हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. राजेन्द्र “रतन”

☆ कहाँ गए वे लोग # २२ ☆

☆ “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

क्षमा मांगने और क्षमा करने पर विश्वास करने वाले, साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी अग्रज भाई राजेंद्र “रतन” अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने 82 वर्ष के जीवन काल में वे हमेशा मन से पूरी तरह युवा रहे। वे अंतिम समय तक तमाम तरह की लिप्साओं से दूर आत्म संतोष के साथ साहित्य साधना में रत रहे। वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक डॉ.हरिशंकर दुबे जी उनके लिए कहते हैं-

गौ धन, गज धन, बाजि धन

और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन,

सब धन धूरि समान।।

संतोष धन सबसे बड़ा धन है जिसकी सुवास श्री राजेंद्र जैन के जीवन में सदा रची-बसी रही।

श्री राजेंद्र जैन “रतन” जी वाद विवाद से दूर अत्यंत मिलनसार व्यक्ति थे। वे “अनेकांत” संस्था के अध्यक्ष के रूप में साहित्य संवर्धन एवं प्रतिभाओं के प्रोत्साहन में लगे रहे। रा दु वि वि से पत्रकारिता में पत्रोपाधि प्राप्त करने वाले भाई राजेंद्र रतन जी कार्यों से अवकाश मिलते ही काव्य सृजन में डूब जाते थे। उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। वे आकाशवाणी जबलपुर द्वारा प्रसारित “काव्य रस” एवं “काव्य कुंज” में सहभागिता देते रहे। रतन जी ने “अनेकांत” में अध्यक्ष के साथ-साथ अनुश्री सोसायटी के अध्यक्ष, शहर जिला कांग्रेस कमेटी जबलपुर के उपाध्यक्ष, जागरण संस्था के संगठन सचिव, शारदा संगीत महाविद्यालय के प्रतिनिधि सदस्य एवं कोषाध्यक्ष तथा संभ्रान्त समाज जबलपुर के संगठन सचिव के रूप में भी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं।

बहुत कम लोग जानते हैं कि व्यवसाय और राजनीति से जुड़े भाई राजेंद्र “रतन” बहुत अच्छे कथक नर्तक भी थे। वे अंतर्राष्ट्रीय विश्व युवक शिविर यूगोस्लाविया में सन 1962 में भारतीय नृत्य कला प्रदर्शन के लिए प्रेसीडेंट मार्शल टीटो द्वारा “उदारनिक” रजत पदक से सम्मानित किए गए थे। “सजग प्रहरी” के रूप में उन्हें म.प्र. शासन द्वारा रजत पदक प्रदान किया गया था। इसके अतिरिक्ति साहित्य सृजन पर उन्हें सजग सारथी, पाथेय श्री सेवा सम्मान, संस्कारधानी गौरव, साहित्य सुधाकर, सरस्वती साहित्य श्री, ऋतंभरा साहित्य श्री, ह्रदय ‘रतन’ सम्मानों सहित गुंजन कला सदन, गूँज व अनेक संस्थाओं द्वारा विविध सम्मानों से अलंकृत किया गया। उनकी काव्य कृतियाँ “समय की पुकार” एवं “मन रतन है” प्रकाशित-प्रशंसित हो चुकी हैं। एक दर्जन से अधिक विभिन्न काव्य संग्रहों में उनकी रचनाओं का समावेश है। ख्यातिलब्ध विद्वान डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी कहते हैं- “रतन जी की प्रत्येक रचना आत्म-संस्कार और मानव के उदात्तीकरण से ओतप्रोत है। ” रा दु वि वि के पूर्व कुलपति डॉ. कपिलदेव मिश्र के अनुसार ‘रतन’ जी का काव्य यथार्थ बोध कराने में सक्षम है। वरिष्ठ साहित्यकार स्व. डॉ. राजकुमार “सुमित्र” का कथन था कि भाई रतन जी की कृतियों को शास्त्रीय कसौटी पर नहीं अपितु भाव की कसौटी पर कसना चाहिए।

रतन जी ने लिखा है-

सब धर्मों का देश हमारा,

मानवता है जिसकी आन।

गंगा की पावन धारा से,

देश की माटी बनी महान।।

सच्चे देश भक्त, सहज-सरल गाँधीवादी, साहित्यकार भाई राजेंद्र “रतन” जी अपनी बहुमुखी प्रतिभा और मिलनसारिता के कारण साहित्य जगत में सदा याद किए जायेंगे।

©  श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 187 ☆ # “वर्षावास के प्रारंभ पर” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “वर्षावास के प्रारंभ पर”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 187 ☆

☆ # “वर्षावास के प्रारंभ पर” # ☆

रंग बिरंगी तितलियां

उड़ रही आकाश में

इंद्रधनुष लग रहा जैसे

निकला हो पास में

 

छुप छुप कर आती है किरणें

हम सब का अंत:करण हरणे

उन्मुक्त हवा के झोंकें

लिपटे है वृक्षों के सहवास में

 

भीग रही वसुंधरा

सब कुछ हो गया हरा भरा

छोटे छोटे जीव जंतु

लोट रहे हरी-हरी घास में

 

मेघ छाये घनघोर हैं 

तुफानों का जोर है

जंगल में नाच रहा मोर

वर्षा के आभास में

 

मानसून का मौसम है

बूंदों की छम छम है

भीग रही है तरूणाई

सावन के इस मास में

 

