हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 18 – महानगर में घर ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है महानगरीय जीवन पर आधारित एक  सार्थक  रचना ‘महानगर में घर ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 18  – विशाखा की नज़र से

☆ महानगर में घर  ☆

 

महानगरीय घरों में ,

बस एक दीवार का पर्दा है

उसके घर के कंपन से

मेरा घर हिलता है …

 

महानगरीय घरों में

बाहर का कोलाहल घर मे बसर करता है

वाहनों का शोर ही जब -तब

गजर का काम करता है ..

 

महानगरीय घरों में

खिड़कीयों ने अपना का कार्य तजा है

मन की तरह उनको भी

मोटे परदों से ढका है …

 

महानगरीय घरों में किसने

सूर्य उदय – अस्त देखा है

पिता का घर से जाना और लौटना ही

दिन – रात का सूचक होता है

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 7 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 7 – नशे का जहर☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- अपने पूर्वाध जीवनवृत्त में किस प्रकार ससुराल में पगली विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए जीवन यापन कर रही थी। उसके दिन फाकाकशी में कट रहे थे। अब आगे पढ़े—–)

ठंडा मौसम, सर्द गहराती रात के साथ शराब के ठेके पर नशे के प्रति दीवानगी का आलम।  पीने पिलाने वालों की बढ़ती संख्या देख ऐसा लगा जैसे शहद के छत्ते में मधु का पान करने हेतु मधुमक्खियों का समूह उमड़ा पड़ रहा हो।  वो बोतलें नहीं सारा ठेका ही पी जाने के चक्कर में हों।

उन्ही लोगों के बीच सबसे अलग थलग बैठे पगली के पति, के हलक में शराब का पहला प्याला उतरा, शराब की तलब थोड़ी कम हुई, तो उसकी सोई आत्मा जाग उठी, उसे पत्नी के  प्रति प्रेम तथा पुत्र की ममता कचोटनें लगी।

उसे बार बार उस बोतल में हताश पगली तथा उदास गौतम का चेहरा नाचता दिखाई देने लगा था, जिसमे उनकी बेबसी तथा पीड़ा झांक रही थी।  जिसे देखते ही उसकी आंखों से चंन्द बूंदें आंसुओं की छलक पड़ीं और उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कार उठी थी । उसने आज आखिरी बार शराब पीकर फिर कभी  राब को हाथ न लगाने की कसमें खाई थी।  वह नशे के सैलाब मे डूब कर मर  जाना चाहा था और शायद होनी को यही  मंजूर था।  हुआ भी यही।

उस दिन शराब के नशे में नाचते गाते लोग एकाएक गिरकर तड़पते हाथ पैर पीटते रोते नजर आ रहे थे।  उन्ही लोगों में एक पगली का पति भी था जो मदहोश हो नाचते हुए गिर पड़ था तथा तड़पते हुए मौत को सामने खड़ी देख रोते हुए गिड़गिड़ा उठा था। जान बचाने की गुहार लगा रहा था।  वह अब भी जमीन पर पड़ा हाथ पाँव पीटे जा रहा था।  देखते ही  देखते ठेके पर  भगदड़ मच गई थी।

ठेकेदार ठेका बंद कर भूमिगत हो गया था और शराब के जहरीले होने का सबको पता चल चुका था।

उस दिन  उस जहरीली शराब से सैकडो लोग मरे थे। कुछ लोग अब भी अस्पतालों में पड़े पड़े  अपनी मौत से जिन्दगी की जंग जीतने की चाहत में मौत से संघर्ष कर रहे थे। उनकी आंखों में मौत का खौफ  साफ  देखा जा सकता था सारा प्रशासनिक अमला अपराधियों के  पकड़ने का नाटक कर रहा था।  जगह  जगह छापेमारी। चल रही थी। उन मौत के सौदागरों को  जमीन खा गई अथवा आसमान निगल गया पता नही।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -8 –  अंत्येष्टि

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 7 ☆ उड़ता पंछी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता उड़ता पंछी । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #7 ☆ उड़ता पंछी 

 

