हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #13 – कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  तेरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 13 ☆

 

☆ कम्प्यूटर सिखाये  जीवन जीने की कला☆

 

जीवन अमूल्य है! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है. किस तरह जिया जावे कि एक सुखद,शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड सकें ? यह सतत अन्वेषण का रोचक विषय रहा है.अनेकानेक आध्यात्मिक गुरु यही आर्ट आफ लिविग सिखाने में लगे हुये हैं. आज हमारे परिवेश में यत्र तत्र हमें कम्प्यूटर दिखता है. यद्यपि कम्प्यूटर का विकास हमने ही किया है किन्तु लाजिकल गणना में कम्प्यूटर हमसे बहुत आगे निकल चुका है. समय के साथ बने रहने के लिये बुजुर्ग लोग भी आज कम्प्यूटर सीखत दिखते हैं. मनुष्य में एक अच्छा गुण है कि हम सीखने के लिये पशु पक्षियों तक से प्रेरणा लेने में नहीं हिचकते विद्यार्थियों के लिये काक चेष्टा, श्वान निद्रा, व बको ध्यानी बनने के प्रेरक श्लोक हमारे पुरातन ग्रंथों में हैं. समय से तादात्म्य स्थापित किया जावे तो हम अब कम्प्यूटर से भी जीवन जीने की कला सीख सकते हैं. हमारा मन,शरीर, दिमाग भी तो ईश्वरीय सुपर कम्प्यूटर से जुडा हुआ एक पर्सनल कम्प्यूटर जैसा संस्करण ही तो है. शरीर को हार्डवेयर व आत्मा को  सिस्टम साफ्टवेयर एवं मन को एप्लीकेशन साफ्टवेयर की संज्ञा दी जा सकती है. उस परम शक्ति के सम्मुख इंसानी लघुता की तुलना की जावे तो हम सुपर कम्प्यूटर के सामने एक बिट से अधिक भला क्या हैं ? अपना जीवन लक्ष्य पा सकें तो शायद एक बाइट बन सकें.आज की व्यस्त जिंदगी ने हमें आत्म केंद्रित बना रखा है पर इसके विपरीत “इंटरनेट” वसुधैव कुटुम्बकम् के शाश्वत भाव की अविरल भारतीय आध्यात्मिक धारा का ही वर्तमान स्वरूप है. यह पारदर्शिता का श्रेष्ठतम उदाहरण है.

स्व को समाज में समाहित कर पारस्परिक हित हेतु सदैव तत्पर रखने का परिचायक है. जिस तरह हम कम्प्यूटर का उपयोग प्रारंभ करते समय रिफ्रेश का बटन दबाते हैं, जीवन के दैननंदिनी व्यवहार में भी हमें एक नव स्फूर्ति के साथ ही प्रत्येक  कार्य करने की शैली बनाना चाहिये.

कम्प्यूटर हमारी किसी कमांड की अनसुनी नहीं करता किंतु हम पत्नी, बच्चों, अपने अधिकारी की कितनी ही बातें टाल जाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष, खिन्नता,कटुता पैदा होती है व हम अशांति को न्योता देते हैं.

