हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 8 – विशाखा की नज़र से ☆ समर्पण ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना समर्पणअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 8 – विशाखा की नज़र से

☆ समर्पण ☆

 

पत्तों – सा हरा , पीला फिर भूरा

इसमें है जीवन का मर्म पूरा

 

नवकोमल , नवजीवन , नवनूतन चहुँ ओर

नवपुलकित , नवगठित , नवहर्ष सब ओर

नवसृजन , नवकर्म , नवविकास इस ओर

पत्तों सा हरा ——–

 

पककर , तपकर , स्वर्णकर तन अपना

अपनों को सब अपना अर्पण करना

पीत में परिवर्तित हो जाना

जीवनक्रम अग्रसर करना

पत्तों सा हरा ——-

 

भू से भूमि में मिल जाना

धूमिल – भूमिल हो जाना

नवजीवन की आस जगाना

यह ही है जीवन बतलाना

पत्तों सा हरा ——–

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #27 – ☆ चहा की कॉफी… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  चहा की कॉफी…   सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  आप चाय लेंगे या कॉफी ? वैसे आप है लें या कॉफी सुश्री आरुशी जी  के लिए किसी भी तथ्य पर लिखना अत्यंत सहज है।  A lot can happen over a coffee…. प्रेम, मैत्री, रूठना, मानना, वाद विवाद, आनंद, विचार और आप जो कुछ भी विचार करें सब कुछ। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #27 ☆

☆ चहा की कॉफी…  ☆

दवणे सरांच हे वाक्य किती बरोबर आहे बघा…

मनाला हुरहूर लागणाऱ्या अनेक क्षणी जिवलग व्यक्तीही जितक्या तत्परतेने धावून आल्या नसतील इतक्या तत्परतेने धावून आलेली गोष्ट म्हणजे – चहा !

तसंच जेव्हा एकाकी वाटू लागतं, आभाळ दाटून येतं, तेव्हा सोबतीला असते ती कॉफी.

मला स्वतःला दोन्ही फार आवडत नाही, असं मी म्हटलं की लोकांच्या नजरेत आश्चर्य मिश्रित कारुण्य दिसून येतं. नाही म्हणजे त्यांचं बरोबरच आहे, पण आता नाही आवडत ह्याला काय करणार…लोकांचं चहा कॉफीवरील प्रेम पाहिलं की कधी कधी खरच वाटतं की I am missing out something in life..  पण ते तात्पुरतं असतं, त्यात मला फार काही गमावल्याचं दुःख वाटत नाही.

काही ही असो, चहा असो किंवा कॉफी, नाती जोडायचं काम चोख करतात. ते म्हणताच ना a lot can happen over a coffee…. प्रेम, मैत्री, रुसवे, फुगवे, भांडण, वाद विवाद, जवळीक, आनंद, विचार आचारांची देवाण घेवाण, अभ्यास .. जे म्हणाल ते…

एका चहाच्या कपावर महाभारत लिहून होईल, इतका दम आहे ह्यात, असं म्हटलं तर अतिशयोक्ती होणार नाही. रेल्वे प्लॅटफॉर्म वर गरम चाय गरम चाय असं कोणी ओरडत गेलं की आपण योग्य ठिकाणी गाडीची वाट बघत आहोत, असा विश्वास निर्माण होतो… कोणी भेटलं की लगेच, चल चहा पियू या, ह्यात जी आपुलकी जाणावते तिला तोड नाही, मग भले तो कटिंग असू दे. उगाच त्याला अमृततुल्य म्हणत नाहीत…

एकाच कपातून कॉफी प्यायली आहे का कधी? किती रोमॅंटिक असतंय ते, हे फक्त त्या अनुभवातूनच कळू शकतं. त्यासाठी कुठल्याही ज्ञानाचा उपयोग नाही, प्रत्यक्ष त्यातून जावं लागतं, तेव्हा कुठे प्रेयसी आपली होते, आपल्या मिठीत येते… सगळे हेवे दावे, शंका कुशंका, आप पर भाव दूर करणारी कॉफी… स्ट्रॉंगच लागते… तर सगळं स्ट्रॉंग राहू शकतं…

