हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – एक पत्र- अनाम के नाम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ –

☆ संजय दृष्टि  ☆ एक पत्र- अनाम के नाम ☆

(ब्लू व्हेल के बाद ‘हाईस्कूल गेम’ अपनी हिंसक वृत्ति को लेकर चर्चा में रहा। इसी गेम की लत के शिकार एक नाबालिग ने गेम खेलने से टोकने पर अपनी माँ और बहन की नृशंस हत्या कर दी थी। उस घटना के बाद लेखक की प्रतिक्रिया, उस नाबालिग को लिखे एक पत्र के रूप में मे कागज़ पर उतरी ।)

प्रिय अनाम..,

अपने से छोटे को यही संबोधन लिखने के अभ्यास के चलते लिखा गया ‘प्रिय’..पर नहीं तुम्हें ‘प्रिय’ नहीं लिख पाऊँगा। घृणित, नराधम, बर्बर जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मेरे माता-पिता ने मुझे कटुता और घृणा के संस्कार नहीं दिये। वैसे एक बात बताना बेटा…!!! …, हाँ बेटा कह सकता हूँ क्योंकि बेटा श्रवणकुमार भी हो सकता है और तुम्हारे जैसा दिग्भ्रमित क्रूरकर्मा भी।….और मैंने देखा कि तुम्हारी कल्पनातीत नृशंसता के बाद भी टीवी पर तुम्हारा पिता, तुम्हें ‘मेरा बेटा’ कह कर ही संबोधित कर रहा था। …सो एक बात बताना बेटा, कटुता और घृणा के संस्कार तो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें भी नहीं दिये थे, हिंसा के तो बिलकुल ही नहीं। फिर ऐसा क्या भर गया था तुम्हारे भीतर जो तुमने अपनी ही माँ और बहन को काल के विकराल जबड़े में डाल दिया!…उफ़!

जानते हो, आज सुबह अपनी सोसायटी के कुछ बच्चों को अपने-अपने क्रिकेट बैट की तुलना करते देखा। एक बच्चा बेहतर बैट खरीदवाने के लिए अपनी माँ से उलझ रहा था। माँ उसे आश्वासन दे रही थी कि उसे अच्छा, ठोस, मज़बूत और चौड़ा बैट खरीदवा देगी। अपनी माँ की हत्या करते समय तुम्हारे हाथ में जो बैट था, वह भी ठोस, मज़बूत और चौड़ा ही था न बेटा!…याद करो, बैट माँ ने ही दिलवाया था न बेटा!

माँ के आश्वासन के बाद उलझता यह बच्चा भी खुश हो गया। मैं सोच रहा था, कौन जाने उसके मस्तिष्क में तुम रोल मॉडेल की तरह बस जाओ। कहीं वह भी अभी से अपनी माँ के माथे की चौड़ाई और बैट की चौड़ाई की तुलना कर रहा हो। बैट इतना चौड़ा तो होना ही चाहिए कि एक ही बार में माँ का काम तमाम।…सही कह रहा हूँ न बेटा!

माँ ने शायद तुम्हें ‘हाईस्कूल गेम’ खेलने से रोका था। उन्हें डर था कि इस हिंसक खेल से तुम्हारे दिलो-दिमाग में हिंसा भर सकती है। तुम कहीं किसी पर अकारण वार न कर दो। गलती से, उन्माद में किसी की हत्या न कर बैठो।…माँ का डर सही साबित हुआ न बेटा!

जानकारी मिली है कि रोकने पर भी तुम्हारे ‘हिंसक गेम’ खेलते रहने पर चिंतित माँ ने तुम्हें एक-दो तमाचे जड़ दिये थे। तुम्हारी पीढ़ी, हमारे मुकाबले अधिक गतिशील है। हमने मुहावरा पढ़ा था, ‘ईंट का जवाब, पत्थर से दो’ पर तुमने तो चिंता का जवाब चिता से दे दिया दिया। इतनी गति भी ठीक नहीं होती बेटा!

.. और माँ ही क्यों..? वह नन्ही परी जो जन्म से तुम्हें राखी बाँधती आई, जिसने तुम्हें हमेशा रक्षक की भूमिका में देखा, जो संकट में तुम्हारी ओट को सबसे सुरक्षित स्थान समझती रही, ओट में ले जाकर उसकी ही अँतड़ियाँ तुमने बाहर निकाल दीं…बेटा!

