हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #37 – कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 37 ☆

☆ कार्पोरेट जगत और राष्ट्र भाषा हिन्दी

 

हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है, पर प्रश्न है कि क्या सचमुच ही हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा बन पाई है ? इस यक्ष प्रश्न को अनुत्तरित छोड देने में विगत पीढी के उन राजनेताओं की बहुत बडी गलती है, जिसके अनुसार हमारी संसद ने यह विधेयक पारित कर दिया कि जब तक देश का एक भी राज्य हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करने में अपनी तैयारी या अन्य कारणो से असमर्थता व्यक्त करें, तब तक हिंदी को अनिवार्य नहीं किया जावेगा। यही कारण है कि क्षेत्रवाद, भाषाई राजनीति, पक्ष, विपक्ष के चलते कानूनी रूप से हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा के रूप में आजादी के बहत्तर  वर्षों बाद भी स्थापित नहीं हो पाई।

लोकतंत्र में कानून से उपर जन भावनायें होती है, विगत कुछ दशकों में बाजारवाद विश्व पर हावी हुआ है। आज का युवावर्ग इसी बाजारवाद से प्रभावित है, जहां आजादी के दिनों में उत्सर्ग, देश के लिये समर्पण और त्याग की भावनायें युवाओं को आकृष्ट कर रही थी, वहीं वर्तमान समय में स्वंय की आर्थिक उन्नति, बढती आबादी के दबाव के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा में येन केन प्रकारेण आगे निकलने की होड में युवा सतत व्यस्त है। आज कार्पोरेट जगत में युवा शक्ति का साम्राज्य है।  विभिन्न कंपनियो के शीर्ष पदो पर अधिकांशतः युवा ही पदारूढ़ हैं।  बाजार वैश्विक हो चला है।  अंग्रेजी वैश्विक संपर्क भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है, अतः आज युवावर्ग ने मातृभाषा हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हुये अपनी अभिव्यक्ति व संपर्क का माध्यम बनाया है, त्रिभाषा फार्मूले के शीर्ष पर अंग्रेजी स्थापित होती दिख रही है। आंकडो में देखे तो हिन्दी का विस्तार हो रहा है, नई पत्र पत्रिकायें, किताबें, हिन्दी बोलने वालो की संख्या, विश्वविद्यालयों में हिन्दी पाठ्यक्रम, सब कुछ बढ रहा है। पर वास्तविकता से परिचित होने की जरूरत है, जर्मन रेडियो डायचेवेली ने हिन्दी प्रसारण बंद कर दिया है। बीबीसी अपने हिन्दी प्रसारण अप्रैल 2011 से बंद करने का निर्णय लिया था। हिंदी पुस्तको के प्रथम संस्करणों में 200 से 250 प्रतियां ही छप रही है। हिंदी लेखकों को कोई उल्लेखनीय रायल्टी नहीं मिल रही है। हिदीं ‘हिन्गलिश‘ बन रही है। मोबाईल पर एस.एम.एस हो या नेटवर्किग साइट पर युवा वर्ग की चैटिंग, रेडियो जाकी की एफ.एम. रेडियो पर उद्घोषणायें  हो या टीवी के युवाओ में लोकप्रिय कार्यक्रम, शुद्ध हिंदी मिलना दुष्कर है। गांव गांव तक हमारी फिल्मो व फिल्मी गीतो का युवा वर्ग पर विशेष प्रभाव है।  अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शीर्षक की फिल्में , उनके डायलाग तथा हिन्दी व्याकरण को ठेंगा बताती शब्दावली के फिल्मी गीत अपनी तेज संगीत वाली धुनो के कारण युवाओ में लोकप्रिय हैं. आशा की किरण यही है कि यह सब जो कुछ भी है देवनागरी में है, सकारात्मक ढ़ंग से देखें तो इस तरह भी हिन्दी देश को जोड़ रही है, तथा विश्व में हिन्दी को स्थान भी दिला रही हैं।  कार्पोरेट जगत के एम बी ए पढ़े लिखे युवा भले ही अंग्रेजी में गिटर पिटर करें या कार्पोरेट जगत का आंतरिक पत्र व्यवहार, प्रगति प्रतिवेदन आदि भले ही अंग्रेजी में हो पर जब वे अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग करते हैं तो उन्हें विज्ञापनो में हिन्दी का ही सहारा लेना पड़ता है, यह और बात है कि यह हिन्दी भी विशुद्ध न होकर जन बोली ही होती है।

