“… हे काय? अजून तुम्ही स्टूलावरच उभे आहात काय? गळफास लावून घ्यायला धीर होत नाही ना? …पाय लटलट कापायला लागलेत ना! तो फास गळ्यात अडकवून घ्यायला हात थरथरायलाही लागलेत का?.. अगं बाई! चेहरा कसा भीतीने फुलून गेलाय… अंगालाही कापरं भरलयं वाटतं… आणि छप्पन इंचाची नसलेली छाती कशी उडतेय धकधक… ह्यॅ तुमची.. तुमच्याने साधं फासाला जाणं देखील जमणारं नाही… घरातल्या इतर कामा सारखंच फाशी घेण्याचं कामं सुध्दा तुम्हाला जमत नाही…म्हणजे बाई कमालच झाली म्हणायची…अहो बाकीच्या संसाराच्या कामात मेलं एकवेळ राहू दे हो पण निदान फासावर जाण्याच्या कार्यात तरी पुरूषार्थ दाखवयाचा होताना…तितही डरपोक निघालात….तुका म्हणे तेथे हवे जातीचे हे येरागबाळ्याचे काम नोव्हे… आणि हे काय हातात लिहिलेला कागद कसला घेतलाय? बघु दे मला एकदा वाचून… आपल्या आत्महत्येला जबाबदार म्हणून माझं नावं वगैरे तर लिहिले नाही ना त्यात… हो तुमचा काय भरवंसा.. तुम्ही मनात आलं नाही तर फासावर लटकवून घ्याल नि व्हालं मोकळे एकदाचे… आणि मी बसते इथे विनाकारण पोलिसांच्या ससेमिऱ्याला तोंड देत नि कोर्ट कचेऱ्याच्या हेलपाट्या टाकत आयुष्यभरं… तसं जिवंत पणीही तुम्ही मला सुखानं जगू दिलं तर नाहीच पण मेल्यावर सुद्धा माझ्या आयुष्याची परवड परवड करून गेल्याशिवाय चैन ती तुम्हाला कसली पडायची नाही… जळ्ळं माझं नशिब फुटकं म्हणून देवानं हा असला नेभळट नवरा माझ्या नशीबी बांधून दिला… अरेला कारे केल्याशिवाय का संसाराचा गाडा चालतोय… पण ती धमकच तुमच्या खानदानातच नाही त्याला तुम्ही तरी काय करणार… अख्खं गावं तुम्हाला भितरा ससोबा महणतयं आणि मला जहाॅंबाज गावभवानी… पण कुणाची टाप होती का माझ्या वाटेला येण्याची… एकेकाची मुंडीच पिरगाळू टाकली असती… मी होते म्हणून तर इथवरं संसार केला… आणखी कुणी असती तर तेव्हाच गेली असती पाय लावून पळून… चार दिडक्या कमवून घरी आणता म्हणजे वाघ मारला नाही… घर संसार माझा तसाच तुमाचाही आहे… नव्हे नव्हे बायको पेक्षा नवऱ्याचा संसार जास्त महत्त्वाचा.. त्याचा वंशवेल वाढत जाणार असतोना पुढे… मग तो कर्ता पुरुष कसा असायला हवा हूशार, तरतरीत, शरीरानं दणकट नि मनानं कणखरं.. हयातला एकही गुण तुमच्याजवळ असू नये… जरा बायकोनं आवाज चढवला कि तुम्ही घरातून पळून जाता… कंटाळले मी तुमच्या या पळपुटेपणाला… एकदाचं काय ते कायमचे पळूनच का जात नाही म्हणताना आज तुम्ही हि फिल्मी स्टाईल स्टंटबाजीनं फासावर लटकवून घेण्याचं काढलतं.. कशाला मला भीती घालायला… असल्या थेरांना मी भिक घालणारी बाई नाही… माझ्या मनगटातलं पाणी काही पळून गेलंल नाही… माझं मी पुढचं सगळं निभावून न्यायला खंबीर आहे… तुम्ही तुमचं बघा… आणि काय ते लवकरच आटपा … आज एकच रविवारची सुट्टी असल्याने सगळं घरं झाडून घ्यावं म्हणतेय मी… मला ते तुमच्या पायाखालचं स्टूल हवयं.. तेव्हा तुमचा निर्णय लवकर अंमलात आणा… मला थांबायला वेळ नाही बरीच कामं पडलीत घरात… नाहीतर असं कराना एवीतेवी तुम्ही फासावर लटकायचं हे ठरवलंय ना.. मग जाण्यापूर्वी शेवटचं एकदा घर झाडून द्यायला मदत करुनच गेलात जाता जाता तरं माझ्या मनाला तेव्हढचं समाधान मिळेल हो… आणि त्या आधी तुमचे आवडीचे दडपे पोहे नि त्याबरोबर गरम गरम चहा ठेवलाय तोही पिऊन घ्यालं… नाहीतर उगाच माझ्या मनाला नकोती रुखरुख लागेल… आता बऱ्या बोलानं खाली उतरतायं कि कसं.. का मारू लाथ त्या स्टूलाला अशीच… “
