हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3 ?

(15 फरवरी 2020)

गुजरात के वेरावल शहर में यह हमारा तीसरा दिन था। उस दिन सुबह फिर एक बार सोमनाथ दर्शन कर हम पोरबंदर होते हुए द्वारका के लिए रवाना हुए।

इस समय यहाँ चौड़ी – सी सड़क बनाई जा रही थी और कहीं – कहीं सड़क तैयार भी थी। सोमनाथ से द्वारका 236 किलोमीटर की दूरी है। इसे तय करने में वैसे तो साढ़े तीन घंटे ही लगते हैं पर हम बीच में अन्य कई स्थान होते हुए द्वारका पहुँचे जिस कारण हमें द्वारका पहुँचते हुए दोपहर के तीन बज गए।

सड़क समुद्र से खास दूर न होने की वजह से हवा में एक अलग- सी गंध थी और हवा भी शीतल थी। जब गाड़ी समुद्र से थोड़ी दूरी से गुज़रती तो समुद्र की लहरों के उठने और गिरने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया और पानी उतरता गया वैसे -वैसे आवाज कम होती गई।

हमने ए.सी चलाने की बजाए खिड़कियाँ खुली रखना अधिक पसंद किया। सड़क के दोनों किनारे पर खेत नज़र आए। हरियाली मनभावन थी। हवा के कारण खड़ी फसलें इस तरह झूमती मानो आते – जाते लोगों का नतमस्तक होकर वे सबका स्वागत कर रही हों।

हम पोरबंदर पहुँचे। यहाँ का आकर्षण था उस घर को देखना जहाँ गाँधी जी का जन्म हुआ था। यहीं पोरबंदर में श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र सुदामा का भी निवास स्थान था। हमारे लिए दोनों ही स्थान उत्साह का कारण थे।

हम टैक्सी स्टैंड पर उतरे और भीड़ को धकेलते हुए एक ऑटोरिक्शा में बैठे। एक सुंदर पीले रंग से रंगी बड़ी – सी इमारत के सामने रिक्शा रुक गई। इस इमारत का नाम है कीर्ति मंदिर जिसके भीतर प्रवेश करने पर बड़ा- सा आँगन पड़ता है। सीढ़ी से ऊपर दूसरी मंज़िल पर कस्तूरबा पुस्तकालय है। इमारत की दाहिनी ओर मंदिर- सा बना हुआ है। सभी धर्म की निशानियाँ यहाँ देखने को मिलती है। कहीं कलश तो कहीं गुंबद सा बना हुआ है पर हाँ कहीं कोई मूर्ति नहीं है। यह एक दोमंजिला भव्य इमारत है जो वास्तव में एक संग्रहालय ही है।

यहाँ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी कई अहम घटनाओं की तस्वीरें लगी हुई हैं। यों कह सकते हैं कि यह फोटोगैलरी ही है। बा और बापू दोनों की युवावस्था की बड़ी तस्वीर देखने को मिलती हैं। जिसके तीन तरफ़ काँच लगा हुआ है।

इस विशाल आँगन में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को भव्य उत्सव और कार्यक्रम का आयोजन होता है। बड़ी संख्या में यहाँ लोग उपस्थित होते हैं।

आँगन की बाईं ओर गाँधी जी का जन्मस्थल है। यह इमारत आज दोमंजिली है जिसमें बाईस कमरे हैं पर ये सभी कमरे बहुत छोटे -छोटे ही हैं। कुछ – कुछ कमरों में मेज़नाइन फ्लोर भी बने हुए हैं।

2 अक्टोबर 1869 को जब गाँधी जी का यहाँ जन्म हुआ था तब यह एक पतली गलीनुमा जगह थी। आज जिस विशाल कीर्ति मंदिर को पर्यटक देखने जाते हैं वह बाद में बनाया गया है।

गाँधी जी के जन्मस्थल वाली इमारत उनके दादाजी के पिता (पड़पिता) ने 1777 में बनवाई थी। उस समय यह एक मंज़िली इमारत थी बाद में परिवार बड़ा होने पर कमरे भी बढ़ते गए। यह अपने समय में तीन मंज़िली इमारत तक बनाई गई थी। बाद में इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। आज यह दोमंज़िली इमारत है।

इस इमारत में पर्यटकों की जानकारी के लिए उस स्थान पर जहाँ गाँधी जी जन्मे थे, वहाँ गाँधीजी की एक बड़ी – सी तस्वीर लगी हुई है। जहाँ वे चरखा चलाते हुए दिखाई देते हैं। इस तस्वीर के नीचे एक स्वास्तिक बना हुआ है यही मूल उनका जन्म स्थल है। सभी लोग इस जगह पर एकत्रित होते रहते हैं।

