मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 22 ☆ लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

लोकमान्य हास्य योग संघाच्या बावीसाव्व्या वर्धापन दिनानिमित्त

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित लोकमान्य हास्य योग संघ, पुणे  के बावीसवें स्थापना दिवस पर एक कविता  “लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन”।  कविता का प्रकार – मुक्तछंद है। ई- अभिव्यक्ति की और से लोकमान्य हास्य योग संघ, पुणे को बावीसवें स्थापना दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें।)  

☆0 साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 21 ☆

☆ लोकमान्य हास्य योग संघ वर्धापनदिन ☆

!!श्रीराम!!
!!श्रीगणेशाय नमः!!
!!श्रीशारदायै नमः!!
!! श्री गुरवे नमः!!
कवितेचा प्रकार : मुक्तछंद
चाल:- कविवर्य भा.रा.तांबे यांच्या “सायंकाळची शोभा “या कवितेतील ..
“पिवळे तांबुस ऊन कोवळे ,पसरे चौफेर..ऽऽ”
या चालीवर.
लोकमान्य हास्ययोग संघाच्या आम्ही नित्य इथे जमुनी ऽऽ
हा हा हो हो उगाच नाही करीत साऱ्याजणी !!१!!
व्यर्थ न जमतो येथे आम्ही फक्तचि हसण्याला ऽऽ
खेळ खेळुनी शिकतो आम्ही सुंदर जगण्याला !!२!!
खेळ खेळतो फुगे फुगवितो पतंगही उडवितो ऽ ऽ
मस्त काटाकाटी करुनिया गंमतचि पाहतो !!३!!
दोहन करितो दो हातांनी दूध पिऊनी टाकितो ऽ ऽ
ताक घुसळुनी लोणी काढुनी गट्टमचि करितो !!४!!
फू फू आवाज करीत आम्ही गालचि ते फुगवुनी ऽ ऽ
फुफुसातली नको ती हवा देतो टाकुनी !!५!!
स्वच्छ मोकळा श्वास घ्यावया तयार होतो आम्ही ऽऽ
वारकरी होऊनी नाचतो रिंगण ते करुनी !!६!!
राग लोभ अहं मद मत्सर हे शत्रू असती सहा ऽऽ
बिघडविती आरोग्य कसे ते सर्वांनी हो पहा!!७!!
त्या शत्रूंना पळविण्यासचि एकचि उपाय ऽऽ
हास्यसंघामध्ये येऊनी त्यांना करा बाय बाय ,!!८!!
हास्यसंघात नियमित येता चेहरा होई गोजिरा ऽऽ
सारे मिळुनी वर्धापन दिन आज करु साजरा !!९!!
” लोकमान्य हास्य योग संघाचा विजय असो !”

©️®️उर्मिला इंगळे, सतारा

दिनांक:-१६-२-२०२०

मो. 9028815585
 !!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 34 ☆ सुखी जीवन का मंत्र ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “सुखी जीवन का मंत्र”डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। इस आलेख का प्रथम कथन  “सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो ” यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है।  डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 34☆

☆ सुखी जीवन का मंत्र 

 

‘सुखी जीवन जीने के लिए दो बातें हमेशा याद रखें… मृत्यु व भगवान’ और दो बातें भूल जाएं… ‘आपने कभी किसी का भला किया हो और किसी ने आपका बुरा किया हो’ यह सार्थक संदेश है… महात्मा बुद्ध का, जिसका अनुसरण कर मानव निश्चिंत जीवन जी सकता है। उसके जीवन में कभी अवसाद आ ही नहीं सकता, क्योंकि जब मन में किसी के प्रति दुर्भावना व दुष्भावना नहीं होगी, तो तनाव कैसे होगा? सो! आपको किसी में भी बुराई नज़र आयेगी ही नहीं। आइए! आज से उसे धारण करते हैं, जीवन में तथा उस परमात्म सत्ता का हर पल नाम-स्मरण करना…सृष्टि में उसकी सत्ता को अनुभव करना और ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ को अपने अंतर्मन में बसाए रखना अर्थात् उसकी  विस्मृति न करना ही सुखी जीवन का रहस्य है। यह अकाट्य सत्य है कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, फिर उससे भय कैसा? गीता में तो इसे वस्त्र धारण करने के समान स्वीकारा गया है। मृत्यु के पश्चात् मानव शरीर भी नया चोला धारण करता है… इसके लिए शोक क्यों?