खास बात बताऊँ, मरकर भी दोनों के मन में तुम्हारे लिए कोई दुर्भावना नहीं होगी। उनकी आत्मा चाहेंगी कि मेरे बेटे, मेरे भाई को दंड न हो, वह निर्दोष छूट जाए। सब कुछ लुट जाने के बाद तुम्हारा पिता भी तो यही चाहता है बेटा!

एक बात बताओ, खून से लथपथ माँ और बहन के पेट में कैंची और पिज्जा काटने का चाकू घोंपकर उनका मरना ‘कन्फर्म’ करते समय एक बार भी मन में यह विचार नहीं उठा कि इसी पेट में नौ महीने तुम पले थे बेटा!

तुम्हें जानकारी नहीं होगी इसलिए बता देता हूँ। मादा बिच्छू जब संतानों को जन्म देती है तो  नवजात बच्चे उसकी पीठ से चिपक जाते हैं। ये भूखे नवजात धीरे-धीरे माँ का पूरा शरीर खा जाते हैं। बच्चे को पालने के लिए माँ का मर जाना! …बिच्छू समझते हो न बेटा!

बहुत भयानक दंंश होता है बिच्छू का। पंद्रह वर्ष बच्चे को बड़ा करने के बाद उसीके हाथों अपना पेट फड़वाने से बेहतर है कि आनेवाले समय में स्त्री अपना पेट फाड़कर ही बच्चे को जन्म देने लगे। संतान का आगमन, माँ का गमन! ठीक कह रहा हूँ न बेटा!

ये बात अलग है कि तब संतानें पल नहीं पायेंगी। उन्हें अपने रक्त-माँस का दूध कर पयपान कौन करवायेगा? अपनी गोद में घंटों थपकाकर सुलायेगा कौन? खानपान, पसंद-नापसंद का ध्यान रखेगा कौन? ऐसे में तो माँ के चल बसने के कुछ समय बाद संतान भी चल बसेगी। न बाँस, न बाँसुरी, न सृष्टि का मूल, न सृष्टि का फूल! यही चाहते हो न तुम बेटा!

यही चाहते हो न तुम कि सृष्टि ही थम जाये। माँ न हो, बहन न हो, बेटी न हो, कोई जीव पैदा ही न हो। लौट जायें हम शून्य की ओर!…एक बात कान खोलकर सुन लो, अपवाद से परंपराएँ नहीं डिगतीं। निरी आँख से न दिखनेवाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य और विशालकाय हाथी तक में माँ और बच्चे की स्नेह नाल समान होती है। तुम्हारे कुत्सित अपवाद से अवसाद तो है पर सब कुछ समाप्त नहीं है।

…सुनो बेटा! अपनी माँ और बहन को खो देने का दुख अनुभव कर रहे हो न! ‘नेवर एंडिंग’ मिस कर रहे हो न। एक रास्ता है। उनकी ममता और स्नेह को मन में संजोकर तुम पार्थिव रूप से न सही परोक्ष रूप से माँ और बहन को अपने साथ अनुभव कर सकते हो। तुम्हारा जीवन सुधर जाये तो वे मरकर भी जी उठेंगी।

सद्मार्ग से आगे का जीवन जीने का संकल्प लेकर अपनी माँ और बहन को पुनर्जीवित कर सकते हो।…..करोगे न बेटा..!!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (21) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा)

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌।।21।।

काम, क्रोध औ” लोभ हैं तीन नरक के द्वार

इनका करके नाश, नर करें आत्म उद्धार।।21।।

 

भावार्थ :  काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।21।।

 

Triple is the gate of this hell, destructive of the self-lust, anger, and greed,-therefore, one should abandon these three.।।21।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ घड़ी… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ मेंआज एक लघुकथा->

☆ संजय दृष्टि  ☆ घड़ी… ☆

 

अंततः यमलोक को झुकना पड़ा। मर्त्यलोक और यमलोक में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार जन्म के साथ ही बच्चे की कलाई पर यमदूत जीवनकाल दर्शाने वाली घड़ी बांध जाता। थोड़ी समझ आते ही अब हर कोई कलाई पर बंधी घड़ी की सूइयाँ पीछे करने लग गया।

