हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 37 ☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  “बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 37 ☆

☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो .... ☆

 

कोरोना खों समझ ने पा रए का हुई है

परे परे कछु भव बतिया रए का हुई है

 

सरकार कहत रखो दो गज दूरी

गइया से जबरन रंभा रए का हुई है

 

निकर निकर खें घर सें बाहर झाँखे

हाथ धोउन में शरमा रए का हुई है

 

बऊ खुदई लगीं दद्दा खों समझावें

दद्दा बऊ को आँख दिखा रए का हुई है

 

हमने कही सोशल डिस्टेंस बनाओ

सुनतई सें हम खों गरया रए का हुई है

 

बतियाबे खों अब कौनउ नइयाँ

पूछत हैं सब कहाँ हिरा गए का हुई है

 

बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो

सांची हम”संतोष” बता रए का हुई है

 

जीवन में गर चाहिए, सुख समृद्धि “संतोष”

माटी से नाता रखें,  माटी जीवन कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती विशेष – धर्मवीर शंभू ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती के  अवसर पर आपकी विशेष कविता  “धर्मवीर शंभू  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती विशेष – धर्मवीर शंभू ☆

संस्कृत पंडित  । स्वराज्याचे वीर ॥

ज्ञानी शाक्तवीर   । शंभू राजे ॥ 1 ॥

 

नखशिख आणि   | सात सतकाचे ॥

बुधभुषणाचे । ग्रंथकार ॥ 2 ॥

 

भाषा व्याकरण  | धर्मशास्त्र निती ॥

तत्वज्ञान रिती । अभ्यासिली ॥ 3 ॥

 

धर्मवीर शंभू  । ओलीस राहिले ॥

संघर्ष साहिले ।  मोगलांचे ॥ 4 ॥

 

मल्लखांब कुस्ती   । मर्दानी खेळात॥

आखाडे  मेळ्यात  । तरबेज ॥ 5 ॥

 

सप्त हजाराचे  | मनसबदार ॥

कर्तृत्वास धार  | दशवर्षी ॥ 6॥

 

संभाषण कला | मुत्सद्दी पणाचे ॥

धर्म रक्षणाचे  |  बाळकडू ॥7 ॥

 

यवनी गोटात | शिरूनी जाणले॥

जेरीस  आणले ।  औरंग्यास ॥ 8॥

 

शिवाजी नंतर । स्वराज्य रक्षण  ॥

केले संरक्षण    ।  रयतेचे  ॥ 9 ॥

 

संभाजी राजांची  । येसूबाई राणी॥

कर्तृत्वाच्या खाणी  ।  स्वराज्यात   ॥ 10 ॥

 

कुलमुखत्यार  । राणी येसूबाई ॥

स्वराज्याची माई  ।  शंभू भार्या ॥ 11 ॥

 

भेदरला काळ ।  विरश्री मरण॥

संभाजी स्मरण । स्फूर्तीदायी   ॥ 12 ॥

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 30 ☆ लघुकथा – इंसानियत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

 

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक , भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “ इंसानियत ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 30☆

☆ लघुकथा – इंसानियत

 

प्लीज अंकल, दो महीने से मुझे सैलेरी नहीं मिल रही है जैसे ही मिलेगी मैं आपको किराया दे दूंगी .

मुझे कुछ नहीं पता, रहना हो तो  किराया दो, नहीं तो मकान खाली कर दो.

इस समय मुझे यहीं रहने दीजिए. आप ही बताइए ना मैं कहाँ जाऊँ इस समय ?   .

मुझे कुछ नहीं पता – बडे रूखेपन से मकान मालिक ने जबाब दिया

अंकल !  आपको पता है ना कोरोना के कारण देश का क्या हाल है. मुझे  मकान कहाँ मिलेगा किराए पर इस समय – उसने बडी मायूसी से कहा

मुझे इससे कोई मतलब नहीं,  मैंने पहले ही कहा था कि किराया समय पर देना होगा.