यदि हम सृष्टि-नियंता में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, तो हम कभी कोई गलत काम करने की सोचते भी नहीं, क्योंकि ‘कर्म करावन अपने आप, न कछु बंदे के हाथ’ जब मालिक सब कुछ करने वाला है…सो! कल की चिंता क्यों? आज अथवा वर्तमान निश्चित है, कल कभी आता नहीं, क्यों न आज ही अच्छे कर्म करें? कल अनिश्चित है, कभी आता नहीं, फिर क्यों न आज से ही अच्छे कर्म करें, खूब परिश्रम कर जीवन को सार्थक बनाएं। क्योंकि आज कभी जाता नहीं और कल आता नहीं। इसलिए हर पल को जीवन का अंतिम पल समझ कर, प्रसन्नता से जीना चाहिए। अपने हृदय में कलुषता व किसी के प्रति मलिनता ने आने दें। इस स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का शमन-अंत स्वत: हो जाएगा। राग-द्वेष की जनक है, स्व-पर की भावना अर्थात् जब हम अपनों से प्रेम करते हैं, उनका हित चाहते हैं, उस स्थिति में अपने-पराए का भाव घर कर जाता है और हम उसके हित में कुछ ग़लत भी कर गुज़रते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘अंधा बांटे रेवड़ियां, बार-बार अपनों माहिं’ उसे अपनों के सिवाय कोई नज़र ही नहीं आता। उसका दायरा बहुत सीमित होता है। परंतु मानव में सबके प्रति समभाव और प्राणी-मात्र के कल्याण का भाव होना चाहिए। इस स्थिति में वह संतोषी जीव अपरिग्रह रूपी रोग से मुक्त रहेगा और उसके मन में यही धारणा बनी रहेगी, कि इस संसार में मानव जो भी करता है, वही लौटकर उसके पास आता है। सो! मानव नि:स्वार्थ भाव से कार्य करता है। परंतु स्वार्थ हमें एकांगी बनाता है, आत्म- केंद्रितता का भाव जाग्रत करता है, जिसका जनक है…लोभ व मोह का भाव। माया के कारण यह नश्वर संसार व संबंध सत्य भासते हैं, जबकि सब संबंध स्वार्थ के होते हैं तथा इनसे मुक्ति पाना मानव जीवन का लक्ष्य  होता है।

यह स्थिति तभी आती है, जब मानव दो बातें भूल जाए…कि ‘उसने कभी किसी का भला किया है या किसी ने उसका बुरा किया है।’ और ‘भलाई कर कुएं में डाल’ इस कहावत से तो आप सब परिचित होंगे। यदि आप किसी का हित करके उसे नहीं भुलाते हैं, तो आपके अंतर्मन में प्रतिदान की इच्छा जाग्रत होना स्वाभाविक है। आप में अपेक्षा भाव जाग्रत होगी कि मैंनें उसके लिए यह सब किया, परंतु बदले में मुझे क्या मिला… यह भाव हमें पतन के गर्त में ले जाता है। हम स्वार्थ के ताने-बाने से कभी भी मुक्त नहीं हो सकते।। इसका दूसरा पक्ष यह भी है, कि हम भूल जाएं… किसी ने हमारा बुरा किया है। जी हां! हम यह सोचें कि यह तो हमारे कर्मों का फल है, जो हमें मिला है। इसमें किसी का क्या दोष… भगवान ने उसे बुद्धि ही ऐसी दी है, तभी वह यह सब कर रहा है, वरना उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह सकारात्मक सोच है, जो हमें व्यर्थ की चिंता व चिंतन से मुक्त कर सकती है और हम तनाव-रहित जीवन जी सकते हैं। यह सोच हमारे हृदय में प्रभु के प्रति आस्था भाव उत्पन्न करती है कि वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है…वह हमारा बुरा कभी सोच ही नहीं सकता। जिस प्रकार माता-पिता मतभेद होने के पश्चात् भी, अपनी संतान का हित चाहते हैं, तो वह सृष्टि-नियंता, जिससे हमारा जन्म- जन्मांतर का अटूट संबंध है, वह हमारा अमंगल कैसे कर सकता है? वह तो हमारा सच्चा हितैषी है, जो  हमें प्रभु देता है, जिससे हमारा मंगल होता है, न कि जो हम चाहते हैं। इसलिए सब कुछ प्रभु पर छोड़ कर, मस्ती से जियो… सब अच्छा ही अच्छा होगा और जीवन में कभी भी, कोई बुरा वक्त आएगा ही नहीं।

मुझे स्मरण हो रहा है, ग़ालिब का वह शेयर

गुज़र जायेगा यह दौर भी, ज़रा इत्मीनान तो रख

जब खुशी ना ठहरी, तो ग़म की औक़ात क्या

अर्थात् सुख-दु:ख, हानि-लाभ सब मेहमान हैं…आते-जाते रहते हैं। दोनों एक स्थान पर इकट्ठे ठहर ही नहीं सकते। सो! स्मरण रहे, कि रात के पश्चात् दिन व दु:ख के पश्चात् सुख का आना अवश्यंभावी है। सूरज भी हर शाम अस्त होता है और भोर होते अपनी स्वर्णिम रश्मियां धरा पर विकीर्ण कर, सबको उल्लसित- ऊर्जस्वित करता है। वह कभी निराश नहीं होता और पूर्ण उत्साह से अंधकार को दूर करता है।

