(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
रक्षाबंधन की मंगलकामनाएँ
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल:।
दानवीर महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, (धर्म में प्रयुक्त किए गये थे ), उसी से तुम्हें बांधता हूँ ( प्रतिबद्ध करता हूँ)। हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो ( स्थिर रहो/ अडिग रहो)।
भाई-बहन के अनिर्वचनीय नेह के पावन पर्व रक्षाबंधन की मंगलकामनाएँ।
अर्थात जगत में कोई ऐसा उत्पन्न नहीं हुआ जो प्रभुता या पद पाकर मद का शिकार न हुआ हो। गोस्वामी तुलसीदास जी का उपरोक्त कथन मनुष्य के दंभ और प्रमाद पर एक तरह से सार्वकालिक श्वेतपत्र है। वस्तुत: दंभ मनुष्य की संभावनाओं को मोतियाबिंद से ग्रसित कर देता है। इसका मारा तब तक ठीक से देख नहीं पाता जब तक कोई ज्ञानशलाका से उसकी सर्जरी न करे।
ऐसी ही सर्जरी की गाथा एक प्रसिद्ध बुजुर्ग पत्रकार ने सुनाई थी। कैरियर के आरंभिक दिनों ने सम्पादक ने उन्हें सूर्य नमस्कार पर एक स्वामी जी के व्याख्यान को कवर करने के लिए कहा। स्वामी जी वयोवृद्ध थे। लगभग सात दशक से सूर्य नमस्कार का ज्ञान समाज को प्रदान कर रहे थे। विशाल जन समुदाय उन्हें सुनने श्रद्धा से एकत्रित हुआ था। पत्रकार महोदय भी पहुँचे। कुछ आयु की प्रबलता, कुछ पत्रकार होने का मुगालता, व्याख्यान पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। व्याख्यान के समापन पर चिंता हुई कि रिपोर्ट कैसे बनेगी? मुख्य बिंदु तो नोट किये ही नहीं। भीतर के दंभ ने उबाल मारा। स्वामी जी के पास पहुँचे, अपना परिचय दिया और कहा, “आपके व्याख्यान को मैंने गहराई से समझा है। तब भी यदि आप कुछ बिंदु बता दें तो रिपोर्ट में वे भी जोड़ दूँगा।”
स्वामी जी ने युवा पत्रकार पर गहरी दृष्टि डाली, मुस्कराये और बोले, ” बेटा तू तो दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिमान है। जिस विषय को मैं पिछले 70 वर्षों में पूरी तरह नहीं समझ पाया, उसे तू केवल 70 मिनट के व्याख्यान में समझ गया।” पत्रकार महोदय स्वामी जी के चरणों में दंडवत हो गए।
जीवन को सच्चाई से जीना है तो ज्यों ही एक सीढ़ी ऊपर चढ़ो, अपने दंभ को एक सीढ़ी नीचे उतार दो। ऐसा करने से जब तुम उत्कर्ष पर होगे तुम्हारा दंभ रसातल में पहुँच गया होगा। गणित में व्युत्क्रमानुपात या इन्वर्सल प्रपोर्शन का सूत्र है। इस सूत्र के अनुसार जब एक राशि की मात्रा में वृद्धि ( या कमी) से दूसरी राशि की मात्रा में कमी (या वृद्धि) आती है तो वे एक-दूसरे से व्युत्क्रमानुपाती होती हैं। स्मरण रहे, उत्कर्ष और दंभ परस्पर व्युत्क्रमानुपाती होते हैं।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
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(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है एकादश अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए ग्यारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
ग्यारहवां अध्याय – विराट रूप
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए।
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को दसवें अध्याय में गुह्य ज्ञान के बारे में बताया, जो अति गोपनीय है। अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा भगवान के विराट स्वरूप के दर्शनों को लेकर कुछ इस प्रकार प्रकट की——