 

© आरुशी दाते, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 23 ☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण ”इस महत्वपूर्ण  एवं सकारात्मक तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने बड़े ही सहज तरीके से अपनी बात रखी है। ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 23 ☆

 

☆ तारीफ़ सुनना : मानसिक प्रदूषण 

 

खुश होना है, तो तारीफ़ सुनिए। और बेहतर होना है तो निंदा। क्योंकि लोग आपस में नहीं,आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं…यह जीवन का कटु सत्य है। मानव का स्वभाव है…अपनी तारीफ़ सुनकर प्रसन्न रहना। यदि प्रशंसा को मीठा ज़हर कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह क्षणिक सुख व आनंद तो प्रदान करता है और अंततः हमें गहन अंधकार रूपी सागर में छोड़ तमाशा देखता है। ऐसे चाटुकार लोगों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि वे कभी आपके मित्र नहीं हो सकते, न ही वे आपकी उन्नति देख कर, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। वे मुखौटाधारी मुंह देखकर तिलक करते हैं। वास्तव में वे आस्तीन के सांप, आपके सम्मुख तो आपकी प्रशंसा के पुल बांधते हैं तथा आपके पीछे भरपूर निंदा कर सुक़ून पाते हैं। आश्चर्य होता है, यह देख कर कि वे कितनी आसानी से दूसरों को मूर्ख बना लेते हैं। ऐसे लोग निंदा रस में अवगाहन कर फूले नहीं समाते, क्योंकि उन्हें भ्रम होता है अपनी विद्वत्ता, योग्यता व कार्य- क्षमता पर…परंतु वे उस स्थिति में भूल जाते हैं कि अन्य लोग आपके गुण-दोषों से वाक़िफ हैं…आपको बखूबी समझते हैं।

सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों से दूरी बना कर रखनी चाहिए। वे घातक होते हैं, आपकी उन्नति रूपी सीढ़ी को किसी पल भी खींचने का उपक्रम कर सकते हैं, अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकते हैं, आप के पथ में अवरोधक उत्पन्न कर सकते हैं, जिसे देख कर आपका हृदय विचलित हो उठता है। इसके फल- स्वरूप आपका ध्यान इन शोहदों की कारस्तानियों की ओर स्वतः केंद्रित हो जाता है। इस मन:स्थिति में आप अपना आपा खो बैठते हैं और उन्हें सबक सिखलाने के निमित्त निम्नतर स्तर पर उतर आते हैं तथा दांवपेंच लड़ाने में इतने मशग़ूल हो जाते हैं कि आपमें लक्ष्य के प्रति उदासीनता घर कर लेती है। सो! आप प्रतिपक्ष को नीचा दिखलाने के उपाय खोजने में मग्न हो जाते हैं। परंतु सफलता प्राप्त होने के पर मिलने वाली यह खुशी अस्थायी होती है और उसके परिणाम भयंकर।

‘निंदा सुनना बेहतर क्यों व कैसे होता है’…मननीय है, विचारणीय है।वास्तव में निंदक स्वार्थी न होकर परहितकारी होता है। वह नि:स्वार्थ भाव से आपके दोषों का दिग्दर्शन कराता है, आपको गलत राह पर चलने के प्रति आग़ाह करता है। वह स्वयं से अधिक आपके हित के बारे में सोचता है,चिंतन करता है। सचमुच महान् हैं वे व्यक्ति,जो संतजनों की भांति प्राणी-मात्र को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे अपना सारा ज्ञान व दर्शन परार्थ उंडेल देते हैं।शायद इसीलिए कबीर दास जी ने निंदक के स्वभाव से प्रेरित होकर अपने निकट उसकी कुटिया बना कर रहने का सुझाव दिया है। धन्य हैं, वे महापुरुष जो उम्र भर कष्ट सहन कर दूसरों का जीवन आलोकित करते हैं। परिणामत: निंदा सुनना, प्रशंसा सुनने से बेहतर है, जिसके परिणाम शुभ हैं, मंगलमय हैं।