हिंदी कविताओं की पुस्तके छपती है, पर वे विजिटिंग कार्ड की तरह बांटी जाने को विवश है, एवं लेखकीय आत्ममुग्धता से अधिक नहीं है। युगांतकारी रचना धार्मिता का युवा हिन्दी लेखको, कवियो में अभाव दिख रहा है। देश की आजादी के समय मिशन स्कूल, पब्लिक स्कूल एवं कावेंट स्कूलो के पास जो संस्थागत ताकत शिक्षण के क्षेत्र में थी, उसका हिंदी के विपरीत समाज पर स्पष्ट दुष्प्रभाव अब परिलक्षित हो रहा है । शिक्षा, रोजगार का साधन बनी, व्यक्ति की संस्कारों या सच्चे ज्ञान की वाहक अपेक्षाकृत कम रह गयी। रोजगार तथा बच्चो के सुखद आर्थिक भविष्य के दृष्टिकोण से स्वंय हिन्दी के समर्थक पालको ने भी अपने बच्चो को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने में ही भलाई समझी इसके परिणाम स्वरूप आज की अंग्रेजी माध्यम से पढी पीढी सत्रह, इकतीस या उननचास नहीं समझ पाती, उसे सेवेनटीन, थर्टीवन और फोर्टीनाइन बतलाना पडता है, यह पीढ़ी अंग्रेजी में सोचकर भले ही हिंदी में लिख ले पर वह हिन्दी के संस्कारो से जुड़ नही पाई है।

किंतु सब कुछ निराशाजनक ही नहीं है, एटीएम मशीन हो, या कम्पयूटर के साफ्टवेयर अंग्रेजी के साथ हिंदी के विकल्प भी अब सुलभ है, हिंदी शिक्षण हेतु नेट पर कक्षायें भी चल रही है, हिंदी ब्लाग प्रजातंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में स्थापित हो चला है, नित नये हिन्दी ब्लाग्स विविध विषयो पर देखने को मिल रहे हैं। यह सब हमारा युवा वर्ग ही कर रहा है, हिंदी में शोध करने वाले आज भी गंभीर कार्य कर रहे है, इसके दीर्घकालिक प्रभाव देखने को जरूर मिलेगें। आने वाले समय में आज का युवा ही हिंदी को किसी कानून के कारण नहीं, या उपर से थोपे स्वरूप में नहीं वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बीच, अंतरमन से हिंदी की सरलता, सहजता के कारण तथा हिन्दी के भातर की जनभाषा होने के कारण  व्यापक स्वरूप में अपनायेगा, हमारी पीढी इसी आशा और विश्वास के साथ हिंदी को बढ़ता देखना चाहती है।

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 37☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘उधार देने का सुख ’  एक बेहतरीन व्यंग्य है और शायद ही कोई हो जिसका इस व्यंग्य के पात्रों से सामना न हुआ हो।आप भी आत्मसात कीजिये । ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 37 ☆

☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆

उनसे मेरा परिचय सिर्फ सलाम-दुआ तक ही था क्योंकि मुझे मुहल्ले में आये थोड़े ही दिन हुए थे। बुज़ुर्ग आदमी थे। उस दिन वे सबेरे सबेरे अचानक ही मेरे घर में आ गये। बैठने के बाद उन्होंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ायी। बोले, ‘वाह, बहुत सुन्दर। आपकी रुचि बहुत अच्छी है।’

मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, ‘जी,यह सब मेरी पत्नी का योगदान है। मेरा योगदान तो इसे यथासंभव बिगाड़ने में रहता है।’

वे हँसे और देर तक हँसते रहे। फिर बोले, ‘आपकी आयु अब कितनी हुई?’ मैंने मुँह बनाकर कहा, ‘आप तो दुखती रग छू रहे हैं। पचास पार हो गया।’ उन्होंने भारी आश्चर्य प्रकट किया, बोले, ‘आप तो बहुत तरुण दिखते हैं। आपको देखकर भला कौन कहेगा कि आप तीस से ज़्यादा हैं?’