हमारी संस्कृति में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। यह हर सनातनी धर्म को माननेवाला अच्छी तरह से जानता है पर आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि पर्यटकों को गाँधी जी की तस्वीर के नीचे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाने का इतना तीव्र शौक था कि वे स्वास्तिक की अवहेलना करते हुए उस पर जूते -चप्पल पहनकर खड़े हो गए। हमारा मन भीतर तक न केवल क्रोध से भर उठा बल्कि लोगों की इस मूर्खता और अज्ञानता पर मन उदास भी हो उठा। मुझे काफी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर उस स्वास्तिक वाली जगह खाली मिली तो गाँधीजी की तस्वीर स्वास्तिक के साथ कैमरे में कैद कर पाई।

स्पष्ट दिखाई देता है कि हम अपनी संस्कृति से कितनी दूर चले गए हैं। यह विडंबना ही है और दुर्भाग्य भी कि आज की पीढ़ी इन बातों को अहमियत नहीं देती।

हम हर कमरे को घूम-घूमकर देखने लगे। हर एक कमरा स्वच्छ है और छोटी – छोटी खिड़कियाँ हरे रंग से रंगी हैं। दरवाज़े भी खास ऊँचे नहीं हैं। दरवाजे और दीवारों पर आकृतियाँ बनाई हुई हैं। कुछ दरवाज़े तो महलों की तरह एक सीध में हैं। एक के पास खड़े रहकर सीधे में चार -पाँच दरवाज़े और भी दिखाई देते हैं। सभी खिड़कियाँ और मचान नुमा कमरे ये सभी लकड़ी की बनी हुई हैं। इस घर में गाँधी जी बचपन में कुछ वर्ष तक रहे थे। बाद में उनका अधिकांश समय राजकोट में बीता।

कीर्ति मंदिर वाली जगह बाद में बनाई गई। गाँधी जी के एक प्रिय अनुयायी थे श्री दरबार गोपालदास देसाई के नाम से जाने जाते थे वे। नानजी भाई कालिदास मेहता ने 1947 में इस मंदिर को बनाने के लिए बड़ी रकम दी तब गाँधीजी जीवित थे। पर इस भवन कोञ पूरा करने में 1950 तक का समय लग गया था। इस सुंदर स्थान को बा और बापू अपनी आँखों से न देख पाए।

हम ऑटोरिक्शा में बैठकर टैक्सीस्टैंड पर लौट आए। उसी भीड़ भाड़ के बीच एक मंदिर बना हुआ है जिसे श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा का घर माना जाता है। आज यह घर नहीं बल्कि एक मंदिर जैसी संरचना है। आस पास न केवल भीड़ है बल्कि कूड़ा करकट और गाय बैलों के झुंड भी नज़र आते हैं।

कहा जाता है कि यहीं से चलकर सुदामा द्वारका पहुँचे थे।

हमें यह देखकर अत्यंत दुख भी हुआ कि हम एक ऐतिहासिक स्थल को स्वच्छ रखने से भी चूकते हैं। यह जागरुकता का अभाव ही है।

पोरबंदर महाभारत काल से इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है। अंग्रेजों के शासन काल में यह एक रियासती गढ़ था। यह व्यापार का क्षेत्र भी रह चुका है। कृष्ण सुदामा मंदिर एक और दर्शनीय स्थल है।

फिर हम अपने गंतव्य की ओर बढ़े। मंज़िल थी द्वारका। पोरबंदर से निकलकर जैसे – जैसे द्वारका के करीब पहुँचने लगे तो हरे भरे खेत न जाने क्यों अचानक विलीन से हो गए और दूर तक बंजर भूमि दिखाई देने लगी जो कंटीली झाड़ियों से पटी थी। इस इलाके में अब केवल बकरियों के झुंड दिखाई देने लगे जो पिछली टाँगों पर खड़ी होकर कंटीले झाड़ियों की ही फलियों का स्वाद ले रही थीं।

हम आपस में चर्चा करने लगे कि अचानक सारी ज़मीन बंजर क्यों हो गई? और यह अंतर आँखों को जैसे चुभ रही थी। चालक ने खुशखबरी देते हुए बताया कि गुजरात सरकार अब संज्ञान लेने लगी है और इन बंजर भूमि के टुकड़ों को लीज़ पर लेकर उस पर औषधीय पौधे लगाने का आयोजन किया जा रहा है।

बातों ही बातों में हम द्वारका नगरी आ पहुँचे। अभी सूर्यास्त को काफी समय था तो हम वहाँ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का दर्शन कर आए। एक मंदिर समुद्र तट से जल में भीतरी ओर है जिसे भदकेश्वर मंदिर कहा जाता है। यह खास बड़ा मंदिर नहीं है। जब समुद्र का पानी भाटे के समय उतर जाता है तो दर्शन करना आसान हो जाता है। शाम के समय वहाँ बना मार्ग पानी में डूब सा जाता है केवल मंदिर का हिस्सा बचा रहता है।

