हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #17 – देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 17☆

 

☆ देहरी, चौखट और स्रष्टा ☆

 

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर।  अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीद की प्रचिति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के  द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना-‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 5 – विशाखा की नज़र से ☆ कल, आज और कल  ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना कल, आज और कल.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 5  – विशाखा की नज़र से

 

☆  कल, आज और कल ☆

 

रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर

देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को

जो, आ लगता है वर्तमान में,

हो जाते हैं हम लहूलुहान ..

 

भविष्य को तकते, रखते है

उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर

निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे ,

पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …

 

कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में

झूलते हैं  दोलक की तरह

बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में

और,

काल बदल जाता है

इसी अंतराल में ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #24 – ☆ अपेक्षा ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी अपेक्षा .  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  यह मानव जीवन में संभव ही नहीं है कि कोई किसी से अपेक्षा न रखे. जबकि हम जानते हैं और स्वीकार भी करते हैं की किसी से अपेक्षा मत रखो. यदि हम अपेक्षा नहीं रखेंगे और कुछ पा जायेंगे तो अत्यंत प्रसन्नता होगी और यदि अपेक्षानुरूप कुछ न पा सकेंगे तो कष्ट होगा. फिर भी अपेक्षा रखना मानवीय स्वभाव ही है.  सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #24 ☆

 

☆ अपेक्षा ☆

 

ह्या शब्दाचा नक्की काय अर्थ असेल?

बऱ्याच वेळा एखाद्या प्रश्नाने सुरुवात केली की मग उत्तराचा मागोवा घेत असताना खूप गोष्टी विचार करायला लावतात, नाही !

म्हटलं तर अतिशय सोप्पा आणि म्हटलं तर फार खोल अर्थ दडलेला आहे…

प्रत्येक नाते संबंधांमध्ये पुरून उरलेला… नात्यातील एक अनिवार्य घटक असं म्हटलं तर अतिशयोक्ती होऊ नये… हे आयुष्य, देणे आणि घेणे ह्या व्यावहारिक तत्वावर चालत असताना अपेक्षा निर्माण होणं हा मनुष्याचा स्थायी भाव आहे…

निर्व्याज प्रेमाची संकल्पना कितीही भावली तरी कधी ना कधी ह्या अपेक्षा रूपी साधनांमुळे निर्व्याज प्रेमाला तडा जातो… मग त्यातून अपेक्षाभंगाला सामोरे जावे लागणे, ह्या सारखे दुःख फार बोचरे असते… तरीही माणूस त्याच गुंत्यात अडकलेला असतो… कुठे तरी ती सुप्त भावना असतेच ना, की आपल्याला जे हवे ते मिळेल… पण मग कधी कधी नशीब आपली खेळी खेळून अनेक गोष्टी हिरावरून नेते तर कधी आपणच अव्वा च्या सव्वा अपेक्षांनी स्वतःला दुःखाचा दरीत ढकलून देतो…

नशिबाने साथ दिली तर उत्तमच, सगळंच आपल्याला हवं तसं घडेल, पण जर तसं घडलं नाही, आणि आपली अपेक्षा अपूर्ण राहिली तर काय? त्याला सामोरे कसे जाणार, हा विचार बऱ्याचवेळा अपेक्षाभंगानंतर येतो आणि तेव्हा हातातून बऱ्याच गोष्टी निसटून गेलेल्या असतात… खरं तर, एखाद्या व्यक्तीकडून अपेक्षा ठेवण हे योग्य की अयोग्य हे व्यक्तिसापेक्ष असलं तरी अपूर्ण अपेक्षांनाबरोबरही जमवून घेता आलं पाहिजे, ह्याचा खूप उपयोग होईल. पण त्यासाठी बऱ्याच वेळा भावनिक न होता थोडा प्रॅक्टिकल विचार करणं गरजेचं आहे… गुंता सुटला नाही तरी गुंता अजून वाढत जाणार नाही ह्याची खात्री आहे…

