मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #7 – देऊळ.…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सातवीं कड़ी देऊळ…. । आज के इस आध्यात्मिक विषय पर कदाचित गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे प्रभु की मूरत वैसी ही दिखाई देती है। किन्तु ,उस मूरत से अपने आप को कैसे जोड़ना है वह आपको तय करना है।सुश्री आरूशी जी का यह आलेख ईश्वर के सम्मुख अपनी भावनाओं को परत दर परत खोलता जाता है। इस शृंखला की  कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी  – #7  ? 

☆ देऊळ….   ☆

 

पवित्रता, श्रद्धा, भक्ती ह्यांचा निवास… परमेश्वरापुढे नतमस्तक होऊन, मीपणा दूर ठेवून, आपल्या मनातील भावना त्याला सांगण्याचे ठिकाण… आपले दुःख दूर व्हावे म्हणून त्याला साकडे घालायचे असेल तर इथेच येतो आपण…

प्रत्येकाच्या आयुष्यात एखादे तरी देऊळ असते जिथे त्या व्यक्तीला खूप शांत, आनंदी, समाधानी वाटते… त्या जागी पोचताच क्षणी एकदम हलकं वाटतं…

काही जण रोज देवळात जातात, काही जण मनात आलं की जातात, तर काही जण देवळात जायचं म्हटलं की नाक मुरडतात… काही जण नेम म्हणून जातात, तर काही जण नवस फेडायला जातात… प्रत्येकाचा देव वेगळा, तसं प्रत्येकाचं देऊळ वेगळं… पण सरते शेवटी देवळात गेल्यावर शरणागती हाच एक भाव उरतो… त्याचा दिखावा करायची गरज नसते, तिथे फक्त तो आणि आपण असतो… एका दैवी पातळीवर संवाद घडतो, त्यात कोणाची ढवळा ढवळ नसते…

घरी दररोज पूजा केली तरी देवळात गेल्यावर जे हाती लागतं, ते शब्द बद्ध करणं मुश्किल आहे… ज्याला त्याला आयुष्य सुखकर करतांना आधार देण्याचं, धीर देण्याचं काम बऱ्याचवेळा देऊळ करतं… हे झालं बाह्य रुपी मंदिराबद्दल.. पण कधी अंतस्थ मंदिराबद्दल विचार केला आहे?

मीपण हल्ली हल्लीच असा विचार करू लागले आहे… म्हणजे तशा भावना जागृत व्हायला लागल्या आहेत… म्हणजे नेमकं काय हे सांगू शकत नाही, पण बऱ्याच वेळा बसल्या जागी त्याला शरण जाते आणि त्याच्याशी गप्पा मारते, मन मोकळेपणाने… शरीर रुपी मंदिरात तो कधी मित्र म्हणून असतो, कधी पिता म्हणून, कधी आई, कधी मोठा भाऊ, कधी जोडीदार बनून समोर येतो… सर्व भाव भावनांना त्याच्या पर्यंत पोचवताना, आपला भार आपण त्याच्यावर टाकून मोकळे होतो… सहजच अगदी…

तो हृदयस्थ असतो, फक्त त्याला ओळखायची गरज असते… जन्म, मृत्यू ह्याच्या पलीकडे जाताना तोच तर नेहमी बरोबर असतो, हो ना !

 

© आरुशी दाते

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 – छोले चावल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “छोले चावल”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 ☆

☆ छोले चावल ☆

 

सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है । हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 मे था, अमर कॉलोनी में । हमारे अध्यन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150 – 200 मीटर दूर था । हमारे केंद्र मे सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे । हमारा अध्यन केंद्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे ।

मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे क्योकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलो की कोई कमी ना थी । जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उस ही मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था । उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी । राजेंद्र की चाय औसत ही थी इस लिए कभी कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।

धीरे धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी । उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था । राजेंद्र की दुकान पर सब ही तरह के लोग आते थे कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी । मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे । हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे । अचानक एक दिन जब मैं अपने केंद्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं और की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हटा कट्ठा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था । शाम को जब मैं अपने अध्ययन केंद्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर  सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे ?’

मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी  है’ उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था । धीरे धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया । चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था वह बहुत ही जिन्दा दिल लड़का था बड़ा हंसमुख सब को खुश रखने वाला । धीरे धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था । 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे ।

क्योंकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था । कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है ? पर वो हर बार टाल जाता था । एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए मैने खा लिए । छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे ।

उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे । पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था मैं समझ गया की ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था । मैं कुछ बोलने वाला ही था कि  राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया । चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया । पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे । चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।

रस : करुण

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #2 ☆ औरत की ज़िन्दगी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “औरत की ज़िन्दगी ”। 

 

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #2 ☆

 

☆ औरत की ज़िन्दगी ☆

 

औरत की ज़िन्दगी

कोल्हू के बैल की मानिंद

खूंटे से बंधी गुज़रती

उसके चारों ओर

चक्कर लगाती

वह युवा से

वृद्ध हो जाती

 

बच्चों की

किलकारियों से

घर-आंगन गूंजता

परन्तु वह सबके बीच

अजनबी-सम रहती

और उसके रुख्सत

हो जाने के पश्चात्

एकसूत्रता की डोर टूट जाती

 

घर मरघट-सम भासता

जहां उल्लू

और चमगादड़ मंडराते

वहां बिल्ली,कुत्तों

व अबाबीलों के

रोने की आवाज़ें

मन को उद्वेलित कर

सवालों और संशयों के

घेरे में खड़ा कर जातीं

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दुसरा #2 – ?? पर्यावरण नाते. ….!  ?? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज संस्कृतिसाहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प दुसरा – पर्यावरण नाते  ….!” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प दुसरा #-2 ☆

 

?? पर्यावरण नाते. ….!  ??

 

व्यक्ती  आणि निसर्गाचे, नाते कळी नी फुलांचे .

कधी होई पारिजात,  कधी पुष्प बकुळीचे . . . !

 

एका एका बिजापोटी, कुणी सर्वस्व वाहते.

कळी मरता मरता,  तिथे फूल जन्मा येते.

 

अन्न, वस्त्र, निवार्‍याचा , निसर्गाने दिला हात.

दान द्यावे, दान घ्यावे, रूजविले अंतरात. . . . !

 

जीवनाच्या वावरात,  सुखदुःख रेलचेल.

होई मौसमी वार्‍याने, उरामध्ये घालमेल. . . . !

 

रंग ढंग जीवनाचे, दुःख, दैन्य सहायचे.

मातीतून जन्मायाचे,मातीमध्ये मरायचे. . . . !

 

व्यक्ती आणि निसर्गाची, वाट चुकलेली वारी

जीवनाच्या फांदीसवे, घेती आकाश भरारी. . . . !

 

कधी वास्तवाचे जग, कधी नभ कल्पनेचे.

होई काळीज कागद, सूत जुळता दोघांचे. . . !

 

पाणी अडवा, जिरवा, झाडे लावा नी जगवा

समतोल सांभाळाया,नाते नाजूक फुलवा. . . . !

 

आसवांची झाली शाई, होता नात्यांची पेरण .

वसुंधरेच्या भाळाला,भावफुलांचे तोरण. . . !

 

कळी काय, फूल काय,एकमेकां जपायचे

पर्यावरणीय मेळ,सांधताना फुलायचे. . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆ प्रतिबिंब ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  समाज को आईना दिखाती हृदयस्पर्शी लघुकथा “प्रतिबिंब ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को हिंदीभाषा डॉट कॉम द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही आलेख वर्ग में दिल्ली के डॉ शशि सिंघल  जी एवं कविता वर्ग में मुंबई की नताशा गिरी जी को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारे सम्माननीय लेखक श्री ओमप्रकाश जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ प्रतिबिंब ☆

चाय का कप हाथ में देते हुए सास ने कहा, “ ब्याणजी ! बुरा मत मानना. आप से एक बात कहनी थी.”