बिजुरी का कड़कना

मेघों का गरजना देख

वंचित आंखें हर्षित है

कुछ चमत्कार की आस में

 

त्यागकर संसार, भूख और प्यास

धम्म को अर्पित कर हर सांस

वो दीप जलाकर ध्यान में लीन

कोई भिक्खु बैठा है “वर्षावास” में

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – आगमन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘आगमन…‘।)

☆ कविता – आगमन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

सजा दो गांव की गलियां, वो मेरा लाल आया है,

लिपट कर वो तिरंगे से, तिरंगा साथ लाया है,

*

बता दो सबकी आंखों को, कोई नम आंख न होए,

रखी है लाज बेटे ने, मां का सर उठाया है,

*

चिता कोअग्नि देने को, हजारों बेटे आए हैं,

गया था जब, अकेला था, हजारों साथ लाया है,

*

सजाई है चिता उसकी, बिखेरे पुष्प देवों ने,

किया स्वागत, है अभिनंदन, यही सौगात लाया है,

*

सदा कहता था, है कर्जा, मुझ पर मातृ भूमि का,

नहीं रखा, कोई कर्जा, चुका कर ही वो आया है,

*

सुनाता था, कई किस्से, वो जब भी गांव आता था,

सभी किस्से अधूरे हैं, अधूरापन वो लाया है,

*

सहारा था मुझे तेरा, सहारा ना रहा अब तू,

सितारों से भरे नभ ने, सितारा नव सजाया है,

*

तेरा बलिदान सरहद पर, ना भूलेंगी कई सदियां,

हमेशा याद सब करना, यही सपना सजाया है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 183 ☆ पावसाळा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 183 ? 

☆ पावसाळा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पावसाळा म्हंटल की, चिखल आला

पावसाळा म्हंटल की, छत्रीही आली.!!

*

पावसाळा म्हंटल की, शेतकरी सजग होतो

पावसाळा म्हंटल की, बळीराजा पेरणी करतो.!!

*

पावसाळा म्हंटल की, हिरवळ सजली

पावसाळा म्हंटल की, चहा भजी आली.!!

*

पावसाळा म्हंटल की, अगोदर हुरूप असतो

पावसाळा म्हंटल की, नंतर कंटाळा ही येतो.!!

*

पावसाळा म्हंटल की, शाळेला सुट्टी मिळते

पावसाळा म्हंटल की, नदी लिलया फुगू लागते.!!

*

पावसाळा म्हंटल की, प्रेम कविता बनतात

पावसाळा म्हंटल की, भावना अनावर होतात.!!

*

असा हा पावसाळा, अनेक कारणांनी गाजतो

तो कधी प्रलय तर, कधी सौख्य ही प्रदान करतो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 251 ☆ कथा-कहानी – वह नहीं लौटा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – वह नहीं लौटा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 251 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ वह नहीं लौटा 

 उस दिन खरे साहब दफ्तर से लौटे तो उनके स्कूटर के पीछे एक युवक सवार था। लंबे-लंबे हाथ पाँव, लंबा दुबला चेहरा, पैर में रबर की चप्पलें, तीन-चार दिन की बढ़ी दाढ़ी और लंबे-लंबे रूखे बाल। शायद महीनों से उनमें तेल नहीं लगा होगा। उसके चेहरे पर निस्संगता और बेपरवाही का भाव था।

दोपहर को खरे साहब का फोन श्रीमती सुधा खरे के पास आ चुका था— ‘बड़ी मुश्किल से एक डेली वेजर की नियुक्ति करायी है। शाम को लेकर आ रहा हूँ।’

सुधा देवी तभी से उत्तेजित हैं। बेसब्री से खरे साहब के लौटने की प्रतीक्षा कर रही हैं। बाइयाँ तो काम के लिए मिल जाती हैं, लेकिन उन्हें ज़्यादा निर्देश नहीं दिये जा सकते। पलटकर जवाब दे देती हैं और चार आदमी के सामने इज्जत का फ़ालूदा बना देती हैं। ज़्यादा बात बढ़ जाए तो काम छोड़ने में एक मिनट नहीं लगातीं। फिर अपनी इज्ज़त ताक में रखकर चिरौरी करते फिरो।
सुधा देवी को इन बाइयों का स्वभाव आज तक समझ में नहीं आया। जैसे भविष्य की, बाल-बच्चों की ज़िन्दगी की कोई चिन्ता नहीं। हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़ा और चलती बनीं। कहाँ से इतनी हिम्मत और इतनी बेपरवाही जुटा पाती हैं? उन्हें याद है जब पहली बार खरे साहब सस्पेंड हुए तो वे इतनी परेशान हुईं कि दस हज़ार रुपये ज्योतिषियों और टोने-टोटके वालों को दे डाले। खरे साहब के शरीर से जाने कितने भूत और जिन्न निकल कर नये ठिकानों को प्रस्थान कर गये,तब जाकर खरे साहब वापस बहाल हुए। उसके बाद खरे साहब तीन चार बार और सस्पेंड हुए,और वे समझ गयीं कि यह सब नौकरी में चलता रहता है। सस्पेंड होने से अब न किसी की इज्ज़त जाती है, न नौकरी।