-आरुशी दाते

 

© आरुशी दाते, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 – महासंग्राम ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “महासंग्राम ।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 13 ☆

 

☆ महासंग्राम 

 

रावण की ओर से एक के बाद एक, महान राक्षस योद्धा युद्ध के मैदान में आ रहे थे। किमकारा राक्षस के अंत के बाद, सेना का संचालन रावण के पुत्र ‘देवान्तक’ के हाथ में दिया गया, कुछ लोगों का कहना था कि उसके नाम का अर्थ ‘देव’ ‘अंत’ ‘तक’ या देवो के अंत तक वह पराजित नहीं होगा है ।

लेकिन वास्तव में देवान्तक का अर्थ है, कि वह देवताओं के आने तक नहीं मरेगा । भगवान राम की सेना भगवानों और देवताओं के अवतारों से भरी थी। भगवान राम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, भगवान हनुमान भगवान शिव के अवतार थे, सुग्रीव सूर्य देवता के और अन्य कई अन्य देवताओं के।

देवान्तक अपने रथ में भगवान राम की ओर जा रहा था लेकिन भगवान हनुमान रास्ते में उनके रथ के आगे आ गए और उनका रथ रोक दिया। तब देवान्तक ने कहा, “हे ताकतवर हनुमान ! तुम मुझे नहीं जानते, मैं देवान्तक हूँ – रावण का पुत्र, और मुझे यह नाम भगवान ब्रह्मा से तब मिला जब मैंने तुम्हारे पिता, वायु के देवता को हराया था।तो ब्रह्मा ने मुझे यह नाम दिया है, इसका अर्थ है कि मैं सभी देवताओं के अंत तक जीवित रहूँगा। तो मेरे रास्ते से दूर जाओ अन्यथा मैं तुम्हें मार दूँगा”

भगवान हनुमान मुस्कुराते हैं और रावण के पुत्र देवान्तक को संस्कृत भाषा के कुछ बुनियादी सिद्धांत सिखाते है। भगवान हनुमान ने कहा, “हे रावण के महान योद्धा! क्या तुम अपने नाम का अर्थ भी नहीं जानते हो। यहाँ तक ​​कि तुम्हारे पिता रावण, जो स्वयं को संस्कृत भाषा का ज्ञानी बोलता है, उसने भी तुम्हें यह नहीं बताया है कि संस्कृत भाषा के नियम के अनुसार तुम्हारा नाम देवान्तक है, इसमें ‘ना’ धातु शामिल है, जो कुछ समय अवधि को परिभाषित करता है, और तुम्हारी स्थिति में वह समय की अवधि तब तक है जब तक देवता तुम्हारे साथ लड़ने नहीं आते हैं और तुम्हें शायद नहीं पता की हमारी सेना देवताओं के अवतारों से भरी है। तुमने कभी मेरे पिता को हराया होगा, तो अब यह मेरा समय की मैं तुमसे अपने पिता की हार का बदला लूँ तो अब मैं तुम्हें मारने जा रहा हूँ।”

भगवान हनुमान पूर्ण गति से देवान्तक के रथ की ओर दौड़ते हैं और उसके रथ को अपने शरीर की मजबूत टक्कर से नष्ट कर देते हैं। फिर देवान्तक को अपनी बाहों में उठाते हैं और पृथ्वी पर वापस पटक देते हैं। और इस तरह देवान्तक के जीवन का अंत हो जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 11 ☆ इस जहाँ में ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  “इस जहाँ में “।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 11 ☆

☆ इस जहाँ में 

कुछ आँसू कम लिखते
मुकद्दर लिखने वाले
इस जहाँ में कमी नहीं है
बेकस (अकेला) रूलाने वालों की।

जहाँ में बेमुकम्मल बनाया
कोई गम न था।
इस जहाँ में कमी नहीं है
गुमराह करने वालों की ।