“कहिए!”

“आप की लड़की को एक बात समझा दीजिएगा. यह सुबह जल्दी उठा करे. ताकि सुबह आठ बजे जब इस का पति ऑफिस जाए तब अपने साथ घर के बने खाने का टिफिन भी लेता जाए.” सास ने अपनी व्यथा ब्याणजी से कहीं.

“यह तो इसे समझना चाहिए.” ब्याणजी ने अपनी बेटी की ओर देख कर कहा, “पति की सेवा करना, उस का ध्यान रखना, इस का फर्ज है.”

बेटी को मां से ऐसी आशा नहीं थी. उस की भौंहे तन गई. माँ हो कर उस की बुराई करें. यह वह कैसे बरदाश्त कर सकती थी. इसलिए वह तुनक गई.

“माँ ! आप को शर्म नहीं आती. मेरी बुराई करती हो”  वह बिफरते हुए्र बोली, “यदि आप ने मुझे यह लक्षण सिखाये होते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ते. आखिर मैं आप का ही तो प्रतिबिंब हूं.”

बेटी के मुंह से यह बात सुन कर माँ सन्न रह गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य #2 – प्रेम रेष …. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता   प्रेम रेष …. )

 

☆ सुजित साहित्य #2 ☆ 

 

☆ प्रेम रेष …. ☆ 

 

उधाणलेला सागर

मन येतं शहारून

तुझ्या प्रेमात ग सखे

कसं जातं मोहरून

 

खळाळत येती लाटा

फुटतात विरतात

शंख शिंपले किनारी

आठवण ठेवतात

 

वाट पाहून थकतो

निघतो मी परतीला

लाटा रेगांळत राही

आठवांच्या सोबतीला

 

पुसती पाऊल खूणा

दिसे फक्त ओली रेघ

कितीही पुसली तरी

उमटते प्रेम रेष..!!

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #1 रात का चौकीदार ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(मैं अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का हृदय से आभारी हूँ,  जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ” के लिए मेरे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक बुधवार को डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “रात का चौकीदार”।)

 

डॉ.  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

विधा : गीत, नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि

प्रकाशन :                    

  • प्यासो पघनट (निमाड़ी काव्य संग्रह- 1980), आरोह-अवरोह (हिंदी गीत काव्य संग्रह – 2011), अक्षर दीप जलाएं (बाल कविता संग्रह- 2012), साझा गीत अष्टक-10, गीत-भोपाल (2013),
  • संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर साहित्य परामर्शक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी तथा लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, भोपाल एवं जबलपुर की अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।

विशेष : महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा “रात का चौकीदार” सम्मिलित।

सम्मान :

  • विभागीय राजभाषा गौरव सम्मान 2003, प्रज्ञा रत्न सम्मान 2010, सरस्वती प्रभा सम्मान 2011, पद्यकृति पवैया सम्मान 2012, शब्द प्रवाह सम्मान, कादम्बिनी साहित्य सम्मान भोपाल, लघुकथा यश अर्चन सम्मान, साहित्य प्रभाकर सम्मान, निमाड़ी लोकसाहित्य सम्मान- महेश्वर, साहित्य भूषण, विद्यावाचस्पति, वर्तिका राष्ट्रीय साहित्य शिरोमणि सम्मान, साहित्य संगम मार्गदर्शक सम्मान 2018- इंदौर, दोहा रत्न अलंकरण 2018- जबलपुर सहित अन्य विविध सम्मान

संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवानिवृत

 

☆  तन्मय साहित्य – #1 ☆

☆ रात का चौकीदार ☆

(यह लघुकथा महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।)

दिसंबर जनवरी की हाड़ कंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस भरी रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकीदार नाम का यह गिरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोंकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए कॉलोनी में रातभर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है. हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है. साबजी, पैसे?

कितने पैसे, वह पूछता है उससे?

साबजी- एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए. आपको तो मालूम ही है.

अच्छा एक बात बताओ बहादुर- कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं तुम्हें महीने में?