… ” नको नको…मी खाली उतरतो… तू म्हणतेय तसं फासावर जाण्यापूर्वी दडपे पोहे नि चहा घेतो… ते घरं झाडायला तुला मदतही करतो… पण पण तू असं समजू नकोस कि मी माझ्या निर्णायापासून परावृत्त झालो म्हणून… ते आपलं तुझ्या शब्दाचा मान राखावा आणि तुला ते स्टूल हवयं म्हणून… हे सगळं आवरून झालं कि मी माझा निर्णय अंमलात आणणारं हं… मग भले त्यावेळी तू कितीही मधे मधे आढेवेढे आणलेस तरी माघार घेणार नाही… पण त्यावेळी तू मात्र दडपे पोहे नि गरमागरम चहाच्या मोहात फशी पाडू नकोस बरं… नाहीतर…. “
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “विस्तार है गगन में…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 206 ☆ विस्तार है गगन में… ☆
खेल जीतने के लिए की गयी चालाकी ,अहंकार, अपने रुतबे का गलत प्रयोग, गुटबाजी, धोखाधड़ी ये सारी चीजें दूसरे की नज़रों में गिरा देती हैं। भले ही लोग अनदेखा कर रहे हों किंतु आप उनकी नज़रों से गिरते जा रहे हैं। इसका असर आगामी गतिविधियों में दिखेगा। जब सच्ची जरूरत होगी तो कोई साथ नहीं देगा।
ईमानदार के साथ लोग अपने आप जुड़ने लगते हैं ,जो भी उसका विरोध करता है उसे खामियाजा भुगतना पड़ता है। पहले सामाजिक बहिष्कार होता था अब डिजिटल संदेशों के द्वारा बायकाट की मुहिम चला दी जाती है। जनमानस की भावनाओं के आगे उसे झुकना पड़ता है।
जिस तरह भक्त और भगवान का साथ होता है ठीक वैसे ही आस्था और विश्वास का भी साथ होता है। जब हम किसी के प्रति पूर्ण आस्था रख कोई कार्य करते हैं तो अवश्य ही सफल होते हैं। अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पूर्णमनोयोग से, गुरु के प्रति मन वचन कर्म से जिसने भी निष्ठा रखी वो अवश्य ही विजेता बन आसमान में सितारे की तरह चमका।
बिना आस्था के हम जीवन तो जी सकते हैं पर संतुष्ट नहीं रह सकते कारण ये कि हमें जितना मिलता है उससे अधिक पाने की चाह बलबती हो जाती है। ऐसे समय में आस्थावान व्यक्ति स्वयं को संभाल लेता है जबकि केवल लक्ष्य को समर्पित व्यक्ति राह भटक जाता है और धीरे- धीरे मंजिल उससे अनायास ही दूर हो जाती है।
जीवन में आस्थावान होना बहुत आवश्यक है आप किसी भी शक्ति के प्रति आस्था रखिए तो तो आप ये महसूस करेंगे कि उसकी शक्ति आपमें समाहित हो रही है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना जबरदस्ती का रसायन: समाज की हास्य कथा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 15 – जबरदस्ती का रसायन: समाज की हास्य कथा☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
जबरदस्ती! यह शब्द सुनते ही दिल में एक अद्भुत प्रकार का उल्लास और चिंता दोनों का मिश्रण पैदा होता है। समाज में जबरदस्ती की प्रवृत्ति इतनी प्रचलित है कि यह किसी अदृश्य और विशाल सर्कस का हिस्सा लगती है, जिसमें सभी लोग बिना किसी खुशीनुमा खुशी के अपने-अपने रोल निभाते हैं। यह एक ऐसा खेल है जिसमें जीतने का कोई स्पष्ट नियम नहीं होता और हर कोई बस खुद को सबसे ऊँचा मानता है।