फितरत-ए- फरेब का
कदम कदम पर जाल
आलिम (विद्वान) कोई नहीं है
पहचानने के लिए ।

परवाना जला करता था
इश्क -ए- रोशनी की लौ में
बेखुद जला रहा है
गुलशन-ए-इश्क को।

डूबते हैं लोग रोज
खयालों के पियालों में
जो बूँदों से महकते हैं
उन्हें किनारा नहीं मिलता।

© सुजाता काले
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 10 ☆ श्रीदासबोधाची  शिकवण ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता श्रीदासबोधाची  शिकवण जो श्री दासबोध की शिक्षा पर आधारित है. यह शिक्षा सामजिक सरोकार से सम्बन्ध रखती है एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ समाज के सर्वांगीण उत्थान की प्रेरणा देती है. श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 10 ☆

 

☆ श्रीदासबोधाची  शिकवण ☆

 

श्रीरामाचा मंत्र जपोनि करुया शुद्धी चित्ताची  !

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची !!धृ.!!

 

धर्म भ्रष्टण्या काळ ठाकला !

उसळतसे हैवान पहा!

देव धर्म भगिनी मातांचा ,

विध्वंस मांडला कसा पहा !!

दुष्कृत्याच्या प्रतिकारास्तव कास धरुन हनुमंताची !!१!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची !!१!!

 

बुद्धी बलाच्या संगमताने

कुविचारांचा ऱ्हास करु

सुविचारांची करु पेरणी

सद्भावांना हाती धरु!

वाढवू शक्ती ऐक्याची !

संघटना करु नीतिची!!२!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!२!!

 

शिक्षणाच्या पवित्र क्षेत्री!

लुडबुड लबाड लांडग्यांची !

ज्ञानयज्ञातही सत्ता चाले!

राजकारणी धनदांडग्यांची!

उभे ठाकूया तोंड द्यावया

असल्या पढतमूर्खांची !!३!!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!३!!

 

शिकवू मुलगी करु हुषार !

दुबळी मुळी नच ती राहणार !

स्वाभीमानाचा करुनीजागर !

हिंमत तिची वाढवणार!

स्वसंरक्षाणास्तव स्वयंसिद्धा ती होणार !

सुवर्ण पदके जिंकून आणून!

होई देशाची ती शान !

होई देशाची ती शान !!४!!

 

श्रीरामाचा मंत्र जपोनि !

करुया शुद्धी चित्ताची!

चला मुलांनो शिकवण घेऊ आपण दासबोधाची!!

आपण दासबोधाची!!

 

“जय जय रघुवीर समर्थ “!

©®
उर्मिला इंगळे
!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 20 ☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख  उम्मीद: दु:खों की जनक. यह जीवन का कटु सत्य है कि हमें जीवन में किसी से भी कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. हम अपेक्षा रखें और पूरी न हो तो मन दुखी होना स्वाभाविक है. इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्त जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है. ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 20 ☆

 

☆ उम्मीद: दु:खों की जनक ☆

 

