हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ ☆ आध्यात्मिक अभियान – ‘आपदां अपहर्तारं’ के सफल एक वर्ष पूर्ण ☆ प्रणेता – श्री संजय भारद्वाज एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ आध्यात्मिक अभियान – ‘आपदां अपहर्तारं’ के सफल एक वर्ष पूर्ण ☆ प्रणेता – श्री संजय भारद्वाज एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज ☆

(इस आपदा के समय सभी लोग किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मानवता में अपना योगदान दे रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी सीमायें हैं। कोई व्यक्तिगत रूप से, कोई चिकित्सकीय सहायता के रूप से तो कोई आर्थिक सहायता के रूप से अपना योगदान दे रहे हैं।  

ऐसे में कुछ लोग सम्पूर्ण मानवता के लिए अपना अभूतपूर्व आध्यात्मिक योगदान दे रहे हैं। उनका मानना है कि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार यदि हम सामूहिक रूप से प्रार्थना, श्लोकों का उच्चारण करें तो  समस्त भूमण्डल में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण होता है और “वसुधैव कुटुम्बकम” की अवधारणाना के अंतर्गत समस्त मानवता को इसका सकारात्मक लाभ अवश्य मिलता है। इस आध्यात्मिक अभियान के प्रणेता श्री संजय भारद्वाज जी के हम हृदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारी जिज्ञासा स्वरुप ह्रदय में उत्पन्न कुछ प्रश्नों का उत्तर एक साक्षात्कार स्वरुप दिया है। इस सकारात्मकता का अनुभव मैंने स्वयं अपने “होम आइसोलेशन” के समय प्राप्त किया है। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि वर्तमान परिस्थितयों में आपदा के इन क्षणों (लॉक -डाउन,  क्वारंटाइन और आइसोलेशन) में अध्यात्म द्वारा स्वयं एवं अपने आसपास सकारात्मक ऊर्जा के संचरण के लिए आपकी भी अध्यात्म सम्बन्धी जिज्ञासाओं की पूर्ति आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” के इस साक्षात्कार के माध्यम से पूर्ण हो सकेगी।

विदित हो कि इस आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” एक आज एक वर्ष पूर्ण हो जायेंगे और आपके ही एक और अभियान “हिंदी आंदोलन” ने इस वर्ष अपने सफल 26 वर्ष पूर्ण किये हैं। इस निःस्वार्थ वैश्विक एवं आध्यात्मिक मानव सेवा के लिए इन दोनों अभियानों के प्रणेताओं श्री संजय भारद्वाज जी  एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी को  ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें। )

प्रश्न – आपके द्वारा स्थापित हिन्दी आंदोलन परिवार को 26 सफल वर्ष हो चुके। गत वर्ष से आपने यह आध्यात्मिक अभियान आरंभ किया।   कृपया दोनों की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें।

उत्तर – हिन्दी आंदोलन परिवार मूलरूप से साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित संस्था है। भाषा सभ्यता की वीणा और संस्कृति की वाणी है। विभिन्न वर्गों के अवलोकन और अध्ययन से अनुभव हुआ कि विदेशी भाषा के प्रयोग ने हम भारतीयों में दंभ और खोखलापन भर दिया है। हम निरंतर अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। समुदाय की जड़ों को हरा रखने रखने में भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कवि कुसुमाग्रज बाढ़ की विभीषिका में भी नदी को गंगा नहीं अपितु ‘गंगा माई’ कहकर संबोधित करते हैं। संस्कृति का यह धरातल आपकी अपनी भाषा देती है। फलत: भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करने का मानस बना। सबके सहयोग से गत 26 वर्ष की अखंड यात्रा में हिंदी आंदोलन परिवार, इस क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय स्थान बना चुका है।

जहाँ तक प्रश्न आध्यात्मिक अभियान का है, मेरा मानना है कि अध्यात्म मनुष्य में इनबिल्ट है। अध्यात्म का अर्थ है अपने चारों। मनुष्य जैसे-जैसे स्वयं का समग्र अध्ययन करने लगता है, उसके भीतर अपने अस्तित्व के प्रति जिज्ञासा बढ़ने लगती है।अपने केंद्र तक पहुँचने की यह जिज्ञासा सौम्य अथवा तीव्र रूप में प्रत्येक  मनुष्य में होती है पर अधिकांश को लगता है कि अध्यात्म तो वानप्रस्थ आश्रम से आरंभ करेंगे। कुछ तो अध्यात्म के लिए  संन्यास आश्रम की प्रतीक्षा में होते हैं। विशेष बात यह कि इनमें से हरेक जानता है कि जीवन क्षणिक है। इसका अर्थ है कि हर क्षण में पूरा जीवन है। ऐसे में अध्यात्म के लिए जीवन के किसी पड़ाव की प्रतीक्षा करना कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि अभी तो श्वास लेने का समय नहीं है, पचास वर्ष के बाद  लेना आरंभ करेंगे। होना तो यह चाहिए कि थोड़ी समझ आने के साथ ही अध्यात्म से जुड़ना हो जाना चाहिए।