यह भी अच्छा लगा। यह ऐसी तारीफ है जिसे सुनकर बूढ़ा सन्यासी भी पुलकित हो जाता है। मैं ठहरा सामान्य सद्गृहस्थ।

वे फिर बोले, ‘आपका बेटा बड़ा मेधावी है। बड़ा होशियार है। ‘मैंने सचमुच मुँह बनाकर कहा,’ नीट में तीसरी बार बैठ रहा है। ‘ वे थोड़ा अप्रतिभ हुए, लेकिन हारे नहीं। बोले, ‘लेकिन उसमें प्रतिभा ज़रूर है और एक दिन वह ज़रूर प्रकाशित होगी। ‘ मैंने कहा, ‘आपके मुँह में घी-शक्कर।’

और थोड़ी देर बैठकर, कुछ नैवेद्य ग्रहण करके उन्होंने विदा ली। दहलीज पार करके दो चार कदम चले होंगे कि ऐसे लौट पड़े जैसे एकाएक कुछ याद आ गया हो। बोले, ‘आपके पास पाँच सौ रुपये पड़े होंगे क्या? एक आदमी को देना है। कल बैंक से निकालना भूल गया। आज बैंक खुलते ही आपको लौटा दूँगा।’

मैंने ‘कैसी बातें करते हैं’ वाले पारंपरिक वाक्य के साथ उन्हें राशि अर्पित कर दी।

उसके बाद बैंक रोज़ खुलते और बन्द होते रहे, लेकिन वे पैसे देने नहीं आये। करीब एक हफ्ते बाद वे फिर आ गये। बैठकर आधे घंटे तक मुहल्ले-पड़ोस और शहर की बातें करते रहे। फिर उठे और उसी अदा से दहलीज से लौट आये। बोले, ‘वह आपका पैसा कुछ झंझटों के कारण नहीं दे पाया। दो तीन दिन में ज़रूर दे दूँगा। आप निश्चिंत रहिएगा।’ मैंने बुदबुदाकर ‘कोई बात नहीं’ कहा।

तीन चार महीने बाद एक दिन पीएच.डी. उपाधि मिलने के कारण मेरा अभिनन्दन हुआ। उस दिन जीवन में पहली बार अभिनन्दन का सुख जाना। उस दिन पता चला कि लोग अभिनन्दन के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं कि अभिनन्दन का खर्च ओढ़ने को भी तैयार रहते हैं।

अभिनन्दन ग्रहण करके कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता के मूड में स्कूटर पर लौट रहा था कि रास्ते में उन्होंने आवाज़ दी। कहने लगे, ‘कहाँ से आ रहे हैं?’ मैंने उन्हें अभिनन्दन के बारे में बताया तो उन्होंने मुक्तकंठ से बधाई दी। मैंने चलने के लिए स्कूटर स्टार्ट की तभी वे बोले, ‘वह जो आपका पैसा है, उसकी आप फिक्र मत कीजिएगा। जल्दी ही दे दूँगा।’

मैं चला तो आया लेकिन मेरे मूड का नाश हो गया। घर आकर मैंने निश्चय किया कि पाँच सौ रुपये से भले ही ग़म खाना पड़े, लेकिन इस बला को ख़त्म करना ही होगा।

दूसरे दिन शाम को मैं उनके घर गया। वे बड़े प्रेमभाव से मिले। कुछ बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘मैं एक बात कहने आया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा पैसा देने में आप कुछ दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इंसानियत के नाते मैं चाहता हूँ कि आप उस कर्ज को भूल जाएं। एक दूसरे की इतनी मदद तो करनी ही चाहिए।’

वे मेरी बात सुनकर रुआंसे हो गये। बोले, ‘आप कैसी बातें करते हैं? मैंने आज तक किसी का कर्ज नहीं रखा। आपका पैसा नहीं चुकाऊँगा तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी। हमारे घर में देर होती है, अंधेर नहीं होता। आप ऐसा करने के लिए मुझे विवश न करें।’ उन्होंने मेरी तरफ देखकर हाथ जोड़ दिये। मैं उनके पाखंड को देखकर कुढ़कर चला आया।