चलिए, सबसे पहले बात करते हैं उन घरों की, जहाँ पर जबरदस्ती का एक विशेष प्रकार का रसायन बन गया है। यहाँ, माँ-बाप की जबरदस्ती से लेकर भाभी-देवर की नोंक-झोंक तक, हर जगह जबरदस्ती का राज है। बच्चों को “बड़े आदमी बनने” के सपने दिखाकर पढ़ाई के मैदान में उतारा जाता है, और फिर ‘सभी के मापदंड पर खरा उतरने’ का खेल शुरू होता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अगर किसी बच्चे ने कोई नया हुनर दिखाया, तो वह केवल ‘माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने का तरीका’ है।
अब आते हैं ऑफिस की दुनिया पर। यहाँ भी जबरदस्ती का एक अनोखा मेला सजा हुआ है। बॉस की जबरदस्ती से लेकर कलीग की खींचतान तक, सभी के बीच एक अदृश्य युद्ध चल रहा है। बॉस अपने कागजों के ढेर को लेकर कभी-कभी ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह किसी स्वतंत्र राष्ट्र का शासक हो और उसका आदेश “फरमान” हो। और अगर कर्मचारी ने अपनी राय रखी, तो उसे “अनुशासनहीनता” का तमगा मिल जाता है। ऑफिस के कैफे में “सुस्वादु कॉफी” का सुझाव देना, भी कभी-कभी बॉस की जबरदस्ती का शिकार हो जाता है।
फिर आते हैं समाज में आम लोगों की बात पर। यहाँ पर भी जबरदस्ती का एक दिलचस्प संस्करण देखने को मिलता है। शादी-ब्याह के मामलों में जबरदस्ती से लेकर सामाजिक रीति-रिवाजों की पाबंदियों तक, हर जगह का नज़ारा ऐसा होता है जैसे हम एक अनमोल प्राचीन यथार्थ को जी रहे हों। शादी के मंडप में “हर लड़की का सपना होता है कि वह महल जैसी शादी में उतरे,” लेकिन समाज में यह केवल एक आदर्श स्थिति है, जिसमें वास्तविकता कभी जगह नहीं बनाती।
इस सबके बीच, राजनीतिक और सामाजिक संगठनों की जबरदस्ती की भी एक अलग ही कहानी है। यहाँ पर नेताओं का जबरदस्ती वाला व्यवहार ऐसा होता है जैसे वे एक टेलीविजन शो के मेज़बान हों। चुनावी वादों की लुभावनी चमक और तात्कालिक राहत के नाम पर हर कोई “नम्रता” के प्रदर्शन में संलग्न रहता है। लेकिन असली खेल तब शुरू होता है जब वे अपने वादों को निभाने के बजाय, अपना टाइम-सारणी पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
यह जबरदस्ती की अनोखी कहानी केवल हमारे देश की नहीं, बल्कि हर जगह की है। लोगों ने इसे एक जीवनशैली मान लिया है, जिसमें बिना किसी मोल के मजे लेने की उम्मीद की जाती है। ऐसे में अगर आप कभी सोचे कि समाज में जबरदस्ती से कैसे छुटकारा पाया जाए, तो शायद आपको यह समझ में आ जाएगा कि यह एक चक्रीय खेल है, जिसमें हर कोई किसी न किसी स्तर पर एक-दूसरे को घेरने की कोशिश कर रहा है।
अंततः, जबरदस्ती का यह खेल न तो कभी खत्म होगा, और न ही इससे निजात पाना संभव है। इसके बावजूद, हमें हंसी-मज़ाक और आत्म-आलोचना के माध्यम से इसे स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि आखिरकार, जबरदस्ती केवल समाज के हास्य का एक हिस्सा है, जिसे हम सब मिलकर निभा रहे हैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 293 ☆