‘लोग आपसे नहीं, आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं’…यह कटु सत्य है,जिससे अक्सर लोग अवगत नहीं होते।मानव निपट स्वार्थी है,जिसके कारण वह प्रतिपक्षी को अधिकाधिक हानि पहुंचाने में भी संकोच नहीं करता, बल्कि सुख व आनंद प्राप्त करता है। परंतु मूर्ख इंसान उन उपलब्धियों को कृपा-प्रसाद समझ फूला नहीं समाता..सबसे बड़ा हितैषी मानता है।वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता, कि लोग आप की स्थिति, पद व ओहदे को महत्व देते हैं, सलाम करते हैं, सम्मान करते हैं। वे भूल जाते हैं कि पद-प्रतिष्ठा, ओहदा, मान-सम्मान आदि तो रिवोल्विंग चेयर  की भांति हैं, जो उसके रुख बदलते ही पेंतरा बदल लेते हैं।’ नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ अर्थात् पदमुक्त होते ही उनका वास्तविक रूप उजागर हो जाता है।वे अब दूर से नज़रें फेर लेते हैं,जैसे वे पहचानते ही नहीं। शायद वे विश्व की सबसे शानदार प्रजाति के वाशिंदे होते हैं, जो व्यर्थ में किसी को दाना नहीं डालते, न ही किसी से संपर्क रखते हैं। बदलते परिवेश में वे उसके लिए पल भर भी नष्ट करना पसंद नहीं करते।

सो! ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में ही सबका मंगल है, क्योंकि वे किसी के हितैषी हो ही नहीं सकते।प्रश्न  उठता है कि ऐसे लोगों के चंगुल से कैसे बचा जाए? सो!हमें स्वयं को आत्मकेंद्रित करना होगा। जब हम स्व में केंद्रित हो जाते हैं,तो हम किसी का चिंतन नहीं करते। उस स्थिति में हमारा सरोकार केवल उस ब्रह्म से रह जाता है,जो सृष्टि-नियंता है,अनश्वर है,निराकार है, निर्विकार है, प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है… स्व-पर,राग-द्वेष व मान-सम्मान से बहुत ऊपर है, जिसे पाने के लिए मानव को अपने अंतर्मन में झांकने की आवश्यकता है।जब मानव स्व में स्थित हो जाता है, उसे किसी दूसरे के साथ-सहयोग की दरक़ार नहीं रहती, न ही उसे किसी से कोई अपेक्षा रहती है। अंत में वह उस स्थिति में पहुंच जाता है… जहां किसी को देखने की तमन्ना ही कहां महसूस होती है?’ नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं। न हौं देखौं और को,न तुझ देखन देहुं।’ कबीर दास जी आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति को सर्वोत्तम मानते हैं, जहां पहुंच कर सब तमन्नाओं व क्षुद्र वासनाओं का स्वत: अंत हो जाता है, मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाता है। यह अनहद नाद की वह स्थिति है, जहां पहुंचने के पश्चात् मानव असीम सुख अलौकिक आनंद को प्राप्त होता है।

सो!मानव को निंदा व आलोचना सुनकर हताश- निराश नहीं होना चाहिए… यह तो आत्मोन्नति का सोपान है…आत्म-प्रक्षालन का माध्यम है।यह हमें दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा,आत्मावलोकन का मार्ग दर्शाता है, जिसके द्वारा हम साक्षात्कार कर सकते हैं। निंदकों द्वारा की गई आलोचनाएं इस संदर्भ में सार्थक दायित्व का वहन करती हैं…हमारा पथ- प्रशस्त कर निर्वाण-मोक्ष प्रदान करती हैं। दूसरी ओर हमें ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए क्योंकि सुख के साथी अक्सर दु:ख में, अर्थात् स्थिति परिवर्तन होने के साथ मुंह फेर लेते हैं और दूसरा मोहरा तलाशने में रत हो जाते हैं। इतना ही नहीं,वे आगंतुक को आपकी गतिविधियों से परिचित करवा कर, उसके विश्वास- पात्र बनने के निमित्त एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। इन विषम परिस्थितियों में हमें आलोचनाओं से विचलित होकर, अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए, बल्कि ऐसे लोगों से सचेत रहना चाहिए और भविष्य में उन की परवाह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सकारात्मक सोच के लोगों को ढूंढना अत्यंत कठिन होता है। परंतु जिसे जीवन में ऐसे मित्र मिल जाते हैं, उनका जीवन सार्थक हो जाता है, क्योंकि वे आपकी अनपस्थिति में भी ढाल बन कर आपकी सुरक्षा के निमित्त तैनात रहते हैं, सदैव आपका पक्ष लेते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 – संजीवनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “संजीवनी।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 16 ☆