सुधा देवी दफ्तर का आदमी चाहती थीं क्योंकि कच्ची नौकरी वाला आदमी बहुत बर्दाश्त कर लेता है। रगड़कर काम लो तब भी पलट पर जवाब नहीं देता। नौकरी पक्की होने की उम्मीद में गैरवाजिब हुक्म भी बजाता रहता है।

खरे साहब आदमी को लेकर पहुँचे तो सुधा देवी ने सर से पाँव तक उसका जायज़ा लिया। वह सुधा देवी को हल्का सा सलाम करके खड़ा हो गया। सुधा देवी ने उसका लंबा कद,लंबे दुबले हाथ पाँव और कुल मिलाकर हुलिया देखा। वे समझ गयीं कि यह आदमी ज़्यादा काम का नहीं।

इसकी बनक बताती है कि इसके हाथ पाँव फुर्ती से चल ही नहीं सकते। देखने से ही एंड़ा बेंड़ा लगता है।

सुधा देवी ने कुछ असंतोष से पति से पूछा, ‘यह नमूना कहाँ से उठा लाये?’

खरे साहब सवाल सुनकर भिनक गये। बोले, ‘तुम्हें तो सब नमूने लगते हैं। डेली- वेजेज़ में ट्रेन्ड आदमी कहाँ मिलेगा? जिनकी नौकरी पक्की हो गयी है वे किसी के घर पर काम नहीं करना चाहते। कहते हैं झाड़ू पोंछा के लिए जेब से पैसा खर्च करके आदमी रखो, यह हमारा काम नहीं है। सब अपने अधिकार जानते हैं।’

सुधा देवी का खयाल है कि उनके पति प्रशासन में कच्चे हैं, इसलिए ये सब काम उनसे नहीं होते। उनके अपने दादाजी ज़मींदार हुआ करते थे, ऐसे रोबदार ज़मींदार कि कब जूता उनके पाँव में रहे और कब हाथ में आ जाए, जान पाना मुश्किल था। उनका खयाल है कि प्रशासन क्षमता उन्हें विरासत में मिली है और एक बार मौका मिल जाए तो वे दुनिया को सुधार दें। खरे साहब चूँकि किरानियों के वंशज हैं, इसलिए शासन करना उनके बस में नहीं।

सुधा देवी ने समझ लिया कि अब इसी आदमी से काम चलाना है, इसलिए मीन-मेख  निकालने से कोई फायदा नहीं। लेकिन काम कैसे चले? यह आदमी चलता है तो लंबे-लंबे पाँव लटर- पटर होते हैं। खड़ा होता है तो कमर को टेढ़ा करके कमर पर हाथ रख लेता है। बर्तन माँजता है तो उसकी रफ्तार देखकर सुधा देवी का ब्लड प्रेशर बढ़ता है। बर्तनों पर गुज्जा ऐसे चलाता है जैसे उन पर चन्दन लेप रहा हो। बर्तनों की गन्दगी साफ करते में मुँह पर वितृष्णा का भाव साफ दिखायी पड़ता है। झाड़ू लगाता है तो हर पाँच मिनट में रुक कर कमर में हाथ लगाकर उसे सीधी करता है। लंबी-लंबी लटें बार-बार मुँह पर आ जाती हैं। उन्हें हटाने में ही काफी समय जाता है।

सुधा देवी के पास मनचाहा काम लेने के लिए एक ही रास्ता है— सारे वक्त आदमी के सिर पर चढ़े रहो। युवक का नाम गोविन्द है। गोविन्द बर्तन धोता है तो सुधा देवी बगल में खड़ी रहती हैं। बताती हैं कि कहाँ-कहाँ चिकनाई रह गयी। ‘जरा जोर से रगड़ो। कुछ खा पीकर नहीं आये क्या?’

गोविन्द झाड़ू लगाता है तो सुधा देवी पीछे-पीछे डोलती हैं। कहाँ-कहाँ जाले लगे हैं, इशारा करके बताती हैं। फर्नीचर पर जहाँ धूल रह जाती है वहाँ उँगली चला कर बताती हैं। किवाड़ों और पर्दों को हटाकर अटकी छिपी गन्दगी दिखाती हैं। गोविन्द को लगता है यह सफाई का काम खत्म नहीं होगा। एक कोने से मुक्ति मिलती है तो सुधा देवी की उँगली दूसरे कोने की तरफ उठ जाती है। गोविन्द के लिए यह समझना मुश्किल है कि इतनी सफाई क्यों ज़रूरी है। कहीं थोड़ा बहुत कचरा रह जाए तो क्या फर्क पड़ेगा? कचरे की तलाश में इतनी ताक-झाँक करना क्यों ज़रूरी है?

यह स्पष्ट है कि गोविन्द को साहबों के घर में काम करने का अभ्यास नहीं है। खरे साहब, सुधा देवी या उनके बच्चों से बात करने में उसके स्वर में कोई अदब-लिहाज नहीं होता। आवाज़ जैसी कंठ से निकलती है वैसी ही बहती जाती है। कहीं नट-स्क्रू नहीं लगता। शब्दों के चयन में भी कोई होशियारी नहीं होती। जो मन में आया बोल दिया। सुधा देवी के लिए यह स्थिति बड़ी कष्टदायक है। किसी के भी सामने अक्खड़ की तरह कुछ भी बोल देता है। दो भले लोगों के बीच चल रही बातचीत में हिस्सेदारी करने लगता है। दिन में दस बार दुनिया के सामने सुधा देवी की नाक कटती है।