गतवर्ष पहली बार महामारी ने मनुष्य की भौतिक रफ़्तार पर अंकुश लगा दिया। भय और लॉकडाउन ने लोगों को घर में कैद कर दिया था। निराशा-सी छा रही थी। मानस में लगातार चल रहा था कि इस महामारी का सामना करने के लिए मनोबल की आवश्यकता है। मनोबल मिलता है आस्था से। आस्था का स्रोत है अध्यात्म। फलत: हमने कोविड के विरुद्ध सारे दिशा-निर्देश पालने के साथ-साथ अध्यात्म को अपनाया। इसी पृष्ठभूमि में ‘आपदां अपहर्तारं’ आध्यात्मिक समूह और अभियान का श्रीगणेश हुआ। इस समूह में साधक अपनी साधना का पचास प्रतिशत कोविड के समूल नाश के लिए अर्पित करते हैं।

प्रश्न – आपकी शैक्षिक पृष्ठभूमि केमिस्ट्री और फार्मा क्षेत्र की है। फिर अध्यात्म का पथ कैसे चुना? 

उ- विज्ञान जीवन को देखना सिखाता है।  कहता है, जो दिख रहा है वही घट रहा है। अध्यात्म स्थूल विज्ञान को सूक्ष्म  ज्ञान के मार्ग पर ले जाता है। कहता है, जो घटता है वही दिखता है। देखने को दृष्टि से संपन्न करता है अध्मात्म। फार्मेसी के फॉर्मूलेशन हों या केमिस्ट्री के इक्वेशन, संग से ही संघ बनता है। ज्ञान-विज्ञान का संघ, जिज्ञासाओं के शमन के पथ पर ला खड़ा करता है।

प्रश्न – समूह का नाम आपदां अपहर्तारं क्यों रखा?

उ.- श्रीरामरक्षास्तोत्रम् में मेरा अटूट विश्वास है। मेरे पिता जी इसके पाठ किया करते थे। बुधकौशिक ऋषि द्वारा अनुष्टुप छंद में रचित यह स्तोत्र सकारात्मक ऊर्जा का साकार शब्दब्रह्म है। इसकी सकारात्मक ऊर्जा आपने स्वयं भी अनुभव की है। गत वर्ष अप्रैल- मई का समय भारत में कोविड-19 का शुरुआती समय था। विश्व पहली बार एक अनजान महामारी से जूझ रहा था। श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का 35वाँ श्लोक है,

आपदां अपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्, लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नमाम्यहम्।

हमें आपदा के विरुद्ध लड़ना था, अत: नामकरण आपदां अपहर्तारं किया।

श्रीमती सुधा भारद्वाज 

प्रश्न–दोनों अभियानों में आप दंपति की  सहभागिता अभूतपूर्व एवं अनुकरणीय है। अपने कार्य, दोनों अभियान एवं दैनिक जीवन, ये सब में आप लोग कैसे मैनेज कैसे कर पाते हैं?

उ.- हम सारी आपाधापी के बीच आजीवन साँस भी तो ले रहे होते हैं। क्या कभी विचार होता है कि साँस लेना कैसे मैनेज कर लेते हैं। विनम्रता से मेरा मानना है कि जो भीतर प्रकृतिगत है, सामान्यत: उसे मैनेज नहीं करना पड़ता।  जीवन क्षण-क्षण बीत रहा है। उसका बीतना हम रोक नहीं सकते लेकिन जीवन का रीतना अवश्य रोका जा सकता है। जीवन के रिक्त में अध्यात्म का रिक्थ उँड़ेलने का प्रयास करें तो सामंजस्य स्वयंमेव, प्रकृतिगत हो जाता है।

प्रश्न – साहित्य एवं अध्यात्म दोनों अलग-अलग विषय हैं। आपके साहित्य में कहीं न कहीं अध्यात्म की छाप दिखाई पड़ती है किन्तु दोनों के मध्य एक अदृश्य रेखा भी दिखाई देती है। आप दोनों के मध्य संतुलन कैसे बना पाते हैं?