गुह्य ज्ञान आध्यात्मिक, कहा आपने आज।
दूर हुआ सब मोह अब, जाना प्रभु का राज।। 1
कमलनयन जगदीश प्रभु, प्रलय-सृष्टि हैं आप।
अक्षय महिमा आपकी, हर लेती सब पाप।। 2
रूप सलोना दिव्य प्रभु, पुरुषोत्तम हैं आप।
छवि विराट दिखलाइए, मिट जाएँ संताप।। 3
विश्वरूप अवतार प्रभु, योगेश्वर यदुनाथ।
दर्शन देकर कीजिए,केशव मुझे सनाथ।। 4
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए——-
कहा कृष्ण भगवान ने, पार्थ देख ऐश्वर्य।
देव हजारों देख तू ,लख मेरा सौंदर्य।। 5
आदित्यों को देख तू, देख देव वसु रुद्र।
कुमारादि लख अश्विनी,देख दृष्टि से भद्र।। 6
चाहो यदि तुम देखना, देखो दिव्य शरीर।
देखो भूत-भविष्य तुम, देखो धरि मन धीर।। 7
दिव्य आँख में दे रहा, देख योग ऐश्वर्य ।
भौतिक आँखों से नहीं,दिखे दिव्य सौंदर्य।। 8
धृतराष्ट्र का सारथी संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद सुना और इस प्रकार भगवान के विराट रूप का वर्णन कर धृतराष्ट्र से कहा–
संजय कह धृतराष्ट्र से, कृष्ण दिखाएँ रूप।
विश्वरूप दिखला रहे, देखे देव अनूप।। 9
विश्वरूप अंतर्निहित, रूप अनादि अनंत।
अनगिन लोचन शीश मुख,अस्त्र-शस्त्र विजयंत।। 10
दैवी-आभूषण सुभग,दिव्य अस्त्र हथियार।
सुंदर माला वस्त्र हैं, दिव्य-सुगंध अपार।। 11
सहस सूर्य -सा तेज भी, है सम्मुख श्रीहीन
विश्वरूप परमात्मा, के सर्वथा अधीन। 12
विश्वरूप भगवान का, अर्जुन देखे रूप।
भाग हजारों विभक्ता, ब्रह्म सभी का भूप।। 13
अर्जुन हतप्रभ देखता, हुआ मोह से ग्रस्त।
नत-मस्तक करता विनय,जोड़ युगल निज हस्त।। 14
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से कहा-
विश्वरूप में देव हैं, देखे विविधा रूप।
ब्रह्मा, शिवजी, ऋषि-मुनी, देखे नाग अनूप।। 15
अर्जुन बोला कृष्ण से, हे प्रभु विश्व स्वरूप
अंत, मध्य ना आदि तव,तन विस्तार अनूप।।
चकाचौंध अति तेज है, जैसे सूर्य प्रकाश।
तेजोमय सर्वत्र है, मुकुट, चक्र अविनाश।। 17
परम् आद्य प्रभु ज्ञेय हैं, सकल आश्र ब्रह्माण्ड।
अव्यय और पुराण हैं,स्वयं आप भगवान।। 18
अनत भुजाएँ आपकी, सूर्य-चंद्र हैं नैन
आदि,मध्य न अंत है, तेज अग्नि-से सैन। 19
मुख में अनगिन लोक हैं, दिग्दिगंत परिव्याप्त।
रूप अलौकिक देखकर, भय से सब हैं आप्त।। 20
शरणागत हैं देवगण, दिखते अति भयभीत।
सब करते हैं प्रार्थना, ऋषिगण सहित विनीत।। 21
शिव के विविधा रूप हैं, यक्ष, असुर गंधर्व
सिध्य-साध्य,आदित्य वसु, मरुत-पित्रगण सर्व।। 22
यह विराट अवतार लख, विचलित होते लोक।
अंग भयानक देखकर, बढ़ा हृदय भय शोक।। 23
सर्वव्याप प्रभु विष्णु का, रूप अलौकिक देख।
धैर्य न धारण हो रहा, मन भी रहित विवेक।। 24
मुझ पर आप प्रसन्न हों, हे प्रियवर देवेश।
प्रलय अग्नि मुख देखकर, मन में बढ़ा कलेश।। 25
कौरव दल के योद्धा, मुख में करें प्रवेश।
दाँतों में सब पिस रहे, बचा न कोई शेष।। 26
सौ सुत सब धृतराष्ट्र के, भीष्म, द्रोण सह कर्ण।
सभी प्रमुख योद्धा मरे, देख रहा सब वर्ण।। 27
नदियाँ जातीं जिस तरह, प्रिय के गाँव समुद्र।
उसी तरह योद्धा मिले, मुख में होते बद्ध।। 28
मुख में देखूँ वेग-सा, पूरा ही संसार।
अग्निशिखा में जिस तरह, जलें पतिंगे क्षार।।29
