हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना या अनुरागी चित्त की। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 207 ☆ या अनुरागी चित्त की

भटकता हुआ मन कैसे, कब, कहाँ, किस ओर आकर्षित हो जाए ये कहा नहीं जा सकता। आँधी- तूफान की तरह विचारों का आना- जाना, सही गलत का भेद भुलाकर बस अपने लाभ की चिंता में सारा जीवन बिता देना। अंत समय में लेखा- जोखा की फाइल देखने पर सब कुछ शून्य बटे सन्नटा।

ऐसी स्थिति सभी की होती है, जीवन के हर पहलू को ध्यान से देखें तो समझ में आता है बिना मतलब इधर से उधर चहलकदमी करते हुए वक्त बिता दिया है। सारे परिणाम अपने अनुकूल कभी नहीं रहे, मजे की बात तो ये है कि जो कुछ मिला उसमें असंतुष्टि रही। भावना और संभावना के खेल में उलझते हुए कब समय बीत गया ये पता ही नहीं चला। पसंद और नापसंद के साथ जिसे रहना आ गया समझो वो विजेता की तरह लक्ष्य को साध ले जाएगा। क्या आपने महसूस किया कि परिणाम कभी आशानुरूप नहीं होते हैं, जब ऐसा लगता है कि बस मंजिल चार कदम की दूरी पर है तो अचानक से उम्मीद टूट जाती है। जो है जैसा है उसे बदलने से कहीं ज्यादा अच्छा ये होगा कि हम स्वयं के दृष्टिकोण को बदले, हर पल कुछ नया सीखते हुए समय का सदुपयोग करें। सकारात्मक चिंतन से सब कुछ संभव है।

जो लोग निरंतर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं उन्हें देर- सबेर सही पर योग्यता से अधिक मिल जाता है इसीलिए सपनों का पीछा करते रहिए, अपने आपको उपयोगी बनाइए तभी सफलता मिलने पर आपको सच्चा आनन्द आएगा और शिखर पर लंबे समय तक टिक पायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 294 ☆ आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 294 ☆

? आलेख – व्यंग्य शैली या विधा ? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुझे गर्व है कि मैने व्यंग्य को शैली से विधा बनते हुए देखा है. हरिशंकर परसाई को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने साहित्य में कबीर के समय से अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय विधा पर इतना गद्य रचा कि साहित्य जगत को व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करना पड़ा. मैं अपने स्कूली जीवन से वह सब निरंतर पढ़ता रहा, और इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया तथा व्यंग्य लेखन करने लगा.

व्यंग्य को समाज सुधार का अचूक अस्त्र बताते हुए कहा जाता है कि ‘‘व्यंग्य साहित्यिक अजायब घर में लुप्त डॉयनासोर या टैरोडैक्टायल की पीली पुरानी हड्डियों का ढांचा नहीं बल्कि एक जीवंत विधा है जिसे बीसवीं सदी के साहित्य में अहम् भूमिका अदा करनी है. ’’ इसी संदर्भ में वक्रोक्ति संप्रदाय के आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए ‘‘वक्रोक्ति जीवितम्’’ ग्रंथ का प्रणयन किया. आचार्य ने वक्रोक्ति को ‘‘वैदग्ध्य भंगी भणिति’’ अर्थात् कवि कर्म-कौशल से उत्पन्न वैचिर्त्यपूर्ण कथन के रूप में स्वीकार किया है, अर्थात् जो काव्य तत्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न करे उसका नाम वक्रोक्ति है. सीधे-सीधे जहां पर वक्ता कुछ कहे और श्रोता लक्षित संदर्भ बिना कहे ही समझ ले, वह वक्रोक्ति होती है. वक्रोक्ति के मुख्य दो प्रकार हैं, प्रथम श्लेष वक्रोक्ति, दूसरी काकु वक्रोक्ति. श्लेष वक्रोक्ति में शब्द प्रवंचना है और काकु में कण्ठ प्रवंचना. इन्हीं तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें समाज में व्याप्त विसंगतियों, कमजोरियों, कथनी-करनी के अंतर एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वास व कुरीतियों को कुरेद कर व्यंग्यकार उजागर करता है, तथा इसके लिए जिम्मेवार व्यक्ति का साहसपूर्वक विरोध करता है. सामाजिक संरचना के विकास में निरंतर अवरोधक तत्त्वों का पर्दा गिराता है. वर्तमान संदर्भ व परिस्थितियों में साहित्य में व्यंग्य की नितांत आवश्यकता और बुद्धि चातुर्य व भाषा कौशल के साथ व्यंग्य के  अनुप्रयोग की सार्थकता ही स्वयमेव व्यंग्य शास्त्र है, और जब व्यंग्य का शास्त्र है तो स्पष्ट है कि व्यंग्य शैली नहीं विधा है. आज भी व्यंग्य को शैली कहने की भूल इसलिए की जाती है क्योंकि व्यंग्य विधा इतनी सहज है कि उसके प्रयोग किसी भी विधा के भीतर छोटे छोटे टुकड़ों में रचनाकार करते हैं, जिससे कहानी, लेख, कविता, लघु कथाएं इत्यादि जिसमे भी व्यंग्य का अनुप्रयोग अंतर्निहित हो, वह रचना जीवंत बन जाती है.