क्या हमें कम्प्यूटर से प्रत्येक को समुचित रिस्पांस देना नहीं सीखना चाहिये ? समय समय पर हम अपने पी.सी. की डिस्क क्लीन करना व्यर्थ की फाइलें व आइकन डिलीट करना नहीं भूलते, उसे डिफ्रिगमेंट भी करते हैं.  यदि हम रोजमर्रा के जीवन में भी यह साधारण सी बात अपना लें और अपने मानस पटल से व्यर्थ की घटनायें हटाते रहें तो हम सदैव सबके प्रति सदाशयी व्यवहार कर पायेंगे, इसका प्रतिबिम्ब हमारे चेहरे के कोमल भावों के रूप में परिलक्षित होगा,जैसे हमारे पी.सी. का मनोहर वालपेपर. कम्प्यूटर पर ढ़ेर सारी फाइलें खोल दें तो वे परस्पर उलझ जाती हैं, इसी तरह हमें जीवन में भी रिशतो की घालमेल नहीं करना चाहिये, घर की समस्यायें घर में एवं कार्यालय की उलझने कार्यालय में ही निपटाने की आदत डालकर देखिये, आपकी लोकप्रियता में निश्चित ही वृद्धि होगी. हाँ एक बात है जिसे हमें जीवन में कभी नहीं अपनाना चाहिये, वह है किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट. कापी,कट पेस्ट जैसी  सुविधायें कम्प्यूटर की अपनी विशेषतायें हैं. जीवन में ये शार्ट कट भले ही  त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-12 – अभंग – महापूर ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। सम्पूर्ण देश में बाढ़ की प्राकृतिक विपदा और इस विपदा के मध्य सैनिकों और मदद के बढ़ते हाथ साथ ही उत्सवों की सौगात  इसके बीच मानवीय जिजीविषा।  आज प्रस्तुत है  “अभंग – महापूर । )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 12 ? 

 

? अभंग – महापूर  ?

 

तुझी कोप दृष्टी।झाली अतिवृष्टी। जलमय सृष्टी

महापूर।

 

सोडुनिया माया। धरिलासे राग। प्रेमाला तू जाग ।

नदीमाय।

 

जीव वित्त हानी। झाली वाताहात।  जीवनाचा घात।

आकस्मित।

 

कोसळली घरे। पडली खिंडारे। उध्वस्त भांडारे।

क्षणार्धात।

 

अतोनात प्राणी। बांधल्या दावणी। मुकल्या जीवनी।

प्रलयात।

 

आस्मानी संकट। घटिका बिकट। धावले निकट।

सैन्य दल।

 

मदतीचा हात। देती प्रवाहात। संकटास मात।

दीनबंधू।

 

रक्षाबंधनाचे। मानकरी खरे। सैन्यदल सारे।

बहिणींचे।

 

जाऊ दे वाहून। जाती धर्म पंथ। भेदाभेद संथ।

सर्वकाळ।

 

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 13 – लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  लघुकथा  “एक पुरस्कार समारोह”।  ईमानदारी वास्तव में  नीयत से जुड़ी  है। समाज में व्याप्त ईमानदारी के स्तर को डॉ परिहार जी ने बेहद खूबसूरत अंदाज में प्रस्तुत किया है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 13 ☆

 

☆ लघुकथा – एक पुरस्कार समारोह  ☆

कलेक्टरेट के चपरासी दुखीलाल को दस हजार रुपये से भरा बटुआ एक बेंच के पास पड़ा मिला। उसने उसे खोलकर देखा और सीधे जाकर उसे कलेक्टर साहब की टेबिल पर रखकर छाती तानकर सलाम ठोका। कलेक्टर साहब ने दुखीलाल की बड़ी तारीफ की।

दुखीलाल की ईमानदारी की खबर पूरे कलेक्टरेट में फैल गयी। जिस तरफ भी वह जाता, लोग शाबाशी देते। कुछ लोग उसकी तरफ इशारा करके दूसरों को बताते, ‘यही दुखी लाल है, दस हजार का पर्स लौटाने वाला।’ दुखी लाल का सीना एक दिन में तीन इंच बढ़ गया।

सिर्फ उसके साथी झगड़ू ने उसके आत्मगौरव के गुब्बारे में सुई टोंचने की कोशिश की। झगड़ू बोला, ‘वाह रे बुद्धूलाल! हाथ में आये दस हजार सटक जाने दिये। तुमसे नईं संभलते थे तो हमें दे देते, हम संभालकर रख लेते।’ दुखी लाल ने उसे डपटा, ‘चुप बेईमान!’ और झगड़ू ताली पीटकर हँसा, ‘जाओ जुधिष्ठिर, जाओ।’

