हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  वसंत पंचमी के अवसर पर एक अतिसुन्दर रचना   “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ 

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 33 – व्यवहार  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू को दर्शाती लघुकथा  “व्यवहार  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #33☆

☆ लघुकथा – व्यवहार ☆

माँ बेटी से परेशान थी और बेटी माँ. दोनों को एक दूसरे की आदतें नहीं सुहाती थी. इस से दोनों को नींद में चलने व बोलने की बीमारी हो गई थी.

“यह बूढ़िया भी न जाने कब तक जीएगी. यह मर क्यों नहीं जाती. ताकि इस की टोका टोकी से मुक्ति मिलें. यह जब तब मेरे मोबाइल में तांक झांक करती रहती है. मैं किस से बात करती हूँ,  क्या करती हूँ. कहां जाती हूँ. इसे मुझसे से क्या लेना देना है. ………..’’ यह बड़बड़ाते हुए बेटी बरामदें में टहल रही थी.

इधर माँ कह रही थी, “इस लड़की को न जाने क्या रोग लग गया. न जाने किस किस से बातें करती रहती है. कहीं किसी लड़के के साथ भाग गई या उस से मुंह काला करवा लिया तो मेरी नाक कट जाएगी. भगवान ! मैं क्या करूं ताकि इस नासपीटी को इस बीमारी से छुटकारा मिल जाए”,  कहते हुए माँ भी बरामदे में टहलते टहलते आ गई.

दोनों नींद में टहल रही थी. तभी दोनों एक दूसरे से टकरा गई.

अचानक हड़बड़ा कर माँ बेटी की नींद खुल गई.

“मां ! तू यहाँ क्या कर रही है? ”

“अरे ! तू यहां क्या कर रही है ?”’’ दोनों हड़बड़ा कर एक दूसरे से बोली.

“माँ! मैं तो जल्दी उठ कर पानी भरना चाहती थी ताकि तू परेशान न हो. तुझे आराम मिले. हर माँ की सेवा करना बेटी का फर्ज होता है.”

“अच्छा नासपीटी”, माँ ने मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहा,  “बेटी ! तू सो जा चिंता मत कर. मैं पानी भर लूंगी. तू दिन भर पढ़ लिख कर थक जाती है. इसलिए तू आराम कर.” मां ने बुरा सा मुंह बना कर कहा. मगर, यह ध्यान रखा कि उस का मुंह बेटी न देख ले.

“अच्छा  माँ,  मेरी प्यारी माँ,  “बुरासा मुंह बनाते हुए बेटी अपनी मां से लिपट गई. मगर,  दोनों नींद में कही गई अपनी अपनी भावनाएं दबा गई. आखिर व्यवहारिकता का यही सलीका है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3 ☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी* ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “चिड़चिड़ी खिचड़ी*। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 3☆

☆ चिड़चिड़ी खिचड़ी

 

सुबह – सुबह  से खिचड़ी खाने  को  मिल  जाए तो  दिमाग़ ख़राब हो जाता है । ऐसी बीमारी लगी  है जिसका कोई इलाज ही नहीं ।  शक लाइलाज  बीमारी  होती  है सुना  था  पर आजकल तो रोग और रोगी दोनों ही बदल गए हैं तकनीकी का युग है सो बीमारी भी  चार कदम आगे बढ़ गयी  ।

बातों ही बातों में स्वीटी से पूछा  कि बेटा कोई नयी खबर तो नहीं आयी,  आजकल सबसे पहले  युवा पीढ़ी ही  खबर सुनाती है । अब तो सारे विद्वान  विश्लेषक बन अपनी राय ट्विटर व , फेसबुक पर ही पोस्ट करते हैं । सभी अपने – अपने कारनामे इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से प्रदर्शित कर लाइक , कमेंट और शेयर की अनोखी चाह रखते हैं ।