रिया ने बहुत समझाने की कोशिश  की लेकिन मकानमालिक ने एक ना सुनी, साफ कह दिया कि किराया दो या मकान खाली करो. रिया ने  परेशान होकर अपने लिए मकान देखना शुरू किया . दोस्तों के परिचय से मकान मिल तो गया अब समस्या यह थी कि नए घर में सामान कैसे पहुँचाया जाए ? लॉकडाउन के कारण कोई आ नहीं सकता था, बालकनी में खडी सोच रही थी कि सडक पर कुछ लडकों को जाते देखा, सबके कंधों पर बैग लदे थे, हाथों में भी सामान था. सबके चेहरों पर बडी थकान दिख रही थी. रिया ने बडे सकुचाते हुए उन्हें अपनी परेशानी बताई और  पूछा – मुझे नए घर में सामान शिफ्ट करना है आप लोग मेरी मदद कर देंगे क्या ? मेरे पास पैसे भी थोडे ही हैं.

उन्होंने एक दूसरे की तरफ देखा. अरे दीदी काहे नहीं करेंगे मदद – मुस्कुराता हुआ एक लडका बोला, हमें आदत है मेहनत – मजूरी करने की. सबने अपना सामान एक किनारे रखा और लग गये रिया की मदद करने.सामान पहुँचाने के बाद रिया ने उन्हें पैसे देने चाहे तो  एक मजदूर हाथ जोडकर बोला –  दीदी पैसे की  बात ना करना, हम समझते हैं सबके  हालात, देखो ना हम भी तो  मारे – मारे घूम रहे हैं. बस इतनी दुआ करना कि हम अपने घर पहुँच जाएं अपनों के पास  —  उसकी आँखें भर आईं.

रिया को  इंसान में भगवान के दर्शन हो गये थे.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆ जरा सोचिए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “जरा सोचिए।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं।  हम राज्य के नागरिक हैं या देश के और हम अपने ही देश में प्रवासी कैसे हो गए ? इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆

☆ जरा सोचिए

आज सोशल मीडिया पर एक पंक्ति पढ़ी- बड़ा गुमान था ये सड़क तुम्हें अपनी लंबाई पर देश के मजदूरों ने तुम्हें पैदल ही माप दिया।

ग्यारह न. की बस का प्रयोग  अक्सर बात- चीत में  सुविधाभोगी लोग करते हुए दिखते हैं। थोड़ा सा भी पैदल चलने पर पसीना – पसीना हो जाते हैं तो सोचिए ये भी इंसान ही हैं।

लॉक डाउन के दौरान सबसे ज्यादा अगर कोई परेशान हुआ तो वो मजदूर जो सबके लिए घर बनाते थे पर स्वयं बेघर रहे। लंबी यात्रा पर चल दिये बिना सोचे कि कैसे पहुँच पायेंगे। ताजुब होता है कि चुनावी रैलियों में जिनको संख्या बल बढ़ाने हेतु खाना- पानी और 500 रुपये देकर दिनभर घुमाया जाता है ,क्या उनको बिना स्वार्थ भोजन नहीं दिया जा सकता था। अरे भई जल्दी तो चुनाव होना नहीं तो कौन इन्वेस्ट करे इन पर। सामाजिक संस्थाओं से तो मदद मिली पर सब कुछ फ्री पाने का लेखा जोखा कहीं न कहीं भारी पड़ गया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो जहाँ एक भी घर से निकले तो उसका पिछवाड़ा लाल कर दिया जा रहा था वहाँ पूरे मजदूर चल दिये कोई रोकने वाला नहीं वो तो सोशल मीडिया पर हड़कम्प मचा तो प्रशासन की नींद खुली और जो जहाँ था वहीं उसे रोका गया व उसके भोजन – पानी, आवास की व्यवस्था हुई। राज्य सरकारें भी जागीं और अपने- अपने नागरिकों की मदद हेतु आगे आयीं।

