आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (26-27) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

 

मी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।

भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ।।26।।

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।

केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्‍गै ।।27 ।।

सभी पुत्र धृतराष्ट्र के , नृपति जो रत संग्राम

भीष्म द्रोण सह कर्ण सम योद्धा कई अनाम ।। 26 ।।

दिखते घुसते मुखों में जिनमें दाँत कराल

कुछ पिस गये , कुछ अधचबे , बड़ा बुरा है हाल ।।27 ।।

 

भावार्थ :  वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं।। 26-27 ।।

 

All the sons of Dhritarashtra with the hosts of kings of the earth, Bhishma, Drona and Karna, with the chief among all our warriors,।।26।।

 

They hurriedly enter into Thy mouths with terrible teeth and fearful to behold. Some are found sticking in the gaps between the teeth, with their heads crushed to powder.।।27 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय  ☆

 

पत्थर से टकराता प्रवाह

उकेर देता है

सदियों की गाथाएँ

पहाड़ों के वक्ष पर,

बदलते काल और

ऋतुचक्र के संस्मरण

लिखे होते हैं

चट्टानों की छाती पर,

और तो और

जीवाश्म होते हैं

उत्क्रांति का एनसाइक्लोपीडिया…,

और तुम कहते हो

लिखने के लिए

शब्द नहीं मिलते!

 

घर पर रहना है, कोविड-19 को हराना है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 7:11 बजे, 26.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #33 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 33 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

मन चंचल मन चपल है, भाग रहा सब ओर।   

सांस डोर से बाँध कर, रोक राख इक ठौर ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (25) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ।। 25 ।।

प्रलय काल की अग्नि सम दाढें तव विकराल

देख तुम्हारे रूप  को है मेरा यह हाल

न ही मेरे मन शांति है , न दिशाओं का ज्ञान

हो प्रसन्न मुझ पर दया , करिये कृपा निधान ।। 25 ।।

भावार्थ :  दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हों।। 25 ।।

 

Having seen Thy mouths, fearful with teeth, blazing like the fires of cosmic dissolution, I know not the four quarters, nor do I find peace. Have mercy, O Lord of the gods! O abode of the universe!।। 25 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #43 ☆ जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 43 –  जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆

एक सुखद संयोग:
जो बाँचेगा, वही रचेगा,
जो रचेगा, वही बचेगा।..
ये मेरी पंक्तियाँ हैं जिनका उल्लेख प्रधानमंत्री जी से काशी की एक लेखिका ने किया। हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार का यह सूत्र भी है। हमारी पत्रिका ‘हम लोग’ के मुखपृष्ठ पर इसे सदा छापा भी गया है।

– संजय भरद्वाज
☆ अमृत -2 ☆

मुझे अमृत

कभी मत देना,

मिल भी जाए

तो हर लेना,

चक्रपाणि,

ये चाह मुझे

जिलाये रखती है

मंथन को

टिकाये रखती है,

मैं जीना चाहता हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #32 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

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☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 32 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

तीन बात बंधन बंधें, राग द्वेष अभिमान । 

तीन बात बंधन खुलें, शील समाधि ज्ञान ।। 

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (24) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌ ।

दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ।। 24 ।।

हे नभ को छूते हुये प्रभु ! व्यापक ज्यों काल

जलते फैले मुख सहित दीपित नेत्र विशाल

विविध रंग औ” रूप  लख मन भारी भयभीत

धैर्य – शांति सब खो गई जीवन के विपरीत ।। 24 ।।

 

भावार्थ :  क्योंकि हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करने वाले, दैदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धीरज और शान्ति नहीं पाता हूँ।। 24 ।।

 

On seeing thee (the Cosmic Form) touching the sky, shining in many colours, with mouths wide open, with large, fiery eyes, I am terrified at heart and find neither courage nor peace, O Vishnu!।। 24 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अमृत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अमृत ☆