गोविन्द के साथ बड़ी मुश्किलें हैं। घर में सब्ज़ी बेचने और दूसरे कामों से आने वाले मर्द- औरतों से बात करने में उसे बड़ा रस आता है। जाने कहाँ-कहाँ की बात करता है। कुछ अपनी सुनाता है, कुछ दूसरों की सुनता है। बतियाते, हँसते बड़ी देर हो जाती है। सुधा देवी सुनतीं, अपना खून जलाती रहती हैं। काम भले कुछ न हो, लेकिन ऊँचे स्वर में बात करना, हा हा ही ही करना बर्दाश्त नहीं होता। इशारे में कुछ समझाओ तो कमबख्त की समझ में आता नहीं।

जब तक आदमी खाली बैठा रहता है तब तक सुधा देवी का खून सनसनाता रहता है। नौकर का खाली बैठना उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। जब तक उसे फिर से किसी काम पर न लगा दें तब तक उनका किसी काम में मन नहीं लगता।

जिस कॉलोनी में खरे साहब रहते हैं उसके मुहाने पर सुरक्षा के लिए एक गार्ड रखा है जिसका वेतन कॉलोनी वाले सामूहिक रूप से देते हैं। सेना का रिटायर्ड हवलदार है, नाम चरन सिंह। बहुत दुनिया देखा हुआ, पका हुआ आदमी है। आदमी को बारीकी से पहचानता है। गोविन्द को देखता है तो उसके ओंठ नाखुशी से फैल जाते हैं। बुदबुदाता है— ‘यूज़लेस। एकदम अनफिट।’ उसकी नज़र में गोविन्द फौज के लिए किसी काम का नहीं है। इसे तो लेफ्ट राइट सिखाने में ही महीनों लग जाएँगे। लेकिन उससे बात करने में उसे मज़ा आता है क्योंकि गोविन्द की बातों पर अभी शहर की चतुराई और मजबूरी का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। खरी खरी बात करता है।

दो-तीन दिन में गोविन्द पलट कर सुधा देवी को जवाब देने लगा है। ‘कर तो रहे हैं’, ‘आप तो पीछे पड़ी रहती हैं’, ‘सुन लिया, आप बार-बार क्यों दुहरा रही हैं?’ और ‘थोड़ा दम लेने दीजिए, आदमी ही तो हैं।’ सुधा देवी उसका जवाब सुनकर एक क्षण अप्रतिभ हो जाती हैं, लेकिन जल्दी ही उसकी प्रतिक्रिया को परे धकेल कर फिर मोर्चे पर डट जाती हैं। नौकरों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देने लगे तो काम हो चुका।

लेकिन पाँच छः दिन में बाद ही विस्फोट हो गया। गोविन्द बाँस में झाड़ू बाँधकर बाहर दीवारों के जाले झाड़ रहा था और सुधा देवी हाइफन की तरह थोड़ा सा फासला रखकर उससे नत्थी उसके पीछे-पीछे घूम रही थीं। एकाएक उसने बाँस ज़ोर से ऐसा ज़मीन पर पटका कि  सुधा देवी की हृदयगति रुक गयी। चिल्ला कर बोला, ‘हमें नहीं करना ऐसा काम। आप हमेशा सिर पर खड़ी रहती हैं। हम आदमी नहीं हैं क्या?’

सुधा देवी इस अप्रत्याशित घटना पर अकबका गयीं। उन्होंने घूम कर इधर-उधर देखा कि कोई उनके इस अपमान का साक्षी तो नहीं है। फिर हकला कर बोलीं, ‘क्या? यह क्या तरीका है? काम कैसे नहीं करेगा?’

गोविन्द अपने दुबले पतले पंजे उठाकर बोला, ‘नहीं करेंगे। आप हमेशा पीछे-पीछे घूमती रहती हैं। यह काम कराने का कौन सा तरीका है?’

सुधा देवी तमक कर बोलीं, ‘पीछे-पीछे न घूमें तो तुम्हें कामचोरी करने दें? आधा काम होगा, आधा पड़ा रह जाएगा।’

गोविन्द अपना हाथ उठाकर बोला, ‘हमें नहीं करना आपका काम। हम जा रहे हैं। साहब को बता दीजिएगा।’

सुधा देवी कुछ घबरा कर बोलीं, ‘ऐसे कैसे चला जाएगा? कोई मजाक है क्या?’

गोविन्द पलट कर बोला, ‘हाँ मजाक है। आपका कर्जा नहीं खाया है।’

उसने अपनी साइकिल उठाई और लंबी-लंबी टाँगें चलाता हुआ निकल गया। सुधा देवी कमर पर हाथ धरे हतबुद्धि उसे जाते देखती रहीं।

चरन सिंह दूर से सारे नज़ारे को देख रहा था। गोविन्द के ओझल हो जाने के बाद धीरे-धीरे चलता हुआ सुधा देवी के पास आ गया। बोला, ‘नासमझ है। गाँव से आया है। अभी समझता नहीं है। कुछ दिन ठोकर खाएगा, फिर समझ जाएगा। अभी दुनिया नहीं देखी है। आप फिकर मत करो। कल वापस आ जाएगा।’

सुधा देवी ने अपने गड़बड़ हो गये आत्मसम्मान को समेटा, फिर दर्प से बोलीं, ‘जब पेट में रोटी नहीं जाएगी तब होश आएगा। बहुत अकड़ता है।’

