मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सातवे # 7 ☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . !” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प सातवे  # 7 ☆

 

☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆

 

*जमाना बदललाय भाऊ* असं म्हणत प्रत्येक पिढीने सोयीस्कर रित्या  आपले रहाणीमान बदलले.  चुकांचे समर्थन करण्यासाठी नवे साधन मिळाले. सुनेने सासू ला आत्याबाई सोडून  आई म्हणायला सुरवात केली. मामंजीचे पप्पा झाले. पण नात्यातला संघर्ष होतच राहिला. जनरेशन गॅप तशीच राहिली. फक्त तिचे स्वरूप बदलले.

सासुबाई  नऊवारी साडीतून पंजाबी ड्रेस मध्ये  आल्या.  मामंजी धोतरातून सुट बूट, सलवार कुडता  अशा पेहरावात  आले. नातवंडे मुलांच्या  इच्छेने वाढू लागली.  वडील धा-यांनी नातवंडांचे फक्त लाड करायचे  आणि वेळप्रसंगी  आजी आजोबांनी नातवंडांचा संभाळ करायचा एवढ्या परीघात नाती फिरू लागली.

मौज मजा,  ऐषोराम,  एकमेकांवर केलेला खर्च यात नात्याचा हिशोब होऊ लागला. रक्ताची नाती गरजेपोटी  उपयोगात  आणण्याचा नवा प्रघात सुरू झाला आणि ग्रामीण भागातील समाज पारावर  पिंपळपारावर खळबळ माजली. वृद्धाश्रम  आणि पाळणाघर यांना काळाची गरज आहे  अशी शहरी लोकांनी दिलेली मान्यता गावातील वृद्धांना घातक ठरू लागली.  गावातल्या गावात एकाच कुटुंबातील दोन पिढ्यांची दोन घरे झाली.  शेतातल घर  अर्थातच म्हाताऱ्याच्या वाट्याला आले.  आणि गावातील घर दुमजली होऊन दोन भाऊ स्वतंत्र दोन मजले करून वरती खाली राहू लागले.  शेती करण्यासाठी पगारी मजूर बोलावताना जुनी पिढी हळहळली पण त्याच वेळेस  आलेले  उत्पन्न वाटून घेताना  उगाचच कुरकुरली.

समाज पारावर देखील  अनेक बदल घडत आहेत. माणूस माणसापासून दूर जातो आहे.  आणि याला कारणीभूत ठरला आहे तो पैसा.  बदलत्या जमान्यात *माणूस  ओळखायला शिकले पाहिजे*  हेच वारंवार कानी पडते. हा माणूस  ओळखायच्या स्पर्धेत  आपण मात्र  कंपूगिरी करत  आहोत.  आपल्या  उपयोगी पडणारा तो आपला.  गरज सरो नी वैद्य मरो या  उक्ती प्रमाणे आपल्या माणसाची व्याख्या बदलते आहे.  बदलत्या काळात जात पात धर्म भेदभाव नष्ट होत  असले तरी  आर्थिक विषमता  हे मूळ माणसामाणसात प्रचंड दरी निर्माण करीत आहे. ही विघातक दरी जनरेशन गॅप पेक्षा ही विनाशकारी आहे.

आपण सर्व जण ज्या मार्गाने जात  आहोत त्या मार्गावर वाडवडिलांचे आशिर्वाद, संस्कार  अभावानेच आढळतात. पण महत्व कांक्षी विचारांना पुढे करून स्वार्थाला दिलेले  अवाजवी महत्त्व माणसाला  एखाद्या वळणावर तो एकटा  असल्याची जाणीव करून देत आहे.

माणूस किती शिकला? काय शिकला? यापेक्षा तो आर्थिक दृष्ट्या स्वावलंबी आहे का याची चर्चा माणसातला  आपलेपणा नष्ट करते. बसा जेवण करूनच जा असा  आग्रह करणारे  आज फालतू कारणे शोधून बाहेर हाॅटेलमध्ये स्नेहभोजनाचे जंगी बेत  आयोजित करतात यातून व्यवहार सांभाळत पुढे जायचे हा कानमंत्र  एकमेकांना देत ही कंपूगिरी समाजात  एकमेकांना धरून रहाते.