महीने भर बाद वे फिर घर आ गये। बड़ी देर तक मौसम और राजनैतिक स्थिति की चर्चा करते रहे। फिर उठे, दहलीज तक गये और कुछ याद करके लौट पड़े। तभी मैं पर्दा उठाकर तीर की तरह भीतर भागा और बाथरूम में घुसकर मैंने भीतर से सिटकनी चढ़ा ली।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #35 ☆ ढाई आखर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 35 ☆

☆ ढाई आखर ☆

(14 फरवरी के संदर्भ में)

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनाभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 22 – जियो और जीने दो ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘जियो और जीने दो ‘।आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22  – विशाखा की नज़र से

☆ जियो और जीने दो  ☆

 

बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मैं

बिखरें बालों को समेट कर

तुम्हारे चौड़े ललाट पर

उँगलियों की पोरों से

तुम्हारी बैचैनी, तुम्हारी अकुलाहट

और बहुत कुछ ….

 

तुम्हारे हल्के नकार में रिसती

पसीने की बूंदों को

मैं अपने फाउन्टेन पेन में भर

महाकाव्य रच देना चाहता हूँ

इस स्याह रात में ….

 

स्याह रात !

जो बदनामी के डर से

और काली हो चली है

चंद्रकोर भी ढ़क चली है

कि, कोई गवाह ना रहे हमारे प्यार का

एक  सितारा भी नज़र ना आ सके

हमारे इकरार का ..

 

पर मैं ये ना समझूँ

कि क्यों प्यार छुपाया जाए

प्यार में ख़ून बहाया जाए

दीवारों पर चुनवाया जाए

सूली पर लटकाया जाए

 

कुछ तो सुन लो कानों को बंद किये आदमी

जमाने भर के पैबंद लिए आदमी

प्यार से उपजे आदमी

आदम हौवा की संतानें आदमी

कि,

इश्क अगर बीमारी है तो होने दो

रिसते है जख्म तो रिसने दो

इसे महामारी में बदलने दो

 

यूँ तो नफरतों से बाजार भरा पड़ा है

प्यार एक कोने में दुबका खड़ा है

कहीं तो प्यार परवान चढ़ने दो

जियो और जीने दो ……….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 11 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 11 – धत् पगली ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली पर किस प्रकार दुखों का पहाड़ टूट पडा़ था। परन्तु वह विधि के विधान को समझ नही पा रही थी कि उसके भाग्य  में अभी और कौन  सा दिन देखना बाकी है। पहले पति मरा फिर आतंकी घटना नें उससे जीने का आखिरी सहारा भी छीन लिया पगली का हृदय आहत हो बिलबिला उठा था।  बिछोह की पीड़ा ने उसे चीत्कार  करने पर विवश कर दिया।अब आगे पढ़े——)

पगली के बेटे गौतम की अर्थी निकले महीनों  गुजर चुके थे।  गांव के सारे लोग उस गुजरे हादसे को अपने स्मृतियों से भुलाने में लगे थे, लेकिन फिर भी पगली का सामना होते ही लोगों की स्मृति में  गौतम का क्षत-विक्षत शव का दृश्य तैर जाता और लोग उस घटना को याद कर सिहर उठते।  लोगों के मन में दया करूणा एवम्ं सहानुभूति का ज्वार पगली के प्रति उमड़ पड़ता।

लोग पगली के प्रति नियति की कठोरता पर  विधाता को कोसते।  उसे देख कर जमाने के लोगों के दिल में हूक सी उठती तथा आह निकल जाती।  पति तथा पुत्र के असामयिक निधन ने उसके चट्टान से हौसले को तोड़ कर रख दिया।  उसका सारा हौसला रेत के घरोंदे जैसा भरभरा कर गिर गया।

पगली का व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की मानिन्द बिखर गया। पगली भीतर  ही भीतर टूट चुकी थी।  उसके जीवन से जैसे खुशियों के पल रूठ कर बहुत दूर चले गए हो। पति का बिछड़ना तो पगली ने बर्दाश्त कर लिया था।  उसनें गौतम के साथ जीने और मरने के सपने सजाये थे, लेकिन गौतम की असामयिक मृत्यु ने उन सपनों को  चूर चूर कर दिया, वह विक्षिप्त हो गई थी।