सो! परिवर्तन सृष्टि का नियम है और समय अपनी गति से निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं। इसलिए मानव को भी निरंतर पूर्ण उत्साह व साहस के साथ कर्मशील रहना चाहिए। ज़िंदगी तो एक फिल्म की भांति है, जिसका अर्द्ध-विराम होता ही नहीं, केवल अंत होता है। इसलिए जीवन में कभी रुकिए नहीं, अविराम चलते रहिए…अपनी संस्कृति तथा संस्कारों से जुड़े रहिए। इंसान कितना भी ऊंचा उठ जाए, परंतु उसके कदम ज़मीन से जुड़े रहने चाहियें, क्योंकि अहंकारनिष्ठ मानव पल भर में अर्श से फर्श पर आन गिरता है। इसलिए अहं को कोटि शत्रुओं सम स्वीकार, उसका त्याग कर दीजिए और जीवन को साक्षी भाव से देखने का अंदाज़ सीख लीजिए, क्योंकि जो होना है, निश्चित है… अवश्य होकर रहेगा। लाख प्रयास करने पर भी, आप उसे रोक नहीं सकते। सो! आप प्रेम से पूरे संसार को जीत सकते हैं और अहं से सब कुछ खो सकते हैं। इसलिए प्रशंसा के दो बोल सुनकर फूलिए मत, क्योंकि यह विकास पथ में अवरोधक स्वरूप प्रकट होते हैं। हां! आलोचना पर गंभीरता से विचार करना अपेक्षित है, यह हमें अपने गुण-दोषों से अवगत करा कर, सीधे-सपाट मार्ग पर चलने की राह दर्शाती है। इसलिए उन पहलुओं पर दृष्टिपात कर चिंतन-मनन कीजिए और अपने दोषों में सुधार कीजिए।

सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक है… अच्छे दोस्तों का होना। धन व दोस्त समान होते हैं, अनमोल  होते हैं… जिन्हें बनाना तो बहुत कठिन और खोना बहुत आसान होता है। इसी प्रकार रिश्ते भी नाज़ुक होते हैं, तनिक लापरवाही व ग़लतफ़हमी से टूट जाते हैं। इन्हें बहुत सहेज व संजो कर रखने की आवश्यकता होती है। सो! आप दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि अपेक्षा ही तनाव का कारण है। न अपेक्षा, न ही उपेक्षा। सो! निरपेक्षता को जीवन- मंत्र बना लीजिए। सब को सम्मान दीजिए, सम्मान प्राप्त कीजिए…सारे जहान की खुशियों से आपका दामन भर जायेगा और ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख’ वाली कहावत सार्थक हो जायेगी। इसलिए दाता बनिए… किसी के सम्मुख हाथ न पसारिए। आत्म संतोष सबसे बड़ा धन है और इस के सम्मुख सब धन धूरि समान अर्थात् रहीम जी के यह शब्द ‘जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान’ बहुत सार्थक  है। संतोष रूपी धन, अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने व आत्माव- लोकन करने के पश्चात् प्राप्त होता है। जब हम संसार को मिथ्या समझ, सबका मंगल चाहने लगते हैं और सृष्टि के कण-कण में परमात्मा सत्ता का आभास पाते हैं, तो उस परम सत्ता से हमारा तादात्म्य हो जाता है। इस स्थिति में हृदय पावन हो जाता है तथा हम किसी का अमंगल चाहते ही नहीं… न ही हमें किसी से अपेक्षा रहती है। सो! हमें वक्त, दोस्त व संबंधों की कद्र करनी चाहिए…वे अनमोल होते हैं। हमारे जीवन का आधार होते हैं… उन्हें बहुत संभाल कर रखना चाहिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 34 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनके द्वारा रचित  “भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 34 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे

 

चंचरीक की गूंज से,

खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे,

तुम मेरा संसार।।

 

पतझर झरता शाख से,

वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का

हमें  है इंतजार।।

 

मन उपवन में खिल रहे,

देखो पुष्प हजार।

धरा प्रफुल्लित देखकर,

झरते हरसिंगार।।

 

गुलशन के गुल देखकर

छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के,

रंगों   की    बौछार ।।

 

यश वैभव का गेह में,

रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे,

जीवन में मधुमास।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “फागुन”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 25 ☆

☆ फागुन ☆

 

फाग

गाँव गाँव फागें पढ़ें,ऐसा फागुन मास

होली मन महुआ हुआ,पिया मिलन की आस

 

होलिका

जलें होलिका हर गली,लेते सब नव आग

गुजिया बनती घरों में,बढ़े प्रेम अनुराग

 