उनके भीतर जाने के बाद चरन सिंह के ओठों पर हँसी की हल्की रेखा खिंच गयी।

खरे साहब के दफ्तर से आने पर सुधा देवी ने झिझकते हुए उन्हें सूचना दे दी। खरे साहब निर्विकार भाव से बोले, ‘कौन सी नई बात है? तुम्हारे साथ हमेशा यही होता है। कल आ जाए तो अपना भाग सराहना।’

दूसरे दिन सवेरे आँख खुलते ही सुधा देवी का ध्यान पिछले दिन की घटना पर गया। उन्हें भरोसा था कि गोविन्द लौटकर आएगा। भूख बड़े से बड़े अकड़ू की अकड़ ढीली कर देती है। यह किस खेत की मूली है। ताकत एक पाव की नहीं है, लेकिन अकड़ रईसों जैसी है।

उसके आने का वक्त हुआ तो सुधा देवी बेचैन आँगन में घूमने लगीं। सारे विश्वास के बाद भी कहीं खटका था कि कहीं न आया तो। प्रतिष्ठा का सवाल था।

दिन चढ़ने लगा लेकिन गोविन्द का कहीं पता नहीं था। सुधा देवी भीतर घूमते घूमते ऊबकर बाहर आ गयीं। सामने फैले रास्ते पर बार-बार नज़र डालतीं। चरन सिंह अपनी ड्यूटी पर तैनात था। उसने उनकी तरफ एक बार देखकर मुँह फेर लिया।

अचानक एक दस बारह साल का लड़का खड़खड़ करती साइकिल पर आया और चरन सिंह से कुछ पूछ कर उनकी तरफ बढ़ आया। उनके सामने आकर बोला, ‘गोविन्द गाँव चला गया। कह गया कि बता आना कि अब नहीं आएगा।’

सुधा देवी का मुँह उतर गया। बड़ी कोशिश से गला साफ कर बोलीं, ‘ठीक है। अच्छा हुआ।’ लड़का मुड़ने लगा तो पीछे से बोलीं, ‘अब आये तो कहना हमारे घर आने की जरूरत नहीं है।’

लड़का ‘अच्छा’ कह कर आगे बढ़ गया और सुधा देवी पराजित सी घर की तरफ चल दीं। चरन सिंह ने फिर उनकी तरफ देखा और चेहरे पर फैल रही मुस्कान को छिपाने के लिए चेहरा घुमा लिया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 250 – शिवोऽहम् ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 250 शिवोऽहम् ?

।। चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

गुरु द्वारा परिचय पूछे जाने पर बाल्यावस्था में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा दिया गया उत्तर निर्वाण षटकम् कहलाया। वेद और वेदांतों का मानो सार है निर्वाण षटकम्। इसका पहला श्लोक कहता है,

मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं न मन हूँ, न बुद्धि, न ही अहंकार। मैं न श्रवणेंद्रिय (कान) हूँ, न स्वादेंद्रिय (जीभ), न घ्राणेंद्रिय (नाक) न ही दृश्येंद्रिय (आँखें)। मैं न आकाश हूँ, न पृथ्वी, न अग्नि, न ही वायु। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

मनुष्य का अपेक्षित अस्तित्व शुद्ध आनंदमय चेतन ही है। आनंद से परमानंद की ओर जाने के लिए, चिदानंद से सच्चिदानंद की ओर जाने के लिए साधन है मनुष्य जीवन।

सर्वसामान्य मान्यता है कि यह यात्रा कठिन है। असामान्य यथार्थ यह  कि यही यात्रा सरल  है।

इस यात्रा को समझने के लिए वेदांतसार का सहारा लेते हैं जो कहता है कि अंत:करण और बहि:करण, इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं।  मन, बुद्धि और अहंकार अंत:करण में समाहित हैं। स्वाभाविक है कि अंत:करण की इंद्रियाँ देखी नहीं जा सकतीं, केवल अनुभव की जा सकती हैं। संकल्प- विकल्प की वृत्ति अर्थात मन, निश्चय-निर्णय की वृत्ति अर्थात बुद्धि एवं स्वार्थ-संकुचित भाव की वृत्ति अर्थात अंहकार। इच्छित का हठ करनेवाले मन, संशय निवारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली बुद्धि और अपने तक सीमित रहनेवाले अहंकार की परिधि में मनुष्य के अस्तित्व को समेटने का प्रयास हास्यास्पद है।

बहि:करण की दस इंद्रियाँ हैं। इनमें से चार इंद्रियों आँख, नाक, कान, जीभ तक मनुष्य जीवन को बांध देना और अधिक हास्यास्पद है।

सनातन दर्शन में जिसे अपरा चेतना कहा गया है, उसमें निर्वाण षटकम् के पहले श्लोक में निर्दिष्ट आकाश, भूमि, अग्नि, वायु, मन, बुद्धि, अहंकार जैसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों तत्व सम्मिलित हैं। अपरा प्रकृति केवल जड़ पदार्थ या शव ही जन सकती है। परा चेतना या परम तत्व या चेतन तत्व या आत्मा का साथ ही उसे चैतन्य कर सकता है, चित्त में आनंद उपजा सकता है, चिदानंद कर सकता है।