दूसरा है नागेश्वर मंदिर। यहाँ मंदिर के परिसर में शिव जी की विशाल मूर्ति बनी हुई है। भक्तों की लंबी कतार भी लगी थी। भक्त मंदिर में कई प्रकार के फल, फूल, अनाज आदि ले जाते हैं चढ़ावे के रूप में। इन्हें खाने के लिए बैलों की बड़ी संख्या मंदिर के परिसर में घूमते दिखाई दिए। साथ ही कबूतरों को ज्वारी खिलाने की भी व्यवस्था है तो कबूतरों का भी झुंड उड़ता फिरता है। भीड़, पशु, पक्षी, जूते चप्पल, फेरीवाले, फोटोग्राफर सब कुछ मिलाकर वहाँ एक अजीब- सी भीड़ महसूस हुई और साथ में गंदगी भी। हम बाहर से ही दर्शन कर उल्टे पाँव लौटे।

हम आज भी न जाने क्यों भक्ति के साथ -साथ स्वच्छता को जोड़ने में असमर्थ हैं। अक्सर मंदिरों में भोजन आदि चढ़ावे के कारण जब साफ़ सफ़ाई दिन में कई बार न किए जाएँ तो चारों ओर फल फूल अनाज फैले हुए दिखाई देते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान इस अस्वच्छ वातावरण में रहना कभी पसंद करेंगे? न जाने हम कब इस दिशा और विषय की ओर सतर्क होंगे!

मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में गरीब बच्चे नज़र आए। कोई बीस -बाईस होंगे जो चार साल से बारह -तेरह वर्ष के होंगे। उन सबने हमें घेर लिया। क्या चाहिए पूछने पर कुछ बच्चों ने दुकान में शीशे की अलमारी में रखी अमूल दूध की ओर इशारा किया। उन सभी बच्चों के हाथों में एक -एक अमूल दूध की बोतल थमाकर हम अपने होटल की ओर बढ़े।

हम भी दिन भर की यात्रा के बाद थक चुके थे तो अब आराम भी आवश्यक था और मन में एक संतोष की भावना भी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 300 ☆ साइबर सुरक्षा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 300 ☆

? लघुकथा – साइबर सुरक्षा? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

साइबर फ्राड के समाचार आए दिन पढ़ने, सुनने को मिल रहे थे। यूं तो वह बहुत सर्तकता बरतती थी , किसी को ओटीपी बताने से पहले एस एम एस पूरा पढ़कर समझ कर ही कोई कार्यवाही करती थी। अपने मोबाईल की सायबर सुरक्षा को लेकर वह सदैव चिंतित रहती थी , कहीं किसी साइट की सर्फिंग करते हुए कोई मेलवेयर तो बखुद डाऊनलोड नहीं हो गया ? उसे लगता आजकल मोबाइल कुछ धीमा चल रहा है। पढ़े लिखे होने से जागरूक रहना वह अपना दायित्व मानती थी।

एक एस एम एस आया, “रहें साइबर सुरक्षित! अपने डिवाइस को बॉटनेट संक्रमण और मालवेयर से सुरक्षित करने के लिए, सीआरटीइन, भारत सरकार htps……..पर “फ्री बॉट रिमूवल टूल” डाउनलोड करने की सलाह देता है – दूर सचार विभाग” उसने बिना बारीकी से वेब एड्रेस की पडताल किए दूरसंचार विभाग पढ़ कर टूल डाउनलोड कर लिया। डाउनलोड हो जाने के बाद उसका ध्यान गया कि उफ यह तो एपीके फाइल थी, वह तो गनीमत थी कि अभी तक उसने टूल रन नहीं किया है, फटाफट डिलीट करने की कोशिश की, पर वह सफल नहीं हो पा रही थी, अब सचमुच उसे मोबाइल सायबर सुरक्षा के लिए मोबाइल फार्मेट करना ही पड़ेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 100 – देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

आलेख # 100 ☆ देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज के समाचार पत्र में मुख्य बिंदु के रूप में प्रकाशित पेरिस में हुए ओलंपिक का मंथन पढ़ा। अच्छा लगा, हमारे पैराओलिंपिक खिलाड़ियों का प्रदर्शन साधारण ओलंपियंस के मुकाबले कहीं बेहतर रहा है।

मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई, ऐसा क्यों हो रहा है? सभी इस देश की माटी से जुड़े हुए हैं। प्रशिक्षण सुविधा ओलंपियन खिलाड़ियों के लिए भी बेहतर हैं। वो बिना किसी के निजी सहयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान आसानी से भी आ जा सकते हैं। पैराओलिंपियाई खिलाड़ी को समाज में भी उचित सम्मान नहीं मिलता हैं।