साबजी- यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से कभी पचास से. तीज त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है. इतने में ठीक-ठाक गुजारा हो जाता है हमारा.

पर कॉलोनी में तो सौ सवा सौ से अधिक घर हैं फिर इतने कम क्यों?

साबजी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते है। हमें जरूरत नहीं है तुम्हारी.

तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि नहीं? उसने पूछा

हां साबजी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है. भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी की घटना हो जाय तो पुलिस तो फिर भी हमसे ही पूछेगी ना. और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि पैसे नहीं देते, इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी. ऐसा पहले मेरे साथ हो चुका है साबजी.

अच्छा ये बताओ रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता?

डर क्यों नहीं लगता साबजी, दुनिया में जितने जिन्दे जीव हैं सबको किसी न किसी से डर लगता है. बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं. कई बार नशे-पत्ते वाले और गुंडे बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है. शरीफ दिखने वाले लोगों से झिड़कियां, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है.

अच्छा बहादुर सोते कब हो तुम? फिर प्रश्न करता वह.

साबजी, रोज सुबह आठ-नौ बजे एक बार और कॉलोनी में चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूं कि, सबकुछ ठीक है ना, फिर कल की नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूं. अच्छा साबजी, अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं.

अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नहीं देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है. तो अब से मेरे घर की चौकसी भी तुम्हें बिना पैसे के करना होगी, समझे?

जैसी आपकी इच्छा साबजी, और चौकीदार अगले घर की ओर बढ़ गया.

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #2 – मी मराठी कवितेला काय दिले ? ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(प्रत्येक  भाषा का अपना एक समृद्ध साहित्य होता है।  मेरी दृष्टि में एक कवि के लिए सभी भाषाएँ समान होती हैं। कवि  का किसी  भी भाषा में  समर्पित भाव से  कविता को उसका क्या योगदान है, यह महत्वपूर्ण है।  संभव है मेरे विचारों  से  सब सहमत न हों। किन्तु, यह प्रश्न अपनी जगह स्वाभाविक है कि कवि का उसकी  अपनी मातृभाषा में  कविता को क्या  योगदान  है ? संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी  की  प्रतिष्ठित साहित्य  सृजन यात्रा में ऐसे कई पड़ाव आए होंगे। आज प्रस्तुत है उनके साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  “मी मराठी कवितेला काय दिले ? (मैंने मराठी कविता को क्या दिया?)” पर  उनकी  बेबाक राय।  आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 2 ☆

 

 ☆ मी मराठी कवितेला काय दिले ? ☆

 

खुप चांगला प्रश्न  आहे  स्वतःच स्वतःला  विचारलेला !

आणि  उत्तर ही प्रांजळ पणे देण्याचा प्रयत्न–

कविता  मी वयाच्या तेरा-चौदाव्या वर्षा पासून लिहितेय !

आठवीत असताना वर्गाच्या हस्तलिखितासाठी एक कथा  आणि कविता लिहिली त्या वेळी असं मुळीच  वाटलं नाही भविष्यात  आपला हात इतका काळ लिहिता राहील !

सासरी माहेरी अजिबात च पोषक वातावरण नसताना कविता टिकून राहिली!

कुठल्याही काव्य  मंडळात जायच्या  आधी मला छापील प्रसिद्धी भरपूर मिळाली होती,सुरूवातीला  मी हिंदी कविता लिहिल्या त्या रेडिओ पत्रिकांमधून प्रकाशित झाल्या!

मी एका बाबतीत  खुप  भाग्यवान  आहे की,माझ्या  हिंदी मराठी कवितांना खुप प्रशंसा पत्रे आली  आहेत! लोकप्रभा मधे प्रसिद्ध झालेल्या कवितेला महाराष्ट्रातल्या कुठून कुठून सुमारे 40 पत्रे आली होती. त्याआधी रेडिओ पत्रिकेत ल्याही हिंदी कविताना  नेपाळ, झुमरीतलैय्या वगैरे ठिकाणाहून पत्रे आली होती!