ऐसे ही समय के लिए सभी नागरिकों का पंजीकरण आवश्यक होता है। इस दौरान एक प्रश्न और उठा कि हम भारत के निवासी हैं या राज्यों के, कोई भी संकट पड़ने पर कौन आगे आयेगा ?  प्रवासी कहलाने लगे ये अपने ही देश में।

नगर को महानगर बनाने में सबसे अधिक योगदान मजदूरों का ही होता है। इनसे ही बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें, कारखाने व जनसंख्या बढ़ती व पनपती है तो इनकी व्यवस्था करें। लोकतंत्र में संख्या बल ही महत्वपूर्ण होता है। फ्री की योजना सरकार बना सकती है, ये तो देखा पर समय पर फ्री समान देने के समय;  खुद को लॉक डाउन करके केवल मीडिया पर फ्री में वितरण करते रहे। अरे भाई सोशल डिस्टेंसिंग भी तो मेन्टेन करनी है सो करो कम गाओ ज्यादा।

ऐसे समय में जब जान की पड़ी थी तभी  कुछ लोग अर्थ व्यवस्था की चिंता का रोना लेकर अपना अलग ही राग अलापने लगे । ऐसा लगा कि सबसे बड़े अर्थशास्त्री यही हैं,  बस इन दिनों में ही देश आर्थिक मजबूत बन जायेगा। ट्विटर पर आर्थिक चिंतन का एक बिंदु दिया नहीं कि समर्थकों की लाइन लग गयी।  अच्छे दिनों में दो खेमों का होना तो अच्छी बात है किंतु संकट के दौर में जब वैश्विक महामारी मुह बाये खड़ी है तब भी सरकारी नीतियों को कोसना तो बिल्कुल वैसे ही है जैसे प्यास लगने पर कुंआ खोदने का विचार करना।

खैर सोच विचार तो चलता ही रहेगा , यही तो मानवता का तकाजा है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 27 ☆ देश के मजदूरों के नाम दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक समसामयिक रचना  “देश के मजदूरों के नाम दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 27 ☆

☆ देश के मजदूरों के नाम दोहे ☆

 

कोरोना ने कर दिया, श्रमिकों को बेहाल।

शहर छोड़कर चल दिए, लिए हाथ में काल।।1

 

पाँव थके हैं,तन थका, पग में हो गए घाव।

पत्नी, बच्चे साथ में, देखे मौत पड़ाव।।2

 

नियति नटी के खेल से, हुए मार्ग सब बन्द।

कहीं मिले जयचंद हैं, कहीं प्रेम के छन्द।।3

 

रेल मार्ग से जो चले, करते पत्थर हास्य।

मानव का दुर्भाग्य है, लिखे स्वयं ही भाष्य।।4

 

भूख-प्यास से तन थका, सिर पर गठरी बोझ।

पटरी पर जब सो गए, मृत्यु कर रही भोज।।5

 

कभी गाँव, कभी शहर में, यही श्रमिक का चक्र।

जिस घर में हूँ मैं सुखी, करता उन पर फक्र।।6

 

कोई जाए ट्रेन में, कोई पग-पग डोर।

घर की राह न दीखती, रोज थकाए भोर।।7

 

साइकिल लेकर कुछ चले , कोई रिक्शा ठेल।

मौसम के दुख झेलकर, बना स्वयं ही मेल।।8

 

कोरोना सबसे लड़ा, करे मौत से संग।

बिन देखा भारी पड़ा, हुआ सबल भी दंग।।9

 

ईश्वर करना तुम कृपा, सकुशल पहुँचें  गाँव।

खुली हवा में श्वास लें, मिले गाँव की छाँव।।10

 

देश चुनौती ले रहा, बढ़ी समस्या रोज।

समाधान है खोजता, मिले सभी को भोज।।11

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 48 – परीक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “परीक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 48 ☆

☆ लघुकथा –  परीक्षा☆

मैंने परीक्षा कक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”मैडम ने  “थैं” कहा और बाहर चली गई.  मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहे बरबस छात्रों की उत्तरपुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे.

यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी. छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे.  मुझ से  रहा नहीं गया.  एक छात्र से पूछ लिया, “ये गलत उत्तर किस ने बताएं है ?”
सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने !”

“ये सभी उत्तर गलत है,” मैं जोर से चिल्लाया, “अपने उत्तर कांट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखों. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो ? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है ?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 48 ☆ कविता – वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की कोरोना योद्धाओं को समर्पित  एक समसामयिक  एवं सार्थक कविता   “वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 48 ☆ 

☆ कविता  – वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार 

 

सादर है आभार तुम्हारा सादर है आभार

वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार

अपने घर तक जा ना पाते

कारों में कुछ रात बिताते

जगते सोते सेवा में हैं

हों नर्सेज या डाक्टर्स अपने

ईश्वर के अवतार

सादर है आभार तुम्हारा

सादर है आभार

 

सादर है आभार तुम्हारा सादर है आभार

वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार

स्वच्छ सड़क ये कौन है करता

कौन  उठा कचरा ले जाता

पता न चलता शोर न मचता

कौन गंदगी से ना डरता

उसका है आभार

सादर है आभार

 

सादर है आभार तुम्हारा सादर है आभार

वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार

दानवीर ये कौन हैं जिनको

उस गरीब की फिकर लगी है

जो भूखे और दूर घरों से

हर उस भामाशाह का

सादर है सत्कार

सादर है आभार

 

सादर है आभार तुम्हारा सादर है आभार

वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार

हम तो घर में हुये सुरक्षित

किन्तु कौन जो जगे हुये हैं

पहुंचाने को बिजली पानी लगे हुये हैं

डाटा , आटा सब्जी राशन ,

उनका हो सत्कार

सादर है आभार

 

खुद घर से जो बाहर रहकर

सारे खतरे स्वयं झेलकर

सहकर के भी सबकी गाली

कर्तव्यों में जुटे हुये हैं

वर्दी में वे डटे हुये हैं

ऐसे पुलिस और प्रशासन

का होवे सत्कार

सादर है आभार

 

वीर करोना योद्धा तेरा सादर है आभार

सादर है आभार तुम्हारा सादर है आभार

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 46 – पत्रलेखन  – ‘आये,  काळजीत नगं काळजात रहा.’ ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनका एक समसामयिक भावनात्मक  “पत्रलेखन  – ‘आये,  काळजीत नगं काळजात रहा.’”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #46 ☆ 

☆ पत्रलेखन  – ‘आये,  काळजीत नगं काळजात रहा.’☆ 

कोरोनाच्या संकटामुळे भयभीत झालेल्या  गावाकडील आईस ,  शहरात कामधंद्यासाठी आलेल्या  एका तरूणाने पत्रलेखनातून दिलेला हा बोलका दिलासा जरूर वाचा.

पत्रलेखन

‘आये,  काळजीत नगं काळजात रहा.’

आये. . पत्र लिवतोय तुला. . .  जरा  निवांत बसून वाच. शेरात कामधंद्यासाठी आल्या पासून  आज येळ मिळाला बघ तुला पत्र लिवायला. आधी डोळं पूस. मलाबी हिकडं रडायला येतया.

आये . . तू काळजी.करू नकोस मी बरा आहे सध्या शहरात सगळं काही बंद आहे. त्या कोरोना इषाणू मुळं.आये तुझी माया मला कळतीया.परं गावाकडं प्रवास करून येताना ह्या कोरोनाचा धोका जास्त हाये बघ. ह्यो साथीचा रोग आहे. ‘माणसान माणसाला टाळल तर ह्याची लागण हुणार नाय  आसं जाणकार सांगत्यात.’