मै उड़ता पंछी हूँ आसमान का,

मुझे पिंजरे में ना बांधों,

जीने दो मुझे खुल के,

रिवाज़ो की न दुहाई दो,

जीना है अपने तरीको से,

अपनी सोच की न अगवाई दो,

रहने दो कहना सुनना,

साथ रहने की सच्चाई दो,

जी लिया बहुत सिसक-सिसक के,

अब हंसने की फरमाईश दो,

अपने पर जो रखे थे समेट के,

उन्हें आसमा में फैलाने की बधाई दो,

सिर्फ अपनी परछाई नहीं,

साथ चलने के हक़ की स्वीकृति दो,

ना तुम ना मैं की लड़ाई,

“हम” बने रहने का आगाज़ दो,

मै उड़ता पंछी हूँ आसमान का,

मुझे पिंजरे में ना बांधों  . . .. . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 17 ☆ हुर्डा पार्टी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी विनोदपूर्ण  कविता  हुर्डा पार्टी । इस कविता के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आप ‘ लोकमान्य हास्य  योग  संघ, दौलतनगर शाखा आनंदनगर पुणे की सदस्य रही हैं। उनके वर्ग की  सदस्याओं द्वारा  एक छोटी  पिकनिक ट्रिप  का आयोजन किया गया। किन्तु, वह ट्रिप कैंसिल हो गई। उन्होंने  काव्यात्मक कल्पना की है कि- यदि ट्रिप  सफलतापूर्वक आयोजित की जाती  तो कितना आनंद आता। मित्रों जीवन में आनंद का अपना महत्व है। आप भी इस काल्पनिक ट्रिप का आनंद लीजिये जिसे श्रीमती उर्मिला जी ने बड़े ही आनंदमय होकर कविता में शब्दबद्ध किया है।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 17 ☆

☆ हुर्डा पार्टी ☆

लोकमान्य हास्य योग. संघाच्या !

आम्ही साऱ्या निघालो पार्टीला!

अहो ! कसल्या काय विचारता ? अहो…

हुर्डा पार्टीला !!

 

गाडीत गप्पा ठोकीत !

चिमणचारा चाखीत !

हास्य विनोदाला आला ऊत!!

 

सोडून घरादाराची काळजी !

आज आम्ही आमच्या मनमौजी!

 

गाण्यांच्या रंगल्या की हो भेंड्या !

एकमेकीला करतोय कुरघोड्या !!

 

गुळभेंडी ज्वारीच्या शेतात !

खोडून कणसं आणली हातात !!

 

शेण्यांची आगटी पेटवुनी !

घेतली कणसं आम्ही भाजूनी !!!

 

खाया बसलो मांडा ठोकुनी !

हुर्ड्याला दही लसनीची चटनी !

ताव मारतोय त्यावर साऱ्याजनी !!

 

भन्नाटच हुर्डा पार्टी रंगली !

गाडीवाल्याची हाक कानी आली !

चला चला निघायची वेळ झाली !

अहो..चला…!!

 

लागलो एकमेकींना उठवायला !

हुर्डा खाऊन जडपणा आला !!

 

पण. ! मस्त झाली आपली हुर्डा पार्टी !

सख्यांनो..ऽऽऽ..

आत्ता पुढली कुठं रंगणार आपली पार्टी !!

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक:-९-१-२०२०

9028815585

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 24 ☆ कुस्करलेल्या कळ्यांचा न्याय ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सादरपूर्वक सौ. सुजाता काळे जी की आज के दौर में स्त्री  जीवन की कठिन परिस्थितियों पर जीवन के कटु सत्य को उजागर करती एक भावप्रवण  समसामयिक मराठी कविता  “कुस्करलेल्या कळ्यांचा न्याय”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 24 ☆

☆ मराठी कविता – कुस्करलेल्या कळ्यांचा न्याय

 

कुठे कुठे राखायची

स्वतःचीच मी आब?

का-कधी करायची?

स्वतःची झाक- पाक.

 

किती कशा पाळू वेळा?

घराबाहेर पडायला,

गरजेविना कोणी का जातं?

अंधारात फिरायला.

 

मी बाहेर असले की

आई- बा ला धाकधूक,

कोल्हे, लांडगा टपलाय

मुलगी म्हणून का माझी चूक?

 

मला स्वातंत्र्य मिळावे म्हणून

रमा, सावित्री झटल्या,

आता माझी होळी करून

मुसक्या बांधून टाकल्या.

 

निसर्गाने मला बनवून

मातृत्वाचं दान दिलं,

वासनेच्या राक्षसांनी मला,

प्रियांका कधी निर्भया केलं.

 

माझे लचके तोडताना,

त्यांना वयाचं बंधन नाही,

कधी मुलगी, बहिण, आई

आजीला पण सोडत नाही.