मन दुखावले की नाती संपली. भुमिका बदलल्या. पात्रे बदलली. पैसा सोबत  असला की माणसांची गरज नाही. पैशाने माणूस विकत घेता येतो हा विचार करत  सर्व जीवन प्रवास चालू आहे.  संवाद माध्यमातून प्रबोधन करणारी पिढी समोरासमोर आली तरी  ओळख दाखवताना दहा वेळा विचार करून ओळख दाखवते अशी  सद्य परिस्थिती आहे.  नवीन पिढीला  आर्थिक दृष्ट्या स्वयंपूर्ण करून देताना  आपण आपल्याच लेकरांना चार भिंतीची ओळख करून देतो पण त्या भिंतीवर  असणाऱ्या छप्पराचे ,  त्या चार कोनाचे कौटुंबिक महत्त्व सांगायला विसरतो.

नव्या वाटेने चालताना  जुन्या आठवणींना उजाळा देणारे प्रसंग घडतात. तेव्हा  आपली माणसे  आपल्या सोबत  असावीत.  नव्या जमान्यात वावरताना  आपण कुठे चाललो आहोत याचा विचार करण्याची वेळ आली आहे.  आपला जीवनप्रवास ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत व्हायला हवा  इतके जरी  आपण ठरवले तरी मला वाटत  आपण माणसांना घेऊन, माणसासोबत  आपला जीवन प्रवास सुरू ठेऊ. होय ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत.

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अमीर बनाने का साफ्टवेयर ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ 

 

☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆

 

युग इंटरनेट का है।सब कुछ वर्चुएल है. चांद और मंगल पर भी लोग प्लाट खरीद और बेच रहे है. धरती पर तो अपने नाम दो गज जमीन नहीं है, गगन चुम्बी इमारतों में, किसी मंजिल के किसी दडबे नुमा फ्लैट में रहना महानगरीय विवशता है, पर कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरजाल के जरिये दूसरी दुनियाँ की राकेट यात्राओं के लिये अग्रिम बुकिंग हो रही है, इस वर्चुएल दुनियां में इन दिनों मैं बिलगेट्स से भी बडा रईस हूँ.

हर सुबह जब मैं अपना ई मेल एकाउण्ट, लागइन करता हूं, तो इनबाक्स बताता है कि कुछ नये पत्र आये है. मैं उत्साह पूर्वक माउस क्लिक करता हूँ, मुझे आशा होती है कि कुछ संपादकों के स्वीकृति पत्र होगें, और जल्दी ही में एक ख्याति लब्ध व्यंग्यकार बन जाऊंगा, पत्र पत्रिकायें मुझ से भी अवसर विशेष के लिये रचनाओं की मांग करेंगे. मेरी मृत्यु पर भी जाने अनजाने लोग शोक सभायें करेंगे, शासन, मेरा एकाध लेख, स्कूलों की किसी पाठ्यपुस्तक में ठूंस कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा, हो सकता है मेरे नाम पर कोई व्यंग्य अलंकरण बगैरह भी स्थापित हो जावे. आखिर यही सब तो होता है ना, पिछले सुप्रिसद्व व्यंग्य धर्मियों के साथ।

पर मेरी आशा निराशा में बदल जाती है, क्योंकि मेल बाक्स में साहित्यिक डाक नहीं, वरन अनजाने लोगो की ढेर सी ऐसी डाक होती है, जिससे में वर्चुएली कुछ और रईस बन जाता हं.

मुझे लगता है कि दोहरे चरित्र और मल्टिपल चेहरे की ही तरह ई मेल के इस जमाने में भी हम डाक के मामले में दोहरी व्यवस्था के दायरे में है. अपने विजिटिंग कार्ड पर, पत्र पत्रिका के मुख पृष्ठ पर, वेब एड्रेस और ई मेल एड्रेस लिखना, स्टेटस सिंबल मात्र बना हुआ है. जिन संपादको को मैं ई मेल के जरिये फटाफट लेख भेजता हूँ, उनसे तो उत्तर नहीं मिलते, हाँ जिन्हें हार्ड प्रिंट कापी मैं डाक से भेजता हूँ, वे जरूर फटाफट छप जाते हैं, मतलब साफ है, या तो साफ्टवेयर, फान्टस मिस मैच होता है, या मेल एकाउंट खोला ही नहीं जाता क्योंकि पिछली पीढी के लोगो ने पत्रिका का चेहरा सामयिक और चमकदार बनाने के लिये ई मेल एकाउण्ट क्रियेट करके उसे मुख पृष्ठ पर चस्पा तो कर लिया है, पर वे एकाउण्ट आपरेट नहीं हो रहे. वेब साईट्स अपडेट ही नहीं की जाती, हार्ड कापी में ही इतनी डाक मिल जाती है कि साफ्ट कापी खोलने की आवश्यकता ही नहीं पडती।ई सामग्री अनावरित, अपठित वर्चुएल रूप में ही रह जाती है.