उसी दिन नगर के प्रसिद्ध समाज सेवक चतुर लाल जी पर्स पर अपना दावा पेश करके, प्रमाण देकर रुपया ले गये। दूसरे दिन नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘फुरसत’ की ओर से दुखी लाल का अभिनंदन किया गया। चतुर लाल भी उसमें हाज़िर हुए।

समारोह में दुखी लाल की ईमानदारी की खूब प्रशंसा हुई। उसे माला पहनायी गयी और अभिनंदन-पत्र दिया गया। चतुर लाल भी बोले। उन्होंने कहा, ‘दुखी लाल के काम से साबित होता है कि हमारे देश में अभी भी ईमानदार और सही रास्ते पर चलने वाले लोग हैं। दुखी लाल का काम लाखों को ईमानदारी की प्रेरणा देगा। भाई दुखी लाल ने मुझे बड़े नुकसान से बचाया है, इसलिए मैं उन्हें एक हजार रुपये की राशि की तुच्छ सी भेंट देना चाहता हूँ। मेरा अनुरोध है कि वे इसे स्वीकार करें।’

उन्होंने राशि निकालने के लिए जेब में हाथ डाला कि इतने में दरवाज़े पर खाकी वर्दी दिखायी पड़ी और एकाएक चतुर लाल सब छोड़छाड़ कर अपनी धोती की लाँग संभालते हुए दूसरे दरवाज़े से भाग खड़े हुए। समारोह में अव्यवस्था फैल गयी।

दरवाज़े में से खुद पुलिस अधीक्षक हॉल में आये। उन्होंने कमरे में नज़र दौड़ायी और पूछा, ‘कहाँ गया वह समाज सेवक का बच्चा? बदमाश ने झूठा दावा पेश करके दूसरे का रुपया ले लिया।’

दुखीलाल मुँह फाड़े सब देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #10 – # No Abusing ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 10 ☆

 

☆ # No Abusing ☆

रात चढ़ रही है, पास के मकान में हमेशा की तरह घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। उनका स्कूल जानेवाला लड़का जन्म से यह सब देख, सुन रहा है। उसका कोई स्वर नहीं है। अनुमान लगाता हूँ कि वह घर के किसी कोने में सुन्न खड़ा होगा। छोटी नादान बिटिया जोर-जोर से रो रही है। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या ‘क्रमिक विकास का सिद्धांत’ आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह सरलता से जटिलता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी।  अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें।

मित्रो, मैं आज से # No Abusing शुरू कर रहा हूँ। इसमें मेरा साथ दें, शामिल हों।

# No Abusing

(इस पोस्ट का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने का आप सबसे निवेदन है। इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर जन-आंदोलन बनाने का भी अनुरोध है। )
Read my thoughts on YourQuote app at: Sanjay Bhardwaj

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #17 – पाचोळा… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की   सत्रहवीं कड़ी  पाचोळा…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। एक पान  के पत्ते से  नवजीवन की परिकल्पना को जोड़ना एवं अंत में दी हुई कविता दोनों ही अद्भुत हैं। सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #17 ?

 

☆ पाचोळा… ☆

 

पाचोळा, पानांचा… पानगळ… निष्पर्ण… एका सुरुवातीचा शेवट?
कदाचित शेवट… म्हणून भकास?

कदाचित?

की नव्याची सुरुवात?

अनेक विचार आपल्यालाच डाचत राहतात… पण पाचोळा कोणालाच नको असतो हे नक्की… पायदळी तुडवले जाण्याची शक्यताच जास्त असते… दुर्लक्षित होणे, ह्या सारखी भावना सुखावह नक्कीच नाही… पण मग अजून एक विचार मनात येतो… पाचोळा ही पूर्णत्वाची स्थिती तर नाही? समर्पणाची तयारी तर नाही? आयुष्यावर मात करत असताना झेललेल्या अनेक घावांचे व्रण नाहीसे करण्यासाठी ही धडपड नसावी ना? का सर्व जबाबदऱ्यांमधून बाहेर पडून हलक्या झालेल्या जीवनाचा वाऱ्याच्या झुळकी बरोबर सुरू झालेला प्रवास तर नाही? ह्या पानगळीबरोबर अनेक अयोग्य गोष्टीचा ऱ्हास होत असेल,  नाही का !

