हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह) ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  व्यंग्यकार श्री विनोद कुमार विक्की की प्रसिद्ध पुस्तक “मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  यह पुस्तक 43 विषयों पर लिखित व्यंग्य संग्रह है। श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 17 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)  

पुस्तक – मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)

लेखक – विनोद कुमार विक्की
प्रकाशक –  दिल्ली पुस्तक सदन दिल्ली
आई एस बी एन ८३‍८८०३२‍६४‍६
मूल्य –  ३९५ रु प्रथम संस्करण २०१९

☆ मूर्खमेव जयते युगे युगे (व्यंग्य संग्रह)– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ऐसे समय में जब पुस्तक प्रकाशन का सारा भार लेखक के कंधो पर डाला जाने लगा है, दिल्ली पुस्तक सदन ने व्यंग्य, कहानी, उपन्यास , जीवन दर्शन आदि विधाओ की अनेक पाण्डुलिपियां आमंत्रित कर, चयन के आधार पर स्वयं प्रकाशित की हैं.

दिल्ली पुस्तक सदन का इस  अभिनव साहित्य सेवा हेतु अभिनंदन. इस चयन में जिन लेखको की पाण्डुलिपिया चुनी गई हैं, विनोद कुमार विक्की युवा व्यंग्यकार इनमें से ही एक हैं, उन्हें विशेष बधाई. अपनी पहली ही कृति भेलपुरी से विनोद जी नें व्यंग्य की दुनियां में अपनी सशक्त  उपस्थिति दर्ज की थी.

आज लगभग सभी पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते हैं. उनकी अपने समय को और घटनाओ को बारीकी से देखकर, समझकर, पाठक को गुदगुदाने वाले कटाक्ष से परिपूर्ण लेखनी, अभिव्यक्ति हेतु  उनका विषय चयन, प्रवाहमान, पाठक को स्पर्श करती सरल भाषा विनोद जी की विशिष्टता है.

मूर्खमेव जयते युगे युगे प्रस्तुत किताब का प्रतिनिधि व्यंग्य है. सत्यमेव जयते अमिधा में कहा गया शाश्वत सत्य है, किन्तु जब व्यंग्यकार लक्षणा में अपनी बात कहता है तो वह मूर्खमेव जयते युगे युगे लिखने पर मजबूर हो जाता है. इस लेख में वे देश के वोटर से लेकर पड़ोसी पाकिस्तान तक पर कलम से प्रहार करते हैं और बड़ी ही बुद्धिमानी से मूर्खता का महत्व बताते हुये छोटे से आलेख में बड़ी बात की ओर इंगित कर पाने में सफल रहे हैं. इसी तरह के कुल ४३ अपेक्षाकृत दीर्घजीवी विषयो का संग्रह है इस किताब में. अन्य लेखो के शीर्षक  ही विषय बताने हेतु उढ़ृत करना पर्याप्त है, जैसे कटघरे में मर्यादा पुरुषोत्तम, आश्वासन और शपथ ग्रहण, चुनावी हास्यफल, सोशल मीडिया शिक्षा केंद्र, मैं कुर्सी हूं, सेटिंग, पुस्तक मेला में पुस्तक विमोचन, हाय हाय हिन्दी, अरे थोड़ा ठहरो बापू, जिन्ना चचा का इंटरव्यू, फेसबुक पर रोजनामचा जैसे मजेदार रोजमर्रा के सर्वस्पर्शी विषयो पर सहज कलम चलाने वाले का नाम है विनोद कुमार विक्की. आशा है कि किताब पाठको को भरपूर मनोरंजन देगी, यद्यपि जो मूल्य ३९५ रु रखा गया है, उसे देखते हुये लगता कि प्रकाशक का लक्ष्य किताब को पुस्तकालय पहुंचाने तक है.