यदि शांति चाहते हो तो कभी दूसरों से उनके बदलने की अपेक्षा मत रखो बल्कि स्वयं को बदलो। जैसे कंकर से बचने के लिए जूते पहनना उचित है, न कि पूरी धरती पर रैड कार्पेट बिछाना… यह वाक्य अपने भीतर कितना गहरा अर्थ समेटे है। यदि आप शांति चाहते हो तो अपेक्षाओं का दामन सदैव के लिए छोड़ दो..अपेक्षा, इच्छा, आकांक्षा चाहे किसी से कुछ पाने की हो अथवा दूसरों को बदलने की…सदैव दु:ख,पीड़ा व टीस प्रदान करती हैं।मानव का स्वभाव है कि वह मनचाहा होने पर ही प्रसन्न रहता है। यदि परिस्थिति उसके विपरीत हुई, तो उसका उद्वेलित हृदय तहलका मचा देता है,जो मन के भीतर व बाहर हो सकता है। यदि मानव बहिर्मुखी होता है, तो वह अहंतुष्टि हेतू उस रास्ते पर बढ़ जाता है… जहां से लौटना असंभव होता है। वह राह में आने वाली बाधाओं व इंसानों को रौंदता चला जाता है तथा विपरीत स्थिति में वह धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है… सब उससे रिश्ते-नाते तोड़ लेते हैं और वह  नितांन अकेला रह जाता है। एक अंतराल के पश्चात् वह अपने परिवार व संबंधियों के बीच लौट जाना चाहता है, परंतु तब वे उसे स्वीकारने को तत्पर नहीं होते। वह हर पल इसी उधेड़बुन में रहता है कि यदि वे लोग ज़िन्दगी की डगर  पर उसके साथ कदम-ताल मिला कर आगे बढ़ते तो अप्रत्याशित विषम परिस्थितियां उत्पन्न न होतीं। उन्होंने उसकी बात न मान कर बड़ा ग़ुनाह किया है। इसलिए ही उसने सब से संबंध विच्छेद कर लिए थे।

इससे स्पष्ट होता है कि आप दूसरों से वह अपेक्षा मत रखिए जो आप स्वयं उनके लिए करने में असक्षम-असमर्थ हैं। जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। मानव को पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है। यदि उसमें आत्म-संतोष है तो वह निर्धारित मापदंडों पर खरा उतर सकता है, अन्यथा वह अपने अहं व क्रोध द्वारा आहत होता है और अपना आपा खो बैठता है। अक्सर वह सबकी भावनाओं से खिलवाड़ करता… उन्हें रौंदता हुआ अपनी मंज़िल की ओर बेतहाशा भागा चला जाता है और कुछ समय के पश्चात् उसे ख्याल आता है कि जैसे कंकरों से बचने के लिए रेड कार्पेट बिछाने की की आवश्यकता नहीं होती, पांव में जूते पहनने से मानव उस कष्ट से निज़ात पा सकता है। सो! मानव को उस राह पर चलना चाहिए जो सुगम हो, जिस पर सुविधा-पूर्वक चलने व अपनाने में वह समर्थ हो।

यदि आप शांत रहना चाहते हैं, तो अपनी इच्छाओं- आशाओं, आकांक्षाओं-लालसाओं को वश में रखिए  उन्हें पनपने न दीजिए…क्योंकि यही दु:खों का मूल कारण हैं। सीमित साधनों द्वारा जब हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो अवसाद होता है और अक्सर हमारे कदम गलत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हम अपने मन की भड़ास दूसरों पर निकालते हैं और सारा दोषारोपण भी उन पर करते हैं। यदि वह ऐसा करता अर्थात्  उसकी इच्छानुसार आचरण करता, तो ऐसा न होता। वह इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि उसके कारण ही ऐसी अवांछित-अपरिहार्य परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं।

प्रश्न उठता है कि यदि हम दूसरों से अपेक्षा न रख कर, अपने लक्ष्य पाने की राह पर अग्रसर होते हैं तो हमारे हृदय में उनके प्रति यह मलिनता का भाव प्रकट नहीं होता। सो ! जिस व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वही व्यवहार हमें उनके प्रति करना चाहिए। सृष्टि का नियम है कि’ एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो’ से गीता के संदेश की पुष्टि होती है कि मानव को उसके कर्मों के अनुसार फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए उसे सदैव शुभ कर्म करने चाहिए तथा गलत राहों का अनुसरण नहीं करना चाहिए। गुरूवाणी में ‘शुभ कर्मण ते कबहुं ना टरहुं’ इसी भाव की अभिव्यक्ति करता है। सृष्टि में जो भी आप किसी को देते हैं या किसी के हित में करते हो, वही लौटकर आपके पास आता है। अंग्रेज़ी की कहावत ‘डू गुड एंड हैव गुड’ अर्थात् ‘कर भला हो भला’ भी इसी भाव का पर्याय-परिचायक है।

