हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #4 ☆ समानाधिकार ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “समानाधिकार”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 4 ☆

 

☆ समानाधिकार ☆

 

सड़क के किनारे

झूठे पत्तलों को चाटते देख

अनगिनत प्रश्न मन में कौंधते

कैसी तुम्हारी दुनिया

कैसा यह जग-व्यवहार

 

तुम कहलाते सृष्टि-नियंता

करुणा-सागर

महिमा तुम्हारी अपरंपार

तुम अजर,अमर,अविनाशी

घट-घट वासी

सृष्टि के कण-कण में

पाता मानव तुम्हारा अहसास

 

परन्तु,अच्छा है…

निराकार हो,अदृश्य व शून्य हो

यदि तुम दिखलाई पड़ जाते

हो जाता तुम्हारा भी बंटाधार

 

कैसे बच पाते तुम

प्रश्नों के चक्रव्यूह से

कैसे सुरक्षित रख पाते

निज देह,निज ग़ेह

 

अब भी समय है

होश में आओ

ऐसी सृष्टि की रचना करो

जहां सब को मिलें

समानावसर

व समानाधिकार

तभी हो पाएगी

इस जहान में सर्वदा

तुम्हारी जय जयकार

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #2 आस ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की कविता “आस”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #2  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ आस ☆

 

बेटियां अब बड़ी हो गई है

उम्र की

कमसिन दहलीज पर

अब खड़ी हो गई हैं.

है बेटियों के बहुत अरमान

देने हैं उन्हें अब इम्तिहान

अब वे

पुरातन छवि से परे

गढ़ रही है नए विचार

बदल दी है सौंदर्य की परिभाषा

जगती मन में है एक आशा

बदले हैं कमनीयता पुराने के रंग

बदल गया है रहन-सहन का ढंग

रच डाली है एक नई छवि

तोड़ डाले हैं यौवनता के सब बंधन

तुम हो समर्थ

तुम्हें आशाओं के पंख लगा कर

उड़ना है

अपने हौसले को बुलंद

करना है

अब पुरातन बंधन नहीं है

नहीं है किसी चीज का निषेध

छूना है आसमान यही है शेष

परंपराओं की तोड़नी है दीवार

करना है

सभी से प्यार

रखना है नारी की गरिमा मान

होगा तभी सम्मान

रचना है तुम्हें एक इतिहास

बस

इस माँ की है यही आस.

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प चौथा #4 – ☆ कॉर्पोरेट जगत ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प चौथा  – कॉर्पोरेट जगत” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प चौथा #-4 ☆

 

कॉर्पोरेट जगत 

 

जमाना बदलतोय असे एकीकडे म्हणायचे अन दुसरी कडे मात्र नावावरुन, जातीवरून त्याला काम द्यायचे का नाही हे ठरवायचे हेच सर्वत्र पहायला मिळते.

बारा बलुतेदारी पद्धत गेली. अठरा पगड जातीचा समाज कामासाठी देशाच्या कानाकोपर्यात विभागला गेला. त्या जात बांधवाचे एकीकरण करण्याचे काम युद्ध पातळीवर सुरू झाले आहे त्यात कार्पोरेट जगत मागे नाही.

मोठमोठय़ाल्या फीया भरून, डोनेशन देऊन पदवीधर झालेले हे लक्ष्मीपुत्र ठरावीक ठिकाणी बरोबर कामाला लागतात.  एखादा वरच्या हुद्द्यावरील अधिकारी  आपले युनिट तयार करताना,  आपल्या हाताखालील कामगारांची भरती करताना आपल्या गणगोताला प्राधान्य देतो.  बहुतांश कंपनीत अशी साखळी तयार झाली आहे. कामगारांची संख्या, भरती जातीनिहाय होत नाही पण कामाची विभागणी मात्र जातीनिहाय केली जाते. कम्युनिकेशनचे गोंडस नाव देऊन ही साखळी  एकेक विभाग सांभाळू लागते. काही दिवसांनी जेव्हा प्रमोशन ची वेळ येते तेव्हा हे वाद  विवाद  चव्हाटय़ावर येतात.  त्याचा बाॅस त्याला दुसऱ्या विभागात जाऊ देत नाही. आपला माणूस  आपल्या हाताखाली  कार्यरत रहावा  यासाठी राजकारणी डावपेच खेळले जातात.