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 – व्यंग्य – प्रमोशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक व्यंग्य “प्रमोशन। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 25 ☆

☆ व्यंग्य – प्रमोशन  

प्रशासनिक अधिकारियों को दिए जाते हैं टारगेट …….।  टारगेट पूर्ति करा देती है प्रमोशन।

सरकार ऊपर से योजनाएँ अच्छी बनाकर भेजती है पर टारगेट के चक्कर में मरते हैं बैंक वाले या गरीब या किसान………….

शासकीय योजनाओं में एक योजना आई थी आई आर डी पी ( Integrated Rural Development Programme (‘IRDP)। गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए योजना अच्छी थी पर जिला स्तर पर, और ब्लाक स्तर पर अधिकारियों, कर्मचारियों और बैंक वालों का सात्विक और आत्मिक को-आर्डिनेशन नहीं बनने से यह योजना असफल सी हो गयी। ज्यादातर लोन डूब गए तो बाद में लोग ‘IRDP‘ को कहने लगे “इतना रुपया तो डुबाना ही पड़ेगा” 

योजना असफल होने में एक छुपी हुई बात ये भी थी कि इस योजना में जो भी आई ए एस अपना एनकेन प्रकारेण टारगेट पूरा कर लेता था उनकी सी आर उच्चकोटि की बनती थी और उनका प्रमोशन पक्का हो जाता था और इधर बैंक वालों के लिए लोन देना आफत बन जाता था। हरित-क्रांति और सफेद-क्रांति का पलीता लगने के ये भी कारण रहे होंगे,शायद।

एक बार शासकीय योजनाओं में जबरदस्ती लोन दे देने का फैसला लेने वाली  आए ए एस मेडम का किस्सा याद आता है। मेडम ने अपना टारगेट पूरा करने का ऐसा प्रेशर बनाया कि जिले के सब बैंक वाले परेशान हो गए।  जिला मुख्यालय में एक होटल में मींटिग बुलाई गई। सब बैंकर रास्ता देखते रहे। वे दो घन्टे मींटिग में लेट आईं।  सबने देखा मेडम की ओर देखा। आजू बाजू बैठे लोगों ने फुसफुसाते हुए कहा लगता है पांव भारी हैं। यहाँ तक तो ठीक था और सब बैंकर्स मीटिंग में होने वाली देरी से चिंतित भी लगे कि शाखा में सब तकलीफ में होंगे।  स्टाफ कम है, बिजली नहीं रहती, जेनरेटर खराब रहा आता है। खैर,  मीटिंग चालू हुई तो सब बैंकरों पर मेडम इतनी जमके बरसीं कि कुछ लोग बेहोश होते-होते बचे। जबकि बैंकर्स की कोई गलती नहीं थी। मेडम हाथ धोकर बैंकर्स के पीछे पड़ गईं बोली – “मुझे मेरे टारगेट से मतलब है। ऐरा गैरा नथ्थू  खैरा, किसी को भी लोन बांट दो, चाहे पैसा वापस आए, चाहे न आए।  हमारा टारगेट पूरा होना चाहिए।“ नहीं तो फलां-फलां किसी भी एक्ट में फंसाकर अंदर किये जाने का डर मेडम ने सबको प्रेम से समझा दिया। मेडम बैंकर्स के ऊपर बेवजह इतनी गरजी बरसीं कि मीटिंग की ऐसी तैसी हो गई।

मेडम के मातहत और अन्य विभागों के लोग भी शर्मिंदगी से धार धार हो गए। उनके विभाग वालों ने भी फील किया कि बैंक वालों की कोई गलती नहीं है। विभागों से प्रकरण बनकर बैंक में जमा भी नहीं हुए और मेडम प्रमोशन के चक्कर में बेचारे बैंक वालों को उटपटांग भाषा में डांट रहीं हैं और धमकी दे रही है।