वह अकाल मृत्यु का युग था। उस युग में हर कोई जवानी में ही गुज़र गया।

केवल एक आदमी उस युग में बेहद बुजुर्ग होकर गुज़रा। सुनते हैं, उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी बचपन में ही उतार फेंकी थी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (20) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌ ।।20।।

अर्जुन ऐसे अधम का दुख न कभी समाप्त

मुझे न पा, करते सदा दुष्ट अधम गति प्राप्त ।।20।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं ।।20।।

Entering into demoniacal wombs and deluded birth after birth, not attaining Me, they thus fall, O Arjuna, into a condition still lower than that!।।20।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चातक… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चातक… ☆

 

…माना कि अच्छा लिखते हो पर कुछ जमाने को भी समझो। दुनियादारी सीखो। हमेशा कोई अमृत नहीं पी सकता। कुछ मिर्च- मसालेवाला लिखो। नदी, नाला, पोखर, गड्ढा जो मिले , उसमें उतर जाओ, अपनी प्यास बुझाओ। सूखा कंठ लिये कबतक जी सकोगे?

…चातक कुल का हूँ। पीऊँगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अन्यथा मेरी तृष्णा, मेरी नियति बनी रहेगी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (19) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

ऐसे द्वेषी नराधम का है भिन्न संसार

जन्म आसुरी योनि में इनका बारम्बार ।।19।।

 

भावार्थ :  उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ॥19॥

 

These cruel haters, the worst among men in the world,-I hurl all these evil-doers for ever into the wombs of demons only.।।19।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ फेरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ फेरा  ☆

अथाह अंधेरा

एकाएक प्रदीप्त उजाला

मानो हजारों

लट्टू चस गए हों,

नवजात का आना

रोना-मचलना

थपकियों से बहलना,

शनै:-शनै:

भाषा समझना,

तुतलाना

बातें मनवाना

हठी होते जाना,

उच्चारण में

आती प्रवीणता,

शब्द समझकर

उन्हें जीने की लीनता,

चरैवेति-चरैवेति…,

यात्रा का

चरम आना

आदमी का हठी

होते जाना,

येन-केन प्रकारेण

अपनी बातें मनवाना,

शब्दों पर पकड़

खोते जाना,

प्रवीण रहा जो कभी

अब उसका तुतलाना,

रोना-मचलना

किसी तरह

न बहलना,

वर्तमान भूलना

पर बचपन उगलना,

एकाएक वैसा ही

प्रदीप्त उजाला

मानो हजारों

लट्टू चस गए हों

फिर अथाह अंधेरा..,

जीवन को फेरा

यों ही नहीं

कहा गया मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 10:10 बजे

शनिवार, 26.5.18

# सजग रहें, सतर्क रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (18) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।18।।

अंहकार मद क्रोधवश करते प्रभु से द्वेष

निंदा करते सभी की, खुद को समझ विशेष।।18।।

 

भावार्थ :  वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥

 

Given over to egoism, power, haughtiness, lust and anger, these malicious people hate me in their own bodies and those of others.।।18।।

 

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (17) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌।।17।।

 

खुद को अनुपम मान के, धनाभिमान में मस्त

केवल झूठे नाम हित करते झूठे यज्ञ ।।17।।

 

भावार्थ :  वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं।।17।।

Self-conceited, stubborn, filled with the intoxication and pride of wealth, they perform sacrifices in name, through ostentation, contrary to scriptural ordinances.।।17।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (15-16) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।15।।

 

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16।।

 

मैं ही एक कुलीन हॅू, मुझ सा दूजा कौन ?

यही सोचते जग डरा मेरे सामने मौन ।।15।।

 

भिन्न विभ्रमों में पड़े, मोह जाल में बद्ध

काम भोग आसक्त ये पाते नरक प्रसिद्ध।।16।।

 

भावार्थ :  मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं।।15-16।।

“I am rich and born in a noble family. Who else is equal to me? I will sacrifice. I will give (charity). I will rejoice,”-thus, deluded by ignorance,।।15।।

Bewildered by  many  a  fancy,  entangled  in  the  snare  of  delusion,  addicted  to  the gratification of lust, they fall into a foul hell.।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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