प्रामाणिक पणे सांगायचं तर मी आत्मलुब्ध व्यक्ती नाही! पण मला खुप प्रशंसा मिळालेली आहे, गजल चा तर मी फार खोलात जाऊन अभ्यास ही केलेला नाही पण गजल नवाज भिमराव पांचाळें च्या संमेलनात ही प्रशंसा मिळाली ! भिमरावांनी सकाळ  आणि पुण्य नगरी मधल्या सदरात ही माझ्या गजला निवडल्या आणि  त्या वाहवा मिळवून गेल्या!

ज्या काळात क्वालिटी जपणारे संपादक होते  त्याकाळात माझ्या कविता मनोरा, स्री, मिळून सा-याजणी, विपुलश्री इ इ मधे प्रकाशित झाल्या आहेत! “फेवरिझम” चा फायदा मी कधीच घेतला नाही! माझ्या कवितेत काही बदल कवी रवींद्र भट यांनी सुचवले होते, तेव्हा मी त्यांना म्हटलं होतं, “मग ती माझी कविता रहाणार नाही तुमची होईल !” मोडकी तोडकी कशी ही असो माझी ती माझी ! त्या वेळी  मी परिषदेचा “उमलते अंकुर” कार्यक्रम नाकारला होता !

मी मराठी कवितेला काय देणार? ती मुळातच खुप संपन्न  आहे! पण मराठी कवितेने  “स्रीवादी कवयित्री” म्हणून खसखशी एवढी का होईना माझी नोंद घेतली आहे  !

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #2 – हिंदी आणि मराठीतली मिश्र रचना.. ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है  कविता में  – हिन्दी एवं मराठी  मिश्रित रचना  का  एक नया प्रयोग ।”हिन्दी आणि मराठीतली मिश्र रचना…”। )

 

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 2 ☆

 

☆ हिंदी आणि मराठीतली मिश्र रचना.. ☆ 

 

अभी बज गये रात के बारा

आल्या रिमझिम पाऊस धारा

 

चमकी बिजली खूब नजारा

मिठीचाच या तिला सहारा

 

समझ में आया उसे माजरा

अंगावरती तिच्या शहारा

 

कहां मिलेंगे फिर दोबारा

गाली होता भाव लाजरा

 

गगन के पिछे छुपा सवेरा

पदरा मागे जसा चेहरा

 

समझ न आया हमें दायरा

जागोजागी सक्त पहारा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #2 पाहुना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक लघुकथा  “पाहुना”। लघुकथा पढ़ कर सहज ही लगता है कि यह  कथा/घटना  कहीं हमारे आस पास की ही है। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 2 ☆

 

☆ पाहुना ☆

 

गाँव में जब कोई अतिथि आ जाता था उसे सभी पाहुना कहते थे। वर्तमान में पाहुना से अतिथि, मेहमान, और अब गेस्ट का नाम प्रचालित हो गया है। ऐसे ही छोटा सा गांव जहा एक वकील बाबू रहते थे, गांव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे। लोग उनकी काफी इज्जत करते थे। कभी कोई परेशानी हो सभी उन्ही के पास जा बैठते थे। घर भी उनका बड़ा, बाहर दालान और फिर बड़े बड़े पत्थरों के चबूतरे जिनमे कोई ना कोई बैठा ही रहता था। उनका रूतबा भी बड़ा था। शरीर भी उनका गठा बदन, काली घनी मूंछ, बड़ी बड़ी आँखे और लंबाई भी सामान्य से अधिक। जब अपने पहनावे  काले कोट में निकलते थे तो सब दूर से ही हाथ जोड़ लेते थे। पर कहते हैं कहीं ना कहीं सब किसी ना किसी कारण से दुखी रहते हैं।