सरकारी दफ्तरों में पेपर लैस आफिस की अवधारणा के चलते इन दिनों प्रत्येक जानकारी ई मेल पर, साथ ही सी.डी.पर और त्वरित सुविधा हेतु हार्ड कापी पर भी बुलाते है. समय के साथ चलना फैशन है.

यदि मेरे जैसा कोई अधिकारी कभी गलती से, ई मेल पर कोई संदेश अपने मातहतो को प्रेषित कर, यह सोचता है कि नवीनतम तकनीक का प्रयोग कर सस्ते में, शीध्रता से, कार्य कर लिया गया है, तो उसे अपनी गलती का आभास तब होता है, जब प्रत्येक मातहत को फोन पर अलग से सूचना देनी पडती है, कि वे कृपया अपना ई मेल एकाउण्ट खोलकर देखें एवं कार्यवाही करें.

ई वर्किग का सत्य मेरे सम्मुख तब उजागर हुआ, जब मेरे एक मातहत से प्राप्त सी.डी. मैने अपने कम्प्यूटर पर चढाकर पढनी चाही. वह पूर्णतया ब्लैंक थी. पिछले अफसर के कोप भाजन से बचने के लिये, कम्प्यूटर पर जानकारी न बनने पर भी, वे लगातार कई महीनों से ब्लैंक सी.डी. जमा कर देते थे. और अब तक कभी पकडे नहीं गये थे. कभी किसी बाबू ने कोई पूछताछ करने की कोशिश की तो सी.डी. न खुलने का, साफ्टवेयर न होने या सी. डी. करप्ट हो जाने का, वायरस होने वगैरह का स्मार्ट बहाना कर वे उसे टालू मिक्चर पिला देते थे. ई गर्वनेंस का सत्य उद्घाटित करना हो तो पांच-दस सरकारी विभागों की वेब साईटस पर सर्फिग कीजिये. नो अपडेट… महीनों से सब कुछ यथावत संरक्षित मिलेगा अपनी विरासत से लगाव का उत्कृष्ट उदाहरण होती हैं ये साइट्स.

सरकारी वर्क कल्चर में आज भी ई वर्किग, युवा बडे साहब के दिमाग का फितूर माना जाता है.  अनेक बडे साहबों ने पारदर्शिता एवं शीघ्रता के नारे के साथ, पुरूस्कार पाने का एक साधन बनाकर, प्रारंभ करवाया। हौवा खडा हुआ विभाग का वेब पेज बना. पर साहब विशेष के स्थानांतरण के साथ ही ऐसी वेब साईट्स का हश्र हम समझ सकते हैं.

कुछ समझदार साहबों ने आम कर्मचारी की ई अज्ञानता का संज्ञान लेकर विभाग के विशिष्ट साफ्टवेयर, विशेष प्रशिक्षण, एवं कम्प्यूटर की दुनियाँ में तेजी से होते बदलाव तथा कीमतों में कमी के चलते, कमाई के ऐसे कीर्तिमान बनाये, जिन पर कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता।मसला ई गर्वनेंस का जो है।बौद्विक साफ्टवेयर कहाँ, कितने का डेवेलेप हो यह केवल बडे, युवा साहब ही जानते है.

अस्तु, जब से मैने एक नग ब्लाग बनाकर अपना ई मेल पता सार्वजनिक किया है, मैं दिन पर दिन अमीर होता जा रहा हूं, वर्चुएल रूप में ही सही. गरीबी उन्मूलन का यह सरल, सुगम ई रास्ता मैं सार्वजनिक करना चाहता हूँ.  इन दिनों मुझे प्रतिदिन ऐसी मेल मिल रही है. जिनमे मुझे लकी विनर, घोषित किया जाता है. या दक्षिण अफ्रीका के किसी एड्वोकेट से कोई मेल मिलता है, जिसक अनुसार मेरे पूर्वजों में से कोई ब्लड रिलेशन, एअर क्रेश में सपरिवार मारे गये होते  मेरी संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार यह पढकर मुझे गहन दुख होना चाहिये, जो होने को ही था, कि तभी मैने मेल की अगली लाइन पढी.  मेल के अनुसार अब उनकी अकूत संपत्ति का एकमात्र स्वामी मैं हूँ, और एडवोकेट साहब ने बेहद खुफिया जांच के बाद मेरा पता लगाकर, अपने कर्तव्य पालन हेतु मुझे मेल किया है. और अब लीगल. कार्यवाहियों हेतु मुझ से कुछ डालर चाहते हैं.