 

साफ स्वच्छता सुरू आहे,

गल्ली अन् बोळांतून

वासनेची घाण भिनलीय,

नराधमांच्या डोक्यातून.

 

देहाचा माज उतरवितात,

कोवळ्या कळयांना कुस्करून

देहाच्या चिंध्या करून,

कधी गर्भारपणाचं ओझं लादून.

 

कधी थांबणार विटंबना

माय-लेकी व सुनांची

न्याय देवता जागी होवो

कुस्करलेलया कळ्यांची

 

इथे कोणी राम नाही

अहिल्येच्या उद्धारी

फुकट बळी जाऊ नये

न्यायासाठी हे गं नारी.

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 30 ☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “हाउ से हू तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  यह सच है कि धन दौलत और पद प्रतिष्ठा का चोली दामन का साथ है, किन्तु मानवीय व्यवहार तो आपके  नियंत्रण में है न ।डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 30☆

☆ रिश्ते बनाम गलतफ़हमी

शीशा और रिश्ता दोनों ही बड़े नाज़ुक होते हैं। दोनों में सिर्फ़ एक ही फर्क़ है…शीशा ग़लती से और रिश्ते गलतफ़हमी से टूट जाते हैं। उपरोक्त वाक्य में छिपा है… जीवन का सार्थक संदेश। दोनों की सुरक्षा अर्थात् हिफाज़त करना अत्यंत आवश्यक है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’… दोनों स्थितियों में लागू है यह सिद्धांत… दोनों ही नाज़ुक हैं और छोटी-सी ग़लती या गलतफ़हमी से टूट जाते हैं और टूटने पर भले ही जुड़ जायें, परंतु पूर्व-स्थिति में नहीं आ पाते। स्मरण होंगी—आपको रहीम जी की यह पंक्तियां ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय। टूटे पे फिर ना जुरै, जुरै गांठ परि जाय’ प्रेम रूपी  धागा चटकने के पश्चात् टूट जाता है और एक बार टूटने पर पुन: जुड़ नहीं पाता, उस में गांठ अवश्य पड़ जाती है अर्थात् दिलों में दरार पड़़ जाने के पश्चात् मानव कभी भी सामान्य नहीं हो सकता। सो! संबंधों को संभाल कर रखिये। कांच के टूटने पर उसके असंख्य टुकड़े हो जाते हैं और आपका पूरा अक्स उसमें नज़र नहीं आता। रिश्ते गलतफ़हमी से टूटते हैं… इसलिए कभी भी कानों सुनी बात पर विश्वास न करें। अक्सर लोग तो दूसरों के घर में आग लगा कर तमाशा देखते हैं।

दूसरी ओर ‘घर का भेदी लंका ढाए’ अर्थात् मन- मुटाव होने पर जब दूसरे पक्ष या आपके घर का कोई सदस्य भावावेश में आकर बाग़ी हो जाता है… किसी दूसरे की शरण में चला जाता है, तो सोने की लंका तक भी जल जाती है, सर्वस्व नष्ट हो जाता है। इसलिए कभी भी दूसरों की तो छोड़िए, अपनों से भी दुश्मनी मत कीजिए। यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि ‘आप को आपका सबसे क़रीबी व्यक्ति ही सर्वाधिक हानि पहुंचाता है, क्योंकि वह आपकी सोच व कार्य-व्यवहार से बखूबी परिचित होता है। इसलिए कभी भूल कर भी, किसी पर विश्वास मत कीजिए और अपने मन की बात सांझा मत कीजिये, क्योंकि राज़दार ही दुश्मनी निभाते हैं…आपके पतन व विनाश का कारण बनते हैं।

हां! कई बार पारस्परिक वैमनस्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सो! सुनी-सुनाई बात पर विश्वास करके अपना आपा मत खोइए…उससे संवाद कीजिए तथा अपना पक्ष रखिए, क्योंकि यह स्थिति दिलों के फ़ासलों को इस क़दर बढ़ा देती है कि इंसान एक-दूसरे का चेहरा देखना भी पसंद नहीं करता। यदि किसी बात पर ग़लतफ़हमी हो जाती है,तो आपस में विचार-विनिमय कीजिए, ताकि मनोमालिन्य समाप्त हो जाए और स्थिति शीघ्रातिशीघ्र सामान्य हो जाए अन्यथा इसका अंजाम कुछ भी हो सकता है…अक्सर ऐसी दुश्मनी पीढ़ी- दर-पीढ़ी चलती रहती है। संवाद व इपसी विचार-विमर्श इस अप्रत्याशित स्थिति से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम साधन है। जब भी आप इस तथ्य से अवगत हों… बातचीत का सिलसिला तुरंत आगे बढ़ायें। मन में व्यर्थ की शंकाओं को पनपने न दें, क्योंकि राई का पहाड़ बनने में समय नहीं लगता… अफ़वाहें तो वायु से भी तीव्र वेग से फैलती हैं।