जात  एकत्रीकरण तळागाळातून देखील सुरू झाले आहे. त्याचा फार मोठा फायदा काॅरपोरेट जगतानं उचलला आहे.  पेपरविक्रेते,  दूधविक्रेते – उत्पादक संघटना,  कृषी उत्पन्न समित्या,  हमाल पंचायत, बाजार समिती,  बचत गट,  अंगण वाडी,  अनाथाश्रम, वसतिगृहे , पतसंस्था, बॅका सर्व ठिकाणी नोकरीच्या संधी उपलब्ध करून देताना जातीचा विचार केला जातो.  इतकेच काय व्यवसाय प्रशिक्षण देताना देखील जातीनिहाय सवलती देऊन प्रशिक्षण दिले जाते. शिक्षण संस्था देखील यामध्ये मागे नाहीत. ही जातीनिहाय  एकत्रिकरणाची साखळी जन्मदाखल्यापासून सुरू होते. विविध  संस्थेच्या संचालक पदाच्या निवडणुकीत पॅनेल मधून ही जातीयता ठळक पणे निदर्शनास येते.

मुलाला शिक्षण देतात संस्थेचा नावलौकिक पहाण्यापेक्षा संचालकांचे जातकूळ त्याची माहिती काढली जाते.  सोशल नेटवर्किंग साइट्स वरून जरी प्रवेश परीक्षा दिल्या जात  असल्या तरी प्रत्यक्षात राखीव जागेच्या कोट्यातून राजकारण खेळवले जाते.  व्यापारी संघटनांमधे हा जातीयवाद मोठ्या प्रमाणावर जाणवतो. काॅरपोरेट जगताचे लागेबांधे शेअर्स,  डिबेंचर्स , भांडवलदार यांच्याशी  इतके  घट्ट  असतात की ‘विश्वासाची माणस’ या नावाखाली जातीनिहाय एकत्रिकरण राजरोस केले जाते. विविध राजकीय पक्षांच्या पाठबळावर हे काॅरपोरेट क्षेत्र उत्तुंग भरारी घेते आहे.

एकमेकां साह्य करू, किंवा तू मला  ओवाळ आता, मी तुला  ओवाळतो या न्यायाने पैशाच्या जोरावर माणूस  आपापल्या जातीतल्या व्यक्तीना रोजगार देऊन,  व्यवसाय प्रशिक्षण देऊन सशक्त बनवित आहे. जस  छापा  आणि काटा  या नाण्याचा दोन बाजू पाहिल्या जातात तश्या ‘सिन्सियर ‘  या  छत्राखाली या जातीवली तयार केल्या जातात. हे केवळ एकत्रिकरणावर थांबत नाही तर  जातीनिहाय  एकत्रिकरण झाले की संघटीकरण सुरू होते. आणि संघटीकरण झाले की आरक्षण वाद सुरू होतो. गुणवत्ता डावलून सांभाळून घेण्याची वृत्ती  आली की जातीयवाद बोकाळतो. विविध संघटना मध्ये गटातटाचे राजकारण होते  आणि याचा फायदा सर्वाधिक काॅरपोरेट जगताला होतो आहे.

पर्सनल सेक्रेटरी पासून  ऑफिस बाॅय पर्यंत सर्व ठिकाणी हे गट तट पहायला मिळतात. नोकर्‍या मिळवून देणाऱ्या संघटनेत याची सविस्तर माहिती  उपलब्ध होते.

दोष  एकत्रिकरण किंवा संघटीकरणाचा नाही तर दोष जातीयवादी दरी निर्माण करणाऱ्या समाजकंटकांचा आहे.  काॅरपोरेट क्षेत्राचा मूळ उद्देश  एकत्रिकरण,संघटन,  उत्पादन, विकसन आणि सेवा उपलब्धी हे  असल्याने  इथे हा जातीयवाद कॅन्सर सारखा समाजमनात पसरत चालला आहे.