अरे दादा कल सारा दिन मोबाइल डब्बा था न खुल  रहा था न ही बन्द हो रहा था शाम को कलाकारी करके सुधार डाला बड़ी मुश्किल से सुधरा,   जैसे  ही खुला लग रहा था क्या पढ़ूँ और क्या छोड़ दूँ ??  कुछ दिमाग काम ही नहीं कर रहा था, इतने मैसेज आ चुके थे । बड़ी मुश्किल से कुछ पढ़ा कुछ हटाया तब कहीं जाकर मोबाइल सही हुआ  फिर रात में नींद ही न आये तो मैनें सोचा कुछ काम ही कर लिया जाए  वैसे भी बड़े बूढ़े कहते हैं काल से सो आज कर ।

स्वीटी को छेड़ते हुई भाभी  ने  कहा *ननद रानी इसमें इंफेक्शन हो जाता है, जब ऐसा हो  तो इसको स्प्रिट में डुबोकर रखा करो और साथ ही ओ आर एस  घोल  भी पिला दिया करो……*

मुस्कुराते हुए  स्वीटी ने कहा स्प्रिट की जरूरत नहीं उसे थोड़ा सुकून से  रहने की जरूरत पड़ती है ।

बुजुर्ग हो गया  है क्या छोटे भाई ने छेड़ते हुए कहा ?

ज्यादा बुजुर्ग तो नहीं है लेकिन इसकी तबियत ठीक नहीं रहती  है ।

बिन माँगी सलाह देने में होशियार अम्मा जी ने कहा  योगशाला  में भेजो, नियमित प्राणायाम व आसन से चमत्कारिक लाभ होगा ।

वाह, अब सही हो गया,  काम-वाम मत बताया करो इन्हें , कौन बोला ??

इतनी फिक्र करके वही काम करता है जो घर को अपना समझता है , बहना  को घर  प्रमुख होना चाहिए बड़े भाई ने कहा ।

जी दादा सही कहा आपने ।

नमन है इनकी कर्मठता और लगनशीलता को छोटे भाई ने कहा ।

झूठ बोलने की आदत नहीं गयी बचपन से, सच बोलना कब सीखोगी । किसी ने सिखाया नहीं क्या ? बड़े भाई ने मुस्कुराते हुए बहना  से कहा ।

मैनें ये कब कहा कि नहीं  सिखाया गठबन्धन की सरकार ऐसे ही चलती है । आपने सत्य बोलना कहाँ से सीखा  स्वीटी ने पूछा ।

असल में मैंने खिचड़ी की तरह सीखा। मिक्चर होकर, कई जगह ,कई लोगों से और अभी भी खिचड़ी ही चल रही है।

मुझे भी लगता है खिचड़ी की तरह ही सत्य सीखना पड़ेगा । पर मुझे ये कैसे पता चलेगा का कि कहाँ- कहाँ सत्य के पकवान व खिचड़ी पकी ताकि मैं भी वहीं जा कर सीख सकूँ ।

खिचड़ी  ज्यादा दिनों तक लोग पसंद नहीं करते कोई विशिष्ट व्यंज्जन बनना ही श्रेयस्कर होता है आप तो मालपुआ बनाना सीखें ।  *माल संग पुआ* वाह क्या बात है ?  छोटे भाई ने कहा ।

तुम्हे  खिचड़ी पकानी भी है और खानी भी है,

कहीं जाने की जरूरत नहीं बस चुपचाप पेट भरती  रहो दादा ने  कहा ।

मुझे खिचड़ी पकाना नहीं आता,

सही कहा…. कुछ अच्छा सा आइटम बताइए ।

पसंद अपनी अपनी, मेरी कभी खाने में कोई चीज पसंद की रही ही नहीं जो मिल गया सो खा लिया,  इस घर में आने के बाद पसंद क्या होती है ये मैंने जाना भाभी ने कहा ।

मतलब बहुत जल्द ही हम भी पसंद की चीजें खाने लगेंगे ।

केवल सर्वोत्तम ही पसंद आयेगा । भाभी ने हँसते हुए कहा ।

काहे मेहनत कर रही हो बिटिया जिसके यहां भी अच्छा बने खा आओ । कोई भी तुम्हे मना  नहीं करेगा ,अम्मा जी ने कहा ।