उस पर पागलपन के दौरे पड़ने लगे थे। उसे देख ऐसा लगता जैसे जीवन से उसका ताल मेल खत्म हो गया हो।  सूनी सूनी आंखें, बिखरे बिखरे बाल, तन पर फटे चीथड़ों के शक्ल में झूलती साड़ी, तथा अस्त व्यस्त जीवन शैली।  उसके दुखी जीवन के पीड़ा की कहानी बयां करती, जिन्दगी से उसकी सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी।

वह लक्ष्य विहीन जीवन जीती आशा और निराशा में भटकती कटी हुई पतंग की तरह फड़फड़ा रही थी।

वह प्राय:मौन हो यहाँ वहाँ घूमती, यदि गाँव की महिलायें दया भाव से कुछ दे देती तो वह उसे वही बैठ चुपचाप खा लेती।  कभी कभी वह अस्फुट स्वरों में कुछ बुदबुदाती, उसकी बातों का मतलब लोगों के लिए अबूझ पहेली थी।  मानों वह विधाता से अपने भाग्य की शिकायत कर रही हो।

फिर चाहे गर्मी की तपती दोपहरी हो अथवा रातों की नीरवता जाड़े की रात हो अथवा बारिशों का दौर वह दुआ मांगने वाले अंदाज में दोनों हाथ ऊपर उठाये एक टक् खुले आकाश की तरफ निहारा करती।

उसके साथ घटी घटनाओं ने उसका हृदय तार तार कर के रख दिया, जिससे उपजे दुख और पीड़ा ने उसे अक्सर बेख्याली में चीखने चिल्लाने पर मजबूर कर दिया।  जरा सा छेड़छाड़ हुई नही कि वह साक्षात् रणचंडी बन जाती। गांवों के बच्चे कभी उसे पगली पगली कह चिढ़ाते कभी पत्थर मारते, तो वह भी गुस्से में उन्हें गालियां देते मारने के लिए दौड़ा लेती। शरारती बच्चे भाग लेते, लेकिन उसी समय घटी एक साधारण सी घटना नें पगली के हृदय पर ऐसी असाधारण चोट पहचाई कि उसका हृदय विदीर्ण हो गया, वह कराह उठी।

उसने उस दिन पत्थर फेकते बच्चों की टोली को दौड़ाया तो उसी आपाधापी में एक बच्चा डर के मारे चीख कर बीच सड़क पर गिर गया। चोट उसके सिर पर लगी थी।

शायद पगली के दिल पर भी, बच्चे के सिर से रक्तधारा बह चली थी, अपना खून देख बच्चा बेसुध हो रोने लगा था। उसके चोट से बहती रक्तधारा देख पगली के हृदय में करूणा उमड़ आई। उसकी सोई ममता जाग उठी।  आखिर ऐसा क्यों न हो उसका दिल  भी तो एक माँ का दिल था।  उसकी ममता अभी जिन्दा थी।  उसने अपनी चीथड़ों की शक्ल में झूलती साडी़ का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे की चोट पर बांध दिया और बच्चे को गोद मे चिपका कर रो पड़ी।

वह रोये जा रही थी, तथा बच्चे के गाल से बहता रक्त भी पोंछ रही थी।  मानों अंजाने में हुए अपने पापों का प्रायश्चित कर रही हो।  तभी बच्चे का चोला चैतन्य हुआ और बच्चा [धत् पगली] कह गोद से उठकर अपना
हाथ छुड़ाते उठ भागा था।

उस समय पगली को ऐसालगा जैसे हाथ छुडा़ उसका अपना गौतम ही भागा हो। उसका भावुक हृदय चित्कार कर उठा।  वह भी उस बच्चे के पीछे (अरे मोरे ललवा, कहाँ छोड़कर पहले रे) चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी थी।

तब से ही पगली बेचैन रहती है उसका दिन का चैन और रातों की नींद खो गई है, वह रात दिन रोती रहती है।  जब रात की नीरवता के बीच कुत्तों के झुण्ड से रोनें तथा सितारों की टोली से हुआँ हुआँ के बीच अरे मोरे ललवा कंहाँ छोडि़ के पहले रे की आवाज वातावरण में तैरती है, तो उसका करूण क्रंदन सुन लोगों की रूह कांप जाती है।  लोग उसकी पीड़ा देख विधाता को कोसते हैं।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 12 – गोविन्द—

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रसहीन ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित जीवन दर्शन पर आधारित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – रसहीन  