ह्याची उत्तरं प्रत्येकासाठी नक्कीच वेगळी असणार, ह्यात नवल नाही… पण उत्तरं शोधायचा प्रयत्न प्रगल्भतेच्या मार्गातील मैलाचा दगड ठरू शकतो… कारण ज्याची सुरुवात व्हावी वाटत असते, त्यासाठी कशाचातरी शेवट होणे ह्याला पर्याय नाही, हा निसर्गाचा नियम विसरून चालणार नाही…

कोंब होतो मी अवखळ,
पानापानातील सळसळ,
श्रुंगारलो सजलो देही,
जाणवे झाडाची कळकळ…

ऋतूंच्या बहरण्या साजे,
अनोखे चित्र सकळ,
खोडाखोडात अवतरे,
जगण्यासाठी पाठबळ…

वसंताच्या आगमनाने,
मिळाली माया सोज्वळ,
ग्रीष्माची उष्ण झळ,
नक्कीच होईल पानगळ,

जगरहाटी ठरलेली,
बाणवली जन्मभर,
निर्मिती, स्थिती, लय,
घडले सारे भरभर…

म्हणूनच म्हणतो,

आज पाचोळा जरी,
अनुभवले कोवळे क्षण,
पुलकित होत होतो,
पिऊन नाविन्याचे कण…

तुडवू नको पायदळी,
गळलो जरी अवकाळी,
सृष्टीचा एक भाग होतो,
आयुष्याच्या सकाळी…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆ अरबी के पत्तों का  पानी ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक संवेदनात्मक भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 3 ☆

☆ अरबी के पत्तों का  पानी

 

प्रिये,

तुम नक्षत्रों से चमकती हो,
मैं अदना सा टिमटिमाता हुआ तारा हूँ ।

 

तुम बवंड़र सी चलती आँधी हो,
मैं पुरवाई की मंद बहती हवा हूँ ।

 

तुम कोहरे से लिपटी हुई सुबह हो
मैं दूब पर रहती की ओस की बूँद हूँ ।

 

तुम शंख में रहनेवाला मोती हो
मैं अरबी के पत्तों का चमकता पानी हूँ ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 – शक्ति का मद ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “शक्ति का मद।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 ☆

 

☆ शक्ति का मद 

 

राम, नाम अग्नि बीज मंत्र (रा) और अमृत बीज मंत्र (मा) के साथ संयुक्त है, अग्नि बीज आत्मा, मन और शरीर को ऊर्जा देता है एवं अमृत बीज पूरे शरीर में प्राण शक्ति (जीवन शक्ति) को पुन: उत्पन्न करता है । राम दुनिया का सबसे सरल, और अभी तक का सबसे शक्तिशाली नाम है । भगवान राम कोसला साम्राज्य (अब उत्तर प्रदेश में) के शासक दशरथ और कौशल्या के यहाँ सबसे बड़े पुत्र के रूप में पैदा हुए, भगवान राम को हिंदू धर्म के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पूर्ण पुरुष’ या ‘स्व-नियंत्रण भगवान’ या ‘पुण्य के भगवान’ । उनकी पत्नी देवी सीता को पृथ्वी पर अवतारित एक महान स्त्री माना जाता हैं जो वास्तव में किसी के लिए भी आदर्श की परिभाषा है उन्हें हिंदु देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं ।

भगवान राम अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी सौतेली माँ कैकेयी (अर्थ : भाग्य, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की चरम सीमा) को दिए वचनों के पालन हेतु 14 सालोंतक के लिए वन  में रहने आये थे ।