पांच बच्चों के पिता थे। धर्मपत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी। छोटे छोटे बच्चों का लालन पालन उनकी सासू माँ के द्वारा हो रहा था। जो अपनी बेटी के पास रहती थी क्यूँकि बेटी के अलावा कोई और नहीं था। पति को गुजरे एक दशक हो गया था। बूढ़ी सासू माँ अपने तरीके से बच्चों की निगरानी करती थी। दो बड़े बेटे कुछ समझदार होने लगे थे। अचानक ही वकील साहब की पत्नी का देहांत हो गया। सभी परेशान हो गए।

समझ नहीं आया पर कब तक घर बैठते। काम काज के सिलसिले में उनको बनारस जाना पड़ा। वहा उनकी जान पहचान फूल वाली से हो गयी जो निहायत ही सुंदर और नवयौवना थी। लगातार आने जाने के कारण उनमे घनिष्ठता बढ़ गयी। एक दिन वो कानून उसे पत्नी बना घर ले आए और सामने वाले दूसरे घर में रहने दिया।

सभी पूछते कि ये कौन है? उनका उत्तर होता – ” पाहुना आई है कुछ दिनो के लिए”। बूढ़ी माँ को सब समझ में आ गया। बच्चों में उसने जहर का बीज बो दिया। कभी भी वो उसके पास नहीं गए। पिताजी कहते थे कि इन्हे अपनी माँ की तरह मानो। पर बच्चों ने कभी स्वीकार नहीं किया। पाहुना के भी तीन संतान, दो बेटी और एक बेटा हुआ। परन्तु कभी कोई आपस में नहीं मिले। आमने सामने रहने के बाद भी भाई बहन एक दूसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करते थे।

धीरे धीरे समय सरकता गया सभी कामों मे निपुण पाहुना अपनी गृहस्थी संभाल रही थी परन्तु बच्चों का तिरस्कार उसको सहन नहीं हो पा रहा था। हमेशा वकील बाबू से कहती कि कुछ ऐसा हो जाए कि हमारे बच्चों को मैं एक साथ रहते देख सकूँ। उसके मन में सभी बच्चों के लिए एक सी भावना थी। बस बच्चों का दिल जीतना चाहती थी।

सासू माँ का देहांत हो गया परंतु हालत वैसे का वैसा ही रहा। धीरे धीरे तिरस्कार उसके मन में बीमारी का गांठ बनाने लगी और वह असमय ही बिस्तर पकड़ ली। उसकी अपनी बड़ी बिटिया सारा काम करके हमेशा माँ को समझाती परंतु वह दिन रात रोती ही रहती। वकील बाबू को बच्चों को पास लाने की जिद करती रहती। परंतु नव जवान होते बच्चे अपने दूसरी माँ को देखना भी पसंद नहीं करते थे।

एक दिन पाहुना का अंतिम समय आ गया। सभी बच्चों को बुला कर वकील साहब ने कहा कि बेटे पाहुना के जाने का दिन आ गया है, वो अब जा रही है सदा के लिए। तुम सब एक बार उनसे मिल लो। बस फिर क्या था सबने यही कहा – पिताजी पाहुना को जाने नहीं देना आप अकेले हो जाएंगे। माँ आपको छोड़ कर पहले ही चली गई है आप पाहुना को जाने नहीं देना। इतना सुनना था कि वकील बाबू का मुंह खुला का खुला ही रह गया। उनको समझते देर ना लगी कि सब पाहुना से उतना ही प्यार करते थे सिर्फ जताते नहीं थे। परंतु बहुत देर हो चुकी थी। सभी बच्चे खड़े अपनी माँ के अंतिम क्षण में व्याकुल थे। परंतु पाहुना अपनी जीत पर मुस्कुराते हुए आज बहुत खुश हो रही थी और मुस्कुराते हुए ही उसने अपनी आंख बंद कर ली।

सदा सदा के लिए पाहुना उस घर से जा चुकी थी। सभी ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। आज पाहुना बहुत खुश थी क्यूँकि उसे उसका अपना घर मिल गया था जिस घर में वो पाहुना(मेहमान) आई थी। आज सब कुछ उसका अपना था। अब वो पाहुना नहीं थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares
image_print