उनको देख देखकर सबको दया भी आ रही थी पर किया क्या जा सकता था। सातवाँ या आंठवा महीना चल रहा था……….. बाद में पता चला मेडम लम्बी छुट्टी पर जाने वाली हैं इसलिए छुट्टी में जाने के पहले सौ परसेंट टारगेट पूरा करना चाह रहीं हैं। क्यूंकी अभी उनका प्रमोशन भी डयू है।

हालांकि दो साल बाद पता चला कि उनका प्रमोशन हो गया था। पर पूरे जिले के नब्बे परसेंट गरीब और किसान डिफ़ॉल्टर लिस्ट पे चढ़ गए थे। ऐसे में किसान आत्महत्या नहीं करेगा तो क्या करेगा।

बैकों की दुर्गति और बैंकर्स के हाल!

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 27 – ईश स्तवन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  ईश्वर की स्तुति  स्वरुप  भजन/कविता   “ईश स्तवन” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 27 ☆ 

 ☆ ईश स्तवन

 

नित्य मागतो मी दाता, शुध्द राहो तन मन।

द्वैत बुद्धी त्यागुनिया स्थिर व्हावे अंतःकरण ।।धृ।।

 

मना मनांच्या तारांचे, यावे प्रेमळ झंकार।

खुंट्या भेदाच्या आवळी, ऐक्य गीत आविष्कार ।

स्वार्थ त्यागुनिया लाभो सम बुद्धी अधिष्ठान न।।१।।

 

नको लालसा नि धन शमवावी चित्तवृत्ती।

श्रमाप्रती राहो प्रीती, हीच ऐश्वर्य संपत्ती।

साद ऐकुनिया धावे, ऐसे देई प्रिय जन।।२।।

 

देव, देश, धर्मा प्रती, मनी वाढवावी गोडी।

साधुसंत संतीला,  आणि सज्जनांची जोडी।

वैऱ्याचेही  व्हावे मनी, मज अभिष्ट चिंतन।। ३।।

 

जीव जीवा लावणाऱ्या, सोबत्यांचा संगे मेळा।

बळ देतील लढण्या, सुख दुःखाच्याही वेळा।

होती आनंद सोहळा, असे स्वर्गीय जीवन।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #28 – संवेदना ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवेदना”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 28 ☆

☆ संवेदना

संवेदना एक ऐसी भावना है जो मनुष्य मे ही प्रगट रूप से विद्यमान होती है. मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है क्योंकि उसमें संवेदना है. संवेदनाओं का संवहन, निर्वहन और प्रतिपादन मनुष्य द्वारा सम्भव है, क्योंकि मनुष्य के पास मन है. अन्य किसी प्राणी में संवेदना का यह स्तर दुर्लभ है. संवेदना मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त गुण है. पर वर्तमान मे   भौतिकता का महत्व दिन दूने रात चौगुने वेग से विस्तार पा रहा है और तेजी से मानव मूल्यों, संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है. मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है, बहुधा संवेदनशील मनुष्य समाज में  बेवकूफ माना जाने लगा है. संवेदनशीलता का दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है. स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है. अपने सुख दुःख, इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है. अपने क्षुद्र, त्वरित सुख के लिए किसी को भी कष्ट देने में हमारी झिझक तेजी से समाप्त हो रही है. प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज तथा देश को विघटन की ओर अग्रसर कर रही है.

आज जन्म  के साथ ही बच्चे को एक ऐसी  व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन के जन्म तक ले पाना सम्भव नही. आज शिक्षा,चिकित्सा, सुरक्षा, सारी की सारी सामाजिक व्यवस्था  पैसे की नींव पर ही रखी हुई दिखती है.हमारे परिवेश में प्रत्येक चीज की गुणवत्ता  धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.  इसलिये सबकी  सारी दौड़, सारा प्रयास ही एक मार्गी,धनोन्मुखी हो गया है. सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही हमें भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे, श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. हम भूल गये हैं कि धन  केवल जीवन जीने का माध्यम है. आज  मानव मूल्यों का वरण कर, उन्हें जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण के सद्प्रयास की कमी है. किसी भी क्षेत्र मे शिखर पर पहुँच कर, अपने उस गुण से  धनोपार्जन करना ही एकमात्र जीवन उद्देश्य रह गया प्रतीत होता है. आज हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के संवेदनशील भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा दिखता है. हमें अपने आस पास सबको पछाड़ कर सबसे आगे निकल जाने की जल्दी है. इस अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिये साम दाम दंड भेद, प्रत्येक उपक्रम अपनाने हेतु हम तत्पर हैं. संवेदनशील होना दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना बन गया हैं. संवेदनशीलता, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन कर रह गई हैं.