आनंद प्राप्ति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन, जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। मनुष्य का अहंकार जब उसे भास कराने लगता है कि उसमें सब हैं, तो यह भास, उसे घमंड से चूर कर देता है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाए तो वह धन, पद, कीर्ति पाता तो है पर उसके अहंकार से बचा रहता है। वह सबमें खुद को देखने लगता है। सबका दुख, उसका दुख होता है। सबका सुख, उसका सुख होता है। वह ‘मैं’ से ऊपर उठ जाता है।

यूँ विचार करें करें कि जब कोई कहता है ‘मैं’ तो किसे सम्बोधित कर रहा होता है? स्वाभाविक है कि यह यह ‘मैं’ स्थूल रूप से दिखती देह है। तथापि यदि आत्मा न हो, चेतन स्वरूप न हो तो देह तो शव है। शव तो स्वयं को सम्बोधित नहीं कर सकता। चिदानंद चैतन्य, शव को शिव करता है  और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के शब्द सृष्टि में चेतनस्वरूप की उपस्थिति का सत्य, सनातन प्रमाण बन जाते हैं।

इसीलिए कहा गया है, ‘शिवोहम्’, … मैं शिव हूँ.. ‘मैं’ से शव का नहीं शिव का बोध होना चाहिए। यह बोध मानसपटल पर उतर आए तो यात्रा बहुत सरल हो जाती है।

यात्रा सरल हो या जटिल, इसमें अभ्यास की बड़ी भूमिका है। अभ्यास के पहले चरण में निरंतर बोलते, सुनते, गुनते रहिए, ‘शिवोऽहम्।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 197 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 197 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 197) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 197 ?

☆☆☆☆☆

मुख़्तसर सा गुरूर भी

ज़रूरी है जीने के लिए

ज़्यादा  झुक  के मिलो

तो  दुनिया पीठ को ही

पायदान  बना लेती है…

☆☆

Some arrogance, too,  is

Necessary to live, if you

bend too much to meet

Then  the  world makes

your back a footmat only…

☆☆☆☆☆

माना  तेरी  उलझन हूँ  मैं

पर तेरी सुलझन भी हूँ  मैं…

थोड़ा दीवाना ही सही मैं

मगर  बड़ा दिलदार हूँ  मैं…

☆☆

Agreed I’m your riddle only…

But I’m your solution too…

Though I am  bit crazy

But a large-hearted one!

☆☆☆☆☆

क्या करोगे अब तुम

मेरे पास आकर भी..

खो दिया है तुमने मुझे

बार-बार आजमा कर…

☆☆

What will you do now

By coming close to me…

You’ve lost me for good

By trying again and again

☆☆☆☆☆

हर  वक़्त  फ़िजाओं  में,

महसूस करोगे तुम हमको…

हम दोस्ती की वो ख़ुशबू हैं,

जो महकते रहेंगे  उम्र भर…

☆☆

At all times in environment

You  will  always  feel  me

I’m fragrance of friendship

That will last the whole life

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 197 ☆ गीत – जितना दिखता है आँखों को… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – जितना दिखता है आँखों को…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 197 ☆

☆ गीत – जितना दिखता है आँखों को… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

ऐसा सोच न नयन मूँदना

खुली आँख सपने देखो

खुद को देखो, कौन कहाँ क्या

करता वह सब कम लेखो

कदम न रोको

लिखो, ठिठककर

सोचो, क्या मन में टिकता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

नहीं चिकित्सक ने बोला है

घिसना कलम जरूरी है

और न यह कानून बना है

लिखना कब मजबूरी है?

निज मन भाया

तभी कर रहीं

सोचो क्या मन को रुचता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

*

मन खुश है तो जग खुश मानो

अपना सत्य आप पहचानो

व्यर्थ न अपना मन भटकाओ

अनहद नाद झूमकर गाओ

झूठ सदा

बिकता बजार में

सत्य कभी देखा बिकता?

जितना दिखता है आँखों को

उससे अधिक नहीं दिखता

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०१९ 

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ विठ्ठल विठ्ठल म्हणता… — दोन काव्ये ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ विठ्ठल विठ्ठल म्हणता… — दोन काव्ये ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

१ ) 

वारीमधे चालताना

डोईवर वृंदावन

गळा वैजयंती माळ

मुखे विठु गुणगान

*

एकरूप होती सारे

विठुमाऊली ओढीने

विठ्ठल विठ्ठल म्हणता

मिळे मना संजीवन

*

 आषाढाचे मेघ नभी

 सावळ्याचे रूप जणू

 ते  रिमझिम पडताना

  गोडी तया अभंगाची

*

  श्वास येतो आणि जातो

  त्याने मिळे देहभान

  वारीमधे चालताना

 मना ईश्वरीय आश्वासन

*

   विठू माऊलीची माया

   चंद्रभागेच्या पाण्यात

   तिच्या काठावर दिसे

   तीच वाळूच्या कणात

*

   दर्शनाचा लाभ होता

   पायी टेकताच डोई

   एक अनामिक ऊर्जा

   क्षणी संचारते देही

*

   देहातली  स्पर्श ऊर्जा

   जगण्याची साफल्यता

   माऊलीच मायबाप

   पांडुरंग बहिण बंधू भ्राता

*

   सर्व सुकूमार मृदू धागे

   जडलेत विठ्ठलाचे पायी

   पदराची सावली नित्य

   देते माझी रखुमाई

—  कवयित्री : नीलांबरी शिर्के

२ ) 

