हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #248 ☆ चर्चा  और आरोप… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख चर्चा  और आरोप… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 248 ☆

☆ चर्चा  और आरोप… ☆

चर्चा  और आरोप यह दोनों ही सफल व्यक्ति के भाग्य में होते हैं। लोगों के दृष्टिकोण को लेकर ज़्यादा मत सोचिए, क्योंकि सबसे ज़्यादा वे लोग ही आपका मूल्याँकन करते हैं, जिनका ख़ुद कोई मूल्य व अस्तित्व नहीं होता। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है, क्योंकि वह कम समय में अधिकाधिक धन व शौहरत पाना चाहता है और भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता। वैसे भी मानव अक्सर दूसरों को सुखी देखकर अधिक दु:खी रहता है। उसे अपने सुखों का अभाव इतना नहीं खलता; जितना दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव आहत करता है। यह एक ऐसी लाइलाज समस्या है, जिसका निदान नहीं है। आप अपनी सुरसा के मुख की भाति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संतोष व सुख से जी सकते हैं और दूसरों के बढ़ते कदमों को देख उनका अनुकरण तो कर सकते हैं। स्पर्द्धा भाव को अपने अंतर्मन में संजोकर रखना श्रेयस्कर है ,क्योंकि मन में ईर्ष्या भाव जाग्रत कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। ईर्ष्या भाव मन में अक्सर तनाव व अवसाद को जन्म देता है, जो आपको अलगाव की स्थिति प्रदान करता है।

चर्चा सदा महान् लोगों की होती है, क्योंकि वे आत्मविश्वासी, दृढ़-प्रतिज्ञ व परिश्रमी होते हैं। भीड़ प्रतिगामी नहीं होते हैं। उसके बल पर वे जीवन में जो चाहते हैं, उस मुक़ाम को हासिल करने में समर्थ होते हैं। उनका सानी कोई नहीं होता। दूसरी ओर आरोप भी संसार में उन्हीं लोगों पर लगाए जाते हैं, जो लीक से हटकर कुछ करते हैं। वे एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, कभी विचलित नहीं होते।

अक्सर आरोप लगाने व आलोचना करने वाले वे लोग ही होते हैं, जिनका अपना दृष्टिकोण व अस्तित्व नहीं होता। वे बेपैंदे लोट होते हैं और  उन्हें थाली का बैगन भी कहा जा सकता है। वे मात्र दूसरों पर आरोप लगा कर प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। ‘बिन साबुन पानी बिना, निर्मल किए सुभाय’ वैसे तो कबीर ने भी निंदक के लिए अपने आँगन में कुटिया बनाने का सुझाव दिया है, क्योंकि यही वे प्राणी होते हैं, जो निष्काम भाव से आपको अपने दोषों, कमियों व  अवगुणों से अवगत कराते हैं।

‘तुम कर सकते हो’ जी हाँ! सो! असंभव शब्द को अपने शब्दकोश से बाहर निकाल दीजिए। आप में असीमित शक्तियाँ संचित हैं, परंतु आप उनसे अवगत नहीं होते हैं। आइंस्टीन ने जब बल्ब का आविष्कार किया तो उसे अनेक बार असफलताओं का सामना करना पड़ा। उसके मित्रों ने उससे उस खोज पर अपना समय नष्ट न करने का अनेक बार सुझाव दिया। परंतु उसका उत्तर सुन आप चौंक जाएंगे। अब उसे इस दिशा में पुन: अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा कह कर उनके तथ्य की पुष्टि की। अब मैं नए प्रयोग कर शीघ्रता से अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकूंगा और उसे सफलता प्राप्त हुयी।।