आशा करते हैं, देश की सरकार उनका भी अभिनंदन करेगी, जन मानस भी उनकी वापसी पर उतना ही स्वागत सत्कार करेगा, जितना विनेश फोगट का हुआ था, या हमारे क्रिकेटर का भी होता है। सदी के महानायक उनको भी केबीसी में आमंत्रित कर सकते हैं। इन खिलाड़ियों को भी उद्योग जगत अपने उत्पाद का विज्ञापन करवा कर, अन्य को भी प्रेरित कर सकते हैं। सच्चाई, तो आने वाला समय ही बता पाएगा।

इस बाबत कुछ प्रबुद्ध मित्रों से बातचीत भी हुई, अंत में ये निष्कर्ष निकला कि हम अधिकतर भारतीय कठिन समय/ परिस्थितियों आदि में अपनी योग्यता का बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ये सब पैराओलैंपियन बहुत कठिनाई से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। हिम्मत और हौंसला बुलंद हो तो कुछ भी मुमकिन हो सकता हैं। हमारे यहां वैसे भी कहते है” मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #254 ☆ वल्लरीला भेटताना… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 254 ?

☆ वल्लरीला भेटताना ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

पालवीला डोलताना पाहिले

अन कळीला हासताना पाहिले

 

ओठ मिटुनी काल होत्या बैसल्या

आज त्यांना बोलताना पाहिले

 

पाकळ्या एकेक झाल्या मोकळ्या

साद त्यांनी घालताना पाहिले

 

झाड होते एकटे रानात त्या

वल्लरीला भेटताना पाहिले

 

पावसाने केवढे आनंदले

मोर होते नाचताना पाहिले

 

आग ही पोळ्यास कोणी लावली

सैन्य सारे धावताना पाहिले

 

माणसाने घातलेली धाड ही

मी मधाला चोरताना पाहिले

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – १० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – १० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

डोळे

काही गोष्टी सहजच घडतात पण बालपण सरलं तरी ती आठवण आणि त्यातली गंमत मात्र जात नाही. कधी विषय निघाला आणि पुन्हा ती आठवण सहजपणे मनाच्या कोपऱ्यातून वाट काढत वर आली की नकळत हसू फुटतेच.

आमच्या पप्पांच्या व्यक्तिमत्वातली ठळक आणि आकर्षक बाब म्हणजे त्यांचे तेजस्वी, मोठे, पाणीदार डोळे. आम्हा पाचही बहिणींचे काहीसे मोठे डोळे म्हणजे पप्पांकडून आलेला वारसाच असे म्हणायला हरकत नाही.

तर त्या डोळ्यांचीच गोष्ट आज मला लिहिता लिहिता आठवली. गल्ली मधला आमचा सवंगड्यांचा चमू तसा फारच विस्तारित होता आणि कळत नकळत वयाच्या थोड्याफार फरकांमुळे असेल पण वेगवेगळे समूह सहजपणे बनले गेले होते. लहान गट, मध्यम गट, मोठा गट अशा प्रकारचे. गटागटातले खेळही वेगळे असायचे. एक मात्र होतं की हे ‘मुलींचे खेळ” हे “मुलांचे खेळ’ असा फरक नाही केला जायचा. विटी दांडू, गोट्या, पतंग उडवणे, हुतुतु (कबड्डी), क्रिकेट या खेळातही मुलींचा तितकाच दांडगा सहभाग असायचा. लहान गटातल्या मुलांचा मोठ्या गटातल्या मुलांशी खेळण्याचा खूपच हट्ट असायचा आणि ती पण कुणाकुणाची भावंडे असायची, त्यामुळे त्यांना खेळायला घ्यावंच लागायचं पण तत्पूर्वी त्यांना एक लेबल मिळायचं कच्चा लिंबू आणि या कच्च्या लिंबाला मात्र बऱ्याच सवलती असायच्या.

खेळातल्या नियमांची माफी असायची पण माझी धाकटी बहीण छुंदा हिला मात्र ‘कच्चा लिंबू” म्हटलेलं अजिबात आवडायचं नाही. तिला तो ‘रडीचा डाव” वाटायचा. ‘रडीचा डाव खडी’ वगैरे तिला कोणी बोललं की तिला फारच राग यायचा. शिवाय तिचे स्वतःचेच तिने ठरवलेले नाही रे ही बरेच असायचे. ती नेहमीच काहीशी शिष्ट, भिडस्त आणि ‘मला नाही आवडत हे’ या पठडीतली होती पण गल्लीतल्या मोरया आणि शेखरशी तिचे मस्त जुळायचे. हे तिघेही तसे बरोबरीचेच होते आणि म्हणून असेल पण छुंदा, मोरया आणि शेखर यांची मात्र घट्ट मैत्री होती आणि या मैत्रीतली आणखी एक गंमत म्हणजे छुंदाला लहानपणापासून मुलांसारखे शर्ट— पॅन्ट घालायला आवडायचे आणि माझी आई, कधी आजीही तिच्यासाठी अगदी हौसेने तिच्या मापाचे शर्ट— पॅन्ट घरीच शिवत. त्यावेळी रेडीमेड कपड्यांची दुकाने फारशी नव्हती. कपडे शिवून देणारे शिंपी असायचे पण आमचे गणवेशापासून, रोजचे, घरातले, बाहेरचे सगळेच कपडे आई अतिशय सुंदर शिवायची.