दशरथ – दश का अर्थ नंबर दस तक की गिनती है और रथ का अर्थ युद्ध में प्रयोग करने वाला वहान, इसलिए दशरथ का शाब्दिक अर्थ है दस रथ। दशरथ को यह नाम मिला क्योंकि उनके पास दस दिशाओं में रथ चलाने की अनूठी क्षमता थी। परंपरागत रूप से हम केवल आठ दिशाओं को जानते हैं- उत्तर (उत्तर), दक्षिणी (दक्षिण), पूरव (पूर्व), पश्चिम (पश्चिम), ईशान (उत्तर पूर्व), आग्नेय (दक्षिण पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम), वायव्य (उत्तर पश्चिम), और इन पारंपरिक आठ दिशाओं के अतिरिक्त, दशरथ ऊर्ध्व (आकाश की ओर ऊपर को) और अदास्था(पाताल की ओर नीचे को) में रथ चला सकते थे ।

भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीताऔर छोटे भाई लक्ष्मण (अर्थ : भाग्यशाली अंग, अन्य अर्थ ‘लक्ष’ का अर्थ है लक्ष्य और ‘मन’ का अर्थ ‘मन’ है, इसलिए लक्ष्मणअर्थात जिसका मस्तिष्क हमेशा लक्ष्य पर रहता है) के साथ वन में रह रहे थे ।

सीता – जनकपुर के राजा जनक ( अर्थ : निर्माता) और उनकी पत्नी रानी सुनैना (अर्थ : सुंदर आँखें) की पुत्री, एवं उर्मिला (अर्थ : मोहिनी) और चचेरी बहन मंडवी (अर्थ : पारदर्शी ह्रदय वाली) और श्रुतकीर्ति (अर्थ : चरम प्रसिद्धि) की बड़ी बहन थीं। वह देवी लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आदिशक्ति), धन की देवी और विष्णु की पत्नी का अवतार थीं। उन्हें सभी हिंदू स्त्रियों के लिए पारिवारिक और स्त्री गुणों के एक आदर्श स्त्री माना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆ ताई बालवाड़ी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है।  इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। हम श्रीमती उर्मिला जी के आभारी हैं जिन्होने हमारे आग्रह को स्वीकार कर  “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” शीर्षक से  प्रारम्भ करने हेतु अपनी अनुमति प्रदान की। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका आलेख नवनिर्मिती  

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 2 ☆

 

☆ ताई बालवाडी ☆

 

सकाळी उठल्यावर हातात वर्तमानपत्र घेतलं..लक्षात आलं आज दहावीचा निकाल आहे त्यामुळे अख्ख्या पेपरमध्ये त्याच बातम्या !

तेवढ्यात माझं लक्ष १०० टक्के निकाल लागलेल्या शाळांच्या बातमीकडं गेलं.दुर्गम व डोंगराळ अशा भागातल्या एका माध्यमिक शाळेच्या निकाल १०० टक्के लागला हे वाचून माझं मन भुर्रकन पस्तीस वर्षामागं गेलं..

१९८३ साल होतं मी शिक्षण विभागात बदलून आल्याने माझ्या कामाचा चार्ज मी यादीप्रमाणे पाहून घेत होते.तेवढ्यात ‘ताई बालवाड्या ‘ असं शीर्षक असलेल्या एका फाईलनं माझं लक्षं वेधून घेतलं.मी समाज कल्याण विभागाच्या बालवाड्यांचं काम केलं होतं पण हे ‘ताई बालवाडी ‘प्रकरण जरा वेगळंच वाटलं म्हणून उत्सुकतेनं अख्खी फाईलच मी तिथं बसल्या बसल्या वाचून काढली.

त्यांचं असं होतं, ज्या ठिकाणी यापूर्वी कसलीही शिक्षणाची सोय नाही अशा २०० ते ५०० लोकवस्ती असलेल्या अति दुर्गम -डोंगराळ भागातील वाड्या-वस्त्यांना शासनाने १९७१ च्या जनगणनेनुसार बालवाड्या मंजूर केलेल्या होत्या.म्हणजे त्या वाडीवस्तीवर मुलांची शिक्षणाची सुरुवात झाली होती.