मदन

चञ्चल चितवन मन बड़ा,कभी रखे ना धीर

मन मतङ्ग व्याकुल हुआ,चुभे मदन के तीर

 

फागुन

मस्ती फागुन में बढ़ी,चढ़ा फागुनी रंग

अब अबीर उड़ने लगी,खूब मची हुड़दंग

 

महुआ

मादक महुआ झूम कर,करता बहुत कमाल

रंग फागुनी चढ़ गया,करते सभी धमाल

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प पंचवीस # 25 ☆ समर्पित. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  व्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक  भावप्रवण कविता  “समर्पित. . . . !”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

☆ समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प  पंचवीस # 25 ☆

☆ समर्पित. . . . !☆

 

आधी होता वानर

मग झाला नर.

कधी सुर तर कधी  असूर

कधी यक्ष तर कधी किन्नर.

माणसा ही सारी तुझीच रूप.

तुला जन्मजात मती लाभलेली.

तू आर्य, तर कधी  अनार्य

टोळ्याटोळ्यातून रहाताना

घातलेस स्वतःला जातीचे कुंपण.

तू कधी संत,कधी महंत

कधी राजा,तर कधी, महाराजा

कधी  राष्ट्रपुरुष ,तर

कधी समाज पुरूष .

स्वतः घडलास

देश घडवलास.

ज्ञानी झालास

शिक्षणाचा प्रसार केलास.

कलेतून  आकारत गेलास

क्रिडेतून साकारत गेला

ज्ञानातून जगत गेलास

माणसा  तू  सतत

संस्कारातून शिकत गेला.

कार्य कर्तृत्व घडवीत गेला.

पद, पैसा,  प्रसिद्धी

क्षणोक्षणी जोडत गेला .

नी पैसा पैसा जोडताना

माणूस पण हरवीत गेला.

माणसानच आणली लोकशाही

लोकांनी लोकांसाठी. . .

आपलाच माणूस निवडून दिला

आपल्याला लोक ठरवून

लोकसत्ताक प्रतिनिधी झाला.

माणसा  अजूनही हव्या आहेत

मुलभूत गरजा, जगण्यासाठी.

आज स्वातंत्र्यानंतरही.. .

इथलं *बाई माणूस* सहन करत

अन्याय, अत्याचार,  बलात्कार.

इथ माणूस सुरक्षित हवाय

की  आरक्षित

प्रश्न आहे  अनुत्तरीत.

माणूस. . . माणूस. ..माणूस

माणूस  असा?

माणूस तसा ?

उत्तर नको प्रश्नांकीत. . !

माझीच कविता

माझ्यातल्या माणसाला समर्पित. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 20 ☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “पागल नहीं हैं हम”।  यह लघुकथा  हमें स्त्री जीवन की संवेदनाओं से रूबरू कराती हैं ।  जब किसीआतंरिक पीड़ा की अति हो या सहनसीमा के पार हो जावे तो  मानवीय संवेदनाएं और जुबान दोनों सीमायें लांघ जाती हैं।  डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर  सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 20 ☆

☆ लघुकथा – पागल नहीं हैं हम 

पुणे से वाराणसी जानेवाली ट्रेन का स्लीपर कोच। एक औरत सीधे पल्ले की साड़ी पहने, घूँघट काढ़े, गोद में नवजात शिशु को लिए ऊपरवाली बर्थ पर बैठी थी। नीचे की बर्थ पर शायद उसका पति, ३-४ साल की एक बेटी और सास बैठी थी। ट्रेन प्लेटफार्म से चल चुकी थी। यात्री अपना-अपना सामान बर्थ के नीचे लगा रहे थे। गर्मी का समय था, ट्रेन चली तो सबको थोड़ी राहत महसूस हुई। यात्री ट्रेन में चढ़ने की आपाधापी से निश्चिंत हुए ही थे कि तभी किसी को मारने की आवाज आई। साथ में विरोध का दबा सा स्वर- “काहे मारत हो हमका ? का बिगारे हैं तुम्हारा ?”

“ससुरी जबान चलावत है”, यह कह उसके एक थप्पड और जड दिया। औरत झुंझलाती हुई मुँह मोड़कर बैठ गई। यात्री कुछ समझते इससे पहले ही वह आदमी सीट पर बैठ अपनी माँ से बात करने लगा जैसे कुछ हुआ ही ना हो। माँ को पिटते देख बेटी सहम कर खिड़की से बाहर देखने लगी।