 

☆ संजीवनी

 

रावण ने उत्तर दिया, “एक राक्षस है जो यह कर सकता है और वह है मेरा चाचा कालनेमि (अर्थ : काल का अर्थ है समय और नेमि का अर्थ नियम है, इसलिए कालनेमि का अर्थ हुआ काल का शासक या जो काल या समय के नियमों को बदल सकता है)

रावण स्वयं ही कालनेमि के महल की ओर गया, और पहुँचने के बाद, उसने कालनेमि से कहा, “चाचा कालनेमि, आप बहुत विशेष प्रकार के राक्षस हैं। समय के नियम आपको बांध नहीं सकते हैं। आप समय से परे जाने के लिए अपने नियम स्वयं बना सकते हैं। आप वायुमंडल की समानांतर परतों के बीच उड़ान भर सकते हैं। आप दूर स्थानों पर खुद को परिवहन कर सकते हैं । संक्षेप में, आप समय को पूर्ण रूप से नियंत्रण कर सकते है क्योंकि आपके नाम ‘कालनेमि’ का अर्थ ही है वह जो अपने लिए समय के अलग नियम बना सके? आज लंका को आपकी सहायता की आवश्यकता है। आप जानते हैं कि हमने आज तक आपको परेशान नहीं किया है, और अब हमारे और राम के बीच युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण चरण में है । लंका के लगभग सभी योद्धा मर चुके हैं, और अब केवल मेघनाथ और मैं ही जीवित हैं । मेघनाथ ने राम के भाई लक्ष्मण को मार दिया है। लेकिन उस दोषपूर्ण विभीषण और सुषेण वैद्य ने हनुमान को कुछ सुझाव दिया है जो लक्ष्मण के जीवन को बचा सकता है और वापस ला सकता है। हनुमान पहले ही सुषेण वैद्य द्वारा बतायी हुई जड़ी बूटी लेने के लिए हिमालय की ओर कूच कर चूका है। समय के नियमों को बदलने के लिए विशेष गुणों के कारण आप हनुमान से तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं। तो यह हमारा आदेश है आप सूर्योदय तक वहीं कहीं हनुमान को रोक कर रखें। आपको उसके साथ लड़ने की आवश्यकता नहीं है। आपको बस उसे कुछ समय के लिए रोकना होगा”

कालनेमि ने उत्तर दिया, “हवा के प्रवाह अर्थात हनुमान को कौन रोक सकता है? लेकिन मैं विभीषण की तरह आपको और लंका को धोखा नहीं दे सकता, मैं जाऊँगा और हनुमान को रोकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूँगा”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 21 ☆ लघुकथा – छोटा सा घर ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  की एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद लघुकथा  “छोटा सा घर ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 21 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ लघुकथा – छोटा सा घर

स्वाति जब शादी करके गई तब सब लोग किराए के मकान में रहते थे। बस हर महीने किराए की तारीख आती वहीं चर्चा उखड़ती जाने कब होगा हमारा छोटा सा घर ।मां बाबू तो कहते बेटा अब सब तुम पर ही निर्भर है हम लोगों की जिंदगी तो कट गई किराए के मकान में।