पहले हमारे आस पास घटित दुर्घटना ही हम भौतिक रूप से देख पाते थे और उससे हम व्यथित हो जाते थे, संवेदना से प्रेरित, तुरंत मदद हेतु हम क्रियाशील हो उठते थे. पर अब टी वी समाचारों के जरिये हर पल कहीं न कहीं घटित होते अपराध, व हादसों के सतत प्रसारण से हमारी  संवेदनशीलता पर कुठाराघात हुआ है.. टी वी पर हम दुर्घटना देख तो सकते हैं किन्तु चाह कर भी कुछ मदद नही कर सकते. शनैः शनैः इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी से बड़ी घटना को भी अब अपेक्षाकृत सामान्य भाव से लिया जाने लगा है. अपनी ही आपाधापी में व्यस्त हम अब अपने आसपास घटित हादसे को भी अनदेखा कर बढ़ जाते हैं.

ऐसे संवेदना ह्रास के समय में जरूरी हो गया है कि हम शाश्वत मूल्यों को पुनर्स्थापित करें, समझें कि सच्चरित्रता, मानवीय मूल्य, त्याग, दया, क्षमा, अहिंसा, कर्मठता, संतोष, संवेदनशीलता यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो मात्र धन, कभी भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #25 – क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 25☆

☆ क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆

(हाल  ही में भारत ने वेस्टइंडीज से टी-20 क्रिकेट शृंखला जीती है। इसी परिप्रेक्ष्य में टी-20 और जीवन के अंतर्सम्बंध पर टिप्पणी करती *संजय उवाच* की इस कड़ी का पुनर्स्मरण हो आया। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।)

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। इच्छाओं की गेंदबाजी पर दायित्व बल्ला चला रहा है। अंपायरिंग करता काल सनद्ध है कि जरा-सी गलती हो और मर्त्यलोक का एक और विकेट लपका जाए। दुर्घटना, निराशा, अवसाद, आत्महत्या, हत्या आदि क्षेत्ररक्षण कर रहे हैं। मारकेश की वक्र-दृष्टि-सी विकेटकीपिंग, बोल्ड, कैच, रन आउट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू., हिट-विकेट…,अकेला जीव, सब तरफ से घिरा हुआ जीवन के संग्राम में!

महाभारत में उतरना हरेक के बस का नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के चक्कर में 15वें-16वें ओवर तक अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह स्कोरबोर्डरूपी समय तय करेगा। तुम रिस्क लो, रन बटोरो, रन-रेट अपने नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि पूरे 20 ओवर खेल सको पर अंतिम गेंद तक खेलने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, स्ट्रैटेजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा-निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, क्षेत्ररक्षक और अंपायर तो तैयार हैं ही!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 28 – व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज का व्यंग्य  है  टेलीफोन के कुछ खास फायदे।  टेलीफोन के कुछ ख़ास फायदे तो आपको भी मालूम हैं किन्तु, डॉ परिहार जी की भेदी दृष्टी ने जो कुछ देखा और शोध किया है उससे आपको निश्चित ही ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जिसकी कल्पना मात्र से आपके होश उड़ जायेंगे । ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 28 ☆