व्यंग्य – बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना
शाम की, लक्जरी टू बाय टू कोच झुमरीतलैया से पटना जा रही थी। बस अपने स्टैंड से चली तो शहर से बाहर निकलते ही एक संभ्रांत से दिख रहे बुज़ुर्ग एकाएक अपनी सीट से खड़े हो गए। लोकतंत्र में सीट से खड़े होने का रिवाज आम है। बहरहाल वे मुसाफिरों का ध्यान आकर्षित करते हुए जोर से नेता जी की तरह कहने लगे भाइयों बहनों मैं कोई भिखारी नहीं हूँ, ऊपर वाले ने मुझे खूब नवाजा है, पर मेरी पत्नी भगवान को प्यारी हो गई है, दुर्भाग्य अकेले नहीं आता, कुछ दिन पहले मेरी फैक्ट्री में आग लग गई, आप लोगों ने अखबारों में वह हादसा पढ़ा होगा, मैं इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का कारोबार करता हूँ, मेरा सारा माल जल गया, इन हालात में मुझे दिल का दौरा पड़ चुका है। रिश्तेदारों ने हमसे किनारा कर लिया है। ये मेरी जवान बेटी है, मेरे बाद इसे कौन देखेगा यही ग़म मुझे खाए जा रहा है। वह शख्स रोने लगा। उसकी सुन्दर, गोरी युवा बेटी अपनी ओढ़नी संभालते उठी और बाप को सहारा देकर बैठा दिया। यात्री इस एकाएक संभाषण से हतप्रभ थे। उनके भाषण से प्रभावित होकर पिछली सीट से एक आदमी खड़ा हुआ। उसने कहा ” मैं पटना में रहता हूं, खुद का घर है, ये जो मेरे बगल में बैठा हुआ है, मेरा इकलौता बेटा है, इंजिनियर है, इसके लिये मुझे अच्छी दुल्हन की तलाश है।
मुझे यह बच्ची बहू के रूप में अच्छी लग रही है। मैं इस बेटी का हाथ अपने बेटे के लिए मांगता हूं। बाजू में बैठा लड़का भी युवती की ओर मुखातिब होते हुए बोला कि यदि इन्हें यह रिश्ता मंजूर हो तो मैं इस शादी के लिये तैयार हूं। लड़की ने भी संकोच से हामी में सिर हिला दिया। यात्री प्रसन्नता से तालियां बजाने लगे। लेना एक न देना दो, हम सब एवेई तालियां पीटने में माहिर हैं।
बस में मौजूद एक पंडित जी खड़े होकर बोले ये सफर बहुत सुहाना है। अभी मुहूर्त भी मंगलकारी है, विवाह जैसा एक शुभ कार्य हो जाए वह भी सफर में इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती है। यदि सब राजी हों तो इन दोनों का विवाह करा दूँ। लड़का लड़की राजी तो, भला एतराज कौन करता ? सरकारी बिल की तरह वाह वाह के ध्वनि मत से समर्थन मिला। कुछ उत्साही युवक और महिलायें वर पक्ष और वधू पक्ष के हिस्से बन गये। मंगल गान गाए जाने लगे। यात्रियों को मुफ्त का मनोरंजन और टाइम पास सामाजिक कार्य मिल गया। पंडित जी ने चलती बस में ही मंत्रोच्चारण कर दीपक की परिक्रमा से विवाह संपन्न कर दिया। अपनी अपनी परेशानियां भूल सब खुश हो रहे थे। इसी प्रकार हिप्नोटाइज कर खुश कर देने के इस फन में सारे बाबा निपुण होते हैं।
एक साहब खड़े होकर कहने लगे मैं छुट्टी पर घर जा रहा था, बच्चों के लिये मिठाई लेकर, इस मुबारक मौके को देखकर समझता हूँ कि लड्डूओ से यहीं सबका मुँह मीठा करा दिया जाए।
दुल्हन के बाप ने ड्राइवर से किनारे बस रोकने का आग्रह किया जिससे सब मिलकर मुंह मीठा कर लें।