उ.- ‘अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते’, योगेश्वर का यह कथन साहित्य और अध्यात्म का अंतर्सम्बंध अभिव्यक्त करने के लिए ‘भगवान उवाच’ है। अध्यात्म अपने अध्ययन के लिए प्रवृत्त करता है। आत्माध्ययन श्रेष्ठ मनुष्य बनने के पथ पर ले जाता है। चिंतन करें कि सामाजिक के परिवेश में  मनुष्य की भूमिका क्या है? मनुष्य समाज की इकाई है। साहित्य अर्थात समाज का हित। स्वाभाविक है कि स्वाध्यायी, श्रेष्ठ समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। उसका साहित्य अमृत बाँटेगा, हलाहल नहीं। अत: मेरा मानना है कि साहित्य और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अध्यात्म  का एक अधिवास है साहित्य जबकि साहित्य की नाभि में अध्यात्म का वास है।

प्रश्न – अध्यात्म में व्यक्तिगत साधना का चलन है।आपने सामूहिक साधना का मार्ग चुना।

उ- व्यक्तिगत और समष्टिगत में अंतर कहाँ है?   सनातन दर्शन मनुष्य को बाँधता नहीं अपितु मुक्त करता है। हमारी मीमांसा रोकती नहीं, विस्तार का मार्ग प्रशस्त करती है। हिंदूत्व  सामासिकता और सामूहिकता का दर्शन है। यह दर्शन आदेश नहीं करता, उपदेश देता है। स्पष्ट उपदेश है,-

 ‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।।’

जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं के लिए किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है । तात्पर्य है कि किस धारा के साथ प्रवाहित होना है, यह व्यक्ति स्वयं निर्धारित करे।

गोस्वामी जी की धारा कुछ ऐसी है,-

‘जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥

जब सबमें श्रीराम ही बसते  हैं तो व्यक्तिगत  और समष्टिगत का भेद ही मिट जाता है।

प्रश्न – आपने ‘आत्म-परिष्कार’ साधना का सूत्रपात किया। इस अभिनव संकल्पना की पृष्ठभूमि क्या रही।

उत्तर – ‘आत्म-परिष्कार’ लीक से हटकर एक साधना है।इसमें विद्यार्थी भी आप, शिक्षक भी आप, परीक्षक भी आप और निर्णायक भी आप।  मनुष्य स्वयं को सबसे अधिक जानता है। वह अपनी दुर्बलताएँ जानता है। आत्म-परिष्कार श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण की साधना है। साधक अपनी दुर्बलताओं पर स्वयं विचार करता है। अपने आपसे अपने तर्क स्वयं साझा करता है। अपने शक्तिकेंद्र स्वयं जागृत कर दुर्बलताएँ कम करने का प्रयत्न करता है। इस तरह आत्म-मूल्याकंन से लेकर आत्म-परिष्कार की सारी प्रक्रिया उसीके हाथ में होती है। किसी अन्य से उसे कुछ भी साझा नहीं करना होता। आत्म-प्रदर्शन से आत्म-दर्शन की ओर ले जाता है, आत्म-परिष्कार।

प्रश्न – श्लोकपाठ मन ही मन करें या  सस्वर होना चाहिए?

उत्तर – निर्णय आपका है। मेरा मत है कि सस्वर पाठ, सामूहिकता की पुष्टि करता है व विस्तार भी। अनेक घरों में बच्चों या युवाओं को दैनिक आरती, हनुमान चालीसा, अन्य पाठ इसलिए कंठस्थ हैं क्योंकि उनके कानों ने वर्षों तक अपने  बुजुर्गों को इन्हें गाते या पाठ करते सुना है। सस्वर पाठ का एक लाभ यह भी है कि स्वर लहरियाँ घर के कोने-कोने में पहुँचती हैं। यह सकारात्मकता अथवा पॉजिटिव एनर्जी का विस्तार है। सस्वर पाठ, सामान्य साधक को साधना की अवधि में मन भटकने से  रोकने में भी सहायता करता है।

प्रश्न – किसी मंत्र के पाठ के लिए साधारणत: 108 मनकों की माला का उपयोग करते हैं। माला में 108 अंक का क्या महत्व है?

उत्तर – इसकी अलग-अलग व्याख्या आपको मिलेगी। 12 राशियों और 9 ग्रहों के गुणनफल के संदर्भ में 108 का महत्व है। इस गुणनफल में जीवन की सारी दशा, दिशा एवं समस्त आयाम छुपे हैं। इस संदर्भ में अन्य अनेक सिद्धांत भी मान्य हैं।

प्रश्न – रंगकर्मी के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान है। रंगमंच और साहित्य व अध्यात्म एक-दूसरे को कैसे और कितना प्रभावित करते हैं।

उत्तर – जीवन ही रंगमंच है। अपितु वृहद और अधिक चुनौतियाँ व तदनुरूप अधिक अवसर प्रदान करनेवाला रंगमंच। मनुष्य एक ही समय, अनेक भूमिकाओं का निर्वहन कर रहा होता है।  मेरे अल्प ज्ञान में सारी भूमिकाएँ पूरक हैं। जगत अनन्योश्रित है। अत: एक-दूसरे से प्रभावित होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। अध्यात्म हो, साहित्य या रंगकर्म, मूलाधार तो समान है पर सबका स्थूल स्वरूप या ट्रीटमेंट भिन्न है।