रिश्तों में सदैव गर्माहट का अहसास होना चाहिए। एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव सदैव आमादा रहे, तभी ज़िंदगी की गाड़ी फर्राटे से आगे बढ़ सकती है। रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। रिश्ते खुशी व ग़म के अहसास हैं, जज़्बात हैं, भाव हैं, संवेदनाएं हैं और रिश्ते आगे बढ़ते हैं…स्नेह-सौहार्द व समर्पण- त्याग से। जब तक आप इनका प्रेम से सिंचन करते रहेंगे, ज़िंदगी में कोई आपदा दस्तक नहीं देगी…वह तीव्र गति से सीधी-सपाट दौड़ती रहेगी। छोटे-छोटे ज्वालामुखी तो अक्सर संबंधों में फूटते रहते हैं, परंतु उनका अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। सो! हमें दूसरों की विषाक्त बातों से अपने मन को मलिन नहीं होने देना चाहिए, बल्कि वमन कर बाहर निकाल फेंकना अपेक्षित है। इसके द्वारा ही हमारी ज़िंदगी सुचारू ढंग से आगे बढ़ सकती है।

प्रशंसा को आप विनम्रता से स्वीकार करें और आलोचना पर गंभीरता से विचार करें। यदि आप दोनों स्थितियों में सम रहते हैं, तो आपके पथ में कोई अवरोधक उपस्थित नहीं हो सकता। यदि प्रशंसा में आप फूले नहीं समाते और अपने हृदय में अहंकार का प्रवेश वर्जित रखते हैं…आलोचना पर आप गहराई से चिंतन-मनन करते हैं , तो आप सम्पूर्ण सृष्टि पर साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। परंतु अहंनिष्ठ मानव जीती हुई बाज़ी भी हार जाता है और अर्श से सीधा फर्श पर आन पड़ता है। अहं क्रोध का जनक है। इसलिए अहं व क्रोध में कभी भी कोई निर्णय न लें। यह दोनों विवेक के शत्रु हैं…एक स्थान पर नहीं रह सकते।

जहां विवेक नहीं, वहां सत्य नहीं, सही सोच नहीं। इसके लिये आवश्यकता है… अच्छे-बुरे व गुण-दोषों के चिंतन-मनन करने की, क्योंकि सकारात्मक सोच ही हमें तनावमुक्त जीवन जीने की राह दिखलाती है। दूसरी ओर नकारात्मक सोच हमारी जीवन-नौका को अवसाद के भंवर में हिचकोले खाने को छोड़ देती है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि जो आप करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। गीता के निष्काम कर्म का संदेश ध्यातव्य है, अनुकरणीय है। मानव को अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।कबीर जी का यह दोहा विचारणीय है…’बोया पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय’ अर्थात् बुरे कर्म करके सुफल की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है…सबसे बड़ी मूर्खता है।