प्रकृति से दूर कांक्रीट के जंगल में भटकती हुई एक तितली गिफ्ट सेंटर पर लटके सजावटी रंगबिरंगे फूलों की माला पर आकर्षित होकर , कभी इस फूल पर , कभी उस फूल पर बैठती एवं कुछ देर पश्चात पुनः उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठती । यह प्रक्रिया कुछ देर चलती रही और फिर तितली निढाल अवस्था में वहीं शो केस के कांच पर बैठ गई ।

उसे क्या पता था कि इन फूलों में रस नही है , ये केवल दिखावटी हैं । इन्हीं प्लास्टिक के फूलों की तरह मनुष्य भी प्राकृतिक सौंदर्य से दूर केवल बनावटी जीवन में ही रस ढूंढ़ते हुए रसहीन हो चुका है ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ।  हाँ इतना अवश्य कहना होगा कि- सर अगली बार ऑथर फ्रेंडली  पब्लिशर्स पर अवश्य प्रकाश डालने का कष्ट करियेगा। कई ऑथर्स अपनी बुक्स लेकर ऑथर फ्रेंडली पब्लिशर्स तलाश रहे हैं। इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ।  अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ व्यंग्य – सब कुछ फ्रेंडली है यहाँ फ्रेंड के सिवा ☆☆

इन दिनों आप एक छोटा सा सेफ्टी पिन खरीदने जाईये, आपको साड़ी फ्रेंडली मिलेगा. हेयर फ्रेंडली शैम्पू, नोज फ्रेंडली नथ, होंठ फ्रेंडली लिप-ग्लॉस, सामानों की दुनिया में इतना दोस्ताना माहौल पहले शायद ही कभी देखा गया. पिछले दिनों वाईफ और मैं एक तवा ख़रीदने गये. दुकानदार ने कहा – रुकिये मैडम, हम आपको होम-मेकर फ्रेंडली तवे दिखाते हैं.  मुझे लगा कि फ्रेंडली तवे शायद मांजने नहीं पड़ते, या कि उन पर गरम किये बिना ही रोटियां सेंकी जा सकती हैं, हो सकता है फ्रेंडली तवे झक्कास गोरे-गोरे से दीखते हों. दुश्मन तो अब तक का, घर का तवा भी नहीं था जो बरसों पहले किसी लुहार से माँ ने खरीदा था. तवा तवे जैसा ही था, मगर था महंगा. जब हवाला दोस्ती का दिया गया हो तो क्या तो बार्गेन का करना और क्या मन में महंगे का मलाल रखना. होम-मेकर खुश थी सो ले लिया.

रफ़्ता रफ़्ता दोस्ताना इंसानों से सामानों में शिफ्ट होता जा रहा है. किसी पुराने दोस्त के मिलने से चेहरे पर चमक पर आये न आये, स्किन फ्रेंडली साबुन से घिसने से जरूर आ जाती है. आदमी का दर्द बांटनेवाला भी कोई हो न हो कपड़ों का हमदर्द हाज़िर है. और हाँ, ‘यारों से बने हम’ की टैग लाईन में दोस्ती का पैगाम भले दिया हो मगर एक रिस्क भी है. इस मादक रसायन को पिलाने के बाद चार-यार अपने दोस्त को नाली में अकेला छोड़कर भी जा सकते हैं. उमर बीत जाती है सच्चा साथी खोजते-खोजते, मिल नहीं पाता, कोल्ड क्रीम में मिल जाता है – आपकी त्वचा का सच्चा साथी. जब ‘योर्स फ्रेंडली गैस’ की बात चले तो बिना हलचल मचाये, आसानी से, बे-आवाज, पेट से खिसकती गैस मत समझियेगा श्रीमान, ये एचपी की रसोई गैस की टैग लाइन है. इस गैस पर पकनेवाला भोजन भी फ्रेंडली होता जा रहा है. हार्ट फ्रेंडली डाईट, किडनी फ्रेंडली प्रोटीन, लीवर फ्रेंडली फ़ूड. जुबाँ फ्रेंडली व्यंजन तो बेशुमार हैं, नहीं हैं तो बस एक अदद हमजुबाँ फ्रेंड नहीं है.

