी माई ।

करती जो सबकी सुनवाई ।।

जहां न चलते खोटे दाँव।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

भैरव बाबा  करते रक्षा ।

गांव-गली की रोज सुरक्षा ।।

सबका उनसे बड़ा लगाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

मेहनत की सब रोटी खाते।

भाईचारा खूब निभाते।।

रखते मन में निश्छल भाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

सादा जीवन प्रीति निराली ।

सच्चाई की पीते प्याली ।।

रहता सदा यहाँ सदभाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

ताल-तलाई हमें लुभाते

मंदिर भजन-कीरतन गाते

चौपालों में धरम-पड़ाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

सबके मन “संतोष” सरलता

संबंधों में बड़ी सहजता ।।

रखते नहीं द्वेष-दुर्भाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

कहते जिसको आदेगाँव ।

जहाँ प्यार की शीतल छाँव।।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।

जहाँ न कोई किलकिल-काँव।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प एकवीस # 21 ☆ सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक भावप्रवण कविता  “सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकवीस # 21 ☆

 

☆ सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ☆

सरीता ही

संजीवनी

सागराची

ओढ मनी. . . !

 

खाडी मुख

उधाणले

मिलनास

आतुरले.. . !

 

देत आली

जीवनास

समर्पण

सागरास. . . . !

 

सरीतेचे

गोड पाणी

सागराची

गाजे वाणी. . . . !

 

लाटातून

झेपावतो

सरीतेला

स्वीकारतो. . . . !

 

मिलनाची

दैवी रीत

सरीतेची

न्यारी प्रीत.. . . !

 

मिलनाची

ओढ  अशी

अवगुण

पडे फशी.. . !

 

जीवतृष्णा

भागवीते

सागरात

मिसळीते.. . . !

 

प्रेम प्रिती

समतोल

मिलनाचे

जाणे मोल. . . . !

 

वरूणाचे

पाणिबंध

मिलनाचा

स्मृती गंध.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆ मसीहा कौन ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय लघुकथा “मसीहा कौन ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆

 

☆ लघुकथा – मसीहा कौन ? ☆ 

 

“उतरती है कि नहीं ? नीचे उतर, तमाशा करवा रही है सबके सामने” ।

“मैं नहीं उतरूंगी’, वह सोलह – सत्रह वर्षीय नवविवाहिता रोती हुई बोली।

“घर चल तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा” आवाज में नरमी लाकर बस की खिड़की के पास नीचे खड़ी औरत बोली। “बस चलनेवाली है जल्दी कर…… उतर……. उतर नीचे, सुन रही है कि नहीं?” उस औरत के आवाज में फिर से तेजी आने लगी थी।

“चलने दे बस को, मैं नहीं उतरूंगी, वह लड़की दृढ़ता से बोली। इतना कहकर उसने बस की खिड़की का शीशा तेजी से बंद कर दिया।” नीचे खड़ी औरत ने फोन मिलाया और थोड़ी देर में ही एक पुरुष वहाँ आ गया।

औरत बोली – “ये तो बस से नीचे उतर ही नहीं रही। सरेआम फजीहत करवा रही है।”

“उतरेगी कैसे नहीं हरामखोर। इसका तो बाप भी उतरेगा।” उस आदमी ने खिड़की का शीशा जोर से भड़भड़ाकर अपनी भाषा में उसे धमकाना शुरू किया।

“बाप शब्द सुनते ही लड़की ने खिड़की खोलकर काँपते स्वर में कहा – बाप को बीच में क्यों लाते हो ? कुछ भी कर लो मैं वापस नहीं चलूंगी।”

इतना सुनते ही वह आदमी भड़क गया – “साली, तेरा यार बैठा है वहाँ जो खसम को छोड़कर जा रही है। उतर जा, नहीं तो हड्डी – पसली एक कर दूँगा।” लड़की बस से उतरने को कतई तैयार नहीं थी। बस के चलने का समय हो रहा था। नीचे खड़ा आदमी तनाव में था। ऐसा लग रहा था कि वह उस लड़की को हाथ से निकलने देना ही नहीं चाहता था। साथ खड़ी औरत से चिल्लाकर बोला – “जा बस में से इसका सामान उतार ला, फिर देखें कैसे जाती है।” औरत तेजी से बस में चढ़कर सामान उतारने लगी। उसने लड़की का भी हाथ पकड़कर खींचना चाहा। लड़की की ढीठता और अन्य यात्रियों को देखकर वह जबर्दस्ती ना कर सभी और सामान लेकर तेजी से बस से उतर गई। लड़की सीट पर लगी रॉड को कसकर पकड़े थी। मानो वही उसका सहारा हो। वह रोती रही पर अपनी जगह से टस से मस न हुई।

कंडक्टर आ गया। और उसने बस चलने का संकेत देने के लिए घंटी बजाना शुरू कर दिया। उस आदमी का पारा चढ़ गया। बंदूक की गोलियों सी दनादन गलियाँ उसके मुँह से निकलने लगी – “साली, आना मत लौटकर इस घर में। वापस आई तो टुकडे – टुकडे कर दूंगा। धंधा करने जा रही हैं हरामजादी।”

बस खचाखच भरी थी। हिलने – डुलने की गुंजाईश भी नहीं थी। कंडक्टर ने अंतिम बार घंटी बजाई और बस चल पड़ी। बस चलते ही यात्रियों ने चैन की साँस ली। हर किसी को ऐसा लग रहा था कि अगर आज ये लड़की डरकर या दबाव में आकर चली गई तो इसकी खैर नहीं। शायद लड़की भी यह जानती थी। बस के चलते ही उसके पपडाए होठों पर राहत नजर आई। वह आँखें बंदकर सिर सीर से टिका कर बैठ गई। चेहरे पर चोट के निशान साफ दिख रहे थे। उसकी आँखे बंद थीं पर चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। भयानक तूफान को झेलकर वह निकली थी।

खे बंदकर वह आगे आनेवाले तूफान से लड़नेकी ताकत अपने भीतर जुटा रही थी। लड़ाई उसने जीत ली थी, ना मालूम कितनी लड़ाईयाँ जीवन में उसे अभी लड़नी बाकी हैं ? सच है स्त्री अपनी मसीहा स्वयं ही है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 21 – बालपण…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है बाल्यपन  पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता बालपण…! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #21☆ 

 

☆  बालपण…! ☆ 

 

मी गात असताना

लेकराची

हार्मोनियम वर सफाईदारपणे

फिरणारी

बोटं पाहिली की

ओठांवर येणारे

शब्द शहारतात

थरथरतात…

ऐकत रहावसे वाटतात

फक्त त्याच्या

इवल्या इवल्या बोटांमधून

ऐकू येणारे सूर

डोळ्यांच्या पाणवठ्यावर

येऊन मी उभा राहतो

साठवून घेतो…

त्याची प्रत्येक हरकत,नजाकत

त्याचा प्रसंन्न चेहरा

आणि बरंच काही

माझ्या ओठांमधून येणा-या

बोथड शब्दांना तो

तो देत असतो जगण्याची

सुंदर लय….

आणि मी मात्र त्यांच्यामध्ये

शोधत राहतो माझ

प्रौढ होत गेलेलं बालपण…!

 

© सुजित कदम, पुणे

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