महात्मा बुद्ध व भगवान महावीर ने अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने का संदेश देते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि ‘आवश्यकता से अधिक संचित करना, दूसरों के अधिकारों का हनन है। इसलिए लालच को त्याग कर, अपरिग्रह दोष से बचना चाहिए। आवश्यकताएं तो सुविधापूर्वक पूर्ण की जा सकती हैं, परन्तु अनंत इच्छाओं की पूर्ति सीमित साधनों द्वारा संभव नहीं है। यदि इच्छाएं सीमित होंगी तो हमारा मन इत-उत भटकेगा नहीं, हमारे वश में रहेगा क्योंकि मानव देने में अर्थात् दूसरे के हित में  योगदान देकर आत्म-संतोष का अनुभव करता है।

संतोष सबसे बड़ा धन है। रहीम जी की पंक्तियां ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ में निहित है जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की कला। संतुष्ट मानव को दुनिया के समस्त आकर्षण व धन-संपत्ति धूलि सम नज़र आते हैं क्योंकि जहां संतोष व संतुष्टि है, वहां सब इच्छाओं पर पूर्ण विराम लग जाता है… उनका अस्तित्व नष्ट हो जाता है।

आत्म-परिष्कार शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम उपाय है। दूसरों को सुधारने की अपेक्षा, अपने अंतर्मन में झांकना बेहतर है,इससे हमारी दुष्प्रवृत्तियों काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर स्वयंमेव ही अंकुश लग जाता है। परिणाम-स्वरूप इच्छाओं का शमन हो जाने के उपरांत मन कभी अशांत होकर इत-उत नहीं भटकता क्योंकि इच्छा व अपेक्षा ही सब दु:खों का मूल है। शांति पाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है…जो हमें मिला है, उसी में संतोष करना तथा उन नेमतों के लिए उस अलौकिक सत्ता का धन्यवाद करना।

भोर होते ही हमें एक नयी सुबह देखने का अवसर प्रदान करने के लिए, मालिक का आभार व्यक्त करना हमारा मुख्य दायित्व है। वह कदम-कदम पर हमारे साथ चलता है, हमारी रक्षा करता है और हमारे लिए क्या बेहतर है, हमसे बेहतर जानता है। इसलिए तो जो ‘तिद् भावे सो भलि कार’ अर्थात् जो तुम्हें पसंद है, वही करना, वही देना…हम तो मूढ़-मूर्ख हैं। गुरुवाणी का यह संदेश उपरोक्त भाव को प्रकट करता है। मुझे स्मरण हो रहा है सुधांशु जी द्वारा बखान किया  गया वह प्रसंग…’जब मैं विपत्ति में आपसे सहायता की ग़ुहार लगा रहा था,उस स्थिति में आप मेरे साथ क्यों नहीं थे? इस पर प्रभु ने उत्तर दिया कि ‘मैं तो सदैव साये की भांति अपने भक्तों के साथ रहता हूं। निराश मत हो, जब तुम भंवर में फंसे आर्त्तनाद कर रहे थे, बहुत हैरान-परेशान व आकुल- व्याकुल थे—मैं तुम्हें गोदी में उठाकर चल रहा था— इसीलिए तुम मेरा साया नहीं देख पाए’…दर्शाता है कि परमात्मा सदैव हमारे साथ रहते हैं, हमारा मंगल चाहते हैं, परंतु माया-मोह व सांसारिक आकर्षणों में  लिप्त मानव उसे देख नहीं पाता। आइए!अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा, दूसरों से अपेक्षा करना बंद करें…परमात्म सत्ता को स्वीकारते हुए, दूसरों से किसी प्रकार की अपेक्षा न करें तथा उसे पाने का हर संभव प्रयास करें, क्योंकि उसी में अलौकिक आनंद है और वही है जीते जी मुक्ति।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 18 ☆ मन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  एक अतिसुन्दर आलेख  “मन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 18  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ मन

 

“मन” क्या है?