सारा घटनाक्रम सहज और प्रवाहमान था, सब वही देख सुन और कर रहे थे जो दिखाया जा रहा था। बिना प्रतिरोध रात होने से पहले बस सड़क किनारे रोक दी गई।
शादी की खुशी मनाते सब मिलकर मिठाई खाने लगे। लड्डू खाते ही कुछ क्षण बाद सब उनींदे हो खर्राटे भरने लगे।
जब लोग नींद से जागे तो सुबह के 6 बज रहे थे। बताने की जरूरत नहीं कि दूल्हा दुल्हन उनके बाप, पंडित और लड्डू बांटने वाला शख्स नदारत थे।
यात्रियों के बटुए, गहने, कीमती सामान भी गायब होना ही था।
तो ये था किस्सा ए “बेगानी शादी, अब्दुल्ला दीवाना”। भाग एक।
– भाग दो –
हाल ही देश के सेठ जी के बेटे और एक दूसरे बिन्नेस मैन की बेटी की, दुनियां की बहुतई बड़ी शादी हुई है। दुनियां के अलग अलग डेस्टीनेशन पर महीनों चली रस्मों में हर कोई फेसबुक, इंस्टा, थ्रेड, ट्वीटर, ऊ टूब पर सहयात्री अब्दुल्ला बना बेहोशी में झूम रहा है।
अब्दुल्ला ही क्यों, भोलेराम, क्रिस, नसीबा, प्रिया, एन्जेल, देशी विदेशी, पेड, अनपेड मेहमान, मूर्धन्य धर्माचार्य, राजनीति के पुरोधा, पक्ष विपक्ष के शीर्षस्थ, मीडिया, सब सेठ जी से अपनी निकटता साबित करते फोटू खिंचवाते नजर आये।
सेठ जी के कर्मचारियों को सोहन बर्फी और चिप्स के पैकेट में ही सात सितारा खाने का मजा आ गया। साथ में मिले चांदी के सिक्के के संग सेल्फी के प्रोफाईल पिक्चर लगाकर वे सब निहाल हैं।
जब जनता की नींद खुली तो हमारे मोबाईल का टैरिफ बढ़ चुका था। अभी बहुत कुछ लुटना बाकी है, आहिस्ता आहिस्ता लूटेंगे लूटने वाले।
क्रमशः, जीवन भर बेगानी शादी में अब्दुला बने रहना हमारी प्रवृति, संस्कृति, और विवशता है। बजट दर बजट, चुनाव दर चुनाव, जनता को नशे के लड्डू खाने हैं, कभी धर्म की चासनी में बने लड्डू तो कभी आश्वासनों में पागी गई शब्दों की बर्फी। कभी कोई नेता, कभी कोई धर्माचार्य, कभी कोई शेयर बाजार का हर्षद मेहता, कभी कोई प्लांटेशन स्कीम, कभी ये तो कभी वो खिला जायेगा और अब्दुल्ला दीवाना बना बेगानी शादी में नाचता रह जायेगा, उसकी अमानत लुटती रहेगी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “एआई का नया खतरा: कीबोर्ड की आवाज से पासवर्ड हैक करना”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 180 ☆
☆ आलेख – एआई का नया खतरा: कीबोर्ड की आवाज से पासवर्ड हैक करना☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
आज के डिजिटल युग में, हैकर्स हमेशा नए और अत्याधुनिक तरीकों से लोगों के डेटा को चुराने के लिए तलाश कर रहे हैं. हाल ही में, कॉर्नेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने हैकर्स का एक नया तरीका खोज निकाला है जिससे हैकर्स सिर्फ कीबोर्ड की आवाज सुनकर लोगों के पासवर्ड चुरा सकते हैं.
शोधकर्ताओं ने पाया कि जब लोग अपने पासवर्ड टाइप करते हैं, तो वे एक अनूठा टाइपिंग पैटर्न बनाते हैं जो माइक्रोफोन द्वारा रिकॉर्ड किया जा सकता है. हैकर्स इस टाइपिंग पैटर्न का इस्तेमाल करके यह पता लगा सकते हैं कि व्यक्ति कौन सा पासवर्ड टाइप कर रहा है.