इस ओर असुर

उस ओर भी

असुर ही,

न मंदराचल

न वासुकि

तब भी-

रोज़ मथता हूँ

मन का सागर,

जाने कितने

हलाहल निकले

एक बूँद

अमृत की चाह में!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 7:11 बजे, 26.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 36 – प्राण गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “प्राण गीता। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 36 ☆

☆ प्राण गीता

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे मित्र, हमारा मस्तिष्क चार मुख्य भावनाओं से बंधा हैं, और ये काम या वासना, क्रोध, लोभ और मोह या मैं और मेरे का अनुलग्नक हैं । हर मानव मन इन चार भावनाओं में ही घूमता रहता है । कुछ में अन्य भावनाओं की तुलना में एक अधिक और अन्य कम अनुपात में होती है, अन्य मनुष्यों के पास दूसरी अधिक और अन्य कम और इसी तरह । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति में एक समय अधिक क्रोध और लोभ हो सकता है तो उस समय उसमे मोह और काम स्वभाविक रूप से कम हो जायेंगे ऐसे ही अन्य के लिए भी सत्य हैं । इन भावनाओं की मात्रा हमारे अंदर तेजी से बदलती रहती हैं । आप ध्यान दे सकते हैं कि कभी-कभी आप अधिक काम, कम मोह, या अधिक क्रोध, और अधिक मोह और कम लोभ अनुभव करते हैं । ऐसे ही कई संयोजन संभव हैं”

तब मैंने भगवान हनुमान से पूछा, “ओह! मेरे भगवान, तो गृहस्थ द्वारा एक बिंदु पर मन को स्थिर बनाये रखने का क्या उपाय है ?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “आप इसे इस तरह से सोच सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में सभी चार भावनाओं का कुल प्रतिशत 100% होता है जिसमें चार भावनाओं का अलग अलग प्रतिशत शामिल है। अब भावनाओं को नियंत्रित करने के दो उपाय हैं एक सन्यासियों का मार्ग है और इस मार्ग में सभी चार भावनाओं काम, क्रोध, लोभ और मोह के प्रतिशत को परिवर्तित करके अनासक्ति से जुड़ना है । जब कुल 100 प्रतिशत अलगाव में परिवर्तित हो जाएंगे, तो सन्यासी को आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाएगाऔर मोक्ष मिल जायेगा ।

दूसरा मार्ग गृहस्थ आश्रम वालों के लिए है जिसमे सभी भावनाओं को बराबर प्रतिशत में लाना है। अर्थात इसे आप 25 प्रतिशत काम, 25 प्रतिशत क्रोध, 25 प्रतिशत लोभ, 25 प्रतिशत मोह की स्थिति कह सकते हैं ।

ऐसा करने से उसके मनुष्य जीवन के तीन मुख्य स्तम्भों, धर्म (वर्ण, समाज, पृष्ठभूमि के अनुसार उसके लिए निर्धारित कार्यो का निर्वाह करना), अर्थ (परिवार और समाज में उस मनुष्य की स्थिति के अनुसार जीवित रहने के लिए मूलभूत बुनियादी आवश्यकताएँ) और काम (विलासिता, सेक्स आदि की गहरी इच्छा) के लिए उसका मस्तिष्क संतुलित बनेगा । और वो अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामजिक जिम्मेदारियां अच्छी तरह से निभा पायेगा । फिर उसके जीवन की गति स्वतः ही मनुष्य जीवन के चौथे स्तम्भ मोक्ष की ओर बढ़ने लगेगी । इसलिए मध्यस्थता और व्यक्ति के लिए परिभाषित धर्म का अभ्यास करके, वह अपनी चार मुख्य भावनाओं को संतुलित कर सकता है  (अन्य भावनाएं इन चारों की ही उप-श्रेणियां होती हैं)

तब मैंने पूछा, “हे भगवान, हम अपने आस-पास इतनी उच्च नीच, छोटा बड़ा क्यों देखते हैं? एक ही तरह की परिस्थिति किसी एक के लिए बहुत अच्छी हो सकती है और वह ही परिस्थिति किसी दूसरों के लिए बुरी क्यों है?”

