हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 8 ☆ दोस्ती क्या? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका  विचारणीय आलेख  “दोस्ती क्या?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 8 ☆

 

☆ दोस्ती क्या? ☆

 

प्यार, वफ़ा, दोस्ती के/सब किस्से पुराने हो गए/एक छत के नीचे रहते हुए/एक-दूसरे से बेग़ाने हो गए/ अजब-सा है व्याकरण ज़िन्दगी का/हमें खुद से मिले जमाने हो गए/यह फ़साना नहीं, हक़ीक़त है जिंदगी की,आधुनिक युग की….जहां इंसान एक-दूसरे से आगे बढ़ जाना चाहता है, किसी भी कीमत पर…. जीवन मूल्यों को ताक पर रख, मर्यादा को लांघ, निरंतर बढ़ता चला जाता है। यहां तक कि वह किसी के प्राण लेने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। औचित्य -अनौचित्य व मानवीय सरोकारों से उसका कोसों दूर का नाता भी नहीं रहता। रिश्ते-नाते आज कल मुंह छिपाए जाने किस कोने में लुप्त हो गए हैं।

प्यार, वफ़ा, दोस्ती अस्तित्वहीन हो गये हैं, क्योंकि संसार में केवल स्वार्थ का बोलबाला है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में चारों ओर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अविश्वास, संत्रास आदि का भयावह वातावरण सुरसा के मुख की भांति निरंतर फैलता जा रहा है तथा स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, परोपकारादि भावनाओं को अजगर की भांति लील रहा है।

इन विषम परिस्थितियों में संशय, संदेह व आशंका के कारण, केवल दूरियां ही, नहीं बढ़ती जा रहीं, मानव भी आत्म-केंद्रित हो रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी के मध्य पसरा मातम-सा सन्नाटा, अजनबीपन का अहसास, संवादहीनता का परिणाम है, जो मानव को संवेदन-शून्यता के कग़ार पर लाकर नितान्त अकेला छोड़ देता है और मानव एकांत की त्रासदी झेलता हुआ अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है। उसे कोई भी अपना नहीं लगता क्योंकि उसकी संवेदनाएं, अहसास, जज़्बात उसे मृत्तप्राय: प्रतीत होते हैं…किसी वे किसी दूसरे लोक के भासते हैं।

वह लौट जाना चाहता है, अतीत की स्मृतियों में….

जहां उसे बचपन की धमाचौकड़ी,मान-मनुहार,पल- प्रति पल बदलते मनोभावों की यादें आहत-विकल करती हैं। युवावस्था की दोस्ती एक-दूसरे पर जान लुटाने तथा मर-मिटने की कसमें, उसके अंतर्मन को कचोटती हैं। वह निश्छल प्रेम की तलाश में भटकता रहता है, जो समय के साथ नष्ट हो चुकी होती हैं। मानव उसे पा लेना चाहता है,जो कहीं नि:सीम गगन में लुप्त हो चुका होता है, जिसे पाना कल्पनातीत व असंभव हो जाता है। वे नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते, परंतु क्षितिज के उस पार मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु उसकी अंतहीन  तलाश सदैव जारी रहती है।

सुक़ून के चन्द पलों की तलाश में वह आजीवन भटकता रहता है, जहां उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है। वह स्वयं से बेखबर, अजनबी सम बनकर रह जाता है। वह मृग-मरीचिका सम भौतिक सुख- सुविधाओं की तलाश में निरंतर भटकता रहता है और एक दिन इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

काश! इंसान का अंतर्मन दैवीय गुणों से लबरेज़ से रहता और सहृदयता व सदाशयता को जीवन में धारण कर, अहं को शत्रु सम त्याग देता,तो विश्व में समन्वय,सामंजस्य व समरसता का सुरम्य वातावरण रहता। किसी के मन में किसी के प्रति शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता का भाव न रहता…चारों ओर शांति का साम्राज्य प्रतिस्थापित रहता। वह मौन को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार, नवनिधि सम संजो कर रखता व आत्मलीन रहता…. अंतरात्मा के आदेश को स्वीकारता। इस स्थिति में वह राग-द्वेष, स्व-पर से निज़ात पा लेता। उसे प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता। वह संत एकनाथ की भांति कुत्ते में भी प्रभु के दर्शन पाता और रोटी पर घी लगाकर उसे रोटी खिलाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ता। वह हर पल अनहद नाद की मस्ती में खोया अलौकिक आनंद को प्राप्त होता क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है …जीते जी मुक्ति पाना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 6 ☆ स्त्री क्या है? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “स्त्री क्या है ?”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 6  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ स्त्री क्या है ? 