तर विषय असा होता की शेखर, मोरया आणि ही मुलांच्या वेषातली बॉयकट असलेली मुलगी छुंदा. मस्त त्रिकूट. ते नेहमी तिघंच खेळायचे. खेळ नसला तर आमच्या घराच्या लाकडी जिन्यावर बसून गप्पा मारायचे. मोरया जरासा गोंडस आणि दांडगट होता. शेखर तसा मवाळ होता पण नैसर्गिकपणे असेल कदाचित ती दोघं छुंदाचं मात्र ऐकायचे. तिला त्यांनी कधी दुखवलं नाही. भांडणं झाली तरी परत दोघेही तिला हाक मारून खेळायला घेऊन जायचे.

आज हे लिहीत असतानाही मला ती एकाच उंचीची, एकाच वयाची, निरागस तीन मुलं जशीच्या तशी दिसत आहेत. खरं सांगू गद्र्यांचा नवसाचा मोरया, मोहिलेंचा शेखर… गद्रे, मोहिले आमचे टेनंट्स, त्यांच्याशी असलेली स्वाभाविक बनती बिघडती नाती पण या साऱ्यांचा छुंदा— मोरया— शेखर यांच्या मैत्रीवर काहीच परिणाम कधीच झाला नाही. बाल्य किती निष्पाप असते ! छुंदा त्यांच्या घरातही सगळ्यांची फार आवडती होती.

सर्वसाधारणपणे आम्ही सारीच मुलं गल्लीतच खेळायचो. गल्लीच्या बाहेर खेळायला जायची फारशी वेळ यायचीच नाही आणि जायचंच असलं तर घरून परवानगी घेतल्याशिवाय तर नाहीच. शिवाय संध्याकाळचं दिवेलागणीच्या वेळेचं शुभंकरोति, परवचा, गृहपाठ हे कधी चुकायचं नाही पण त्या दिवशी खेळता खेळता.. मला वाटतं मुल्हेरकरांच्या दिलीपच्या लक्षात आलं की हे त्रिकूट कुठे दिसत नाही.

गेलं कुठे ?

घराघरात, पायऱ्या पायऱ्यांवर, जिन्यात, सगळीकडे शोधाशोध झाली. सगळ्यांच्या काळजाचा ठोका चुकला. एव्हाना खात्री पटली “हे तिघे हरवले. ”

यांना स्वतःची नावं, घराचा पत्ता तरी सांगता येईल का ?

कुठे गेले असतील ?

तसं त्यावेळेस ठाणे एक लहानसं गावच होतं आणि हे गावही अनेक गल्ल्यागल्ल्यातूनच वसलेलं होतं. कुणीतरी म्हणालं, “ठाण्यात मुलं पळवण्याची टोळी आलेली आहे. ”

बापरे !

आई, पप्पा, जीजी आणि आम्ही सारेच पार हादरून गेलो.

संध्याकाळ होत आली. घरोघरी दिवे लागले. तोंडचं पाणी पळालं तरी या तिघांचा पत्ता नाही. शोध मोहीमही असफल ठरली. आता शेवटचा मार्ग— पोलीस चौकी. मागच्या गल्लीतली, त्या पलीकडची, इकडची, तिकडची बरीच माणसं गोळा झाली.

मुलं हरवली.

कुणी म्हणालं, ”पण अशी कशी हरवली ?”

दिलीप तापट. आधीच बेचैन झालेला. तो ताडकन म्हणाला, “कशी हरवली माहीत असतं तर सापडली नसती का ? काय विचारता काका तुम्ही…?”

आणि हा सगळा गोंधळ चालू असताना एकाएकी त्या लहानशा गल्लीत पांढरी, मोठी, अँम्बॅसॅडर गाडी हाॅर्न वाजवत शिरली. घोळक्यापाशी थांबली आणि गाडीतून ठाण्यातील मान्यवर आणि प्रसिद्ध समाजसेविका मा. विमल रांगणेकर आणि त्यांच्या समवेत ही तीन मुलं उतरली. विस्कटलेली, भेदरलेली, रडून रडून डोळे सुजलेली, प्रचंड भ्यायलेली… छुंदाने तर धावत जाऊन जीजीला मिठी मारली. आता त्या मुलांच्या मनात भीती होती.. घरच्यांचा मार बसणार की काय याची.