मुझे स्मरण हो रही है अस्मिता की स्वरचित पंक्तियाँ– ‘तूने स्वयं को पहचाना नहीं।’ नारी अबला नहीं है। उसमें असीम शक्तियाँ हैं, परंतु उसने उन्हें पहचाना नहीं।’ वैसे भी इंसान यदि अपना लक्ष्य निर्धारित कर निरंतर परिश्रम करता रहता है तो वह एकदिन अपनी मंज़िल को अवश्य प्राप्त कर सकता है। अवरोध तो राह में आते रहते हैं। परंतु उसे अपनी मंज़िल पाने के लिए अनवरत बढ़ना होगा। ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ पंक्तियाँ मानव को संदेश देती हैं कि लोग तो दूसरों को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होते बल्कि टाँग खींचकर आलोचना अवश्य करते हैं। उसे व्यर्थ के आरोपों-प्रत्यारोपों में उलझा कर सुक़ून पाते हैं। परंतु बुद्धिमान व्यक्ति उनसे प्रेरित होकर पूर्ण जोशो-ख़रोश से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अब्दुल कलाम के मतानुसार ‘ सपनें वे देखें, जो आपको सोने न दें।’ आप रात को सोते हुए सपने न देखें, बल्कि उन सपनों को साकार करने में जुट जाएं और मंज़िल पाने तक चैन से न सोएं। यह सफलता-प्राप्ति का अमोघ मंत्र है।

आप प्रशंसा से पिघलें नहीं, निंदा से पथ-विचलित न हों तथा दोनों स्थितियों में सम रहते हुए अपने निर्धारित पथ पर अग्रसर हों, जब तक आप मंज़िल को प्राप्त नहीं करते। आप इन दोनों स्थितियों को सीढ़ी बना लें तथा लोगों के मूल्यांकन से विचलित न हों। आप अपने भाग्य-विधाता हैं और कठिन परिश्रम व आत्मविश्वास द्वारा वह सब प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की थी।

अंत में मैं यह कहना चाहूँगी कि इसके लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार है।  सो! जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश न करने दें। जीवन में प्रेम, सौहार्द, त्याग, विनम्रता, करुणा आदि सद्भावों को विकसित करें, क्योंकि यह दैवीय गुण मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित होते हैं तथा उस व्यक्ति में पंच विचार दस्तक नहीं दे सकते। आप स्वयं में, अपने अंतर्मन में इन गुणों को विकसित कीजिए और बढ़ जाइए अपनी राहों की ओर– जहाँ सफलता आपका स्वागत अवश्य करेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 12 ?

?फिर भी दिल है हिंदुस्तानी — कहानीकार – श्री महेश दुबे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

विधा – छोटी कहानियाँ

कहानीकार-  श्री महेश दुबे

? छोटी कहानियाँ, बड़े संदर्भ  श्री संजय भारद्वाज ?

कहानी मनुष्य को ज्ञात सबसे पुरानी विधा है। धारणा है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। वस्तुतः कहने-सुनने, स्वयं को व्यक्त करने की इच्छा मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। कहानी रोचकता से इस मानसिक विरेचन को पूरा करती है। सरलता और सुबोधता के चलते कहानी सर्वाधिक संप्रेषणीय विधा हो जाती है। यही कारण है कि स्पष्टीकरण के लिए गूढ़ दर्शन भी कहानी लेखन का सहारा लेता है।

लेखन, निरीक्षण की उपज है। विशेषकर कहानी के संदर्भ में जहाँ अपनी बात पात्रों के माध्यम से रखनी हो, यह निरीक्षण अधिक सूक्ष्मता की मांग रखता है। अपने भीतर एक कहानी समेटे हमारे आसपास अनेक घटनाएँ घट रही होती हैं। इन्हें अनगिन लोग देखते हैं किंतु इनमें कुछ ही के देखने में दृष्टि का अंतर्भाव होता है।

महेश दुबे ऐसे ही दृष्टि संपन्न कहानीकार हैं। वे मूलरूप से कवि हैं। कविता के गर्भ में एक कहानी छिपी होती है जबकि हर कहानी, एक कविता का विस्तार होती है। यही कारण है कि महेश दुबे की कवि दृष्टि, कहानी में संवेदना के सूक्ष्म तंतुओं को स्पंदित करने में सफल रही है।

‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ संग्रह की कहानियाँ, कहानीकार की देखी, भोगी, समझी, सुनी घटनाओं की कहन हैं। अपनी कहन की पृष्ठभूमि में उपस्थित घटनाओं का सकारात्मक आकलन लेखक ने किया है। बिना कोई लेबल लगाए, आदमी को आदमी की तरह देखने की यह सकारात्मकता इन कहानियों का शक्तिबिंदु है।

पटकथा लेखन के क्षेत्र में कहा जाता है कि मनुष्य जीवन की कहानियाँ छत्तीस फ्रेमों में बँटी हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अमूमन इन सभी फ्रेमों से गुज़रती हैं। आदमी के सारे रंग, रंगों के शेड्स, स्थिति-परिस्थिति, आशा-आशंका, भावना-संभावना को ये प्रकट करती हैं।

साहित्य बेहतर मनुष्य की खोज है। प्रस्तुत कहानियाँ बेहतर मनुष्य को हमारे सामने रखती हैं। विशेष बात है कि ये कहानियाँ बेहतर मनुष्य गढ़ती नहीं अपितु हमारे आसपास, इर्द-गिर्द के नितांत साधारण से परिचित व्यक्ति की ओर इंगित करती हैं और कहती हैं, ‘देखो, यह है बेहतर मनुष्य।’ बेहतर मनुष्य के माध्यम से बेहतर मनुष्यता और बेहतर संसार की यात्रा कराती हैं ये कहानियाँ।

शब्दों की संख्या की दृष्टि से ये कहानियाँ छोटी हैं। अतः पात्रों के चित्रण की अपनी सीमाएँ हैं। पात्र की तुलना में इन कहानियों में परिवेश का चित्रण अधिक मुखर है। भाषा, देशकाल के अनुरूप और सरल है। कथानक सशक्त हैं। कथोपकथन को कहानीकार ने संक्षेप में बहुत प्रभावी ढंग से बांधा है। कथ्य और शिल्प में साधा गया ‘बोनसाई’ संतुलन इन कहानियों की प्रभावोत्पादकता को बहुआयामी करता है। मैं इन्हें बड़े संदर्भ वाली छोटी कहानियाँ निरूपित करूँगा।

कहानियों के जगत में महेश दुबे का प्रकाशित पुस्तक के रूप में यह पहला कदम है। यह कदम इतना सहज और आत्मविश्वास से भरा है कि पाठक इसे हाथों-हाथ अपना लेगा, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #248 ☆ भावना के दोहे – तीज त्योहार ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – तीज त्योहार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 248 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – तीज त्योहार ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

शिव का पूजन कर रही, मने तीज त्योहार।

लंबी उम्र का मांगती, पति रूपी उपहार।।

*

गौरी अब ये कह रही, क्या है मेरे भाग।

अब तो मुझको दीजिए, मेरा अमर सुहाग।।

*

गोरी मुझसे कह रही, करु सोलह श्रृंगार।

प्यार समर्पण शक्ति से, मने तीज त्योहार।।

*

गौरी शिव की वंदना, करती है हर बार।

ईप्सा अटल सुहाग की, करे सुहागन नार।।

*

  झोली में सुहागन की, देना प्रिय का प्यार।

उनके है आशीष से, मिले खुशियां अपार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #20 – ग़ज़ल – ज़मीं की शय नही हो तुम… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – ज़मीं की शय नही हो तुम

? रचना संसार # 20 – ग़ज़ल – ज़मीं की शय नही हो तुम…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