आली पावसाची सर

 हिंडे साऱ्या दिंडीभर

 पूर्ण दिंडीत ऐकु येई

 विठू नामाचा गजर

*

 सर वारीत फिरली

भक्तिरसात भिजली

 तिच्या थेंबाथेंबातच

 विठू माऊली भरली

*

 आता सरी  बरसणे

 वाटे अभंगाचे गाणे

 आषाढी पालखीचे

 आहे स्वरूप देखणे

—  कवयित्री : नीलांबरी शिर्के

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-27 – भगत सिंह और पाश से जुड़ने के दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -27 – भगत सिंह और पाश से जुड़ने के दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

चंडीगढ़ के मित्रों के नाम या उनका काम, स्वभाव बताते संकोच नहीं हुआ। इतने दिन में दो बार  बड़े भाई जैसे मित्र फूल चंद मानव का कहीं कहीं थोड़ा सा जिक्र जरूर आया। आज चलता हूँ उनकी ओर ! फूल चंद मानव नाभा से संबंध रखते हैं और नाभा एक ही बार देखा जब इनकी शादी में एक बाराती बन कर वहाँ से दिल्ली गया था। कब और कैसे परिचय हुआ, यह तो अब ठीक ठीक सा याद नही आ रहा पर ये उन दिनों पंजाब के सूचना व सम्पर्क विभाग में कार्यरत थे। सेक्टर सताइस में आवास मिला हुआ था। इनका छोटा भाई रमेश और मां भी इनके साथ रहते थे। लेखन का जोश, ज़ज्बा और सरकारी नौकरी। फिर वे उन दिनों मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह के पीआरओ भी बने, जिसका नशा आज भी इनकी बातों में झलक जाता है। समझिये कि पत्रकारिता का अनुभव भी यहीं हो गया ! फिर इन्हें पंजाब की हिंदी पत्रिका ‘ जागृति’ के संपादन का सुनहरी अवसर भी मिला, जिस पर मानव अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। उन दिनों मुझे मानव ने प्रसिद्ध व्यंग्यकार व पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान, बलवंत रावत, बलराज जोशी और एक बार दिल्ली से आईं लेखिका देवकी अग्रवाल आदि कितने ही रचनाकारों से परिचय का अवसर दिया। बलवंत रावत डाॅ योजना रावत के पिता हैं जबकि बलराज जोशी कार्टूनिस्ट संदीप जोशी के पिता थे। इस तरह ये फूल चंद मानव का ही कमाल था कि एक ही परिवार की दो दो पीढ़ियों के सदस्यों से मिलने का अवसर बना दिया।

मुख्य तौर पर आज फूल चंद मानव को  एक शानदार अनुवादक व कवि के रूप में जाना जाता है जबकि सबसे पहले इनका कहानी के प्रति जुनून था और इनकी कहानी ‘ अंजीर’ उन दिनों ‘ “धर्मयुग’में प्रकाशित हुई थी और इसी शीर्षक से इनका कथा संग्रह भी आया था। इसी कथा संग्रह की समीक्षा लिखने का अवसर देकर मानव ने मुझ अनाड़ी खिलाड़ी को समीक्षा क्षेत्र में उतार दिया यानी यह रूप मिला ‘अंजीर’ से, जिसका क, ख, ग भी मैं नहीं जानता था। जाहिर है कि यह समीक्षा जागृति में आई।

जब मैं बीए प्रधम वर्ष का छात्र था नवांशहर के आर के आर्य काॅलेज में, तब हमारे हिंदी  प्राध्यापक डाॅ महेंद्र नाथ शास्त्री के स़पादन में मैंने सन् 1970 में लघु पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया तो फूल चंद मानव और मैं संपादन सहयोगी बन गये। ‌यह वही पत्रिका है, जिसके पहले अंक में मेरी पहली लघुकथा आई और दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक रहा, जो हिंदी के पहले पहले लघुकथा विशेषांकों में एक है और वह भी पंजाब जैसे अहिंदी भाषी क्षेत्र से, इसलिए इसकी चर्चा उन दिनों ‘सारिका’ के नयी पत्रिकाओं काॅलम में भी हुई !

उन दिनों पंजाब में नक्सलवादी आंदोलन चल रहा था, जिसके मुख्य केन्द्र खटकड़ कलां व निकटवर्ती गांव मंगूवाल ही थे और मेरी अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ भी सीआईडी के निशाने पर आ गयी ! यह बात मुझे खुद सीआईडी के उस इ़ंस्पेक्टर ने बताई, जिसकी ड्यूटी मेरी डाक से आई चिट्ठियों को गुप्त रूप से पढ़ने की एक माह तक लगाई गयी थी। ‌मैं खुद डाकखाने में अपनी डाक लेने जाता था तो एक दिन हमारे इलाके के डाकिए रामकिशन ने कहा कि एक इंस्पेक्टर तुमसे मिलना चाहता है। वह मुझे इंस्पेक्टर के पास ले गया और इंस्पेक्टर मुझे देखता ही रह गया ! फिर बोला कि आप मुझे जानते नहीं बेटे लेकिन मुझे बताना नहीं चाहिए था फिर भी तुम्हारी उम्र देखकर बताना पड़रहा है कि मैं सीआईडी इंस्पेक्टर हूं और एक महीने तक तुम्हारी डाक सेंसर करने का आदेश था। मैं पहले आप की डाक देखता था और बाद में वैसी की वैसी पैक कर आपको मिलती थी।

– ऐसा क्यों?

