श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – चुप्पियाँ ☆
दस घंटे, चुप्पी और एक लघु कविता संग्रह का जन्म-
घटना 2018 की जन्माष्टमी की है। उस दिन मैंने लिखा,
“जन्माष्टमी का मंगल पर्व और माँ शारदा की अनुकंपा का दुग्ध-शर्करा योग आज जीवन में उतरा। कल रात लगभग 9 बजे ‘चुप्पी’ पर एक कविता ने जन्म लिया। फिर देर रात तक इसी विषय पर कुछ और कविताएँ भी जन्मीं। सुबह जगा तो इसी विषय की कविताओं के साथ। दोपहर तक कविताएँ निरंतर दस्तक देती रहीं, कागज़ पर जगह बनाती रहीं। रात के लगभग अढ़ाई घंटे और आज के सात, कुल जमा दस घंटे कह लीजिए सृजन के। इन दस घंटों में ‘चुप्पी’ पर चौंतीस कविताएँ अवतरित हुईं। इससे पहले भी अनेक बार कई कविताओं की एक साथ आमद होती रही है। एक ही विषय पर अनेक कविताएँ एक साथ भी आती रही हैं। अलबत्ता एक विषय पर एक साथ इतनी कविताएँ पहली बार जन्मीं। एक लघु कविता संग्रह ही तैयार हो गया। ज्ञानदेवी माँ सरस्वती और सर्वकलाओं के अधिष्ठाता योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति नतमस्तक हूँ।”
‘चुप्पियाँ’ क्षितिज प्रकाशन के पास प्रकाशनार्थ है। लॉकडाउन खुलने के बाद संग्रह आएगा।
आज से प्रतिदिन इस विषय पर दो रचनाएँ साझा करूँगा। समय निकाल कर पढ़िए इन रचनाओं को और अपनी राय अवश्य दीजिए।
☆ चुप्पियाँ – 1 ☆
वे निरंतर
कोंच रहे हैं मुझे,
……लिखो!
मैं चुप हो गया हूँ..,
अपनी सुविधा
में ढालकर,
मेरे लेखन की
शक्ल देकर,
अब बाज़ार में
चस्पा की जा रही है
मेरी चुप्पी..,
बाज़ार में मची धूम पर
क्या कहूँ दोस्तो,
मैं सचमुच चुप हूँ!
(1.9.18, रात 8.59 बजे)
☆ चुप्पियाँ – 2 ☆
मेरे भीतर जम रही हैं
चुप्पी की परतें,
मेरे भीतर बन रही है
एक मोटी-सी चादर,
मैं मुटा रहा हूँ…,
आलोचक इसे
खाल का मोटा होना
कह सकते हैं..,
कुछ अवसरसाधु
इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं,
मैं चुप हूँ, डरता हूँ
कहीं पिघल न जाए चुप्पी
इसके लावे की जद में
आ न जाएँ सारे आलोचक,
सारे अवसर साधु,
विनाश की कीमत पर
सृजन नहीं चाहता मैं!
# घर में रहें। सुरक्षित रहें।
1.9.18, रात 9:56 बजे
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603