हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मानसपटल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मानसपटल   ☆

पहले आती थीं चिड़ियाँ,

फिर कबूतरों ने डेरा जमाया,

अब कौवों का जमावड़ा है..,

बदलते दृश्यों को मन के

पटल पर उतार रहा हूँ मैं

अपनी बालकनी में खड़ा

जीवन निहार रहा हूँ मैं..!

 

घर पर रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8:37 बजे,  1अप्रैल 2020

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 12 ☆

☆ वाह… वाह…. वाह …तंत्र का मंत्र

 

अजी  दो -चार लाइनें क्या लिख लीं खुद को अखिल भारतीय साहित्यकार ही घोषित कर दिया । देश तो क्या विदेशों में भी आपके चर्चे हो रहे हैं अब तो मिलना ही पड़ेगा भाई साहब से ।

जय श्री कृष्णा भाई साहब ।

एक बात पूछनी थी, आपको  शहर में तो देखा ही नहीं कविता करते हुए आप कब  महान कवि घोषित हो गए, आज दूरदर्शन पर आपका काव्यपाठ देखा , क्या  गज़ब की शैली है कौन सी विधा में आपने पढ़ा ये तो संचालक भी  नहीं समझ पाए और तो और ऑडियंस भी आपके हाव- भाव को देखकर मौन हो गयी फिर कुछ देर बाद ऐसी ताली बजी कि कैमरामैन का कैमरा भी गिर  गया ।

हाँ भाई साहब एक बात तो और पूछनी है कि आपको जल्द ही लाल किले  में भी बुलाया जायेगा  ऐसा मैंने पढ़ा है, आपका नामांकन भी  राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए  हुआ है ।

कुछ हमें भी गुरु मंत्र दें आजकल काम धंधा मन्दा चल रहा है सोचता हूँ मैं भी कुछ लिखने लगूँ वैसे मेरे पड़ोसी और दोस्त दोनों को मेरी शायरी बहुत पसंद आतीं हैं ।

बहुत देर से  तुम्हारी बड़बड़ सुन रहा हूँ वो तो मेरी घरवाली के गाँव के हो तो इतना  बर्दाश्त कर लिया वरना …..

आप चाहें तो  मेरा बेड़ा पार हो सकता  है आज से आप मेरे गुरुदेव हैं कृपा कीजिए ।

अरे नादान बालक  इतना तो समझों  कि ये मौके व पुरस्कार सब सेटिंग का कमाल है लक्ष्मी  एक हाथ  से दो दूजे हाथ से पुरस्कार लो,  दो चार अच्छी- अच्छी कविताएँ  और ग़ज़ल पढ़ो  फिर बिना  दिमाग  लगाए पंक्तियों को जोड़-तोड़ दो ।

कुछ नया तैयार हो जायेगा  जिसको कॉपीराइट © करवा लो ।

समझ गया गुरुदेव ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका”।  श्री विवेक जी ने वर्तिका के सन्दर्भ में साहित्यिक विकास में संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला है। अग्रज साहित्यकार स्व साज जबलपुरी जी से मेरे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं और उनके साथ जबलपुर की संस्था साहित्य परिषद् में कार्य करने का अवसर भी प्राप्त हुआ।  स्व साज भाई द्वारा रोपित वर्तिका आज वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगी इसकी उन्हें भी कल्पना नहीं होगी।  इसका सम्पूर्ण योगदान समर्पित कार्यकर्ता सदस्यों को जाता है। श्री विवेक रंजन जी  का यह प्रेरकआलेख निश्चित ही वर्तिका के सदस्यों के  हृदय में  उत्साह का संचार करेगा ऐसी भावना  है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 41 ☆ 

☆ सन्दर्भ वर्तिका – साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका ☆

  वास्तव में साहित्य निरंतर साधना है. नियमित अभ्यास से ही लेखन में परिष्कार परिलक्षित होता है. रचनाकारों के लिये साहित्यिक संस्थायें स्कूल का कार्य करती हैं. अलग अलग परिवेश से आये समान वैचारिक पृष्ठभूमि के लेखक कवि मित्रो से मेल मुलाकात, पठन पाठन की सामग्री के आदान प्रदान, साहित्यिक यात्राओ में साथ की अनुभूतियां वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्थाओ की सदस्यता से ही संभव हो पाती हैं.  एक दूसरे के लेखन से रचनाकार परस्पर प्रभावित होते हैं. नई रचनाओ का जन्म होता है. नये संबंध विकसते हैं. तार सप्तक से सामूहिक रचना संग्रह उपजते हैं. वरिष्ठ साहित्यकारो के सानिध्य से सहज ही रचनाओ के परिमार्जन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है. प्रकाशको, देश की अन्य संस्थाओ से परिचय के सूत्र सघन होते हैं. साहित्यिक विकास में संस्थाओ की भूमिका निर्विवाद है.