मन का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है. जैसे भी विचार हमारे मन में विचरण करते है उसी प्रकार का हमारा शरीर भी ढल जाता है. मन शब्द में इतना प्रवाह है की वो किसी प्रभाव को नहीं रोक सकता. मन के पंख इतने फड़फड़ाते हैं कि वो जब भी जहाँ चाहे उड़ सकता है.

मन नहीं है, तो किसी से नहीं मिलो. मन है तो मिलते ही रहो. मन में यदि कुछ पाने की तमन्ना है और आशावादी विचार हैं, तो मन के मुताबिक कार्य भी संभव हो जाता है.

सब कुछ मन पर निर्भर है जैसे कहा गया है… “मन के हारे हार है मन के जीते जीत “ यानि मन रूपी चक्की में शुद्ध विचार रूपी गेहूं डालो तो परिणाम अच्छा ही मिलेगा.

जैसे सूरदास जी लिख गये … उधौ मन न भय दस बीस ….मन तो एक ही है.  एक ही को दिया जा सकता है …और जो लोग मन को भटकाते फिरते हैं, उनकी चिंतन शक्ति में कुछ कमी है.

कहा भी गया है… “नर हो न निराश करो मन को ….जब मनुष्य का मन मर जाता है तो उसके लिए सब कुछ व्यर्थ है, अर्थरहित है और जब मन क्रियाशील रहता है तब हम मन से कुछ भी कर सकते है.

कबीरदास जी  का यह कथन याद आता है  .. “मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। किन्तु, आज के इस परिवेश में मन निर्मल तो बहुत दूर की बात है.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆ वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 6 ☆

☆  वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ☆

होती है इंसान की,वाणी से पहचान ।

वाणी मीठी बोलते,करुणा-हृदय सुजान ।।

 

मीठी वाणी से मिले,सामाजिक सम्मान ।

जीवन में रक्खें सदा,इसका समुचित ध्यान ।।

 

सोच समझ कर खोलिये,अपना मुँह श्रीमान ।

वाणी कभी न लौटती, रखें हमेशा ध्यान ।।

 

मीठी वाणी संग जो,रखे मधुर मुस्कान ।

दुश्मन भी अनुकूल हो, करता है सम्मान।।

 

वाणी से ही पनपता,सामाजिक सद्भाव।

वाणी से झगड़ा,कलह,वाणी से विलगाव ।।

 

मृदु वाणी ही कराती,सबसे अपना मेल ।

जिसके सहज प्रभाव से,चलते जीवन-खेल ।।

 

मधुर बोल ‘संतोष’ के,लगते विनत प्रणाम।

रिश्तों में भी मधुरता,आती है अभिराम।।

 

बिन बोले होती नहीं,बोली की पहचान ।

कोयल के हैं मधुर स्वर,कर्कश काक-समान।।

 

धन-दौलत फीकी समझ,होते शब्द महान ।

पीर पराई जो पढ़े जीते सकल जहान ।।

 

वाणी कटु जो बोलता,मिले न उसको मान ।

मधुर वचन अति प्रिय लगें,रखें हमेशा ध्यान ।।

 

बोलें सोच विचार कर,वाणी तत्व महान ।

इससे ही कटुता बढ़े, मिलता इससे मान ।।

 

कच्चा धागा प्रेम का,रहे हमेशा ख्याल।

वाणी से यह टूटता,वाणी रखे सँभाल।।

 

वशीकरण का मंत्र है,मीठे रखिये बोल ।

जीवन में “संतोष” नित तोल मोल के बोल ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प एकोणिसावा # 19 ☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज श्री विजय जी  का आलेख है  “वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट”। ऐसे ही  गंभीर विषयों पर आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकोणिसावा# 19 ☆

 

☆ वृद्धाश्रम : जबाबदारीतून पळवाट ☆

 

 

काळ बदललाय, माणूस बदललाय , जमाना बदललाय. . . नेहमी ऐकतो  आपण. कोणी घडवले हे बदल? माणसानच आपली विचारसरणी बदलली  आणि दोष बदलत्या काळाला देऊन मोकळा झाला. आपण समाजात रहातो. . . समाजाचे देणे लागतो. . .