आमच्या जिल्ह्यासाठी १००बालवाड्या मंजूर होत्या. पैकी १९७६ ला ही योजना आली त्यावेळी प्रत्यक्षात ७७बालवाड्या सुरू होऊन त्या सर्व कार्यरत होत्या.परंतु १००पैकी २३ बालवाड्या सुरू होऊ शकलेल्या नव्हत्या असे ही फाईल वाचल्यावर माझ्या लक्षात आले.

अशा सर्व बालवाड्यांना शासनाने अति पावसाळी- दुर्गम भाग म्हणून मुलांना बसायला मोठे लांब सुंदर सागवानी पाट,छान खेळणी व ती सुरक्षित ठेवण्यासाठी भलीमोठी सागवानी लाकडी पेटी ,जिचा दुसरा उपयोग बालवाडी शिक्षिकेला बसण्यासाठी ही व्हावा.

हे सर्व वाचल्यावर माझी चौकस बुद्धी मला स्वस्थ बसू देईना.या बालवाड्या कां सुरु होऊ शकलेल्या नाहीत व त्यांचं साहित्याचं काय ?

मी याचं कारण शोधून काढायचं ठरवलं.व या बालवाड्या कसंही करुन सुरू करायच्याचं असा दृढनिश्चय करून पुढील कामाला लागले.आणि मला एक कल्पना सुचली त्या दरम्यान तालुका मास्तरांची एक मिटींग येऊ घातली होती म्हटलं ह्या निमित्ताने तालुका मास्तरांकडून याबाबतची वस्तुस्थिती कळू शकेल.व माझा अंदाज योग्य ठरला.त्या सभेसाठी येणाऱ्या ता.मास्तरांनी माझ्या टेबलकडे येऊन भेटावे अशी विनंती वजा सूचना नोटीसबोर्डंवर लावली.त्याचा खूपच छान उपयोग झाला ता..मास्तराशी चर्चा करता असे समजले की शासनाच्या निकषानुसार त्या गावातीलच महिला ताई म्हणून नेमायची होती.त्याकाळी वाड्यावस्त्यांवरच्या मुलींची लग्ने लौकर होत असल्याने अशी शिक्षिका न मिळाल्याने बालवाड्या सुरू होऊ शकल्या नाहीत.

आज  मी ही फाईल पहात होते तेव्हा ७-८ वर्षांचा कालावधी गेलेला होता,आता ता.मास्तरांच्या मदतीने त्या २३ बालवाड्यांपैकी २२ बालवाड्या सुरू झाल्या त्यांचं जपून ठेवलेलं साहित्य त्यांना वाटप केलं.पण एका गावाला शिक्षिकाच मिळेना कारण अतिदुर्गम भागात ७वी पास‌ शिक्षिका तेथे मिळेना.मग चौकशी करता त्या गावात ४थी पास झालेली एक विधवा महिला असल्याचे समजल्यावर तिला कार्यालयात बोलावून सर्व सांगितले व तिला नियमानुसार बाहेरून सातवीच्या परीक्षेस बसविले.सुदैवाने ती चांगल्या गुणांनी उत्तीर्ण झाली याचा तिच्यापेक्षा आम्हाला जास्त आनंद झाला.कारण आमची १००वी बालवाडी सुरू झाली.

आज ३५वर्षानंतर त्या ‘ताई बालवाडी ‘ चं रुपांतर कालांतराने माध्यमिक शाळेपर्यंत आलं आणि त्या शाळेचा दहावीचा १००टक्के निकाल लागल्याची बातमी वाचून मला भरुन पावल्यासारखं झालं

श्री समर्थ रामदास स्वामी म्हणतात नां ‘ केल्याने होत आहे रे’ ! पण आधि केलेचि पाहिजे!!’