आये ,आमच्या कामगारांची मालकानं हाॅटेल मध्येच रहायची सोय केली हाय बघ. जेवना ची काय बी आबाळ होत नाय तवा काळजी करू नगस. माझा इचार करू नगंस. पगार पाणी माझं चालू रहाणार हाय . हिथं शेरात एका हाॅटेलात आमी चार पाच   जणं राह्यतोया.आक्षी चारा छावणीत राह्यलाय वानी वाटतयं बघ . चहा, नाश्ता, जेवण सारं बैजवार अन येळच्या येळी  मिळतया. आये तू माझी काळजी करू नगंस.

आये तू बी थोडं दिस घरीच थांब .शेताकडं जाताना तोंडाला एखाद फडकं बांधून जात जा. बा ला  बी सांग. जनावरांना चारापानी दिल्यावर ,  घरात येताना हात साबनान चांगलं धू.. .तोंडावर रूमाल बांधून राह्य.  हळद घालून दूध दे समद्यास्नी. सकाळी फक्कड  आल  आन गवती चहा घालून चाय दे समद्यास्नी. हसू येतय नवं?  अशीच हसत राह्य. आये ही येळ काळजी करण्याची नाय तर सोताची काळजी घेण्याची हाय. म्या हिथं माझी काळजी घेतोया.तकडं तुमीबी जीवाला जपा. खोकला, सर्दी जास्त दिस अंगावर काढू नगं.

आये.. मी गाव सोडून

शहरात येताना

तूझ्या डोळ्यात

पाणी का दाटून आलं होत

ते आज कळतंय…

आज खरंच गावाकडची खूप आठवण येतेय

पोटाच्या भुकेच्या प्रश्नाचं

उत्तर शोधत

मी ह्या शहरातल्या

उंच इमारतीच्या गर्दीत

कधी हरवून गेलो कळलंच नाही

पण आता परिस्थिती समोर

नक्की कुठे जावं कळत नही…

माझी अवस्था तुह्या  किसना सारखी झालीया

त्याला  जन्म देणारी देवकी पण हवीय

आणि संभाळणारी यशोदा सुध्दा.

आये ,हिथं तुझ्या वानी राधा मावशी हाय आमच्या जेवणाची काळजी घ्यायला.मलाबी सध्या निस्तं बसून रहावं लागतया. मनात नगं नगं त्ये इचार येत्यात.वाटत आत्ता  उठावं. . .   आनं मिळेल त्या वाहनानं  गाव गाठावं आनं तुला येऊन भेटावं. परं आये तुच म्हनती नव्हं ? “हातचं सोडून पळत्या पाठी धावायचं नाय” आये ,आक्षी खरं हाय तुझं. त्यो  कोराना (त्ये महामारी सावट ) जसं आलं तसं निघून बी जाईल.  आपून त्याच्या पासून दूर राह्यचं हाय. त्यांन मरणाच्या भितीनं सा-या जगाला नाचवलय. पर आये त्याला काय धिंगाणा घालायचा त्यो घालू द्येत. आपून  त्या नाचात  सामिल हुयाचं नाय. दुरूनच तमाशा पघायचा आन सोताला जपायचं ह्ये ध्यानात ठेवलंय.

आये. .  समजून घेशील नव्हं ? म्या हिथं सुखरूप हाय. , ‘काळजीत नगं काळजात रहा,,’ ह्ये तुझं बोल ध्यानात ठ्येवलय. तू  दिलेली गोधडी  काळीज म्हणून पांघरलीया. लई आठवणी जाग्या झाल्यात बघ.  आता  एकटं वाटत नाय . आये ह्ये कोरीनाचं सावट दूर झालं की भेटू  आपण तवर सोत्ताची ,  बा ची आन धाकल्या भावडांची काळजी घेऊ, घेशील नव्हं. म्या इथं सुखरूप हाय ध्यानात ठेव. पत्र लवकरच तुला मिळंल. तवा रडू नगं.  सावर सोताला. नमस्कार करतो. आये असाच आशिर्वाद राहू दे.