विमलताई म्हणजे प्रसन्न व्यक्तीमत्व. उंच, गोऱ्या, मोहक शांत चर्या. सुप्रसिद्ध क्रिकेटर खंडू रांगणेकर यांच्या त्या पत्नी. यांना कुठे सापडली ही मुलं आणि या स्वतः मुलांना घेऊन आल्या? घंटाळी रोडवरच्या कोपऱ्यावर खंडू रांगणेकरांचा प्रशस्त बंगला होता. आजही आहे. ही तिघं मुलं गप्पांच्या नादात चालता चालता रस्ता चुकले असावेत. रांगणेकरांच्या बंगल्यासमोर कोपऱ्यात बावरलेल्या, रडवेल्या स्थितीतल्या या मुलांना विमलताईंनी पाहिले आणि त्यांनी चौकशी केली.

त्या सांगत होत्या, ”या मुलांना काहीही धड सांगता येत नव्हतं. नावं सांगितली. तीही पूर्ण नाही. कुठे राहतात, घराचा पत्ता त्यांना काहीही सांगता येत नव्हतं. खूप घाबरलेली होती म्हणूनही असेल. मी निरखत होते या मुलांना आणि त्यापैकी एकाच्या डोळ्यात मला ओळखीची चमक दिसली. मनात म्हटलं हे तर ढग्यांचे डोळे पण ढग्यांना तर मुलगा नाही. तरी मी याला विचारलं, ‘तू ढगे का ?’

हा म्हणाला, ”हो”

“तूच ढग्यांचा मुलगा आहेस का ? पण… ”तेव्हा तडफदार उत्तर आलं,

“नाही. मी मुलगी आहे. ”

मग सारा उलगडा झाला.

खंडू रांगणेकर आणि पप्पा दोस्तच होते. त्यांना आमचं घर माहीतच होतं.

हरवलेली मुलं सापडली.

तर असा हा गमतीदार किस्सा.

आजही, वेळप्रसंगी गल्लीतली ती माणसं कशी आपुलकीनं जोडलेली होती याची जाणीव झाली की मन भरून येतं. आता जग बदललं.

पण खरी ही गोष्ट डोळ्यांची.

गोष्ट मोठ्या डोळ्यांची. आयुष्यभर पपांनी आम्हाला स्वतःचे संरक्षण स्वतःच कसे समर्थपणे करावे याचे भरपूर धडे दिले पण या पप्पांसारख्याच असलेल्या डोळ्यांमुळे माझ्या धाकट्या, लाडक्या बहिणीचे असे रक्षण झाले, याला काय म्हणावे ?

आज हे आठवत असताना सहज ओठातून ओळी येतात..

या डोळ्यांची दोन पाखरे

फिरतील तुमच्या भवती

पाठलागही सदैव करतील

असा कुठेही जगती…

वंश, कुल, जात, गोत्र, नाव याची परंपरा भले तुटली असेल पण आम्हा बहिणींच्या परिवारात या डोळ्यांची परंपरा अखंड वाहत आहे आणि या डोळ्यातच ढग्यांची प्रतिमा आजही टिकून आहे. आता थांबते. भावूक होत आहे माझी लेखणी..

 – क्रमशः भाग दहावा

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 206 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 206 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

किया देह का दोहन ।

किन्तु

अभी

पूरा नहीं हुआ था

गालव का अभीष्ट ।

शुल्क में

जुट पाये थे

केवल छै सौ अश्व |

चिन्तातुर

गालव ने

फिर स्मरण किया

मित्र गरुड़ का

परामर्श के लिये ।

गरुड़ ने पूछा –

क्यों मित्र

कृतकार्य हुए?

उदास गालव ने

कहा

अभी बाकी है

गुरुदक्षिणा का

चौथाई भाग ।

गरुड़ ने कहा-

‘ने

‘मित्र

पूर्ण नहीं होगा

तुम्हारा मनोरथ ।

और

इसका कारण है।

पूर्व काल में

राजा गाधि की पुत्री

सत्यवती को पत्नी रूप में पाने

ऋचीक मुनि ने

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 206 – “बहुत तसल्ली थी उनको…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत बहुत तसल्ली थी उनको...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 206 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “बहुत तसल्ली थी उनको...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

सारे बेटे रहे पालते

” पापा ” को स्नेह से

मरे एक दिन किन्तु पिताजी

हत्यारी मधुमेह से

 

कोई दवा काम ना

आयी तरह तरह बदली

जब भी जिस ने जो

बतलायी वह गोली निगली

 

सोया करते पूज्य पिता

तब बाहर की दालान में

जिस में भीग भीग जाते

थे चौमासे के मेह से

 

जब भी कोई व्यक्ति

माँगने दरवाजे आता

उसे मना की नहीं कभी

वह खुश होकर जाता

 

कीर्तिमान यह रहा पिता

का कुछ न कुछ देते

कहा किये थे याचक ना

खाली जाये इस गेह से

 

बहुत तसल्ली थी उनको

जायेंगे माघ मेला

तभी राम ने उन से था

खेला ऐसा खेला

 

प्राण पखेरू उड़े अचानक

रोक नहीं पाये

लगा कि सारा नेह चुक गया

उनका था इस देह से

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-09-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “पद्मश्री शरद जोशी”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