 

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तों के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन.

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प आठवे # 8 ☆ स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! . . . समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  स्त्री भ्रूण हत्या जैसी एक सामाजिक विकृति पर विचारणीय आलेख “स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! . . .  समाज पारावरून . . . !”

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  आठवे # 8 ☆

 

☆ स्री भ्रूण हत्या  एक समाजविकृती ! ☆

आजकाल तरूण पिढी विवाह बद्ध झाल्यावर हम दो हमारा एक  असा विचार सर्रासपणे करताना आढळून येते.  मग  अशा वेळी  *आपला वंश पुढे नेण्यासाठी  आपले नाव लावणारा मुलगाच  आपल्याला हवा* अशी मानसिकता प्रत्येकाने  राजरोस पणे करून घेतली आहे.  उच्च शिक्षित समाजात याचे प्रमाण जास्त आहे. या साठी पैशाच्या बळावर गर्भ लिंग तपासणी करून योग्य ती खबरदारी घेण्याची चढाओढ आपापसात लागली आहे. अपत्य जन्माला घालणारी माता देखील कधी कधी स्वेच्छेने या प्रकरणी होकार देऊन दोषी ठरत आहे.  स्वार्थ साधू वृत्ती  असल्याने  मला  अमुक एक हवे आहे त्यासाठी मी वाट्टेल ते करायला तयार आहे हा दुराग्रह स्त्री भ्रूण हत्या समस्येचे मूळ बनला आहे.

मुलीला पणती मानण्यात धन्यता मानणारे स्वतःवर वेळ आली की  मुलाला जन्म देण्यात जास्त धन्यता मानतात.  आज समाजात *मुलगा झाला* या बातमीत सामावलेला  आनंद  आणि *मुलगी झाली * या बातमीतील खेद विसरून चालणार नाही. ही समाज मानसिकता बदलायला हवी.

गर्भातील  अपत्य जर स्त्री भ्रूण  आहे असे समजले तर तीला  गर्भातच नष्ट करण्यासाठी हजारो प्रयत्न केले जातात. यात समाज विकृती हे महत्वाचे कारण आहे  असे मला वाटते. जोपर्यंत  कुटुंब या प्रकरणात  दोषी ठरत नाही तोपर्यंत मुलगा हवा हा दुराग्रह समाजात पहायला मिळणार.  विवाह करताना जात, पात ,  धर्म  इत्यादी बंधने झुगारून जेव्हा आपण विवाह बंधन स्विकारतो तेव्हा च खर तर  एकमेकांनी शपथ घ्यायला हवी की  गर्भजल परीक्षण न करता  आम्ही  अपत्यास जन्म देऊ.  मुलगा  असो वा मुलगी  आम्ही तितक्याच  आत्मियतेने अपत्याचे पालन पोषण करू.

आज वैद्यकीय सेवेत असलेल्या ब-याच जणांनी या सेवेस व्यवसायाचे स्वरूप दिले आहे.  पैसा फैको नीट तमाशा देखो हा वाक्प्रचार दुर्दैवाने प्रत्येक  क्षेत्रात लागू पडतो  आहे. माणसाला माणूस पैशाच्या बळावर विकत घेतो आहे हे वास्तव स्वीकारण्याची वेळ आता आली आहे. गर्भपात  करणे,  गर्भलिंग तपासणी हे गुन्हे  आहेत हे मान्य असूनही कित्येक सुशिक्षित तो गुन्हा करून मोकळे होतात.  आज मी समाजाचा आहे  या ही पेक्षा माझ्या मुळे समाज आहे ही भावना  माणसाचं माणूस पण हिरावून नेते आहे.