                                                              ..तुझा लाडका

                                                                  ..सुजित

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 47 – फिर कुछ दिन से….☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक रचना फिर कुछ दिन से….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 47 ☆

☆ फिर कुछ दिन से…. ☆  

 

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है, लगने लगा मकान

खिड़की दरवाजों के चेहरों

पर  लौटी  मुस्कान।

 

मुस्कानें कुछ अलग तरह की

आशंकित तन मन से

मिला सुयोग साथ रहने का

किंतु दूर जन-जन से,

दिनचर्या लेने देने की

जैसे  खड़े  दुकान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

 

बिन मांगा बिन सोचा सुख

यह साथ साथ रहने का

बाहर के भय को भीतर

हंसते – हंसते, सहने का,

अरसे बाद हुई घर में

इक दूजे से पहचान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

 

चहकी उधर चिरैया

गुटर-गुटरगू करे कबूतर

पेड़ों पर हरियल तोतों के

टिटियाते मधुरिम स्वर,

दूर कहीं अमराई से

गूंजी कोयल की  तान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

 

इस वैश्विक संकट में हम

अपना कर्तव्य निभाएं

सेवाएं दे तन मन धन से

देश को सबल बनाएं,

मांग रहा है हमसे देश

अलग ही कुछ बलिदान

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान

खिड़की दरवाजों के चेहरों

पर लौटी मुस्कान।।

 

सुरेश तन्मय

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 50 – मदर्स डे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक संस्मरणीय आलेख एवं एक संवेदनशील कविता “मदर्स डे।  यह सही है कि हमारी समवयस्क पीढ़ी ने वर्ष में कोई एक दिन किसी को समर्पित नहीं किया था। हमारे प्रत्येक दिन प्रत्येक को समर्पित हुआ करते थे। जब सुश्री प्रभा जी की दोनों रचनाएँ प्राप्त हुई तो निर्णय करना अत्यंत कठिन था कि किसे प्रकाशित किया जाये। फिर लगा किसी एक रचना को भी पाठकों तक न पहुँचाना दूसरी रचना के साथ भावनात्मक रूप से अन्याय होगा। अतः आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप दोनों ही रचनाएँ आत्मसात करें। सुश्री प्रभा जी  के “माँ /आई  “शब्द के शब्दचित्र को साकार करती  हुई लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 50 ☆

☆ मदर्स डे -1 ☆ 

 पुष्कर नावाच्या मुलाचा मेसेज आला, ताई “मदर्स डे” साठी आई विषयावरची  कविता विडीओ रेकॉर्ड करून पाठवा. तशा आई विषयावर चार पाच कविता आहेत माझ्या. आई वर पहिली कविता १९९१ साली लिहिली….एका “आई” संमेलनाचे  निमंत्रण आले तेव्हा कुंडीतला जाईचा वेल पाहून शब्द सुचले….बहरली अंगणी जाई अन आठवली माझी आई,

मन आईचे निर्मळ,शुभ्र फुलांची ओंजळ……. पण ही कविता कालौघात हरवली..

पुष्कर च्या या कवितेच्या मागणीनं आईचं  आयुष्य नजरेसमोरून तरळून गेलं….

माझी आई….पूर्वाश्रमीची  सरोजिनी देशमुख सुशिक्षित सुसंस्कृत घरात जन्मलेली तिचे वडील कोऑपरेटिव्ह बँकेचे मॅनेजर,या पदावरून निवृत्त झाल्या  नंतर कोकणात शेती करत होते,तिची आई सामाजिक कार्यकर्ती…….