ही संकल्पना प्रत्येकाने सोइस्कर अर्थ लावून बदलून घेतली. स्वतःची जीवनसंहिता ठरवताना प्रत्येकाने माणसापेक्षा पैशाला  अधिक महत्त्व दिले  अन तिथेच नात्यात परकेपणा आला.

चार पायाच्या प्राण्यांना

हौसेने पाळतात माणसं

दोन पायाच्या  आप्तांना

मोलान सांभाळतात माणसं

हे आजचं वास्तव.  विभक्त कुटुंब पद्धतीतून जन्माला आलेली ही विचार सरणी. आज ”हम दो हमारा  एक”  चा नारा लावणारे सुशिक्षित पाळीव, मुक्या प्राण्यांवर अतोनात भूतदया दाखवतात.  अन जन्मदात्या आईवडिलांना मात्र वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवतात. मी मी म्हणणारे सुशिक्षित पतीपत्नी दिवसरात्र घराबाहेर रहातात. नवी पिढी सोशल मिडिया नेटवर्किंग मधून स्वतःचे भविष्य साकारताना दिसते.  एकविसाव्या शतकातील घर संवाद साधताना कमी पण वाद घालताना जास्त दिसतात.  वाद वाढले की माणस माणसांना टाळायला लागतात. अशी नात्यातली अंतरेच नात्यात विसंवाद  आणि दरी निर्माण करतात.

 आज प्रत्येकाला पैसा हवा आहे. पैशामुळे माणसाला दुय्यम ठरवणारी स्वार्थी विचारसरणी जीवनाचा अविभाज्य भाग बनली आहे.

इथे कोण लेकाचा कुणाची देशसेवा पाहतो

तू मला ओवाळ आता, मी तुला ओवाळतो.

हे ओवाळणं ,  एकमेकांची तळी उचलून धरणं या प्रवृत्तीतून माणूस माणसाशी स्पर्धा करतो आहे. आर्थिक दृष्ट्या दुर्बल घटकात  आता ज्येष्ठ नागरिकांचा समावेश होतो हे आपले दुर्दैव म्हणावे लागेल. वास्तल्य , ममत्व या भावनेने ज्येष्ठ ,आपल्या  अपत्यांना  आपल्या जवळील आर्थिक धन देऊन टाकतात.  आपला लेक वृद्धापकाळी आपला सांभाळ करील,  आपल्या म्हातारपणाची काठी बनेल या संकल्पना आता कालबाह्य बनू पहात आहेत.

वृद्धाश्रम काळाची गरज हा विचार पुढे आला आणि मग नवीन पिढीला रान मोकळे झाले.

नवीन पिढीला  आता संस्कारापेक्षा व्यवहार जास्त महत्वाचा वाटतो. पैसा  असेल तर माणूस ताठ मानेने जगू शकतो हा  अनुभव त्याला  आपल्या माणसात दुरावा निर्माण करायला भाग पाडतो. जुन्या पिढीतील नातवंडे सांभाळणारी जुनी पिढी ,त्यांचे विचार ,  नव्या पिढीला नकोसे वाटतात. ”पैसा फेको तमाशा देखो ”

हे ब्रीद वाक्य घेऊन नवीन पिढी माणुसकी पेक्षा  मतलबी पणाला प्राधान्य देताना दिसते.