“लेक द्यावी श्रीमंताघरी अन सून आणावी गरीबा घरची ” हा  विचार केव्हाच मागे पडला आहे.  एकटय़ाच्या  पगारात भागत नाही हे कारण पुढे करून भरमसाठ पैसे कमवायचे  आणि याच पैशाच्या जोरावर हवी तशी मनमानी करायची या वृत्ती मुळे आज मुलींची संख्या कमी होत चालली आहे. जातीत मुलगी मिळत नाही म्हणून परजातीय विवाहास मान्यता दिली जाते. पण तिथे ही मुलगा हवा  असा आग्रह दिसल्याने विचारांचे मागासले पण  या समस्येला  अधिक खतपाणी घालते.

समाजातील विविध ठिकाणी  मुलगी वाचवा म्हणून विविध  उपक्रम राबविले जात आहेत. पण कौटुंबिक पातळीवर मात्र *वंशाचा दिवा* कसा  आपल्या घरात तेवत राहिल या कडे लक्ष दिले जात आहे.  नास्तिक मनुष्य देखील मुलगा झाल्यावर देवदर्शन करायला जातो आहे. ही समाज विकृती बदलायची असेल तर प्रत्येकाने  स्वतःच्या कुटुंबापासून या चळवळीची सुरवात केली पाहिजे.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ♥ ब्राण्डेड-वर-वधू ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ब्राण्डेड-वर-वधू”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 6 ☆ 

 

ब्राण्डेड-वर-वधू

 

हर लड़की अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करती है, पर जल्दी ही, वह कहने लगती हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है? इसी तरह प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग में पत्र-पत्रिकाओं, रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।

 

नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सासकी एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं। यहाँ आकर मेरा व्यंग्य लेख भी व्यंग्य से ज्यादा एक सीरियस निबंध बनता जा रहा है। मेरे व्यंग्यकार मन में विवाह की इस समस्याका समाधान ढूँढने का यत्न किया । मैंने पाया कि यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू माँ से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिन्दगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।

अब जब वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग की बात आती है तो मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराने की। यूँ तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। माधुरी दीक्षित जी ने तो एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला रखा था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है, पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है। यूँ तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर हमारे समय में जब से ब्राण्डेड `हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदी हैं पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम, कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है। और तो और स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं।

हाल ही एक समाचार पढ़ा कि अमुक ट्रेन को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिला है। मुझे उस ट्रेन में दिल्ली तक सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहाँ विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे, मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है, तो कोई समुद्र में। हाल ही भोपाल में एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं, उधार लेकर भी बड़ी शान शौकत से बहू लाते हैं, विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी। लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा। भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा।

इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन पर लेबल लगाने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही कोई व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूँ कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ, पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका व्रत रखेगें।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆ खाके ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “खाके”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #8 ☆

 

☆ खाके ☆

 

गोपाल ‘खाके’ फिल्म के विरोध के लिए रूपरेखा बना रहे थे. किस तरह फिल्म के पोस्टर फाड़ना है ? कहाँ  कहाँ विरोध करना है ? किस किस को ज्ञापन देना है ? किस साइट पर क्या क्या लिखना है ? ऐसी अधार्मिक फिल्म का विरोध होना ही चाहिए जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाए.

तभी ‘खाके’ फिल्म के निर्माता ने प्रवेश किया.

“अरे! आप.” गोपाल चकित होते हुए बोले, “आइए बैठिए, मोहनजी”, कहते हुए उन्होंने नौकर से इशारा किया. वह चाय-पानी रख कर चला गया.

मोहनजी कुछ बोलना चाहते थे. उन्होंने मेरी ओर देखा.

“ये अपने ही आदमी है,” गोपाल ने आश्वस्त किया, “आप इन के सामने निश्चिन्त हो कर अपनी बात कह सकते हैं.”

“अच्छा जी,” कहते हुए मोहनजी ने एक सूटकेस सामने रख दिया. “आप ने बहुत अच्छा प्रचार किया है. आप ‘खाके’ फिल्म का जितना विरोध करेंगे उतनी ही यह फिल्म फेमस होगी.

“आप का आयडिया अच्छा है. इसलिए आप इस के विभिन्न दृश्यों की जम कर आलोचना कीजिए. बताइए कि इस में क्या-क्या खराब है?”

यह सुन कर मैं चकित रह गया. मेरे मन में मंथन चलने लगा. मेरा ध्यान भटक गया.