यही सब स्वाति देख रही थी मन ही मन सोच रही थी  कि मैं ही इन सबके सपने पूरा करूंगी तभी मुझे सुकून मिलेगा। स्वाति सोच रही थी लेकिन  कैसे पूरा करूं अभी मुझे यहां आए कुछ ही महीने हुए हैं। स्वाति की लिखने पढ़ने में रुचि थी। तभी घर पर राजस जी आए उनकी बाते सुनकर स्वाति को लगा इनकी साहित्य में रुचि है। लेकिन वो केवल चाय नाश्ता रखकर चली गई मन ही मन सोचने लगी इनसे बात करने का मौका लगे तो कुछ परामर्श मिल जाए। स्वाति की इच्छा जैसे पूरी होते नजर आईं वो बाबू के गांव के थे उनका ट्रांसफर हुआ था घर तलाश रहे थे उनको भी बाबू ने हमारे ही ऊपर  वाला घर दिलवा दिया। अंततोगत्वा मौका मिल ही गया। और उनकी मदद से स्वाति पत्र पत्रिकाओं में लिखने लगी। साथ ही कई संग्रह भी आ गए और तो और एक उपन्यास पर एक बड़े पुरस्कार की घोषणा हुई और उसे राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिल गया जिसमें 3 लाख की धनराशि मिली। इसके साथ ही स्वाति को प्रायमरी स्कूल में टीचिंग भी मिल गई  उसे ऐसा लगा जैसे सब एक साथ होने के लिए ही रुका था। उसने सोचा अब सभी  के मन की इच्छा पूरी करेंगे। स्वाति ने अपने पति से परामर्श किया और कुछ रकम जमा की और कुछ लोन  लेकर “छोटा सा घर” खरीद लिया। मां बाबू को जब ग्रह प्रवेश करना था तभी सरप्राइज दिया। उनकी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। स्वाति ने बताया इस मुकाम तक पहुंचने में दादा राजस  जी की अहम भूमिका है आज इनके सहयोग से ही हमने सपने बुने और आप सब के “छोटा सा घर” के सपने को पूरा किया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 10 ☆ चलो प्रकृति की ओर चलें ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण रचना  “चलो प्रकृति की ओर चलें ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 10 ☆

☆  चलो प्रकृति की ओर चलें ☆

 

चलो प्रकृति की ओर चलें ।
गाँव-गली की ओर चलें ।।
खुशियों की तस्वीर वहाँ ।
चाहत की जागीर जहाँ ।।
सुषमा खूब बटोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
हो अनुभूति जहाँ पावन।
दिव्य प्रेम का अपनापन।।
वंदन-नमन निहोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
बहती ताजी जहाँ हवा ।
सेहत की प्राकृतिक दवा ।।
बंधन तोड़-मरोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
मधुर पंछियों का कलरव ।
होते हैं रुचिकर उत्सव ।।
हर्षित भाव विभोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
सोंधी माटी की संपति।
रिद्धि-सिद्धि,पूजा पद्धति।।
शीतल सुरभि-झकोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
पर्यावरण जहाँ रक्षित।
मन ‘संतोष’ बदन पुलकित।।
अंतस् प्रेम-हिलोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।
गाँव-गली की खोर चलें ।
चलो प्रकृति की ओर चलें ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆ मी वाट…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “मी वाट…..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆

 

☆ मी वाट…..!!

 

मी वाट आहे
थांबत नाही कधी
संपत ही नाही कधी
मी वाट आहे…

 

कुणाची ही वाट
पाहत नाही कधी
अनंतापर्यंत जाणारी
मी वाट आहे…

 

काट्याकुट्यातून जाणारी
फुला मनातून जाणारी
मोक्ष मिळवून देणारी
मी वाट आहे….