ज़ुबाँ रखते नहीं मुँह में अगरचे बोल पड़ते हैं

बिसातें जब भी  बिछतीं  हैं पियादे बोल पड़ते हैं

 *

थके हारे भी चल पड़ते हैं शायद इस सहारे से

मिलेगी मंज़िलें बेशक सितारे  बोल पड़ते हैं

 किताबें चार क्या पढ़ लीं, बने फ़िरते हैं अब आलिम,

नसीहत दो न यूँ झुंझला के बच्चे बोल पड़ते हैं

 *

करें वो क़त्ल की साज़िश हमेशा ही निगाहों से

खुलेगा राज़ ये इक दिन इशारे बोल पड़ते हैं

 *

सितारे थम से जाते हैं, तुम्हारी इक झलक पाकर,

ज़मीं की शय नही हो तुम ये सारे बोल पड़ते हैं ।

 *

उठाते हैं वही उँगली नहीं औक़ात कुछ जिनकी

उछलता ख़ुद पे जब कीचड़ लबादे बोल पड़ते हैं

 *

सितम के खौफ़ से मीना ज़ुबाँ ख़ामोश है लेकिन

सुलगते-काँपते लोगों के चेहरे बोल पड़ते हैं

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #230 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक कथा – आदर्श शिक्षक  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆

☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा ☆

“नमस्कार सर! मुझे पहचाना?”

“कौन?”

“सर, मैं आपका विद्यार्थी । 40 साल पहले का आपका विद्यार्थी।”

“ओह! अच्छा। आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है। इसलिए नही पहचान पाया। खैर। आओ, बैठो। क्या करते हो आजकल?” उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।

“सर, मैं भी आपकी ही तरह शिक्षक बन गया हूँ।”

“वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन शिक्षक की पगार तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे…?”

“सर। जब मैं कक्षा सातवीं में था तब हमारी कक्षा में एक घटना घटी थी। उसमें से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था। वो घटना मैं आपको याद दिलाता हूँ। आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।”

“अच्छा! क्या हुआ था तब बेटा, मुझे ठीक से कुछ याद नहीं…?”

“सर, सातवीं में हमारी कक्षा में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था। जबकि हम बाकी सब बहुत गरीब थे। एक दिन वह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। कुछ याद आया सर?”

“सातवीं कक्षा?”

“हाँ सर। उस दिन मेरा मन उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौका देखकर वह घड़ी चुरा ली थी।

उसके ठीक बाद आपका पीरियड था। उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की औऱ बहुत जोर जोर से रोने लगा। आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है ,उसे वापस कर दो। मैं उसे सजा नही दूँगा। लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।”

“उसके बाद फिर आपने कमरे का दरवाजा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब औऱ झोला देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नही जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नही खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा औऱ ऊपर से जबरदस्त मार पड़ेगी वो अलग..।”

“हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी। मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था। मैं ग्लानि से भर उठा था। उसी समय जान देने का निश्चय कर लिया था लेकिन… लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के अंत तक सबकी जेबें देखते रहे और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, “अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नही आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे। इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे ” ये कहते कहते उसकी आँख भर आई।

वह रुंधे गले से बोला, “आपने उस समय मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया था सर। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया। आपने कभी मेरे साथ भेदभाव नही किया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा एक आदर्श शिक्षक ही बनूँगा।”

“हाँ हाँ…मुझे याद आया।” उनकी आँखों मे चमक आ गयी। फिर चकित हो बोले, “लेकिन बेटा… मैं आज तक नही जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि…जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।”

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः  !

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:!!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

*

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥

*

अध्यात्मज्ञान नित्य तत्वज्ञान परिशीलन

गुण हे ज्ञान अन्य विपरित ज्ञान केवळ अज्ञान ॥११॥

*

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते ।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ १२ ॥

*

अनादि सत्असत् ना सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ज्ञेय 

कथितो तुजला मोक्षदायी हे अमृत ज्ञेय ॥१२॥

*

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥

*

सर्वत्र तया हस्तपाद नेत्र शिरे आनन

कर्णही सर्व बाजूंनी सर्वांसी व्यापून ॥१३॥

*

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १४ ॥

*

भास सर्व इंद्रियांचा गात्र तया नसून

असक्त सकलांपासून भूत धारणपोषण

भासती सर्व गुण परी ते सर्वस्वी निर्गुण

समग्र गुणांचे ते भोक्ते असूनिया निर्गुण ॥१४॥

*

बहिरन्तरश्च भूतानामचरं चरमेव च ।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १५ ॥