– आप नही जानते कि अनियतकालीन पत्रिकाओं का प्रकाशन मुख्य तौर पर आजकल नक्सलवादी विचारधारा के लोग करते हैं लेकिन एक माह तक सेंसर किये जाने के बावजूद आपके खिलाफ कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जो रिपोर्ट मैं देने जा रहा हूँ लेकिन आपकी छोटी उम्र देखकर सलाह देता हूं कि यदि पत्रिका निकालनी ही है तो इसे रजिस्टर्ड करवा लो।

– कैसे करवाते हैं?

– जालंधर जाओ और डी सी ऑफिस में रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर के ऑफिस में फाॅर्म भर आओ ! इस तरह मैंने फाॅर्म भरा जालंधर जाकर और अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ से ‘प्रस्तुत’ बन गयी! ऐसे सरकार की नज़र में चढ़ने से पहले पहले उस इंस्पेक्टर ने मुझे अपने बेटे की तरह सही राह बता दी। जिन दिनों मैं एम ए, बीएड कर खटकड़ कलां यानी शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव में गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक और बाद में कार्यकारी प्रिंसिपल बना, उन दिनों खटकड़ कलां व मंगूवाल के दर्शन खटकड़ व इनके छोटे भाई जसवंत खटकड़ , छात्र नेता परमजीत पम्मी व पुनीत सहगल आदि से स्कूल में इनसे परिचय हुआ और इनके नाटक लोहा कुट्ट ( बलवंत गार्गी) को देखने का अवसर अनेक बार मिला और यही खटकड़ कलां में मुझे शहीद भगत सिंह के सारे परिवारजनों से मिलने का अवसर मिला जिसके आधार पर मैंने तेइस पेज लम्बा आलेख लिखा – भगत सिंह के पुरखों का गांव ! इसे तब सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक ‘ धर्मयुग’ ने प्रमुख तौर पर प्रकाशित किया, जिसके चलते ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के उस समय समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर ने मेरी पीठ थपथपाई थी और सहायक संपादक विजय सहगल ने कहा था कि तुमने तो भगत सिंह पर रिसर्च ही कर डाली ! यह भी बता दूँ कि मेरे आलेख वाली प्रतियां राज्यसभा में लहराई गयी थीं, जिसके बाद ही खटकड़ कलां में शहीद भगत सिंह स्मारक बनाने का ख्याल सरकार को आया और भगत सिंह को सही श्रद्धांजलि!! यह मेरा कलम  का कमाल ही रहा।

खैर,  वापस फूल चंद मानव की ओर आता हूँ। मानव बठिंडा में हिंदी लैक्चरर बन कर चले गये और कुछ वर्ष तक हमारा सम्पर्क टूटा रहा !

इधर मैं खटकड़ कलां से जुड़ता गया वामपंथी नाटककार भाजी गुरशरण सिंह से, क्रांतिकारी कवि पाश, दर्शन खटकड़, हरभजन हल्वारवी से ही नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह से, जो उन दिनों ‘भगत सिंह व उनके साथियों के दस्तावेज’ पुस्तक डाॅ चमन लाल के सहयोग से तैयार कर रहे थे, कुछ कुछ मेरा भी सहयोग रहा इसमें ! पाश की कविताओं ने सबको अचंभित कर दिया और

सबसे खतरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

जो आज बहुचर्चित और बहुपठित कविता है ! पाश से तीन चार मिलना भी हुआ, इन्हीं दिनों ! मैंने ‘धर्मयुग’ वाले आलेख में लिखा था कि यदि कुरूक्षेत्र की धरती आज भी लाल पाई जाती है तो भगत सिंह के गांव की माटी भी आज तक लाल ही है ! यह विचार की धरती है, क्रांति की धरती है और मै इस रंग में रंगता चला गया ! प्रिंसिपल के साथ एक ऐसा रिपोर्टर जिससे ‘धर्मयुग’ ने लगातार तीन वर्ष भगत सिंह के शहीदी दिवस मेले की कवरेज करवाई ! फिर पाश विदेश चला गया लेकिन एक वर्ष वह भारत लौटा और‌ शहीदी दिवस पर खटकड़ कलां भगत सिंह को नमन्‌ करने आया और निकटवर्ती गांव काहमा गांव में वह उग्रवादियों की गोलियों का शिकार बना। एक ही दिन भगत सिंह और पाश का बन गया ! तब तक मैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक मंडल का हिस्सा बन चुका था और वही बात अपने प्रिय कवि पाश के बारे में लिखने का जिम्मा मुझे ही सौ़प दिया विजय सहगल‌‌ ने , मेरे अतीत को जानते हुए। पाश के तीनों काव्य संग्रह खरीद कर लाया और उसकी मुलाकातों में खोये लिखा ! एक कविता जिसे मैं आज भी अपनी बेटी रश्मि को सुनाया करता हूँ, इसका अंश है :

इह चिड़ियां दा चम्बा

इहने किते नहीं जाना !

इहने ब्याह तों बाद

इक खेत तों उठके

बस दूजे पिंड दे खेत विच

उही घाह कटना!

इह चिड़ियां दा चम्बा

किते नईं जाना!

आज शहीद भगत सिंह और पाश की यादों में खो गया, फूल चंद मानव की बाकी कहानी फिर सही !

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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