हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 10 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 10 – आतंकवाद का कहर  ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली विवाहित हो  ससुराल आई। बडा़ मान सम्मान मिला ससुराल से, संपन्नता थी ससुराल में, लेकिन सुहागरात के दिन की घटना अनकही कहानी बन कर रह गई।  पगली के जीवन में दिन बीतता गया, एक पुत्र की प्राप्ति, हुई नशे के चलते, संपन्नता दरिद्रता में बदल गई। फाकाकशी करने पर पगली मजबूर हो गई । नशे के शौक ने पगली से उसका पति छीन लिया, फिर भी पगली का हौसला टूटा नहीं। उसने गौतम को पढा़या लेकिन आतंकवाद ने ऐसा कहर ढाया कि पगली टूट कर बिखर गई। अब आगे पढ़े——)

गौतम की पढ़ाई ठीक ठाक चल रही थी। वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था।  छुट्टियां बीत चली थी।  आज उसे शहर वापस जाना था।

पगली ने बड़े प्यार से रास्ते में नाश्ते के लिए पूड़ी सब्जी, तथा गौतम के पसंद की कद्दू की खीर  बनाकर   गौतम के बैग में रख दिया था। गौतम स्कूल जाते समय गांव के बड़े बुजुर्गों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना नहीं भूलता  था। यही विनम्रता का गुण उसे सारे  समाज में लोकप्रिय बनाता था।  उस दिन घर से बिदा लेते समय महिलाओं बड़े बुजुर्गों ने मिल कर सफल एवम् दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन तब कौन जानता था कि विधि के विधान में क्या लिखा है? होनिहार क्या देखना और क्या दिखाना चाहती है?

उस दिन गौतम की मित्र मंडली उसे रेल्वे स्टेशन तक छोड़ने गई थी।  पगली सूनी सूनी आंखों से  उसी रास्ते को निहार रही थी, जिस रास्ते उसका गौतम गया था। मित्र गौतम को रेलगाड़ी में बैठा वापसी कर चुके थे।
आज ना जाने क्यों पगली का दिल उदास था उसे अपने लाडले की बहुत याद आ रही थी।  उसका दिल रह रह कर किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठता।  ऐसे में उसे कहीं चैन नही मिल रहा था वह बेचैन हो इधर उधर टहल रही थी।  उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

इधर रेलगाड़ी अपनी तेज चाल से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ी जा रही थी। रेल के डिब्बों में बैठे कुछ लोग ऊंघ रहे थे।  कुछ लोग समय बिताने के लिए ताशों की गड्डियां फेट रहे थे। कुछ लोग देश और समाज की चिंता में वाद विवाद करते दुबले हुए जा रहे थे।  कोई सरकार बना रहा था, कोई सरकार गिरा रहा था, जितने मुंह उतनी बातें इन सब की बातों से बेखबर गौतम अपनी मेडिकल की किताबों में खोया उलझा हुआ था। उसे देश दुनियाँ की कोई खबर नही थी। वह किताब खोले अध्ययन में तल्लीन था। कि सहसा रेल के डिब्बे में धुम्म-धड़ाम की कर्णभेदी आवाज के साथ विस्फोट हुआ और गाड़ी के कई डिब्बों के परखच्चे  एक साथ ही उड़ गये, सारी फिजां में एकाएक बारूदी गंध फैल गई।  बड़ा ही हृदय बिदारक दृश्य था।  जगह जगह रक्त सनी अधजली लाशें, अर्ध जले मांस के टुकड़े बिखरे पड़े थे।

उनमें कई लाशें ऐसी थी जिनके चेहरे नकाब से ढ़के थे, लेकिन मरते समय मौत का खौफ उनकी आंखों में साफ झलक रहा था, कपड़े जगह जगह से जले हुये थे। उन सबके बीच बाकी बचे लोगों में चीख पुकार आपाधापी मची हुई थी, सबके दिलों में मौत का खौफ पसरा हुआ था।  ऐसे में लोग अपनों को ढूंढ़ रहे थे।