प्रश्न – 19 मई 2021 को आपदां अपहर्तारं समूह को एक 1 वर्ष पूरा हो रहा है। गत एक वर्ष में समूह की यात्रा को आप किस तरह से देखते हैं।

उत्तर – वॉट्सएप समूह होते हुए भी आपदां अपहर्तारं की कार्यप्रणाली भी ईश्वर की अनुकम्पा से अभिनव ही है। आप इससे जुड़े हैं, अत: इसकी कार्यप्रणाली से भली-भाँति परिचित हैं। विभिन्न साधनाएँ ऑनलाइन हो सकती हैं, श्रीरामचरितमानस का पारायण ऑनलाइन हो सकता है, सत्संग एवं प्रबोधन ऑनलाइन हो सकता है, घर पर रहकर आप चक्रीय साधना की सामूहिकता अनुभव कर सकते हैं, यह सब सचमुच कल्पनातीत था पर कर्ता करवाता रहा, हम सब निमित्त होते गए।

श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के पाठ से प्रथम साधना आरंभ हुई थी। प्रथम साधना से ही देश भर से जुड़े साधकों ने धन्य कर दिया। विनम्रता से सूचित करना चाहता हूँ कि साधकों ने इन 365 दिनों में लगभग चार करोड़ बार नाम सुमिरन किया। विशेष बात यह कि साधना का कम से कम पचास प्रतिशत ( कुछ साधनाओं का शत प्रतिशत) कोविड की आपदा के नाश के लिए समर्पित किया गया। एक पाठ/माला से लेकर एक दिन में ग्यारह सौ से अधिक मालाजप करने वाले साधक इस परिवार में मनके की तरह सह-अस्तित्व लिए चल रहे हैं। राघव साधना हो या माधव साधना, श्रावण हो या पुरुषोत्तम मास या मार्गशीष मास साधना, श्रीगणेश साधना हो या गायत्री साधना, अथर्वशीर्ष का पाठ हो रूद्राष्टकम्, माँ शारदा साधना हो या श्रीहरि साधना, साधकों ने इस समूह को अखंड, अविरल भागीरथी बना दिया। श्रीरामचरितमानस का पारायण भी अद्भुत रहा।

हमारे आध्यात्मिक, धार्मिक ग्रंथ अनन्य साहित्यिक संपदा भी हैं। इनका पारायण आध्यात्मिक के साथ साहित्यिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर भी प्रदान करता है।

ईश्वर की असीम अनुकम्पा से आपदां अपहर्तारं समूह ने साधकों के जीवन में सकारात्मकता का अपूर्व बल दिया है। साधकों की आशु प्रतिक्रियाओं में आप इसकी प्रतिध्वनि सुन सकते हैं। मैं नतमस्तक भाव से इसे उपलब्धि के रूप में ग्रहण करता हूँ।

प्रश्न – समूह एवं आध्यात्मिक अभियान को लेकर भविष्य की योजनाएँ क्या हैं?

उत्तर – जहाँ तक समूह का प्रश्न है, इसके कार्य का निरंतर विस्तार हुआ है। विगत वर्ष भर हम पारिवारिक स्तर पर इसका प्रबंधन देखते रहे हैं। अब जिस तरह का विस्तार है, उसे देखते हुए कुछ प्रोफेशनल हाथ, साथ लेना आवश्यक हो चला है। साधकों से विचार-विमर्श कर इस पर निर्णय लेंगे।

वृहद अभियान के अंतर्गत आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के शमन के उद्देश्य से एक अनुसंधान केंद्र आरम्भ करने का स्वप्न है। इसके पहले कदम के रूप में हम कम से कम दाम या नाममात्र शुल्क पर एक से दो एकड़ ज़मीन खरीद सकने के प्रयास में हैं। मानस है कि पुणे से 30 से 35 किलोमीटर की परिधि में ऐसा स्थान हो जहाँ परिवहन के सामान्य साधन पहुँचते हों। अस्थायी विकल्प के रूप में शहर या शहर से बाहर कोई स्थान लीज़ पर ले सकने की संभावना पर भी काम चल रहा है ताकि ध्यान, सामूहिक साधना और प्रबोधन-सत्संग हो सके।

जीवन का उद्देश्य, जन्म से पहले और मृत्यु के बाद अस्तित्व, ईश्वर की साकार या निराकार अवधारणा जैसे अनेक विषयों पर इस केंद्र में मंथन करना चाहते हैं।

इच्छा है कि वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण, विभिन्न सूत्र-संहिता, अलग-अलग धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों का एक वृहद पुस्तकालय यहाँ हो।

प्रयत्न कर रहे हैं, शेष हरि इच्छा!

प्रश्न – अपने व्यक्तित्व में साहित्य और अध्यात्म में किसका पलड़ा भारी पाते हैं?