शोधकर्ताओं ने इस तकनीक का इस्तेमाल करके लोगों के पासवर्ड की 95% सटीकता के साथ पहचान की है. यह तकनीक इतनी सटीक है कि हैकर्स इसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान लोगों के पासवर्ड चुराने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
यह तकनीक लोगों के लिए एक गंभीर खतरा है. अगर आप अपने पासवर्ड को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो आपको कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए. सबसे पहले, अपने पासवर्ड को मजबूत रखें. दूसरे, अपने पासवर्ड को किसी भी सार्वजनिक स्थान पर न टाइप करें. तीसरे, अपने पासवर्ड को एक सुरक्षित जगह पर रखें.
कॉर्नेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का यह शोध एक चेतावनी है कि हैकर्स हमेशा नए और अत्याधुनिक तरीकों से लोगों के डेटा को चुराने के लिए तलाश कर रहे हैं. हमें अपने डेटा को सुरक्षित रखने के लिए सतर्क रहना चाहिए.
अपने डेटा को सुरक्षित रखने के लिए कुछ सुझाव
अपने पासवर्ड को मजबूत रखें. एक मजबूत पासवर्ड में कम से कम 8 अक्षर होने चाहिए, जिसमें एक बड़ा अक्षर, एक छोटा अक्षर, एक संख्या और एक विशेष वर्ण शामिल होना चाहिए.
अपने पासवर्ड को दोहराएं नहीं. अपने सभी खातों के लिए अलग-अलग पासवर्ड का इस्तेमाल करें.
अपने पासवर्ड को एक सुरक्षित जगह पर रखें. अपने पासवर्ड को किसी भी कागज पर लिखकर न रखें.
अपने पासवर्ड को किसी के साथ साझा न करें.
दो-कारक प्रमाणीकरण का इस्तेमाल करें. दो-कारक प्रमाणीकरण आपके खाते को हैक होने से बचाता है.
अपने सॉफ़्टवेयर को अपडेट रखें. सॉफ़्टवेयर अपडेट में अक्सर सुरक्षा सुधार शामिल होते हैं जो आपके खाते को हैक होने से बचाते हैं.
सतर्क रहें. जब आप ऑनलाइन हों तो सतर्क रहें. किसी भी संदिग्ध लिंक पर क्लिक न करें और किसी भी व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत जानकारी न दें.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र – माझे बाबा ‘तो’ आणि मी यांच्यातला एक दुवा आहेत असं पूर्वी वाटायचं. ते गेले आणि तो दुवा निखळला याची रुखरुख पुढे बरेच दिवस मनात होती.पण ‘त्या’नेच मला सावरलं. तो दुवा निखळल्यानंतर ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर खरंतर वाढायला हवं होतं पण तसं झालं नाही.ते दिवसेंदिवस कमीच होत गेलं.)
आज मला जाणवतं ते असं की माझ्या अजाण वयापासूनच सभोवतालच्या आणि विशेषतः घरच्या वातावरणामुळे श्रद्धेचं बीजारोपण माझ्या मनोभूमीत झालंच होतं. नंतरच्या अनेक अघटीत घटना, प्रसंग यांच्या खतपाण्यामुळे ते बी रुजलं,अंकुरलं आणि फोफावलं. त्या श्रद्धेबरोबरच आई-बाबांनी त्यांचे अविरत कष्ट, प्रतिकूल परिस्थितीतही जपलेला प्रामाणिकपणा, सह्रदयता आणि माणुसकी यासारख्या मूल्यांचे संस्कार स्वतःच्या आचरणांनी आम्हा मुलांवर केले होतेच. त्यामुळे मनातल्या श्रद्धेतला निखळपणा सदैव तसाच रहाण्यास मदत झाली. ती श्रद्धा रुजता-वाढताना कधी कणभरही अंधश्रद्धेकडे झुकली नाही.अनेक अडचणी, संकटांच्यावेळीही ‘त्या’च्याकडे कधी ‘याचक’ बनून पहावंसं वाटलं नाही. त्या त्या प्रत्येक वेळी प्रयत्नांची पराकाष्ठा करीत असताना ‘तो’ फक्त एक साक्षीदार म्हणून सदैव माझ्या मनात उभा असायचा. ‘कृपादृष्टी असू दे’ एवढीच मनोमन एकच प्रार्थना ‘त्या’च्या चरणी असे. त्यामुळे स्वतःची अंगभूत कर्तव्यं निष्ठेने आणि मनापासून पार पाडण्याकडेच कल कायम राहिला. नित्यनेमाचे रूपांतर त्यामुळेच असेल कर्मकांडात कधीच झाले नाही. तसे कधी घडू पहातेय अशी वेळ यायची तेव्हा या ना त्या निमित्ताने मी सावरलो जायचो. मग आत्मपरीक्षणाने स्वतःच स्वतः ला सावरायची सवय जशी अंगवळणी पडली तसा मी ‘त्या’च्या अधिकाधिक जवळ जाऊ लागलो. ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर कमी होत जाण्याचे हे एक ‘प्रोसेस’ होते!