☆ व्यंग्य – टेलीफोन के कुछ खास फायदे ☆

इस बात से भला कौन इनकार करेगा कि टेलीफोन आज के ज़माने की नेमत है। आदमी दुनिया में कहीं भी बैठा हो,तत्काल बात हो जाती है। यह आज के युग का चमत्कार है।

लेकिन टेलीफोन के जो फायदे अमूमन सबको दिखाई पड़ते हैं उनके अलावा भी कुछ फायदे हैं जिनको मेरी भेदी दृष्टि ने पकड़ा है।

टेलीफोन आज इसलिए वरदान है क्योंकि आज आदमी आदमी का मुँह नहीं देखना चाहता। अब आपसे सटा हुआ पड़ोसी भी आपसे टेलीफोन पर बात करता है। शहरों में यह हाल है कि पड़ोसी पड़ोसी को न पहचानता है, न पहचानना चाहता है। बाहर कहीं पार्टी वार्टी में मिल जाएं तभी परिचय होता है। पड़ोसी को कोई पीटे या लूटे तो संभ्रान्त जन खिड़की नहीं खोलते। ऐसे में जब पड़ोसी की सूरत देखना गवारा न हो तो मजबूरन बात करने के लिए टेलीफोन से बेहतर क्या हो सकता है?बात भी हो जाए और मनहूस सूरत भी न देखना पड़े।

पहले आदमी की तबियत ऐसी थी कि आसपास आदमियों को देखे बिना कल नहीं पड़ती थी। किसी के भी घर कभी भी पहुँच गये—‘मियाँ, क्या हो रहा है?’ मेरे एक मित्र के पिताजी के दोस्त उनके घर पंद्रह बीस साल तक लगातार  नाश्ता करने आते रहे और किसी को कभी कुछ अटपटा नहीं लगा। नाश्ता करने के बाद वे इत्मीनान से अखबार पढ़कर विदा होते थे। ऐसे लोगों को टेलीफोन की दरकार नहीं थी। अब हालत यह है कि घर में कोई दो दिन रुक जाए तो घर की चूलें हिलने लगती हैं। इसलिए संबंध रखने के लिए टेलीफोन ही भला।

टेलीफोन से दूसरा फायदा यह है कि अब दूसरे के घर पहुँचने पर होने वाली अड़चनों से बचा जा सकता है। किसी के घर पहुँच जाओ तो उसे लोकलाज के लिए चाय वाय के लिए पूछना पड़ता है। अ  जैसे जैसे रिश्ते दुबले हो रहे हैं, चाय पिलाना फालतू काम बन रहा है।चाय पिलाने के भी तरह तरह के नमूने देखने को मिलते हैं, जैसे एक जगह सुनने को मिला, ‘हमने अभी अभी चाय पी है, आप पियें तो बनवा दें।’ दूसरी जगह सुना, ‘हम तो चाय पीते नहीं, आप कहें तो आपके लिए बनवा दें।’ एक जगह ऐसा हुआ कि एक घंटे तक कोरे पानी पर वार्तालाप चलने के बाद जब उठने लगे तब गृहस्वामी ने फरमाया, ‘अरे आपको चाय वाय के लिए तो पूछा ही नहीं, थोड़ा और बैठिए न।’ ऐसे रिश्तों के लिए टेलीफोन बढ़िया संकटमोचन है।

टेलीफोन का एक बड़ा फायदा यह है कि वह हमें मेज़बान के कुत्तों से बचाता है, जो मेहमानों के स्वागत के लिए हमेशा आतुर रहते हैं। कई घरों में घंटी बजाने पर आदमी से पहले कुत्ता जवाब देता है।गेट खुला हो तो कुत्ते का मधुर स्वर दिल की धड़कनें बढ़ा देता है।भीतर बैठिए तो वह पूरे समय सूँघता हुआ आसपास घूमता रहेगा और मेहमान का पूरा वक्त टाँगें सिकोड़ते और पहलू बदलते ही जाता है। इसीलिए बहुत से लोग किसी घर में घुसने से पहले भयभीत स्वर में आसपास के लोगों से पूछते देखे जाते हैं—–‘घर में कुत्ता तो नहीं है?’

अब गाँव में भी टेलीफोन पहुँच गया। गाँव में टेलीफोन सस्ता पड़ता है, इसलिए सब खाते-पीते घरों में टेलीफोन मिल जाएगा। इससे नुकसान यह हुआ कि गाँव में जो मिलना जुलना होता रहता था वह कम हो गया।वहाँ टेलीफोन का उपयोग ऐसे कामों के लिए होता है जैसे, ‘आम का अचार हो तो थोड़ा सा भेज देना’ या ‘तीन चार टमाटर पड़े हों तो भेज देना, शाम को खेत से मँगवा लेंगे।’

टेलीफोन और दृष्टियों से भी उपयोगी है।आज हैसियत वाले घरों में कार खरीदने की होड़ मची है, भले ही वह महीने में एक ही बार चले। कार खरीदने के बाद उसकी सुरक्षा में नींद हराम होती है। कार खरीदने के बाद याद आता है कि उसे रखने के लिए घर में माकूल जगह नहीं है। ऐसे में आधी रात को थाने में फोन बजता है, ‘पुलिस स्टेशन से बोल रहे हैं?’

उधर से अलसायी आवाज़ आती है, ‘हाँ जी, फरमाइए।’

जवाब मिलता है, ‘देखिए जी, हमारे घर की चारदीवारी फाँदकर तीन चार लोग अन्दर आकर कार के पहिये खोल रहे हैं। फौरन आ जाइए। हम खिड़की से उन पर नज़र रखे हैं।’

दस मिनट बाद फिर फोन बजता है, ‘भाई साब, उन्होंने दो पहिये खोल लिये। आप कब आओगे?’

जवाब मिलता है, ‘आपने पता तो बताया नहीं। कहाँ पहुँचें?’

फोन करनेवाला पता बताता है।पुलिसवाले सलाह देते हैं, ‘आप फोन पर हमसे जोर जोर से बोलिए।वे सुनकर भाग जाएंगे।’

जवाब मिलता है, ‘हम तो जोर से ही बोल रहे हैं, लेकिन वे तो अपने काम में लगे हैं।उन पर कोई असर नहीं हो रहा है।’

थोड़ी देर में थाने में फिर फोन बजता है, ‘भाई साहब, आप आये नहीं?वे चारों पहिये लेकर भाग गये।’

जवाब मिलता है, ‘अब भाग ही गये तो हम आधी रात को भटक कर क्या करेंगे?सबेरे आकर रिपोर्ट लिखा देना।’

इस तरह  बदलते समय में टेलीफोन के नये नये फायदे उजागर हो रहे हैं।इस सिलसिले में और इजाफा होने की पूरी संभावना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 2 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 2 – सुहागरात ☆

(आपने अब तक पढ़ा – जन्म लेने के बाद सोलहवां बसंत आते आते पगली का विवाह हो गया, पगली की डोली  ससुराल की तरफ बढ़ चली।  अब आगे पढ़े——–)

जब पगली की डोली मायके से चली तो वह कल्पना लोक के  सतरंगी इन्द्रधनुषी संसार में खोई हुई थी। जहाँ एक तरफ घर गाँव माँ-बाप का साथ छूटने की पीड़ा थी तो दूसरी तरफ ससुराल में नवजीवन के सुखों की कल्पना उसके मन के किसी कोने से झांक रही थी। लेकिन उसने अपने भविष्य की कोई कल्पना नही की थी कि भविष्य के गर्भ में पल रहा दुर्भाग्य रूपी अजगर उसकी खुशियाँ लीलने की ताक में बैठा है। उसकी डोली सर्पीली पगडंडियों से होती हुई ससुराल पहुँच कर गाँव के बाहर बने एक मंदिर परिसर में जा कर रूक गई थी। और उस परिसर के अगल बगल छोटे छोटे बच्चे-बच्चियाँ नई नवेली दूल्हन देखने की चाह में डोली के आसपास मंडरा रहे थे। नई दूल्हन का चेहरा देखने की चाह दिल में मचल रही थी।

कभी कभी कोई बच्चा या बच्ची शरारतवश डोली का पर्दा हटाता तो पगली शर्मो हया  से लाज की गठरी बन डोली के कोने में सिमट जाती।

अब गाँव घरों की महिलाओं ने उसे देवी माई के दर्शन कराये, दूधों नहाओ पूतों फलो का आशीर्वाद दिया, अरमानों के सागर में गोते लगाती पगली की डोली उसके ससुराल में आ लगी थी। जहाँ पगली का भविष्य उसका ही इंतजार कर रहा था।

उस दिन नई बहू का स्वागत बुजुर्ग महिलाओं तथा नव यौवनाओं ने हर्षोल्लाष के साथ मंगल गीतों से किया था।

उस समय पगली अपने भाग्य पर इतरा उठी थी, वह अपनी कर्मनिष्ठा मृदुल व्यवहार से ससुराल में सबकी आंखों का तारा बन बैठी थी। गाँव की महिलायें उसके रूप सौन्दर्य तथा प्रेम व्यवहार की कायल हो गई थी वे उस का गुणगान तथा सास ससुर के भाग्य की सराहना करते थकती नहीं थी। उसने अपने स्नेह व्यवहार से सबका मन जीत लिया था, वह बच्चों की प्यारी मीठी बातों से खिलखिलाती हंस पड़ती, तो मानो वह अपने बचपने के दिनों में वापस चली जाती।

अब पगली की जिंदगी में वह दिन भी आया, जिस का  इंतजार हर नई नवेली दूल्हन करती है। उसके ससुराल में सुहाग रात की तैयारियां जोर शोर से चल रही थी, और पगली पिया मिलन की आस मन में लिए अपने भविष्य का ताना बाना बुनने मे व्यस्त थी। सारे घर आंगन को गाय के गोबर से लीपा पोता गया था। आंगन मेंजौ  के आटे से चौक पूरा गया, तुलसी और चंद्रमा की पूजा के साथ भगवान सत्यनारायण की कथा भी हुई। गाँव की नव वधुओं ने ढोलक की थाप पर मंगल गीत भी गाये, उस दिन मित्रों, रिश्तेदारों तथा समाज के लोगों को सुस्वादु भोजन के साथ बहू भोज भी दिया गया, लोगों ने उसके मंगल भविष्य की मंगल कामना भी की, महिलाओं ने पुत्रवती अखंड सौभाग्यवती  होने का आशीर्वाद दिल से दिया, उस समय उसके ससुराल में संपन्नता अपनी चरम सीमा पर थी, उसकी ननदों  तथा भाभियों ने उसकी सुहाग सेज को बेला और गुलाब की लड़ियों से सजाया, सुहाग सेज पर बिछी बेला और गुलाब की पंखुड़िया कोमल स्पर्श  नर्म एहसास दिलानें को आतुर थी।  उसमें सबके अरमानों की खुश्बू समाहित थी।

अब दिन ढलता जा रहा था।  शाम होने को आई।  उसको उस पल का पल-पल इंतजार था जिसकी कामना हर दुल्हन करती है।  अपने दिल में अरमानों की माला लिए तथा आंखों मे रंगीन सपने सजाये सुहाग सेज के निकट जमीन पर बैठी पगली अपने साजन के आने का इंतजार नींद से बोझिल आंखों से कर रही थी।

दरवाजे पर होने वाली हर आहट पर उसकी धड़कन बढ़ जाती, उसका इंतजार खत्म नही हुआ, बल्कि उसकी घड़ियाँ लम्बी होती चली गई। रात आधी बीतते। उसका मन किसी अज्ञात भय आशंका से कांपने लगा था। वह पिंजरे में कैद मैंना पक्षी की तरह छटपटा उठी थी।

एक तरफ वह भय आशंका से ग्रस्त हो छटपटा  रही थी।  दूसरी तरफ उसका पती सुहागरात रंगीन बनाने के लिए मित्रों के साथ जाम पे जाम टकराये जा रहा था।  इसकी पगली को भनक भी नही लगी थी। वह जब भी उठने का प्रयास करता मित्र मंडली आग्रही बन उसे रोक लेती और फिर एक बार पीने पिलाने का नया दौर शुरू हो जाता।  नशा हर पल गहरा होता जा रहा थ।  आधी रात के बाद पति महोदय ने नशे में झूमते झामते सुहाग कक्ष में दस्तक दी। लेकिन, सुहाग कक्ष की देहरी पार नही कर सके थे।  नशे की अधिकता से भहरा कर देहरी पर ही गिर पड़े थे।  यह सब देख पगली का हृदय दुख और पीड़ा से हाहाकार कर उठा था।  वह आने वाले भविष्य की दुखद कल्पना कर रो उठी थी। फिर भी अपनी कोमल बाहों से सहारा दे अपने पति को सुहाग सेज तक लाने का असफल प्रयास किया था।

लेकिन भारी शरीर संभालने में खुद गिरते-गिरते बची थी।  नशे की अधिकता से एक बार वह फिर लड़खड़ाया था और गिर गया था।  देहरीं पर पंहुच कर सुहाग सेज तक, नशे में बंद अधखुली आंखों से उसे सुहाग सेज मीलों दूर नजर आ रही थी, जिसे वह हाथ बढ़ा कर छूना चाहता था।

अब एक बेटी अपने अरमानों का गला घोंटे जाने  पे रोने के सिवा कर ही क्या सकती थी? ऐसे में उसकी पीड़ा समझने वाला सिवाय गोविन्द के और कौन हो सकता था।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -3 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 13 – क्या खोया क्या पाया ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना क्या खोया क्या पाया अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 13 – विशाखा की नज़र से

☆ क्या खोया क्या पाया   ☆

 

फिर एक साल बीत रहा

गणना का अंक जीत रहा

इस बीतते हुए वर्ष में

जीवन की उथल -पुथल में

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया …

 

नव विचारों का घर बनाया

पुराने को दूर भगाया

उघड़े चुभते बोलों से

सच को समक्ष लाया

सच के इस भवन में

ऐ ! मेरे मन तूने ,

क्या खोया ,क्या पाया ….

 

फिर से दिन वही आएंगे

क्रम से त्यौहार चले आएँगे

इतने रंग-बिरंगी उत्सवों में

अपने रंग -ढंग छुपाए

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया ..

 

इमारते गढ़ती जाए

आसमां को छू वो आए

नए परिधान में लिपटे हम

हर जगह घूम कर आएँ

इस घूम -घुम्मकड़ जग में

इन भूलभुलैया शहर में

सपनों की उठती लहर में

गोते लगाए मन तूने

क्या खोया क्या पाया

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 3 ☆ कविता – अप्सरा . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता  अप्सरा . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #3 ☆ कविता – अप्सरा . . .☆ 

बादलो से झांकती  धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं ,

जब भी मिलती है शरमाया करती हैं ,

अपने आँचल में तारों को रखती हैं ,

चंचल चितवन चंचल सा मन रखती हैं ,

आँखों से जैसे शरारत झलकती हैं ,

गलियों से जब भी गुजरती हैं ,

खुशबू से आँगन भरती हैं ,

जब भी मुझसे बातें करती हैं ,

कानों में जैसे रस घोलती हैं ,

हर झरोखे से झांकती नज़र ,

बस उसको ही देखा करती हैं ,

हाँ वो अप्सरा सी लगती हैं ,

पर ख्वाबों में ही आया करती हैं ,

बादलो से झांकती धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं . . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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