वह औरत इतना लंबा घूँघट काढ़े थी कि उसका चेहरा दीख ही नहीं रहा था। थोड़ी देर बाद वह बैठे-बैठे ही सोने लगी। नींद में उसका सिर इधर-उधर लुढ़क रहा था। बीच-बीच में वह बच्चे को थपकती जाती। उसका एक हाथ बच्चे को निरंतर संभाले हुए था। इतने में वह आदमी उठा और उसने अपनी पत्नी का सिर पकड़कर झिंझोड़ दिया- “हरामजादी सोवत है ? बच्चा गिर जाई तो। पागल औरत बा ई। अम्मा ! हमार किस्मत फूट गई।” अम्मा भी लड़के के साथ सुर में सुर मिलाकर बहू को कोसने लगी।

परिवार का आपसी मामला समझ लोग चुप थे लेकिन वातावरण बोझिल हो गया था।

रात के लगभग नौ बजे थे। लोग सोने की तैयारी कर रहे थे। कुछ ने तो सोने के लिए बत्तियाँ भी बुझा दी थीं। इतने में छीना-झपटी और मारपीट जैसी आवाजें सुनाई देने लगी। बंद बत्तियाँ फिर जल उठीं। लोगों ने देखा वह आदमी अपनी पत्नी की गोद से बच्चे को छीन रहा था। औरत घबराई हुई बच्चे को छाती से कसकर चिपकाए थी। छीना-झपटी में बच्चा भी घबराकर रोने लगा। इस जोर जबरदस्ती में औरत का घूँघट हट गया। उसका चेहरा  मारपीट की दास्तान बयान कर रहा था। आसपास के लोगों को जगा देख उस औरत में भी हिम्मत आ गई। वह चिल्लाने लगी – “ना देब बच्ची का। टरेन से फेंक देबो तो ? कहत हैं मेहरारू पागल है। अरे ! हम पागल नहीं हैं। तू पागल, तोहरी अम्मा पागल। दूसरी लड़की पैदा भई, तो का करी, फेंक देइ कचरे में ? तुम्हारे हाथ में दे देई गला घोंटे के बरे…………..”

स्लीपर कोच की बत्तियां जली रह गईं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण : अनन्य मुम्बई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – संस्मरण : अनन्य मुम्बई

90 के दशक की बात है। 85-86 में ग्रेजुएशन समाप्त कर आगे के जीवन का रोडमैप मस्तिष्क में तय कर चुका था। उच्चशिक्षा, लेक्चररशीप, शाम को थियेटर, लेखन और समाजसेवा। मुंबई शिफ्ट होना था और फिल्मों के लिए लिखना-अभिनय करना था। यूनिवर्सिटी के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लेखक, निर्देशक, अभिनेता और अन्य ललित कलाओं के तमगे लगाए मन समझता था कि बस एक कदम उठाया और वामन अवतार की तरह धरती मापी।

अलबत्ता विधि का लिखा मिटता नहीं। ‘मैन प्रपोजेस, गॉड डिस्पोजेस।’ बी.एड. करते हुए ही अकस्मात विधि ने व्यापार में ढकेल दिया। सुबह 9 से रात 11 तक अथक परिश्रम का दौर आरंभ हो गया। मध्यमवर्गीय परिवार, दायित्वबोध और चुनौतियों का पहाड़। व्यापार थोड़ा स्थिर हुआ तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन मुंबई जाकर इच्छित की दिशा में कदम आगे बढ़ाने का मन बनाया। हमारा बाज़ार गुरुवार बंद रहता था, सो मेरे लिए ‘वर्किंग डे’ में मुंबई जाकर लोगों से मिल सकने का अवसर था।

उस जमाने में एकांकी और नाटक लिखा करता था। कविता के ‘क’ से भी संपर्क नहीं हुआ था। सो अपनी एकांकियाँ और कुछ थीम (जिन्हें बाद में ‘वन लाइनर’ कहा जाने लगा) लेकर पुणे से मुंबई के चक्कर आरंभ हुए। पहली कुछ यात्राएँ निष्फल रहीं। मूल कारण था किसी से संपर्क ही न हो पाना। लोकल नेटवर्क पता नहीं था, ईस्ट-वेस्ट समझ में नहीं आता था। संबंधित स्टेशन पर उतरकर पैदल ही पता तलाशने निकल जाता था। एशियाड बसें चलती थीं। पुराना मुंबई-पुणे हाईवे था। मुंबई पहुँचने में 11  बज जाते थे। बमुश्किल कुछ घंटे हाथ में होते थे क्योंकि 4 बजे के बाद लौटना होता था ताकि अगले दिन काम पर जा सकूँ। कई बार देर होने पर देर रात लौटता, अगले दिन फिर वही  दिनचर्या। ‘चप्पल घिसना’ मुहावरे का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।