*

सर्वभूतांतरी बाहेरी चल तसेची ते अचल

सूक्ष्म जाणण्यासि दूर परी भासते जवळ ॥१५॥

*

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६ ॥

*

ब्रह्म असूनी अखंड भासते सर्वभूतात विभक्त 

भूतधारकपोषक नाशक तथा तेचि जन्मद ॥१६॥

*

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम् ॥ १७ ॥

*

ब्रह्म हे तेजांचे तेज तमाच्याही सीमेपार

हृदयात ज्ञानरूप ज्ञेयरूप ज्ञाने उमगणार ॥१७॥

*

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।

मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥

*

ऐसे आहे संक्षिप्ताने ज्ञान तथा ज्ञेय

ज्ञानाने या मम भक्त मम स्वरूपी होय ॥१८॥

*

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादि उभावपि ।

विकारांश्र्च गुणांश्र्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १९ ॥

*

प्रकृती पुरुष उभयता तया अनादि जाण

विकारास तथा गुणास प्रकृती असे कारण ॥१९॥

*

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।

पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २० ॥

*

कार्य-कारण-कर्तृत्वास मूळ प्रकृती कारण

भोगांस सुखदुःखांच्या मूळ पुरुष कारण ॥२०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “बाप्पा मोरया रे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “बाप्पा मोरया रे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

 बाप्पा तुझा आमच्याकडे यायचा टाईम कि रे झाला…

दरवर्षाला सांगत असतो ना लवकर येशील पुढच्या टायेमाला..

अन तसा तू येत असतोच न विसरता दर वर्षाला… लालचावलास तू सारखा सारखा इथं यायला… भलामोठा मंडपात, सुशोभित मखरात, बसतोस ऐषआरामात… घरच्या, दारच्या यजमानांची उडते किती त्रेधातिरपिट… तूझ्या आगमनाच्या आधीपासून ते तुला निरोपाचा विडा देईपर्यंत.. असते का काही तुला त्याची कल्पना… फक्त भिरभिरते डोळे तुझे शोधती नैवेद्याचे मोदक ताट भरून आहेत ना.. सुपाएवढे कान तुझे आरत्या, पूजाअर्चा, तारस्वरातल्या ऐकून घेती… छचोर गाण्याचा शंख कर्णा त्या फुंकती.. नवल वाटे मजला अजूनही बहिरेपण तुजला कसे न आले… आल्यापासून जाईपर्यंत डोळे टक्क उघडे ठेवशी… साधुचे नि भोंदूचे भाव अंतरीचे जवळूनी पाहशी.. जसा ज्याचा भाव तसा त्याला पावशी… मिस्किल हसू आणून गोबरे गाल फुगवून बसशी… तथास्तू चा हात आशिर्वादाचा तव मात्र सगळ्यांच्या मस्तकी ठेवशी… ज्याची त्याची मनातली मागण्यांची माळेची मोजदाद तरी तु किती करशी… करोडोंची होतसे इथे उलाढाल ती दिखाऊ भक्तीचा भंडारा उधळून देण्यास.. देखल्या देवा दंडवताच्या उक्ती नि कृतीला तूही आजवरी ना विटलास… चौदा विद्या नि चौसष्ट कलांचा तू अधिपती… कसा विसरलास भक्तांना अंतर्यामी खऱ्या भक्तीची, सश्रद्ध बुद्धी देण्यास ती… दहा दिवसाचा तो सोहळा रात्रंदिन आमचाच कोलाहलाचा गलका… कधीही चुकूनही नाही तू सोडले मौनाला शब्दाने एका.. जे चालले ते सगळेच चांगलेच होते भावले आहे का तुला?… निदान हे तरी सांगशील का मला!……