जलते मुख में आ रहे, निगल रहे सब आप।
इस पूरे ब्रह्मांड को, करें प्रकाशित आप।। 30
कृष्ण मुझे बतलाइए, उग्र रूप में कौन।
करता हूँ मैं प्रार्थना, तोड़ें अपना मौन।। 31
श्री भगवान ने अर्जुन से कहा
सकल जगत वर्तमान का, करने आया नाश।
पाँच पाण्डव बस बचें, सबका करूँ विनाश।। 32
उठो, लड़ो, तैयार हो, यश का करना भोग।
ये योद्धा पहले मरे, तुम निमित्त संयोग।। 33
भीष्म, द्रोण, जयद्रथ सहित,समझ मरे सब पूर्व।
तत्पर होकर तुम करो,केवल कर्म अपूर्व।। 34
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—–
संजय कह धृतराष्ट्र से , अर्जुन काँपे वीर।
हाथ जोड़ करता विनय, जय-जय हे! यदुवीर।। 35
अर्जुन ने श्रीभगवान कृष्ण से भयभीत होकर यह वचन कहे——
जो प्रभु का सुमिरन करे, होते हर्ष विभोर।
असुर सभी भयभीत हैं, भाग रहे चहुँओर।। 36
सबके सृष्टा आप हैं, हे अनन्त देवेश।
अक्षर परमा सत्य हैं, जगत परे हैं शेष।। 37
आप सनातन पुरुष हैं, आप सदय सर्वज्ञ।
आप सभी में व्याप्त हैं, दृश्य जगत सब अज्ञ।। 38
परम् नियंता वायु के, अग्नि सलिल राकेश।
प्रपितामह, ब्रह्मा तुम्हीं, विनती सुनो ब्रजेश। 39
शक्ति असीमा आप हैं,वंदन बारंबार।
आप सर्वव्यापी प्रभो, विनती सुनो पुकार।। 40
सखा जान हठपूर्वक, विनय सुनो हरि कृष्ण।
अज्ञानी हूँ मैं प्रभो, हरो हृदय के विघ्न।। 41
मित्र समझ, अपमान कर, किए कई अपराध।
क्षमा करो मैं मंद मति, सुन लो प्रियवर साध।। 42
चर-अचरा के जनक हैं, गुरुवर पूज्य महान।
तुल्य न कोई आपके, तीनों लोक जहान।।43
सब जीवों के प्राण हैं, आप पूज्य भगवान।
क्षमा करें अपराध सब, और परम् कल्यान।। 44
दर्शन रूप विराट के, पाकर मैं भयभीत।
कृष्ण रूप दिखलाइए, हे केशव जगमीत । 45
शंख, चक्र धारण करो, गदा,पद्म युत रूप।
चतुर्भुजी छवि धाम का, दर्शन दिव्य स्वरूप।। 46
श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा
शक्ति पुंज मेरा अमित, अर्जुन सुन प्रिय लाल।
विश्वरूप तेजोमयी , था यह दृश्य विशाल।। 47
विश्वरूप इस दृश्य को,दृष्ट न कोई पूर्व।
यज्ञ, तपस्या, दान से, भी न मिला अपूर्व।। 48
रूप भयानक देखकर, विचलित मन का मोह।
प्रियवर इसे हटा रहा, देख रूप मनमोह।। 49
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा
रूप चतुर्भुज वास्तविक, आए श्रीभगवान।
अन्तस् में फिर आ गए, पुरुषोत्तम श्रीमान।। 50
अर्जुन ने श्रीभगवान से कहा
मनमोहक छवि देखकर, अर्जुन हुआ प्रसन्न।
सुंदर मानव रूप से, मिटे मोह अवसन्न।। 51
जो छवि तुम अब देखते, यह है ललित ललाम।
देव तरसते हैं जिसे,पाने को अविराम।। 52
दिव्य चक्षु से देख लो, मेरी छवि अभिराम।
तप-योगों से ना मिलें, बीतें युग-जुग याम।। 53
जब अनन्य हो भक्ति तब, दर्शन हों दुर्लभ्य।
ज्ञान-भक्ति जो जान ले, मिले कृष्ण- गंतव्य। 54
शुद्ध भक्ति में जो रमें, कल्मष कर परित्यक्त।
कर्म करें मेरे लिए, मम प्रिय ऐसे भक्त।। 55
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” विराट रूप ” ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – ककनूस
‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’
उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।
फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।
मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।
अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।
लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।
फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।
ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’
अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
सुबह का समय है। गाय का थैलीबंद दूध लेने के लिए रोज़ाना की तरह पैदल रवाना हुआ। यह परचून की एक प्रसिद्ध दुकान है। यहाँ हज़ारों लीटर दूध का व्यापार होता है। मुख्य दुकान नौ बजे के लगभग खुलती है। उससे पूर्व सुबह पाँच बजे से दुकान के बाहर क्रेटों में विभिन्न ब्रांडों का थैलीबंद दूध लिए दुकान का एक कर्मचारी बिक्री का काम करता है।
दुकान पर पहुँचा तो ग्राहकों के अलावा किसी नये ब्रांड का थैलीबंद दूध इस दुकान में रखवाने की मार्केटिंग करता एक अन्य बंदा भी खड़ा मिला। उसके काफी जोर देने के बाद दूधवाले कर्मचारी ने भैंस के 50 लीटर दूध रोज़ाना का ऑर्डर दे दिया। मार्केटिंग वाले ने पूछा, “गाय का दूध कितना लीटर भेजूँ?” ….”गाय का दूध नहीं चाहिए। इतना नहीं बिकता,” उत्तर मिला।…”ऐसे कैसे? पहले ही गायें कटने लगी हैं। दूध भी नहीं बिकेगा तो पूरी तरह ख़त्म ही हो जायेंगी। गाय बचानी चाहिए। हम ही लोग ध्यान नहीं देंगे तो कौन देगा? चाहे तो भैंस का दूध कुछ कम कर लो पर गाय का ज़रूर लो।”….”बात तो सही है। अच्छा गाय का भी बीस लीटर डाल दो।” ..संवाद समाप्त हुआ। ऑर्डर लेकर वह बंदा चला गया। दूध खरीद कर मैंने भी घर की राह ली। कदमों के साथ चिंतन भी चल पड़ा।
जिनके बीच वार्तालाप हो रहा था, उन दोनों की औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर थी। अलबत्ता जिस विषय पर वे चर्चा कर रहे थे, वह शिक्षा की सर्वोच्च औपचारिक पदवी की परिधि के सामर्थ्य से भी बाहर था। वस्तुतः जिन बड़े-बड़े प्रश्नों पर या प्रश्नों को बड़ा बना कर शिक्षित लोग चर्चा करते हैं, सेमिनार करते हैं, मीडिया में छपते हैं, अपनी पी.आर. रेटिंग बढ़ाने की जुगाड़ करते हैं, उन प्रश्नों को बड़ी सहजता से उनके समाधान की दिशा में सामान्य व्यक्ति ले जाता है।
एक सज्जन हैं जो रोज़ाना घूमते समय अपने पैरों से फुटपाथ का सारा कचरा सड़क किनारे एकत्रित करते जाते हैं। सोचें तो पैर से कितना कचरा हटाया जा सकता है..! पर टिटहरी यदि रामसेतु के निर्माण में योगदान दे सकती है तो एक सामान्य नागरिक की क्षमता और उसके कार्य को कम नहीं समझा जाना चाहिए।
आकाश की ओर देखते हुए मनुष्य से प्राय: धरती देखना छूट जाता है। जबकि सत्य यह है कि सारा बोझ तो धरती ने ही उठा रखा है। धरती की ओर मुड़कर और झुककर देखें तो ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपने-अपने स्तर पर समाज और देश की सेवा कर रहे हैं।
इन लोगों को किसी मान-सम्मान की अपेक्षा नहीं है। वे निस्पृह भाव से अपना काम कर रहे हैं।
युवा और किशोर पीढ़ी, वर्चुअल से बाहर निकल कर अपने अड़ोस-पड़ोस में रहनेवाले इन एक्चुअल रोल मॉडेलों से प्रेरणा ग्रहण कर सके तो उनके समय, शक्ति और ऊर्जा का समाज के हित में समुचित उपयोग हो सकेगा।
सोचता हूँ, सामान्य लोगों की असामान्य बातों और तदनुसार क्रियान्वयन पर ही जगत का अस्तित्व टिका है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