एक ओर सूटकेस में पड़े नोट मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे, वहीं दूसरी ओर गोपाल का यह रूप मुझे चकित कर रहा था.

“वाह! क्या तरीका निकाला है आप ने, “मोहनजी कहे जा रहे थे, “आप का भी प्रचार हो गया और मेरी फिल्म भी हिट हो गई.”

यह सुन कर मैं ‘खाके’ फिल्म की सार्थकता पर विचार करने लगा. फिल्म सार्थक है या ये लोग ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 8 – कॅनव्हास…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। यह सच है कि अक्सर हमारे  जीवन  के रंग हृदय के कॅनव्हास से नहीं उतर पाते और प्रकृति के रंग उस पर चढ़ नहीं पाते।   आज प्रस्तुत है उनकी  एक संस्मरणात्मक भावुक कविता  “कॅनव्हास…!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #8 ☆ 

 

☆ कॅनव्हास…! ☆ 

 

गेल्या कित्येक वर्षात

माझ्या कॅनव्हास वर

पावसाचं चित्रंच उमटलं नाही…

का कोणास ठाऊक

आता पहील्या सारखा पाऊस

रंगामध्ये दाटूनच येत नाही

कितीतरी वेळ मी

कॅनव्हास समोर ठेवून

त्याच्याकडे एक टक पहात रहातो

आता तर

कॅनव्हास वर श्वास घेणारे रंग ही

पाऊस म्हटलं तरी

ब्रश वर गोठायला लागलेत कारण…

माझ्या बापाला

माझी माय गेल्यावर रडताना पाहीलं

आणि तेव्हाच काय तो हवा तेवढा

पाऊस नजरेत साठवला

त्या वेळी त्या पावसाचं चित्र

काळजाच्या इतक्या खोलवर जाऊन

उमटलं की तेव्हापासून

हा बाहेर कोसळणारा पाऊस

कॅनव्हास वर कधी उतरवावासाच वाटला नाही

आणि काळजातल्या त्या पावसा समोर

रंगाचा हा पाऊस कॅनव्हॅसवर

कधी बोलकाच झालाच नाही….!

 

© सुजित कदम

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 7 – गुरु पर्व पर विनम्र नमन….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  गुरु पर्व  पर प्रस्तुत है एक कविता  “गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 7 ☆

 

☆ गुरु पर्व पर विनम्र नमन…..  ☆  

 

क्या कहें आपको, अध्यापक

टीचर, शिक्षक जी, या गुरुवर

या कहें, शिक्षकों के शिक्षक

दीक्षा दानी, हे पूण्य प्रवर।

 

क, क-कहरा से शुभारम्भ

ज्ञ, ज्ञान प्राप्ति ,करवाते हो

य, योग, गुणनफल, गुण अनेक

भ, भाग-बोध सिखलाते हो।

 

जीवन के लक्ष्य प्राप्ति में, गुरुवर

सहचर तुम बन जाते हो

बाधाओं से,  संघर्ष करें

साहस के मंत्र, सिखाते हो।

 

कहते हैं कि, है शब्द – ब्रह्म

तो, ब्रह्म ज्ञान के, हो दाता

गुरु-गोविंद में से पूज्य कौन

गुरुवर ही है, विद्या दाता।

 

हो ज्ञानी, तुम सम्माननीय

हे वंदनीय, है नमन् तुम्हें

अभिलाषा है, अनवरत,गुरु-

मुख से, अमृत रसधार बहे।

 

आशीष आप के बने रहें

गुण-ज्ञान की, प्रीत फुहार रहे

सद्भाव, शांति, करुणा, मन में

जन-जन से, मधुमय प्यार रहे।

 

है नमन् तुम्हें, सादर प्रणाम

शिक्षक गुरुजन का,अभिनंदन

अन्तर्मन, भक्ति भाव से,शीष

झुका कर, करते हैं, वन्दन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 8 – पंढरीची वारी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  पंढरपुर  वारी  से संबन्धित  स्मृतियाँ।  उनकी स्मृतियाँ अनायास ही हमें याद दिलाती हैं कि समय के साथ संस्कार जो हमने विरासत में पाये हैं आधुनिकता, व्यावहारिक एवं स्वास्थ्य कारणों से बदलते जाते हैं। किन्तु,  आस्थाऔर मान्यताएं बनी रहती हैं।  सुश्री प्रभा जी ने इस विषय पर बड़ी ही बेबाकी से अपनी राय रखी हैं एवं मैं भी उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। 