अस्तु, व्यंग्य मात्र शैली नहीं एक सुस्थापित प्रभावी पूर्ण विधा है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नाखून…  ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता नाखून… ।)  

☆ कविता ☆ नाखून… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

नुकीले नाखूनों की कथा निराली,

अपनाया नाखून को अपनी खातिर,

स्वार्थी बना इन्सान…

ईश्वर ने इसे बनाया जीवों की पहचान,

यह बना मतलबी दुनिया का हिस्सा,

कभी राजनीति तो कभी सामाजिक चेतना,

दर असल नाखून तो करता,

समाज की प्रगति का इशारा,

यह तो प्रतीक है सूरज-चांद के पथ का,

कभी तो ज्योतिष शास्त्र को करता इंगित,

अनेक गुणों से भरा पड़ा है,

करता इशारा स्वास्थ्य का,

युगबोध कराता है यह,

निश्चेतना में चेतना जगाने का प्रयास,

चेतन जगत का मात्र आभास,

जीव को निर्जीव से अलग करता यह,

हर जीव की पहचान है नाखून,

प्राचीन में दाँत से पहले…

नाखून से काटने की प्रथा चली,

आज व्यक्ति हुआ ’स्व’ से मोहित,

किया लोहे का इस्तेमाल नाखून की जगह,

मात्र रह गया बनकर सौंदर्य का सामान,

काटकर कभी बनाया सौंदर्य का हिस्सा,

कभी बना खंजर तो कभी शमशीर,

भूगोल की दुनिया से परे…

इन्सान ने इसे आजमाया,

जब चाहा किया इसका प्रयोग,

जब नहीं चाहा किया तिरस्कार,

यह तो है चैतन्य मन का शृंगार,

हे मानव! दुरूपयोग इसका मत कर,

सही अर्थों में यह पहचान है चेतन जगत की,

इस पर मत कर अत्याचार,

दर्द होता इसे भी …

मत हावी होने देना अचेतन जगत पर कभी,

ज़रुरत पर काम आयेगा,

यह विज्ञान है परवरदीगार का!

शून्य की खोज की आर्यभट्ट ने,

तो खुदा ने बनाया नाखून।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #181 – हाइबन – “कोबरा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक हाइबन – “कोबरा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 181 ☆

☆ हाइबन- कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था।  वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