फ्रेंडली माहौल सिर्फ सामान की दुनिया में ही नहीं है, पप्स एंड पेट्स की दुनिया में भी है. जो लोग पेरेंट्स के लिये स्पेस नहीं निकाल पाते वे भी डॉग फ्रेंडली मकान जरूर बनवा लेते हैं, पप्पीज के लिये गुलाटियाँ फ्रेंडली लॉन, लॉन में थोड़ी थोड़ी दूर पर फ्रेंडली खम्बे, कुत्तों के फ्रेश होने की फ्रेंडली फेसिलिटी, डॉग फ्रेंडली हाउस में हाउस फ्रेंडली डॉग्स.

ये फ्रेंडलीनेस सस्ती नहीं है श्रीमान. माल जितना ज्यादा फ्रेंडली, उतनी ऊँची कीमत. भ्रम में पड़ जाते हैं आप कि सामान के जरिये दोस्ती बेची जा रही है या दोस्ती के जरिये सामान. बाज़ार है कि खामोशी से दोनों बेच रहा है. अब तो भगवान भी आपको फ्रेंडली किसम के लाने हैं. गणेश अब सिंपल गणेश नहीं रहे, वे ईको फ्रेंडली मोड में आने लगे हैं. लक्ष्मीजी के लिये ईको फ्रेंडली पटाखे और मंदिरों में दर्शन फ्रेंडली ऊँची दर पे टिकट. फिर, तुलसीदासजी को ही कब पता था कि एक दिन उनकी हनुमान चालीसा वोटर फ्रेंडली साबित होगी.

धोखे भी कम नहीं हैं इस ट्रेंड में श्रीमान. हम आस लगाये रहते हैं कॉमन-मैन फ्रेंडली बजट की, निकलता है कंपनी फ्रेंडली. हर पाँच साल में लाते हैं एक गरीब फ्रेंडली सरकार, निकलती है कार्पोरेट फ्रेंडली. हर तवा तवे जैसा और हर सरकार सरकारों जैसी, सारा खेल मार्केटिंग का है श्रीमान.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆ रेत सी यादें …..!! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा कोहरे के आँचल में लिखी हुई एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “रेत सी यादें …..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 28 ☆

☆ रेत सी यादें …..!!

यादें लौट आती हैं

याद आने को,

आँसू बहा जाती हैं

सूख जाने को।

 

दिल को तार-तार करके

लौट जाती हैं,

कितने ही भेद खोल

करके जाती हैं ।

 

समंदर किनारे रेत का

घर तोड़ जाती हैं,

लहरें बनकर आती हैं

टकरा जाती हैं ।

 

ऊँगली से लिखे शब्द को

मिटा जाती हैं,

हाथों से बने दिल को

छेद जाती हैं ।

 

यादें रेत से सरकती

जाती हैं,

बीते लम्हों की बातें

सताकर जाती हैं ।

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 30 – भक्ति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “चेतना तत्व ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 30☆

☆ भक्ति

अनंत चतुर्दशी के दिन भगवान श्री हरि की पूजा की जाती है । यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है । इस व्रत में सूत या रेशम के धागे को लाल कुंकुम से रंग, उसमें चौदह गांठे (14 गांठे भगवान श्री हरि के द्वारा 14 लोकों की प्रतीक मानी गई है ) लगाकर राखी की तरह का अनंत बनाया जाता है । इस अनंत रूपी धागे को पूजा में भगवान पर चढ़ा कर व्रती अपने बाजु में बाँधते हैं । पुरुष दाये तथा स्त्रियां बायें हाथ में अनंत बाँधती है । ऐसी मान्यता है कि यह अनंत हम पर आने वाले सब संकटों से रक्षा करता है। यह अनंत डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनंत फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नए डोरे के अनंत को धारण करके पुराने का विसर्जन किया जाता है ।अग्नि पुराण के अनुसार व्रत करनेवाले को एक सेर आटे के मालपुए अथवा पूड़ी बनाकर पूजा करनी चाहिये तथा उसमें से आधी ब्राह्मण को दान दे और शेष को प्रसाद के रूप में बंधु-बाँधवों के साथ ग्रहण करें । इस व्रत में नमक का उपयोग निषेध बताया गया है । ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति को अनंत रास्ते में पड़ा मिल जाये तो उसे भगवान की इच्छा समझ कर, अनंत व्रत तथा पूजन करना चाहिये । यह व्रत पुरुषों और स्त्रियों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला माना गया है । इस व्रत के प्रभाव से ही पाण्डवों ने अपने भाईयों सहित से महाभारत का युद्ध जीत कर अपना खोया हुआ साम्राज्य तथा मान सम्मान पाया । कहा जाता है कि जब पाण्डव जुएँ में अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया।