.. आणि आणि हो.. माझं ना तुझ्या जवळ एक मागणं आहे!.. या वर्षी तू इथं आलास कि तू मौन बाळगून बसू नकोस… जे जे तुला दिसतयं ते तुला आवडतयं, नावडतयं ते स्पष्ट सांगायचं!.. घडाघडा बोलायचं!… मनात काही ठेवायचं नाही.. नि पोटात तर काहीच लपवायचं देखिल नाही!… तुला काय हवयं ते तू मागायचं.. अगदी हट्ट धरून… आम्ही नाही का तुला नवस सायास करतो तुझ्या कडे हक्कानं!.. मग तु देखील आमच्याकडे मागणी करण्याचा हक्क आहेच कि… टेक ॲन्ड गिव्ह हि पाॅलिसी चालतेय ना श्रध्देच्या बाजारात… मगं कसं सगळा व्यवहार पारदर्शी होईल…. पण त्यासाठी तुला बोलावेच लागेल… मौन धरून गप्प बसण्यात काही मतलब नाही.. आणि आम्हालाही कळेल कि आपल्या मागण्या पूर्ण होणार आहेत कि नाहीत… आणि समजा मागुनही मिळणार नसेल तर तर दोन हस्तक नि एक मस्तक तुझ्या पायी ठेवून.. ठेविले अनंते तैसेची राहावे.. चित्ती असु द्यावे समाधान अशी मनाची समजूत घालून पुढे चालू लागू… तरी पण यावेळे पासून तू आमच्या बरोबर बोलणार, संवाद साधणार आहेस… अरे तु दिलेल्या चौदा विद्या नि चौसष्ट कलांचा आम्ही मानवांनी काय आविष्कार केलाय हे तु पाहिलसं पण ते तुला जसं हवं होतं त्याच अपेक्षेप्रमाणे झालयं का कसं… का तुला काही वेगळचं अपेक्षित होतं.. हे तुला आता सांगावच लागेल… निदान उशीर होण्यापूर्वी चुक दुरुस्ती तर करता येईल…. नाहीतर नाहीतर आम्ही पण तुझ्याशी बोलणार नाही.. एकाही शब्दांनं… कट्टी कट्टी घेणार तुझ्याशी… आणि आणि आरतीच्या, पूजाअर्चाच्या वेळेला तुला दाखवलेला नैवेद्य, प्रसाद आम्ही सगळाच खाऊन टाकू… तुला बिल्कुल देणार नाही… हिच तुला आमच्याकडून पेनल्टी… कितीही गाल फुगवून रूसून बसलास तरी… मग मनात आणूही नकोस फिलिंग स्वत:ची गिल्टी वाटल्यावरी…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 144 ☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ दूसरी तो बाप तीसरा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 144 ☆

☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘करती क्या हो तुम दिन भर घर में? सोती रहती हो क्या ?‘ पति की इस बात ने मानों आग में घी का काम किया। सविता दिन भर की थकी थी, गुस्से में कह गई – ‘हाँ ठीक कह रहे हो तुम, मैं कुछ नहीं करती घर में। बिना मेरे किए ही होते हैं तुम्हारे और बच्चों के सब काम इस परिवार में। मैं तो सोती रहती हूँ ऐसे ही बच्चे पल रहे हैं, बड़े हो जाते हैं और रिश्तेदार भी —–?’