लोगों का रो रो कर बुरा हाल था, उन्ही लोगों के बीच उस अभागे गौतम की क्षतविक्षत लाश पडी़ थी।  उसके हाथ में पकडी़ पुस्तक के अधजले पन्ने अब भी हवा के तीव्र झोंकों से उड़ उड़ कर उसकी आंखों में मचलते सपनों की कहानी बयां कर रहे थे।  वही पास पडा़ खाने का डिब्बा और उसमें पडा़ भोजन एक मां के प्यार की दास्ताँ सुना रहा था।  गौतम के परिचय पत्र से ही उसके टुकड़ों में बटे शव की पहचान हो पाई थी।

जिस समय गौतम का शव लेकर पुलिस गाँव पहुंची, उस समय सारा गाँव पगली के दरवाजे पर जुट गया था।

पगली का विलाप सुन उसके दुख और पीड़ा की अनुभूति से सबका दिल हा हा कार कर उठा था।  सबकी आँखे सजल थी,  उस दिन गांव में किसी घर में चूल्हा नही जला था पगली को तो मानो काठ मार गया था।  वहजैसे पत्थर का बुत बन गई थी उसकी आंखों से आंसू सूख गये थे।  उसका दिमाग असंतुलित हो गया था।

अपने सपनों का टूटना एक माँ भला कैसे बर्दाश्त कर पाती।  पगली अपनी ना उम्मीदी भरी जिंदगी पर ठहाके लगा हाहाहाहा कर हंस पडी़ थी, अपनी पीड़ा और बेबसी पर।

उस समय सिर्फ़ पगली के सपने ही नहीं टूटे थे, उसकी ही पूंजी नही लुटी थी, बल्कि कई माँओं की कोख एक साथ उजड़ी थी।  कई पिताओं के बुढ़ापे की लाठियां एक साथ टूटी थी, कई दुल्हनें एक साथ बेवा हुई थी कई बहनों की राखियाँ सूनी हो गई थी।

पगली ने उन सबके सपनों को आतंकी ज्वाला में जलते देखा था। वह गौतम के अर्थी की आखिरी बिदाई करने की स्थिति में भी नही थी। उस दिन, उस गाँव के क्या हिंदु क्या मुस्लिम क्या सिक्ख, सारे लोग अपनी नम आँखों से अपने लाडले को आखिरी बिदाई देने श्मशान घाट पहुंचे थे। उस दिन सारे समाज ने पहली बार आतंकी विचारधारा के दंश की पीड़ा महसूस की।

इन्ही सबके बीच कुछ भटके हुए आतंकवादी अपने जिहादी मिशन की कामयाबी का जश्न मना रहे थे  इंसानियत रो रही थी और हैवानियत जमाने को अपना नंगा नाच दिखा रही थी।  गौतम की चिता जले महीनों बीत चले थे, सारा गाँव इस दुखद हादसे को भुलाने का  जतन कर रहा था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 11 –  धत पगली 

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 29 – चेतना तत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “चेतना तत्व ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 29 ☆

☆ चेतना तत्व 

प्राण ब्रह्मांड में किसी भी प्रकार की ऊर्जा की मूल इकाई है। यह वह इकाई है जिसे हम देख नहीं सकते हैं, लेकिन सिर्फ अनुभव करते हैं। लेकिन महान ऋषि इसे देख सकते हैं। ऊर्जा उष्ण, बिजली, परमाणु इत्यादि जैसे सकल रूपों में भिन्न हो सकती है लेकिन मूल इकाई या ऊर्जा का सबसे कम संभव रूप प्राण ही है। प्राण कंपन या स्पंदन की आवृत्ति के अनुसार हमारे शरीर के अंदर विभिन्न रूपों में भी कार्य करता है जैसा कि मैंने पहले ही प्राण, अपान आदि के विषय में विस्तार से बताया था, जिनकी हमारे शरीर के अंदर अलग-अलग कार्यक्षमता है।

आशीष ने एक भ्रमित मुद्रा में पूछा, “महोदय, इसका अर्थ है की ऊर्जा के सभी रूप प्राण के विस्तार या अभिव्यक्ति ही हैं। लेकिन प्राण का मूल रूप क्या है? और यह कैसे कार्य करता है? और यह कहाँ से हमारे आस-पास या पृथ्वी पर आता है?”