पद्मश्री श्री शरद जोशी

(जन्म – 21 मई 1931- निधन – 5 सितंबर 1991)

☆ कहाँ गए वे लोग # २८ ☆

☆ पद्मश्री श्री शरद जोशी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

शरद जोशी जी ने एक जगह लिखा है…

“पृथ्वी पर जन्म लेने के समय खुद ईश्वर अपने लिए ऐसा बाप छांटता है जो खाता कमाता और सुखी हो। अक्सर ही ईश्वर ने राजा के घर जन्म लिया है, उससे कई सहूलियतें रहतीं हैं…” 

ऐसे महान व्यंग्यकार शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को उज्जैन, मध्य प्रदेश में श्रीनिवास और संतोषी जोशी के परिवार में दूसरी संतान के रूप में हुआ था। उनकी चार बेटियाँ हैं। शरद जी को बचपन से ही लेखन में दिलचस्पी थी।

उन्होंने  इंदौर के होलकर कॉलेज से बी.ए. किया था।

शरद जोशी जी ने इंदौर में समाचार पत्रों और रेडियो के लिए लिखने से अपने करियर की शुरुआत की, जहां उनकी मिलस्कात इरफाना सिद्दीकी से हुई, जिनसे उन्होने बाद में शादी की।  

वे हिंदी के महान कवि, लेखक, व्यंग्यकार और हिंदी फिल्मों और टेलीविजन के संवाद और पटकथा लेखक थे। उनके लघु व्यंग्य लेख प्रमुख हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए, जिनमें नई दूनिया, धर्मयुग, रविवार, सप्तक, हिंदुस्तान, कादंबनी और ज्ञानोदय शामिल हैं।  नवभारत टाइम्स में उनके दैनिक कॉलम “प्रतिदिन” को सात साल तक प्रकाशित किया गया और देखते देखते अखबार हाथों हाथ बिकने लगा, लोग सबसे पहले प्रतिदिन कालम पढ़ते थे।

बहुत पहले आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे, हम उन दिनों “रचना ” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

“रचना” साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था उन दिनों। हर रंगपंचमी पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। हम लोगों ने आदरणीय शरद जोशी जी को रसल चौक स्थित उत्सव होटल में रूकवाया था, “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था- “मैं भाग्यवान हूं कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित  रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला, फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्री अवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी, खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे फिर दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन ‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। स्थानीय साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए।”

उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं: परिक्रमा, केसी बहेन, तिलस्म, जीप पार संवार इल्लियां, राह किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ रचनाएँ, दूसरी कथा, यथा संभव, यत्र तत्र सर्वत्र, यथा समा, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे,  और प्रतिदिन 3भागों में। उनकी पुस्तकें जीप पर संवार इल्लियां ’सरकारी अधिकारियों पर एक जबरदस्त व्यंग्य है।

उनके लिखे नाटक-

अंधों का हाथी,एक था गधा उर्फ़ अलादत खान।  यह व्यंग्य नाटक पिछले दशक के सबसे लोकप्रिय नाटकों में से एक था।

संवाद लेखक के रूप में फिल्मोग्राफी:

  • क्षितिज (1974)
  • छोटी सी बात (1975)
  • सांच को आंच नहीं (1979)
  • गोधुली (1977)
  • चोरनी (1982)
  • उत्सव (1984)
  • मेरा दमाद (1990)
  • दिल है कि मानता नहीं (1991)
  • उदान (1997)

टीवी धारावाहिक–

  • ये जो है जिंदगी (1984-85)
  • विक्रम और वेताल
  • वाह जनाब
  • दाने अनार के
  • श्रीमती जी
  • सिंहासन बत्तीसी
  • ये दुनीया है गजब की
  • प्याले माई तोफान
  • गुलदस्ता
  • लापतागंज (2009)

शरद जोशी जी ने कवियों के चरित्र को देखते हुए  इस कविता में शब्दों को जोड़-तोड़ कर कविता लिखने वालों पर करारा व्यंग्य किया था: 

‘च’ ने चिड़िया पर कविता लिखी।

उसे देख ‘छ’ और ‘ज’ ने चिड़िया पर  कविता लिखी।

तब त, थ, द, ध, न, ने

फिर प, फ, ब, भ और म, ने

‘य’ ने, ‘र’ ने, ‘ल’ ने

इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने

चिड़िया पर कविता लिखी।

चिड़िया बेचारी परेशान

उड़े तो कविता

न उड़े तो कविता।

तार पर बैठी हो या आँगन में   

डाल पर बैठी हो या मुंडेर पर

कविता से बचना, मुश्किल

मारे शरम मरी जाए।

एक तो नंगी,

ऊपर से कवियों की नज़र

क्या करे, कहाँ जाए

बेचारी अपनी जात भूल गई

घर भूल गई, घोंसला भूल गई

कविता का क्या करे

ओढ़े कि बिछाए, फेंके कि खाए

मरी जाए कविता के मारे

नासपिटे कवि घूरते रहें रात-दिन।

एक दिन सोचा चिड़िया ने

कविता में ज़िन्दगी जीने से तो मौत अच्छी।

मर गई चिड़िया

बच गई कविता।

कवियों का क्या,

वे दूसरी तरफ़ देखने लगे।”