‘बस भी करो, अब अपना वही रोना धोना मत शुरू करो’- पति ने झिड़कते हुए कहा।

बचपन से यह वाक्य दिल में फाँस- सा गढ़ा था, जब दिन भर घर के कामों में खटती माँ और दादी को घर के पुरुषों से कहते सुनती – ‘दिन भर घर में रहती हो, कौन सा पहाड़ उठा रही हो? करती क्या हो घर में सारा दिन ?’ वे नहीं दे पातीं थीं हिसाब घर के उन छोटे – मोटे हजार कामों का जिनमें सारा दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता| इन कामों का कोई मोल नहीं, कहीं गिनती नहीं। हाँ, उनका शरीर जरूर लेखा-जोखा रखता उनके दिन भर के कामों का। पिंडलियों में दर्द बना ही रहता और कमर दोहरी हो जाती काम करते -करते।

पति तो अपनी बात कह कर चला गया लेकिन सोचते – सोचते अजीब – सी कड़वाहट घुल गई उसके मन में, आँखें पनीली हो आई| उभरी कई तस्वीरें, गड्ड–मड्ड होते थके, कुम्हलाए चेहरे- माँ, दादी और———-| ‘उनके मन में भी न जाने कितनी बातें खौलती रहती होंगी भीतर ही भीतर पर–?’

ऐसा नहीं कि इससे पहले उसने यह वाक्य न सुना हो पर आज पति के ‘इस’ वाक्य ने दिल-दिमाग में विचारों का उबाल – सा ला दिया, लावा बह निकला था – ‘पूछते हैं कि सारा दिन क्या करती हो घर में, पर पत्नी की असमय मृत्यु हो जाने पर जल्दी ही लाई जाती है एक नई नवेली दुल्हन, घर में कुछ ना करने के लिए ???’ पति द्वारा बच्चों की देखभाल के नाम पर की गई दूसरी शादी के बारे में कहा जाता है ‘माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है?’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 212 ☆ गति समझे नहि कोय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना गति समझे नहि कोय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 212 ☆ गति समझे नहि कोय…

सदैव ऐसा होता है कि पौधे के सारे फूल तोड़कर हम उपयोग में ले लेते हैं पर उसका रक्षक काँटा अकेला रह जाता है, तब तक इंतजार करता है जब तक कली पुष्प बनकर पुष्पित और पल्लवित न होने लगे किन्तु फिर वही चक्र चलने लगता है पुष्प रूपवान बन जग की शोभा बढ़ाने हेतु डाल से अलग हो जाता है, शूल पुनः अकेला यही सोचता रह जाता है कि आखिर उसकी भूल क्या थी…।

बहुत हुआ तो खेतों की बाड़ी या राह रोकने हेतु इसका प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु उसमें भी लोग नाक भौं सिकोड़ते हुए बचकर निकल ही जाते हैं, साथ ही अन्य लोगों को भी सचेत करते हैं अरे भई काँटे हैं इनसे दूर रहना।

कहने का अर्थ ये है कि यदि आप कोमल हृदय होंगे तो जगत को आकर्षित करेंगे, सुगन्धित होकर सबकी पीड़ा हरेंगे, जो भी संपर्क में आयेगा वो भी महकने लगेगा जबकि दूसरी ओर केवल घाव मिलेंगे। सो अपने को रूपवान के साथ – साथ मुस्काता हुआ, महकाता हुआ बनाइए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना भ्रष्टाचार की माया)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 20 – भ्रष्टाचार की माया ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

भ्रष्टाचार, एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही किसी भी सामान्य नागरिक के चेहरे पर ताज़गी से भरी मुस्कान आ जाती है। ये कोई साधारण गुनाह नहीं है, यह तो भारतीय राजनीति का सबसे प्रिय खेल है। जैसे चाय में बिना चीनी के मज़ा नहीं आता, वैसे ही राजनीति में बिना भ्रष्टाचार के चुनावी सरगर्मी अधूरी रहती है।

आप सोच सकते हैं कि भ्रष्टाचार का मतलब केवल चंद लोगों का पैसा उड़ाना है। लेकिन वास्तव में यह एक कला है, जिसमें हमारी सरकारें, बाबू और नेता एक साथ नृत्य करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार और हमारी संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। यह एक ऐसा रिश्तेदार है, जिसका नाम लिए बिना शादी का कोई मुहूर्त ही नहीं पड़ता।