जबलपुर की गिनी चुनी पंजीकृत साहित्यिक संस्थाओ में वर्तिका एक समर्पित साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था है जो नियमित आयोजनो से अपनी पहचान बनाये हुये है. प्रति माह के अंतिम रविवार को बिना नागा काव्य गोष्ठी का आयोजन वर्तिका करती आ रही है. यह क्रम बरसों से अनवरत जारी है. पाठकीय त्रासदी से निपटने के लिये वर्तिका ने अनोखा तरीका अपनाया है, जब सामान्य पाठक रचना तक सुगमता से नही पहुंच रहे तो वर्तिका ने हर माह कविता के फ्लैक्स तैयार करवाकर, उसे बड़े पोस्टर के रूप में शहर के मध्य शहीद स्मारक के प्रवेश के पास लगवाने का बीड़ा उठा रखा है. स्वाभाविक है सुबह शाम घूमने जाने वाले लोगों के लिये यह कविता का बैनर उन्हें मिनट  दो मिनट रुककर कविता पढ़ने के लिये मजबूर करता है. नीचे लिखे मोबाईल पर मिलते जन सामान्य के  फीड बैक से इस प्रयोग की सार्थकता सिद्ध होती दिखती है. समारोह पूर्वक इस काव्य पटल का विमोचन किया जाता है, जिसकी खबर शहर के अखबारो में सचित्र सिटी पेज का आकर्षण होती है. प्रश्न यह उठा कि इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिये कविता का चयन कैसे किया जावे ? उत्तर भी हम मित्रो ने स्वयं ही ढ़ूंढ़ निकाला, जिस माह जिन कवियों का जन्मदिन होता है, उस माह उन एक या दो  कवि मित्रो  की कविताओ को पोस्टर में स्थान दिया जाता है.

सामान्यतः साहित्यिक आयोजनो के व्यय के लिये रचनाकार राज्याश्रयी रहा है. राज दरबारो के समय से वर्तमान सरकारो तक किंबहुना यही स्थिति दिखती है. किन्तु इस दिशा में लेकको में वैचारिक परिवर्तन करने में भी साहित्यिक संस्थाओ की भूमिका बड़ी सकारात्मक दिखती है. वर्तिका की हीबात करें तो मुझे स्मरण नही कि हम लोगो को कभी कोई सरकारी अनुदान मिला है. हर आयोजन के लिये हम लोकतांत्रिक, स्वैच्छिक तरीके से परस्पर चंदा करते हैं. इसी सामूहिक सहयोग से मासिक काव्य गोष्ठियां, वार्षिक सम्मान समारोह, साहित्यिक कार्यशालायें, वैचारिक गोष्ठियां,मासिक काव्य पटल,  साहित्यिक पिकनिक, सामाजिक दायित्वो के लिये वृद्धाश्रम, अनाथाश्रमो में योगदान, सांस्कृतिक गितिविधियां, सहयोगी प्रकाशन आदि आदि आयोजन वर्तिका के बैनर से होते आ रहे हैं. आयोजन के अनुरूप, पदाधिकारियो के कौशल व संबंधो से किंचित परिवर्तन धन संग्रह हेतु होता रहता है. उदाहरण के लिये सम्मान समारोह के लिये हम अपने संपर्को में परिचितो से आग्रह करते हैं कि वे अपने प्रियजनो की स्मृति में दान स्वरूप संस्था के नियमो के अनुरूप सम्मान प्रदान करें, और हमने देखा है कि बड़ी संख्या में हर वर्ष सम्मान प्रदाता सामने आते रहे हैं. वर्तिका ने कभी भी उस साहित्यकार से कभी कोई आर्थिक सहयोग नही लिया जिसे हम उसकी साहित्यिक उपलब्धियो के लिये सम्मानित करते हैं, यही कारण है कि वर्तिका के अलंकरण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करते हैं. प्रकाशन हेतु मित्र संस्थानो से विज्ञापन के आधार पर आर्थिक सहयोग मिल जाता है, तो काव्य पटल के लिये जिसका जन्मदिन साहित्यिक स्वरूप से मनाया जाता है, वह प्रसन्नता पूर्वक सहयोग कर देता है, कुल मिलाकर बिना किसी बाहरी मदद के भी संस्था की गतिविधियां सफलता पूर्वक वर्ष भर चलती रहती हैं. और अखबारो में वर्तिका के आयोजन छाये रहते हैं. संरक्षक मनोनीत किये जाते हैं, जो खुशी खुशी संस्था को नियत राशि दान स्वरूप देते हैं, यह राशि संस्था के खाते में  बैंक में जमा रखी जाती है.

कोई भी साहित्यिक संस्था केवल संस्था के विधान से नही चलती. वास्तविक जरूरत होती है कि संस्था ऐसे कार्य करे जिनकी पहचान समाज में बन सके. इसके साथ साथ संस्था से जुड़े वरिष्ठ, व युवा साथियो को प्रत्येक के लिये सम्मानजनक तरीके से प्रस्फुटित होने के मौके संस्था के आयोजनो के माध्यम से मिल सकें. यह सब  तभी संभव है जब संस्था के पदाधिकारी  निर्धारित लक्ष्यो की पूर्ति हेतु, बिना वैमनस्य के, आत्म प्रवंचना को पीछे छोड़कर समवेत भाव से संस्था के लिये हिलमिलकर कार्य करें, प्रतिभावान होने के साथ ही  विनम्रता  और एकजुटता के साथ संस्था के लिये समर्पित होना भी संस्था चलाने के लिये सदस्यो में होना जरूरी होता हैं.

एक बात जो वर्तिका की सफलता में बहुत महत्वपूर्ण है, वह है हमारे पदाधिकारियों का समर्पण भाव. अपने व्यक्तिगत समय व साधन लगाकर अध्यक्ष, संयोजक, संरक्षक ही नही वर्तिका के सभी सामान्य सदस्य तक एक फोन पर जुट जाते हैं, एक दूसरे की व्यक्तिगत, पारिवारिक, साहित्यिक खुशियो में सहज भाव से शरीक होते हैं, सदैव सकारात्मक बने रहना सरल नही होता पर संस्था की यही विशेषता हमें अन्य संस्थाओ से भिन्न बनाती है. मैं जानबूझकर कोई नामोल्लेख नही कर रहा हूं, किन्तु हम सब जानते हैं कि संस्थापक सदस्यो से लेकर नये जुड़ते, जोड़े जा रहे सदस्य, पूर्व रह चुके अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी सब एक दूसरे का सम्मान रखते हैं, एक दूसरे को बताकर, पूछकर, सहमति भाव से निर्णय लेकर संस्थागत कार्य करते हैं, पारदर्शिता रखते हैं, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को संस्था से बड़ा नही बनने देते, ऐसी कार्यप्रणाली ही वर्तिका जैसी सक्रिय साहित्यिक संस्था की सफलता का मंत्र है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 42 – बुनियादी हक़ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी हक़। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 42☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी हक़ ☆

 

“अरे सावित्री ! क्यों मार रही है रोहन को. मोबाइल ही तो फेका है. सुधरवा लेना.”

“मांजी , मारू नहीं तो क्या करूँ. आजकल बहुत शैतानी करने लगा है,” कहते हुए सावित्री ने दूसरा चांटा रखना चाहा.

“रुक ! मेरे दोहते को मारना चाहती है, “ कहते हुए नानी ने हाथ पकड़ लिया.

“गोद लिए रोहन को मारते शर्म नहीं आती. पहले बच्चे पैदा करना, फिर मारना,” नानी यह कह पाती उस पहले ही रोहन की माँ देवकी बोल उठी , “माँ ! यह मेरी जेठानी-सावित्री का बेटा है. वह अपने बेटे को मारे या कुछ कहे , आप कौन होती है बीच में बोलने वाली. चलो यहाँ से.”

सुनते ही नानी और सावित्री अवाक् रह गई और देवकी मुंह में पल्लू दबा कर उलटे पैर भाग गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 21 ☆ कविता – प्यार होना चाहिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक अतिसुन्दर भावपावन रचना  “प्यार होना चाहिए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 21 ☆

☆ प्यार होना चाहिए ☆

आदमी को उम्रभर गमख़्वार होना चाहिए।

और दिल में सिर्फ ,उसके प्यार होना चाहिए।

 

जिसकी मिट्टी में फले-फूले सदा खाया रिजक।

नाज उस पर हर किसी को यार होना चाहिए।।

 

मजहबों और जातियों के भेदभावों से अलग।

भाईचारे का नया संसार होना चाहिए।।

 

सुख में तो साथी बहुत मिलते ही रहते हैं मगर।

मुश्किलों की हर घड़ी में यार होना चाहिए।।

 

हर कोई मशगूल है, अपनी भलाई में मगर।

वास्ते औरों के भी उपकार होना चाहिए।।

 

बात जो परदे में हो,अच्छी वो परदे ही में हो।

राज को यों राज ही दरकार होना चाहिए।।

 

चक्र की आवाज पहुँची आप सबके बीच में।

प्यार की वर्षा से यारो प्यार होना चाहिए।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 40 – पत्रलेखन – आये, काळजीत नगं काळजात रहा ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनके द्वारा शहर में आये एक युवक द्वारा अपनी माँ को  लिखा गया अत्यंत भावुक एवं मार्मिक पत्र  “आये, काळजीत नगं काळजात रहा”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #40 ☆ 

☆ पत्रलेखन – ‘आये, काळजीत नगं काळजात रहा.’ ☆ 

(कोरोनाच्या संकटामुळे भयभीत झालेल्या  गावाकडील आईस ,  शहरात कामधंद्यासाठी आलेल्या  एका तरूणाने पत्रलेखनातून दिलेला हा बोलका दिलासा जरूर वाचा.)

पत्रलेखन

‘आये, काळजीत नगं काळजात रहा.’

आये. . पत्र लिवतोय तुला. . .  जरा  निवांत बसून वाच. शेरात कामधंद्यासाठी आल्या पासून  आज येळ मिळाला बघ तुला पत्र लिवायला. आधी डोळं पूस. मलाबी हिकडं रडायला येतया.

आये . . तू काळजी.करू नकोस मी बरा आहे सध्या शहरात सगळं काही बंद आहे. त्या कोरोना इषाणू मुळं.आये तुझी माया मला कळतीया.परं गावाकडं प्रवास करून येताना ह्या कोरोनाचा धोका जास्त हाये बघ. ह्यो साथीचा रोग आहे. ‘माणसान माणसाला टाळल तर ह्याची लागण हुणार नाय आसं जाणकार सांगत्यात.’

आये, आमच्या कामगारांची मालकानं हॉटेल मध्येच रहायची सोय केली हाय बघ. जेवना ची काय बी आबाळ होत नाय तवा काळजी करू नगस. माझा इचार करू नगंस. पगार पाणी माझं चालू रहाणार हाय . हिथं शेरात एका हॉटेलात आमी चार पाच जणं राह्यतोया. आक्षी चारा छावणीत राह्यलाय वानी वाटतयं बघ. चहा, नाश्ता, जेवण सारं बैजवार अन येळच्या येळी  मिळतया. आये तू माझी काळजी करू नगंस.

आये तू बी थोडं दिस घरीच थांब. शेताकडं जाताना तोंडाला एखाद फडकं बांधून जात जा. बा ला  बी सांग. जनावरांना चारापानी दिल्यावर,  घरात येताना हात साबनान चांगलं धू.. .तोंडावर रूमाल बांधून राह्य.  हळद घालून दूध दे समद्यास्नी. सकाळी फक्कड  आल  आन गवती चहा घालून चाय दे समद्यास्नी. हसू येतय नवं?  अशीच हसत राह्य. आये ही येळ काळजी करण्याची नाय तर सोताची काळजी घेण्याची हाय. म्या हिथं माझी काळजी घेतोया.तकडं तुमीबी जीवाला जपा. खोकला, सर्दी जास्त दिस अंगावर काढू नगं.

आये.. मी गाव सोडून

शहरात येताना

तूझ्या डोळ्यात

पाणी का दाटून आलं होत

ते आज कळतंय…

आज खरंच गावाकडची खूप आठवण येतेय

पोटाच्या भुकेच्या प्रश्नाचं

उत्तर शोधत

मी ह्या शहरातल्या

उंच इमारतीच्या गर्दीत

कधी हरवून गेलो कळलंच नाही

पण आता परिस्थिती समोर

नक्की कुठे जावं कळत नही…

माझी अवस्था तुह्या  किसना सारखी झालीया

त्याला  जन्म देणारी देवकी पण हवीय

आणि संभाळणारी यशोदा सुध्दा.

आये, हिथं तुझ्या वानी राधा मावशी हाय आमच्या जेवणाची काळजी घ्यायला. मलाबी सध्या निस्तं बसून रहावं लागतया. मनात नगं नगं त्ये इचार येत्यात.वाटत आत्ता  उठावं. . .   आनं मिळेल त्या वाहनानं  गाव गाठावं आनं तुला येऊन भेटावं. परं आये तुच म्हनती नव्हं ? “हातचं सोडून पळत्या पाठी धावायचं नाय” आये, आक्षी खरं हाय तुझं. त्यो  कोराना (त्ये महामारी सावट) जसं आलं तसं निघून बी जाईल.  आपून त्याच्या पासून दूर राह्यचं हाय. त्यांन मरणाच्या भितीनं सा-या जगाला नाचवलय. पर आये त्याला काय धिंगाणा घालायचा त्यो घालू द्येत. आपून  त्या नाचात  सामिल हुयाचं नाय. दुरूनच तमाशा पघायचा आन सोताला जपायचं ह्ये ध्यानात ठेवलंय.

आये. .  समजून घेशील नव्हं ? म्या हिथं सुखरूप हाय. , ‘काळजीत नगं काळजात रहा…’  ह्ये तुझं बोल ध्यानात ठ्येवलय. तू  दिलेली गोधडी  काळीज म्हणून पांघरलीया. लई आठवणी जाग्या झाल्यात बघ.  आता  एकटं वाटत नाय. आये ह्ये कोरीनाचं सावट दूर झालं की भेटू  आपण तवर सोत्ताची,  बा ची आन धाकल्या भावडांची काळजी घेऊ, घेशील नव्हं. म्या इथं सुखरूप हाय ध्यानात ठेव. पत्र लवकरच तुला मिळंल. तवा रडू नगं.  सावर सोताला. नमस्कार करतो. आये असाच आशिर्वाद राहू दे.

..तुझा लाडका

..सुजित

 

© सुजित कदम

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 41 – वर्तमान संकट के समय के 7 दोहे ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  के वर्तमान संकट के समय के 7 दोहे । आज समाज को ऐसे ही सकारात्मक साहित्य की आवश्यकता है। । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 41 ☆

☆ वर्तमान संकट के समय के 7 दोहे  ☆  

 

कोरोना के कोप से, भयाक्रांत  संसार।

कैद  घरों  में हैं सभी, बन्द पड़े बाजार।।

 

कौन जाति का वायरस, किस जाति पर वार।

सोचें  समझें  अब  सभी, रहे  परस्पर  प्यार।।

 

देवदूत  बन  जो  जुटे, सेवा में  अविराम।

नर्स-डॉक्टरों के प्रति, सह्रदय नम्र प्रणाम।।

 

जगह जगह जो कर रहे, जन हितकारी काम।

रहें  निरोगी  वे  सभी, दिल  से  उन्हें  सलाम।।

 

जहाँ जहाँ जो हैं सभी, है सबका दायित्व।

पूर्ण  समर्पण भाव से, करते रहें  कृतित्व।।

 

फुरसत में चिंतन करें, करें नहीं अफसोस।

उतरें  अपने में  स्वयं, खोजें  गुण औ’दोष।।

 

जग मंगल की कामना, रहे प्रार्थना भाव।

दूर  हटेगा  शीघ्र ये, जीवन  का  ठहराव।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 43 – समारोप ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक अविस्मरणीय संस्मरण  “समारोप । वास्तव में जीवन के कुछ अविस्मरणीय क्षण होते हैं जिन्हें हम आजीवन विस्मृत नहीं कर सकते । वे क्षण कुछ भी हो सकते हैं  किन्तु,  हाईस्कूल से कॉलेज में पदार्पण के पूर्व हाईस्कूल का फेयरवेल जिसमें लड़कियां साड़ियां और लडके फॉर्मल्स में  सम्मिलित होते हैं, बेहद रोमांचक क्षण होते हैं। उस समय की मित्रता और  भविष्य के स्वप्न संजोते ह्रदय का स्मरण कर या मित्रों में साझा कर एक रोमांच का अनुभव होता है और लगता है  कि  काश वे दिन एक बार पुनः लौट आते जो कि असंभव हैं।  सुश्री प्रभा जी ने उन क्षणों को अपने इस संस्मरण से सजीव कर दिया है। इस भावप्रवण अप्रतिम  सजीव संस्मरण  साझा करने के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 43☆

☆ समारोप ☆ 

आयुष्यात समारोपाचे अनेक प्रसंग आले, लक्षात राहिल असा एकच समारोप, शाळेत असताना मैत्रीणीबरोबर चा अकरावीला घेतलेला शाळेचा समारोप!

मी अकरावीला असताना, शिरूरच्या विद्याधाम प्रशालेत शिकत होते, शाळेत भेटली जिवाभावाची मैत्रीण राणी गायकवाड! शाळेच्या send off ला आम्ही साड्या नेसलो होतो,आणि दोघी एकमेकींना खुप छान दिसतेस म्हणत होतो! राणीची मैत्री ही मला आयुष्यात मिळालेली अनमोल देणगी! त्या दिवशी ती माझ्याकडे राहिली होती आणि रात्रभर जागून गप्पा मारल्या होत्या! खरोखर शिरूर मधले दिवस हे मंतरलेलॆ दिवस होते! अकरावी चा अभ्यासही आम्ही एकमेकींच्या घरी रात्री जागून केला, ब-याचदा मी झोपून जायचे आणि ती अभ्यास करत असायची, एकदा रात्री खुप भूक लागली, मी तिच्या घरी गेले होते, तिनं स्वयंपाक घरात पाहिलं फक्त भात शिल्लक होता आणि कांदे, बटाटे, टॉमेटो दिसले आम्ही टॉमेटोची चटनी केली…आयुष्यात ला तो काही पदार्थ बनविण्याचा तो दोघींचाही पहिलाच प्रसंग पण चटणी खुपच टेस्टी झाली होती आम्ही भाताबरोबर खाल्ली!

अकरावीच्या परीक्षेच्या वेळी युनिफॉर्म घालण्याची अट नव्हती पण आम्ही म्हटलं आपण युनिफॉर्मचं घालू कारण नंतर कधीच परत घालता येणार नाही. सगळ्या मैत्रीणी रंगीबेरंगी कपडे घालून यायच्या पण आम्ही आकाशी निळा स्कर्ट आणि पांढरा ब्लाऊज घालून जात होतो! शेवटच्या पेपराच्या दिवशी खुप भरून आलं….कारण तो शाळेच्या समारोपाचा दिवस होता…त्या दिवशी रात्री आम्ही तंबूत माला सिन्हा चा हमसाया सिनेमा पाहिला होता…वो हसीन दर्द दे दो जिसे मै गले लगा लू…..म्हणणारी माला सिन्हा अजूनही आठवते……

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी: आज़ादी और  भारत का विभाजन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 22 – महात्मा गांधी : आज़ादी और  भारत का विभाजन

अंग्रेजों ने इस आन्दोलन को कुचलने में कोई कसर न छोड़ी और बड़ी दमनात्मक कार्यवाहियाँ आंदोलनकारियों के विरुद्ध की। गांधीजी ने अंग्रेजों की दमनात्मक कार्यवाहियों के खिलाफ 10 फरवरी 1943 को जेल में ही  21 दिन का  उपवास शुरू कर दिया। सारे विश्व में ब्रिटिश दमनकारी नीतियों की आलोचना होने लगी। अंततः 8 मई 1944 को गांधीजी रिहा हुये और सुप्त पड़ चुके आंदोलन में नई जान आ गई। गांधीजी की माँग पर अंग्रेजों ने कांग्रेस के सभी नेताओं को रिहा कर दिया और बातचीत तथा समझौते की कोशिशों के नए दौर चालू हुये। 25 जून 1945  में अंग्रेज सरकार ने भारत के सभी राजनैतिक दलों को शिमला वार्ता के लिए बुलाया। गांधीजी भी इसमे वाइसराय के विशेष आग्रह पर व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हुये।  इसके बाद वार्ताओं के अनेक दौर हुये। वैवल योजना(1945) के तहत प्रस्ताव लाये गए, सत्ता के हस्तांतरण का फार्मूला लेकर केबिनेट मिशन (1946) आया। लेकिन ये सब प्रयास जिन्ना की जिद्द पर बलि चढ़ गए। जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे तो गांधीजी और उनके अनेक सहयोगी देश का विभाजन नहीं चाहते थे। जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से असहमत गांधीजी ने काफी पहले से ही उनसे चर्चा कर समस्या का निदान खोजने के प्रयास किए। गांधीजी ने अनेक अवसरों पर जिन्ना व सरकार को स्पष्ट किया कि कांग्रेस केवल हिंदुओं की पार्टी नही है वह अपने सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती है जिसमे मुसलमान भी शामिल है।

लार्ड माउंटबैटन 21 फरवरी 1947 को भारत के वाइसराय बने। उन्होने देश की आज़ादी का खाका तैयार करने के उद्देश्य से 1 अप्रैल 1947 से चार प्रमुख भारतीय नेताओं से अलग अलग मिलना प्रारंभ किया। ये नेता थे गांधीजी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना। लार्ड माउंटबैटन जानते थे कि गांधीजी बटवारे के सख्त विरोधी हैं तो जिन्ना बटवारे से कम कुछ नही चाहते।  अत: उन्होने अपनी योजना कुछ इस प्रकार बनाई की गांधीजी को बातचीत के माध्यम से बटवारे के लिए तैयार किया जा सके। गांधीजी ने लार्ड माउंटबैटन से होने वाली बैठक के एक दिन पहले ही कहा था कि भारत का बटवारा मेरी लाश पर ही होगा अपने जीते जी मैं कभी भारत के बटवारे के लिए तैयार नहीं हो सकता। लार्ड माउंटबैटन ने जब उनसे विभाजन को टालने के लिए और विकल्प पूंछे तो उनका जबाब था कि एक बच्चे के दो टुकड़े करने के बजाय उसे मुसलमानों को दे दो। वह इसके लिए भी तैयार थे कि जिन्ना जो हिस्सा माँगते थे उसके बदले उन्हे पूरा हिन्दुस्तान ही दे दिया जाय, जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग को सरकार बनाने को कहा जाय। गांधीजी को विश्वास था कि कांग्रेस भी देश का बटवारा नहीं चाहती है और वह उसे रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाएगी। जब लार्ड माउंटबैटन ने गांधीजी से जानना चाहा कि इस बात पर जिन्ना का रवैया क्या होगा तो गांधीजी ने हँसते हुये कहा ‘अगर आप उनसे कहेंगे कि यह सुझाव मेरा है तो उनका जबाब होगा: धूर्त गांधी’।

लेकिन गांधीजी के तमाम प्रयासों से कोई बात नही बनी।  जिन्ना अपने दो राष्ट्र के सिद्धांत से पीछे हटने को तैयार न थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस भी दो धड़ों में बटती जा रही थी, एक धडा विभाजन को अपरिहार्य मानने लगा था । ऐसी परिस्थितियों के बीच 3 जून 1947 को लॉर्ड माउंटबैटन ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर भारत विभाजन की घोषणा कर दी। इस विभाजन प्रस्ताव पर  चर्चा के लिए 14 व 15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की एक विशेष बैठक दिल्ली में बुलाई गई। इस बैठक में प्रस्तावित बटवारे के खिलाफ कई आवाजें उठीं। सिंध के लोग भी बटवारे के विरोध में थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, जय प्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अब्दुल गफ्फार खान  और गांधीजी आदि ने विभाजन के खिलाफ भाषण दिये। राम मनोहर लोहिया ने तो इस बैठक में विभाजन का सारा ठीकरा पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल व मौलाना आज़ाद पर फोड़ दिया।

यह मानते हुये कि विभाजन तो अब होगा ही कांग्रेस व मुस्लिम लीग ने आगे की तैयारियाँ शुरू कर दी। सत्ता हस्तांतरण की तारीख पहले जून 1947 तय की गई जिसे बदलकर अक्तूबर 1947 किया गया और अंतत: 15 अगस्त 1947 का दिन भारत की आज़ादी के लिए निर्धारित किया गया। इसके एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान ने भारत से अलग होकर एक नए राष्ट्र का रूप धारण किया। भारत की आज़ादी का दिन 15 अगस्त 1947  लार्ड माउंटबैटन ने शायद जापान के आत्म समर्पण की दूसरी वर्षगांठ से अपने व्यक्तिगत जुड़ाव के कारण तय किया क्योंकि दो वर्ष पहले ही  इसी  दिन जब वे दो 10 डाउनिंग स्ट्रीट में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ बैठे थे तब जापान के आत्म समर्पण की खबर आई थी।

देश की आज़ादी अपने साथ हिंदु मुस्लिम दंगों की एक नई खेप भी साथ लाई। 1947 के प्रारंभ में ही नोआखली में भीषण सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। दंगों की यह आग बंगाल के गांवों और बिहार तक फैल गयी। कहीं हिन्दू  मारे जाते तो बदले में वे मुसलमानों को मारते। दंगो की विभीषिका के बीच गांधीजी ने श्रीरामपुर में डेरा डाल दिया और नोआखली  के गावों में प्रायश्चित यात्रा शुरू करने का निर्णय लिया।  और अगले सात सप्ताहों में वे 116 मील पैदल चलकर 47 गांवों में गए, रात वहीं रुके, जो कुछ ग्रामीणों ने खाने को दिया प्रेम से खाया और सांप्रदायिक सौहाद्र की स्थापना कर हज़ारों हिंदुओं और मुसलमानों को अकाल मृत्यु से बचाया। जब गांधीजी मुस्लिम बहुल गावों में जाते तो कई बार लोग विरोध में नारे लगाते दीवारों पर चेतावनी स्वरूप नारे लिख देते – ‘खबरदार आगे मत बढ़ना! ‘पाकिस्तान की बात माँग लो!’ या ‘अपनी खैर चाहते हो तो लौट जाओ!’ । पर गांधीजी पर इन धमकी भरी बातों का कोई असर न होता और आखिर में उनकी अहिंसा की जीत हुयी नोआखली में शांति स्थापित हुयी।

14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत की संविधान सभा में अपना प्रसिद्ध भाषण “Tryst with Destiny” दे रहे थे तब इस आज़ादी के आंदोलन का मसीहा उसका कर्ता धर्ता कलकत्ता में शांति स्थापित करने के लिए मुस्लिम बहुल मोहल्ले हैदर मैंशन में ठहरा हुआ था। विभाजन की पीड़ा से ग्रस्त गांधीजी,  दंगो के खतरों की आशंका से लोगो को मुक्ति दिलाने में लगे हुये थे। उनके प्रयासों से कलकत्ता और बंगाल के अन्य हिस्सों में शांति बनी रही, दंगे फसाद रुके रहे। लार्ड माउंटबैटन ने उन्हे दिल्ली से पत्र लिखा था: ‘पंजाब में हमारे पास 55,000 सिपाही हैं, फिर भी वहाँ दंगे हो रहे हैं। बंगाल में हमारे सेना दल में सिर्फ एक सिपाही है और वहाँ कोई दंगा नहीं हुआ।‘

(इस आलेख हेतु संदर्भ डोमनिक लापियर व लैरी कालिन्स की पुस्तक फ्रीडम एट मिड नाइट तथा जसवंत सिंह की पुस्तक जिन्ना भारत-विभाजन के आईने में से ली गई है। कुछ जानकारियाँ राकेश कुमार पालीवाल द्वारा रचित गांधी जीवन और विचार से भी ली गई हैं।)

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 19 ☆ लघुकथा – देवी विसर्जन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा देवी विसर्जन।  यह वास्तव में विचारणीय है कि कुछ लोगों के विचार नवरात्रि के नौ दिनों तक सात्विक रहते हैं और अचानक दसवें दिन ही क्यों परिवर्तित हो जाते हैं ?  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 19 ☆

☆ लघुकथा  – देवी विसर्जन ☆

नदी दूषित न हो शासन ने इसकी पूरी कोशिश और सतर्कता बरती. एक कुंड बनाया. जिसमें बड़ी और छोटी सभी प्रतिमाएं विसर्जित की जा सकतीं थीं और प्रतिमाएं विसर्जित भी हुई. पर कुछ और प्रतिमाओं को विसर्जित होना था. माता की मूर्ति विसर्जन के लिये बड़ी धूमधाम से ले जायी गई और नदी में विसर्जित करने आगे बढ़े, मना करने पर समिति के सदस्यगण  मूर्ति कुंड में  विसर्जित नहीं करने के पक्ष में थे. यही बात आगे विवाद बनी.

शासन की चाक-चौबंद व्यवस्था अति उत्तम रही आपस में तू-तू में में शुरू हुई और फिर शासन और समिति के सदस्यों मैं बहुत जमकर लाठी और पत्थरों का उपयोग हुआ.

बस फिर क्या मूर्ति के पास पुजारी बस बैठा रहा, बाकि सबको जाना पड़ा और फिर देवी का विसर्जन शासन के नुमाइंदों को करना पड़ा.

यह भी बड़े भाग्य की बात कि देवी भी अनुशासन में रहकर ही खुश हुई होगी. अति किसी भी तरह की बुरी होती है. कुछ भले मानस, तो कुछ विघ्नसंतोषियों ने यह विवाद खड़ा कर दिया.

मन कर्म वचन से सभी ने श्रद्धा भक्ति की और मन पवित्र कर इन्द़ियों को वश में करने के गुण सीखे और शान्ति भी रही. किन्तु,  हमारे विचार नौ दिनो तक  शुध्द शाकाहारी रहते हुये दसवें दिन से ही आततायी क्यों हो गये?

शासन ने अपनी महत्ता बताई और विसर्जन करते समय गर्व से बोले- “देश की रक्षा कौन करेगा? …हम करेंगे… हम करेंगे!”

क्या यह मानवीय व्यवहार सही था ….?

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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