आज प्रस्तुत है उनका यह पठनीय आलेख “पंढरीची वारी ”।   

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 8 ☆

 

☆ पंढरीची वारी ☆

 

वर्षानुवर्षे लोक श्रद्धेने वारीला जातात, इतका काळ ही प्रथा टिकून आहे हे खरोखर विलक्षण आहे, लहानपणापासून आषाढी कार्तिकी एकादशी चा उपवास केला जातो, आमचं ग्रामदैवत सोमेश्वर त्यामुळे घरात सगळे शिवभक्त, नाथपंथिय असल्याने गोरक्षनाथाची बीज आणि शिवरात्र हे घरात होणारे उत्सव! माहेरी कोणी वारीला गेल्याचं स्मरत नाही…नसावंच!

सासरी आल्यावर सासूबाई विठ्ठल भक्त, दर एकादशी चा उपवास करणा-या धार्मिक, सासरे पालखीच्या दिवसात वारक-यांना जेवण देत ती प्रथा मोठे दीर जाऊ बाई अजूनही पाळतात, दोनशे-अडीचशे वारकरी जेवायला येतात !

माझ्या मनातही विठ्ठलभक्ती आहे लग्नानंतर !….संत परंपरेचा आदर आहे पूर्वीपासूनच!

वीस वर्षांपूर्वी एक मैत्रीण म्हणाली, आपण आळंदी ते पुणे वारी बरोबर येऊ चालत मी हो म्हटलं, पहाटे स्वारगेटहून बसने आळंदीला गेलो आणि वारीत सामिल झालो…. प्रवासात कोणी कोणी खिचडी, पोहे असं काही खायला देत होते ते खात होतो फक्त पाण्याची बाटली बरोबर होती, संध्याकाळी पुण्यात शिवाजीनगर ला पोहोचलो, तिथून रिक्षा पकडून मैत्रीणीच्या घरी गेलो, तिच्याकडे पिठलंभात करून खाल्ला! माझे पाय सुजले होते चालल्यामुळे, त्या मैत्रीणीने तेल गरम करून माझे पाय चोळून  दिले ही तिची सेवा चिरस्मरणात राहणारी…वारीमुळे निर्माण झाली ही मैत्रीतल्या कृतज्ञतेची भावना! वारीतला तो अनुभव- आळंदी ते पुणे… छान होता, पण फार भक्तिभावाने किंवा भारावलेपणाने ओथंबलेला नव्हता!

आता कालच एका मैत्रिणीचा फोन झाला ती आळंदीच्या पालखीबरोबर चालत पंढरपूर ला गेली…वारीतले फोटो, भारावलेपण….. मला स्वतःला आता  यापुढे कधीही वारीत जायची इच्छा नाही…पण जे जातात त्यांच्या स्टॅमिन्याचं विशेषतः साठी ओलांडलेल्यांचं कौतुक आहे, आत्ता एका तरूण मुलाला विचारलं ,”वारी बद्दल तुझं मत काय? “तर तो म्हणाला ” दोन दिवस पुण्यातले रस्ते बंद होतात, वाहतूकीत आडथळे एवढंच मत आहे बाकी काही नाही”, मी आत्ता सोसायटीच्या कृष्णमंदिरात बसलेय आणि हा तरूण अनोळखी, मंदिरात दर्शनाला आलेला, पुजा-याशी मराठीत बोलत असल्यामुळे मी त्याच्याशी बोलले! वारी एक आश्चर्य, अस्मिता…. पण मला स्वतःला वारीचं विशेष आकर्षण नाही, ईश्वरवादी, आस्तिक असूनही!