उत्तर मिला, “प्राण जो हम साँस के माध्यम से शरीर के अंदर लेते हैं वास्तव में वायुमंडल में उपस्थित होता है और आयन (Ions,विद्युत् शक्ति उत्पन्न करनेवाला गतिमान परमाणु) के रूप में बने रहते हैं। हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में ये प्राण आयन 100-150 वोल्ट प्रति मीटर के आसपास विद्युत वोल्टेज में उपस्थित रहते हैं। प्राण ऊर्जा में दो प्रकार के आयन होते हैं :

1) ऋणात्मक आयन, जो आकार में छोटे और बहुत सक्रिय होते हैं। ये आयन शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा देते हैं। हम श्वास की प्रक्रिया के दौरान वातावरण से इन आयनों का सेवन करते हैं। ये आयन धूल, धुआं, धुंध, गंदगी, आदि से नष्ट हो जाते हैं। इन आयनों का वातावरण से कम होना ही प्रदूषण और वैश्विक तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है इन आयनों की उपस्थिति में हम स्वस्थ और अच्छा अनुभव करते हैं।

2) बड़े और कम सक्रिय हैं, इनमे कई परमाणु नाभिक होते हैं। ये छोटे आयनों के संयोजन का एक रूप होते है।

वायुमंडलीय प्राण, ऊर्जा का स्रोत सूर्य की अति उल्लंघन वाली किरणों की प्रकाश रासायनिक (photochemical) प्रतिक्रिया से उत्पन्न कम आवृत्ति की तरंगों (short wave) का विकिरण (radiation) है। प्राण के नकारात्मक आयनों का माध्यमिक स्रोत हमारे सौर मंडल के विभिन्न भागों से आता है। इसके अतरिक्त ये आयन विशेष रूप से समुद्र के पानी में तरंगों से भी उत्पन्न होते हैं।

आशीष कहता है, “ऐसा कहा जाता है कि जब कोई मर जाता है, तो प्राण उसके शरीर को छोड़ देते हैं। इसका अर्थ हुआ की प्राण चेतना का ही एक रूप है, क्योंकि जब व्यक्ति मर जाता है तो वह अपनी चेतना खो देता है”

उत्तर मिला, “यह सामान्य मनुष्यों के लिए बहुत भ्रमित है, लेकिन मैं आपको यह बताने का प्रयास करता हूँ। प्राण से चेतना (consciousness) अलग है। चेतना जागरूकता (awareness) का माप है या हम कह सकते हैं कि जागरूकता चेतना की मूल इकाई है। लेकिन जागरूकता भी प्राण को ईंधन (fuel) के रूप में उपयोग करती है। चेतना दो चीजों पर निर्भर करती है: पहला जागरूकता की तीव्रता या प्रगाढ़ता (intensity) और दूसरा जागरूकता की अवधि (duration) । या अधिक स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि चेतना प्रकृति का सत्त्विक गुण है जबकि प्राण प्रकृति का राजसिक गुण है और स्थूलता प्रकृति का तमस गुण है। प्राण चेतना से अलग है क्योंकि जब कोई व्यक्ति बेहोश या अचेत होता है तो वह अपने और उसके आस-पास के विषय में सचेत नहीं रहता है, लेकिन वह अभी भी जीवित है और कुछ समय बाद उसकी इंद्रियों में चेतना वापस आ जाती है, जिसका अर्थ है कि प्राण ने उसके शरीर को नहीं छोड़ा था।

दूसरी ओर जब प्राण शरीर छोड़ देता है, तो व्यक्ति मर जाता है, लेकिन योग में कुछ तकनीकें और कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां भी होती हैं, जो शरीर में प्राण के प्रवाह को फिर से सक्रिय कर सकती है और मनुष्य फिर से जीवन पा सकता है जैसे की लक्ष्मण के साथ हुआ था जब इंद्रजीत ने उन पर शक्ति से आक्रमण किया था और उन्हें संजीवनी बूटी द्वारा जीवनदान मिला था।