लग्नात तिचं नाव उर्मिला ठेवलं होतं पण पुढे

सरोजिनीेच  नाव प्रचलित राहिलं, सरोजिनी जगताप- माझी आई,  गावचे पोलिस पाटील, संत्रा मोसंबीचे बागाईतदार असलेल्या बाजीराव जगताप यांची पत्नी! त्या काळात घर, घराण्याचा रूबाब काही वेगळाच होता,पंचक्रोशीत प्रतिष्ठा होती, आईवडील -आगळी वेगळी व्यक्तिमत्व, दोघांचा घरात, जनमानसात दरारा होता, माझी आई नाकी डोळी नीटस, चारचौघीत उठून दिसणारी,सातवी शिकलेली, वाचनाची आवड, भरतकाम, विणकाम, स्वयंपाक करण्यात कुशल, सुंदर रांगोळ्या काढायची,देवपूजा न चुकता रोज, अनेक व्रतवैकल्ये करायची, चंदेरी साड्या, दागदागिन्यांची आवड, सिंह राशीची असल्याने  स्वभावाने कडक त्यामुळे तिच्या माझ्यात फार भावूक ,तरल असं नातं कधीच निर्माण झालं नाही, माझ्या लग्नात वडील खुप रडले पण ती रडली नाही याचा अर्थ तिला दुःख झालं नाही असं नाही. लहानपणी, शाळेत असताना तिने कधीच कुठली कामं करायला लावली नाहीत.तिच्या हाताखाली दोन तीन बाया असल्यामुळे असेल पण स्वयंपाक ती एकटीच करायची आम्ही सख्खी चुलत सहा भावंडे होतो,आमच्या शिक्षणासाठी ती तालुक्याच्या गावी बि-हाड करून राहिलेली.

ती सुगरण होती,तिच्या हाताला चव होती, स्वयंपाकाचा तिने कधीच कंटाळा केला नाही. ती खरोखर असामान्य स्त्री होती, सतत आजारपण येत असायचं, अनेक आपत्ती आल्या, मानसिकरित्या खचलीही..पण एकटीच आयुष्याचा लढा देत राहिली, ७८ वर्षाचं आयुष्य लाभलं तिला, मला आठवतं तसं ती …तिची बदलत गेलेली रूपं… मानिनी…सुगरण…अलिप्त….संन्यस्त…

तिच्या आयुष्याची कहाणी विलक्षणच! माझी मैत्रीण म्हणायची तुझी आई जयश्री गडकर सारखी दिसते  ……तिची कहाणी ही चित्रपटासारखीच!

तिच्या समस्त आठवणीं समोर नतमस्तक व्हायला होतंय आज कारण ती असामान्य होती…..अनाकलनीय ही ..विनम्र अभिवादन

 

☆ मदर्स डे -2

तेव्हा मदर्स डे वगैरे

नव्हते साजरे होत…

आई खुप जवळची

वाटली नाही कधी….

कदाचित तिला मम्मी म्हणत  असल्यामुळे!

 

ती उठून दिसायची शंभरजणीत !

इतर आयांपेक्षा वेगळी होती निश्चितच !

 

हाताखाली तीन बायका असल्यातरी कष्टत रहायची स्वतःही….

 

पाहिले आहे तिला,

चुलीशी..जात्यावर….उखळापाशी

 

रांधताना…

वाढताना..

उष्टी काढताना…

वाळवणं करताना..लोणची पापड मुरंबे करताना…बुंदी पाडताना…

जिलेब्या तळताना…

विणताना…

निवडताना…पाखडताना…. .

भरडताना….झाडं लावताना..फुलं गुंफताना…रांगोळ्या काढताना..

 

आणि अखेर जळताना ही…

तिचं जगणं…जगत राहिली…

सा-या भूमिका मुकाट्याने निभावत राहिली..

 

एक घरंदाज…ठसठशीत व्यक्तीमत्व   …

एक सर्व कलासंपन्न…. अन्नपूर्णा….माता..भगिनी…

आणि

एक शापित स्त्री….

बहुत दिन हुए सारख्या फॅन्टसी सिनेमातल्या नायिके सारखी…

खरीखुरी……अनाकलनीय..गुढ..

एक शोकांतिका!!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares