हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15☆ बुन्देलखण्ड की लोक कथायें ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजित श्रीवास्तव जी की प्रसिद्ध पुस्तक “बुन्देलखण्ड की लोक कथायें” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा .  किसी भी भाषा या प्रदेश की लोककथाएं एक पीढ़ी के साथ ही जा रही हैं। ऐसे में उन्हें इस प्रकार के लोककथा संग्रह के रूप में संजो कर रखने की महती आवस्यकता है।  लोक कथाएं हमें अगली पीढ़ी को विरासत में  देने का दायित्व हमारी पीढ़ी को है इसके लिए श्री अजीत श्रीवास्तव जी को साधुवाद।  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 15  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – बुन्देलखण्ड की लोककथायें  

 

पुस्तक – बुन्देलखण्ड की लोक कथायें (लोककथा संग्रह)

संग्रहकर्ता  – अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –  रवीना प्रकाशन दिल्ली

आई एस बी एन – 9789388346597

मूल्य –  २०० रु प्रथम संस्करण २०१९

 

☆ बुन्देलखण्ड की लोककथायें – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

हाल ही में “कौन बनेगा करोड़पति” के एक एपीसोड में बुन्देलखण्ड की एक महिला पहुंची थीं. होस्ट अमिताभ बच्चन से वार्तालाप में उन्होनें बुंदेलखण्डी का प्रयोग किया, प्रतिसाद में  सहज अमिताभ जी ने भी उनसे बुंदेलखण्डी की मधुरता को सम्मान देते हुये ” काय का हो रऔ ”  का जुमला कहा. इस तरह मीडिया में बुंदेलखण्डी भाषा का लावण्य चर्चित रहा. बोलिया और भाषाये  भारत की थाथियां हैं. लोक भाषा में सदियों के अनुभवो का निचोड़ लोक कथा, मुहावरो, कहावतो के जरिये पीढ़ी दर पीढ़ी विस्तार पाता रहा है.

टीकमगढ़ के अजीत श्रीवास्तव पेशे से एक एड्वोकेट हैं. उनका रोजमर्रा के कामो में  ग्रामीण अंचल के किसानो व ठेठ बुंदेलखण्ड के आम लोगों से नियमित वास्ता पड़ता रहता है. इस दिनचर्या का लाभ उठाते हुये उन्होनें बुंदेली लोककथायें जिन्हें स्थानीय लोग “अहाने ” कहते हैं, सुनकर लिख डाले हैं. फिर इन अहाने अर्थात बातचीत में कोट किये जाने वाले लघु दृष्टांत या कथानक को सबके उपयोग हेतु इनका हिन्दी  भाष्य रूपान्तर तैयार कर इस पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है.

पुस्तक में कुल ११० ऐसी लघु लोककथायें हैं, जो पहले बुंदेली और उसके नीचे ही हिन्दी में प्रकाशित हैं. हर लोककथा कोई संदेश देती है. उदाहरण के लिये एक कथा में कल्पना है कि एक व्यक्ति जो अपने भाग्य को दोष देते परेशान था, पोटली बांधकर किसी दूसरे गांव में जाने की सोचता है, तो उसे उसके साथ जाने को तैयार एक महिला मिली, वह पूछता है तुम कौन, महिला उत्तर देती मैं तुम्हारा भाग्य, तब वह मनुष्य कहता है कि जब तुम्हें साथ ही चलना है तो फिर मैं इसी गांव में क्यो न रहूं ? निहितार्थ स्पष्ट है, जगह बदलने या भाग्य को दोष देने की अपेक्षा जहां है जिन परिस्थितियो में हैं वही मेहनत की जावे तो ही प्रगति हो सकती है.

एक अन्य कथा में बताया गया है कि एक बार घुमते हुये एक राजा किसी किसान के पास पहुंचते हैं, वह गन्ने का रस निकाल रहा था, राजा एक गिलास रस पीते हैं, उन्हें वह बहुत अच्छा लगता है, तो राजा के मन में ख्याल आता है कि किसान इतने अच्छै गन्ने की फसल का लगान कम अदा करता है, लगान बढ़ानी चाहिये. जब राजा अगला गिलास रस पीता है तो उन्हें वह रस अच्छा नही लगता, यह बात राजा किसान से कहता है, तो किसान बोलता है कि महाराज आपने जरूर कुछ बुरा सोचा रहा होगा. राजा मन ही मन सब समझ गये. ” जैसी राजा की नीयत होती है वैसी प्रजा की बरकत ” क्या यह लोककथा आज भी प्रासंगिक नही लगती ?

ऐसी ही रोचक छोटी छोटी कहानियां जो जन श्रुति से अजीत श्रीवास्तव जी ने एकत्रित की हैं बिना तोड़ मरोड़ के यथावत किताब में प्रस्तुत की गई हैं. इस प्रकार किताब लोक के सामाजिक  अध्ययन हेतु भी संदर्भ ग्रंथ बन गई है. मेरी जानकारी में ऐसा कार्य दूसरा देखने को नही मिला है. पुरानी पीढ़ी के साथ ही गुम हो रही इन कहानियो को संग्रहित कर बुंदेली भाषा के प्रति एक बड़ा कार्य किया गया है. जिसके लिये लेखक व प्रकाशक बधाई के सुपात्र हैं.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #26 – मेघ भक्तीचा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “मेघ भक्तीचा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 26 ☆

☆ मेघ भक्तीचा ☆

 

कृष्ण डोह हा सावळा

राधा उतरली आत

ठाव घेताना डोहाचा

सारी सरली ही रात

 

वीणा चिपळ्या सोबती

मेघ भक्तीचा बरसे

गाभाऱ्यात तेवणारी

मीरा तेजोमय  वात

 

राधा सत्ययुगातली

कलियुगातली मीरा

तरी सवतीचा खेळ

चाले अजून दोघीत

 

नागवेलीचं हे पान

वाटे नागिणीचा फणा

फास झाडाच्या भोवती

तिनं टाकलेली कात

 

वन सारं बासरीचं

तिच्या सोबती नाचतं

धून राधेच्या प्राणाची

नित्य वाजे बासरीत

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 26 – गुलाबी  गुड़िया ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अत्यंत भावुक लघुकथा    “गुलाबी  गुड़िया ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 26 ☆

☆ लघुकथा – गुलाबी  गुड़िया ☆

 

‘आरुषि’ अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान। उसे बहुत ही प्यार से रखा था। सब कुछ आरुषि के मन का होता था। कहीं आना-जाना  क्या पहनना, क्या खाना। छोटी सी आरुषि की उम्र 6 साल थी। खिलौने से दिनभर खेलना और मम्मी पापा से दिन भर बातें करना। सभी को अच्छा लगता था। खिलौने में सबसे प्यारी उसकी एक गुड़िया थी। प्यार से उसका नाम उसने गुलाबी रखा था। दिन भर गुड़िया से बातें करना, उसको कपड़े पहनाना, कभी छोटी सी साइकिल पर बिठा कर चलाना। गुलाबी से मोह इतना कि रात में भी उसे अपने साथ सुलाती थी।

एक दिन मम्मी-पापा के साथ घूमने निकली। आरुषि अपनी गुड़िया को भी ले गई थी। रास्ते में अत्यधिक भीड़ होने की वजह से मम्मी ने कहा “आरू, गुड़िया हम रख लेते हैं। आप संभल कर गाड़ी (दुपहिया वाहन) पर बैठो”। आरुषि गुड़िया को मम्मी को पकड़ा कर पापा के सामने जा बैठी। सब खुश होकर गाना गाते हुए चले जा रहे थे। अचानक सामने से आती ट्रक की चपेट में तीनों बुरी तरह घायल हो गए। अस्पताल में आरुषि और पापा तो बच गए परंतु मम्मी का देहांत हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आरुषि को कैसे समझाया  जाए। अंतिम विदाई के समय सभी की आंखें नम थी। परंतु आरुषि चुपचाप सब कुछ देख रही थी। सभी ने कहा मम्मी भगवान के घर चली गई। जब अर्थी ले जाने लगे, तभी आरुषि दौड़कर अपने कमरे में गई और अपनी प्यारी गुड़िया को लेकर आई और मम्मी के पास रखते हुए बोली “भगवान घर मम्मी अकेले जाएगी, मैं नहीं रहूंगी तो कम से कम गुलाबी के साथ बात करेंगी। सभी शांत और भाव विभोर थे आखिर इस नन्ही बच्ची को कैसे समझाएं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 23 – राजनीति ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कविता  “राजनीति। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 23 ☆

 

☆ कविता – राजनीति  

 

राजनीतिज्ञ

हाथ देखकर

भूत भविष्य

और वर्तमान

बता सकता है।

राजनीतिज्ञ

ऐसे हाथ

उठा देता है

और

कई बार हाथ

देखने के पहले

काट भी देता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 ☆ विचार ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “विचार ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 6 – विचार  ☆

 

तुम्हारे साथ

तुम्हारे

लेखक की

दो बड़ी

दिक्कत हैं

 

एक तो यह

कि तुम्हारा

लेखक

किसी को

स्वर्ग का

रास्ता

नहीं  बताता

और दूसरा

यह कि

दूसरों की तरह

यह

अमर भी

नहीं

होना चाहिता

 

ऐसा किसलिये?

ऐसा

इसीलिये।

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 25 – मासिक पाळी ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  शिक्षिका के कलम से  तरुण युवतियों के लिए एक शिक्षाप्रद भावप्रवण कविता  – “मासिक पाळी। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 25 ☆ 

 

 ☆ मासिक पाळी

 

तारूण्याच्या उंबऱ्यावर

स्त्रीत्वाची ही निशाणी।

म्हणे कोणी ओटी आली

लेक झाली हो शहाणी।

 

जुने नवे घाल मेळ

भावनांचा नको खेळ।

योग्यतेच ठेवी ध्यानी ,

होई व्यर्थ जाता वेळ।

 

नको जाऊ गोंधळून

सुचिर्भुत रहा दक्ष

जरी धोक्याचे हे वय

ध्येयावरी ठेवी लक्ष।

 

लागू नये नजर दुष्ट

तुला जपते जीवापाड।

जरी जाचक भासली

माझी बंधने ही  द्वाड।

 

हवे मर्यादांचे भान

घेता उंच तू भरारी।

श्रेष्ठ संस्कृती सभ्यता

सदा जपावी अंतरी।

 

जप तारूण्याचा ठेवा

जाण जीवनाचे मोल।

प्रकृतीने दिले तुज

असे स्त्रीत्व अनमोल।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #26 – विज्ञापनवादी अभियान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “विज्ञापनवादी अभियान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 26 ☆

☆ विज्ञापनवादी अभियान

 

इन दिनो राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान के लिये शहरो के बीच कम्पटीशन चल रहा है. किसी भी शहर में चले जायें बड़े बड़े होर्डिंग, पोस्टर व अन्य विज्ञापन दिख जायेंगे जिनमें उस शहर को नम्बर १ दिखाया गया होगा, सफाई की अपील की गई होगी. वास्तविक सफाई से ज्यादा व्यय तो इस ताम झाम पर हो रहा है, कैप, बैच, एडवरटाइजमेंट, भाषणबाजी खूब हो रही है. किसी सीमा तक तो यह सब भी आवश्यक है जिससे जन जागरण हो, वातावरण बने, आम आदमी में चेतना जागे. किन्तु इस सबका अतिरेक ठीक नही है. यह गांधी वादी सफाई नहीं है. शायद यह बढ़ती आबादी और विज्ञापनवादी आधुनिकता के लिये जरूरी बन चला हो पर है गलत.

यह जुमलेबाजी और ढ़ेर से विज्ञापन राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा अनावश्यक खर्च है, राष्ट्रीय अपव्यय है. थोड़ा अंदर घुसकर विवेचना करें तो सफाई की जो मूल आकांक्षा है इस सबसे उसे ही हानि हो रही है, पोस्टर फटकर कचरा ही बनेंगे. पोस्टर बैनर बनाने में लगी उर्जा पर्यावरण को हानि ही पहुंचा रही है.

इससे तो विज्ञापन का कोई इलेक्ट्रानिक तरीका जैसे टी वी, रेडियो पर चेतना अभियान हो तो वह बेहतर हो. न केवल स्वच्छता अभियान के लिये बल्कि हर अभियान में कागज की बर्बादी गलत है. यदि इस तरह पोस्टरबाजी से जनता के मन में संस्कार पैदा किये जा सकते तो अब तक कई क्रातियां हो चुकी होती. वास्तव में हर शहर अपनी तरह से नम्बर वन ही होता है.

जरूरत है कि शहर की अस्मिता की पहचान हो, सादगी से भी स्थाई व वास्तविक सफाई हो सकती है. देश में तरह तरह के अभियान चल रहे हैं आगे भी अनेक जनचेतना अभियान चलेंगे, उनके संचालन हेतु बौद्धिक विष्लेशण करने के बाद ही नीति तय करके तरीके व संसाधन निर्धारित किये जाने चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – डॉ.भावना शुक्ल

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर चरण स्पर्श है जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं एवं हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एकआलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ इस रविवार से प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि आपको प्रत्येक रविवार एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

इस शृंखला की पुनः शुरुआत गुरुवर डॉ राजकुमार सुमित्र जी से प्रारम्भ कर रहे हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में उनकी सुपुत्री एवं प्रसिद्ध साहित्यकार  डॉ भावना शुक्ल से बेहतर कौन लिख सकता है। आज प्रस्तुत है “डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व”

☆ डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र – व्यक्तित्व एवं कृतित्व

संस्कारधानी जबलपुर के यशस्वी साहित्यकार, साहित्याकाश के जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र, संवेदनशील साहित्य सर्जक, अनुकरणीय, प्रखर पत्रकार, कवि, लेखक, संपादक, व्यंग्यकार, बाल साहित्य के रचयिता, प्रकाशक अनुवादक, धर्म, अध्यात्म, चेतना संपन्न, तत्वदर्शी चिंतक, साहित्यिक-सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के प्रणेता डॉ.राजकुमार तिवारी “सुमित्र” बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। सुमित्र जी में सेवा भावना, सहानुभूति, विनम्रता, गुरु-गंभीरता तथा सहज आत्मीयता की सुगंध उनके व्यक्तित्व में समाहित है।

उन्होंने लगभग छह दशकों तक जन मन को आकर्षित एवं प्रभावित किया। साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की है और अनवरत करते जा रहे हैं। नगर ही नहीं देश तथा विदेशों तक उनकी यश पताका लहरा रही है।

जबलपुर के राष्ट्र सेवी साहित्यकार एवं पत्रकार स्वर्गीय पंडित दीनानाथ तिवारी के पौत्र तथा भोपाल के ख्याति लब्ध अधिवक्ता “ज्ञानवारिधि” स्वर्गीय पंडित ब्रह्म दत्त तिवारी के सुपुत्र डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” का जन्म 25 अक्टूबर 1938 को जबलपुर नगर में हुआ।

साहित्य और पत्रकारिता के संस्कार उत्तराधिकार में प्राप्त हुए. मानस मर्मज्ञ डॉ ज्ञानवती अवस्थी की प्रेरणा से सन 1952 से काव्य रचना प्रारंभ की। मध्य प्रदेश के अनेक शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करते हुए पीएचडी तक की उपाधियाँ ससम्मान प्राप्त की। शिक्षकीय अध्यापन-कर्म से जीवनारंभ कर सुमित्र जी बहुमुखी प्रतिभा साहित्य साधना तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में सतत गतिशील रहे…

सुमित्र जी के शब्दों में…

मित्रों के मित्र सुमित्र का व्यक्तित्व ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करता है, धन से ना सही किंतु मन से तो वे ‘राजकुमार’ ही है। उन्होंने लिखा है…

” मेरा नाम सुमित्र है, तबीयत राजकुमार।

पीड़ा की जागीर है, बांट रहा हूँ प्यार।”

जबलपुर से प्रकाशित नवीन दुनिया के साहित्य संपादक के रूप में उन्होंने समर्पित होकर पत्रकारिता और साहित्य की सेवा की और ना जाने कितने नवोदित सृजन-धर्मी पत्रकार, कवि, लेखक सुमित्र जी के निश्चल स्नेह और आशीष की छाया तले पल्लवित पुष्पित हुए. जो आज साहित्य की विभिन्न विधाओं में एक समर्थ रचनाकार के रूप में गिने जाते हैं।

साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा है जिसमें सुमित्र जी ने अपनी लेखनी को ना चलाया होगा इनका कौशल बुंदेली काव्य सृजन में भी देखने को मिलता है।

आपके शब्दों में…वीणा पाणि की आराधना- सुफलित  नाद

“शब्द ब्रह्म आराधना, सुरभित सफेद नाद।

उसका ही सामर्थ्य है, जिसको मिले प्रसाद।“

सुमित्र जी की रचनात्मक उपलब्धियाँ अनंत है। पत्रकार साहित्यकार डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र ने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी गौरवान्वित किया वहीं दूसरी ओर आपने हिन्दी साहित्य के कोष की श्री वृद्धि भी की है। छंद बद्ध कविता, छंद मुक्त कविता, कहानी, व्यंग, नाटक आदि सभी विधाओं में आपने लिखा है इसके साथ ही आपने श्री रमेश थेटे की मराठी कविताओं का रूपांतर‘अंधेरे के यात्री’ तथा पीयूष वर्षी विद्यावती के मैथिली गीतों का हिन्दी में गीत रूपांतर आपको मूलतः रस प्रवण साहित्यकार सिद्ध करता है आपकी इस साहित्य साधना और साहित्यिक पत्रकारिता अक्षुण्ण  है।

सुमित्र जी के काव्य रस की बौछार …

प्रिय के सौंदर्य को लौकिक दृष्टि से देखते हुए भी उसमें अलौकिकता कैसे आभास किया जा सकता है इस भाव को बड़े ही पवित्र प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया।

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पाखी-सा मेरा मन है….

दांपत्य जीवन में रूठना मनाना का क्रम चलता है ऐसे में पत्नी की पति को कुछ कहने के लिए विवश करती है… गीत की कुछ पंक्तियाँ

 

बिछल गया माथे से आंचल

किस दुनिया में खोई हो

लगता है तुम आज रात भर

चुपके चुपके रोई हो।

रोना तो है सिर्फ़ शिकायत

इसकी उम्र दराज नहीं

टूट टूट कर जो ना बजा हो

ऐसा कोई साज नहीं

मैं तुमसे नाराज नहीं।

 

दूसरों के सुख दुख में अपने सुख-दुख की प्रतिछाया…

 

दूसरों के दुख को पहचान

उसे अपने से बड़ा मान

तब तुझे लगेगा कि तू

पहले से ज़्यादा सुखी है

और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा

तुझ से भी ज़्यादा दुखी है…

 

नई कविता के तेवर को अत्यंत मार्मिक ढंग से कविता में प्रस्तुत किया है…

 

तुमने

मेरी पिनकुशन-सी

जिंदगी से

सारे ‘पिन’ निकाल लिए

बोलो।

इन खाली जख्मों को लिए

आखिर कोई कब तक जिए;

काव्य शिल्प लिए…

 

अंतहीन गंधहीन मरुस्थल में

भटकता

मेरा तितली मन

दिवास्वप्न देखता देखता

मृग हो जाता है।

कल्पना का वैशिष्ट…

मेरी दृष्टि

मलबे को कुरेद रही है-

आह! लगता है-

गांधी के रक्त स्नात वस्त्र

काले पड़ गए हैं

पंचशील के पांव में

छाले पड़ गए हैं।

 

यादें नामक कविता का अंश…

 

जैसे बिजली कौंधती है

घन में,

यादें कौंधती हैं

मन में।

 

प्रेम तो ईश्वरीय वरदान है। इनको केंद्रित कर दोहे…

 

“नहीं प्रेम की व्याख्या, नहीं प्रेम का रूप।

कभी चमकती चांदनी, कभी देखती धूप।“

0000

“स्वाति बिंदु-सा प्रेम है, पाते हैं बड़भाग।

प्रेम सुधा संजीवनी, ममता और सुहाग।“

 

प्रिय की दूरी की पीड़ानुभूति—-

 

“तुम बिन दिन पतझड़ लगे, दर्शन है मधुमास।

एक झलक में टूटता, आंखों का उपवास.. ।”

सुमित्र जी ने स्मृति को, याद को विभिन्न कोणों से चित्रित किया है———

 

“याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बनी लिबास।”

0000

“फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।”

अहंकार के विसर्जन के बिना प्रेम का कोई औचित्य नहीं है।

 

“सांसो में तुम हो रचे, बचे कहाँ हम शेष।

अहम समर्पित कर दिया, करें और आदेश।”

“फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम ।

मन मीरा-सा हो गया, आँख हुई घनश्याम।“

 

साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सुमित्र जी ने जो जीवन जिया वह घटना पूर्ण चुनौतीपूर्ण रहा। सुमित्र के जीवन को सजाया संवारा और उसे गति दी …जीवनसंगिनी स्मृति शेष डॉ.गायत्री तिवारी ने। सुमित्र जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के इन गुणों का प्रवाह निरंतर बना रहे ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि वह दीर्घायु हो। मैं अपने आप को बहुत ही सौभाग्यशाली मानती हूँ कि मैं डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ और डॉ गायत्री तिवारी की पुत्री हूँ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 26 – व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की  व्यंग्य  पुरुष बली नहिं होत है ।  यह  व्यंग्य पढ़ने के बाद कई  विवाहित पुरुषों की भ्रांतियां दूर हो जानी चाहिए और जो  ऊपरी मन से स्वीकार न करते  हों वे मन ही मन तो स्वीकार कर ही लेंगे। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 26 ☆

☆ व्यंग्य – पुरुष बली नहिं होत है ☆

 

हमारे समाज में पुरुषों ने यह भ्रम फैला रखा है कि समाज पुरुष-प्रधान है और मर्दों की मर्जी के बिना यहाँ पत्ता भी नहीं खड़कता। लेकिन थोड़ा सा खुरचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कोरी बकवास और ख़ामख़याली है। कड़वी सच्चाई यह है कि आदिकाल से पुरुष स्त्री का इस्तेमाल करके अपना काम निकालता रहा है, और इसके बावजूद अपनी श्रेष्ठता का दम भरता रहा है। इसलिए इस मुग़ालते के छिलके उतारकर हक़ीक़त से रूबरू होना ज़रूरी है।

करीब दस दिन पहले मेरे पड़ोसी खरे साहब ने अपने नौकर को दारूखोरी के जुर्म में निकाल दिया था। उस समझदार ने दूसरे दिन अपनी पत्नी को खरे साहब के घर भेज दिया।पति के इशारे पर मोहतरमा ने खरे साहब के दरवाज़े पर बैठकर ऐसी अविरल अश्रुधारा बहायी कि सीधे-सादे खरे साहब पानी-पानी हो गये। नौकर को तो उन्होंने बहाल कर ही दिया, उसकी पत्नी को विदाई के पचास रुपये और दिये। चतुर पति ने लक्ष्यवेध के लिए भार्या के कंधे का सहारा लिया।

बहुत से लेखक, जो अपने माता-पिता के दिये हुए नाम से पत्रिकाओं में नहीं छप पाते, कई बार स्त्री-नाम का सहारा लेते हैं। कहते हैं नाम परिवर्तन से वे अक्सर छप भी जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि स्त्री-नामों के लिए संपादकों के दिल में एक ‘मुलायम कोना’ होता है।

आजकल बस और ट्रेन के टिकटों के लिए लंबी लाइन लगती है। लेकिन महिलाओं की लाइन अलग होती है और स्वाभाविक रूप से वह छोटी होती है।बुद्धिमान पति अपनी पत्नी को लाइन में लगा देता है और खुद मुन्ना को गोद में लेकर सन्देह के दायरे से दूर खड़ा होकर तिरछी नज़रों से देखता रहता है। पत्नी जब टिकट लेकर लौटती है तब पतिदेव अपने सिकुड़े हुए सीने को चौड़ा करते हैं और पुनः ‘पुरुष बली’ बनकर पत्नी के आगे आगे चल देते हैं।

ट्रेन में घुसने के लिए भी पति महोदय वही स्टंट काम में लाते हैं। भीड़ भरे डिब्बे में भीतरवाले दरवाज़ा नहीं खोलते। ऐसी स्थिति में पति महोदय एक खिड़की पर पहुँचते हैं और खिड़की के पास आसीन लोग जब तक स्थिति को समझें तब तक पत्नी को बंडल बनाकर अन्दर दाखिल कर देते हैं। पति महोदय जानते हैं कि पत्नी को कोई हाथ नहीं लगाएगा। इसके बाद वे चिरौरी करते हैं, ‘भाई साहब, जनानी सवारी अन्दर है, अकेली छूट जाएगी। आ जाने दो साब, गाड़ी छूट जाएगी।’ और यात्रियों के थोड़ा ढीला पड़ते ही वे अपनी टाँगों को एडवांस भेजकर डिब्बे में अवतरित हो जाते हैं।

फिर पति महोदय सीट पर बैठे किसी यात्री से अपील करते हैं, ‘भाई साहब,  थोड़ा खिसक जाइए, जनानी सवारी बैठ जाए। ‘ हिन्दुस्तानी आदमी भला महिला हेतु किये गये आवेदन का कैसे विरोध करेगा?भाई साहब खिसक जाते हैं और जनानी सवारी बैठ जाती है। फिर पति-पत्नी में नैन-सैन होते हैं, पत्नी खिसक खिसककर थोड़ी सी ‘टेरिटरी’ और ‘कैप्चर’ करती है और पतिदेव को इशारा करती है। जब तक सीट वाले संभलें तब तक प्रियतम भी बड़ी विनम्रता से प्रिया के पार्श्व में ‘फिट’ हो जाते हैं। अब भला राम मिलाई जोड़ी को कौन अलग करे?

राशन की लाइनों में भी यही होता है। महिलाओं की लाइन अलग होती है। पत्नी को लाइन में लगाकर पुरुष चुपचाप दूर बैठ जाता है। पत्नी जब राशन लेकर निकलती है तो पुरुष महोदय तुरन्त अंधेरे कोने से निकलकर बड़े प्रेम से  उसके हाथ का थैला थाम लेते हैं और लाइन में लगे पुरुषों पर दयापूर्ण दृष्टि डालते हुए घर को गमन करते हैं।

इसलिए कुँवारों से मेरा निवेदन है कि यदि आप बसों और ट्रेनों के टिकटों के लंबे ‘क्यू’ से परेशान हों,ट्रेनों में जगह न पाते हों या डेढ़ टाँग पर खड़े होकर यात्रा करते हों, राशन की लाइन के धक्कमधक्का से त्रस्त हों,तो देर न करें। कुंडली मिले न मिले, तुरंत शादी को प्राप्त हों और इन अतिरिक्त सुविधाओं का लाभ उठाएं। पत्नी थोड़ी स्वस्थ हो ताकि भीड़भाड़ में मुरझाए नहीं और साथ ही थोड़ी कृशगात भी हो ताकि आप बिना शर्मिन्दा हुए उसे अपनी बाहुओं में उठाकर ट्रेन की खिड़की में प्रविष्ट करा सकें।आपके सुखी भविष्य का आकांक्षी हूँ।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #23 – परिदृश्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 23☆

☆ परिदृश्य ☆

मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।

लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।

दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है।  व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य।    मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने  की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।

विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई  से हर्षित होता है,  न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं..,इति।

संतुलन साधने की दिशा में हम अग्रसर हो सकें। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सोम. 18.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

Please share your Post !

Shares