अच्छे कर्म व मधुर वाणी दो अनमोल रतन हैं। यदि आप सुकर्म करते हैं और आपका व्यवहार कटु है, तो आप सदैव निंदा के पात्र बने रहेंगे… लोग आपसे बात तक करना भी पसंद नहीं करेंगे। इसलिए मधुर वचन बोल कर, सबसे विनम्र व्यवहार करें, क्योंकि विनम्रता की जन्मदात्री है विद्या…इसलिए अध्ययन व चिंतन-मनन कीजिए और जब आवश्यकता हो तभी बोलिए…दूसरे शब्दों में जब आपके शब्द मौन से बेहतर व अधिक सार्थक हों, तभी बोलना उचित है। मौन में सभी समस्याओं का समाधान निहित है। इसलिए इसे नव-निधियों की खान कहा गया है। मौन से आपकी भीतरी शक्तियां जाग्रत होती हैं, जो आपको विश्व में श्रेष्ठ स्थान पर प्रतिस्थापित करा सकती हैं। गलत संगति में रहने से अकेला रहना श्रेष्ठ है। उसी प्रकार बोलने से बेहतर है, चुप रहना। इसलिए कहा गया है पहले तोलिए, फिर बोलिए। यदि हम अनर्गल प्रलाप से बचेंगे, तो व्यर्थ की ग़लतफ़हमियां नहीं होंगी, स्नेह व सौहार्द के संबंध बने रहेंगे…जीवन में सामंजस्यता का भाव बना रहेगा और समरसता की स्थापना होगी… अलौकिक आनंद होगा। सो! न गलती की संभावना होगी, न ग़लतफ़हमी से रिश्ते टूटेंगे और न एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा। सो! रिश्तों को कांच व भुने हुए पापड़ की भांति स्वीकारिये, क्योकि वे पल भर में  टूट जाते हैं। मुझे याद आ रही हैं, नयी कविता की दो पंक्तियां,’मेरे सपने ऐसे टूटे, जैसे भुने हुए पापड़’ सपने भी बहुत नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चोट लगने पर दरक़ जाते हैं, जैसे रिश्ते तनिक-सी गलतफ़हमी व उपेक्षा से उस कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जहां मनुष्य स्वयं को ठगा-सा महसूसता व किंकर्तव्यविमूढ़-सा पाता है। शायद! इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन कहा गया है।  इसके जीवन में दस्तक देते ही जीवन की तमाम खुशियां जाने कहां विलीन व नदारद हो जाती हैं और ज़िंदगी उस दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है, जहां से उसे कोई रास्ता नहीं सूझता। सो! रिश्तों की मासूम बच्चे की भांति परवरिश करना अपेक्षित है।

वास्तव में रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, तभी महसूस  होते हैं तथा अंतर्मन में घर जाते हैं और शक़ की गुंजाइश नहीं रहती… जीवन द्रुत गति से दौड़ता हुआ कैसे गुज़र जाता है। आइए! एक-दूसरे के प्रति गहन विश्वास रखें, सच्चे मित्र की भांति, उसकी अनुपस्थिति में भी, उसके पक्ष में एक मज़बूत ढाल व सुख-दु:ख के सच्चे साथी बन कर खड़े रहें… कभी उसकी निंदा सुनकर बरगलाएं नहीं… तुरंत प्रतिक्रिया न दें…सोच-विचार कर प्रत्युत्तर दें। यह बात सदैव मन में रखनी अपेक्षित है कि लोगों का काम तो नदी व सरोवर के शांत जल में पत्थर फेंक कर, उसे उद्वेलित करना होता है… उसी प्रकार लोग निंदा रूपी पत्थर फेंक कर उसके जीवन में खलल उत्पन्न कर उल्लसित होते हैं, जिसका भयावह पक्ष सम्मुख आने पर आपके हाथ खाली होते हैं अर्थात् कई बार तो जन्मजात संबंध भी हाशिये पर चले जाते हैं और हम हाथ मलते रह जाते हैं।

सो! मन से नकारात्मकता के भाव निकाल कर सकारात्मक ऊर्जा से आप्लावित करें… यही जिंदगी की चाहना है, अपेक्षा है, रिश्तों की ऊर्जा है…इन्हें महसूसें तथा बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहें। वैसे समय को सबसे बड़ा हीलर कहा गया है, जो सब प्रकार के घावों को भर देता है। परंतु वाणी के घाव कभी नहीं भरते…इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलनी अपेक्षित है। अटूट विश्वास व समर्पण भाव ही इन्हें बचाने की सर्वश्रेष्ठ साधना है। अंत में, मैं यह कहना चाहूंगी कि सभी सुंदर वस्तुएं दिल से आती हैं और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से। इसलिए संबंध व दोस्ती के लिए हृदय रूपी उर्वरा अपेक्षित है। मन में कभी मलाल न आने दें। सो! चिर वसंत रहेगा और रिश्तों में प्रगाढ़ता आएगी, जिसे मिटाने का साहस ज़माने भर के लोगों में नहीं होगा। इसलिए मस्तिष्क को कभी हृदय पर हावी न होने दें, क्योंकि मस्तिष्क चिंतन-मनन करता है, जबकि हृदय में स्वीकार्यता भाव प्रमुख होता है। स्वार्थ पर आधारित रिश्ते कभी स्थाई नहीं होते, ज़रा-सी गलतफ़हमी रूपी खरोंच लगते ही टूट  जाते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆ लघुकथा – गणेश चौथ ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “गणेश चौथ”।  समाज में व्याप्त  भेदभावपूर्ण एवं नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆

☆ लघुकथा – गणेश चौथ

हर साल गणेश चौथ और अहोई व्रत मुझे कचोटते हैं इसलिए नहीं कि मेरे पुत्र नहीं है।  बल्कि इसलिए कि यदि व्रत रखने और पूजा पाठ करने से पुत्र को लंबी उम्र और सुखी जीवन मिलता है तो मैं अपनी बेटियों के लिए यह व्रत क्यों न करूँ। क्या मैं नहीं चाहती कि मेरी  बेटियाँ स्वस्थ तथा दीघार्यु हों? पुत्रियों के लिए क्या कोई व्रत – पूजा नहीं ? मैं मन ही मन कलप उठती।

गणेश चौथ का दिन था।  सासू जी सुबह से ही नहा-धोकर नयी साड़ी पहनकर तैयार हो गयीं। आज उनका गणेश चौथ का व्रत था। तिल के लड्डू, तिलकूट और भी बहुत कुछ घर में बन रहा था।

सासू जी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं – आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी ? नहीं या हाँ के उत्तर के बाद प्रश्न दग जाता – और आपकी बहू ? नहीं, बहू यह व्रत नहीं रखती। उसके लड़का नहीं है ना ? लड़के की माँ ही गणेश चौथ और अहोई का व्रत रखती है। ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। अब ये बातें मेरी समझदार होती बेटियों को भी सुनायी देने लगी थीं, जो मैं नहीं चाहती थीं।

तभी मैंने देखा कि मेरी छोटी बेटी आस्था अपनी दादी से उलझ रही है – दादी। लड़कों के लिए ही व्रत रखते हैं क्या ? लड़कियों के लिए कौन-सा व्रत रखा जाता है ?

अरे नहीं होता कोई व्रत, दादी झुंझलाकर बोलीं— लड़कियों के लिए भी कहीं व्रत रख जाता है क्या ?

पर क्यों नहीं रखते दादी ? – रुआँसी होती आस्था बोली |

अरे। हमें क्या पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो। बहुत पढ़ी-लिखीं हैं,  वही बताएंगी।

आस्था रोनी सूरत बनाए आँखों में प्रश्न लिए मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत लगाकर मैं बोली – ये व्रत, पूजा सब संतान के लिए होती है।

संतान मतलब ?

हमारे बच्चे – बेटे, बेटी सब।

मैंने देखा आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासू जी रात में गणपति जी की पूजा करने बैठीं। उन्होंने अपने बेटे को टीका लगाया और आरती उतारी। मैंने अपनी बेटियों अदिति और आस्था को भी वहाँ बैठाया। सुंदर-सा टीका लगाकर, अक्षत के दो दाने लगा दिए, आरती उतारी और बेटियों की दीर्घायु की कामना की। दीपक की लौ में उज्ज्वल चाँदनी-सी मुस्कान ने दोनों के चेहरे पर अनोखी सुंदरता भर दी। तिलकूट की सौंधी महक घर भर में पसर गयी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 30 ☆ हाइकु ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  हाइकू विधा में  दो कवितायेँ   ‘हाइकु ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 30 – साहित्य निकुंज ☆

☆ हाइकु 

[1]

हमारी हिंदी

मनभावन हिंदी

मिश्री सी लगे.

 

मन में बसी

हिंदी हिंदुस्तान की

रोम रोम में..

 

मीरा कबीरा

हिंदी है साहित्य

दोहा पदों में

 

पर्यावरण

छायी है हरियाली

मनमोहक.

 

झूमी डालियाँ

रंग बिरंगे फूल

बिखरी खुश्बू

 

चली हवायें

मदमस्त पवन

पुरवाई

 

खेती  किसानी

फसलें बो रहे है

मिला अनाज.

 

[2]

पर्यावरण

छायी है हरियाली

मनमोहक.

 

झूमी डालियाँ

रंग बिरंगे फूल

बिखरी खुश्बू

 

चली हवायें

शीतल मन्द मन्द

मनभावन

 

खेती  किसानी

फसलें बो रहे है

मिला अनाज.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 9☆ कविता – असुर और देव ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “असुर और देव.)