अनन्तचतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

भगवान हनुमान जैसा आज तक कोई भी भक्त नहीं हुआ है।

नारद मुनि एक बार भगवान हनुमान से मिले, जिन्होंने उनके लिए एक गीत गाया। संगीत का आनंद लेते हुए नारद ने अपनी वीणा को एक चट्टान पर रखा जो भगवान हनुमान के गीत से पिघल गयी थी, और नारद की वीणा पिघले हुए चट्टान में समा गयी जब भगवान हनुमान द्वारा गायन खत्म हो गया था, तो वो चट्टान फिर से कड़ी हो गई और नारद मुनि की वीणा उसमें फंस गई।तब भगवान हनुमान ने नारद मुनि से एक गीत गाकर चट्टान को पिघलाने और अपनी वीणा को बाहर निकालने के लिए कहा। नारद मुनि ने गीत गाया किन्तु चट्टान जरा भी नहीं पिघली।जब भगवान हनुमान ने पुनः एक गीत गाया तो चट्टान फिर से पिघल गयी। तब नारद मुनि ने इसका कारण पूछा। भगवान हनुमान ने कहा, “हे महान ऋषि! मेरा गीत मेरे भगवान राम की भक्ति से भरा था, लेकिन आपका अहंकार से भरा हुआ था। वह केवल भक्ति ही है, अहंकार नहीं जो चट्टानों को भी पिघला सकता है।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य ☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नशा ☆ सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक ऐसे  लघुकथा जिसमें एक सामाजिक बुराई का अंत दर्शित करने का सफल प्रयास किया गया है। नशे की लत विशेष कर हमारे समाज के  निम्न – मध्यम वर्ग के परिवार को खोखला करते जा रही है। हालांकि मध्यम  एवं उच्च वर्ग के कुछ परिवार व बच्चे भी इसके अपवाद नहीं हैं । वीक एन्ड पार्टियां, बैचलर पार्टियां और न जाने क्या क्या।? एक  विचारणीय लघुकथा।)

☆ लघुकथा – नशा ☆

हर रोज की तरह वह आज भी दारू पी कर आया था। लेकिन आज झगड़ा नहीं कर रहा था। वरन् शांत था। आज जब घरवाली ने खाना दिया तो न चिल्लाया न मीन मेख ही निकाली। उसने पूछा, “क्या बात है, आज कम मिली है?” वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोले जा रही थी पर आज रमेश कुछ भी उत्तर नहीं दे रहा था। आज बच्चे माँ-बाप सब अचम्भे में थे। आज कोई डरा हुआ नहीं था। बच्चे सहम कर चिपके हुए नहीं थे।

..चुपचाप खाना खा वहीं बरामदे में पड़ी चारपाई पर लेट गया व थोड़ी देर बाद ही नींद आ गई। कड़ाके की ठंड थी। सबने खूब जगाया ताकि अंदर सुला सके। नशे की वजह से वह गहरी नींद में था नहीं उठा वहीं उसके ऊपर रजाई ढांप दी। सब अपने बिस्तरों में जाकर सो गये। सुबह 5 बजे जब माँ उठी तो देखा वह बिना ओढे जमीन पर सोया पड़ा है। खूब उठाया मगर टस से मस नहीं हुआ। तब सब घबरा गये। क्योंकि इतनी देर बाद तो नशा भी उतर जाता है।

..डॉक्टर को बुलाया पूरे चेकअप के बाद जो उसने उत्तर दिया सब बिलख-बिलख रोने लगे। उसने बताया, “ठंड में ज्यादा देर जमीन पर लेटे रहने से खून जम गया है व हार्ट ने काम करना बंद कर दिया है। इसे मरे तकरीबन एक घंटा हो चुका है। “सब रो-रो कर अफसोस जाहिर कर रहे थे कि हम में से किसी को पास सोना चाहिए था, इतना समझाते थे कि हमारी तरफ तो देख हमारा क्या होगा तू इतनी मत पिया कर। अगर सुन लेता तो आज हमें….।

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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