जबकि आत्मा हमेशा चेतना होती है या सरल शब्दों में कहे तो आत्मा का केवल एक गुण होता है, और यह हमारे सभी दृश्य और अदृश्य ब्रह्मांड की वर्तमान चेतना है, जो हमारे शरीर, मस्तिष्क, इच्छाओं, कर्मों आदि द्वारा सीमित प्रतीत होता है। इसलिए यही कारण है कि हमारी आत्मा अलग-अलग अनुलग्नकों (लगाव) से बंधने की वजह से सीमित चेतना दिखाती है। जब हम सभी अनुलग्नक छोड़ देते हैं, तो हमारी आत्मा की चेतना अपने वास्तविक सार्वभौमिक अनंत रूप में दिखाई देती है और हम स्वतंत्र हो जाते हैं और अनंत में विलय करते हैं। स्पष्ट रूप से व्याख्या करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। यहाँ पर मैं तुम लोगों के साथ बैठा हूँ और मेरे शरीर के अंदर प्राण वायु अपना कार्य कर रही है, और मैं भी अपने विषय में, मेरे विचारों, मेरे आस-पास, आप चारों के प्रति सचेत हूँ। लेकिन जब मैं सो जाऊँगा, सपने में, बाहरी दुनिया के साथ मेरा संबंध कट जाएगा या अधिक सटीक रूप से मेरी चेतना केवल मेरे मस्तिष्क के संस्कारों के अंदर तक ही सीमित हो जायगी, जहाँ से वो चेतना मेरे पिछले कर्मों की छाप से कुछ दृश्य उठा कर मुझे सपने दिखायगी। लेकिन इस स्थिति में भी मेरे शरीर के प्राण और उप-प्राण अभी भी वैसे ही कार्य करते हैं जैसे वह जाग्रत अवस्था में करते हैं, जो कि आसानी से सोते समय मेरी चलती साँसों से अनुभव किया जा सकता है। लेकिन स्वप्न की अवस्था में मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क में ही सिकुड़ या सिमट जाएगी। जब कोई मेरे शरीर पर चुटी काटेगा, तो मेरी चेतना मेरे मस्तिष्क से फिर से मेरे शरीर तक फैल जाएगी और मेरी आँखें खुल जायँगी और मुझे अपने शरीर का फिर से अनुभव होने लगेगा, और लगभग उसी समय मेरी चेतना और फैलकर मुझे मेरे आस-पास के वातावरण का भी अनुभव देने लगेगी। जबकि गहरी नींद की अवस्था में मेरी चेतना और भी सिकुड़ कर केवल आत्मा तक ही सीमित हो जायगी।

एक वाक्य में प्राण आत्मा का एकमात्र गुण, ‘चेतना’ का एक वाहन है। अब अंतर स्पष्ट हुआ?”

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 20 ☆ गंध प्राजक्ताचा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक और लग्न गीत “गंध प्राजक्ताचा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में  नववधू के गृह प्रवेश के समय में गाये जायेंगे।

विगत 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह सौ प्राजक्ता के साथ संपन्न हुआ। इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  उन्होंने  सौ प्राजक्ता के गृह प्रवेश की परिकल्पना करते हुए रचित किया था। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 20 ☆

☆ गंध प्राजक्ताचा ☆

माझी नातसून आली

आली सोन्याच्या पावली

पावलाने ओलांडून

माप घरात ती आली !!१!!

 

लावा हळद नि कुंकू

तिला औक्षण करुनी

गृहप्रवेश करुया

सगळ्यांनी आनंदुनी !!२!!

 

आली थाटात प्राजक्ता

शालू नेसुनी हिरवा

भरजरी पैठणीचा

रंग खुलतो बरवा !!३!!

 

जरीकाठी  नऊवारी

खुले तिच्या अंगावरी

दिसे कशी गोडवाणी

माझी सुंदर नवरी !!४!!