जुन्या पिढीचा स्वभाव दोष हे कारण पुढे करून ज्येष्ठ नागरिकांना वृद्धाश्रमाचा रस्ता दाखवला जातो. पण नवी पिढी स्वतःच्या पायावर उभे करण्यासाठी त्यांनी केलेले कष्ट, जबाबदारी नवी पिढी व्यवहारी दृष्टीने तोलते. आमच पालन पोषण करण त्यांची जबाबदारी होती त्यात जगावेगळे  असे काय केले?  अशी मुक्ताफळे  उधळली जातात.  घर  उभे करताना घरातल्या माणसाला  आपलेस करण्याचा संस्कार पैसा नामक द्रव्याने काबीज केल्याने ही वैचारिक दरी निर्माण झाली आहे.  आणि या दरीवर सेतू बंधनाचे कार्य वृद्धाश्रमाने केले आहे.

वृद्धापकाळी हवा  असलेला मायेचा  ओलावा, समदुःखी ,  समवयस्क व्यक्ती कडून मिळाल्यावर  एकटा जीव वृद्धाश्रमात आपोआप रुळतो. स्वतःच दुःख विसरायला शिकतो.  प्रत्येक व्यक्ती  आपला राग  आपल्या व्यक्ती वर किंवा पगारी नोकरावर काढू शकते. .वृद्धाश्रमात या दोन्ही गोष्टी शक्य नसल्याने माणूस नव्याने जगायला शिकतो. स्वतःच्या विश्वात रममाण होण्यासाठी स्वतःच्या भावनांना  आवर घालतो आणि हा नवा घरोबा स्विकारतो.

नवीन पिढीला घडविण्यात  आपण कुठेतरी कमी पडत  आहोत का? याचा विचार करण्याची गरज  आता निर्माण झाली आहे. कारण  आईवडिलांना सांभाळण्याचे दायित्व नाकारून नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट कुटुंब व्यवस्थेला हानीकारक आहे. आज  आई बापांना वृद्धाश्रमात पाठविण्याचा आदर्श पुढील पिढीने घेतला तर  नातेसंबंध अजूनच मतलबी होतील.

या स्पर्धेच्या युगात स्वतःचा निभाव लागण्यासाठी नव्या पिढीने शोधलेली ही पळवाट नातेसंबंधाला सुरूंग लावणारी आहेच पण त्याच बरोबर दिखाऊ पणाचे समर्थन करणारी आहे.  आज  आई बाबा वृद्धाश्रमात रहातात ही गोष्ट ताठ मानेने सांगितली जावी यासाठी काही समाज कंटक प्रयत्न शील आहेत.  आपण वृद्ध झाल्यावर  आपल्याला सन्मानाने जगता यावे यासाठी शोधलेली वृद्धाश्रमाची पळवाट नात्यातले स्नेहबंध कमी करीत आहे हेच खरे  आहे.

आपण कुणाचा  आदर्श घ्यायचा? कुणाचा आदर्श समोर ठेवायचा?  आपली जबाबदारी ,आपली कर्तव्ये हे सारे जर  आपण  आपल्या  आर्थिक परिस्थितीशी निगडीत केले तर हा गुंता सोडवायला  अतिशय कठीण जाईल.

आपण  आणि आपली जबाबदारी यात जोपर्यंत  ”आई बाबा ‘, यांचा समावेश होत नाही तोपर्यंत ही पळवाट आडवाटेन या समाजव्यवस्थेला ,  कुटुंब व्यवस्थाला दुर्बल करीत रहाणार यात शंका नाही.

मी माणसाचा  आहे,  माणूस माझ्या  आहे त्याच मन जपणे ही माझी जबाबदारी  आद्य कर्तव्य आहे हे जोपर्यंत नवीन पिढी मान्य करीत नाही तोपर्यंत ही पळवाट अशीच निघत रहाणार.

आपण घडायचं की आपण बिघडायचं हे  आता ज्याचं त्यानचं ठरवायचं.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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