कुछ लोगों से मिला भी। ‘टी’ सीरिज में एक हमउम्र ने कुछ सेकंडों में एक थीम सुनी और कहा कि ऐसी एक मिलती-जुलती थीम पर हम काम कर रहे हैं, हमें कुछ अलग चाहिए। एक बार तो इंडस्ट्री के मील के पत्थर स्व. बी आर चोपड़ा के निवास स्थान तक पहुँच गया। अदालती-व्यवस्था पर मेरा नाटक ‘दलदल’ लोकप्रिय हुआ था। उसकी थीम उन्हें सुनाना चाहता था। दरबान से मालूम पड़ा कि अंदर मीटिंग चल रही है, समय लगेगा। बाद में कभी भेंट हो सकती है। अलबत्ता व्यवहार बेहद शिष्ट और उत्साहवर्द्धक था। इसके बाद व्यापार में अधिक व्यस्त होता गया। साप्ताहिक छुट्टी व्यापारिक खरीद के काम आने लगी। कभी-कभार यहाँ-वहाँ एकाध फोन करता, फिर दो-चार महीने में एक बार मुंबई यात्रा होने लगी और शनै:-शनै: बंद हो गई।

मनमोहन शेट्टी जी के उल्लेख के बिना इस यात्रा का वर्णन निरर्थक होगा। उन दिनों वे ‘अर्द्धसत्य’, ‘चक्र’ जैसी फिल्में बना चुके थे। मैं समानांतर सिनेमा का दीवाना था। मैंने उन्हें उनकी फिल्मों के संदर्भ में एक बधाई-पत्र भेजा।

आश्चर्यजनक रूप से उनका धन्यवाद का उत्तर भी आया। मुंबई की अगली यात्रा में पता तलाशते हुए मैं ‘एडलैब’ पहुँचा। शायद 11 बज रहे थे। शेट्टी जी अभी आए नहीं थे। उनके स्टाफ ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। साढ़े ग्यारह के लगभग मनमोहन जी आए। ऑफिस में बत्ती की। प्रार्थना के बाद कुर्सी पर बैठे और मुझे अंदर बुलाया।

मैं पहली बार किसी प्रोड्युसर के ऑफिस में बैठा था। मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने मेरे एकाध ‘वन लाइनर’ सुने। वे गंभीरता से सुनते रहे। फिर दोनों के लिए कॉफी आ गई। चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने बताया कि अगला प्रोजेक्ट वे श्याम बेनेगल जी के साथ कर रहे हैं। बेनेगल जी की काम करने की अपनी शैली है और उनके काम में किसी तरह की दखलअंदाज़ी नहीं की जा सकती। इसलिए तुरंत तो कुछ नहीं किया जा सकता, आगे किसी प्रोजेक्ट के समय  साथ बैठा जा सकता है।

कॉफी का आखिरी घूँट पीकर मग रखते हुए बोले, ‘यू आर अ पोटेंशिअल राइटर संजय! थोड़ा घूमना पड़ेगा पर आपको इंडस्ट्री में काम मिलेगा।’ पास के किसी स्टुडिओ में अमोल पालेकर जी अपने धारावाहिक ‘कच्ची धूप’ की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने मुझे पालेकर जी से मिलने के लिए कहा। कुछ और स्टुडिओ और वहाँ चल रहे प्रॉडक्शंस के बारे में बताया। इतने बड़े व्यक्ति का यह मार्गदर्शन मुझे आश्चर्यमिश्रित सुख दे रहा था।

सुखद आश्चर्य का चरम अभी बाकी था। मुकेश दुग्गल उन दिनों थोक में फिल्में बना रहे थे। उनकी किसी नई फिल्म की दो दिन बाद लाँच पार्टी थी। उसका निमंत्रण शेट्टी जी की मेज पर था। उन्होंने निमंत्रण उठाया। अपने नाम के बाद कॉमा लगाकर मेरा नाम लिखा। बोले, ‘दुग्गल से मिलना। उनको बोलना मैंने भेजा है। वो बहुत मूवीज बना रहे हैं। होप, आपको स्टार्ट मिलेगा।’

निमंत्रण-पत्र मेरे हाथ में था और मैं अवाक था। पता नहीं शेट्टी जी का धन्यवाद भी ठीक से कर पाया या नहीं। उन्होंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और शुभकामनाओं के साथ विदा किया।

चढ़ते समय दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ने की आदत थी। आज आनंदातिरेक में दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ उतरा। नीचे पहुँच कर एक लंबा श्वास लिया। लगा जैसे निमंत्रण नहीं बल्कि आकाश मुट्ठी में आ गया हो। ये बात अलग है कि दायित्व, निजी आकांक्षाओं पर भारी पड़े और उस लाँच में कभी नहीं पहुँच पाया।

आज पलटकर देखता हूँ तो दिखते हैं एक अनजान शहर में अनजान व्यक्ति के लिए आगे बढ़े हाथ। अनुभव अलग-अलग हो सकते हैं पर सामान्यत: ये शहर मुंबई और हाथ मुंबईकर के होते हैं।