उत्तर – लेखन और अध्यात्म मेरा समन्वित अस्तित्व हैं। मेरी वृत्ति सत्यार्थी है। साहित्य सत्य का अन्वेषण करता है। सत्य के साथ किसी विशेषण का प्रयोग उचित नहीं, फिर भी कहना चाहूँगा कि अध्यात्म परम सत्य तक ले जाता है। मैं आजीवन सत्यार्थी बना रहना चाहता हूँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

टीप –  नाटक भिखारिन की मौत श्रृंखला का प्रकाशन कल से पुनः यथावत रहेगा।

? संजय दृष्टि – भारतीय नववर्ष : परंपरा और विमर्श ?

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी है। यही कारण है कि जन्म, परण और मरण तीनों के साथ उत्सव जुड़ा है। इस उत्सवप्रियता का एक चित्र इस लेखक की एक कविता की पंक्तियों में देखिए-

पुराने पत्तों पर नई ओस उतरती है,

अतीत की छाया में वर्तमान पलता है,

सृष्टि यौवन का स्वागत करती है,

अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है।

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। हमारी आँचलिक रीतियों में कालगणना के लिए लगभग तीस प्रकार के अलग-अलग कैलेंडर या पंचांग प्रयोग किए जाते रहे हैं। इन सभी की मान्यताओं का पालन किया जाता तो प्रतिमाह कम से कम दो नववर्ष अवश्य आते। इस कठिनाई से बचने के लिए स्वाधीनता के बाद भारत सरकार ने ग्रेगोरियन कैलेंडर को मानक पंचांग के रूप में मानता दी। इस कैलेंडर के अनुसार 1 जनवरी को नववर्ष होता है। भारत सरकार ने सरकारी कामकाज के लिए देशभर में शक संवत चैत्र प्रतिपदा से इस कैलेंडर को लागू किया पर तिथि एवं पक्ष के अनुसार मनाये जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों की गणना में यह कैलेंडर असमर्थ था। फलत: लोक संस्कृति में पारंपरिक पंचांगों का महत्व बना रहा। भारतीय पंचांग ने पूरे वर्ष को 12 महीनों में बाँटा है। ये महीने हैं, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ एवं फाल्गुन। चंद्रमा की कला के आरोह- अवरोह के अनुसार प्रत्येक माह को दो पक्षों में बाँटा गया है। चंद्रकला के आरोह के 15 दिन शुक्लपक्ष एवं अवरोह के 15 दिन कृष्णपक्ष कहलाते हैं। प्रथमा या प्रतिपदा से आरंभ होकर कुल 15 तिथियाँ चलती हैं। शुक्लपक्ष का उत्कर्ष पूर्णिमा पर होता है। कृष्ण पक्ष का अवसान अमावस्या से होता है। देश के बड़े भूभाग पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।

महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढीपाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला जरीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगे घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। जरी के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढीपाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। मान्यता वही कि ब्रह्मदेव ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। आम की पत्तियों एवं रंगावली से घर सजाए जाते हैं। ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु का पूजन होता है। वर्ष भर का पंचांग जानने के लिए मंदिरों में जाने की प्रथा है। इसे ‘पंचांग श्रवणं’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। ‘कोडिवस्त्रम्’ अर्थात नये वस्त्र धारण कर नागरिक किसी मंदिर या धर्मस्थल में दर्शन के लिए जाते हैं। इसे ‘विशुकणी’ कहा जाता है। इसी दिन अन्यान्य प्रकार के धार्मिक कर्मकांड भी संपन्न किये जाते हैं। यह प्रक्रिया ‘विशुकैनीतम’ कहलाती है। ‘विशुवेला’ याने प्रभु की आराधना में मध्यान्ह एवं सायंकाल बिताकर विशु विराम लेता है।

असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर किये जाने वाले ‘मुकोली बिहू’ नृत्य के कारण यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

संकीर्ण धार्मिकता से ऊपर उठकर अनन्य प्रकृति के साथ चलने वाली भारतीय संस्कृति का मानव समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। इस व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भिन्न धार्मिक संस्कृति के बावजूद बांग्लादेश में ‘पोहिला बैसाख’ को राष्ट्रीय अवकाश दिया जाता है। नेपाल में भी भारतीय नववर्ष वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को पूरी धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर मैं भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

उष्ण राष्ट्र होने के कारण भारत में शीतल चंद्रमा को प्रधानता दी गई। यही कारण है कि भारतीय पंचांग, चंद्रमा की परिक्रमा पर आधारित है जबकि ग्रीस और बेबिलोन में कालगणना सूर्य की परिक्रमा पर आधारित है।

भारत में लोकप्रिय विक्रम संवत महाराज विक्रमादित्य के राज्याभिषेक से आरंभ हुआ था। कालगणना के अनुसार यह समय ईसा पूर्व वर्ष 57 का था। इस तिथि को सौर पंचांग के समांतर करने के लिए भारतीय वर्ष से 57 साल घटा दिये जाते हैं।