माणसाने माणसाकडे माणूस म्हणून पहायला शिकले हा जातीयवाद काही अंशी कमी होईल. असे मला वाटते. पण  ‘आपला’ हा शब्द माणसाला चिकटला  आणि माणूस जातीच्या रूळावरून चालायला लागला. हे रूळ समांतर रेषा बनून धावतात  आणि तिथेच काॅरपोरेट क्षेत्र विस्तृत होत जाते. जात  आणि पैसा यांच्या पारडय़ात तोलला जाणारा माणूस  या  काॅरपोरेट क्षेत्रात आपण जगतो कुणासाठी,  कशासाठी हेच विसरला  आहे काॅरपोरेट जगतात  माणूस माणसाला दुरावला आहे हेच खरे वास्तव आहे.

हे  वास्तव स्विकारायचे कि बदलायचे हे ही  आता माणसानेच ठरवायचे. ही जातीयवादाची पोकळी भरून काढण्यासाठी काय पाऊले उचलायची हे व्यक्ती निहाय.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ भारत में चीन ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भारत में चीन”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ से अलंकृत 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है कि ई-अभिव्यक्ति परिवार के आदरणीय श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी को ‘साहित्य सहोदर‘ के रजत जयंती वर्ष में व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ अलंकरण से अलंकृत किया गया। e-abhivyakti की ओर से आपको इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ 

 

☆ भारत में चीन☆

 

मेरा अनुमान है कि इन दिनो चीन के कारखानो में तरह तरह के सुंदर स्टिकर और बैनर बन बन रहे होंगे  जिन पर लिखा होगा “स्वदेशी माल खरीदें”, या फिर लिखा हो सकता है  “चीनी माल का बहिष्कार करें”. ये सारे बैनर हमारे ही व्यापारी चीन से थोक में बहुत सस्ते में खरीद कर हमारे बाजारो के जरिये हम देश भक्ति का राग अलापने वालो को जल्दी ही बेचेंगे. हमारे नेताओ और अधिकारियो की टेबलो पर चीन में बने भारतीय झंडे के साथ ही बाजू में एक सुंदर सी कलाकृति होगी जिस पर लिखा होगा “आई लव माई नेशन”,  उस कलाकृति के नीचे छोटे अक्षरो में लिखा होगा मेड इन चाइना. आजकल भारत सहित विश्व के किसी भी देश में जब चुनाव होते हैं तो  वहां की पार्टियो की जरूरत के अनुसार वहां का बाजार चीन में बनी चुनाव सामग्री से पट जाता है .दुनिया के किसी भी देश का कोई त्यौहार हो उसकी जरूरतो के मुताबिक सामग्री बना कर समय से पहले वहां के बाजारो में पहुंचा देने की कला में चीनी व्यापारी निपुण हैं. वर्ष के प्रायः दिनो को भावनात्मक रूप से किसी विशेषता से जोड़ कर उसके बाजारीकरण में भी चीन का बड़ा योगदान है.

चीन में वैश्विक बाजार की जरूरतो को समझने का अदभुत गुण है. वहां मशीनी श्रम का मूल्य नगण्य है .उद्योगो के लिये पर्याप्त बिजली है. उनकी सरकार आविष्कार के लिये अन्वेषण पर बेतहाशा खर्च कर रही है. वहां ब्रेन ड्रेन नही है. इसका कारण है वे चीनी भाषा में ही रिसर्च कर रहे हैं. वहां वैश्विक स्तर के अनुसंधान संस्थान हैं. उनके पास वैश्विक स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले अपने होनहार युवकों को देने के लिये उस स्तर के रोजगार भी हैं. इसके विपरीत भारत में देश से युवा वैज्ञानिको का विदेश पलायन एक बड़ी समस्या है. इजराइल जैसे छोटे देश में स्वयं के इन्नोवेशन हो रहे हैं किन्तु हमारे देश में हम बरसो से ब्रेन ड्रेन की समस्या से ही जूझ रहे हैं.  देश में आज  छोटे छोटे क्षेत्रो में मौलिक खोज को बढ़ावा  दिया जाना जरूरी है. वैश्विक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके भी युवाओ को देश लौटाना बेहद जरूरी है. इसके लिये देश में ही उन्हें विश्वस्तरीय सुविधायें व रिसर्च का वातावरण दिया जाना आवश्यक है. और उससे भी पहले दुनिया की नामी युनिवर्सिटीज में कोर्स पूरा करने के लिये आर्थिक मदद भी जरूरी है. वर्तमान में ज्यादातर युवा बैंको से लोन लेकर विदेशो में उच्च शिक्षा हेतु जा रहे हैं, उस कर्ज को वापस करने के लिये मजबूरी में ही उन्हें उच्च वेतन पर विदेशी कंपनियो में ही नौकरी करनी पड़ती है, फिर वे वही रच बस जाते हैं. जरूरी है कि इस दिशा में चिंतन मनन, और  निर्णय तुरन्त लिए जावें, तभी हमारे देश से ब्रेन ड्रेन रुक सकता है .