गत 11 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय पुस्तक मेला, प्रगति मैदान नई दिल्ली में डॉ राकेश चक्र जी की 100वीं पुस्तक “गाते अक्षर खुशियों के स्वर” बालगीत का लोकार्पण सुविख्यात गीतकार डॉ कुँवर बेचैन जी, सुविख्यात साहित्यकार डॉ दिविक रमेश जी, प्रसिद्ध गजलकारा तूलिका सेठ एवं ज्ञानगीता व अधिकरण प्रकाशन पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा दिल्ली के प्रबंधक श्री मुकेश शर्मा  आदि की उपस्थिति में सकुशल सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर अन्य साहित्यकारों और पाठकों की उपस्थिति भी रही। ई-अभिव्यक्ति की ओर से डॉ राकेश चक्र जी को हार्दिक बधाई।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 9 ☆

☆  असुर और देव ☆ 

प्रेम करता हूँ

उनसे भी

जो कपट ईर्ष्या द्वेष में

निस्तेज हैं

लवरेज हैं

मुझे

अब पाने की इच्छाएँ नहीं

खोने को कुछ शेष नहीं

खोल हैं रखे

मैंने कई पेज

उपकार के

प्यार के

सत्कार के

एक ऐसे

अखबार के

जिसमें है सब कुछ

सकारात्मक-सरलात्मक

आनन्द और शान्ति के गीत

छपने के

रीता घड़ा भरने के

सब कुछ लुटाकर

मैं हँसना चाहता हूँ

झरने-सा झरना चाहता हूँ

समय है कम

बहा दिए हैं सब गम

गंगा के पवित्र जल में

देख रहा हूँ मैं

सबमें ईश्वर

असुर और देवताओं में

क्योंकि भगवान कृष्ण

कहते हैं गीता में

बस दो ही जातियाँ

मनुष्य की

असुर और देव

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆ धड़कता अहसास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वाराव्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बुंदेलखंडी भाषा की चाशनी में लिपटा एक व्यंग्य “धड़कता अहसास”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆

☆ धड़कता अहसास ☆

भगतराम  बद्रीनाथ धाम की  यात्रा पर गए थे कल ही सकुशल लौटे, जैसे ही घर में प्रवेश किया प्रश्नों की झड़ी लग गयी। भाई पुरोहित जी जो हैं, कालोनी के  लोगों में इनकी अच्छी पैठ है। कम दक्षिणा में भी ग्रह  व गृह दोनों शान्ति करवा देते हैं।

सबकी एक ही शिकायत थी आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थे … ???

उन्होंने कहा वहाँ नेटवर्क नहीं आता है, तथा चार्ज करने की समस्या भी रही,  समझा भी तो करिए आप लोग,भगवान से सीधी मुलाकात करके आये हैं अब तो चुटकियों में आप सभी की समस्या यूँ निपट जायेगी जैसे……. कहते – कहते पंडित जी चुप हो गए।

जैसे क्या गुरूजी ……अकेले लड्डू खाय आए, कुछू परसाद भी लाएँ हैं या  कोई और बहाना …?  सुना है संगम भी नहाय आए, सबके लिए कुछ माँगा भगवान बद्दरीनाथ से?

भगतराम जी ने मुस्कुराते हए कहा   अवश्य माँगा वत्स …. *सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्ति-  – –

संगम सब को पार उतार देता है, यहीं तैरना सीखो और भव सागर पार करो, कुछ को सीधे मोक्ष भी देते हैं संगम के पंडे कहते हुए भगत राम जी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए  चुप हो गए।

सुवीर ने कहा बुन्देलखण्ड में कहावत है

*कुंआ की माटी*

*कुअई मैं लगत*

संगम के साथ

ज्ञान की गंगा

यत्न की यमुना

और सरस्वती विलुप्त होकर समाहित है पंडित जी ने कहा।

परम सत्य आदरणीय जय हो नर्मदा की पवित्रता,महानदी की स्वतंत्रता और ब्रह्मपुत्र का विस्तार आपकी  वाणी में समाहित है  भावेश ने कहा।

*सौ डंडी एक बुंदेलखंड़ी* किसी ने सही ही कहा है गुरुदेव सुवीर ने कहा।

अरे भाई  कहावते सुनाना छोड़ो अब, आराम करने दो गुरुदेव को   बिहारी काका ने कहा।

*ऐसो है आग को छड़को लडैया बिजली खों डरात* बोलते हुए पंडित जी ने सबको प्रणाम कर आगे के कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1

बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788

[email protected]

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