मैं दक्षिण अफ्रीका के उस समर्पित कर्तव्य निष्ठ एड्वोकेट की प्रशंसा करता हुआ अपने गांव के उस फटीचर वकील की बुराई करने लगा, जो  गाँव के ही पोस्ट आफिस में जमा मेरे ही पैसे, पास बुक गुम हो जाने के कारण, मुझे ही नहीं दिलवा पा रहा है. यह राशि मिले तो मैं अफ्रीका के वकील को उसके वांछित डालर देकर उस बेहिसाब संपत्ति का स्वामी बनूं, जिसकी सूचना मुझे ई मेल से दी गई है. इस  पत्र के बाद लगातार कभी दीवाली, ईद, क्रिसमस, न्यूईयर आदि फेस्टिवल आफर में, कभी किसी लाटरी में, तो कभी किसी अन्य बहाने मुझे करोडों डालर मिल रहे हैं, पर उन्हें प्राप्त करने के लिये जरूरी यही होता है कि मैं उनके एकाउंट में कुछ डालर की प्रोसेसिंग फीस जमा करूँ.  मैं गरीब देश का गरीब लेखक, वह नहीं कर पाता और गरीब ही रह जाता हूँ तो इस तरह, नोशनल रूप से मैं इन दिनों बिल गेट्स से भी अमीर हूँ अपने एक अदद, फ्री, ई मेल एड्रेस के जरिये.

जब मैंने ई मेलाचार के इस पक्ष को समझने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि ई मेल एड्र्सेस, खरीदे बेचे जाते हैं, कोई है जो मेरा ई मेल एड्र्स भी बेच रहा है।स्वयं तो उसे बेचकर अमीर बन रहा है, और मुझे मुर्गा बनाने के लिये, अमीर बनाने का प्रलोभन दिया जा रहा है।अरबों की आबादी वाली दुनियां में 2-4 लोग भी मुर्गा बन जाये तो, ऐसे मेल करने वालों को तो, बेड बटर का जुगाड हो ही जायेगा ना, हो ही जाता है.

अब मुझे पूर्वजों के अनुभवों से बनाई गई कहावतों पर संशय होने लगा है. कौन कहता है कि ’’लकडी की हांडी बार-बार नहीं चढती ’’ ? कम से कम अमीर बनाने के ये मेल तो यही प्रमणित कर रहे है, अब मैं यह भी समझने लगा हूं कि मैं स्वयं को ही बेवकूफ नहीं समझता.  मेरी पत्नी, सहित वे सब लोग भी जो मुझे इस तरह के मेल कर रहे है, मुझे विशुद्व बेवकूफ ही मानते हैं, वे मानते हैं कि मै उनके झांसे में आकर उन्हें उनके बांधित ’ डालर ’ भेज दूंगा. पर मैं इतना भी बेवकूफ नहीं हूँ मैंने वर्चुएल रईसी का यह फार्मूला निकाल लिया है, और बिना एक डालर भी भेजे, मैं अपनी बर्चुएल संपत्ति  एकत्रित करता जा रहा हूँ, तो आप भी अपना एक ई मेल एकांउट बना डालिये ! बिल्कुल फ्री, उसे सार्वजनिक कर डालिये. और फिर देखिये कैसे फटाफट आप रईस बन जाते है. वर्चुएल रईस.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆ फिर वही ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “फिर वही”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆

 

☆ फिर वही  ☆

 

रात के १२ बजे थे.  गाड़ी बस स्टैंड पर रुकी.

मेरे साथ वह भी बस से उतरा, ” मेडम ! आप को कहाँ जाना है ?”

यह सुन कर मुझे गुस्सा आ गया,”उन के पास” मैंने गुस्से में पुलिस वाले की तरफ इशारा कर दिया.

बस स्टैंड पर पुलिस वाला खड़ा था.

मैं उधर चली गई औए वह खिसक लिया.

फिर पुलिस वाले की मदद से मैं अपने रिश्तेदार के घर पहुँची.

जैसे ही दरवाजा खटखटाया, वैसे ही वह महाशय मेरे सामने थे, जिन्हें मैंने  गुंडा समझ लिया था. उन्हें देख कर मेरी तो बोलती ही बंद हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 7 – आकार…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “आकार…!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #6☆ 

 

☆ आकार…!☆ 

 

कुभाराचं ते मातीची भांडी घडविणारं चाक मला कायमच जवळच वाटत गेलं.   फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देताना त्याचा हात चुकत नाही पण त्याच्या आयुष्याचा आकार  मात्र नेहमीच चुकत गेला. हे अस का होतं? परंपरागत व्यवसाय स्विकारताना त्याच्या  आयुष्याचं मातेरं का व्हावं?

त्याचं  आख्खं आयुष्य गेलं ह्या फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देण्यात पण हे चाक कधी त्या कुंभाराला  हवं तसं फिरलंच नाही. आणि परिस्थितीला हवा तसा आकार त्याला  कधी देताच आला नाही.

या कुंभाराची लेकरं लहान असताना, त्यांची कित्येक स्वप्न त्याने, नाईलाजास्तव, प्रापंचिक  अडचणींच्या,

पायवाटेवर  चिखलात तुडवताना मी पाहिली आहेत.  तो कुंभार मी कवी. तो निर्मिती करत गेला आणि त्याची तुटपुंजी कमाई पहाताना मी हळवा होत गेलो.

आणि त्या कुंभाराच्या सुखस्वप्नांच्या चिखलाची त्यांच्या साठीच नव नवी हवी तशी  विविध आकाराची भांडी तो बनवत गेला. त्याचं जगण त्याच्या स्वप्नांना आकार  देत गेलं .

तो कुंभार  आता थकलाय. इतकी वर्षे संभाळून ठेवलेल्या परिस्थितीचा घडा आता, हळूहळू पाझरू लागलाय.त्याच्या  पायाखालचा चिखलही आता पहील्या पेक्षा कमी झालाय कारण आता…

त्याच्या लेकरांनी आपआपल्या स्वप्नांचा चिखल

आपआपल्या पायाखाली तुडवायला सुरवात केलीय

पुन्हा नव्याने परिस्थितीला, त्यांना हवा तसा आकार देण्यासाठी….!

हे वास्तव मला जाणवलं. ते मनात रेंगाळत  असतानाच माझ्याही मनात  एका कवितेने  आकार घेतला. .

तोपर्यंत तो कुंभार त्याचा जीवनप्रवास साकार झाला होता. मातीच्या भांडयान कलेचा आधार घेतला होता. त्याची मुलही मातीची भांडी बनवतात. वापरण्यासाठी नाही तर सिरॅमिक पॉट शोभिवंत फुलदाणी म्हणून. . . . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 7 – पाऊस ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  वर्षा ऋतु से संबन्धित कवितायें और उनसे जुड़ी हुई यादें। निःसन्देह यादें अविस्मरणीय होती हैं।  विगत अंक में सुश्री प्रभा जी ने “रिमझिम के तराने” शीर्षक से वर्षा ऋतु और उससे संबन्धित साहित्यिक संस्मरण साझा किए थे।  कृषि पृष्ठभूमि से जुड़े होने से वर्षा ऋतु में गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू, धन-धान्य से परिपूर्ण जीवन के संस्मरण, घर के वयोवृद्ध जनों का स्नेह निःसन्देह आजीवनअविस्मरणीय  होते हैं। साथ ही सूखे और अकाल के दिन भी हमें रुलाते हैं। उन्होने इस सुदीर्घ साहित्यिक अविस्मरणीय इतिहास को सँजो कर रखा और हमारे पाठकों के साथ साझा किया इसके लिये उनका आभार और लेखनी को नमन । 

आज प्रस्तुत है उनका संक्षिप्त आलेख “पाऊस” एवं तत्संबंधित कविता “आठवणी”। 

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 7 ☆

 

☆ पाऊस  ☆

 

पावसाच्या माझ्या ज्या काही आठवणी आहेत त्या सुखद आणि सुंदरच आहेत, शेतकरी कुटुंबात वाढल्यामुळे पाऊस प्रियच….लहानपणी आजोबा आम्हाला विचारायचे “आज पाऊस पडेल का” आणि पडला की साखर तोंडात भरवायचे !

गावाकडचा पाऊस खुप छान वाटायचा एकदा मी चौथीत असताना आमच्या गावात खुप पाऊस पडला आम्ही भावंडे आणि आमचे धाकटे काका वाड्याच्या  वरच्या मजल्यावरच्या खिडकीतून तो धुवांधार पाऊस पहात होतो ओढा भरून वहात होता आणि घरासमोरची विहिर तुडुंब भरून ओसंडून वहात होती….

तसा आमचा शिरूर तालुका तसा दुष्काळग्रस्त पण आमच्या लहानपणचा तो पाऊस लक्षात राहिलेला  …..

एकूणच लहानपणीचे पावसाळे…खुपच आवडलेले ..त्याकाळी आम्ही पुण्यात रहात असू पण आषाढ, श्रावणात आवर्जून गावाकडे जायचो!

नंतरच्या काळात मात्र पावसानं शेतक-यांना खुप रडवलं… ७२ चा दुष्काळ आणि शेतीव्यवसायाला लागलेली उतरती कळा….हिरवं ऐश्वर्य हरवलं….

 

☆ आठवणी ☆

 

नका मनाशी घालू पिंगा आठवणींनो जुन्या

मला वाटते, एकदा तरी, कुशीत घ्यावे पुन्हा

पुढेच जाई, काळ परंतू ,मन घुटमळते तिथे

दगडी वाडा, बाग फुलांची, आणि फळांचे मळे

 

घरात नांदे सुखसमृद्धी,होती दौलत खरी

तुळशी वृंदा वनी मंजिरी आनंदे डोलती

माय आणखी  ,आजी काकी सांजवात लावती

खमंग येती, वास कशाचे? सा-या हो सुगरणी

 

गुरे वासरे,गोठ्यामधली,अबलख घोडा दिसे

धनधान्यांनी भरली पोती कसली चिंता नसे

वळणावरती, वेडीबाभळ,वाट कुणाची बघे ?

झुळझुळणारा अवखळ ओढा त्या पांदीतुन निघे

 

शिवालयाशी वटवृक्षावर  पक्षीमेळा जमे

स्वर घंटेचा सांगे येथे सत्य सुंदरम् वसे

मनीमानसी ,सदा नांदती माहेराच्या खुणा

कुळवंताची लेक सांगते गतकाळाच्या त-हा

 

नसे फुकाचा डामडौल हा ,कथा सांगते खरी

कधीतरी या पहावया ती गावाची चावडी

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #7 – दस्तक ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “दस्तक ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  को  मीन साहित्य संस्कृति मंच द्वारा  हिन्दी साहित्य सम्मान  प्राप्त  प्रदान किया  गया है ।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 7 ☆

 

☆ दस्तक ☆

 

मिस अर्पणा सिंग’ स्कुल की अध्यापिका। नाम भी सुन्दर दिखने में औरों से बहुत अच्छी। सख्त और अनुशासन प्रिय। सभी उनके रूतबे से डरते थे। किसी की हिम्मत नहीं होती कि बिना परमिशन के उनके स्कूल या घर में कोई दस्तक दे। घर परिवार में भी उसी प्रकार रहना, न किसी  का आना जाना और न ही स्वयं किसी के घर मेहमान बनना। इसी वजह से  सब लोगों ने उनका नाम बदल दिया ‘मिस अपना सिंग’ । उनको कोई पसंद भी नहीं करता था। बस स्कूल की गरिमा और उनका कड़क जीवन यापन ही उन्हें अच्छा लगता था।

किसी ने आज तक उनसे उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। जानता भी कौन? किसी से उनकी बात ही नहीं  होती थी। समय बीतता गया। कब तक अकेली सफर करती। एक दिन अचानक पाँव फिसल जाने के कारण पैर की हड्डी टूट गई। जैसे उन पर दुखों का पहाड़ आ गया। जैसे तैसे पड़ोसी अस्पताल ले जा कर प्लास्टर लगवा कर ले आये। फिर घर पर अकेली अपनी काम वाली बाई के साथ पड़े रहना।

स्कूल में कुछ बच्चे खुश पर कुछ उदास थे। पर उनके पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। पता चला दरवाजे से ही बाहर भगा दिया तो? पर सब की बातों से बेखबर एक उनके कक्षा का विद्यार्थी जिसका नाम ‘अनुज’ था जो बहुत ही शरारती और अपने चंचल स्वभाव के कारण सब का मनोरंजन करता रहता था। सिंग मेडम कभी टेबिल के उपर तो कभी क्लास रूम के बाहर कर देती थीं। उसे अपनी अध्यापिका को देखने और मिलने जाने का मन हुआ।

चुपके से सब बच्चों के साथ जा पहुँचा मेडम के घर। दरवाजे पर दस्तक दिया।  दरवाजा अधखुला और हाथों में पेपर लिए मेडम चश्मे से दरवाजे पर देख कर बोली. कौन? क्या काम है? बस क्या था बाकी बच्चे अनुज को छोड़कर भाग खड़े हुए। परन्तु अनुज हिम्मत कर बोला…. “मेडम जी मैं, आपका अपना अनुज”।

अपना अनूज सुनते ही अध्यापिका की आँखें भर आईं। बड़ी मुश्किल से अपनी भावना को दबाते हुए उसे अन्दर बुलाकर पूछी.. “कैसे आना हुआ?” अनूज ने बड़े डर से बताया “आप को देखने आया था। सब कोई आना चाहते हैं। क्या सब को बुला लूं?”  मेडम ने हां में सिर हिलाया। अनुज दौड़ कर बाहर चला गया।

आज अध्यापिका ‘मिस अपना सिंग’ को अपने नाम से ज्यादा अच्छा ‘अपना अनुज’ कहना  लग रहा था। उनके दिल पर किसी ने ‘दस्तक’ जो दे दिया है। जैसे उन्हें सारे जहां की खुशी मिल गई हो।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #7 – व्हावे मानव ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  कविता  “ व्हावे मानव”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 7 ☆

? व्हावे मानव ?

 

नटराजा तू पुन्हा एकदा कर रे तांडव

टाक चिरडुनी धरतीवरचे सारे दानव

 

मांडून शकुनि डाव बैसला अजून येथे

द्यूत खेळण्या उत्सुक सारे कौरव पांडव

 

घमेंड नाही जिद्द ठेवली होती त्याने

ससा हारला आणि जिंकले येथे कासव

 

शतकांमागे पुन्हा एकदा जावे म्हणतो

धर्म जातिला झुगारून या व्हावे मानव

 

सूर्यालाही रोखू त्यांना असे वाटले

आभासाचे कुजके पडदे पोकळ मांडव

 

पहा तुला या रातराणिचा सुंगध म्हणतो

कशास घाई वेड्या आधी दीपक मालव

 

थकलेला हा चंद्र रात्रिला म्हणतो आहे

या देहावर तुझीच सत्ता कायम चालव

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4 – ये दुनिया अगर… ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  चौथी  कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “ये दुनिया अगर…”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4  ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – ये दुनिया अगर… ☆

 

इन दिनों दुनिया,

हम पर हावी हो रही है।

आज की आपाधापी में,

चालक समय भाग रहा है।

समय को कैद करने की,

साजिश चल तो रही है।

लोग बेवजह समय से,

डर के कतरा से रहे हैं।

लोग समय बचाने,

अपने समय से खेल रहे हैं।

बेहद आत्मीय क्षणों में,

समय की रफ्तार देख रहे हैं।

अब पेड़ से बातें करने को,

हम टाइमवेस्ट कहने लगे हैं ।

और फूल की चाह को,

निर्जीव प्लास्टिक में देखते हैं।

अपनी इच्छा अपनापन,

समय के बाजार में बेच रहे हैं।

क्योंकि इन दिनों दुनिया,

समय के बाजार में खड़ी है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #7 – जीवन एक परीक्षा☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन एक परीक्षा ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 7 ☆

 

☆ जीवन एक परीक्षा ☆

 

परीक्षा जीवन की एक अनिवार्यता है. परीक्षा का स्मरण होते ही याद आती है परीक्षा की शनैः शनैः तैयारी. निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन, फिर परीक्षा में क्या पूछा जायेगा यह कौतुहल, निर्धारित अवधि में हम कितनी अच्छी तरह अपना उत्तर दे पायेंगे यह तनाव. परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही यदि कुछ समय और मिल जाता या फिर अगर मगर का पछतावा..और फिर परिणाम घोषित होते तक का आंतरिक तनाव. परिणाम मिल जाने पर भी असंतुष्टि या पुनर्मूल्यांकन की चुनौती..हम सब इस प्रक्रिया से किंचित परिवर्तन के साथ कभी न कभी कुछ न कुछ मात्रा में तनाव सहते हुये गुजरे ही है. टी वी के रियल्टी शोज में तो इन दिनों प्रतियोगी के सम्मुख लाइव प्रसारण में ही उसे सफल या असफल घोषित करने की परंपरा चल निकली है.. परीक्षा और परिणाम के इस स्वरूप पर प्रतियोगी की दृष्टि से सोचकर देखें.

सामान्यतः परीक्षा लिये जाने के मूल उद्देश्य व दृष्टिकोण को हममें से ज्यादातर लोग सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना ही येन केन प्रकारेण अधिकतम अंक पाना ही परीक्षा का उद्देश्य मान लेते हैं. और इसके लिये अनुचित तौर तरीकों के प्रयोग तक से नही हिचकिचाते. या फिर असफल होने पर आत्महत्या रोग जैसे घातक कदम तक उठा लेते हैं.

प्रश्न है कि क्या परीक्षा में ज्यादा अंक पाने मात्र से जीवन में भी सफलता सुनिश्चित है ? जीवन की अग्नि परीक्षा में न तो पाठ्यक्रम निर्धारित होता है और न ही यह तय होता है कि कब कौन सा प्रश्न हल करना पड़ेगा ? परीक्षा का वास्तविक उद्देश्य मुल्यांकन से ज्ञानार्जन हेतु प्रोत्साहित करना होता है. जीवन में सफल वही होता है जो वास्तविक ज्ञानार्जन करता है न कि अंक मात्र प्राप्त कर लेता है. यह तय है कि जो तन्मयता से ज्ञानार्जन करता है वह परीक्षा में भी अच्छे अंक अवश्य पाता है. अतः जरूड़ी है कि परीक्षा के तनाव में ग्रस्त होने की अपेक्षा शिक्षा व परीक्षा के वास्तविक उद्देश्य को हृदयंगम किया जावे, संपूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी समूची बौद्धिकता के साथ गहन अध्ययन किया जावे व तनाव मुक्त रहकर परीक्षा दी जावे. याद रखें कि सफलता कि शार्ट कट नही होते. परीक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना मात्र है. ज्ञानार्जन एक तपस्या है. स्वयं पर विश्वास करें. विषय का मनन चिंतन, अध्ययन करें, व श्रेष्ठतम उत्तर लिखें, परिणाम स्वयमेव आपके पक्ष में आयेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #4 – मैराथन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 4  ☆

 

☆ मैराथन ☆

 

मैं यह काम करना चाहता था पर उसने अड़ंगा लगा दिया।…मैं वह काम करना चाहती थी पर इसने टांग अड़ा दी।…उसमें है ही क्या, उससे बेहतर तो इसे मैं करता पर मेरी स्थितियों के चलते..!!  ….अलां ने मेरे खिलाफ ये किया, फलां ने मेरे विरोध में यह किया…।

स्वयं को अधिक सक्षम, अधिक स्पर्द्धात्मक बनानेे का कोई प्रयास न करना, आत्मावलोकन न कर व्यक्तियों या स्थितियों को दोष देना, हताशाग्रस्त जीवन जीनेवालों से भरी पड़ी है दुनिया।

वस्तुतः जीवन मैराथन है। अपनी दौड़ खुद लगानी होती है। रास्ते, आयोजक, प्रतिभागी, मौसम किसी को भी दोष देकर पूरी नहीं होती मैराथन।

कवि निदा फाज़ली ने लिखा है,‘रास्ते को भी दोष दे, आँखें भी कर लाल/ चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल।’ 

अधिकांश लोग जीवन भर ये कील नहीं निकाल पाते। कील की चुभन पीड़ा देती है। दौड़ना तो दूर, चलना भी दूभर हो जाता है।

जिस किसीने यह कील निकाल ली, वह दौड़ने लगा। हार-जीत का निर्णय तो रेफरी करेगा पर दौड़ने से ऊर्जा का प्रवाह तो शुरू हुआ।

प्रवाह का आनंद लेने के लिए इसे पढ़ने या सुनने भर से कुछ नहीं होगा। इसे अपनाना होगा।

उम्मीद करता हूँ अपनी-अपनी चप्पल सबके हाथ में है और कील के निष्कासन की कार्यवाही शुरू हो चुकी है।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

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