देह त्यागताना

डोळाभर दिसो

आत्म्या मध्ये वसो

विठ्ठलचि॥

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #8 – सगुन ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सगुन ”। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 8  ☆

 

☆ सगुन ☆

 

सभ्रांत परिवार बड़ा घर हर तरफ से सभी चीजों से परिपूर्ण। वहाँ पर सिर्फ शासन दादी माँ का। किसी को कुछ देना, किसी के यहाँ जाना, किसी के यहाँ आना, क्या खाना, क्या बनाना सब कुछ दादी माँ ही तय करती थी। दादाजी ने सब कुछ उन्हीं पर छोड़ रखा था। 3 – 3 बेटे – बहुओं का घर। बच्चे भी बहुत। काम वाली बाई का आना – जाना लगा रहता था। दूर से ही उसको सामान फेंक कर देना जैसे दादी की दिनचर्या बनी हुई थी। बाई की बहुत ही सुंदर बिटिया अपनी माँ के साथ आ जाती थी। दादी उसे भी रोटी फेंक कर देती थी। सब कुछ देती परन्तु छुआछूत की भावना बहुत भरी हुई थी। बाई की बिटिया जिसका नाम सगुन था हमेशा कहती अपनी माँ से कि “क्यों हमसे इतना घृणा करती है”

माँ हमेशा एक ही जवाब देती “बड़े लोग हैं बिटिया यहाँ ऐसे ही व्यवहार होता है।” दिन जाते गए सगुन भी बड़ी होने लगी। माँ के साथ अब काम में भी हाथ बंटा लेती थी। उसके काम करने के तरीके से दादी थोड़ा प्रसन्न रहती थी। कभी सिर पर तेल लगाना, कभी पाँव दबाना बहुत ही लगन से करती थी। परन्तु, दादी यह सब काम कराने के बाद स्नान करती थी। सगुन के मन में एक लकीर बन गई थी ‘कि हम सब काम करते हैं साफ-सफाई से रहते भी हैं पर फिर भी हम से इतनी नफरत क्यों हैं?’ इसका जवाब किसी के पास नहीं था। सगुन बच्चों के साथ खेलती पर किसी को छूने या उसके साथ बैठने का अधिकार नहीं था।

एक दिन की बात है घर के आँगन पर सगुन अपना बैठे-बैठे खेल रही थी। घर के बाकी सदस्य लगभग सभी एक पारिवारिक कार्यक्रम में बाहर गए हुए थे। दादी धूप में खाट पर बैठी कुछ पढ़ रही थी। अचानक उनको सिर दर्द और चक्कर आने लगा। आँखें ततरा गईं पर बोल नहीं पा रही थी। सगुन ने देखा दादी गिर पड़ी है और दौड़ कर नल से पानी डिब्बे में लाकर उनके ऊपर छिड़कने लगी और जल्दी से सिर मलने लगी। पानी का घूंट जाते ही दादी जी को कुछ अच्छा लगा। सगुन पास पड़ोस सबको बुलाकर ले आई। तुरन्त अस्पताल ले जाया गया। 3-4 दिन बाद जब दादी घर आई सभी सदस्यों ने दादी के ठीक होने पर प्रसाद मिठाई बाँटना चाहा और सब लेकर आए। आसपास सभी खड़े थे।

दादी की कड़क आवाज आई “सगुन को भुलाकर लाओ”। सभी ने सोचा कि सामान को शायद सगुन हाथ लगाई है अब तो खैर नहीं पर कोई कुछ ना बोल सके। सगुन डरते- डरते अपनी माँ के साथ आई। दादी ने कहा आज से हमारे घर में सभी शुभ काम सगुन के हाथों होगा।

सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे समझ आने पर और जोरदार तालियों से सगुन के ‘शगुन’ बांटने का काम होने लगा। सगुन को कुछ समझ नहीं आया पर आज बहुत खुश थी। अपने को सब के बीच पाकर माँ भी मुस्कुरा उठी। खुशी से आंसू बहने लगे। अब सगुन “शगुन” बन गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #8 – त्याचा गुरू ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  कविता  “ त्याचा गुरू”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #  8 ☆

? त्याचा गुरू ?

 

वाट सारुनीया मागे चालला हा वाटसरू

सोबतीला नाही कुणी त्याचे पाय त्याचे गुरू

 

हिरवळीचा मी पांथ कधी काट्यामध्ये फिरू

वेल कोवळ्या फुलांची तिला सावरून धरू

 

सुख पुढे नेण्यामध्ये कधी यशस्वी ही ठरू

अपयशाचे गारूड त्याला मातीमध्ये पुरू

 

जेव्हा  सूर्य माथ्यावर तेव्हा  छाया देती तरू

पंख वाटतात फांद्या त्याच्या कुशीमध्ये शिरू

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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