हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  एकाकार ☆

बार-बार इशारा कर

वह बुलाती रही,

देख समझ कर भी

वह अनदेखा रहा,

एक-दूसरे के प्रति

असीम आकर्षण,

एक-दूसरे के प्रति

अबूझ भय,

धूप-छाँह सी

उनकी प्रीत,

अंधेरे-उजाले सी

उनकी रिपुआई,

वे टालते हैं मिलना

प्राय: सर्वदा

पर जितना टला

मिलन उतना अटल हुआ,

जब भी मिले

एकाकार अस्तित्व चुना,

चैतन्य, पार्थिव जो भी रहा

रहा अद्वैत सदा,

चाहे कितने उदाहरण

दे जग प्रेम-तपस्या के,

जीवन और मृत्यु का नेह

किसीने कब समझा भला!

 

©  संजय भारद्वाज

( 21 जनवरी 2017, प्रात: 6:35 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर…☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 85 ☆ ढाई आखर… ☆ 
? वैलेंटाइन दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी का एक विचारणीय एवं सामायिक आलेख ?

प्रेम अबूझ, प्रेम अपरिभाषित…, प्रेम अनुभूत, प्रेम अनभिव्यक्त..। प्रेम ऐसा मोहपाश जो बंधनों से मुक्त कर दे, प्रेम क्षितिज का ऐसा आभास जो धरती और आकाश को पाश में आबद्ध कर दे। प्रेम द्वैत का ऐसा डाहिया भाव कि किसीकी दृष्टि अपनी सृष्टि में देख न सके, प्रेम अद्वैत का ऐसा अनन्य भाव कि अपनी दृष्टि में हरेक की सृष्टि देखने लगे।

ब्रजपर्व पूर्ण हुआ। कर्तव्य और जीवन के उद्देश्य ने पुकारा। गोविंद द्वारिका चले। ब्रज छोड़कर जाते कान्हा को पुकारती सुधबुध भूली राधारानी ऐसी कृष्णमय हुई कि ‘कान्हा, कान्हा’ पुकारने के बजाय ‘राधे, राधे’ की टेर लगाने लगी। अद्वैत जब अनन्य हो जाता है राधा और कृष्ण, राधेकृष्ण हो जाते हैं। योगेश्वर स्वयं कहते हैं, नंदलाल और वृषभानुजा एक ही हैं। उनमें अंतर नहीं है।

रासरचैया से रासेश्वरी राधिका ने पूछा, “कान्हा, बताओ, मैं कहाँ-कहाँ हूँ?” गोपाल ने कहा, “राधे, तुम मेरे हृदय में हो।” विराट रूपधारी के हृदय में होना अर्थात अखिल ब्रह्मांड में होना।..”तुम मेरे प्राण में हो, तुम मेरे श्वास में हो।”  जगदीश के प्राण और श्वास में होना अर्थात पंचतत्व में होना, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर में होना।..”तुम मेरे सामर्थ्य में हो।” स्रष्टा के सामर्थ्य में होना अर्थात मुरलीधर को गिरिधर करने की प्रेरणा होना। कृष्ण ने नश्वर अवतार लिया हो या सनातन ईश्वर होकर विराजें हों, राधारानी साथ रहीं सो कृष्ण की बात रही।

“लघुत्तम से लेकर महत्तम चराचर में हो। राधे तुम यत्र, तत्र, सर्वत्र हो।”

श्रीराधे ने इठलाकर पूछा, “अच्छा अब बताओ, मैं कहाँ नहीं हूँ?” योगेश्वर ने गंभीर स्वर में कहा, “राधे, तुम मेरे भाग्य में नहीं हो।”

प्रेम का भाग्य मिलन है या प्रेम का सौभाग्य बिछोह है? प्रेम की परिधि देह है या देहातीत होना प्रेम का व्यास है?