गलत राय मत दो अम्मा जी , जिसने भी खिचड़ी पकाई उसमें से आधे से ज्यादा को तो दादा ने  परेशान किया बाकी को  आपने भाभी ने गम्भीर होते हुए कहा ।

बिल्कुल अम्मा जी कभी- कभी तो मैं ऐसा ही करती हूँ, बगल में आंटी रहती हैं जब कुछ अच्छा बना होता है जाकर खा आते हैं । मतलब मुझे खिचड़ी नहीं पकानी है ।

आपने सच बोलना नहीं सिखाया बस । बाकी तो सब आपने ही सिखाया ,फिर झूठ  मेरे नहीं तुम्हारे बड़के भैया के शब्दों में ,मानना पडे़गा, भाभी ने कहा ।

सबको खुश रखती हैं भाभी। सकारात्मकता कहेंगे इसे छोटा भाई कहने लगा ।

बहुत से वाक्य व्यंग्य के उल्कापात की तरह गिर रहे हैं । इऩके चक्कर में मत पड़ो । कहीं की नहीं रहोगी । उड़ीसा में खिचड़ी प्रसाद होता है । कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती खिचड़ी वाले खुद प्रसाद/ज्ञान बाँटते घूमते हैं दादा ने कहा ।

तभी पिताजी ने  बात को  समाप्त  करने के उद्देश्य से कहा खिचड़ी हमारा राष्ट्रीय व्यंजन है स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक… तुम खाने से मतलब रखो ।

दादा लोग हैं न ,मुझे पकानी नहीं आती मैं तो प्रचारक हूँ ।

बहुत हो  गयी चर्चा ,अब करो खर्चा ।

हींग का देय बघार, कम  डाल  मिर्चा ।।

सब खिलखिला कर हँस पड़े ।

 

छाया सक्सेना ‘ प्रभु ‘

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 32 – मराठी क्षणिकाएं ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है  एक तीन मराठी “मराठी क्षणिकाएं ” )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #33☆ 

☆ मराठी क्षणिकाएं ☆ 

 

लेकराला कुशीत घेतल्यावर

मिळणार सुख हे

कित्येक वेळा

निःशब्द करून जातं…..!

♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦

माझ्या

कमावत्या हातात

जेव्हा मी .. .

लेकराचा इवलासा

हात पकडतो ना.. .

तेव्हा खरंच

श्रीमंत झाल्यासारखं वाटतं….!

♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦ ♦

हल्ली हल्ली शब्दांचाही

विसर पडू लागलाय

हे आयुष्या तुला संभाळता संभाळता….,

अक्षरांचा हात सुटू लागलाय..

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 32 – आओ कविता-कविता खेलें….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक व्यंग्यात्मक कविता  “आओ कविता-कविता खेलें….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 32☆

☆ आओ कविता-कविता खेलें…. ☆  

 

आओ कविता-कविता खेलें

मन से या फिर बेमन से ही

एक, दूसरे को हम झेलें।

 

गीत गज़ल नवगीत हाइकु

दोहे, कुण्डलिया, चौपाई

जनक छन्द, तांका-बांका

माहिया,शेर मुक्तक, रुबाई,

 

लय,यति-गति,मात्रा प्रवाह संग

वर्ण गणों के कई झमेले। आओ कविता….

 

छंदबद्ध कुछ, छंदहीन सी

मुक्तछंद की कुछ कविताएं

समकालीन कलम के तेवर

समझें कुछ, कुछ समझ न पाएं

 

आभासी दुनियां में, सभी गुरु हैं

नहीं कोई है चेले। आओ कविता……..

 

वाह-वाह करते-करते अब

दिल से आह निकल जाती है

इसकी उधर, उधर से इसकी

कॉपी पेस्ट चली आती है,

 

रोज समूहों से मोबाइल

सम्मानों के खोले थैले। आओ कविता….