भगवान हनुमान ने कहा, “हर व्यक्ति केवल अपने ही ब्रह्मांड को देख सकता है, जो कि उसके अपने पक चुके कर्मों का परिणाम होता है उसका ब्रह्मांड उसके कर्मों से निर्मित होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है । यद्यपि यह बाक़ी उन लोगों के लिए वैसा ही बना रहता है जो अभी भी बंधन में हैं, क्योंकि उसके सारे कर्मों के फल उस समय भी बाक़ी होते हैं । इसके अतरिक्त अच्छे और बुरे सापेक्ष शब्द हैं। जो वस्तु मेरे लिए अच्छी है वह ही वस्तु आपके लिए बुरी हो सकती है । एक ही बात या वस्तु हमारे जीवन के एक भाग में हमारे लिए हितकारी हो सकती है और किसी अन्य भाग में वो ही समान बात या वस्तु हमारे लिए बुरी हो सकती है । बचपन में हर बच्चे को मिठाई खाना पसंद होता है । बच्चों के लिए यह अच्छा है, लेकिन जब वह ही बच्चा बूढ़ा हो जाता है और उसके शरीर के अंदर कई विकार या बीमारियाँ प्रवेश कर लेती हैं, तो वो ही मिठाई उसके स्वास्थ की लिए खराब हो जाती है । मेरे प्यारे मित्र, वह एक ही चेतना है जो हमें एक समय खुशी का अनुभव करवाती है और दूसरे समय उदासी का। आप और क्या जानना चाहते हैं?”

तब मैंने पूछा, “मेरे भगवान आप वायु देव के पुत्र हैं, और हर प्रकार की वायु पर आपका पूर्ण नियंत्रण है। आप हमारे शरीर के अंदर प्राण के रूप में प्रवाह होने वाली वायु हैं। तो तीनों लोकों में प्राण वायु के विषय में सिखाने के लिए आप से अच्छा शिक्षक और कौन होगा?

भगवान हनुमान मुस्कुराये और कहा, “ठीक है, मैं आपको प्राण वायु के रहस्य बताने जा रहा हूँ जिसका ज्ञान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है”

तब भगवान हनुमान ने मुझसे कहा, “प्राण के कारण ही यह ब्रह्मांड सक्रिय है और यह प्राण हर अभिव्यक्ति जीवन में उपस्थितहै । दुनिया के विभिन्न तत्व अलग-अलग आवृत्तियों पर प्राण के कंपन के अतरिक्त और कुछ भी नहीं हैं । आपको मनुष्य शरीर में विभिन्न प्रकार के प्राणों का ज्ञान अवश्य होगा”

मैंने कहा, “हाँ भगवान मैं हमारे शरीर के अंदर के दस प्राणों के विषय में थोड़ी बहुत जानकारी रखता हूँ, जिसमें से पाँच सबसे महत्वपूर्ण हैं- प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान है”