 

मला वाट नाही दिली
तरी वाट करून जाणारी
स्वतःची वाट स्वतः शोधणारी
मी वाट आहे……

 

मी मुकलेल्यांना आणि
मी चुकलेल्यांना पण
वाट दाखवणारी
मी वाट आहे…

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 13 ☆ अमृत महोत्सव विशेष – वाढदिवसाची सप्तपदी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

अमृत महोत्सव विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  वाढदिवसाची सप्तपदी  जो उन्होंने  अपने इकसाठवें जन्मदिवस पर लिखी थी ।  

श्रीमती उर्मिला जी को  आज उनके 75 वें  जन्मदिवस  8-11-2019 ( अमृत महोत्सव ) पर हम सबकी ओर से  हार्दिक शुभकामनाएं। 

इस वय में भी  समय के साथ सजग रह कर सीखने की लालसा रखने वाली श्रीमती उर्मिला जी हमारी प्रेरणा स्त्रोत हैं।  वे

सदैव स्वस्थ रहें, शताधिक वर्षों तक हम सबका ऐसे ही उत्साहवर्धन करती रहें ऐसी ईश्वर से कामना है। 

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 13 ☆

 

☆ वाढदिवसाची सप्तपदी ☆

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

आयुष्यातल्या नव्या उगवत्या भास्कराच्या

प्रफुल्ल तेजाने ओजाने

प्रकाशमान होण्यासाठी !!१!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

सायंकाळचे सूर्यास्ताचे

विहंगम दृश्य पाहून मन

प्रसन्नचित्त होण्यासाठी !!२!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

चंद्रप्रकाशात पुसट होत

जाणाऱ्या गतायुष्यातील

स्मृतींना उजाळा देण्यासाठी!!३!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

पतिपत्नींमधील रुसवे फुगवे जाऊन

त्यांच्यातील अनुबंध अधिक दृढ होण्यासाठी !!४!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

मित्रमैत्रिणींच्या मेळाव्यात

अन् स्नेहीजनांच्या समुदायात

स्वत:ला अगदी हरवून जाण्यासाठी !!५!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

निरांजनातील वातीप्रमाणे

स्वजनांसाठी व सर्वांसाठी

शांत वृत्तीने तेवत रहाण्यासाठी !!६!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

चैतन्य चक्रवर्ती परमेश्र्वराच्या कृपेने

बोनस आयुष्य लाभले म्हणून

त्याचे ऋणाईत होण्यासाठी !

ऋणाईत होण्यासाठी !!

ऋणाईत होण्यासाठी !!!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक: 8-11-2019

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆ झूठी आधुनिकता ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही सत्य के धरातल पर लिखी गई लघुकथा “झूठी आधुनिकता”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆

☆ लघुकथा – झूठी आधुनिकता ☆ 

गणपति पूजा का अंतिम दिन। गणपति विसर्जन की धूमधाम थी, शॉर्ट्स, टी शर्ट और हाई हील सेंडिल में वह ढ़ोल की ताल पर थिरक रही थी। पास ही उसकी बड़ी बहन भी थी, जो एअर होस्टेज है। दोनों बहनें गणपति उत्सव के लिए छुट्टी लेकर घर आई हैं। वेशभूषा से दोनों  आधुनिक लग रही थीं। लड़कियों के आधुनिक पहनावे को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं का विकास हो रहा है? समाज में कुछ बदलाव आ रहा है?

ढ़ोल तासे की आवाज थोड़ी कम होने पर पड़ोस की एक महिला ने पूछा- “मिनी! कब आई तुम लंदन से?”

“आज ही आई हूँ आँटी।“

“अच्छा गणपति विसर्जन के लिए आई होगी? गणपति बैठाले (स्थापना) हैं ना?”

“अरे नहीं आंटी। हम दो बहनें ही हैं, भाई तो है नहीं, इसलिए हम घर पर गणपति स्थापना नहीं करते। मॉम मना करती हैं ………………।”

नकली आधुनिकता की चादर सर्र………… से सरक गई। वास्तविकता उघड़ी पड़ी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ संभालिये अपना …… ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “संभालिये अपना …… ”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  हमें आतंक और आतंकियों के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करता है। साथ ही यह भी कि आतंक के प्रतीक के अंत की कहानी क्या होती है और यह भी कि आतंक कभी मरता क्यों नहीं है ? श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेबाक  व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ 