इस मान्यता और गणित के अनुसार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा याने दीपावली के अगले दिन भी नववर्ष मानने की प्रथा है। गुजरात में नववर्ष इस दिन पूरे उल्लास से मनाया जाता है। सनातन परंपरा में साढ़े मुहूर्त अबूझ माने गये हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया एवं विजयादशमी। आधा मुहूर्त याने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इसी वजह से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को पूरे भारत में व्यापारी नववर्ष के रूप में भी मान्यता मिली। कामकाज की सुविधा की दृष्टि से आर्थिक वर्ष भले ही 1 अप्रैल से 31 मार्च तक हो, पारंपरिक व्यापारी वर्ष दीपावली से दीपावली ही माना जाता है।

भारतीय संस्कृति जहाँ भी गई, अपने पदचिह्न छोड़ आई। यही कारण है कि श्रीलंका, वेस्टइंडीज और इंडोनेशिया में भी अपने-अपने तरीके से भारतीय नववर्ष मनाया जाता है। विशेषकर इंडोनेशिया के बाली द्वीप में इसे ‘न्येपि’ नाम से मनाया जाता है। न्येपि मौन आराधना का दिन है।

मनुष्य की चेतना उत्सवों के माध्यम से प्रकट होती है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि इसकी उत्सव की परंपरा के साथ जुड़ा है गहन विमर्श। भारतीय नववर्ष भी विमर्श की इसी परंपरा का वाहक है। हमारी संस्कृति ने प्रकृति को ब्रह्म के सगुण रूप में स्वीकार किया है। इसके चलते भारतीय उत्सवों और त्यौहारों का ऋतुचक्र के साथ गहरा नाता है। चैत्र प्रतिपदा में लाल पुष्पों की सज्जा हो, पतझड़ के बाद आई नीम की नयी कोंपलें हो, बैसाखी में फसल का उत्सव हो या बिहू में चावल से बना ‘पिठ’ नामक मिष्ठान। हर एक में ऋतुचक्र का सानिध्य है, प्रकृति का साथ है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला न लोभ,न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर।

परिवर्तन का संवत्सर केवल कागज़ों पर ना उतरे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो। इति।

©  संजय भारद्वाज

(सर्वाधिकार, लेखक के अधीन हैं।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 68 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 68 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का सप्तम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवद ज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सरल शब्दों में इस तरह भगवद ज्ञान दिया।

पृथापुत्र मेरी सुनो,भाव भरी सौगात।

मन मुझमें आसक्त हो, करो योगमय गात।। 1

 

दिव्य ज्ञान मेरा सुनो, सरल,सहज क्या बात।

व्यवहारिक यह ज्ञान ही, जीवन की सौगात।। 2

 

यत्नशील सिधि-बुद्धि हित, सहस मनुज में एक।

सिद्धि पाय विरला मनुज, करे एक अभिषेक।। 3

 

अग्नि, वायु, भू, जल, धरा; बुद्धि, मनाहंकार।

आठ तरह की प्रकृतियाँ, अपरा है संसार।। 4

 

पराशक्ति है जीव में, यह ईश्वर का रूप।

यही प्रकृति है भौतिकी, जीवन के अनुरूप।। 5

 

उभय शक्तियाँ जब मिलें, यही जन्म का मूल।

भौतिक व आध्यात्मिकी, उद्गम, प्रलय त्रिशूल।। 6

 

परम श्रेष्ठ मैं सत्य हूँ, मुझसे बड़ा न कोय।

सुनो धनंजय ध्यान से, सब जग मुझसे होय।। 7

 

मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज-चन्द्र-प्रकाश।

वेद मन्त्र में ओम हूँ , ध्वनि में मैं आकाश।। 8

 

भू की आद्य सुगंध हूँ, ऊष्मा की मैं आग।

जीवन हूँ हर जीव का, तपस्वियों का त्याग।। 9

 

आदि बीज मैं जीव का, बुद्धिमान की बुद्धि।

मनुजों की सामर्थ्य मैं, तेज पुंज की शुद्धि।। 10

 

बल हूँ मैं बलवान का, करना सत-हित काम।

काम-विषय हो धर्म-हित, भक्ति भाव निष्काम।। 11

 

सत-रज-तम गुण मैं सभी, मेरी शक्ति अपार।

मैं स्वतंत्र हर काल में, सकल सृष्टि का सार।। 12

 

सत,रज,तम के मोह में, सारा ही संसार।

गुणातीत,अविनाश का, कब जाना यह सार।। 13

 

दैवी मेरी शक्ति का, कोई ओर न छोर

जो शरणागत आ गया, जीवन धन्य निहोर।। 14

 

मूर्ख, अधम माया तले, असुर करें व्यभिचार।

ऐसे पामर नास्तिक, पाएँ कष्ट अपार।। 15

 

ज्ञानी, आरत लालची, या जिज्ञासु उदार।

चारों हैं पुण्यात्मा, पाएँ नित उपहार।। 16

 

ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, करे शुद्ध ये भक्ति।

मुझको सबसे प्रिय वही, रखे सदा अनुरक्ति।। 17

 

ज्ञानी सबसे प्रिय मुझे, मानूँ स्वयं समान।

करे दिव्य सेवा सदा, पाए लक्ष्य महान।। 18

 

जन्म-जन्म का ज्ञान पा, रहे भक्त शरणार्थ।

ऐसा दुर्लभ जो सुजन, योग्य सदा मोक्षार्थ।। 19

 

माया जो जन चाहते, पूजें देवी-देव।

मुक्ति-मोक्ष भी ना मिले, रचता चक्र स्वमेव।। 20

 

हर उर में स्थित रहूँ, मैं ही कृपा निधान।

कोई पूजें देवता, कोई भक्ति विधान।। 21

 

देवों का महादेव हूँ, कुछ जन पूजें देव।

जो जैसी पूजा करें, फल उपलब्ध स्वमेव।। 22

 

अल्प बुद्धि जिस देव को,भजते उर अवलोक।

अंत समय मिलता उन्हें, उसी देव का लोक।। 23

 

निराकार मैं ही सुनो,मैं ही हूँ साकार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, घट-घट पारावार।। 24

 

अल्पबुद्धि हतभाग तो, भ्रमित रहें हर बार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, धरूँ रूप साकार।। 25

 

वर्तमान औ भूत का, जानूँ सभी भविष्य।

सब जीवों को जानता, जाने नहीं मनुष्य।। 26

 

द्वन्दों के सब मोह में, पड़ा सकल संसार।

जन्म-मृत्यु का खेल ये, मोह न पाए पार।। 27

 

पूर्व जन्म, इस जन्म में, पुण्य करें जो कर्म।

भव-बन्धन से मुक्त हों,करें भक्ति सत्धर्म।। 28

 

यत्नशील जो भक्ति में, भय-बंधन से दूर।

ब्रह्म-ज्ञान,सान्निध्य मम्,पाते वे भरपूर।। 29

 

जो भी जन ये जानते, मैं संसृति का सार।

देव जगत संसार का , मैं करता उद्धार।। 30

 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतगीता सातवाँ अध्याय,” भगवद ज्ञान ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सोहर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सोहर ?

साँस उखड़ने लगी है,

उमंग भरने लगी है,

नवांकुरण का सोहर

मेरी आँख लिखने लगी है!

©  संजय भारद्वाज

30.3.2021, प्रात: 7.47 बजे

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खारी बूँद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – खारी बूँद  ?

वह समंदर

क्या हुआ,

पछता रहे हैं सारे

जो उसकी आँख में

कभी आँसू

बो कर गये थे!

©  संजय भारद्वाज

(अपराह्न 1:30 बजे, 26.3.19)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – होली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? ‘एक भिखारिन की मौत’ के अंग्रेज़ी संस्करण का विमोचन ?

Book Launch of English Version of Ek Bhikharin ki Maut (Death of a Beggar Woman).

Authored By- Sanjay Bhardwaj

Translated by-Dr Meenakshi Pawha,

Chief Guest- Dr Ashutosh Misal,

Guest of Honour- Dhanashree Heblikar,

Part of play narrated by- Aashish Tripathi and Ankita Narvanekar,

Participation- Veenu Jamuar, Ritesh Anand,

Anchored By-Kritika Bhardwaj.

विगत दिवस सम्पन्न हुए ‘एक भिखारिन की मौत’ के अंग्रेज़ी संस्करण के विमोचन का आयोजन उपरोक्त यूट्युब लिंक पर अपलोड किया है। देखियेगा, सुनियेगा, मित्रों और परिचितों से अवश्य शेयर कीजिएगा। इस सन्दर्भ में हम अलग से एक विशेष लेख देने का प्रयत्न करेंगे।  

ई- अभिव्यक्ति की ओर से  श्री संजय भारद्वाज जी को हार्दिक शुभकामनाएं

? संजय दृष्टि – होली ?

रंग मत लगाना

मुझे रंगों से परहेज़ है

उसने कहा था,

अलबत्ता

उसका चेहरा

चुगली खाता रहा

आते-जाते

चढ़ते-उतरते

फिकियाते-गहराते

खीझ, गुस्से,

झूठ, दंभ,

कूपमंडूकता,

दिवालिया संभ्रांतपन के

अनगिनत रंग

जताता रहा,

और रँग दे,

और.., और,

इंद्रधनुष से सरोबार तन

पहाड़ी झरने-सा कोरा मन

बढ़ चली बच्चों की टोली

होली है भाई होली !

? शुभ होली। ?