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 12 ☆ घरौंदा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 12 ☆

 

☆ घरौंदा ☆

 

घरौंदा

 

मालिक की

नजर पड़ते ही

घोंसले में बैठे

चिड़ा-चिड़ी चौक उठते

और अपने नन्हें बच्चों के

बारे में सोच

हैरान-परेशान हो उठते

गुफ़्तगू करते

आपात काल में

इन मासूमों को लेकर

हम कहां जाएंगे

 

चिड़ा अपनी पत्नी को

दिलासा देता

‘घबराओ मत!

सब अच्छा ही होगा

चंद दिनों बाद

वे उड़ना सीख जाएंगे

और अपना

नया आशियां बनाएंगे’

 

‘परन्तु यह सोचकर

हम अपने

दायित्व से मुख

तो नहीं मोड़ सकते’

 

तभी माली ने दस्तक दी

और घोंसले को गिरा दिया

चारों ओर से त्राहिमाम् …

त्राहिमाम् की मर्मस्पर्शी

आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं

 

जैसे ही उन्होंने

अपने बच्चों को

उठाने के लिये

कदम बढ़ाया

उससे पहले ही

माली द्वारा

उन्हें दबोच लिया गया

और चिड़ा-चिड़ी ने

वहीं प्राण त्याग दिए

 

इस मंज़र को देख

माली ने मालिक से

ग़ुहार लगाई

‘वह भविष्य में

ऐसा कोई भी

काम नहीं करेगा

आज उसके हाथो हुई है

चार जीवों की हत्या

जिसका फल उसे

भुगतना ही पड़ेगा’

 

वह सोच में पड़ गया

‘कहीं मेरे बच्चों पर

बिजली न गिर पड़े

कहीं कोई बुरा

हादसा न हो जाए’

 

‘काका!तुम व्यर्थ

परेशान हो रहे हो

ऐसा कुछ नहीं होगा

हमने तो अपना

कमरा साफ किया है

दिन भर गंदगी

जो फैली रहती थी’

 

परन्तु मालिक!

यदि थोड़े दिन

और रुक जाते

तो यह मासूम बच्चे

स्वयं ही उड़ जाते

इनके लिए तो

पूरा आकाश अपना है

इन्हें हमारी तरह

स्थान और व्यक्ति से

लगाव नहीं होता

 

काका!

तुमने देखा नहीं…

दोनों ने

बच्चों के न रहने पर

अपने प्राण त्याग दिए

परन्तु मानव जाति में

प्यार दिखावा है

मात्र छलावा है

उनमें नि:स्वार्थ प्रेम कहां?

 

‘हर इंसान पहले

अपनी सुरक्षा चाहता

और परिवार-जनों के इतर

तो वह कुछ नहीं सोचता

उनके हित के लिए

वह कुछ भी कर गुज़रता

 

परन्तु बच्चे जब

उसे बीच राह छोड़

चल देते हैं अपने

नए आशियां की ओर

माता-पिता

एकांत की त्रासदी

झेलते-झेलते

इस दुनिया को

अलविदा कह

रुख्सत हो जाते

 

काश! हमने भी परिंदों से

जीने का हुनर सीख

सारे जहान को

अपना समझा होता

तो इंसान को

दु:ख व पीड़ा व त्रास का

दंश न झेलना पड़ता’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 10 ☆ सपना ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  स्व. माँ  की स्मृति में  एक भावप्रवण कविता   “सपना”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 10 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ सपना 

 

मैं नींद

के आगोश में सोई

लगा

नींद में

चुपके-चुपके रोई

जागी तो

सोचने लगी

जाने क्या हुआ

किसी ने

दिल को छुआ

कुछ-कुछ

याद आया

मन को बहुत भाया

देखा था

सपना

वो हुआ न पूरा

रह गया अधूरा

उभरी थी धुंधली

आकृति

अरेे हूँ मैं

उनकी कृति

वे हैं

मेरी रचयिता

मेरी माँ

एकाएक

हो गई

अंतर्ध्यान

तब हुआ यह भान

ये हकीकत नहीं

है एक सपना

जिसमें था

कोई अपना

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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