सुबह-सुबह जब कोई आम नागरिक अपने घर से बाहर निकलता है, तो उसे एहसास होता है कि उसके पास कई विकल्प हैं: भीड़ में धकेलना, ट्रैफिक में फंसना, और सबसे बढ़कर, एक भ्रष्ट अधिकारी से सामना करना। अब अधिकारीजी तो जैसे भगवान की असीम शक्ति के साथ यह बताते हैं कि उनकी दुआ से ही आपकी फाइल चल सकती है।

अधिकारी का चेहरा देखने में तो ऐसा लगता है जैसे उन्होंने हर मुसीबत की चाय पी रखी है। जब आप उनसे मुलाकात करते हैं, तो उनका पहला सवाल होता है, “भाई, थोड़ा सा मुझे दें, फिर देखो कैसे फाइल चलती है!” यह सुनकर आप सोचते हैं कि सच में, भ्रष्टाचार एक खेल है, और अधिकारीजी इसके सबसे बड़े खिलाड़ी हैं।

लेकिन भ्रष्टाचार केवल अधिकारीजनों तक ही सीमित नहीं है। नेताओं की महत्ता तो किसी कवि द्वारा लिखे गए स्तुति गीतों से भी अधिक है। चुनावों के समय, नेता जी अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं और जनता के बीच या तो बम फेंकते हैं या फिर शुद्ध भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर देते हैं। उनका मानना है कि चुनाव में जीतने के लिए दिमाग से काम लेना जरूरी है और यह दिमाग तभी चल सकता है जब जेब में कुछ ‘सुखद’ हो।

यहाँ तक कि हमारे समाज में रोटी, कपड़ा और मकान का उद्देश्य भी भ्रष्टाचार पर आधारित हो गया है। आप रोटी खरीदने जाते हैं, तो दुकानदार बताता है, “भाईये, यह रोटी तो हज़ार की है, पर अगर आप मुझे कुछ ‘खास’ दे दें, तो यह सस्ती हो जाएगी!” अब उस समय आपको समझ आता है कि भ्रष्टाचार तो पकवान बनाने का एक मुख्य ingredient है।

हमारी बिरदियाँ भी भ्रष्टाचार को लेकर बड़े चौकस हैं। हर साल जब गणतंत्र दिवस आता है, तो शहरों में तिरंगा फड़कता है और दफ्तरों में रिश्वत का एक नया रंग चढ़ता है। यह ऐसा लगता है जैसे हर एक सरकारी दफ्तर में तिरंगा लहराने के साथ-साथ ब्रश के साथ भ्रष्टाचार के नए रंग भी भूरे से नीले में बदलने लगते हैं।

भ्रष्टाचार के इस महासागर में, आम नागरिक तैराकी का कोई हुनर नहीं रखता। वे केवल एक ही काम करते हैं: एक अदृश्य रक्षक की प्रतीक्षा करना, जो भ्रष्टाचार को खत्म कर देने का आश्वासन देता है। लेकिन ध्यान दें, असली उपाय तो यही है कि स्थिति को स्वीकार करें और उसकी सराहना करें।

आखिरकार, भ्रष्टाचार केवल एक मुद्दा नहीं है; यह एक फीलिंग है, एक अनुभव है, जिसे हंसी में बदलकर जीना ही सबसे सही तरीका है। हमारी संस्कृति तो इसी पर आधारित है; इसलिए जब भी भ्रष्टाचार का जिक्र हो, सभी को हंसते-हंसते रुदन करना चाहिए। कारण साफ है: यह एक ऐसा शिल्प है, जिसमें हम सब, चाहे हामी भरें या न भरें, हर दिन नर्तकी की तरह झूमते हैं।

तो चलिए, इस वैभव की महफिल में शामिल होते हैं, और स्वच्छता की बातें करने वालों को हंसकर कहते हैं, “भ्रष्टाचार चलने दो, यह हैं तो अपने विकास का हिस्सा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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