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 91 ☆ आओ संवाद करें ☆

प्रातःकालीन भ्रमण पर हूँ। देखता हूँ कि कचरे से बिक्री लायक सामान बीनने वाली एक बुजुर्ग महिला बड़ा सा-थैला लिए चली जा रही है। अंग्रेजी शब्दों के चलन के आज के दौर में इन्हें रैगपिकर कहा जाने लगा है। बूढ़ी अम्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल के पास पहुँची कि पीछे से भागता हुआ एक कुत्ता आया और उनके इर्द-गिर्द लोटने लगा। अम्मा बड़े प्यार से उसका सिर सहलाने-थपकाने और फिर समझाने लगीं, ” अभी घर से निकली।  कुछ नहीं है पिशवी (थैले) में।  पहले कुछ जमा हो जाने दे, फिर खिलाती।”  वहीं पास के पत्थर पर बैठ गईं अम्मा और सुनाने लगी अपनी रामकहानी। आश्चर्य! आज्ञाकारी अनुचर की तरह वहीं बैठकर कुत्ता सुनने लगा बूढ़ी अम्मा की बानी। अम्मा ने क्या कहा, श्वानराज ने क्या सुना, यह तो नहीं पता पर इसका कोई महत्व है भी नहीं।

महत्व है तो इस बात का कि जो कुछ अम्मा कह रही थी, प्रतीत हो रहा था कि कुत्ता उसे सुन रहा है। महत्व है संवाद का, महत्व है विरेचन। कहानी सुनते समय ‘हुँकारा’ भरने अर्थात ‘हाँ’ कहने की प्रथा है। कुत्ता निरंतर पूँछ हिला रहा है। कोई सुन रहा है, फिर चाहे वह कोई भी हो लेकिन मेरी बात में किसी की रुचि है, कोई सिर हिला रहा है, यह अनुभूति जगत का सबसे बड़ा मानसिक विरेचन है।

कैसा विरोधाभास है कि घर, आंगन, चौपाल में बैठकर बतियाने वाले आदमी ने मेल, मैसेजिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सएप, टेलिग्राम जैसे संवाद के अनेक द्रुतगामी प्लेटफॉर्म विकसित तो कर लिए लेकिन ज्यों-ज्यों कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्मों से नज़दीकी बढ़ी, प्रत्यक्ष संवाद से दूर होता गया आदमी। अपनी अपनी एक कविता याद आती है,

“खेत/ कुआँ/ दिशा-मैदान/ हाट/  सांझा चूल्हा/  चौपाल/ भीड़ से घिरा/ बतियाता आदमी…, कुरियर/टेलीफोन/ मोबाइल/ फोर जी/  ईमेल/ टि्वटर/ इंस्टाग्राम/ फेसबुक/  व्हाट्सएप/ टेलिग्राम/  अलग-थलग पड़ा/  अकेला आदमी…”

तमाम ई-प्लेटफॉर्मों पर एकालाप सुनाई देता है।  मैं, मैं और केवल मैं का होना, मैं, मैं और केवल मैं का रोना… किसी दूसरे का सुख-दुख सुनने  का किसी के पास समय नहीं, दूसरे की तकलीफ जानने-समझने की किसी के पास शायद इच्छा भी नहीं। संवाद के अभाव में घटने वाली किसी दुखद घटना के बाद संवाद साधने की हिदायत देने वाली पोस्ट तो लिखी जाएँगी पर लिखने वाले हम खुद भी किसी से अपवादस्वरूप ही संवाद करेंगे। वस्तुत: हर वाद, हर विवाद का समाधान है संवाद। हर उलझन की सुलझन है संवाद। संवाद सेतु है। यात्रा दोनों ओर से हो सकती है। कभी अपनी कही जाय, कभी उसकी सुनी जाय। अपनी एक और रचना की कुछ पंक्तियाँ संक्षेप में बात को स्पष्ट करने में सहायक होंगी,

विवादों की चर्चा में/ युग जमते देखे/  आओ संवाद करें/ युगों को पल में पिघलते देखें/… मेरे तुम्हारे चुप रहने से/ बुढ़ाते रिश्ते देखे/ आओ संवाद करें/ रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें/…

नयी शुरुआत करें, आओ संवाद करें !

© संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महाकाव्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस ?

‘सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।’

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं अपितु रंगमंच को जिया है, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

इस अनहद नाद में अपना स्वर मिलाने वाले हर रंगकर्मी को नमन।

अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

  – संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि – महाकाव्य  ?

तुम्हारा चुप,

मेरा चुप,

चुप लम्बा खिंच गया,

तुम्हारा एक शब्द,

मेरा एक शब्द,

मिलकर महाकाव्य रच गया!

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नादानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नादानी  ?

तो तुम देख चुके

शब्दों में छिपा

मेरा आकार…,

और मैं नादान,

निराकार होने का

भरम पाले बैठा था।

 

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नौजवान ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नौजवान ?

बूढ़े किस्सों और

अबोध सपनों के बीच

बिछ जाता है

सेतु की तरह,

लोग, उसे

नौजवान कहने लगे हैं..!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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