 

उन्मादी कवितायें, प्रेमगीत

कुछ हम भी सीख लिए हैं

मंचों पर पढ़ने के मंतर

मनमंदिर में टीप लिए हैं,

 

साथी कई और भी हैं इस

मेले में हम नहीं अकेले।  आओ कविता….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ठूँठ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – ठूँठ

हर ठूँठ

उगा सकता है

हरी टहनियाँ

अबोध अंकुर

खिलखिलाती कोंपले

और रंग-बिरंगे फूल,

चहचहा सकें जिस पर

पंछियों के झुंड..,

बस चाहिए उसे

थोड़ी सी खाद

थोड़ा सा पानी

और ढेर सारा प्यार,

कुछ यूँ ही-

हर आदमी चाहता है

पीठ पर हाथ

माथा सहलाती अंगुलियाँ

स्नेह से स्निग्ध आँखें

और हौसला बढ़ाते शब्द,

अपनी-अपनी भूमिका है,

तुम सब जुटे रहो

ठूँठों को हरा करने की मुहिम में

और मैं कोशिश करूँगा

कोई कभी ठूँठ हो ही नहीं!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 13 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और शिक्षा) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा)”.)

☆ गांधी चर्चा # 13 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆

अंग्रेजी  के शिक्षण पर : करोड़ो लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला। हम जब एक दुसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेजी में लिखते हैं। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढे हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ उठा नहीं रखा। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इन्साफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।

लेकिन अंग्रेजी शिक्षा जरूरी भी है इसे सिद्ध करने के लिए गांधीजी कहते हैं कि : हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गए हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिलकुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पायी है,वह उसका अच्छा उपयोग करे। जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए,उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए। बालक जब पुख्ता (पक्की) उम्र के हो जाएँ तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि उसके जरिये पैसे कमाने के इरादे से। ऐसा करते हुए हमें यह भी सोचना होगा कि हमें अंग्रेजी में क्या सीखना चाहिए और क्या नहीं सीखना चाहिए। कौन से शास्त्र पढने चाहिए, यह भी हमें सोचना होगा।

प्रश्न: तब कैसी शिक्षा दी जाए

उत्तर: मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्जवल शानदार बनाना चाहिए। हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए – इसके क्या मानी हैं, इसे ज्यादा समझाने का यह स्थान नहीं है। जो अंग्रेजी पुस्तकें काम की हैं उनका हमें अपनी भाषाओं में अनुवाद करना होगा। बहुत से शास्त्र सीखने का दंभ और वहम हमें छोड़ना होगा। सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए। हरेक पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का और पारसियों को फारसी का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए। कुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा होनी चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिन्दू-मुसलमान के सम्बन्ध ठीक रहें, इसलिये बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जाँ लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी निकाल सकेंगे।

प्रश्न: जो धर्म की शिक्षा की बात कही वह बड़ी कठिन है।

उत्तर : फिर भी उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। हिन्दुस्तान कभी नास्तिक नहीं बनेगा। हिन्दुस्तान की भूमि में नास्तिक फल फूल नहीं सकते। बेशक, यह काम मुश्किल है। धर्म की शिक्षा का ख्याल करते ही सिर चकराने लगता है। धर्म के आचार्य दम्भी और स्वार्थी मालूम होते हैं। उनके पास पहुँचकर हमें नम्र भाव से समझाना होगा। उसकी कुंजी मुल्लों, दस्तूरों और ब्राह्मणों के हाथ है। लेकिन अगर उसमे सद्बुद्धि पैदा न हो, तो अंग्रेजी शिक्षा के कारण हममें जो जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग करके हम लोगों  को नीति की शिक्षा दे सकते हैं। यह कोई मुश्किल बात नहीं है। हिन्दुस्तानी सागर के किनारे ही मैल जमा है । उस मैल से जो गंदे हो गए हैं उन्हें साफ़ होना है। हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत कुछ साफ हो सकते हैं। मेरी यह टीका करोड़ों लोगों के बारे में नहीं है। हिन्दुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमे सुधार, बिगाड़, उन्नति, अवनति समय के अनुसार होते रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जाएगा।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 34 – ग़ज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर  “ग़ज़ल .  सुश्री प्रभा जी की  ग़ज़ल वास्तव में जीवन दर्शन है। यह तय है कि हम अकेले हैं और अकेले ही जायेंगे। यही जीवन है। इस सम्पूर्ण जीवन यात्रा का सार उनकी ग़ज़ल की अंतिम पंक्ति में समाया लगता है। यदि किसी को ईश्वर मन है तो उसे ईश्वर ही मानो क्योंकि वह पत्थर हो ही नहीं सकता। अर्थात यह विश्वास की पराकाष्ठा है।  फिर इस जीवन यात्रा में  एक स्त्री का जीवन तब  भी परिवर्तित होता है जब वह अपना घर छोड़ कर नए घर को अपना घर बना लेती है। ऐसी परिकल्पना सुश्री प्रभा जी ही कर सकती हैं ।इस अतिसुन्दर गजल के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। 