……

शरद जोशी ने अपनी स्पष्ट और पृथक पहचान बनाई थी। शरद जोशी ने इस कदर धुआंधार लेखन किया कि हजारों की संख्या में रचनाओं का अम्बार खड़ा कर दिया। उनकी इन रचनाओं की शैली परसाई की लेखन शैली से भिन्न थी। शरद जोशी ने अपने व्यंग्य के नये शिल्प इस तरह गढ़े कि बाद के लेखकों में उनका प्रभाव व अनुसरण अधिक दिखने लगा।परसाई का लेखन अपने किस्म का एक फौजदारी मामला लगता था जबकि शरदजी किसी प्रकार के खून खराबे से बचकर मामले को दीवानी बनाए रखने के पक्षधर लगते थे।

परसाई से कम उम्र होने के बाद भी शरद जोशी पहले दिवंगत हो गए थे तब मध्य प्रदेश साहित्य परिषद ने उनके नाम से व्यंग्य लेखन के लिए ‘शरद जोशी पुरस्कार’ रखा। यह पहला शरद जोशी सम्मान श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के हरिशंकर परसाई को दिया गया था। इस विडंबना पूर्ण उपलब्धि को परसाई जी ने प्राप्त किया था।  परसाई व्यंग्य के प्रथम पुरुष थे पर खुद को व्यंग्यकार कहलवाने का आग्रह उनमें नहीं था। यह आग्रह शरद जोशी में भी नहीं रहा होगा पर उनके पाठक उनके नाम के आगे व्यंग्यकार का विशेषण किसी विभूषण की तरह लगाने लगे और वे ‘व्यंग्यकार शरद जोशी’ कहलाने लगे थे। 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 191 ☆ # “मौत एक सच्चाई है” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौत एक सच्चाई है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 191 ☆

☆ # “मौत एक सच्चाई है” #

जिंदगी तूने इक बात

तो समझाई है

जीवन है हसीन ख्वाब

और मौत एक सच्चाई है

 

जीवन के भागदौड़ में

कुछ अपने बिछड़ गए

उम्र के आखिरी पड़ाव पर

उनकी याद आई है

 

वो वादा करके गये थे

आएंगे लौटकर

हमने हर सुबह ओ’ शाम

इंतजार मे बिताई है

 

सब कुछ लुटा दिया

हमने अपनों के वास्ते

बिस्तर पर पड़े तो

औलाद ने भी पीठ दिखाई है

 

जवानी तो मस्ती और

रंगीनियों मे गुजर गयी

बुढ़ापा देखकर

आंख भर आई है

 

भंवरें सा चूमते रहे बगीचों में

खिलती हुई कलियां

उन फूलों को भी अब

छूने की मनाही है

 

मसान मे जो देखी

जलती हुई चितायें

राजा हो या रंक

सबने यूंही सद्गति पाई है

 

जो शोषित, वंचितों के लिए

लड़ते रहे उम्र भर

वो अवतार बन गये

लोगों के दिलों में जगह पाई है

 

हम चलते रहे हमेशा

अपने उसूलों की राह पर

” श्याम” इसलिए तुमने

हर कदम पर ठोकर खाई है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘प्रतीक्षा…‘।)

☆ कविता  – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

तेरी याद में ऐसी खोई,

अपनी सुध बुध मैंने खोई,

आज अपनी डगरिया भुला बैठी,

जीवन लगता प्यारा प्यारा,

तूने क्या ऐसा कर डाला,

आज अपनी नगरिया भुला बैठी,

घर से जैसे ही मैं निकली,

पनघट पर पनिया भरने को,

राह में बैठा था तू सजना,

निंदिया मेरी हरने को,

तूने कंकरिया जो मारी,

गगरी फूट गई बेचारी

आज अपनी गगरिया गंवा बैठी,

 आज अपनी डगरिया भुला बैठी,

सजना तेरी याद में खोई,

सुबह शाम ना जानूं,

दुनिया छूटे, जग रूठे पर,

तुझको अपना मानूं

तू अब इन आंखों की ज्योति,

 जैसे सीप में रहता मोती,

तुझसे अपनी नजरिया मिला बैठी,

आज अपनी डगरिया भुला बैठी,

द्वार पर बैठी  पंथ निहारूं,

पलक बुहारूं अंगना,

हर आहट पर दिल ये सोचे,

आए मेरे सजना,

तू अब इन आंखों का सपना,

तज के लोग लाज को सजना,

तुझको अपना सांवरिया बना बैठी,

आज अपनी डगरिया भुला बैठी.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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