आज बरबस याद आए मनमोहन शेट्टी जी और मुंबई का आत्मीय अनुभव। सलाम शेट्टी साहब, सलाम मुंबई!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 6:14 बजे, रविवार, 11.02.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर विशेष
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्या अभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर एक ऐतिहासिक एवं ज्ञानवर्धक आलेख  “बिजली और महात्मा गांधी”।  इस ज्ञानवर्धक एवं ऐतिहासिकआलेख  के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 33 ☆ 

☆ आलेख – बिजली और महात्मा गांधी ☆

भारत में प्रारंभिक व्यवसायिक बिजली उत्पादन कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉरपोरेशन ने 1899 में शुरू किया था, यद्यपि  गांधी जी के जन्म के लगभग दस पंद्रह वर्षो के भीतर ही कोलकाता ही देश का पहला शहर था जहां अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ।  शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी। 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से  बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया। अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में  किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई। लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है। ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था। उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है। ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है। ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था। इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी। विद्युत अधिनियम, 1903 के तहत लाइसेंस लेने के बाद ‘जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया। बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया। 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई। ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी। 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी।

यह वर्ष महात्मा गांधी के १५० वें जन्म वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से १९१५ में पूरी तरह भारत लौटे थे, इस तरह देश में बिजली की प्रकाश के उपयोग हेतु सुलभता तथा महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में सक्रिय योगदान लगभग समकालीन ही हैं।

१८८८ में जब गांधी जी लंदन पढ़ने गये थे तब लंदन में बिजली से प्रकाश व्यवस्था की जा चुकी थी। इसलिये गांधी जी बिजली से बहुत वाकिफ रहे। १८९३ से १९१४ तक वे दक्षिण अफ्रीका में रहे, तब तक दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन आदि शहरो में भी बिजली का उपयोग होने लगा था। टेलीग्राफ, इलेक्ट्रिक मोटर उपकरणो का उपयोग भी धीरे धीरे बढ़ रहा था। टेलीग्राम के उपयोग के दृष्टांत महात्मा गांधी की जीवनी में भी जगह जगह पढ़ने  मिलते हैं। यद्यपि सीधे तौर पर बिजली को लेकर महात्मा गांधी के विचार किसी पुस्तक में मुझे पढ़ने नही मिले पर महात्मा गांधी मशीनीकरण के अंधानुगमन के विरोध में थे। वे स्वायत्त ग्रामीण व्यवस्था के पक्षधर थे, बिजली के संदर्भ में इन विचारो को अधिरोपित करें तो आज बिजली वितरण, उत्पादन की जो क्षेत्रीय कंपनियां बनाई जा रही हैं, किंबहुना यह ढ़ांचा महात्मा गांधी के विकास के स्वशासित अनुपूरक ढ़ांचे का ही विस्तार कहा जा सकता है।

18 मार्च 1922 को गांधी जी को छह साल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें गुजरात की साबरमती जेल से विशेष ट्रेन से पुणे की येरवडा जेल स्थानांतरित कर दिया गया था। गांधी जी को अपेंडिसाइटिस की गंभीर समस्या के कारण 12 जनवरी 1924 में पुणे के ससून अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। अंग्रेज सरकार उनके आपरेशन के लिये मुंबई से आने वाले भारतीय चिकित्सकों का इंतजार करना चाहती थी लेकिन आधी रात से पहले ब्रितानी सर्जन कर्नल मैडॉक ने गांधी जी को बताया कि उनका तत्काल ऑपरेशन करना पड़ेगा जिस पर सहमति भी बन गई।

जब ऑपरेशन की तैयारी की जा रही थी, गांधीजी के अनुरोध पर ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ के प्रमुख वी एस श्रीनिवास शास्त्री और मित्र डॉ फटक को भी वहां  बुलाया गया जिससे देश की जनता के सामने अंग्रेज डाक्टर की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह न लगे। एक सावर्जनिक बयान जारी किया जिसमें गांधी जी ने कहा कि उन्होंने ऑपरेशन के लिए सहमति दी है, चिकित्सकों ने उनका भली-प्रकार उपचार किया है और कुछ भी अप्रिय होने पर सरकार विरोधी प्रदर्शन नहीं होने चाहिए।