 

शकुनाच्या गं पाऊली

आनंदाने घरी आली

सत्वगुणी तुझं येणं

मांगल्याच्या गं पावली !!५!!

 

माझी आली नातसून !

तिचे करुया स्वागत !

तिच्या आगमने होई !

घरा आनंदी आनंद  !!६!!

 

झुले सुखाचा हिंदोळा

हिंदोळा गं तिच्या  मनीं

आई-बाबांची लाडकी

लाडकी गं त्यांची  सोनी !!७!!

 

माझ्या अवधूतसंगे

आनंदाची पखरण

व्होवो तुझ्या जीवनात

बांधू सुंदर तोरण !!८!!

 

माझ्या सुरेख अंगणीं दरवळला प्राजक्त

त्याने आसमंत सारा  झाला मंद सुगंधित !!९!!

 

©®उर्मिला उद्धवराव इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆ नागमोडी चाल ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  मराठी कविता  “नागमोडी चाल”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 27 ☆

☆ नागमोडी चाल

धूक्यातील तुझे केस

ढगा सारखे वाटतात

डोळयातील विजेतून

पावसाच्या सरी दाटतात ….

 

डोंगरावरील श्वेत धुके

हिमगिरि वाटतात

अलगद आकाशास

गवसणी घालतात….

 

वळणदार वळणावर

कमळाची पावले

नागमोडी चालताना

लयताल गाठतात….

 

© श्रीमती सुजाता काळे

हिंदी विभागाध्यक्ष, न्यू इरा हायस्कूल, पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #6 ☆ मित….. (भाग-6) ☆

तासभरापासून मित मुंबई सेंट्रल स्थानकावर उभा होता. मनांत असंख्य शब्दांनी गुंफून ठेवलेल्या शब्दगंधित माला रिमझिमच्या स्वागताला बेचैन होत्या. असंख्य भावांनी चेह-यावर गर्दी केली होती. जस-जसा घड्याळाचा काटा पुढे सरकत होता. तिला पाहण्याची ओढ वाढत होता. ती एवढी की त्याला स्वतःचं भान नव्हतं. काहीसा घाबरलेला, काहीसा लाजणारा, काहीसा काळजीत तर काहीसा खुशीत असे असंख्य आविर्भाव लपवून चेह-यावर स्मित त्याने मोठ्या शिताफीने आणले होते. आणि ते टिकवून ठेवण्याचे त्याचे प्रयत्न अत्यंत वाखाणण्याजोगे होते.  अधीरपणे तो रेल्वेची वाट पाहत उभा होता. असंख्यदा तीचा फोटो पाहूनही आणि फोनवर बोलुनही ती कशी दिसते आणि तिच्याबद्दल जाणून घेण्यासाठी तो किती उत्सुक होता.  हे ती बेचैनी स्पष्ट सांगत होती. प्रत्यक्ष भेटण्याची पहिलीच वेळ असल्याने आपण तिला  कसे सामोरे जाणार याच्या विचारात तो होता.