आणि मग वेळ आली ती माझ्या कसोटीची. पण त्यालाही माझे बाबा १९७३ साली गेल्यानंतर दहा वर्षांचा काळ उलटून जावा लागला!
बाबा नेहमी म्हणायचे, “दत्तसेवा अनेकांना खूप खडतर वाटते. त्यामुळे ‘मी’ करतो असं म्हणून ती प्रत्येकाला जमत नाही.करवून घेणारा ‘तो’च ही भावना हवी.एकदा निश्चय केला कि मग त्यापासून परावृत्त करणारेच प्रसंग समोर येत रहातात.तेच आपल्या कसोटीचे क्षण.जे त्या कसोटीला खरे उतरतात तेच तरतात….! “
‘तो’ आपली कसोटी पहात असतो म्हणजे नेमकं काय? आणि त्या कसोटीला ‘खरं’ उतरणं म्हणजे तरी काय? याचा अर्थ समजून सांगणारा अनुभव मला लगेचच आला.
तो दत्तसेवेच्या वाटेवरचं पुढचं पाऊल टाकण्याचा एक क्षण होता. घडलं ते सगळं अगदी सहज घडावं असं.
यापूर्वी उल्लेख केल्यानुसार १९५९ साली कुरुंदवाड सोडून किर्लोस्करवाडीला जायची वेळ आली तेव्हा आईने दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दर्शनाला येण्याचं व्रत स्वीकारलं होतं. ते व्रत जवळजवळ दोन तपं अखंड सुरु होतं. आई वय झालं तरी ते व्रत बाबा गेल्यानंतरही श्वासासारखं जपत आली होती.
माझे बँकेतले कामाचे व्याप, जबाबदाऱ्या, दडपणं हे सगळं दिवसेंदिवस वाढत होतंच. त्यामुळे रोजची देवपूजा आणि गुरुचरित्राचं नित्य-वाचन एवढाच माझा नित्यनेम असायचा.
नोव्हेंबर १९८३ मधल्या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई नृसिंहवाडीला गेली आणि अचानक माझी मावस बहिण सासरच्या कार्यासाठी या भागात आली होती आणि माझ्या आईला भेटून जावं म्हणून आमच्या घरी आली. थोडा वेळ बसून बोलून मग पुढे पुण्याला जायचं असं तिनं ठरवलं होतं.आई यायची वेळ होत आली होतीच म्हणून तिची वाट पहात ती थोडा वेळ थांबली होती.
मी नुकताच बँकेतून येऊन हातपाय धुवत होतो तेवढ्यात आई आली. त्यामुळे दार उघडायला तीच पुढे झाली. आमच्या मुख्यदारापर्यंतच्या तीन पायऱ्या चढतानाही आई खूप थकल्यामुळे गुडघ्यावर हात ठेवून सावकाश चढतेय आणि बहिण तिला हाताचा आधार देऊन आत आणतेय हे मी लांबून पाहिलं आणि कपडे बदलून मी बाहेर जाणार तोवर बहिणीने तिला खुर्ची देऊन भांडंभर पाणीही नेऊन दिलं होतं.
“किती दम लागलाय तुला. आता पुरे झालं हं. अगदी देवधर्म आणि नेम झाला तरी शरीर स्वास्थ्यापेक्षा तो महत्त्वाचा आहे कां सांग बघू. खूप वर्ष सेवा केलीस.आता तब्येत सांभाळून रहायचं” बहिण तिला पोटतिडकीने सांगत होती. दोघींचा संवाद अगदी सहज माझ्या कानावर पडत होता.