दरअसल, अस्पताल के अधिकारी और गांधी जी यह भली भांति जानते थे कि यदि ऑपरेशन में कुछ गड़बड़ी हुई तो देश के जन मानस पर इसके अपरोक्ष राजनैतिक  प्रभाव होंगे।  गांधी जी ने जब इस बयान पर हस्ताक्षर के लिए  कलम उठाई, तो उन्होंने कर्नल मैडॉक से मजाकिया अंदाज में कहा, ‘देखो, मेरे हाथ कैसे कांप रहे हैं।।। आपको यह सही से करना होगा।’  जवाब में डा मैडॉक ने कहा कि वह पूरी ताकत लगा लेंगे। इसके बाद गांधी जी को क्लोरोफॉम सुंघा दी गई। जब ऑपरेशन शुरू किया गया, उस समय आंधी और वर्षा हो रही थी। ऑपरेशन के बीच में ही बिजली गुल हो गई ऑपरेशन के लिए टार्च लाइट की मदद ली गई। ऑपरेशन के बीच में इसने भी जवाब दे दिया। आखिरकार, ब्रितानी चिकित्सक ने लालटेन की रोशनी में गांधी जी का सफल ऑपरेशन किया। इस घटना के 95 साल बीत चुके हैं। सरकारी अस्पताल के 400 वर्ग फुट के इस ऑपरेशन थियेटर को एक स्मारक में बदल दिया गया है।महात्मा गांधी के जीवन की इस अहम घटना का साक्षी बने इस कमरे में महात्मा गांधी के ऑपरेशन के लिए इस्तेमाल की गई एक मेज, एक ट्राली और कुछ उपकरण रखे हैं। इस कमरे में एक दुर्लभ पेंटिंग भी है जिसमें बापू के ऑपरेशन का चित्रण है। किंतु आपरेशन के समय अस्पताल की बिजली गुल हो जाने की घटना रोमांचक तो है ही।

आज जाने कितनी बिजली परियोजनाओ का नामकरण महात्मा गांधी के नाम पर किया गया है, जाने कितनी विद्युतीकरण योजनायें उनके नाम पर चलाई जा रही हैं किंतु यदि महात्मा गांधी के सिद्धांतो से बिजली को जोड़ कर देखें तो हम कह सकते हैं कि सबके लिये सदैव बिजली की सौभाग्य योजना के लक्ष्य पा लेने के बाद जब देश के अंतिम व्यक्ति को भी बिजली का लाभ पहुंच सक रहा है तभी महात्मा गांधी और बिजली का वास्तविक सामंजस्य बनता समझ आता है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 12 ☆ कविता – हर कहानी है नई ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “हर कहानी है नई .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 12 ☆

☆ हर कहानी है नई  ☆ 

 

फूल बनकर मुस्कराती

हर कहानी है नई

चाँद-से मुखड़े बनाती

हर कहानी है नई

 

बह रहीं शीतल हवाएँ

कर रहीं जीवन अमर

पर्वतों की गोद से ही

झर रहे झरने सुघर

वाणियों में रस मिलाता

बोल करता है प्रखर

 

चाँदनी रातें लुटातीं

हर कहानी है नई

 

तेज बनकर सूर्य का

ऊष्मा बिखेरे हर दिवस में

शाक ,फल में स्वाद भरता

हर तरफ ऐश्वर्य यश में

सृष्टि का सम्पूर्ण स्वामी

हैं सभी आधीन वश में

 

नीरजा नदियाँ बहातीं

हर कहानी है नई ।

 

शाश्वत है शांति सुख है

और फैला है पवन में

सृष्टि का है वह नियामक

इंद्रियों-सा  जीव-तन में

जन्म देता वृद्धि करता

वह मिले हर सुमन कण में

 

बुलबुलों के गीत गाती

हर कहानी है नई

 

है धरा सिंगार पूरित

बस रही है हर कड़ी में

हीर,पन्ना मोतियों-सी

दिख रही पारस मणी में

टिमटिमाते हैं सितारे

सप्त ऋषियों की लड़ी में

 

पर्वतों-सी सिर उठाती

हर कहानी है नई

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 34 – असंच काहीसं…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  परमपूज्य माँ के स्नेह प्रेम पर आधारित एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “असंच काहीसं…!”)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #34☆ 

☆ असंच काहीसं…! ☆ 

 

मायेला हाँस्पिटल मध्ये

एडमिट केल्यापासून

तिच्या पासून दूर जावं

असं वाटतच नाही

कारण…,

जरा अवघडलेले पाय

मोकळे करायला

म्हणून मी बाहेर पडावं

अन् नेमकं .. .

तेव्हाच मनात येतं…

मी लहान असताना

आजारी पडल्यावर

माझ्या उशाशी बसणारी

माझी माय….,

क्षणभर जरी मला

दिसेनाशी झाली ना…,

तरी मी किती घाबरायचो

कावराबावरा व्हायचो.. .

अन् मायेला हाक मारायचो….

ती हातातलं काम सोडून

पुन्हा माझ्या जवळ

येऊन बसायची…

आज.. क्षणभर जरी मी

तिच्यापासून दूर झालो

आणि.. . . .

तिचंही असच काहीसं

झालं तर.?

मी अवघडलेल्या पायांनी तसाच

मागे फिरतो…

मायेच्या हाकेला ओ देण्यासाठी…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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