परिभाषित हो न हो, बूझा जाय या न जाय, प्रेम ऐसी भावना है जिसमें अनंत संभावना है।कर्तव्य ने कृष्ण को द्वारिकाधीश के रूप में आसीन किया तो प्रेम ने राधारानी को वृंदावन की पटरानी घोषित किया। ब्रज की हर धारा, राधा है। ब्रज की रज राधा है, ब्रज का कण-कण राधा है, तभी तो मीरा ने गोस्वामी जी से पूछा  था, “ठाकुर जी के सिवा क्या ब्रज में कोई अन्य पुरुष भी है?”

प्रेमरस के बिना जीवनघट रीता है।  जिसके जीवन में प्रेम अंतर्भूत है, उसका जीवन अभिभूत है। विशेष बात यह कि अभिभूत करनेवाली यह अनुभूति न उपजाई न जा सकती है न खरीदी जा सकती है।

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।

इस ढाई आखर को मापने के लिए वामन अवतार  के तीन कदम भी कम पड़ जाएँ!

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शब्दकोश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – शब्दकोश ☆

वह लिखती रही विरह,

मैं बाँचता रहा मिलन,

चलो शोध करें,

दृष्टि बदलने से

भाव, नया रूप पा जाता है क्या?

शब्द का अर्थ बदल जाता है क्या?

और पता नहीं कैसे

मेरे पास बदले अर्थों का

एक शब्दकोष संचित हो गया है!

 

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकमेव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – एकमेव ☆

यह अलां-सा लिखता है,

वह फलां-सा दिखता है,

यह उस नायिका-सी थिरकती है,

वह उस गायिका-सी गाती है,

तुलनाओं की अथाह लहरों में

आशाओं की कसौटी पर

अपनी तरह और

अपना-सा जो डटा रहा,

समय साक्षी है,

उस-सा फिर

वही एकमेव बना रहा!

 

©  संजय भारद्वाज

( शुक्रवार 3.11.17, प्रातः 7:52 बजे)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

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(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म 

हाथ कुछ ऊपर उठाता

आकाश उतर आता,

तिलिस्म था हाथों में..,

मृगछौनी आँखों ने

फिर पूछा सवाल

मिलकर उतारें आकाश..?

कसकर भले न थाम सको

पर भरोसे से थामना हाथ

वरना टूट जाएगा तिलिस्म..,

दोनों ने चाहा मिलकर

उतारना साझा आकाश,

तिलिस्म ख़त्म हुआ..,

रूठा तिलिस्म शायद

लौट भी आए कभी

पर टूटा विश्वास

लौटता नहीं कभी..!

©  संजय भारद्वाज

(21.12.20 11.55 बजे)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – श्वेत ☆ श्री संजय भारद्वाज

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☆ संजय दृष्टि – श्वेत

हरेक में रहता है श्वेत,

हरेक में बसता है श्वेत,

श्वेत का मूल श्वेत है,

अश्वेत का भी मूल श्वेत है,

नैतिकता में घोलकर

थोप दी गई हैं वर्जनाएँ

श्वेतांबराओं की देह पर,

नैतिकता काल के अनुरूप

परिवर्तित होती है,

सर्वदा धन, धर्म,

रसूख की सगी होती है,

समय की ग्लोबल डॉक्यूमेंट्री में

उभरता है क्लाइमेक्स..,

नैतिकता के सगों ने

खींचकर श्वेतांबराओं की देह से,

ओढ़ लिया है श्वेत,

दिगंबरायें अब

आ नहीं सकती देहरी के पार,

श्वेत का अखंड जयकार

व्योम होता है,

सिर्फ श्वेत ही है

जो सार्वभौम होता है।

©  संजय भारद्वाज

(29.1.2021 को नींद में उपजी कविता। लेखन रात्रि 2:27 बजे।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

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☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆

हरेक को हुआ है प्रेम,

किसीने भोगी, व्यक्त न

कर पाने की पीड़ा,

कोई अभिव्यक्त होने की

वेदना भोगता रहा,

किसीका प्रेम होने से पहले

झोंके के संग बह गया,

किसीका प्रेम खिलने से

पहले मुरझा गया,

किसीका अधखिला रहा,

किसीका खिलकर भी

खिलखिलाने से

आजीवन वंचित रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये मादक रहा,

प्रेम का अनुभव

किसीके लिये दाहक रहा,

जो भी हो पर

प्रेम सबको हुआ..,

प्रेम नित्य, प्रेम सत्य है,

प्रेम कल्पनातीत, प्रेम तथ्य है,

पंचतत्व होते हैं, देह का सार,

प्रेम होता है पंचतत्वों का सार!