निश्चित ही विकास हमारी मंजिल है. इसके लिये  लंबे समय से हमारा देश  “वसुधैव कुटुम्बकम” के सैद्धांतिक मार्ग पर, अहिंसा और शांति पर सवार धीरे धीरे चल रहा था.  अब नेतृत्व बदला है, सैद्धांतिक टारगेट भी शनैः शनैः बदल रहा है. अब  “अहम ब्रम्हास्मि” का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है. देश के भीतर और दुनिया में भारत के इस चेंज आफ ट्रैक से खलबली है. आतंक के बमों के जबाब में अब अमन के फूल  नही दिये जा रहे. भारत के भीतर भी मजहबी किताबो की सही व्याख्या पढ़ाई जा रही है. बहुसंख्यक जो  बेचारा सा बनता जा रहा था और उससे वसूल टैक्स से जो वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति चल रही थी, उसमें बदलाव हो रहा है. ट्रांजीशन का दौर है .

इंटरनेट का ग्लोबल जमाना है. देशो की  वैश्विक संधियो के चलते  ग्लोबल बाजार  पर सरकार का नियंत्रण बचा नही है. ऐसे समय में जब हमारे घरो में विदेशी बहुयें आ रही हैं, संस्कृतियो का सम्मिलन हो रहा है. अपनी अस्मिता की रक्षा आवश्यक है. तो भले ही चीनी मोबाईल पर बातें करें किन्तु कहें यही कि आई लव माई इंडिया. क्योकि जब मैं अपने चारो ओर नजरे दौड़ाता हूं तो भले ही मुझे ढ़ेर सी मेड इन चाइना वस्तुयें दिखती हैं, पर जैसे ही मैं इससे थोड़ा सा शर्मसार होते हुये अपने दिल में झांकता हूं तो पाता हूं कि सारे इफ्स एण्ड बट्स के बाद ” फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “. तो चिंता न कीजीये बिसारिये ना राम नाम, एक दिन हम भारत में ही चीन बना लेंगें.  हम विश्व गुरू जो ठहरे. और जब वह समय आयेगा  तब मेड इन इंडिया की सारी चीजें दुनियां के हर देश में नजर आयेंगी चीन में भी, जमाना ग्लोबल जो है. तब तक चीनी मिट्टी से बने, मेड इन चाइना गणेश भगवान की मूर्ति के सम्मुख बिजली की चीनी झालर जलाकर नत मस्तक मूषक की तरह प्रार्थना कीजीये कि हे प्रभु ! सरकार को, अल्पसंख्यको को, बहुसंख्यकों को, गोरक्षको को, आतंकवादियो को, काश्मीरीयो को,  पाकिस्तानियो को, चीनियो को सबको सद्बुद्धि दो.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆ उपहार ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆

 

☆ उपहार ☆

 

नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .

उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.

जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .

अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”

यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.

इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”

यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.

कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.

वे क्या बोलते. चुप हो गए .

और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 4 – ऋतू हिरवा…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता ऋतू हिरवा….)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #4 ☆ 

 

☆ ऋतू हिरवा….☆ 

 

येता आभाळ भरून मन झराया लागते

मग आधार शोधण्या तुझा आसरा मागते..

 

येता आभाळ भरून कसे डोळे पाणावती

पावसाच्या थेंबामध्ये आयुष्यच डोकावती…

 

येता आभाळ भरून वारा वाहे पानोपानी

भेटायला येईल ती अशी हाक येई कानी…

 

येता आभाळ भरून तन मन भारावते

बरसता थेंबसरी विरहाचे गीत होते…

 

येता आभाळ भरून पाऊसही ओला झाला

तुझ्या माझ्या भेटीसाठी ऋतू हिरवा जाहला…

 

 

…..सुजित कदम

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #3 – सुहाग की चूड़ी……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुहाग की चूड़ी…… ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3  ☆

 

☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆

 

हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।

बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।

प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।

आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-

क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….

मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे,  यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?

पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!

सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।

भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?

अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई  कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #4 – सार्थक आणि लक्ष्य ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  एक बाल  कविता  “सार्थक आणि लक्ष्य”।  हिन्दी में एक कहावत है  “मूलधन से ब्याज प्रिय होता है “।  सभी दादा दादी/नाना नानी को अपने  नाती पोते सर्वप्रिय होते हैं। मैं क्या आप सभी सुश्री प्रभा जी के कथन से सहमत होंगे । 

“नातवंडे प्रत्येक आजी आजोबांना खुप प्रिय असतात, त्यांच्या बाललीला पहाणं हे एक *आनंद पर्व* असतं ,एका  लग्न समारंभात माझ्या नातवाकडे पाहून एक महिला मला म्हणाली, “तुमचा नातू गोड आहे” यावर पाच वर्षाचा माझा नातू पटकन म्हणाला होता, “सगळे नातू गोडच असतात”. याच माझ्या नातवाच्या -सार्थक  च्या मैत्रीची एक कविता….” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 4 ☆

 

 ☆ सार्थक आणि लक्ष्य ☆

एक बालकविता

 

आजकालची मुलं भलतीच दक्ष,

आमचा सार्थक आणि शेजारचा लक्ष !

 

दोघे आहेत अगदी सख्खे मित्र

सारखे काढत असतात चित्र!

 

बागेमधे भरपूर खेळतात,

वाळूमधे मस्त लोळतात !

 

सायकलवरून फेरफटका

बसतोय किती उन्हाचा चटका ?

 

घरी येताच लागते भूक

भाजी पोळी त आहे सुख !

 

शहाणी बाळं घरचंच जेवतात

तब्येत आपली नीट ठेवतात !

 

आजीला शिकवतात इंटरनेट ,

आजोबांना करतात चेकमेट !

 

बेबलेट ,कॅरम ,चेस,सापशीडी

अभ्यासात ही आहे गोडी !

 

सार्थक लक्ष ची जोडी छान

लहानवयातही मोठं भान !!

 

  • प्रभा सोनवणे (प्रभा आजी)

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #4 – शस्त्रक्रिया ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक कवि के हृदय में काव्य सृजन की प्रक्रिया को उजागर करती उनकी  कविता “शस्त्रक्रिया”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 4 ☆

? शस्त्रक्रिया ?

 

कवीच्या भावनांचा कोलाहल

हृदयातून कागदावर मांडण्यासाठी

लेखणीला बनावं लागतं शस्त्र

आणि कागदाची शुभ्र कातडी चिरून

करावी लागते शस्त्रक्रिया

 

सर्जरी करताना

डाॕक्टराला ठेवावं लागतं भान

आणि कविता करताना

कवीला जपावी लागते सर्जनशील वृत्ती

 

सर्जरी पूर्ण झाल्यावर

एका जीवाला जीवदान दिल्याचा आनंद

जेवढा डाॕक्टरला होते

तेवढाच आनंद

एका कवितेच्या सृजनाने कवीलाही होतो

 

डाॕक्टर कातड्याला टाके घालतो

आणि कवी भावनांना

एवढाच दोघांमध्ये काय तो फरक…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #4 – मस्तिष्क-दृष्टि ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  चौथी कड़ी में प्रस्तुत है “मस्तिष्क-दृष्टि”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  #-4  ☆

 

☆ मस्तिष्क-दृष्टि ☆

 

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या  है ? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि ? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति ? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता ? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता ? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight) . जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि । हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है। यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और  सफल सोच से  ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें  भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं ?  यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं  सकता।  हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही  तथ्य हमारी  व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग  हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में  कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्क-दृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन  को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले  लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं ? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है ? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है ? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं। किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है .आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं .आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं, असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी  सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्क-दृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है।

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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