पैर में सांप~

बंद आंखें के खड़ा

नवयुवक।

~~~~~~~

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-08-2020 

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 214 ☆ बाल गीत – मौसम करता अपनी बात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 214 ☆

बाल गीत – मौसम करता अपनी बात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बिजली कड़की , बादल गरजे

होती बेमौसम बरसात।

तेज हवाएँ शीतल – शीतल

मौसम करता अपनी बात।।

गुजर रहा बैसाख महीना

लू की होती अब छूट्टी

वायु प्रदूषण भू में सोया

धूल हो गई अब मिट्टी।।

 *

खूब नहाए पेड़ और पौधे

चुपके – चुपके पूरी रात।।

 *

एसी –  कूलर बंद हो गए

पंखा फर – फर हैं चलते

मच्छरदानी लगा पलंग पर

सैर सपन में सब करते।।

 *

कहीं – कहीं ओलों से आफत

बाग – बगीचों पर आघात।।

 *

नीम निबोली , तुलसी चमकीं

चढ़ी बेल तोरई लौकी

उपवन में पंछी हैं चहके

वर्षा ने लूएं रोकीं।।

 *

हर्बल चाय सुहाई सबको

देती है सेहत का साथ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #240 – कविता – ☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #240 ☆

☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जीवन को जीने के

सुख-दुख को पीने के

सब के होते अपने अलग-अलग ढंग

जिये कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

 

नंगे भूखे रहकर भी कोई गा लेते

खुशियों को पा लेते

ऐशो-आराम जिन्हें

नहीं कोई काम जिन्हें

फिर भी बेचैन रहे

क्षण भर न चैन रहे

धेला-आना, पाई

रेत में खोजे रांई

जीवन पर्यंत लड़े, जीवन की जंग

जिए कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

 

ए.सी.कारों में बीमारों से, कर रहे भ्रमण

चालक इनके सरवण

बंद कांच सारे हैं

शंकित बेचारे हैं

ठाठ-बाट भारी है

फिर भी लाचारी है

है फरेब की फसलें

बिगड़ रही है नस्लें

बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग

जिए कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

 

भुनसारे उठकर जो, देर रात सोते हैं

सपनों को ढोते हैं

खुशमिजाज वे भी हैं

खाने को जो भी है

खा लेते चाव से

सहज हैं स्वभाव से

ज्यादा का लोभ नहीं

खोने का क्षोभ नहीं

चेहरों पर मस्ती का दिखे अलग रंग

जिये कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भोर का संदेश…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

एक जलती अँगीठी सा

सूर्य धरकर भेष

ले खड़ा पूरब दिशा में

भोर का संदेश ।

*

कुनकुनी सी धूप

पत्ते पेड़ के उजले

जागकर पंछी

दाना खोजने निकले

*

नदी धोकर मुँह खड़ी

तट पर बिखेरे केश।

*

पर्वतों के बीच

घाटी धुंध में लिपटी

रात चुपके से

कोने में जा सिमटी

*

सितारे लौटे घरों को

चाँद अपने देश।

*

मंदिरों की ध्वजा

फूँके शंख पुरवाई

पाँखुरी पर फूल की

इक बूँद अलसाई

*

लिख रही दिन के लिए

है नियति के आदेश ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लोग नेक कहते हैं…“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆

✍ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ढंग जब नहीं तुमको,मयकदे में आने का

कुर्बतों के क्या मानी, लुत्फ क्या पिलाने का

 *

ज़ोम दिल में है मेरे,आशियाँ बनाने का

शौक़ वो करें पूरा,बिजलियाँ गिराने का

 *

मयकदे मैं आने की, दोस्त है ये मजबूरी

रस्ता एक मिलता है, उनको भूल जाने का

 *

लोग नेक कहते हैं सब दुआएं देते हैं

काम नेक होता है, बिछड़े दिल मिलने का

 *

देखिए कहाँ तक हम कामयाब होते हैं

हौसला तो है दिल में, कुछ तो कर दिखाने का

 *

बनके एक दीवाना, उनकी राह में पहुँचा

रास्ता न जब पाया,उनके पास आने का

 *

माँ के पैर छूते हैं उठ के हम अरुण हर दिन

रास्ता सुरल है ये, स्वर्ग को कमाने का

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 33 – ताक झांक…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)

☆ लघुकथा – ताक झांक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।

बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।

माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।

माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।

उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।

आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।

नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।

हां पहचाना।

देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?

मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।

बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।

हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।

मैं गवर्नमेंट स्कूल में  टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?

हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?

रीमा ने धीरे से कहा-

बिल्कुल है आंटी।

चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।

काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,

और वह रोने लगते हैं।

आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।

मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।

अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।

जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।

बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।

बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।

लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 112 –  जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.

यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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