 

©  संजय भारद्वाज

(11:07, 3.2.2021)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर ☆ श्री संजय भारद्वाज

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☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…हम सब जानते हैं कि साँप भी ज़हरीला प्राणी है। लेकिन हर साँप में ज़हर नहीं होता। साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक ज़हरीले प्राणियों के बारे में पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़ुबान पर होता है ज़हर। ज़ुबान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यमदूत ☆ श्री संजय भारद्वाज

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(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – यमदूत

मुझे प्रायः

दिखते हैं यमदूत,

सुरक्षा रक्षक बनते

साथ कदमताल करते,

एस्कॉर्ट का यह घेरा

अभेद्य होता है

दुनियावी ऐबों से

रक्षा करता है,

व्यसन मेरे पास

फटक नहीं पाते

स्थितियों के व्यूह

डिगा नहीं पाते,

आदमी का भीतर

जगाये रखने का

साधन सच्चा होता है,

यमदूत का साथ

मनुष्य के लिए

अच्छा होता है!

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 4:56 बजे, 26.6.19 )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆

प्रातः भ्रमण के बाद कुछ समय के लिये उद्यान में बैठा। दृष्टि उठाकर देखा तो स्वयं को डेकोरेटिव प्रजाति के दो-चार पेड़ों से घिरा पाया। चिकनी-चुपड़ी छाल, आसमान छूने की जल्दबाज लोलुपता, किसी के काम न आनेवाली ऊँची टहनियाँ, धरती के भीतर जाकर अधिकाधिक जल अवशोषित करने को आतुर जड़ें, अपनी ही सूखी डाल को खटाक से नीचे फेंक देनेवाला पेड़। देखा कि इस पेड़ से निर्वासित सूखी डालियाँ भी दूसरे पेड़ों की डालियों पर आसन जमाये बैठी हैं।

विचार उठा कि साहित्य हो या राजनीति, ब्यूरोक्रेसी या कोई अन्य सार्वजनिक क्षेत्र, मनुष्य के भीतर भी एक डेकोरेटिव प्रजाति है जो निरंतर फलती-फूलती जा रहा है। साम, दाम, दंड या भेद से येन केन प्रकारेण सारा कुछ अवशोषित करने की स्वार्थलोलुप प्रवृत्ति वाली प्रजाति। दुर्भाग्य यह कि आजकल इसी प्रजाति एवं प्रवृत्ति का रोपण तथा विकास किया जाता है। मन खिन्न हो गया।

खिन्न विचारों की सुस्त धारा में एकाएक उमंग की कुछ लहरें उठने लगीं। एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं। कुछ दूर खड़े पीपल की जड़ों में उन्होंने एक लोटा जल अर्पित किया। फिर दीया चासा। प्रज्ज्वलित दीपक से उठती लौ ने मानो नयी दृष्टि दी। दृष्टि आगे बढ़ी तो मन्नत के धागों से लिपटा किसी ऋषि-सा वटवृक्ष खड़ा था।…और विस्तार किया तो पाया कि उद्यान की सीमा पर विशालकाय नीम पहरा दे रहे हैं। सघन पेड़ों में अपने घरौंदे बनाये बैठे पंछियों के स्वर अब कानों में अमृत घोल रहे हैं।

सीमित आयु वाले निरुपयोगी डेकोरेटिव या सैकड़ों वर्ष की आयु वाले पीपल, बरगद, नीम! मनुष्य के पास विकल्प है- अस्थायी दिखावटी चमक से इतराने या चराचर के लिए घनी छाया देकर प्रकृति की स्मृति में अंगद के पाँव-सा डटने का।…सदा की तरह अंतिम बात, अपने विकल्प का चयन स्वयं करो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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