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 34 ☆

☆ गझल  ☆ 

 

एकटी जाणार आहे,कोणता वावर नसो

तो जिव्हारी  लागणारा, जीवघेणा  स्वर नसो

 

तू दिलेले सर्व काही सोडुनी आले इथे

कोंडुनी जे मारते ते दुष्टसे सासर नसो

 

शांत वाटे या घडीला , मी इथे आनंदले

धूळ होणे ठरविले , ते  देखणे  अंबर नसो

 

मी कशी स्वप्ने उद्याची रंगवू वा-यावरी ?

वास्तवाचे प्रश्न मोठे त्या भले उत्तर  नसो

 

ही कशाने तृप्तता आली मला या जीवनी

सुख  असो वा दुःख आता त्यामधे अंतर नसो

 

कोणत्याही वादळाची शक्यता टाळू नको

जे मिळे ते युग सुखाचे त्यास मन्वंतर नसो

 

आपल्या ही आतला आवाज  आहे सांगतो

देव ज्याला मानले तो नेमका पत्थर नसो

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 10 ☆ कविता – संस्कार ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “संस्कार।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 10 ☆

☆ संस्कार ☆

 

कल जहाँ   से   चली   थी   वहाँ  आई  है

उसकी  किस्मत  कहाँ   से  कहाँ  लाई  है

 

ये    जरूरी   नहीं     रक्त   संबंधी   हों

जो   हिफाजत   करे  वो  मिरा  भाई  है

 

कैसी  बेसुध  हुई   आज   तरुणाईयाँ

देख  लज्जा  जिन्हें आज  सकुचाई है

 

जिसके कंधों पे है भार दुनिया का वो

हाँ वो  पीढ़ी  स्वयं  आज  अलसाई है

 

अब  हे  ईश्वर   बचा   संस्कारों को  तू

वरना निश्चित प्रलय की ही अगुआई है

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 24 ☆ धारा जब नदी बनी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “धारा जब नदी बनी”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 24 ☆

☆ धारा जब नदी बनी

उस धारा के हाथों को

उस ऊंचे से पहाड़ ने

बड़े ही प्रेम से पकड़ा हुआ था,

और उसके गालों से उसके गेसू उठाते हुए

उसने बड़ी ही मुहब्बत भरी नज़रों से देखते हुए कहा,

“मैं तुमसे प्रेम करता हूँ!”

 

धारा

पहाड़ के प्रेम से अभिभूत हो

बहने लगी-

कभी इठलाती हुई,

कभी गीत गाती हुई!

इतना विश्वास था उसे

पहाड़ की मुहब्बत पर

कि उसने कभी पहाड़ों के आगे क्या है

सोचा तक नहीं!

 

पहाड़ का दिल बहलाने

फिर कोई नयी धारा आ गयी थी,

और इस धारा को

पहाड़ ने धीरे से धकेल दिया

और छोड़ दिया उसे

अपनी किस्मत के हाल पर!

 

कुछ क्षणों तक तो

धारा खूब रोई, गिडगिडाई;

पर फिर वो भी बह निकली

किस्मत के साथ

अपनी पीड़ा को अपने आँचल में

बड़ी मुश्किल से संभालते हुए!

 

यह तो धारा ने

पहाड़ से अलग होने के बाद

और नदी का रूप लेने के पश्चात जाना

कि उसके अन्दर भी शक्ति का भण्डार है

और उसकी सुन्दरता में

चार चाँद लग आये!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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