संपुर्ण लक्ष रेल्वेकडे असतांना त्याचा फोन वाजला परंतु त्याचं लक्ष नव्हतं. बाजूलाच जाणारी एक महिला त्याच्याजवळ थांबली आणि म्हटली “हॅलो युवर फोन इज रिंगीग ” त्याचं तिच्याकडे लक्ष गेलं. पण त्याच्या तंद्रीतून बाहेरच आला नाही. तो फक्त “हं….. ” एवढंच उत्तरला. आणि पुन्हा वाट पाहण्यात गुंग झाला. त्या महिलेला त्याचं असं वागणं आवडलं नसावं बहूतेक.  ती पुन्हा म्हटली ” हॅलो…” आणि दोनदा त्याच्याकडे, एकदा फोनकडे आणि बोटांनीच कानाला फोन सारखं करून इशारा केला. आणि निघून गेली.  तिचं असं तुच्छपणे बघणं मितला भानावर आणलं.पण त्याला त्याचा राग आला नाही. उलट आपल्या अधीरपणावर हसत त्याने स्वतःच हात मारून घेतला.  मोबाईल खिशातून काढेपर्यंत फोन वाजणं बंद झालं. त्याने दुर्लक्ष केलं आणि मोबाईल खिशात ठेवला. तेव्हा आवाज झाला ‘ यात्री कृपया ध्यान दे. गुवाहाटी से मुंबई आनेवाली गाडी कुछ ही देर मे प्लॅटफाॅर्म नं….. पर आनेवाली है. यात्रीयो से निवेदन है की…..’ आणि मित एकच सावध झाला. जेट विमान आपल्या सर्वोच्च वेगाने उडावे तसे त्याच्या काळजाची धड-धड चालू झाली. समोर पाहीलं तर गाडी स्टेशनवर प्रवेश करत होती. तशी त्याची धड-धड वाढत होती. गाडी थांबली. उतरणा-या प्रवाशांची लगबग सुरू झाली.  तसा मितही तीला शोधू  लागला.  पण ती त्याला भेटली नाही. तो निराश होऊन मागे फिरला आणि समोर पाहून अचानक थांबला .

 

(क्रमशः)

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 33 ☆ होना नहीं उदास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद रचना ‘होना नहीं उदास ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 33 – साहित्य निकुंज ☆

☆ होना नहीं उदास 

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी, पथिक तुम्हारे पास।

पहले पहल कदम रखने पर

गिरते हैं इंसान ।

धीरे-धीरे होती जाती

हिम्मत से पहचान ।।

हिम्मतवाले पांव मचलते, चलता रहे प्रयास।

पांव चूमकर कंकर कांटे

मांगेंगे वरदान।

वैष्णवता की लाज बचाने

कर देना एहसान ।।

आज सभी कुछ मिल सकता है, मिले नहीं विश्वास।

उल्टे सीधे बढ़ते जाना

जिनको नहीं कुबूल।

जाहिर है उनके होते हैं

अपने सिद्ध उसूल ।।

किसी तरह कुछ पा जाने को कहते नहीं विकास।

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी पथिक तुम्हारे पास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “संसार”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆

☆ संसार ☆

 

संवाद

द्योतक रहे विचार के ,अपने यह संवाद

हों अक्सर संवाद बिन,जग से रोज विवाद

 

पेट

दौलत से धनवान का,कभी न भरता पेट

देते किंतु गरीब को,प्रतिदिन ही अलसेट

 

संसार

हम सब को प्यारा लगे,मायाबी संसार

धन दौलत में लिप्त हो,भूल गए आचार

 

उजियार

लड़ें तिमिर से सदा हम,मन में रख उजियार

तभी सफलता मिलेगी,समझो मेरे यार

 

नेपथ्य

जीवन के इस मंच पर,दिखे न पूरा सत्य

झूठ संवरता ही रहा,सत्य गया नेपथ्य

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प चौवीस # 24 ☆ पिंपळपान ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  व्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक  भावप्रवण कविता  “पिंपळपान”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

☆ समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुष्प चौवीस # 24 ☆

☆ पिंपळपान ☆

 

वयानुसार सारच बदलत

बदलत नाहीत आठवणी

पिंपळपान जपलेले

बालपणीची करते उजळणी.

कितीही झाल जीर्ण तरीही

जाळीमधून उलगडते

क्षण क्षण जपलेले

सांभाळताना  गडबडते.

पुस्तकात जपलेले

पिंपळपान दिसले की

आठवणींना फुटतो पाझर

असे होतो तसे होतो

भावनांचा सुरू जागर.

जपून ठेवलेले पिंपळपान

कुणी म्हणते  लक्ष्मी वसे

कुणी म्हणते आहे खवीस

वाईट शक्ती तिथे वसे.

हिरवेगार पिंपळपान

आकार त्याचा ह्रदयाकार

सतत वाटते जवळचे

स्पर्श त्याचा शब्द सार. . . !