☆ संभालिये अपना …… ☆

ब्रेकिंग न्यूज़ में घोषणा हुई कि आतंकी सरगना मारा गया, दुनियां भर में इस खबर को बड़ी उत्सुकता से  सुना गया. सरगना आतंक का पोषक था. पहले भी उसे मारने के कई प्रयास हुये. हर बार उसे मारने की गर्वोक्ति भरी घोषणायें भी की गईं, किन्तु वे घोषणायें गलत निकलीं. सरगना  फिर से किसी वीडीयो क्लिप के साथ अपने जिंदा होने के सबूत दुनिया को देता रहा है, पर इस बार डी एन ए मैच कर पुख्ता सबूत के साथ उसके मौत की घोषणा की गई है, तो लगता है कि सचमुच ही सरगना मारा गया है. सरगना की मौत की पुष्टि के लिये डी एन ए मैच करने के लिये उसका अंतरवस्त्र चुरा लिया गया था. इस घटना से दो यह  स्पष्ट संदेश मिलते हैं पहला तो यह कि सबको अपना अंतरवस्त्र संभाल कर ही रखना चाहिये. और दूसरा यह कि घर का भेदी लंका ढ़ाये यह तथ्य राम के युग से लेकर आज तक प्रासंगिक एवं शाश्वत सत्य है. विभीषण की मदद से ही राम ने रावण पर विजय पाई थी. सरगना के विश्वसनीय ने ही उसका अंतरवस्त्र अमेरिकन एजेंसियो को सौंपा और मुखबिरी कर उसे कुत्ते से घेर, कुत्ते की मौत मरने के लिये मजबूर कर दिया.

यूं यह भी शाश्वत सत्य है कि आतंक का अंत तय है देर सबेर हो सकती है. बड़े समारोह के साथ रावण वध तो हर बरस किया  जाता है, पर फिर भी रावणी वृत्ति जिंदा बनी रहती है. यही कारण है कि कितने भी आतंकी सरगना मार लें पर आतंक जिंदा है. जरूरत है कि जिहाद की सही व्याख्या हो, इस्लाम तो सुकून, तहजीब और मोहब्बत का मजहब है, उसकी पहचान आतंक के रूप में न बने इस दिशा में काम हों.

यूं आतंकी सरगना के बार बार मारे जाने की खबरो और रावण के हर बरस मरने या यूं कहें कि राक्षसी वृत्ति के अमरत्व को लेकर दार्शनिक चिंतन किया तो लगा कि ये भले ही बार बार मर रहे हों पर हममें से ना जाने कितने ऐसे हैं जो हर दिन बार बार मरने को मजबूर हैं, कभी मन मारकर, कभी थक हारकर. कभी मजबूरी में तो कभी समझौते के लिये आत्मा को मारकर लोग जिंदा हैं. कोई किसान कर्ज के बोझ तले फसल सूख जाने, या बाढ़ आ जाने पर हिम्मत हारकर फांसी पर लटक जाता है तो कोई प्रेमी प्रेयसी की बेवफाई पर पुल से नदी की गहरी धारा में कूद कर आत्म हत्या कर लेता है. कोई गरीब बैंक या फाईनेंस कम्पनी के डूब जाने पर खुद को लुटा हुआ मानकर जीवन से निराश हो जाता है. दुर्घटना में मरने पर सरकारें सहायता घोषित करती हैं, जाने वाला तो चला जाता है पर वारिसो का भविष्य संवर जाता है, परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी मिल जाती है, मौत का मुआवजा मिल जाता है, गरीबी रेखा के बहुत नीचे से परिवार अचानक उछल कर पक्के मकान तक पहुंच जाता हैं.

वैसे सच तो यह है कि जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, अपनी थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे. बड़ी बड़ी डील में केवल कागजी मुद्राओ का ही खेल नही होता, हसीनाओ की मोहक अदाओ और मादक नृत्य मुद्राओ का भी रोल होता है. सुरा और सुंदरी राजनीति व व्यापार में हावी होती ही हैं इसलिये डी एन ए से पहचान और अदृश्य कैमरो से बन रही फिल्मो के इस जमाने में अपना यही आग्रह है कि  अपना अंतरवस्त्र संभालिये वरना आपको कई कई तरह से कई कई बार मरना पड़ेगा.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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