भगवान हनुमान जी ने कहा, “हाँ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो मन में उपस्थित विचार प्राण वायु में प्रवेश कर जाते हैं । प्राण और उदान आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं और उसे इच्छित दुनिया में ले जाते हैं । उदान रीढ़ की हड्डी के केंद्र से गुजरने वाली नाड़ी में स्थिर रहता है । मृत्यु के समय यदि उदान रीढ़ की हड्डी के ऊपरी हिस्से में है तो व्यक्ति स्वर्ग या ऊपरी लोकों में जाता है, यदि रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से में है वो निचले लोकों में जाता है और यदि बीच में, तो उसे लगभग वर्तमान के स्वरूप ही मानव जीवन मिलता है । विभीषण मैंने आपको चार मुख्य भावनाओं के विषय में बताया था, लेकिन नौ रस या भावनाएं मुख्य हैं जो आसानी से मनुष्यों में पहचानी जा सकती हैं । अब मैं आपको बता दूँ कि मस्तिष्क में भावनाएं कैसे उत्पन्न होती हैं । जब प्राण वायु शरीर में आयुर्वेदिक दोषों (वात, कफ और पित्त) के साथ मिलता हैं, तो हमारे मस्तिष्क  में रस का अनुभव होता हैं । यह प्राण द्वारा कुछ निष्क्रिय प्रतिमानों को सक्रिय करने की तरह है । उस समय पर ‘मैं’ या अहंकार को यह तय करना होता है कि क्या यह अनुभवी रस (भावना) स्वीकार करके उसका परिणाम शरीर में प्रत्यक्ष निरूपित करना है । यदि अहंकार, बुद्धि से परामर्श करने के बाद, रस का समर्थन नहीं करता है, तो यह इच्छा शक्ति के कार्य से बदल जाता है । यदि अहंकार रस का समर्थन करता है, तो बुद्धि भी कुछ नहीं कर सकती है और बुद्धि को भी उस रस को स्वीकार करना पड़ता है और वो हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रत्यक्ष उपज जाता है । जब अहंकार रस का समर्थन करता है, तो यह हमारे अहंकार की मूल प्रकृति, जिसका निर्माण मनुष्यों की चार दैनिक आवश्यकताओं, यौन-इच्छा,नींद, भोजन और आत्म-संरक्षण से होता है, पर निर्भर करता है कि वो नौ में से किस रस का समर्थन करता है । इन चारों के विभिन्न संयोजन विभिन्न प्रकार की अहंकार श्रेणियां बनाते हैं जिन्हें नौ प्रकार की भावनाओं में विभाजित किया जा सकता है ।

सभी योगों का उद्देश्य हमारी बुद्धि को इतना मजबूत बनाना है कि अहंकार द्वारा किसी भी भावना को मस्तिष्क में उपजने से पहले ही बुद्धि उसे अस्वीकार कर सके, ताकि मन किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित कर सके ।

मैंने पूछा, “भगवान, इसका अर्थ है कि हमारी सभी भावनाएं शरीर के विभिन्न विभिन्न भागों में उपस्थित आयर्वेद के तीनों दोषों के संयोजन के परिणाम और प्राण वायु के मिलने से उत्पन्न होती हैं?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “मैं आपको एक सरल उदाहरण से समझाता हूँ कि हमारे शरीर और मस्तिष्क में श्रृंगार रस या प्रेम की भावना कैसे उत्पन्न होती है । प्राण वायु का प्रवाह जब हृदय क्षेत्र से नीचे नाभि तक आता है तो पित्त दोष के साथ मिलता है । इसे याद रखें, पित्त दोष जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, इसलिए तीन संभावनाएं हैं- एक, जब जल तत्व की मात्रा अग्नि से अधिक होती है, जैसे की हमारी इस स्थिति में, तो ये प्रेम की भावना या श्रृंगार रस उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार होता है। दूसरी सम्भावना, जब अग्नि तत्व की मात्रा जल तत्व से अधिक हो तो इस परिस्थिति में क्रोध रस उत्पन्न होता है और तीसरी सम्भावना जब दोनों तत्वों अग्नि और जल की मात्रा बराबर हो, तो शाँत रस उत्पन्न होता हैं । जब यह प्राण पानी की अधिकता वाले पित्त दोष के साथ मिश्रित होता है तो यह प्रवाह मनोमय कोश की ओर बढ़ता है और अहंकार में गतिशील उत्तेजना उत्पन्न करता है, और फिर ऊपर की दिशा (हृदय के पास) की ओर बढ़ता है, यह उत्तेजना हमारे मस्तिष्क के कणों की संरचना को बहुत ही सरल स्वरूप में व्यवस्थित करती है और ज्ञात प्रतिमान पुरे शरीर में सनसनी उत्पन्न करता है । इस सनसनी को ही प्रेम कहा जाता है । अब आप समझे?”

मैं भगवान हनुमान के चरणों में गिर गया और उनसे आत्मा के विषय में बताने के लिए अनुरोध किया ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #31 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 31 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

शीलवान के ध्यान से, प्रज्ञा जाग्रत होय ।

अंतर की गांठें खुलें, मानस निर्मल होय ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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