“सवयीचं झालंय ग आता.नाही त्रास होत.जमेल तेवढे दिवस जायचं. नंतर आराम आहेच की. त्याच्या कृपेनंच तर सगळं मार्गी लागलंय. मग घरच्या कुणी एकानं तरी जायला हवंच ना गं? प्रत्येकाला त्यांचे त्यांचे व्याप आहेतच ना? इथं मी रिकामीच असते म्हणून मी जाते एवढंच” आई म्हणाली.
आईनं आजपर्यत हक्कानं, अधिकारानं आम्हा कुणावर कधीच काही लादलं नव्हतं. आज मावस बहिण आल्याचं निमित्त झालं म्हणून आईच्या मनाच्या तळातलं मला नेमकं समजलं तरी. आई आता थकलीय. घरातल्या कुणीतरी एकानं जायला हवंच तर मग ते मीच हे ओघानंच आलं. कारण तेव्हा माझा मोठा भाऊ बदली होऊन नागपूरला गेला होता. लहान भाऊ अजून शिकत होता. प्रवासाची दगदग आता यापुढे आईला जमणार नाही हे या प्रसंगामुळे मला तीव्रतेने जाणवलं होतं आणि आईचं ते व्रत आता यापुढे आपण सुरु ठेवायचं आणि त्यातून तिला मोकळं करायचं हे त्याचक्षणी मी मनोमन ठरवून टाकलं. त्यानंतरची डिसेंबर १९८३ ची पौर्णिमा दत्तजयंतीची होती.
या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई सकाळीच नृ.वाडीला गेलेली.त्या संध्याकाळी मी बँकेतून परस्परच वाडीला गेलो. दत्तदर्शन घेतलं. हात जोडून मनोमन प्रार्थना केली ,
‘दर पौर्णिमेला निदान एक तप नित्यनेमाने आपल्या दर्शनासाठी येण्याची माझी मनापासून इच्छा आहे. आपला कृपालोभ असू दे. हातून सेवा घडू दे.” अलगद डोळे उघडले तेव्हा आत्यंतिक समाधानाने मन भरून गेलं होतं. अंत:प्रेरणेने पडलेलं दत्तसेवेच्या वाटेवरचं हे माझं पुढचं पाऊल होतं.
घरी हे आईला सांगितलं.आता यापुढे खूप दगदग करून,ओढ करुन तू अट्टाहासानं नको जाऊस.मी जात जाईन असंही म्हटलं.सगळं ऐकून आई एकदम गंभीरच झाली.
“माझ्याशी आधी बोलायचंस तरी..” ती म्हणाली.
” का बरं?असं का म्हणतेस?”
“उद्या तुझी कुठे लांब बदली झाली तर? कशाला उगीच शब्दात अडकलास?”
“नकळत का होईना अडकलोय खरा” मी हसून म्हटलं. ” तू नेहमी म्हणतेस ना, तसंच. सुरुवात तर केलीय. होईल तितके दिवस जाईन. पुढचं पुढं”
आईशी बोलताना मी हे हसत हसत बोललो खरं पण तिच्या बोलण्यातही तथ्य आहेच हे मला नाकारता येईना.
खरंच. देवापुढे हात जोडून मनोमन संकल्प सोडताना माझ्या ध्यानीमनीही नव्हतं की हा आपला बँकेतला जॉब आहे. तो ट्रान्स्फरेबल आहे. कुठेही कधीही बदली होऊ शकेल. तेव्हा काय करायचं? बारा वर्षांचा दीर्घकाळ आपण थोडेच या परिसरात रहाणार आहोत? पुढे नाही जमलं तर?”
या जरतरच्या गुंत्यात मी फार काळ अडकून पडलो नाही. तरीही ही संकल्पसिद्धी सहज सोपी नाहीय याची प्रचिती मात्र पुढे प्रत्येक पावलावर मला येणार होतीच.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “हम खुद को ही समझ न पाए…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #239 ☆
☆ हम खुद को ही समझ न पाए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