हिरवे असो वा पिवळे

घेते लक्ष वेधून

पिंपळपान  आयुष्याचे

मनामनात बसे लपून

मनामनात बसे लपून

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 19 ☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा  “सलमा बनाम सोन चिरैया”।  यह लघुकथा  मात्र लघुकथा ही नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा है, जिसे डॉ ऋचा जी की कलम ने  सांकेतिक विराम देने की चेष्टा की है और इसमें वे पूर्णतः सफल हुई हैं। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 19 ☆

☆ लघुकथा –सलमा बनाम सोन चिरैया 

 

सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर? तीन मंजिला विशाल कोठी, फाइव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी  — ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए ८ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।

फिर खिल-खिल हँसी — इसे तो पहचान गई होगी तुम — सादिक का गिटार, बचपन में कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह,  वह बेंगलुरु में है- 6 महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए, मैं गई थी उसके पास। वह आगे बढी — ये गेस्ट रूम है, ये हमारा बेडरूम —- पति ? – —  अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह ९ बजे निकलकर रात में १० बजे ही वो घर लौटते हैं – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गई।

और ये कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का — सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे। सोन चिरैया इधर – उधर उड़ती, झूलती, दानें चुगती और पिंजरे में जा बैठती।  कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह बाहर नहीं उड़ती।

सलमा बोली – दो थीं एक मर गई, ये अकेली कब तक जिएगी पता नहीं? इस बार उसकी आँखें बोलीं थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 32 ☆ आलेख – गांधी जी और गाय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  महात्मा गाँधी जी के 150 वे जन्म वर्ष पर एक विचारोत्तेजक आलेख  “गांधी जी और गाय”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद इस सामयिक किन्तु  शिक्षाप्रद  आलेख  के लिए। इस आलेख  को  सकारात्मक दृष्टि से पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन आलेख के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 32 ☆ 

☆ आलेख – गांधी जी और गाय  ☆

भारतीय संस्कृति में गाय की कामधेनु के रूप की परिकल्पना है.  गाय ही नही लगभग प्रत्येक जीव जन्तु हमारे किसी न किसी देवता के वाहन के रूप में प्रतिष्ठित हैं. इस तरह हमारी संस्कृति अवचेतन में ही हमें जीव जन्तुओ के संरक्षण का पाठ पढ़ाती है. गौवंश के पूजन को आदर्श बनाकर भगवान श्री कृष्ण ने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए गौवंश की महत्ता का प्रतिपादन किया. भगवान शिव ने गले में सर्प को धारण कर विषधर प्राणी तक को स्नेह का संदेश दिया और बैल को नंदी के रूप में  अपने निकट स्थान देकर गौ वंश का महत्व स्थापित किया.

यथा संभव हर घर में गौ पालन दूध के साथ ही धार्मिक आस्था के कारण किया जाता रहा है. मृत्यु के बाद वैतरणी पार करने के लिये गाय का ही सहारा होता है यह कथानक प्रेमचंद के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का कथानक है. आज भी विशेष रूप से राजस्थान में  घरों के सामने  गाय को घास खिलाने व पानी पिलाने के लिये नांद रखने की परम्परा देखने में आती है. १८५७ की क्रांति के समय पहली बार गाय के प्रति आस्था राजनैतिक रूप से मुखर हुई थी. बाद में लगातार अनेक बार यह हिन्दू मुस्लिम विरोध का कारण  बनती रही है. क्षुद्र स्वार्थ के लिये कई लोग इस भावना को अपना हथियार बना कर समाज में विद्वेष फैलाते रहे हैं.  अनेक साम्प्रदायिक दंगे गाय को लेकर हुये हैं. पिछले कुछ समय से गौ रक्षा के नाम पर माब लिंचिंग जैसी घटनाये मीडीया में शोर शराबे के साथ पढ़ने मिलीं. यह वर्ष महात्मा गांधी के जन्म का १५० वां साल है. गांधी जी वैश्विक विचारक के रूप में सुस्थापित हैं. यद्यपि स्वयं गांधी जी बकरी पाला करते थे व उसी का दूध पिया करते थे किंतु गाय को लेकर उन्होनें समय समय पर जो विचार रखे वे आज बड़े प्रासंगिक हो गये हैं, तथा समाज को उनके मनन, चिंतन की आवश्यकता है.

महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम गौ रक्षा की बात सार्वजनिक तौर पर करते हुए 1921 में यंग इंडिया में लिखा ‘गाय करुणा का काव्य है. यह सौम्य पशु मूर्तिवान करुणा है. यह करोड़ों भारतीयों की मां है. गाय के माध्यम से मनुष्य समस्त जीव जगत से अपना तादात्म्य स्थापित करता है. गाय को हमने पूजनीय क्यों माना इसका कारण स्पष्ट है. भारत में गाय मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है. वह केवल दूध ही नहीं देती बल्कि उसी की वजह से ही कृषि संभव हो पाती है. ‘गाय बचेगी तो मनुष्य बचेगा। गाय नष्ट होगी तो उसके साथ, हमारी सभ्यता और अहिंसा प्रधान संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी.

एक बार साबरमति आश्रम में एक बछड़े की टांग टूट गई. उससे दर्द सहा नहीं जा रहा था, ज़ोर-ज़ोर से वह कराह रहा था.पशु डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए, कहा कि उसे बचाया नहीं जा सकता. उसकी पीड़ा से गांधी बहुत परेशान थे.जब कोई चारा न बचा तो उसे मारने की अनुमति दे दी. अपने सामने उस जहर का इंजेक्शन लगवाया, उस पर चादर ढंकी और शोक में अपनी कुटिया की ओर चले गए. कुछ  लोगों ने इसे गोहत्या कहा. गांधी को गुस्से से भरी चिट्ठियां लिखीं. तब गांधी ने समझाया कि इतनी पीड़ा में फंसे प्राणी की मुक्ति हिंसा नहीं, अहिंसा ही है, ठीक वैसे ही, जैसे किसी डॉक्टर का ऑपरेशन करना हिंसा नहीं होती.

गांधी जी बहुत पूजा-पाठ नहीं करते थे, मंदिर-तीर्थ नहीं जाते थे, लेकिन रोज सुबह-शाम प्रार्थना करते थे. ईश्वर से सभी के लिए प्यार और सुख-चैन मांगते थे.

उनके आश्रम में गायें रखी जाती थीं. गांधी गोसेवा को सभी हिंदुओं का धर्म बताते थे. जब कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार थीं, तब डॉक्टर ने उन्हें गोमांस का शोरबा देने को कहा. कस्तूरबा ने कहा कि वे मर जाना पसंद करेंगी, लेकिन गोमांस नहीं खाएंगी. गाय के प्रति  उनकी ऐसी आस्था थी.

यंग इंडिया व हरिजन में उनके समय समय पर छपे लेखो को पढ़ने से समझ आता है कि, गांधी जी उस ग्रामस्वराज की कल्पना करते थे जहां कसाई अपनी कमाई के लिये गौ हत्या पर नही वरन केवल अपनी स्वाभाविक मृत्यु मरी हुई गायों के उन अवयवो के लिये कार्य करे जो मरने के बाद भी गौमाता हमारे उपयोग के लिये छोड़ जाती है. इसके लिये वे कसाईयो को वैकल्पिक संसाधनो से और सक्षम बनाना चाहते थे. वे कानूनन गौ हत्या रोकने के पक्ष में नही थे. गौ रक्षा से गांधी जी की सार्व भौमिक व्यापक दृष्टि का तात्पर्य समूचे विश्व में गाय ही नही सारे जीव जंतुओ के संरक्षण से था. आज गो सेवा के नाम पर सरकारें व कई संस्थायें बहुत सारा काम कर रही हैं, जरूरी है कि गाय दो संप्रदायो में वैमनस्य का नही मेल मिलाप के प्रतीक के रूप में स्थापित की जावे, क्योंकि गाय हमेशा से मानव जाति के लिये स्वास्थ सहित विभिन्न प्रयोजनो के लिये बहुउपयोगी थी और रहेगी.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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